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कल्याणकारके कडुआ, तीखा रसयुक्त पदार्थोको. अर्थात् सुपारी, कत्था लवंग कस्तूरी ताम्बूल आदि सेवन कर, या हृद्य धूम आदि के सेवन कर, उद्रिक्त कफ को दूर करें ( क्यों कि भोजन करते ही कफकी वृद्धि होती है ) पश्चात् गर्वित होकर बैठे अर्थात् किसीकी कुछ भी परवाह न कर निश्चिंत चित्तसे बैठे । बादमें सौ कदम, चलकर, वाम पार्श्व को थोडा दबाकर उसी बायें बगलसे थोडी देर सोवे और उठते ही व्यायाम आदि न करें और द्रव पदार्थ को सेवन करते हुए थोडी देर बैठना चाहिये ॥ ४४ ॥
अंत्यमंगल । इति जिनवनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निमृतमिदं हि शकिरनिभं जगदेकाहेतम् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥४५॥
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इत्युग्रादित्याचायकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे
अन्नपानविधेिः पंचम परिच्छेदः ।
इयुग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में अन्नपानविधि नामक
पांचवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
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