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रसायनविधिः ।
आत्माके कर्तृत्व आदि स्वभाव । सदैव संस्कर्तगुणोपपन्न- । स्स्वकर्मजस्यापि फलस्य भोक्ता ॥ अनाद्यनंतस्स्वशरीरमात्रः । प्रधान संहारविसर्पणात्मा ॥ ४ ॥
भावार्थ::- यह आत्मा, सदा कर्तृत्व गुण से युक्त है अर्थात् सभी कार्यों को करता है । इसलिये कर्ता कहलाता है । पूर्व में किये गये अपने कर्मफल को स्वयं भोगता है, ( अन्य नहीं ) इसीलिये भोक्ता है । यह आत्मा अनादि व अनंत है, एवं अपने शरीर के प्रमाण में रहनेवाला है और संकोच विस्तार गुण से युक्त है ॥ ४ ॥
आत्मा स्वदेहपरिमाण है ।
न चाणुमात्रो न कणप्रमाणो । नाप्येवमंगुष्ठसमप्रमाणः ||
न योजनात्मा नच लोकमात्री । देही सदा देहपरिमाणः ॥ ५ ॥
भावार्थ:- इस आत्मा का प्रमाण अणुमात्र भी नहीं है । एक कण मात्र भी
नहीं है । एवं अटके समान प्रमाणवाला भी नहीं है, और न इसका प्रमाण योजनका है, न लोकव्यापी है । देही ( आत्मा ) सदा अपने देहके ही प्रमाणवाला है ॥ ५ ॥
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आत्मा का नित्यानित्यादि स्वरूप | ध्रुवोप्यसौ जन्मजरादियोग | पर्यायभेदैः परिणामयुक्तः ॥ गुणात्मको दुःखसुखाधिवासः । कर्मक्षयादक्षमोक्षभागी ॥ ६ ॥
भावार्थ:- यद्यपि यह आत्मा ( मिस ) है अर्थात् अविनाशी है । तथापि जन्मजरा मृत्यु इत्यादि पर्यायोंके कारण परिणनन शील है अर्थात् अनित्य है, विनाशस्वरूपी हैं । अनेक श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त है । दुःखसुखका अधारभूत है अर्थात् उनको स्वयं अनुभव करता है । कर्मक्षय होनेके बाद अक्षय ( अविनाशी ) मोक्षस्थानको प्राप्त करता है || ६ ||
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( १०५)
आत्मा का उपर्युक्त व वालिये अत्यावश्यक है । एवं विध पदार्थभेदो । मतं भवेचस्य चिकित्सकस्य ॥
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