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वातरोगाधिकारः।
(१४३)
.उंगलीयों से पकडकर, उस के मुख में बस्ति को बांधे, पश्चात् उससे वायु को निकाल देवें ॥ ५३ ॥
- औषधका उत्कृष्टप्रमाण । वयोबलशरीरदोषपरिवृद्धिभेदादपि । द्रवप्रवणता भवेद्गणनया गुरुद्रव्ययोः ॥ न च प्रमितिरूर्जिता कुडवषटतोन्या मता ।
तदर्धमिह पक्कतैलघृतयोः प्रमाणं परम् ॥ ५४॥ भावार्थ:-वय, बल, शरीर, दोषोंकी वृद्धि व हानि, गुरुद्रव्य, लघुद्रव्य की अपेक्षासे, द्रवद्रव्योंके प्रयोग होता है । तात्पर्य यह कि द्रवद्रव्यका उपरोक्त प्रमाण से वय आदि को देखते हुए कुछ घटा बढा भी सकते हैं । लेकिन ज्यादासे ज्यादा छंह कुडव तक प्रयोग कर सकते हैं । इस से अधिक नहीं । औषधियों द्वारा सिद्ध किया हुआ तैल या घृतकी मात्रा उपरोक्त द्रवद्रव्यके प्रमाण से अर्धांश है ॥ ५४॥
बस्तिदान क्रम। निपीड्य निजवामपार्श्वमिहनानुमात्रोच्छिते । शयानमिति चातुरं प्रतिवदेद्भिषग्मंचके । प्रवेशय गुदं स्वदक्षिणकरण नेत्रं शनै-।।
घृताक्तमुपसंहरन् स्वमुचितांघ्रिवामेतरम् ॥ ५५ ॥ भावार्थ:--धुटने के बराबर ऊंचे तख्त में वामपार्थ को दबाते हुए (उसी करवटसे) रोगीको सुलाकर उस से कहें कि अपने दांये पैर को सिकोडकर, अपने दाहिनेहाथ से घृत से लिप्त उस वस्ति ( पिचकारी को घृत से चिकना किये गये गुदामें, धीरे २ प्रवेश कराओ ॥ ५५ ॥
प्रवेश्य शनकैस्सुखं प्रकटनेत्रनाडीमुखम् । प्रपीडयतु बस्तिमप्रचलितानुवंशस्थितिम् ॥ द्रवक्षयविदातुरं विगमनेत्रमाश्वागमात् ।
करेण करमाहरन्पदभवोत्कुटीकासनम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-जिस का मुख खुला हुआ है ऐसी बस्तिनालिका (पिचकारी) को, पूर्वोक्त क्रमसे, धीरे २ प्रवेश करानेके बाद, वंशास्थि ( पीठ के बीचमें जो गले से लेकर
कमरतक रहने वाली हड्डी ) की ओर झुकाकर निश्चल रूपसे पिचकारी को दबाना चाहिये। , द्रवपदार्थ खतम होनेके बाद, उस बस्तिको शीघ्र ही हाथों हाथ, गुदद्वार से निकालना
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