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वातरोगाधिकारः ।
(१२३)
अथाष्टमः परिच्छेद।
अथ वातरोगाधिकारः
मंगलाचरण व प्रतिक्षा । अतींद्रियपदार्थसार्थनिपुणावबंधात्मकं । निराकृतसमस्तदोषकृत दुर्मदाहंकृतिम् ।। जिनेंद्रममरेंद्रमौलिमाणिरश्मिमालार्चितं ।
प्रणम्य कथयाम्यहं विदितवातरोगक्रियाम् ॥ १॥ भावार्थ:--- समस्त दोषोंको एवं अहंकारको जिन्होने नाश किया है अतएव संपूर्ण पदार्थीको साक्षात्कार करनेवाले अतींद्रियज्ञानको प्राप्त किया है, जिनके चरणमें आकर देवेंद्र भी मस्तक झुकाते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान्को नमस्कार कर वातरोगकी चिकित्सा के विषय में कहेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥
वातदोष स वात इति कथ्यते प्रकटवेदनालक्षणः । प्रवात हिमवृष्टिशीततररूक्षसेवाधिकः ॥ प्रदेशसकलांगको बहुविधामयैकालयो।
मुहुर्मुहुरुदेति रात्रिकृतदेहदुःखास्पदः ॥ २ ॥ भावार्थ:-जिसका पारुष्य, शीतत्य, खरत्व, सुप्ताव, तोद शूल आदि वेदना, और रूक्ष, शीत खर, चल, लघु आदि लक्षण ( संसार में ) प्रसिद्ध हैं, जो अत्यधिकवा बर्फ, वृष्टि, (बरसात) तथा शीत व रूक्षगुगयुक्त आहार को अधिक सेवन करने से प्रकुपित होता है, एकाङ्ग व सर्वांगगत नानाप्रकार के रोगों की उत्पत्ति के लिये जो मुख्य स्थान है. अर्थात् मूलकारण है, जो बार २ कुपित होता है और रात्रि में विशेष रीति से शरीरको दुःख पहुंचाता है वह वात [ दोष ] कहलाता है ॥ २ ॥
प्राणवात । मुखे वसति योऽनिलः प्रथित नामतः प्राणकः । प्रवेशयति सोऽन्नपानमखिलामिषं सर्वदा ॥ करोति कुपितस्स्वयं श्वसनकासाहिकाधिका-। ननेकविधतीववेगकृतवेदनाव्याकुलान् ॥ ३ ॥
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