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पित्तप्रकोप के कारण
शोकाधिकको भयातिहर्षा तीव्रोपवासादतिमैथुनाच्च । कवम्लतीक्ष्णातिपटुप्रयोगात् संतापिभिः सर्षपतैलमिश्रैः ॥ ५७ ॥ पिण्याकतैलातपशाकमत्स्यैः छागाविगोमांसकुलत्थयूंपैः । तत्राम्लसौवीरसुराविकारैः पित्तप्रकोपो भवतीह जंतोः ।। ५८ ।।
भावार्थ:- -अधिक शोक, क्रोध, भय, और हर्षसे, तीव्र उपवास व अधिक मैथुन करनेसे, कटु ( चरपरा ) खट्टा, क्षार आदि तीक्ष्ण, एवं नमकीन पदार्थोके अधिक सेवन से सरसोंके तैलसे तला हुआ पदार्थ, तिलका खल, तिलके तैलके भक्षणसे, धूपका सेवन से उष्ण शाकोंके उपयोगसे मछली, बकरी, भेड, गाय, इनके मांस, कुलथीका यूष (जूस) खड्डी कांजी, और मदिरा के सेवन से शरीर में पित्तप्रकोप होता है ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
कफप्रकोप के कारण ।
कल्याणकारके
नित्यं दिवास्वप्नतयाव्यवायः व्यायामयोगादुरुपिच्छिलाम्लैः । स्निग्धातिगाढातिपटुप्रयोगैः पिष्ठेक्षुदुग्धाधिकमाषभक्ष्यैः ।। ५९ ।। दध्ना संधानक मृष्टभेोज्यैः वल्लीफलैरध्यशनैरजीर्णैः । अत्यम्लपानैरतिशीतलान्नैः श्लेष्मप्रकोपं समुपैति नॄणाम् ॥ ६० ॥
भावार्थ:- प्रति नित्य दिनमें सोनेसे, मैथुन व व्यायाम न करनेसे, अधिक लिवलिवाहट खड्डा स्निग्ध ( चिकना घी तैल आदि ) अतिगाढा या गुरु और नमकीन पदार्थों के सेवनसे, अधिक गेहूं, चना आदिके पठि [आटा ] ईखका रस, (गुड, शक्कर आदि इक्षुविकार) दूध, एवं उसे मिश्रित या इनसे बने हुए भक्ष्योंके सेवनसे, दही, मदिरा आदि, संवित पदार्थ, मिठाई आदि भोज्य पदार्थ, और कूष्माण्ड ( सफेद कद्दू) के सेवनसे, भोजन के ऊपर भोजन करनेसे, अजीर्णसे, अत्यंत खड्डे रसोंके पीनेसे, अतिशीतल अन्नके सेवनसे मनुष्योंके कफ प्रकुपित होता है । ।। ५९ ।। ६०॥
दोषोंके भेद
भवंति दोषाः । रक्तंच दोषैस्सह संविभाज्यं धातुस्तथा दूषकदूष्यभावात् ।। ६१ ।
प्रत्येक संयोगसमूहभंगेः पुंसो दशैवात्र
१- दघ्नालसंदाल्कन इति पाठांतरं ।
-पंचादशैवात्र, इति पाठांतरं ।
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