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कल्याणकारके
भावार्थ:-जो तत्तद्रोगनाशक, औषधगण, ( अभीतक कहें हैं । वे स्वकार्य करने में अद्वितीय हैं व अमोघ हैं इसीलिये योग्य योग हैं। अतएव सर्व औषधियों 'द्वारा, यदि गणोक्त सम्पूर्ण औषधियां न मिलें तो आधा, वा उसके आधा, अतंतो जितने मिले. उतनीसी ही औषधियोंसे चिकित्सा करें तो रोग अवश्य शमन होते हैं ॥ २६ ॥
साध्यासाध्य रोगोंके विषय में वैद्यका कर्तव्य । साध्यान्व्याधीन् साधयेदौषधाये-- । र्याप्यान् व्याधीन् यापयेत्कर्मभेदैः ॥ दुर्विज्ञेयान् दुश्चिकिरयानसाध्या- ।
नुक्त्वा वैद्यो वर्जयेद्वर्जनीयान् ॥ २७ ॥ भावार्थ:-साध्य रोगोंको औषधादिक प्रयोगसे साधन करना चाहिये । याप्यरोगोंको कुशल क्रियावोंके द्वारा याप्य करना चाहिये । दुर्विज्ञेय व दुश्चिकित्स्य ऐसे असाध्य रोगोंको असाध्य समझकर व कहकर छोडना चाहिये ॥२७॥
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। २८ ।। भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ २९ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे ... श्लेष्मव्याधिचिकित्सितं नामादितो दशमः परिच्छेदः।
इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषितः वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में कफरोगाधिकार नामक - दशम परिच्छेद समाप्त हुआ।
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