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रसायनविधिः ।
(१०७)
अवश्य अनुभव करता है । वातपित्तादि दोषोंके प्रकोप और उपशम, पाप की, व पुण्यकर्म के फल देनेमें निमित्त कारण हैं ॥ १० ॥
रोगात्पत्ति के हेतु। सहेतुकास्सर्वविकारजाता स्तषां विषको शुगमुख्यभदात ॥ हेतुः पुनः पूर्वकृतं स्वकर्म। .
ततःपरे तस्य विशेषणानि ॥११॥ भावार्थ:----शरीर में सर्व विकार (रोग ) सहेतुक ही होते हैं । परंतु उन हेतुया. को जानने के लिये गोण और मुख्यविवक्षा किसे काम लेनकी जरूरत है। रोगादिक विकारोंका मुख्य हेतु अपने पूर्वकृत कर्म है। बाकीके सब उसके विशेषण है अर्थात् निमित्त कारण हैं । गौण हैं ॥ ११ ॥
कर्म का पर्याय । स्वभावकालग्रहकमदेव- । विधात पुण्यश्वरभाग्यपापम् ।। विधिःकृतांती नियतियमथ ।
पुराकृतस्यैव विशेषसंज्ञाः ॥ १२ ॥ भावार्थ:--स्वभाव, काल, ग्रह, कर्म, देव, विधाता ( ब्रह्मा ) पुण्य, ईश्वः, भाग्य पार, विधि, कृतांत, नियति, यम, ये सब पूर्वजन्मकृत कर्मका ही अपरनाम है । इसलिये जो लोग ऐसा कहा करते हैं कि "काल बिगडगया, ग्रह दोर मुझे दुःख देरहा है, दैव रुष्ट है, ब्रह्माने ऐसा ही लिखा है, ईश्वरकी ऐसी मर्जी है, यम. महान् दुष्ट है, होनहार बडा प्रबल है " इन सबका यही अर्थ है कि पूर्वोपार्जित कर्नको उदयसे ही मनुष्यको सुखदुःख मिलते हैं ॥ १२ ॥
रागात्पत्ति के शुख्यकारण न भूतकापानच दोषकोपा- | नचैव सांवत्सरिकोपरिष्टात् ॥ ग्रहप्रकापात्प्रभवंति रोगाः।
कर्मोदयोदीरणभावतस्ते ॥ १३ ॥ विना सुख दुःख का अनुभव हो ही नहीं सकता) लेकिन इन दोनों कर्मोको अपना फल प्रदान करने में निर्मित कारणों की जरूरत पड़ती है । पुण्यकर्म के लिए निमित्तकारण, दोषोंके उपराम होना है पारकर्म के लिए, दोषोंके प्रकोप होना है।
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