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महामयाधिकारः ।
( २२७ )
लिहेदिदं षट्पलसपिरुत्तमं । यकृतिप्लहाध्मानमहोदरेष्वपि ॥ सकासगुल्मोध्र्वमरुत्प्रपीडिता । त्युदासमुद्वर्तनिवारणं परम् ॥ १७१ ॥ भावार्थ:- पीपल, सोंठ, गजपीपल, कचोर, समुद्रलवण, चित्रक, व यवक्षारं इनके छहपल ( २४ तोला ) कषाय व छपल कक और एक प्रस्थ ( ६४ सोला )
गोबर का रस डालकर एक प्रस्थ घृत उत्तम वृत्तको सेवन करनेसे, यकृत,
सिद्ध
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करे । इसे पट्पलसर्पि कहते हैं । इस आध्मान, महोदर, कास, गुल्म,
प्लिहा,
वात, उदावर्तको नाश करता है. ॥ १७० ॥ १७१ ॥
वद्ध वस्त्राभ्युदचिकित्सा |
विद्वान्युदरेऽपि वामतो । विपाठ्य नाभेश्वतुरंगुलादधः ॥ तदांत्रमाकृष्य निरीक्ष्य रोधनं । व्यपोह्य सिव्यादचिराद्वहिर्त्रणम् ॥ १७२ ॥ प्रवन्महांत्रं रजतेन कीलये- । च्छ्रितं पयः पातुमिहास्य दापयेत् || सुखोष्णतैलप्रकटावगाहनं । विधाय रक्षेत्परिपाटितांदरम् ॥ १७३ ॥
भावार्थ:-- विबद्ध व स्रावी उदरमें भी बांये ओरसे नाभीके नीचे चार अंगुलके स्थानमें चीरना चाहिये । उसके बाद अंदरसे आंतडी को खींचकर अच्छीतरह देखकर उसमें ककंड कांटे आदि रुके हुए को निकालना चाहिये । छिन्न भिन्न आंतडीको चांदी के पतले तारसे जोडदेना चाहिये । पश्चात् उदर के बाहर के भागको शीघ्र सीकर ओटाये हुए दूधको पिलाना चाहिए। एवं उसको थोड़ा गरम तेल मे बैठालकर उसकी रक्षा करनी चाहिए || १७२ ॥ १७३ ॥
जलोदर चिकित्सा |
जलोदरे तैलविलिप्तदेहिनं । सुखोष्णतोयैः परिषिक्तमातुरम् ।।
पटेन कक्ष्यात्परिवेष्टितोदरम् । यथोक्तदेशं व्यथयेदधारय ॥ १७४ ॥
भावार्थ:-जलोदरीको सबसे पहिले तेलका लेपन कर मंदोष्ण पानसि स्नानकरना चाहिए । उसके बाद कटी प्रदेशके ऊपर कपडे को लपटना चाहिए । फिर बिगर धारके कोई शस्त्रसे पूर्वोक्तप्रदेश [ नाभिके चार अंगुल नीचे बांयें भाग ] में छेद करना चाहिए ॥ १७५ ॥
उदरसे जल निकालने की विधि |
निधाय नाडीं तनुधारयान्वितां । क्रमादिहाल्पाल्पजलं निषेचयेत् ॥ न चैकवारं निखिलं सृजेत्तृषा । तीव्रातिमूच्छी ज्वरदाहसंभवान् ॥ १७६ ॥
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