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स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः
वैद्यशास्त्रका प्रधानध्येय । लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्रं शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च
संक्षेपतः सकलमेव निरूप्यतेऽत्र ॥ २४ ॥ भावार्थ:-यह वैद्यकशास्त्र लोकके प्रति उपकारके लिये है। इसका प्रयोजन, स्वस्थका स्वास्थ्यरक्षण और रोगीका रोगमोक्षणके रूपसे दो प्रकार है। इन सबको संक्षेपसे इस ग्रंथमें कहेंगे ॥ २४ ॥
__ लोकशद्वका अर्थ जीवादिकान् सपदि यत्र हि सत्पदार्थान् सस्थावरप्रवरजंगमभेदभिन्नान् आलोकयंति निजसद्गुणजातिसत्वान्
लोकोयमित्यभिमतो मुनिभिः पुराणैः ॥२५॥ भावार्थ:-जिस जगह अपने अनेक जाति व गुणों से युक्त स्थावर जंगम आदि जीव, अर्जावादिक षड्व्य सप्ततत्व व नव पदार्थ आदि पाये जाते हों या देखें जाते हों उसे प्राचीन ऋषिगण लोक कहते हैं ॥ २५ ॥
चिकित्साके आधार । सिद्धांततः प्रथितजीवसमासभेदे पर्याप्तिसंज्ञिवरपंचविधेद्रियेषु तत्रापि धर्मनिरता मनुजाः प्रधानाः
क्षेत्रे च धर्मबहुले परमार्थजाताः ।। २६ ॥ भावार्थ:-जैन सिद्धांतकारोंने जीवके चौदह भेद बतलाये हैं, एकेंद्रिय सूक्ष्म पर्याप्त २ एकेंद्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त ३ एकेंद्रिय बादरपर्याप्त ४ एकद्रिय बादरअपर्याप्त ५ द्वींद्रिय पर्याप्त ६ द्वींद्रिय अपर्याप्त, ७त्रींद्रिय पर्याप्त ८ त्रीद्रिय अपर्याप्त ९ चतुरिंद्रिय पर्याप्त १० चतुरिंद्रिय अपर्याप्त ११ पंचेद्रिय असंज्ञी पर्याप्त १२ पंचेद्रिय असंज्ञी अपर्याप्त १३ पंचेद्रिय संज्ञी पर्याप्त १४ पंचेद्रिय संज्ञी अपर्याप्त इस प्रकार चौदह भेद हैं । जिनको आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छास, भाषा व मन ये छह पर्याप्तियोमें यथासंभव पूर्ण हुए हों उन्हे पर्याप्तजीव कहते हैं। जिन्हे पूर्ण न हुए हों उन्हे अपर्याप्त जीव कहते हैं । अपर्याप्त जीवोंकी अपेक्षा पर्याप्त जीव श्रेष्ठ हैं । जिनको हित अहित, योग्य अयोग्य गुण दोष आदि समझमें आता है उन्हे संज्ञी कहते हैं, इसके विपरीत असंज्ञी है। असंज्ञियोंसे
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