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( ३० )
कल्याणकारके
अथ तृतीयः परिच्छेदः ।
मंगलाचरण व प्रतिज्ञा
सिद्धं महासिद्धिमुखहेतुं श्रीवर्धमानं जिनवर्द्धमानम् ।
नत्वा प्रवक्ष्यामि यथोपदेशाच्छरीरमाद्यं खलु संविदानम् ॥ १ ॥
भावार्थः – जो सिद्धगतिको प्राप्त हुए हैं सिद्ध [मोक्ष] सुखके लिये एकमात्र कारण हैं, जिनकी अंतरंग बहिरंग श्री बढी हुई है, ऐसे श्रीवर्द्धमान भगवंत को नमस्कार कर, सबसे पहिले गुरूपदेशानुसार शरीर के विषय में कहेंगे ॥ १ ॥
अस्थि, संधि, आदिककी गणना
अस्थीन्यथ प्रस्फुटसंघयश्च स्नायुश्शिराविस्तृतमांसपेश्यः । संख्याक्रममात्रिं त्रिनवप्रतीतं सप्तापि पंच प्रवच्छतानि ॥ २ ॥ भावार्थ:- : - इस मनुष्य शरीरमें तीनसौ अस्थि [हड्डी ] हैं, तीनसौ संधि [ जोड ] और स्नायु (नसें नौ सौं हैं। सात सौ शिरायें [ बारीक रगे ] हैं और पांच सौ मांस पेशी हैं ॥२॥ धमनी आदिकी गणना ।
नाभेः समंतांदिह विंशतिश्च तिर्यक्चतस्त्रच धमन्य उक्ताः ।
नित्यं तथा षोडश कंदराणि रिक्तां च कूर्चानि षडेवमाहुः ॥ ३ ॥
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भावार्थ : - - नाभिके ऊपर और नीचे जानेवाली धमनी ( नाडी ) वीस हैं अर्थात् ऊपर दस गयी हैं, नीचे दस गयी हैं । और इधर उधर चार [ तिर्यक् रूपसे ] धमनी रहती हैं । इस प्रकार धमनी चव्वीस हैं । सोलह कंदरा [ मोटी नसें ] हैं । कूर्च [ कुंचले ] छह हैं ॥ ३ ॥
१ यहां तीनसौ हड्डी, और तीन सौ संधि बतलायी गयी हैं । लेकिन जितनी हड्डी हैं उतनी ही संधि कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि दो हड्डियों के जुडने पर एक संधि होती है । इसलिये अस्थि संख्या से, संधियोंकी संख्या कम होना स्वाभाविक है । सुश्रुत में भी ३०० अस्थि २१० संधि बतलायी गई हैं । यद्यपि हमें प्राप्त तीन प्रतियों मे भी "त्रि वि नवप्रतीतं” यही पाठ मिलता है । तो भी यह पाठ अशुद्ध मालूम होता है । यह लिपिकारोंका दोष मालूम होता है ।
२ - सुश्रुतसंहिता में "नाभिप्रभवाणां धमनीनामूर्ध्वगा दश दश चाधोगामिन्यश्चतस्त्रः स्तिर्यग्गाः " इस प्रकार चव्वीस धमनियों का वर्णन हैं । इसलिये " समंतात् " शब्द का अर्थ चारों तरफ, ऐसा होनेपर भी यहां ऊपर और नीचे इतना ही ग्रहण करना चाहिये। इसी आशय को आचार्य प्रवरने स्वयं, " तिर्यक्चतस्त्रश्च धमन्य उक्ताः यह लिखकर व्यक्त किया है । अन्यथा समंतात् से तिर्यक् भी ग्रहण हो जाता है ।
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