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कल्याणकारके
हो एवं वृक्ष प्रायः कोटरोंसे युक्त हों वह भूमि अधिक वायूगुणवाली है । ऐसी भूमिमें उत्पन्न होनेवाला जल कडुवा होता है कषायाला होता है, उसका वर्ण धूंचा जैसा होता है ॥५॥ अग्निगुणाधिक्यभूमि एवं वहांका जलस्वरूप | बहुविवणीत्यंतधातूष्णयुक्ता । विमलतृणसस्या स्वल्पपाण्डुमरोहा || दहनगुणधरेयं धारिणी तोयमस्यां । कटुकमपिच तिक्तं भासुरं धूसरा ॥ ६ ॥
भावार्थ:- जो बहुत प्रकार के श्रेष्ट वर्ण, व उष्ण धातूओंसे संयुक्त, निर्मल तृण व सस्यसहित हो और जहां थोडा सफेद अंकुर हों ऐसी भूमि, अग्नि गुणसे युक्त होती है । ऐसी भूमिमें उत्पन्न जल कटु ( चिरंपरा ) व कडुआ रसवाला होता है तथा उसका वर्ण, भासुर वधूसर है || ६ ॥
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आकाशगुणयुक्त भूमि एवं वहा का जलस्वरूप |
समतलमृदुभागाश्वभ्रमत्यनुदामा । विरलसरलसज्जमांशुवृक्षाभिरामा ॥ वियदमलगुणाढ्या भूरिहाय्यं सर्वं । व्यपगतरसवर्णोपेतमेतत्प्रधानम् ॥ ७ ॥
भावार्थ:-- जो भूमि, समतल वाली हो, अर्थात् ऊंची नीची न हो, मृदु हो छिद्र व खड्डे से युक्त न हो विरल रूपसे स्थित सरल, सान, आदि ऊंचे वृक्षों से सुशीभित हो, तो उस भूमि को श्रेष्ट आकाश के गुणों से युक्त जानना चाहिये । इस भूमि मैं उत्पन्न जल, विशेष ( खास ) वर्ण व रस से रहित है। यही प्रधान है । अत एव पीने योग्य है || ७ ||
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पेयांपेय पानी के लक्षण । व्यपगतरसगंध स्वच्छमत्यंतशीतं । लघुतममतिमेध्यं पेयमेतद्धि तोयम् ॥ गिरिगहन कुदेशोत्पन्नपत्रादिजुष्टं । परिहृतमितिचोक्तं दोषजालैरुपेतम् ॥ ८ ॥
भावार्थ:- जिस जलमें रत और गंध नहीं है, स्वच्छ है एवं अत्यंत शीत है, हलका है बुद्धिप्रबोधक है वह पीने योग्य है । और बडे पहाड, जंगल खोटा स्थान, इत्यादिसे उत्पन्न व वृक्षके पत्ते इत्यादियोंसे युक्त जल दोषयुक्त है । उसे नहीं पीना चाहिये ॥ ८ ॥
१ बुद्धिप्रबोधनम् ।
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