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वातरोगाधिकारः।
(१३९) भावार्थ:--निसोत, त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पपिल ) सेंधानमक, इन के चूर्ण को एरण्डतैल अथवा घी के साथ पीने से, सोंठ, हरीतकी, सेंधानमक इन के कल्कको गरम पानीके साथ, व शक्कर पीपल, निसोत के कल्क व चूर्णको तैल के साथ सेवन करने से विरेचन होकर पक्काशयगत वात दूर होजाता है ॥ ४१ ॥
विरेचन फल । मुदृष्टिकरमिष्टमिंद्रियबलावहं बुद्धिकृत् । शरीरपरिवद्धिमिद्धमनलं वयस्थापनम् ॥ विरंचनमिहातनोति मलमूत्रदोषोद्भव- ।
क्रिमिप्रकरकुष्टकोष्ठगतदुष्टरांगापहम् ॥ ४२ ॥ - भावार्थः-विरेचनसे दृष्टि तीक्ष्ण होती है, इंद्रियोंका बल बढता है, बुद्धीकी वृद्धि होती है। शरीरकी शक्ति बढ़ती है, अग्नि बढती है । दीर्घायुषी होजाता है । एवं चं मलमूत्र के दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले रोग, क्रिमिरोग, कुष्टरोग, कोष्ठगत दुष्टरोग आदियोंको यह विरेचन दूर करता है ॥ ४२ ॥
विरेचन के लिये अपात्र । सशोकभयपीडितानतिकृशातिरूक्षाकुलान् । श्रमलमतृषानजीर्णरुधिरातिसारान्वितान् ॥ शिशुस्थविरगर्भिणीविदितमद्यपानादिकान-!
संस्कृतशरीरिणः परिहरेद्विरेकैस्सदा ॥ ४३ ॥ भावार्थ:-शोक व भयसे पीडित, अतिकृश, अतिरूक्ष, अत्यंताकुलित, श्रम, कम, तृषा, अजीर्ण, रक्तातिसारसे युक्त, बालक, वृद्ध, गर्भिणी, मद्यपायी, स्वेहन, स्वेदन, आदिसे असंस्कृत शरीरवाले इत्यादि प्रकारके लोगोंको विरेचन नहीं देना चाहिये ॥४३॥
विरेचनापवाद । तथा परिहतानपि प्रवलपित्तसन्तापिता-। नतिक्रिमिमलोदरानपि च मूत्रविष्टम्भिनः ॥ सितत्रिकटुचूर्णकैरहिमवारिणा वान्वितै- ।
स्त्रिवृल्लवणनागरैमृदुविरैचनर्योजयेत् ॥४४॥ १ यहां निसोत आदि कितना प्रमाण लेना चाहिये ! इसका उल्लेख नहीं किया है। आयुर्वेदशास्त्रका नियम है कि जहां औषधि प्रमाण नहीं लिखा हो वहां सबको समभाग (बरामेर). रेना चाहिये । इसलिये यहां- और आगे भी ऐसे स्थानोमें समभाग ही अहण करें।
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