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महापयाधिकारः।
( १९९) त्रिफला काथ। फलत्रिककाथघृतं शिलाजतु । अपाय मेहानखिलानशेषतः ।। जयेत्प्रमेहान् सकलैरुपद्रवः । सह प्रतीतान पिटकाभिरन्वितान् ॥३९॥
भावार्थ:-त्रिफला, घी, शिलाजीत इनका काथ बनाकर पिलावे तो अनेक उपद्रवोंसे सहित एवं प्रमेह पिटकोंसे युक्त सर्वप्रमेह रोगको भी पूर्णरूपेण जीत लेता है ॥ ३९॥
प्रमहीके लिए विहार । सदा श्रमाभ्यासपरो नरो भवेदशेषमहानपहर्तुमिच्छया : गजाश्वरोहेरखिलायुधक्रम-क्रियाविशेषैः परिधावनादिभिः ॥ ४० ॥
भावार्थः-----प्रमेहरोगको नाश करने के लिए मनुष्य सदाकाल परिश्रम करनेका अभ्यास करें । हाथी पर चढना, घोडेपर चढना, आयुध लाटी वगरेह चलाना व दौडना आदि क्रिया विशेषोंसे, श्रम होता है । इसलिये प्रमेहीको ऐसी क्रियावोंमें प्रवृत्त होना चाहिये ॥ ४० ॥
कुलीनको प्रमेहजयार्थ क्रियाविशेष । कुलीनमात धनहीनमद्भुतं । प्रमहिनं साघु वदतिक्रमात् । . मडबघोषाकरपट्टणादिकान् । विहृत्य नित्यं व्रज तीर्थयात्रया ॥४१॥
भावार्थ:---जिसका रोग कृसाध्य है ऐसा प्रमेही यदि कुलीन हो एवं धनहीन हो तो उसे ग्राम नगरादिकको छोडकर पैदल तीर्थयात्रा करने के लिये कहें जिससे उसे श्रम होता है ॥ ४१ ॥
प्रमेहजयार्थ नी कुलोत्पन्न का क्रियाविशेष । कुलेतरः कूपतटाकवापिकाः । ग्वनेत्तथा गां परिपालयेत्मदा । दिवैकवेलापगृहनिभैक्षभु- जलं पिबेगोगणपानमानितम् ॥ ४२ ॥
भावार्थ:-नीचकुलोत्पन्न एवं निधन प्रमेही कुआ, तालाब आदिको ग्वोदें, एवं उसे गाय भैस आदिको चरानेके लिंक के । भिक्षावृति में भोजन को दिनमें एक दफे स्वाना चाहिये । तथा गायोको पनि लायक ऐसा पानी पीना चाहिये ।। ४२ ।।
पिरिकोत्पत्ति यथोक्तमार्गाचरणौषधादिभिः । क्रियाविहीनस्थ नरस्य दुस्सहाः। अधःशरीर विविधा विशेपतो। भवन्त्योत्ताः पिटिकाः ममेहिणः ॥१३॥
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