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यातरोगाधिकारः
___ भार्थ:-स्नान किये हुए व करनेकी इच्छा रखनेवाले को, भोजन किये हुए को, वमन किये हुए को, बहुत कम जीमने वालको, गर्भिणी और रक्त पित्ती को, शास रोगसे व नवीन पीनस रोगसे पीडित व्यक्तिको नस्यका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥७१
नस्यफल एतच्चतुर्विधपि प्रथितोरुनस्य । कृत्वा भवंति मनुजा मनुजायुषस्त ॥ साक्षादलीपलितवार्जितगात्रयष्टि-।
साराश्शशांककमलापमचारुवक्त्राः ।। ७२ ॥ भावार्थ:---इन उपर्युक्त चारों प्रकार के नस्योंके उपयोग करनेसे मनुष्य दीर्वायुषी होते हैं, शरीरमें 'वली नहीं पडती है, बाल सफेद नहीं होते हैं । उनका मुख चंद्रमाके समान कांतिमान् , कमलके समान सुंदर हो जाता है एवं वे लोकमें सर्वगुणसंपन्न होते हैं ।। ७२ ।।
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निमृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ७३ ।। भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परालोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेदके मुखसे उत्पन शाखसमुदसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एकामा हिल साधक है । इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ७३ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे वातरोगविकित्सितं नामादितोऽष्टमः परिच्छेदः ।
इत्युग्नादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विधाराचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में बातरोगाधिकार नामक
आठवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
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