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अन्नपानविधिः
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भावार्थ: - यह वर्षाऋतुका गरम किया हुआ मंदोष्ण जल जिसमें झाग वगैरह न हो ऐसे निर्मल वा शुद्ध जलको पीना चाहिये । वह जल श्वासकांस, मेद, कफ, वात और आमको नाश करता है एवं ज्वरको भी दूर करनेवाला और मलशोधक, अग्निदीपन करनेवाला है ॥ १६ ॥
सिद्धान्नपानवर्गः ।
यवागू के गुण ।
पचति च खलु सर्व दीपनी बस्तिशुद्धिं । वितरति तृषि पथ्या वातनाशं करोति ॥ हरति च वरपित्तं श्लेष्मला चातिलघ्वी- । सततमपि यवागू मानुषन निषिद्धा ॥ १७ ॥ भावार्थ:- यवागू सर्व आहारको पचाती है । अग्निको दीपन करती है, ( मूत्राशय ) शुद्धि को करती है, प्यासमें पीने के लिये हितकर है, वातको नाश करती है, पित्तोद्रेकको भी नाश करता है । कफ को बढाती है अत्यंत लघु है । इसलिये यवागू मनुष्यों को हमेशा पीनेके लिये निषिद्ध नहीं हैं अर्थात् हमेशा पी सकते हैं।
विशेष :- यवागू दाल आदि धान्योंकों को छह गुना जल डालकर उतना पकावें कि उस में विशेष द्रव न रह जाय लेकिन ज्यादा घन भी नहीं होना चाहिये । उसको यवागू कहते हैं । अन्यत्र कहा भी है । यवागू षड्गुणस्तोयैः संसिद्धा विरलद्रवा ॥ १७॥
मण्ड गुण |
कफकरमतिवृष्यं पुष्टिकृन्मृष्टमेतत् । पवनरुधिरपित्तोन्मूलनं निर्मलंच ॥ बहलगुरुतराख्यं बल्यमत्यंतपथ्यं । क्रिमिजनन विषघ्नं मण्डेमाहुर्मुनींद्राः ॥ १८ ॥
भावार्थ::-माण्ड कफको वृद्धि करनेवाली है, अत्यंत पौष्टिक वृष्य ( कायको बढाने वाली है ) है, स्वादिष्ट है । वायुविकार व रक्तपित्त के विकार को दूर करने वाली है, निर्मल है । जो मण्ड गाढी है वह गुरु होती है । और शरीरको बल देनेवाली एवं हितकर है । क्रिमियोंको पैदा करती है विषको नाश करती है इस प्रकार मुनींद्र 1 मण्डका गुण दोष बतलाते हैं ॥ १८ ॥
१ कहा भी है- मण्डश्चतुर्दशगुणे सिद्धस्तोये त्वसिवथकः ।
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