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रसायनविधिः ।
(८७)
तांबूल भक्षण गुण सौख्यं भाग्यं सौरभं सुप्रसादं । कांति प्रल्हादं कामुकत्वं सगर्व ॥ सौख्यं सौंदर्य सौमनस्यं सुरूपं । नित्यं सर्वेषामंगरागः करोति ॥ १४ ॥ कांतिं संतोषं सद्रवत्वं मुखस्य । व्यक्तं वेद्यं भूषणं भूषणानाम् ।। रागं रागित्वं रागनाशं च कुर्यात् ।।
पूज्यं तांबूलं शुद्धिमाहारकांक्षाम् ॥ १५॥ भावार्थ:--तांबूल ( पान ) के खानेसे शरीरमें सौख्य भाग्य, सुगंधि, संतोष कांति, उल्लास, सुंदर विषयाभिलाषा आदि गुण बढते हैं । मुखमें कांति होनेके साथ २ मनमें संतोष रहता है । मुखमें द्रवत्व रहता है, लोकमें वह मुखका भूषण भी समझा जाता है। मधुर स्वर पैदा होता है। मुख्में ललाई उत्पन्न होनेके साथ २ बहुतसे रोगोंका नाश भी करता है । आहारमें इच्छाको उत्पन्न करता है । भोजन के बाद मुखशुद्धि करता है, इसलिये ऐसे अनेक प्रकारके गुणोंसे युक्त तांबूल सदा सेव्य है ॥ १४ ॥ १५ ॥
ताम्बूल सेवन के लिये अयोग्य व्यक्ति ।
तत्तांबूलं रक्तपित्तज्वरातः। शोषी:क्षीणस्सद्विरिक्तोऽतिसारी ॥ क्षुत्तृष्णोन्मादातिकृच्छ्राभिभूतः ।।
पीत क्षीरस्संत्यजेन्मधमत्तः ॥१६॥ भावार्थ:-जिसको रक्तपित्त होगया हो, जो ज्वरसे पीडित हो, जिसे क्षयरोग होगया हो जो अत्यंत कृश हो, जिसको विरेचन दे दिया हो अतिसार रोगसे पीडित हो, क्षुधा व तृषासे बाधित हो, उन्माद जिसको हुआ हो, मूत्रकृच्छ्रसे पीडित हो, दूध पिया हो, और शराब पीकर नशेमे मस्त हो ऐसी अवस्थावोमें तांबूल वर्ण्य है ॥ १६ ॥
जूता पहिनने, व पादाभ्यंगके गुण | सोपानत्कस्संचरेत्सवकालं । तेनारोग्यं प्राप्नुयान्मार्दवं च ॥ पादाभ्यंगात्पाददाहप्रशांतिं । निद्रासौख्यं निर्मलां चापि दृष्टिम् ।। १७ ।।
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