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कल्याणकारकै भावार्थ:-उस छेद में एक योग्य दो मुखबाली नलीको रखकर थोडे २ जल उस से निकालना चाहिए । एकदम सब जल नहीं निकालना चाहिए। क्यों कि अत्यंत तृषा तीव्रमूर्छा, ज्वर व दाह इत्यादि होनेकी संभा ना रहती है ॥ १७६ ॥
यथा यथा दोपजलनुतिर्भवेत् । तथा तथा गाढतरातिबंधनम् ॥ विधाय पक्षादयवापि वामतः । समस्तदोषोदकमुत्सृजेद्बुधः ॥१७७॥
भावार्थ:- जैसे २ सदोष जल निकल जावेगा वैसे २ [ कमरके ] कपडेके बंधनको अधिक कसते हुए जाना चाहिए । इस प्रकार बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि पंद्रह दिन तक संपूर्ण दोष युक्त जलको वामपा से निकालना चाहिए ॥ १७७॥
जलोदरीको पथ्य। ततश्व पण्मासमिहोदरादितं । सुखोष्णदुग्धेन सदैव भोजयेत् ।। क्रियासु सर्वास्वथ सर्वथैव । महोदरे क्षीरमिह प्रयोजयेत् ॥ १७८॥
भावार्थ:-उसके बाद छह महीने तक भी उस जलोदरी को मंदोपणदूध के साथ ही भोजन कराना चाहिये। महोदररोगसंबंधी सचिकित्सा करते समय दूधका उपयोग करना चाहिये ॥ १७८ ॥
दुग्धका विशेष गुण क्षीरं महोदरहितं परितापशोष- | तृष्णास्त्रपित्तपवनामयनाशहतुम् ।। वृष्यं बलप्रजननं परिशोधनं च । संधानकृत्तदनुरूपगुणौषधान्यम् ।।१७९॥
भावार्थ:-तत्तद्रोगनाशक. औषधियों से युक्त, दूध, उदररोग संताप, शोष, तृष्णा, रक्तपित्त व वातविकार को नाशकरता है । साथ ही पौष्टिक है । बलप्रद है, शोधक है । और संधानकारी है ॥ १७९ ॥ .
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटट्यभासुरतो।
निमृतमिदं हि शीकरानिभं जगदेकाहितम् ॥ १८० ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, लत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंदो मुखमें
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