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धान्यादिगुणागुणविचार
(५३)
इस प्रसरका भेद पंद्रह ही है ऐसा कोई नियम नहीं है । ऊपर स्थूल रीतिसे भेद दिखलाया है । सूक्ष्मरीतिसे देखा जाय तो अनेक भेद होसकता है।
दोषोंके शरीरावयवोमें आश्रय करने की अवस्था को ही अन्योन्याश्रय, या, स्थानसंश्रय कहते हैं । स्थानसंश्रय होते ही पूर्वरूप का प्रादुर्भाव होता है । इसी को व्यक्ति कहते हैं । इसी को भेद कहते हे ॥ ९ ॥
सम्यक्संचयमत्र कोषमखिलं पंचादशोत्सर्पणम् । चान्योन्याश्रयणं निजप्रकटितं व्यक्तिप्रभेद तथा । यो वा वेत्ति समस्तदोषचरितं दुःखपद प्राणिनाम् ।
सोऽयं स्याद्भिषगुत्तमः प्रतिदिनं षण्णां प्रकुर्याक्रियाम् ॥ १० ॥ भावार्थ:--इस ऊपर कहे गये, सर्व प्राणियोंको दुःख देने वाले, दोषों ( वात पित्त कफ ) के संचय, प्रकोप ( पंद्रह प्रकारके ) प्रसर, अन्योन्याश्रय (स्थानसंश्रय ) व्यक्ति और भेद इत्यादि संपूर्ण चरित्र को अच्छीतरह से जो जानता है। वही उत्तम भिषक् (वैद्य ) कहलाता है । उसको उचित है कि उपरोक्त संचय आदि छह अवस्थाओंमें, शोधन, लंघन, पाचन, शमन आदि यथायोग्य चिकित्सा करें अर्थात् संचय आदि पूर्व २ अवस्थाओंमें योग्य चिकित्सा करें, तो, दोष आगे की अवस्थाको, प्राप्त नहीं कर सकते हैं । और चिकित्सा कार्य में सुगमता होती है । उत्तरोत्तर अवस्थाओंमें कठिनता होती जाती है।
दोषोंके संचय आदि दो प्रकार से होता है। एक तो ऋतु स्वभावसे, दूसरा, अन्य स्वस्व कारणोंसे । यहां छह अवस्थाओंमें चिकित्सा करनेकी जो आज्ञा दी है, वह स्वकारणोंसे संचय आदि अवस्था प्राप्त दोषोंका है । क्यों कि ऋतुस्वभावसे संचित दोषोंकी चिकित्सा उसी अवस्थामें नहीं बतलायी गई है । परंतु प्रकोपकालमें, शोधन आदि का कथन किया है ॥ १० ॥
एवं कालविधानमुक्तमधुना ज्ञात्वात्र वेद्यो महान् । पानाहारविहारभेषजविधि संयोजयेद्वद्धिमान् ।। तत्रादौ खलु संचये प्रशमयेदोषाकोपे सदा।
सम्यक्शाधनमादरादिति मतं स्वस्थस्य संरक्षणम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अर्भातक काल भेद को जानकर तत्तत्कालानुकूल प्राणियोंके लिए अन्नपानादिक आहार व विहार औषधि आदिकी योजना करें । सबसे पहिले संचित दोषोंको (प्रकोप होनके पूर्व ही ) उपशम करनेका उपाय करना चाहिए । यदि ऐसा न करने के कारण दोष प्रकोप हो जाय तो उस हालत में आदर पूर्वक सम्यक्
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