________________
रसायनाविधिः ।
(८३)
अथ षष्ठः परिच्छेदः।
अथ दिनचर्याधिकारः ।
मंगलाचरण व प्रतिक्षा । नत्वा देवं देववृंदार्चितांघ्रि । वीरं धीरं साधु सुज्ञानवाधिम् ॥ स्वस्थं स्वस्थाचारमार्गो यथाव-।
च्छास्त्रोदिष्टः स्पष्टमुद्योततेऽतः ॥१॥ भावार्थ:-देवोंके द्वारा वंद्य चरणवाले, धीर वीर और साधुवाके लिए ज्ञान समुद्रके रूपमें हैं ऐसे भगवान्को नमस्कार कर स्वास्थ्याचारशास्त्रमें उपदिष्ट प्रकार श्रेष्ठ स्वास्थ्य का उपदेश यहांपर दिया जाता है ॥ १ ॥
दंत धावन । प्रातः प्रातर्भक्षयेदंतकाष्टं । निर्दोष यद्दोषवर्गानुरूपम् ॥
अन्ने कांक्षा वाक्प्रवृत्तिं सुगंधि ।
कुर्यादतन्नाशयेदास्यरोगान् ॥२॥ भावार्थ:-प्रतिनित्य प्रातःकाल, नीम बबूल कारंज अर्जुन आदिके दांतूनोंसे जो वात पित्त कफोंके अनुकूल अर्थात् दोषोंको नाश करनेवाले हों एवं निर्दोष हों दांत साफ करना चाहिये । इस प्रकार दांतुन करनेसे भोजनमें इच्छा, वचनप्रवृत्तिमें स्पष्टता, मुखमें सुगंधि एवं सर्व मुखरोगोंका नाश होता है ॥ २ ॥
दांतून करमेके अयोग्य मनुष्य । शोषोन्मादाजीर्णमूर्दिता ये। कासश्वासच्छर्दिहिकाभिभूताः ॥ पानाहाराः क्लिन्नगात्राः क्षतातोः ।
सर्वे वज्योः दन्तकाष्ठप्रयोगे ॥३॥ भावार्थ:----शोष [ क्षय ] उन्माद, अजीर्ण, मूर्छा, कास श्वास, वमन हिचकी आदि रोगोंसे पीडित, क्षत आदि के द्वारा जिनका शरीर क्लिन्न [आई ] हो और पान, आहर ले चुके हों ऐसे मनुष्य दांतुन नहीं करें ।। ३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org