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रसायनविधिः ।
(९७)
विडङ्गसार रसायन । साराणां वा सद्विडंगोद्भवानां । पिष्टं सम्यक्पिष्टवत्शोधयित्वा ॥ शीतीभूतं निष्कषायं विशुष्कं । धूलीं कृत्वा शर्कराज्याभिमिश्रम् ॥ ४६॥ तद्धांभोधौतनिश्छिद्रकुंभे। गंधद्रव्यैश्वानुलिप्तांतराले ।। निक्षिप्योर्ध्व बंधयेतहमध्ये । वर्षाकाले स्थापयेद्धान्यराशौ ॥४७॥ उद्धत्यैतन्मेघकाले व्यतीते । पूजां कृत्वा शुद्धदेहः प्रयत्नात् ॥ प्रातः प्रातः भक्षयेदक्षमात्रं । जीर्णे सर्पिः क्षीरयुक्तं तु भोज्यम् ॥४८ ॥ स्नानाभ्यंगं चंदनेनानुलेपं । कुर्यादास्यावासमप्यात्मरम्यं ॥ कांताकांतश्शांतरोगोपतापो ।
मासास्वादादिव्यमाप्नोति रूपं ॥ ४९ ॥ भावार्थ:- वायविडंग के कणों को पिट्टी बनाकर, ( उसको पिट्टी के समान अच्छीतरह से शोधन करके,) जब वह ठण्डे होजाय, कषाय रहित हों सूख गये हों तो उसको अच्छीतरह से चूर्ण करके बराबर, शक्कर, और घी मिल वें । छिद्रहित नया घडा लेकर उसे सुगंधित पानीसे अच्छीतरह धोले । एवं उसके अंदरके भागमें सुगंधद्रव्य को लेपन, करें। उसमें उपर्युक्त अवलेह को रखकर अच्छीतरह उसका मुंह बांधकर बरसात के दिनोमें घरके बीचमें रहनेवाली धान्यकी राशिमें रखना चाहिये । बरसातका मौसम निकल जानेके बाद इसको निकाल लेवें । तत् पश्चात् वमन, विरेचन आदि पंचकोंक द्वारा शरीस्की शुद्धि व प्रयत्नपूर्वक दान करके, देवपूजा आदि सत्कर्मों को करें । तदनंतर इस रसायन को प्रातः प्रतिदिन, एक तोलेके प्रमाण स भवन कर । जीर्ण होने के बाद घी दूधके साथ भोजन करना चाहिये । तैलाभ्यंग, नान, शरीरको चंदनलेपन आदि करना चाहिये । रहनेका स्थान भी सुंदर बनाना चाहिये। इस प्रकार एक महिना करे तो उसका शरीर अतिसुंदर बनता है, शरीर के मर्व रोग दूर होते हैं तथा त्रियेंगे को प्रिय होता है ॥४६-४७-४८-४९॥
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