________________
वातरोगाधिकारः।
(१४७)
मुवर्णमिह सूक्ष्मदृष्टिगुणतोऽगजं रूपतो। ___ जयेदमलिनानुवासनसतीपयोगानरः ॥ ६५ ॥
भावार्थ:-ठीक २ अनुवासन बस्ति यदि सो संख्यामें ले लीजाय तो वह मनुष्य बलसे हाथीको, शीघ्रगमनसे घोडेको, बुद्धीसे बृहस्पतिको, तेजसे सूर्य व चंद्रको, कांतिसे सुवर्णको, सूक्ष्मदृष्टिगुणसे हाथीको, रूपसे कामदेवको जीतेगा । इतनी शक्ति उस अनुवासनबस्तिमें है ॥ ६५ ॥
शिरागत वायुकी चिकित्सा । शिरोगतमिहानिलं शिरसि तैलसतर्पणे- । विपक्कवरतैलनस्यविधिना जयेत्संततम् ॥ महौषधिशिरीषशियसुरदारुदायुितः । करंजखरमंजरीरचकहिंगुकांजीरकः ॥६६ ॥ प्रलेपनमपीह तैः कथितभेषजैर्वाचरे-। द्विपकघनकोशधान्यकृतसोष्णसंस्वेदनैः ।। यथोक्तमुपनाहनेस्मुखतरैश्शिरोवस्तिभि- ।
जयद्रुधिरमोक्षणैरनिलमुत्तमांगस्थितम् ॥ ६७ ।। भावार्थः-मस्तकगत वायु को मस्तक में तैल मालिश करना व तैल भिगोया गया पिचु [ पोया ] रखना, सोंठ, सिरीस का बीज, सेजन, देवदारु, दारुहलदी, करंज लटजीरा [अपामार्ग ] कालानमक, हींग, कांजीर, जीरा इन औषधियों से सिद्ध किये गये तैल के नस्य देना और इन ही । उपरोक्त ] औषधियोंके लेप करना, नागर. मोथा, कडवीतुरई, धनिया इन औषधियों द्वारा उष्ण स्वेदन देना ' विधिपूर्वक उपनाह [पुलटिश ] करना, योग्य शिरोबस्ति व रक्तमोक्षण करना इत्यादि उपायोंसे जीतना चाहिये ।। ६६ ॥ ६७॥
नस्य का भेद . नस्यं सर्व तच्चतुर्धा विभक्तं ।
लेहेनं स्याक्षजातोषधैश्च ॥ . *स्नेहान्नस्यं चावमर्षे च योज्यम् ।
वाते पित्त तद्वयव्यापृते वा ॥ ६८ ॥ भावार्थ:-तैल आदि चिकना पदार्थ और अपामार्ग आदि रूक्ष पदार्थ, झा प्रकार दो प्रकारके औषधियोंसे नस्यकर्म किया जाता है । उस स्नेहनस्य का मेर्श
जो औषध नाकके द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे नस्य कहते हैं. २ उत्तम, मध्यम अपरके भेडे, थाक्रम १०.८-६ बिन्दु स्नेह जो नाकमें डाला जाता है उसे मर्शनस्य कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org