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(२०४.)
कल्याणकारके
भावार्थ:--अत्यधिक पसीना आना, बिलकुल पसीना नहीं आना, रोमांच, छूनेसे मालूम नहीं होना, रक्त ( खून ) काला होजाना, शरीर अत्यंत भारी होजाना, खाज चलना, कठिनता होना व कंपन ये सब कुष्टके पूर्वरूप हैं ।। ६० ॥
सप्तमहाकुष्ठ । वातोद्भवं कष्ठमिहारुणाख्यं । विस्फोटनररुणवणयतेस्सतादेः। पित्ताकपालज्यकजिहिकात--च्चौदुंबरं करितकाकनकं सदाहम् ॥६॥.
भावार्थ:--अरुण कुष्ठ वातस उत्पन्न होता है, जो दर्दसहित लालवर्णके फफोलोंसे युक्त होता है । ऋष्य कपाल, जिह्वा, औदुंबर, काकनक ये चार कुष्ट पित्तसे. उत्पन्न होते हैं ।। ६१ ॥
श्लेष्मोद्भवं दद्रुसपुण्डरीकं । कण्डूयुताधिकसितं बहुलं चिरोत्थम् ।। धातुप्रवेशादाधिकादसाध्यात्। कुष्ठानि सप्त कथितानि महांति लोके॥६२॥
भावार्थ:----कफसे द्रु और पुण्डरीक ऐसे दो कुष्ट उत्पन्न होते हैं जो अधिक खुजली, श्वेतवर्ण युक्त, मोटा, बहुत दिनोंसे चले आने वाले होते हैं। ये सब कुष्ट धातुवोंमे प्रविए होनेसे अधिकतर असाध्य होनेसे ये सात प्रकारके कुष्ठ महाकुष्ठ कहे गये है ॥ ६२॥
क्षुद्रकुष्ठ । क्षुद्राण्यरुष्कुष्ठमिहापि सिध्म । श्लेष्मान्वितं रक्ततया सहस्रम् ॥ प्रदिष्टरूपेऽद्भुतकण्डराणि श्वेतं तनुत्वचि भवं परुषं च सिध्म ॥ ६३ ॥
भावार्थ:- श्लेष्म व रक्तभेदसे क्षुद्रकुष्ठ में हजारों भेद होते है उनमें से अरुष्कुष्ठ, सिध्मकुष्ठ इम दोनों में कफ प्रधान होता हैं। जिसमें अस्वैधिक खाज चले, शरीरके चमडे सफेद होजाय, एवं कठिन होजाय उसे सिध्म कुऐ कहते हैं ॥ ६३ ॥
रकशकुष्ठलक्षण । निस्राववत्यः पिटकाः शरीरे। नश्यति ताः प्रतिदिनं च पुनर्भवति। कण्ड्रयुताः सूक्ष्मबहुप्रकाराः स्निग्धाः कफादधिकृता रकशति दृष्टाः॥६४॥
भावार्थ:---जिनसे पूय नहीं निकलते हों ऐसी बहुतसी फुसियां शरीरमें रोज उत्पन्न होती हैं व रोज नष्ट होती हैं । उनमें खाज चलती है । वे सूक्ष्म व अनेकप्रकारसे होता है । स्निग्ध गुणसे युक्त एवं कफसे उत्पन्न होने पे से रकश कहते हैं ॥१४॥
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