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कल्याणकारके
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भावार्थ:--उपर्युक्त प्रकार के सदाचरणों से जो मनुष्य अपने आत्माको निर्मल बना लेता है, एवं जो जिनागम व जिनेंद्रके प्रति भक्ति करता है, वह मनुष्य शांति व सुखको प्राप्त करता है। उस मनुष्यको पाप भी दूरसे छोडकर जाते हैं, दुष्ट रोगजाल क्यों उसके पासमें जावेंगे ॥ २८ ॥
सर्वात्मना धर्मपरी नरस्स्या-। त्तमाशु सर्व समुपैति सौख्यम् ।। पापोदयात्ते प्रभवंति रोगा। धर्माच्च पापाः प्रतिपक्षभावात् ॥ २० ॥ नश्यंति, सर्वे प्रतिपक्षयोगा
द्विनाशमायांति किमत्रचित्रम् ॥ भावार्थ:-जो व्यक्ति सर्वप्रकारसे धर्मपरायण रहता है उसे संपूर्ण सुख शीघ्र आकर मिलते हैं। ( इसलिये, रोगीको, धर्म में रत रहना चाहिये ) पापके उदयसे रोग उत्पन्न होते हैं । पाप और धर्म ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। धर्मके अस्तित्वमें पापनाश होता है । क्यों कि धर्म पापके प्रतिपक्षी है अर्थात् पाप अपना प्रभाव धर्मके सामने नहीं बतला सकता । प्रतिपक्षकी प्रबलता होनेपर अन्य पक्षके नाशहोनेमें आश्चर्य क्या है !
रोगोपशमनार्थ, बाह्याभ्यतंर चिकित्सा धर्मस्तथाभ्यतरकारणं स्या-। द्रोगप्रशांत्यै सहकारिपूरम् ॥ बाह्यं विधानं प्रतिपद्यतेऽत्र ।
चिकित्सितं सर्वमिहोभयात्म ॥ ३० ॥ भावार्थ:----इस कारणसे रोगशांति के लिये धर्म अभ्यंतर कारण है । बाह्य चिकित्सा केवल सहकारी कारण है उसका निरूपण यहांपर किया जायगा। अत एव संपूर्ण चिकित्सा बाह्य और अभ्यंतरके भेदसे दो प्रकार की है ॥ ३० ॥
बाह्यचिकित्सा। द्रव्यं तथा क्षेत्रमिहापि कालं । भावं समाश्रित्य नरम्मुखी स्यात् ।। स्नेहादिभिवी सुविशेषयुक्तम् ।। छेद्यादिभिर्वा निगृहीतदेहः ॥ ३१ ॥
१ इस श्लोकके दो मूलप्रतियों को टटोलनेपर भी दो ही चरण उपलब्ध हुए।
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