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कल्याणकारके
सोऽयं भवेदौपचसंविधानं ।। सुखकहेतुं तनुमद्गणस्य ।। ७ ।। न नित्यमार्ग क्षणिकस्वभावे । क्रिया प्रसिद्धा स्ववची विरोधात् ॥ हेवागमाधिष्ठित युक्तियुक्त।
स्थाद्वादवादाश्रयणं प्रधानम् ॥ ८॥ भावार्थ:-जिस चिकित्सकके मतमें उपर्युक्त प्रकार जीवपदार्थका वर्णन किया गता हो वही चिकित्सक प्राणियोंको मुख उत्पन्न करनेवाली चिकित्साको करसकता है। अन्य नहीं । आत्माके स्वभावको सर्वथा नित्य माननेपर अथवा सर्वथा क्षणिक मानोपर चिचिलाको प्रति ही नहीं हो सकती, क्यों कि, म्ववचन से ही विरोध आता है । आमाको सर्वथा नियमाननार चिकिमाकी आवश्यकता ही नहीं । सर्वथा क्षणिक माननेपर फोन किसकी चिकित्सा करें । इसलिए हेतु, आगम, युक्ति से युक्त स्याद्वाद [ अनेकांत ] का आश्रय करना आवश्यक है । अर्थात कचित् नित्य कथंचित् अनित्य मानना गा ।। ७-८
अतः पुमान्व्याधिरिहीषधानि । काल. कथंचिवहारयोग्यः ॥ नः सर्वथेति प्रतिपादनीयम् ।
युक्त्यागमाभ्यामधिक विरोधात् ॥ ९ ॥ भावार्थ----इसलिये अता, यावि, औषधि, और कालको, ऐसा मानना चाहिये जिसने ये किसी अपेक्षासे व्यवहार में लाने योग्य हो। कभी भी, नित्य ही है, अनित्य ही है , इत्यादि इस प्रकार सर्वथा प्रतिपादन न करना चाहिये । क्यों कि सर्वथा प्रतिपादन करने में, युक्ति, और आगम से, अत्यतं विरोध आता है ॥२॥
कमकि उदय के लिए निमिन कारण। ...
जीवस्यकमार्जिनपण्यपाप.. फलं प्रयत्नेन विनापि भुत्ते ॥ दोषप्रकोपोपशमौ च ताभ्या- ।
मृदाहता हेतनिबंधनाती ॥ १० ॥ मावार्थ:---.- यह जीत अपने कमलाल पुण्यपाप फलको विना प्रयत्नके ही
१...पुकर्म जिस मम, पना करने लगता है, तो प्राणियोंको मुम्ब का अनुभव होता है । साप कर्म अपना लगे तो, दासती दुःख का अनुभव होता है । ( इन कर्मोके
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