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- सूत्रव्यावर्णनम्
दोषप्रकोपोपशम के प्रधानकारण वाह्यातंरंगात्मनिमित्तयोगात कर्मोदयोदीरणभावतो वा । क्षेत्राद्यशेषोरुचतुष्टयादा दोषाः प्रकोपोपशमी व्रजति ॥ ५३॥
भावार्थ:-प्रतिकूल व अनुकूल बाह्य व अंतरंग कारण से, व असाता व सातवेदनीय कर्मके उदय वः उदीरणा से विपरीत, व अविपरीत, द्रव्य, क्षेत्र काल, भावसे, वात आदि दोषोंके प्रकोप व उपशम होता है । विशेष—प्रत्येक कार्यकी निष्पत्ति के लिये दो प्रकारके निमित्त कारणोंकी आवश्यकता होती है । एक बाह्यनिमित्त व दूसरा अंतरंग निमित्त । रोगकी निवृत्तिके लिये बाह्य निमित्त औषधि, सेवा, उपचार वगैरह है । अंतरंग निमित्त तत्तत्रोगसंबंधी असातावेदनीय कर्मका उदय हे । कर्मोकी स्थितिको पूर्णकर फल देनेकी दशाको उदय कहते हैं । एवं कर्मोकी स्थिति विना पूरी किये ही कर्मके फल देकर खिरजानेको सिद्धांतकार उदीरणा कहते हैं। सातावेदनीय कर्मका उदय व असातावेदनीयकी उदीरणा भी रोगकी निवृत्ति केलिये कारण है । योग्य औषधि आदिक द्रव्य, औषधिसेवन योग्य क्षेत्र, तद्योग्य काल व भाव भी रोगकी निवृत्ति के लिये कारण है । इसलिये इन सब बातोंके मिलनेसे दोषोंके प्रकोपका उपसम होता है । इन बातोंकी विपरीततामें दोषोंका प्रकोप व अनुकूलतामें तदुपशम होता है ॥५३॥
वातप्रकोप का कारण। व्यायामतो वाप्यतिमैथुनाद्वा दूराध्वयानादधिरोहणाद्वा । संधारणात्स्वप्नविपर्ययावा तोयावगाहात्पवनाभिघातात् ॥ ५४ ॥ श्यामाकनीवारककोद्रवादि दुर्धान्यनिष्पावममूरमाणैः । मुद्दाढकीतिक्तकषायशुष्कशाकादिरूक्षादिलघुप्रयोगैः ॥ ५५ ॥ हर्षातिवातातिहिमप्रपातात् जुंभात्क्षताद्वादिविघातनाद्वा । रूक्षानपानरतिशीतलैर्वा वातःप्रकोपः समुपैति नित्यम् ॥ ५६ ॥
भावार्थ:-अति व्यायाम करनेसे, अति मैथुन करनेसे, बहुत दूर पैदल मार्ग चलनेसे, कोई सवारी वगैरहमें चढनेसे, अधिक वजन ढोनेसे, ठीक २ समय नींद नहीं करनेसे पानीमें प्रवेश करनेसे (अधिक तैरना आदि) वायुके आघातसे, साँमाधान, नीवारक तिन्नीके चावल, कोदों, खराब धान्य, शिम्बी धान्य (सेम का जातिविशेष ) मसूर, उडद, मूंग, अडहर, तीखा, कषायला, शुष्क, और रूक्ष साग आदि एवं लघु पदार्थोंका प्रयोग करनेसे, अति हर्ष, अतिवात, जखम होना, जाई, बरफ गिरना, आघात आदिसे, रूक्ष अन्न पान व अतिशीत अन्न पानके प्रयोगसे हमेशा वात कुपित होता है । ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥
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