________________
कल्याणकारके
भावार्थ:--भोजन करने के लिये, जिसपर सुखपूर्वक बैठ सके ऐसे साफ आसन पर, स्थिर चित्त होकर अथवा स्थिरतापूर्वक बैठे । पश्चात् अपनी प्रकृति व बलको विचार कर उसके अनुकूल, थोडा गरम ( अधिक गरम भी न हो न ठण्डा ही हो) सर्व ऋतु के, अनुकूल, ऐसे आहार को, शीध्र ही [अधिक विलम्ब न भी हों व अत्याधिक जल्दी भी न हों ] उसपर मन लगा कर खावें । भोजन करते समय सबसे पहिले चिकना, व मधुर अर्थात् हलुआ, खीर बर्फी लडु आदि पदार्थों को खाना चाहिए । तथा भोजन के बीचमें नमकीन; खट्टा आदि अर्थात् चटपटा मसालेदार चीजों को व भोजनांत में दूध आदि द्रवंप्राय आहार खाना चाहिए ॥ १७ ॥
भोजन समय में अनुपान भुक्त्वा वैदलसुप्रभूतमशनं सौवीरपायीभवेन्मय॑स्त्वोदनमेवचाभ्यवहरंस्तत्कानुपानान्वितः । स्नेहानामपि चोष्णतो यदमलं पिष्टस्य शीतं जलं
पीत्वा नित्यसुखी भवत्यनुगतं पानं हितं प्राणिनाम् ॥१८॥ भावार्थ:-दालसे बनी हुई चीजोंका ही, मुख्यतया खाते वखत कांजी पीना चाहिये । भात आदि खाते समय, तक्र [छाच पीना योग्य है। घी आदिसे बनी हुई चीजों से भोजन करते हुए, या स्नेह पीते समय, उष्ण जलका अनुपान करलेना चाहिये । पिट्टी से वनी पदार्थों को खाते हुए ठण्डा जल पीना उचित है । प्राणियोंके हितकारक इस प्रकार के अनुपान का जो मनुष्य नित्य सेवन करता है वह नित्यसुखी होता है॥ १८ ॥
अनुपानकाल ब उसका फल प्राग्भक्तादिह पीतमावहति तत्कार्य जलं सर्वदा । मध्ये मध्यमतां तनोति नितरां प्रांते तथा बृंहणम् ॥ ज्ञात्वा सद्रवमेव भोजनविधिं कुर्यान्मनुष्योन्यथा ।
भुक्तं शुष्कमजीणेतामुपगतं बाधाकरं देहिनाम् ॥ १९ ॥ भावार्थ:--भोजन के पहिले जो जल लिया जाता है; वह शरीरको कश करता है। भोजनके बीचमें पीवे तो वह न शरीरको मोटा करता है न पतला ही किंतु मध्यमता को करता है । भोजन के अंत में पीवें तो यह बृहण ( हृष्ट पुष्ट ) करता है । इसलिये
१. जो. भोजन के पश्चात् अर्थात् साथ २ पान किया जाता है वह अनुपान कहलाता हैं । अनुगतं पानं अनुपानं इस प्रकार इस की निष्पत्ति है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org