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(२०८)
कल्याणकारके . भावार्थ:-कुष्ठरोगयुक्त मातापितरों के, दूषित रजोवीर्यके संबंध से उत्पन्न संतान. अधिक कुष्ठी हो तो उसे असाध्य समझना चाहिए । तीव्र अक्षिरोग, स्वर, भंग, व व्रणोंसे पूय निकलना यह कुष्ठ में रिष्ट [ मरणचिन्ह ] है ॥ ७८ ॥
__ कुष्ठीके लिए अपथ्य पदार्थ । कुष्ठी सदा दुग्धदधीक्षुजात--निष्पावमाषतिलतैलकुलत्थवर्ग । पिष्टालसांद्राम्लफलानि सर्व । मांस त्यजेल्लवणपुष्टिकरानपानम् ॥७९॥
भावार्थ:-दूध, दही, शक्कर गुड आदि इक्षु रसोत्पन्न पदार्थ, सेम, उडद, तिल, तैल, कुलथी, आटेका पदार्थ व घन पदार्थ, फल, मांस, लवण एवं पुष्टिकर' अन्न पान आदि कुष्ठ रोगवाला ग्रहण नहीं करें ॥ ७९ ॥
____ अथ कुष्ठचिकित्सा ।
___कुष्ठमें पथ्यशाक। वासागुलूचीसपुनर्नवार्क-पुष्पादितिक्तकटुकाखिलशाकर्वगः ॥ आरग्वधारुष्करनिवतोय-पक्कैस्सदा खदिरसारकषायपानः ।। ८० ॥
भावार्थ:--अमलतास, भिलावा, नीम व कत्था इनके पानीसे पकाये हुए अडूसा, . गिलोय, सोंठ, अर्कपुष्पी, व तीरेख व कडुवे शाकवर्गको कुष्टमें प्रयोग करें ।। ८० ।।
कुष्ठ में पथ्य धान्य । मुद्दाढकीम्परसप्रयुक्तम् । श्यामाककंगुवरकादिविरूक्षणान्नं ॥ भुंजीत कुष्ठी नृपनिंबवृक्ष- तोयेन सिद्धमथवा खदिरांबुपक्कम् ।। ४१ ॥
भावार्थ:-अमलतास, नीमके कषाय अथवा वरके कषाय से पकाया हुआ एवं मूंग, अरहर श्यामाक धान्य, कंगुनी, मोंट आदि रूक्ष अन्न कष्ठीको देना चाहिये ॥ ८१ ॥ --
कुष्ट में वमन विरेचन व वास्थकुष्ठ की चिकित्सा । मार्गद्वये शोधनमेव पूर्व -- रूपेषु कष्ठजननेषु विधयमत्र । त्वस्थेऽपि कुष्ठेऽधिकशोधनं स्या-त्कुष्ठध्नसीद्वीवर्धभषलपन च ॥८२॥
भावार्थः --कष्टके पूर्वरूपोंके प्रकट होनेपर वमन विरेचन से शरीरका शोधन करना चाहिये, त्वचामें स्थित कुष्टके लिये भी वमन विरेचन से अधिक शोधन व कुष्टनाशक विविध औषधियोंका लेपन भी हितकर है ॥ ८२ ॥
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