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(८)
कल्याणकारके
आयुर्वेदाध्ययनयोग्य शिष्य । राजन्यविप्रवरवैश्यकुलेषु कश्चिद्धीमाननिंद्यचरितः कुशलो विनतिः प्रातर्गुरुं समुपसृत्य यथानुपच्छेत
सोऽयं भवेदमलसंयमशास्त्रभागी ॥ २१ ॥ भावार्थ:-जिसका क्षत्रिय, ब्राह्मण व वैश्य इस प्रकारके उत्तम वर्णोमेंसे किसी एक वर्णमें जन्म हुआ हो, आचरण शुद्ध हो, जो बुद्धिमान्, कुशल व नम्र हो वही इस पवित्र शास्त्रको पठन करनेका आधिकारी है, प्रातःकाल वह गुरूकी सेवामें उपस्थित होकर इस विषयको उपदेश देने के लिये प्रार्थना करें, ॥ २१ ॥
वैद्यविद्यादानक्रम । ज्ञातस्य तस्य गुणतः सुपरीक्षितस्याप्यर्हत्समक्षमुपरोपितसहतस्य देयं सदा भवति शास्त्रमिदं प्रधानं
नान्यस्य देयमिति वैद्यविदो वदंति ॥ २२ ॥ भावार्थ:-गुरूको उचित है कि उस शिष्यका गुण, स्वभाव, कुल आदिकी अच्छीतरह परीक्षा सर्व प्रथम करलेवें, उसको यदि अध्ययनार्थ योग्य समझें तो जिनेंद्र भगवान् के समक्ष उसे अहिंसा, सत्य, अचौर्यादि व्रतोंको ग्रहण करावें पश्चात् उस शिष्यको यह प्रधानभूत वैवशास्त्र का अध्ययन कराना चाहिये, दूसरोंको नहीं, इस प्रकार इसके रहस्यको जाननेवाले कहते हैं ॥ २२ ॥
विद्याप्राप्तिक साधन । आचार्यसाधनसहायनिवासवल्मा आरोग्यबुद्धिविनयोद्यमशास्त्ररागाः बाद्यांतरंगनिजसद्गुणसाधनानि
शास्त्रार्थिनां सततमेवमुदाहृतानि ।। २३ ॥ भावार्थ:---विद्याध्ययन करनेकी इच्छा रखने वाले विद्यार्थियों के लिये बाल व अंतरंग साधनों की जरूरत है, अध्यापन कराने वाले गुरु, पुस्तक वगेरे, सहाध्यायी, रहने के लिये स्थान, व भोजन ये सब बाह्य साधन हैं. आरोग्य, बुद्धि, विनय, प्रयत्न व विद्यानुराग थे सब अंतता साधन हैं, इन साधनोंसे... सद्गुण प्रकट होते हैं ॥ २३ ॥
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