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गर्भोत्पत्तिलक्षणम्
(२९)
भावार्थ:-वह गर्भगत बालक अपने कर्मवश ऐसे स्थानसे बाहर निकलता है जो कि कहनेके लिए भी अयोग्य है । जहां अत्यंत अशुचि मल, मूत्र, रक्त आदियोंका स्राव होता रहता है । गुह्य मलसे लिपा हुआ होनेके कारण जिसमें अत्यधिक दुर्गंध आत है, बहुत से रोम जिसमें है, देखने व जाननेके लिए अत्यंत घृणित है, असहनीय है, गुदस्थानके बिलकुल पासमें है, जिसके मुख नीचे की तरफ रहता हैं। ऐसे अपवित्र रंध्र स्थान को भी कर्मवशात् बालक प्राप्त करता है ॥ ५८ ॥
शरीरलक्षणकथन प्रतिज्ञा। प्रतीतमित्थं वरगर्भसंभवं निगद्य यत्नादुरुशास्त्रयुक्तितः। यथाक्रमातस्य शरीरलक्षणं प्रवक्ष्यते चारु जिनेंद्रचोदितम् ॥ ५९ ॥
भावार्थ:-इस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध गर्भोत्पत्तिके संबंधमें अत्यंत यत्नके साथ शास्त्र व तदनुकूल युक्तिसे प्रतिपादन कर अब जिनेंद्रभगवंत के कथनानुसार क्रमसे उसके शरीरलक्षणका प्रतिपादन (अगले अध्यायमें) कियाजायगा ॥ ५९॥
अंतिमकथन। इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः । उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ६०॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमे जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६० ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षणाधिकारे
गर्भोत्पत्तिलक्षणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः।
-:०:इत्युग्रादित्याचार्य कृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में गर्भोत्पत्तिलक्षण नामक
द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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