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व्याधिसमुद्देशः ।।
(११९)
सचद्रताराबलसंयुते वा। दूतैर्निमित्तैश्शकुनानुरूपैः ॥ ५२ ॥ क्रियां स कुर्याक्रियया समेतो। राज्ञोपदिष्टस्तु निवेद्य राज्ञे ॥ बलाबलं व्याधिगतं समस्तं ।
स्पृष्ट्वाथ सवोणि तथैव दृष्ट्वा ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-इसलिये राजा के द्वारा अनुमोदित क्रियाकुशल, सुयोग्य वैद्य को उचित है कि, योग्य तिथि, वार' नक्षत्र, योग करण, और मूहूत में, तथा ताराबल, चंद्रबल रहते हुए, अनुकूल दूत व प्रशस्त शकुन को, देखते हुए एंव, दर्शन, स्पर्शन, प्रश्नों के द्वारा व्याधिके बलाबल, साध्यासाध्य आदि समस्त विषयों को अच्छीतरह समझकर और उन को राजासे निवेदन कर वह चिकित्सा करें ॥ ५२ ।। ५३ ॥
বী বাপ্পা स्पृष्ट्वोष्णशीतं कठिनं मृदुत्वं । सुस्निग्धरूक्षं विशदं तथान्यत् ॥ दोषेरितं वा गुरुता लघुत्वं । ..
साम्यं च पश्येदपि तद्विरूपं ।। ५४ ॥ भावार्थ:-~-प्रकुपित दोषोंसे संयुक्त, रोगीका शरीर उष्ण है या शीत, कठिन है या मृदु, स्निग्ध है वा रूक्ष, लघु है या गुरु वा विशद, इसीतरह के अनेक (शरीरगत नाडी की चलन आदि) बातोंको, एवं उपरोक्त बातें प्रकृतिके अनुकूल है या विकृत है ? इन को स्पर्शपरीक्षा द्वारा जाननी चाहिये ।। ५४ ॥
प्रश्न परीक्षा। स्पृष्ट्वाथ देशं कुलगोत्रमग्नि-। बलाबलं व्याधिवलं स्वशक्तिम् । आहारनीहारविधि विशेषा-।
दसात्म्यसात्म्यक्रममत्र विद्यात ॥ ५५॥ भावार्थ:-रोगी किस देश का है ? किस कुल में जन्म लिया है ? शरीर की प्राकृतिक स्थिति क्या है ? जठराग्नि किस प्रकार है, व कितने आहार को पचासकता है ? ( इत्यादि प्रश्नों से अग्नि के बलाबल ) व्याधि की जोर ( यदि ज्वर हो तो कितनी गर्मी बढजाती है ? यदि अतिसार में तो दस्त कितने होते हैं ? कितने २ समय के बाद होते हैं ? आदि, इसी प्रकार अन्य रोगों में भी प्रश्न के द्वारा व्याधिबलाबल
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