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(३२)
कल्याणकारके
भावार्थः-इस शरीरमें वसा [चर्बी] तीन अंजलि प्रमाण रहती हैं। पित्त और कफ प्रत्येक छह २ प्रसृति प्रमाण रहता हैं एवं रक्त अर्ध आढक प्रमाण रहता है ॥७॥
- मूत्रादिक के प्रमाण मत्र तथा प्रस्थपरिप्रमाणं । मध्येऽर्धमप्याढकमेव वर्चः । देहं समावृत्य यथाक्रमेण । नित्यं स्थिता पंच च वायवस्ते ॥ ८॥
भावार्थ:-शरीरमें मूत्र एक प्रस्थ प्रमाण रहता है । और मल अर्ध आढक रहता है, एवं देहमें व्याप्त होकर पांच प्रकारके वायु रहते हैं ॥ ८ ॥
पांचप्रकारके वात प्राणस्तथापानसमानसंज्ञौ । व्यानोऽप्यथोदान इति प्रदिष्टः । पंचैव ते वायव एव नित्य-माहारनीहारविनिर्गमार्थाः ॥ ९॥
भावार्थ:-देहमें प्राण वायु, अपानवायु, समानवायु, व्यानवायु व उदान वायुके नामसे पांच वायु हैं । जो आहारको पचाने अदंर लेजाने आदि काम करती हैं । एवं नीहार [ मलमूत्र ] के निर्गमनके लिये भी उपयोगी होती हैं ॥ ९ ॥
मलनिर्गमन द्वार अक्षिण्यथाश्रत्कटचिक्कणं च । कर्णे तथा कर्णज एव गृथः । निष्ठीवसिंहाणकवातपित्तजिहाद्विजानां मलमाननेस्मिन् ॥ १० ॥
भावार्थ:--आखोंसे आंसू व चिकना अक्षिमल, कानोंसे कर्णमल निकलता है, इसी प्रकार थूक, सिंघाण, वात, पित्त, निह्यामल व दंतमल इस प्रकार मुखसे अनेक प्रकारके मल निकलते हैं ॥ १० ॥
सिंहाणकश्चैव हि नासिकायां नासापुटे तद्भव एव गूथः ।
मूत्रं सरेतः सपुरीषरक्तं स्रवत्यधस्ताद्विवरद्वये च ॥ ११॥ भावार्थ:--सिंघाण नामक मल ही नाक से निकलता है । नाकके रंध्रमें उसी सिंघाणसे उत्पन्न शुष्कमल निकलता है । तथा नाचेके दो रंध्रोंसे वीर्य व मूत्र, एवं मल व रक्त का स्राव होता है ॥ ११ ॥
शरीरका अशुचित्व प्रदर्शन एवं स्रवद्भिन्नघटोपमानो देहो नवद्वारगलन्मलाढ्यः ।
स्वेदं वमत्युत्कटरोमकूपयुकासलिक्षाष्टपदाच तज्जाः ॥ १२ ॥ १-प्रस्थ-६४ तोले.
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