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अन्नपानविधिः ।
(७१) जलका स्पर्श व रूप दोष । खरतरमिह सोष्णं पिच्छिलं दंतचय । सुविदित जलसंस्थं स्पर्शदोपप्रसिद्धम् ।। बहलमलकलंकं शैवलात्यंत कृष्णं ।
भवति हि जलरूपे दोष एवं प्रतीतः ।। ९॥ भावार्थ-जो पानी द्रवीभूत न हो, उष्ण हो, दांतसे चाबनेमें आता हो, चिकना हो वह जल स्पर्श दोषसे दूषित समझना चाहिये । एवं अत्यंत मलसे कलंकित रहना, शेवालसे युक्त होनेसे काला होना यह जलके रूपमें दोष है ॥ ९॥
जलका, गंध, रस व वीर्यदोष । भवति हि जलदोषोऽनिष्टगंधस्सुगंधो । विदितरसविशेषोप्येष दोषो रसाख्यः ॥ यदुपहतमतीवामानशुलप्रसकान् ।
तृषमपिजनयेत्तत् वीर्यदोषभिपाकं ॥ १० ॥ भावार्थ-जलमें दुर्गंध रहना अथवा सुगंध रहना यह जलगत गंधदोष है । कोई विशेष रस रहना ( मालूम पडना ) यह जलगत रसदोष है। जिस जलको थोडा पीनेपर भी, आध्मान ( अफराना ) शूल, जुखाम आदि को पैदा करता है एवं प्यासको भी बढाता है, वह वीर्य दोष से युक्त जानना चाहिये ॥ १० ॥
जलका पाक दोष । यदपि न खलु पीतं पाकमायाति शीघ्रं । भवति च सहसा विष्टंभिपाकाख्य दोषः ॥ पुनरथकथितास्तु व्यापदः षड्विधास्सत् ।।
प्रशमनमिह सम्यकथ्यते तोयवासः॥११॥ भावार्थ-जो जल पीने पर शीघ्र पचन नहीं होता है और सहसा, मलरोध होता है यह जलका पाक नामक दोष है । ऊपर जलमें जो २ छह प्रकारके दोष बतलाये गये उनको उपशमन करनेके जो उपाय हैं उनको अब यहांपर कहेंगे ॥११॥
जलशुद्धि विधान । कतकफलनिघृष्टं वातसीपिष्टयुक्तं । दहनमुखविपकं तालाहाभितप्तं ॥ दिनकरकरतप्तं चंद्रपादैनिशीथे । परिकलितमनेकैश्शोधितं गालितं तत् ॥ १२ ॥
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