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कल्याणकारके
कितनी है ? रोगी की शक्ति कितनी है, आहार क्या खाना चाहता है ? गेहूं का स्वाद कैसा है ? मलमूत्र विसर्जन का क्या हाल है ? कौनसी चीज प्रकृति के अनुकूल पडती है ? कोनसी नहीं ! आदि बातों को प्रश्न परीक्षा ( पूछकर ) द्वारा जानें ॥५५॥
दर्शनपरीक्षा। दृष्ट्वायुषो हानिमथापिवृद्धि-। छायाकृतिव्यंजनलक्षणानि ॥ विरूपरूपातिशयोग्रशांत-।
स्वरूपमाचार्यमतैर्विचार्य ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-रोगकि शरीर की छाया, आकृति, व्यंजन, लक्षण, इनका क्या हाल है ? शरीर, विरूप या कोई अतिशय रूपस युक्त तो नहीं तथा रोगीका स्वभाव (प्रकृतिके स्वभाव से ) अत्यंत उग्र या शांत तो नहीं ? इन उपरोक्त कारणों से, आयुध्यकी हानि व वृद्धि इत्यादि बातों को, पूर्वाचार्यों के, वचनानुसार, दर्शनपरीक्षा द्वारा ( देखकर ) जानना चाहिये ॥ ५६ ॥
महान् व अल्पव्याधि परीक्षा। महानपि व्याधिरिहाल्परूपः। स्वल्पोप्यसाध्याकृतिरस्ति कश्चित् ॥ उपाचरेदाशु विचार्य रोगं ।
युक्त्यागमाभ्यामिह सिद्धसेनैः ॥ ५७ ॥ भावार्थ:-बहुतसे महान् भयंकर रोग भी ऊपरसे अल्परूपसे दिग्व सकते हैं। एवं अल्परोग भी असाध्य रोगके समान दिख सकते हैं परंतु चतुर सिद्धहस्त वैद्यको उचित है कि युक्ति और आगमसे सब बातोंको विचार कर रोगका उपचार शीघ्र करें ॥५॥
रोगके साध्यासाध्य भेद। असाध्यसाध्यक्रमतो हि रोगा। द्विधैव चाक्तास्तु समंतभद्रः ॥ असाध्ययाप्यक्रमतोद्यसाध्य ।।
द्विधातिकृच्छातिसुखेन साध्यं ॥ ५८ ॥ भावार्थ:--रोग असाध्य, और साध्य इस प्रकार दो विभागसे विभक्त है ऐसा भगवान् समंतभद्र स्वामीने कहा है । असाध्य [ अनुपक्रम ] याप्य इस प्रकार दो भेद अक्षयके हैं और कृच्छ्रसाध्य, सुसाध्य यह सायके भेद हैं ॥ ५८ ॥
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