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( २०२ )
कल्याणकारके
भावार्थ:- - उ के बाद दूसरे दिन उस पट्टीको खोलकर पीडन क्रियाओंके द्वारा अर्थात् उस व्रणको अच्छी तरह दात्रकर उसके पूयको निकालना चाहिये । फिर कषाय जल से धोकर पूर्ववत् औषधि वगैरह लगाकर उसको बांधना चाहिये ॥ ५२ ॥
बंधन फल |
स बंधनात् शुध्यति रोहति वणी | मृदुत्वमायाति विवेदनां भवेत् । अतस्सदा बंधनमेव शोभनं व्रणेषु सर्वेष्वयमेव सत्क्रमः ॥ ५३ ॥
भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकारले पट्टी बांधने से वह फोडा शुद्ध होजाता है | भर जाता है, मुदु व वेदनारहित होजाता है । इसलिये उसको बांधना ही योग्य है । सर्व व्रणचिकिरामें यही क्रम उपयुक्त है ॥ ५३ ॥
व्रण चिकित्सा समुच्चय ।
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यथोक्तसद्भेषजवर्गसाधितं । कषायकल्काज्यतिलोद्भवादिकं । विधीयते साधनसाध्यवेदिना । विधानमत्यद्भुतदोषभेदतः ॥ ५४ ॥ भावार्थ:---रोग के साध्य साधनभाव को जानने वाला वैद्य दोषोंके बलाबल को देखकर पूर्व में कहे हुए औषधियोंसे साबित कषाय, कल्क, घृत व तैल आदिका यथोपयोग प्रयोग करें ॥ ५४ ॥
शुद्ध व रूढ व्रणलक्षण |
स्थिरो निरस्रावपरो विवेदनः । कपोतवर्णान्तयुतोऽतिमांसलः ॥ व्रणस्स रोहत्यतिशुद्धलक्षणः । समस्तवर्णो भवति प्ररूढवान् ॥ ५५ ॥
भावार्थ:- जो व्रण स्थिर हो गया हो, जिससे पीप नहीं निकलता हो, वेदना रहित हो, त्रणके अंदरका भाग कपोत वर्णसे युक्त हो, अत्यंत मांससे युक्त हो अर्थात् भरता आ रहा हो, तो उसे शुद्धत्रण समझना चाहिये । शुद्ध व्रण अवश्य भरता है | त्वचाके समतल, व समान वर्ण होना यह रूढ ( भरा हुआ ) ऋण का लक्षण है ॥ ५५ ॥
प्रमेहविमुक्त लक्षण ।
यदा प्रमेही विशदातितिक्तकं । सरूक्षसक्षारकदुष्णमूत्रकम् ॥ कदाचिदल्पं विसृजेदनाविलं । तदा भवेन्मेहविहीनलक्षणम् ॥ ५६ ॥
भावार्थ:- -जब प्रमेही विशद, अति कडुआ, रूक्ष, क्षार व मंदोष्ण (थोडा गरम ) व निर्मल गंदला रहित मूत्रको कभी २ थोडा २ विसर्जन करता हो तब उसे प्रमेह रोगसे वियुक्त समझना चाहिये ॥ ५६ ॥
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