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( १२८ )
दण्डापतानक, धनुस्तम्भ, बहिरायाम, अंतरायामकी संप्राप्ति व लक्षण |
समस्तधमनीगतप्रकुपितोऽनिलः श्लेष्मणा । स दण्डधनुराकृतिं तनुमिहातनोत्यायताम् || स एव बहिरंतरंगधमनीगतोऽप्युद्धती । बहिर्बहिरिहांतरांतरधिकं नरं नामयेम् ।। १६ ।।
भावार्थ:
:- वह वायु समस्त धमनियोंमें व्याप्त होकर कफसे प्रकुपित हो जाय तो वह सारे शरीर को दण्ड व धनुष्यके आकार में नमा देता है बहिरंग धमनीगत हो तो बाहिरके तरफ, यदि अंतरंग धमनीगत हो शरीरको नमाता है 1
। वह वायु यदि
तो अंदर के तरफ
कल्याणकारके
विशेष – प्रकुपित, वायु, कफ से युक्त होता हुआ, शरीर समस्त धमनियोंको प्राप्त होकर, शरीर को दण्ड के समान आयत ( सीधा ) कर देता है । इसको दण्डापतानक वातव्याधि कहते हैं । वही वायु, (कफसे युक्त ) वैसे ही ( समस्त धमनियोंको प्राप्त कर) शरीरको धनुष समान नमादेता है उसे धनुस्तम्भ वातव्याधि कहते हैं । तथा वही वायु शरीर के बहिर्भागकी धमनियोंको प्राप्त होजाय, तो बाहिरके तरफ शरीर को नमादेता है, और अभ्यंतर ( अन्दर के तरफ ) के धमनीगत हो, तो अन्दर के तरफ नमादेता है, इनको क्रमसे, बहिरायाम अंतरायाम वातव्याधि कहते हैं ॥ १६ ॥
गृध्रसी अवाक संप्राप्ति व लक्षण | यदात्मकरपादचारुतरकंदरान् दण्डयन् । स खण्डयति चण्डवेगपवनो भृशं मानुषान ॥ तदा निभृतविश्वसत्प्रकटवेदना गृधसिं । करोति निभृतावबाहुमपिचांसदेशस्थितं ॥ १७ ॥
भावार्थ: जिस समय हाथ और पैरोंके मनोहर कंदराओं को दण्डित ( पीडित करता हुआ ) भयंकर वेगवाला पवन, मनुष्यों को हाथ पैराकोटासा अनुभव कराता हो, उस समय, उन स्थानोंमें असह्य पीडा होती है । इस को गृध्रसी रोग कहते हैं । कंधों के प्रदेश (मूल) में स्थित वायु तत्स्थानगत, सिराओं को संकोचित कर, हाथों के स्पन्दन [ हिलन ] को नष्ट करता है, उसे अबबाहु कहते हैं । ॥ १७ ॥ कलायखज, पंगु, ऊरुस्तम्भ, वातकटक व पादहर्ष के लक्षण । कटीगत इहानिलः खलः कलायखेजत्वकृत | नरं तरलपैगुमंगविकलं समापादयेत् ॥
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