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कल्याणकारके विचूर्ण्य घृतमातुलंगरससक्ततक्रादिकैः।
पिबन्कफसमीरणामयगणान्जयत्यातुरः ॥ ८॥ भावार्थ:-त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पीपल ) वायविडंग, हींग, विडनमक, सैंधानमक, इलायची, चित्रक, कालानमक, देवदार, कुटकी, जीरा, इन चीजोंका चूर्ण करके घी, माहुलंगके रस, छाछ आदिमें मिलाकर या उनके अनुपान के साथ सेवनसे वातजन्य, कफजन्य, रोगसमूह उपशम को प्राप्त होते हैं ॥ ३९ ॥
- महौषधादि क्वाथ व अनुपान । महौषधवराग्निपथबृहतीद्वयैरण्डकैस्सविल्वसुरदारूपाटलसमातुलुंगैः शृतैः ॥ घृताम्लदधितऋदुग्धतिलतैलतोयादिभि-।
महातुरमिहानपानविधिना सदोपाचरेत् ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-सोंठ, हरड, बहेडा, आंवला, अग्निमंथ, छोटी व बड़ी कटली, एरण्ड देवदारु, पाढल. माहुलुंग बेलगिरि इनके काथसे सिद्ध घी, आम्ल, पदार्थ, दही, छाछ, दूध, तिलका तेल, पानी आदिसे अन्नपान विधिपूर्वक रोगीका उपचार करना चाहिये॥३९॥
पक्वाशयगत वात केलिये विरेचन । अथ प्रकुपितेऽनिले विदितभूरिपक्वाशये । स्नुहित्रिकटुदुग्धकल्कपयसा विपकं घृतं ॥ सुखोष्णलवणांभसानिलविनाशहेतुं तथा ।
पिवेत् प्रथमसंस्कृतातिहितदेहपूर्वक्रियः ॥ १० ॥ भावार्थः-यदि वह वायु पक्काशयमें कुपित होजाय तो थूहर का दूध, त्रिकटु, ( सोंठ मिरच पीपल ) गायका दूध इन के कल्क, व दूधसे गोघृत को सिद्ध करना चाहिये । वात को नाश करनेवाले इस विरेचन धृत को, स्नेहन, व स्वेदन से जिसका शरीर पहिले ही संस्कृत किया गया हो, ऐसे मनुष्य को सुखोष्ण ( गुनगुना ) नमक के पानी में डाल कर पिलाना चाहिये। इस से विरेचन होकर वात शांत हो जाता है. ॥४०॥
वातनाशक विरेचकयोग। त्रिवृत्त्रिकटुकैस्समं लवणचित्रतैलान्वितं । पिवेदनिलनाशनं धृतविमिश्रितं वा पुनः॥ महौषधहरीतकी लवणकल्कमुष्णोदक। स्सतैलसितपिप्पलीकमयवा त्रिवृद्वातनुत् ॥.४१ ॥
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