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महाधाधिकारः ।
खदिरप्रयोग |
सर्वात्मना खदिरसारकषायमेकं । पीत्वाभिषिक्ततनुरप्यकुष्टजुष्टः ॥ नीचैर्नखैस्तनुरु है स्तुविशुद्धगात्रः । सद्यः सुखी भवति शांतमहामार्तिः ॥ १२६ ॥
( २१७ )
भावार्थ:-- अकेला खैर के कबायको ही सतत पानेके काम में एवं स्नान के काम में छेनेसे नख रोम उत्पन्न होकर, शरीर शुद्ध होता है । कुष्ठरोग उपशमन होता है । इसलिये रोगी सुखी होता है ।। १२६ ।।
अथ उदररोगाधिकारः ।
उदररोगनिदान |
नृणां समस्तैः पृथगेव दोषै । र्यकृत्प्लिहाभ्यामुदकोपयोगात् || विषप्रयोगांत्रनिरोधशल्या- । द्भवंति घोराणि महोदराणि ॥ १२७ ॥
भावार्थ:- मनुष्यों को समस्त वा व्यस्त दोषोंसे, यकृत, प्लिहा में, जलविकारसे उदर में, विषप्रयोग व अवरोध शल्यसे अनेक प्रकार के घोर उदर से होते हैं । प्रकुपित बात पित्त कफ व इनके सन्निपात, यकृत् प्लिहा में नेहन आदि क्रिया करते समय पानी पीना, विष के प्रयोग, आंतडी में शला के रुक जाना इत्यादि का णोसे घोर उदररोग उत्पन्न होतें हैं । तात्पर्य यह कि, उपरोक्त कारणोंसे, वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, सन्निपातिकोदर [ दृष्योदर ] यकृत्प्लीहोदर, बद्धगुदोदर, क्षतोदर [ परित्रात्र्युदर ] दकोदर, इस प्रकार, अष्टविध उदररोग उत्पन्न होते हैं ॥ १२७ ॥
वातोदर लक्षण |
अपथ्यमिध्याचरणाहृतिभ्यां । प्रदुष्टवातोऽन्नरसान् प्रदूष्य ॥ सामानमनेकतोदे । महोदरं कृष्णशिरां करोति ॥ १२८ ॥
भाषार्थ:-अपथ्यसेवन मिथ्या आहार विहार के कारण वातप्रकुपित होकर उदररोगको उत्पन्न करता है अर्थात् वातोदर की उत्पति होती है । जिसमें शूल, पेट अफराना [ पेट फूलना ] हुई चुभने जैसी नानाप्रकार की पीडा होना, पेटकी नसें काली पढजामा, आदि लक्षण प्रकट होते हैं । ॥ १२८ ॥
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पितोदर लक्षण |
सदाहतृष्णाञ्जरशेोषयुक्तम् । सपीतत्रिशिरातानम् ||
महोदरं शीघ्रविसारि साक्षात् । करोति पित्तं स्वनिमित्तदृष्टम् ॥ १२९ ॥
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