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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
(अष्टम-नवमपर्वणी)
सम्पादकौः स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी गणि
विजयशीलचन्द्रसूरिः
LISTRIHITEHRITITIHA
श्रीहेमचन्द्राचार्य
प्रकाशकः
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कारनिधि,
अमदावाद
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
(अष्टम नवमपर्वणी )
ई. २००६
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं
सम्पादकौः
स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी गणि विजयशीलचन्द्रसूरिः
श्रीहेमचन्द्राचार्य
प्रकाशक:
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति शिक्षण संस्कारनिधि, अमदावाद
For Private Personal Use Only
वि.सं. २०६२
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ( अष्टम-नवमपर्वात्मकश्चतुर्थो विभागः)
संपा. : स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी गणि
विजयशीलचन्द्रसूरिः
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अमदावाद
प्रतय :
५००
वि.सं. २०६२
ई. २००६
सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकाधीनाः
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भंडार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
मूल्य : रू. ३००/
मुद्रक :
क्रिश्ना ग्राफिक्स ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन : ०७९-२७४९४३९३) मोबा.:९४२६३००६४०
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(३)
समर्पण
तबियतनी प्रचंड प्रतिकूलताने अप्रमत्त ज्ञानसाधना माटेनी अनुकूलतामां फेरवी नाखनारा, शताधिक शास्त्रीय ग्रंथोना रचयिता, पूज्यपाद सूरिसम्राट परमगुरुना ८ सूरिशिष्यो पैकी एक - समर्थ सूरिवर आचार्यभगवंत श्रीविजयपद्मसूरीश्वरजी महाराजनी पुण्यस्मृतिने.....
- शीलचन्द्रविजय
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(૪)
ઈ.સ. ૧૦૮૯ થી ૧૧૭૩ એ વર્ષો કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્રના તેજથી દેદીપ્યમાન છે. હેમચંદ્રાચાર્ય ધર્મ અને તત્ત્વજ્ઞાનના પણ બેશક સારા વિદ્ધાનું હતા, અને તે વિષયના પણ દ્વાત્રિશિકા વગેરે એમના કેટલાક ગ્રંથો છે; પરંતુ જૈન વાભયને એમની ચિરસ્થાયી સેવા તો આ વિષય કરતાં ભાષા અને સાહિત્યના વિષયમાં વધારે થઈ છે, એમાં સંશય નથી. સંસ્કૃત ભાષા ઉપર એમનો હાથ કેવો સફાઈથી અને સરળતાથી ફરતો, એમનું કવિત્વ કેવું મધુર હતું, એ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત વગેરે ગ્રંથોની શૈલી, અલંકાર, કલ્પના વગેરે જોતાં જણાય છે.”
(આચાર્ય આનન્દશંકર ધ્રુવ)
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(५)
प्रकाशकीय निवेदन
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य भगवंतनी नवम जन्मशताब्दीना वर्षे (सं. २०४५) रचायेल आ ट्रस्ट तरफथी, श्रीहेमाचार्यनी अमर रचनारूप ग्रंथ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्यनो चोथो भाग प्रगट करता अमोने अनहद आनंद थाय छे.
पूज्य आचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराजनी प्रेरणाथी रचायेल आ ट्रस्टे त्रिषष्टि० भाग १, २, ३ एटले के अनुक्रमे १, २-३-४, अने ५-६-७ एटलां पर्वोनी समीक्षित वाचनाना जण ग्रंथो आ पूर्वे प्रगट करेल . आजे तेना चोथा भागरूप आ ग्रंथमां पर्व ८-९नी सम्पादित समीक्षित वाचना प्रगट भई रही छे.
हवे, आ ग्रंथना शेष बे अंशो - १० मुं पर्व तेमज परिशिष्ट पर्वनुं पण प्रकाशन करवानी अमारी धारणा छे. आ ग्रंथना प्रकाशन माटे अमदावादनी श्रीजैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक बोर्डिंग-संस्था तरफथी वणो आर्थिक सहयोग प्राप्त थयो छे, ते माटे अमो ते संस्थाना ऋणी छीए.
-X
लि.
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य
नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधिनो ट्रस्टीगण
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(६)
सम्पादकीय 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' ए श्रीहेमचन्द्राचार्य, एक उत्तम कक्षानुं महाकाव्य छे, जे लगभग छत्रीश हजार श्लोकोमां पथरायेलुं छे. आ महाकाव्यनुं अध्ययन सैकाओथी जैन संघमां अविरतपणे चाली रह्यं छे. आजे पण साधु-साध्वीसमुदायमां तेनुं पठन-पाठन चालु ज छे. आ महाकाव्यनी अनेक आवृत्तिओ प्रगट थई चुकी छे, एटलुं ज नहि, पण तेना गुजराती, हिन्दी तेमज अंग्रेजी अनुवादो पण थया छे अने छपाया छे.
आम छतां, आ महाकाव्यनी समीक्षित अने संशोधित वाचना अद्यावधि छपाई नथी. आ दिशामां सौथी प्रथम काम स्व. मुनि श्रीचरणविजयजीए आदरेखें, अने आ महाकाव्यना प्रथम पर्वनी शुद्ध वाचना तैयार करेली. ते पछी द्वितीय-तृतीयचतुर्थ एम त्रण पर्वोनी वाचना स्व. आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजीए तैयार करी हती.
___ आ पछीनां पर्वोनी वाचना तैयार करवायूँ कार्य स्व. पंन्यास श्रीरमणीकविजयजी गणिए करेलुं, जे अद्यावधि अप्रकाशित हतुं. आ अप्रकाशित फाइलो प्रत्ये माझं ध्यान जतां मने थयुं के आ कार्य करवू जोईए. तरत ज ते कार्य हाथ पर लीधुं. अवलोकन करतां लाग्युं के पं. श्रीरमणीकविजयजीए जे हस्तप्रतिओना आधारे वाचना तैयार करी छे, ते उपरांत पण केटलीक महत्त्वपूर्ण प्रतिओ छे, जेनो उपयोग थाय तो वाचना वधारे समीक्षित थई शके. एटले ए रीते में प्रयत्न आरंभ्यो, जेनुं परिणाम प्रस्तुत पुस्तक छे.
प्रस्तुत पुस्तकमां आठमुं अने नवमुं- एम बे पर्वोनो समावेश थयो छे. आ पैकी आठमा पर्वनी सरस प्रतिलिपि स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी महाराजे स्वहस्ते तैयार करी हती, तेनो उपयोग करेल छे. तेमणे ते प्रतिलिपिमां आपेली वाचनाना पाठान्तरो नोंधेला तेमज केटलांक टिप्पणो पण करेलां. तेमणे निम्ननिर्दिष्ट संज्ञावाळी प्रतिओनो उपयोग को जणाय छ :
ला. १,२, ला; की०, छा०, पा०, सं०, ता०, पु०, आ० ॥ प्रतिओ के ते ते संज्ञाओ, विवरण आ प्रमाणे मळ्युं छे :ला० १ : ला. द. विद्यामन्दिर शास्त्रसंग्रहसत्क कागद प्रति, ले. सं. १५२७, शुद्धप्राय प्रति. ला०२ : ला. द. विद्यामन्दिर शास्त्रसंग्रहसत्क कागदप्रति, अनुमान सं. १७ मो सैको, मध्यम. ला० : ला. द. विद्यामन्दिर पुण्यविजयजीसंग्रहगत कागद प्रति, सं. १५०२, शुद्धप्राय. की० : ला.द.वि.कीर्तिमुनिसंग्रहगत प्रति, अनु. सं. १६ मो सैको, शुद्धप्राय. छा० : छाणी, प्र० कान्तिविजयजी शा.सं. गत प्रति, अनु० १७ मो सैको, शुद्धप्राय. पा० : पाटण, हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरगत संघभण्डार सत्क प्रति, अनु० १७ मो सैको, मध्यम. सं० : पाटण, संघभण्डारसत्क ताडपत्र प्रति, अनु० १५ मो सैको, शुद्धप्राय. ता० : पाटण, संघभण्डारसत्क ताडपत्र प्रति, शुद्धप्राय. पु० ला. द. वि. पुण्यविजयजीसंग्रहगत प्रति, अनु. १६ मो सैको, शुद्धप्राय. आ० : ला. द. वि. पुण्यविजयजीसंग्रहगत प्रति, सं. १८४४, अशुद्ध. में आ प्रतिलिपिना पुनः सम्पादनमा निम्नांकित ४ प्रतिओनो उपयोग कर्यो छे :
खं. १, २ (खंभात ताडपत्र भण्डार), ला० (ला. द. विद्यामन्दिरनी कोई प्रतिनी प्रतिकृति), सू. (आ. श्रीविजयसूर्योदयसूरि-संग्रह, गोधरानी प्रति).
क्यारेक रमणीकविजयजी-स्वीकृत पाठनो त्याग करवान बन्यु, त्यां तेमना द्वारा स्वीकृत पाठनो निर्देश 'र.संपा.' अथवा 'र. स्वीपा.' एवी रीते टिप्पणीमां करेल छे. उपरांत, मुद्रित प्रतिना पण महत्त्वनां पाठान्तरो टिप्पणोमां 'मु०' एवा निर्देश साथे लीधां छे.
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नवमा पर्व- सम्पादन मारे स्वतन्त्र करवानुं आव्युं छे. तेना पर श्रीरमणीकविजयजीए करेलु काम छे नहि. आ पर्वना सम्पादनमां मारे ३ प्रतिओनो उपयोग करवानो थयो छ :
पाता., पाहे., पासं. ॥
आ त्रणे प्रतिओ पाटणनी छे, अने ते क्रमशः ताडपत्र प्रति (पाता.) हेमचन्द्राचार्य भण्डारनी प्रति (पाहे.) तथा संघभण्डारनी प्रति (पासं.) होवानुं स्मरण छे. मने तो ते प्रतोनी झेरोक्स नकलो वर्षों पूर्वे मळेली अने तेनी संज्ञा में ता०, हे. अने सं० एवी राखी छे. 'मु०' संज्ञा मुद्रित प्रति माटे छे.
आ सम्पादन-प्रकाशन माटे जे ते भण्डारनी हस्तप्रतोनी झेरोक्स अथवा फोटोकॉपी लेवा देवा बदल ते ते भण्डारोना कार्यवाहकोनो आभार मानू छु.
परिशिष्टमां श्लोकोनो पर्ववार अकारादिक्रम तेमज सूक्तिसंग्रह एम बे वानां आप्यां छे. विशेषनामोनी सूचि आपवी अनावश्यक जणाई छे..
अनुक्रमणिका तैयार करवाना तथा प्रूफवाचनना कार्यमां मुनि श्रीकल्याणकीर्तिविजयजीए सारी सहाय करी छे. हवे १०मुं पर्व तथा परिशिष्ट पर्व तैयार करवानुं रहे छे. देवगुरु-धर्मपसाये ते वेलासर थई शके तेवी भावना साथे
- शीलचन्द्रविजय
जैन उपाश्रय ओपेरा, अमदावाद वि.सं. २०६२, श्रावणी पूर्णिमा
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(८)
पृष्ठम्
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१-२
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६
विषयानुक्रमः विषयः
श्लोकाः अष्टमं पर्व प्रथमः सर्गः मङ्गलम् अचलपुरे नृप-महिष्योर्विक्रमधन-धारिण्योर्वर्णनम्
३-१० धारिणीस्वप्नदर्शनं, स्वप्नफलकथनं, गर्भधारणं च, पुत्रजन्म, धनाभिधानं, यौवनप्राप्तिश्च
११-२० कुसुमपुरे नृप-महिष्योः सिंह-विमलयोस्तत्पुत्र्याश्च धनवत्या वर्णनम्
२१-२८ धनवत्या धनचित्रदर्शनं तत्राऽनुरागः सख्या समाश्वासनं च
२९-५५ सिंहनृपसमीपे विक्रमधननृपाद् दूतागमनं, धनवर्णनं, कन्यादानाय दूतप्रेषणं च
५६-६९ दूतस्याऽचलपुरे गमनं, पुनरागमनं, सिंहाय कार्यसाफल्योक्तिः
७०-८७ राज्ञा प्रेषिताया धनवत्या धनेन सह विवाहः
८८-९६ चतुर्ज्ञानधरमुनेरागमनं, देशना, स्वप्नविषयक: प्रश्नः, केवलिद्वारा तत्समाधानं, भावितीर्थकरत्वकथनं च | ९७-१०९ क्रीडा) विहरतोर्धन-धनवत्योर्मूच्छितमुनिदर्शनं, तदुपचारश्च, धर्मदेशना, दम्पत्योव्रतग्रहणं च
११०-१२७ धनराज्याभिषेकः, वसुन्धरमुनेरागमनं, देशना, भवोद्वेगः, राज्ये पुत्रस्थापनं च, पत्नी-भ्रातृभिः सह दीक्षा अनशनेन च स्वर्गमनम्
१२८-१३६ स्वर्गाच्च्युतस्य धनजीवस्य वैताढ्यपर्वते सूरतेजःपुरे सूरचकिविद्युन्मत्योः पुत्रत्वेन जन्म चित्रगतिरित्यभिधानं च, धनवतीजीवस्य वैताढ्ये शिवमन्दिरपुरेऽनङ्गसिंह-शशिप्रभयोः पुत्रीत्वेन जन्म | १३७-१४६ रत्नवतीति तत्राम, उद्यौवनाया रत्नवत्या वरसम्बन्धिप्रश्नः, नैमित्तिकस्य भाविकथनम्
१४७-१५१ चक्रपुरे सुग्रीवनृपस्य यशस्विन्यां सुमित्रनामा पुत्रः, भद्रायां च पद्मनामा पुत्रः, भद्रया सुमित्राय विषदानम्, क्रीडार्थं निर्गतस्य चित्रगतेस्तत्र गमनं, विषनिवारणं, मैत्री च
१५२-१७४ सुयश:केवल्यागमनं देशना, चित्रगतेहिधर्मग्रहणं च
१७५-१८२ सुग्रीवस्य भद्राविषयकः प्रश्नः, केवलिकृतं समाधानं, सुग्रीवस्य भवोद्वेगः, सुमित्राय राज्यदानं, दीक्षा च १८३-१९४ चित्रगतेः स्वस्थानगमनं, धर्मपालनं, पित्रोः सन्तोषश्च
१९५-१९६ सुमित्रभगिन्या रत्नवतीभ्रात्रा हरणं, चित्रगतिना सुमित्राय भगिनीसमर्पणं, वैराग्यातिशयात् सुमित्रदीक्षा च | १९७-२१५ एकाकिविहरणं, ग्रामाद् बहिः कायोत्सर्गः, पद्मन बाणद्वारा तस्य हननं, समतैकलीनस्य सुमित्रस्य ब्रह्मलोकगमनं च
२१६-२२३ चित्रगतिशोकः, सिद्धायतनयात्रा, सुमित्रसुरागमनं पुष्पवृष्टिच, अनङ्गसिंहस्य जामातृज्ञानम्
२२४-२२८ सुमित्रसुरेण चित्रगतये परिचयदानम्, उभयोः कृतज्ञतादर्शनम्
२२९-२३४ चित्रगति-रत्रवत्योविवाहः
२३५-२४६ धनदेव-धनदत्तजीवयोश्चित्रगतेरनुजत्वेन जनिः, चित्रगते राज्याभिषेक: सूरस्य दीक्षा निर्वाणं च, निमित्तं प्राप्य चित्रगतेर्वैराग्य, पुत्रराज्याभिषेको दीक्षाऽनशनेन च स्वर्गनम्
२४७-२६० पश्चिमविदेहे पद्मविजये सिंहपुरे हरिणन्दि-प्रियदर्शनयोः पुत्रत्वेन चित्रगतेर्जन्माऽपराजितेति नामकरणं, विमलबोधसौहृदं यौवनं च, अश्वक्रीडायां दूरगमनं, शरणागतचौररक्षणं, कोसलराजेन सह युद्ध, हरिणन्दिपुत्रत्वेन तत्प्रत्यभिज्ञा, कोसलराजपुत्र्या तस्य विवाहश्च
२६१-२९२ अन्यदा रात्रौ तस्य कमप्यनापृच्छय समित्रं निर्गमनं, स्त्रीरोदनश्रवणं, विद्याधरात् स्त्रियो मोचनं च २९३-३२० अपराजितस्य रत्नमालया सह विवाहः, सूरकान्तेन मणिमूलिकार्पणम्
३२१-३२६ अग्रे गतस्य अपराजितस्य कुमारीद्वयेन विवाहः
३२७-३४५ श्रीमन्दिरपुरे सुप्रभराजस्य रम्भाभिधया कन्यया सह तस्य विवाह:
३४६-३६२
७-८
१०-११
११-१२ १२-१३
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विषयः
कुण्डपुरे केवलिदर्शनं, देशना, अपराजितप्रश्नः केवलिकृत समाधानं च जनानन्दपुरे जितशत्रु-धारिण्योः पुत्रीत्वेन रत्नवतीजीवस्य जन्म, प्रीतिमतीति तन्त्राम, कलाग्रहणं, यौवनं, कलासु मां विजेता मे पतिरस्त्विति तस्याः प्रतिज्ञा
जितशत्रुणा प्रीतिमतीविवाहार्थं स्वयंवरविरचनम् अपराजितस्य तत्र गमनं रूपपरावर्तनं च पुरोभवनं जयश्ध, कुपितानां राज्ञां युद्धाय सम्मुखीभवनं, अपराजितस्य जयक्ष, प्रीतिमत्या सह तस्य विवाहः दूतागमनं पित्रोर्व्यतिकर श्रावणं, स्वनगरगमनं, पितृभ्यां सह मेलनम्, राज्याभिषेको राज्यपालनं च सार्थपतिसुतस्याऽनङ्गदेवस्य निमित्तेनाऽपराजितवैराग्यं, केवल्यागमने तत्पार्श्वे मित्र- पल्यादिभि: सह प्रव्रज्या तपःकरणम्, आरणे देवीभूय गमनं च
जम्बूद्वीपे भरते कुरुदेशे हास्तिनपुरे श्रीषेणनृप - श्रीमत्योः सुतत्वेनाऽपराजितजन्म, शङ्ख इति तन्नाम, विमलबोधजीवस्य च मतिप्रभाभिधमन्त्रितत्वेन जन्म, उभयोः सौहृदं यौवनं च समरकेतुनामपल्लीपतेस्त्रासः, शङ्खकुमारस्य तत्र गत्वा तत्पराभवनं, दण्डनं च प्रतिनिवर्तनसमये शङ्खेन कृतं यशोमतीत्राणं विद्याधरपराजयः सिद्धायतनयात्रा, खेचरस्वामित्वं चम्यागमनं यशोमत्यादिभिः कन्याभिः सह परिणयः तीर्थयात्रा च
द्वितीयः सर्ग
मथुरायां यदुवंशवर्णनम्
(९)
"
"
स्वनगरगमनं, पित्रा राज्यदानं, दीक्षाग्रहणं, शङ्खस्य राज्यपालनं च उत्पन्नकेवलस्य श्रीषेणमुनेरागमनं, देशना पूर्वापरभवकथनं भावि तीर्थकृत्त्वकथनं पुत्रराज्याभिषेक:, दीक्षा, विशतिस्थानकाराधनेन तीर्थकरनामकर्मार्जनमनशनं स्वर्गमनं च
भोजवृष्णेरन्धकवृष्णेश्च परिवारस्य वर्णनम्
अन्धकवृष्णेः सुप्रतिष्ठमुनिं प्रति वसुदेवविषयिकी पृच्छा मुनिनाऽऽख्यातो वसुदेवस्य पूर्वभवश्च समुद्रविजयराज्याभिषेकोऽन्धकवृष्णेर्दीक्षा, निर्वाणं च .
भोजवृष्णे प्रव्रज्या, उग्रसेनस्य नृपत्वं पारणार्थं तापसायाऽऽमन्त्रणं विस्मृतिः, कोपाकान्तस्य तापसस्याऽनशनं निदानं मरणं च तापसजीवस्योग्रसेनपत्त्रीधारिण्याः कुक्षौ गर्भत्वेनोत्पत्ति, कुदोहदः, मन्त्रिभिर्बुद्ध्या तत्पूरणं, पुत्रजन्म, यमुनाजले तत्क्षेपणं, राज्ञे च मिथ्याकथनम् यमुनाजलात् सुभद्रवाणिजस्य तत्प्राप्तिः कंस इति तदभिधानं वसुदेवकुमारस्य सेवकत्वेन तदर्पणम्, जरासन्धवर्णनम्
श्लोकाः
३६३-३६८
३६९-३७५
३७६-४१८
४१९-४३७
४३८ - ४५१
४५२ - ४६१ ४६२-४७६
५२२-५३४
१-८
९-१२
१३-५०
५१
५२-७१
७२-७९
८०-८२
८३-९४
९५ - ११३
जरासन्धस्य समुद्रविजयाय सिंहरथबन्धनायाऽऽदेशः, वसुदेवगमनं कंससाहाय्येन सिंहरथबन्धनम्, कंसाय जरासन्धेन जीवयशसो मथुरायाश्च दानं, कंसकृतं पितुरुग्रसेनराज्ञः पञ्जरक्षेपणम् वसुदेवस्य स्त्रीवाल्लभ्यं, समुद्रविजयकृतं नियन्त्रणं वसुदेवस्य रोषेण निर्गमन, मृतकज्वलनं, पत्रलम्बनं ११४ १३४ वसुदेवस्य विजयखेटपुरे गमनं तत्र सुग्रीवराजस्य कन्याभ्यां सह विवाहो, अक्रूरनाम्नः पुत्रस्य जन्म च ततोऽशनिवेगविद्याधरस्य श्यामाभिधकन्यया सहोद्वाह:
चम्पायां चारुदत्तसुतया गन्धर्वसेनया गान्धर्वाचार्यकन्याभ्यां च सह विवाहः, चारुदत्तवृत्तश्रवणं च ततो नीलयशसा विवाहः, ह्रीमत्यद्रौ च नीलयशसो हरणम् वसुदेवस्य तदनुधावनं, गिरितटग्रामगमनं वेदानधीत्य सोमश्रीजयो विवाह तृणशोषकसन्निवेशे पञ्चशतकन्याभिः अचलग्रामे च मित्रश्रिया विवाहः वेदसामपुरे वसुदेवस्य कपिलनृपपुत्र्या सह विवाहः, कपिलनामपुत्रजन्म, च सालगुहपुरे वसुदेवेन भाग्यसेननृपाय धनुर्वेदशिक्षणं, कन्याभ्यां परिणयश्च भद्दिलपुरेऽपुत्रविपन्नस्य पुण्ड्रराजस्य पुण्ड्रानामकन्यया सह वसुदेवस्य विवाह: पुत्रोत्पत्तिश्च इलावर्धनपुरे सार्थवाहपुत्र्या रत्नवत्या सह वसुदेवस्य विवाह:
पृष्ठम्
१३
१३
१३-१४ १४-१५
४७७-५१७ १६-१८
५१८-५२१
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२२-२३ १३५ - १४१ २३ १४२-१५८ २३-२४ १५९-३०२ २४-२८ ३०२-३३७ २८-२९
३३८-३४५
२९
३४६-३६७
३०
३६८-३७६
३० ३७७-३८० ३०-३१
३८१-३८२ ३८३-३८६
३१ ३१
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(१०)
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WW
विषयः
श्लोकाः महापुरनगरे सोमदत्तनृपस्य सोमश्रीनामपुत्र्या विवाह:
३८४-४११ ३१ वेगवतीनामविद्याधर्या सह तद्विवाह:
४१२-४२३ वैताढ्यपर्वते पुष्पशयनोद्याने वसुदेवस्य मदनवेगया सह विवाह:
४२३-४३४ त्रिशिखरेण युद्धं, तच्छिरोच्छेदनं, श्वशुरमोचनम्, अनाधृष्टिनामपुत्रजन्म च
४३५-४४९ ३२-३३ त्रिशिखरपत्न्या वसुदेवहरणं, व्योम्नः पातनं, राजगृहेऽक्षैः स्वर्णकोटि जित्वाऽर्थिभ्यो दानं, ज्ञानिवचःप्रेरितस्य राज्ञः आज्ञयाऽऽरझर्वसुदेवग्रहणं, भ्रस्त्रायां क्षिप्त्वाऽद्रेस्तस्य लोठनं च
४५०-४५७ वेगवतीधात्र्यास्तद्रक्षणं, वेगवतीमीलनं, तद्वृत्त श्रवणं
४५८-४८६ ३३-३४ वसुदेवप्रभावाद् बालचन्द्राविद्याधर्या विद्यासिद्धिः, तस्या विवाहप्रार्थना तापसाश्रमगमनं, भूपयोरुद्वेगः, वसुदेवपृच्छा च तयोर्नुपयोरुत्तरः, ताभ्यां जैनधर्मग्राहणं च
४८७-५१३ ३४-३५ वसुदेवस्य श्रावस्तीगमनं, कामदेववंश्यस्य कामदत्तश्रेष्ठिनो बन्धुमतीनामपुत्र्या वसुदेवविवाहः, तं दृष्ट्वा प्रियङ्गसुन्दर्या अनुरागः, रात्रौ देवतयाऽऽगत्य तस्याऽशोकवनिकायां नयनम्
५१४-५२४ ३५ देव्या स्ववृत्तकथनं, देवीवरदानं प्रियङ्गसुन्दर्या सह विवाहश्च
५२५-५५९ ३५-३६ वैताढ्ये गन्धसमृद्धे पुरे गन्धारपिङ्गलनृपपुत्र्या प्रभावत्या वसुदेवानयनं, वसुदेवमानसवेगयोर्विवादः, वसुदेवस्याऽपि विद्याधरीदत्तशस्त्रविद्याभियुद्धे जयो मानसवेगबन्धनं च, श्वश्रूवचनात् तन्मोचनं, मानसवेगादीनां वसुदेवभृत्यत्वं च
५६०-५७४ जितशत्रुजाम्या केतुमत्या सह विवाहः, प्रभावत्या सह विवाहः, अपराभिविद्याधरीभिः सह विवाहः, सुकोशलया सह विवाहश्च
५७७-५८९ ३६-३७ तृतीयः सर्गः भरतक्षेत्रे पेढालपुरवर्णनम् हरिश्चन्द्रनृप-लक्ष्मीवतीराज्योर्वर्णनम् लक्ष्मीवत्याः पुत्रीजन्म, तत्पूर्वभवपतिना धनदेन कनकवर्षणं, ततः पुत्र्याः कनकवतीति नाम, बाल्यवर्णन, कलाग्रहणं, यौवनप्राप्तिः, पितृभ्यां स्वयंवररचनं च
१४-३२ ३८-३९ कनकवतीसदने राजहंसागमनं, हंसस्य मानुषभाषया कथनं च चित्रपटदर्शनेन कनकवत्या विरहातत्वम् ३३-६३ ३९-४० चन्द्रातपविद्याधरेण प्रेरितस्य वसुदेवस्य पेढालपुरे गमनम्
६४-९८ ४०-४१ तत्रैवोद्याने धनदस्याऽऽगमनं, वसुदेवं दृष्ट्वा च स्वप्रयोजनकथनम्
९९-११६ वसुदेवस्य अन्तःपुरे प्रवेशः, कनकवतीदर्शनं च धनदवचःकथनं, कनकवतीनिषेधश्च
११७-१६९ ४१-४३ वसुदेवस्य धनदपार्वे गमनं, कनकवत्यभिप्रायकथनं च
१७०-१७८ ४३ धनदस्य स्वयंवरमण्डपे साडम्बरः प्रवेशः
१७९-१८८ ४३-४४ धनददत्तोर्मिकाप्रभावेण वसुदेवस्य धनदरूपवत्त्वं, कनकवत्याः स्वयंवरमण्डपे आगमनं, वसुदेवादर्शनेन तस्या म्लानिः, धनदाज्ञया वसुदेवेनोर्मिकोत्तारणं, कनकवत्यास्तत्कण्ठ एव स्वयंवर सजः क्षेपणं, कनकवती-वसुदेवयोर्विवाहश्च
१८९-२१५ ४४ वसुदेवेन विज्ञप्तस्य धनदस्य च स्वपूर्वजन्मकथनम्
२१६-२१७ जम्बूद्वीपे भरते सगरनामनगरेऽष्टापदसन्निकृष्टे मम्मणनृप-वीरमत्योः प्रथमभव: धर्मनिरतयोर्दम्पत्योः । समाधिमरणेन स्वर्गमनं च
२१८-२४३ ४५ ततश्च्युत्वा मम्मणस्य बहलीविषये पोतननगरे धम्मिलनामाभीर-रेणुकयोः पुत्रत्वेन जन्म धन्य इति तन्नाम च, वीरमतीजीवस्य च धूसरीत्यभिधया धन्यगृहिणीत्वम् - तृतीयभवः, धन्य-धूसर्योः श्रावकव्रतपालनं, दीक्षा, समाधिमरणेन हैमवते युग्मितयोत्पादः, ततोऽपि क्षीरडिण्डीरनामदेवदम्पतीत्वेनोत्पत्तिः | २४४-२७९| ४५-४६ देवश्च्युत्वा भरते कोशलविषये कोशलानगर्यामिक्ष्वाकुकुले निषधनृप-सुन्दरयोः पुत्रतया जातो नल इति तदभिधानं, तदनुजश्च कूबरः
२७७-२७८. ४६
१-५
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४७
देव्याश्च्यवनानन्तरं विदर्भेषु कुण्डिनपुरे भीमनृप-पुष्पवत्योः पुत्रीत्वेन सुस्वप्नसूचितोऽवतारः, शुभ्रहस्तिप्राप्तिस्तदर्चा च, पूर्णे काले पुत्रीजन्म, जन्मत एव तल्ललाटे तिलकं, स्वप्नानुसारं च तस्या नाम दवदन्तीति, कलाग्रहणं यौवनं धर्मपरायणत्वं च
२७९-३११ यौवनप्राप्ताया दवदन्त्या विवाहार्थं पितृभ्यां स्वयंवरविरचनं, बहूनां राज-राजपुत्राणामागमनं, सनलकूबरस्य निषधस्याऽप्यागमनं, अन्तःपुरप्रतीहार्या दवदन्त्यै राज्ञां परिचयदानं, दवदन्त्याश्च नलकण्ठे स्वयंवरस्रग्न्यसनं
३१२-३४९ ४८-४९ भीमनृपेण नल-दवदन्त्योर्विवाहविधानं, निषधस्य सपरीवारं स्वपुराभिगमनं, नलस्य राज्याभिषेकः, कूबरस्य तु यौवराज्यं, नलस्य प्रजापालनं विक्रमश्च
३५०-४०३, ४९-५० नलस्य भरतार्धपतित्वम्
४०४-४३५ राज्यलुब्धस्य क्रूराशयस्य कूबरस्य नलेन सह धूतखेलनं, नलस्य पराजयः कूबरस्य च जयः, समग्रमहीहारणं, सदवदन्ती-शुद्धान्तहारणं, सर्वस्वहारणं, कूबरेण तस्य राज्यानिष्कासनम्
४३६-४५६ | रथेन सह नल-दवदन्त्योविसर्जनं, नगरान्निष्क्रमणम्
४५७-४८३ ५२-५३ अटव्यां भिल्लै रथरोधनं, भिल्लैस्तद्रथापहरणं, रात्रौ दवदन्त्यां शयितायां नलचिन्ता, दवदन्तीत्यागनिर्णयः, रात्र्यतिक्रमे च नलगमनम् ।
४८४-५३६ ५३-५४ दवदन्त्या प्रबुद्धया नलादर्शनेन विलापकरणं, लेखदर्शनं वाचनं च, पत्युरादेशेन पितृवेश्मगमननिर्णय: ५३७-५६२ गच्छन्त्या दवदन्त्या उपद्रवैरपराभव:
५६३-५९१ दवदन्त्यास्तपोलीनता, दवदन्त्या धैर्येण हृष्टेन राक्षसेन वैदर्भीपृष्टेनाऽवधिज्ञानमुपयुज्य 'द्वादशवर्नलसङ्गमो भविते'ति कथनम्
५९२-६०६ | ५६-५७ दवदन्त्या अभिग्रहग्रहणं, गिरिकन्दरायां वासः, सार्थवाहस्य तत्राऽऽगमनं तापसानां तत्राऽऽगमनं, सार्थवाहस्य देवविषयिकी पृच्छा, दवदन्त्या तेभ्योऽर्हत्स्वरूपकथनमार्हतधर्मबोधनं च, सार्थवाहेन तापसैश्चाऽऽर्हतधर्मग्रहणं, सार्थवाहेन तत्र गिरौ तापसपुरनामनगरनिर्माणं श्रीशान्तिनाथचैत्यनिर्माणं च ६०७-६३७ ५७-५८ सिंहकेसरिमुनेः केवलोत्पादः, केवलिनो देशना, दवदन्तीश्लाघनं च
६३८-६५२ ५८ देवागमनं, तेन स्वपूर्वजन्मवृत्तकथनं, वैदर्युपकारस्वीकारः, तापसेभ्यो व्रतग्रहणाय प्रेरणं क्षमायाचनं च, | ६५३-६८३ ५८-५९ केवलिना निजवृत्तकथनं, योगिनिरोधेन च निर्वाणं, कुलपतेः यशोभद्रसूरिपार्वे प्रव्रज्या, दवदन्त्याऽपि प्रव्रज्यायाचनं, सूरेनिषेधः, तापसपुरं गत्वाऽऽचार्येण चैत्यप्रतिष्ठापनं पौराणां च सम्यक्त्वारोपणम् ६८४-६९९ ५९-६० गुहागृहे दवदन्त्या सप्ताब्दी यावत् वासः, अन्यदा पान्थवचनेन भ्रान्तायास्तस्या महारण्ये भ्रष्टत्वम् ७००-७१४ अग्रे यान्त्या दवदन्त्या सार्थेन सह अचलपुरं प्रति गमनम्
७१५-७४८ ६०-६१ सार्थवाहेन सह दवदन्त्या अचलपुरप्राप्तिः, ऋतुपर्णनृप-चन्द्रयशोदेव्योर्दासीभिर्दर्शनं, दवदन्त्या राजप्रासादे आनयनं, चन्द्रयशसः पृच्छा, दवदन्त्या च वणिकपुत्रीत्वेन स्वपरिचयदानम्
७४९-७७३, ६१-६२ चन्द्रयशसोऽनुज्ञया दवदन्त्याऽर्थिभ्यो दानं, प्रत्येकं दानार्थिभ्यश्च नलविषयिकी पृच्छा
७७४-७८० ६२ दवदन्तीविज्ञप्त्या नृपेण चौरमोचनं, दवदन्त्या चौरपृच्छा, तेनाऽपि स्ववृत्तकथनम्
७८१-८०८ ६२-६३ दवदन्त्या चौराय प्रव्रज्याग्रहणार्थं प्रेरणं, चौरस्य दीक्षाग्रहणं च
८१५-८१८, ६३ अन्यदा दवदन्तीपित्रा विदर्भेशेन नल-दवदन्तीवृत्तश्रवणं, तदन्वेषणहेतवे हरिमित्राख्यबटोनियोजनं, बटोः शोधयतोऽचलपुरे गमनं, दानशालायां दवदन्तीं दृष्ट्वा तत्प्रत्यभिज्ञा हर्षश्च, चन्द्रयशोदेव्या दवदन्त्या राजप्रासादे आनयनं, राजपृष्टया दवदन्त्या द्यूतादारभ्य निजसर्ववृत्तकथनम्।
८१९-८५३ | ६३-६४ अत्राऽन्तरे पिङ्गलकचौरजीवस्य देवस्य तत्रोत्तरणं दवदन्त्यै नमः कृत्वा स्ववृत्तकथनं च, हिरण्यस्य सप्तकोटी: प्रवृष्य गमनं, हरिमित्रविज्ञप्त्याराज्ञा दवदन्त्याः पितृगृहे प्रेषणं, पित्रा दवदन्त्यागमोत्सवकरणम् ८५४-८७६ ६४-६५ इतो नलस्य दवदन्तीं त्यक्त्वा गच्छतो दवानलदर्शनं, सर्परक्षणं, सर्पण तस्य करे दशनं, विषानुभावेन वपुषः कुब्जत्वं, नलस्य प्रव्रज्याग्रहणचिन्तनम्
८७७-८९६६५
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७०
अहे: सुररूपस्य, 'अहं तव पिता निषध' इति कथनं, स्ववृत्तं कथयित्वा प्रव्रज्याग्रहणनिषेधः, नलाय श्रीफल-रत्नकरण्डदानं च
८९७-९०८ ६५-६६ नलस्य दवदन्तीविषयिकी पृच्छा, देवेन तद्वृत्तकथनं, ततो नलेच्छां ज्ञात्वा तस्य सुंसुमारपुरे नयनं, गजवशीकरणं, राज्ञा सम्माननं, राज्ञः कुतूहलं सन्तोषयितुं सूर्यपाकरसवतीकरणं, राज्ञा वस्त्रादिदानं कुब्जवचनेन च सर्वत्र राज्ये मृगया-मद्यपान-निषेधः
९०९-९४३ ६६-६७ अन्यदा दधिपर्णनृपस्य कुजेन नलपञ्चत्वप्राप्तिकथनं, तदाकर्ण्य क्रन्दता दधिपर्णेन नलप्रेतकार्यकरणम् | ९४४-९४९ ६७ दूतद्वारा कुब्जविषयकं कथनमाकर्ण्य भीमनृपेण कुशलाभिधद्विजस्य सुंसुमारपुरे प्रेषणम्
९५०-९५७ कुब्जपृष्टेन कुशलेन सर्वस्याऽपि नल-दवदन्तीवृत्तस्य कथनं, स्वागमनकारणकथनं च, कुब्जेन तस्मै वस्त्रालङ्कारादिदानं, कुशलेनाऽपि कुण्डिनपुरं गत्वा भीमाय दवदन्त्यै च कुब्जवृत्तस्य कथनम्
९५८-९७५ ६७-६८ दवदन्तीप्रेरितेन भीमनृपेणाऽलीकस्वयंवररचनं, दधिपर्णनृपस्य गमनेच्छा, ततो जात्यावश्वौ रथं बिल्व -करण्डे च गृहीत्वा राज्ञः परिच्छदेन सह कुब्जस्य गमनं, द्वयोरपि परस्परं विद्यादान-प्रदाने, विदर्भप्राप्तिश्च
|९७६-१०१२ ६८-६९ भीमाभिगमनमातिथ्यकरणं च, दधिपर्णादेशेन कुब्जेन सूर्यपाकरसवतीकरणं, दवदन्त्या कुब्जस्य. नलत्वेनाऽभिज्ञानं, पुनरप्यङ्गलिस्पर्शद्वारा नलत्वनिश्चयः, भैम्यनुरोधेन नलस्य निजस्वरूपप्रकटनम् १०१३-१०३५ ६९ दवदन्तीहर्षः, भीमनृपेणाऽऽदेशयाचनं, दधिपणेन च क्षमाप्रार्थनम्
१०३६-१०३१ ६९-७० धनदेवसार्थवाहागमनं, दवदन्त्या गौरवकरणं, ऋतुपर्णनृपादीनामाह्यानं सत्कारकरणं च
१०४०-१०४४ ७० देवागमनं, दवदन्तीं नत्वा च तेन स्वस्य विमलमतिनामतापसपतित्वकथनं, कार्तश्यप्रदर्शनं च १०४५-१०४१ सर्वैपैर्मिलित्वा नलस्य राज्याभिषेककरणं, तैः सह च नलस्याऽयोध्याभिषेणनम्, नलेन कूबरस्य द्यूतायाऽऽह्वानं, द्यूतखेलनं, नलस्य च जयः, कूबरस्य युवराजत्वं, नलस्य भरतार्धपालनं, अन्यदा देवभूतेन पित्रा निषधेन नलप्रबोधनं, ततो नलस्याऽवधिज्ञानिनो जिनसेनसूरेः पार्वे गमनं, पूर्वभव श्रवणं, पुष्कलाख्यं सुतं राज्ये निधाय व्रतग्रहणम्, अन्यदा भोगार्थिनो नलस्य दवदन्त्यामनुरागः, आचार्यैस्तस्य परित्यागः, पित्रा पुनः प्रबोधनं, नलस्य व्रताशक्तस्याऽनशनं, तस्मिन् जातानुरागाया दवदन्त्या अप्यनशनकरणं, नलस्य मृत्वा कुबेरत्वं, दवदन्त्याश्च कनकवतीत्वम्
१०५०-१०७३ ७० इति स्वपूर्वजन्मानि कथयित्वा 'अस्याः स्नेहेनाऽहमागत' इति, 'अस्मिन्नेव भवे कनकवत्या निर्वाणं भविष्यतीति विमलस्वामिना तीर्थकरेण ममाऽऽख्यात'मिति च कुबेरकथनं तिरोधानं च
१०७३-१०७५ ७१ चतुर्थः सर्गः वसुदेवस्य कोल्लापुरे गमनं, तत्र पद्मरथराज-पुत्र्या पद्मश्रिया सह विवाहः, मन्त्रिपुत्रीविवाहः, पल्लीपतेजरानामकन्यया सह विवाहः, जरत्कुमाराभिधपुत्रजन्म च, अवन्तिसुन्दर्यादिभिः कन्याभिः सह परिणयः, १-७ । मार्गे गच्छतस्तस्य देवतया 'मया ते रुधिरराजकन्या रोहिणी स्वयं वरे दत्ता, त्वया तु तत्र पटहो वाद्य' इति कथनं, तस्याऽरिष्टपुरे स्वयंवरमण्डपे गमनं, तयाऽपि वसुदेवकण्ठे एव स्वयंवरस्रजो विनिधानं, राज्ञां कलकलः प्रहासश्च, वसुदेवेन तेषां पराभवनं, जरासन्धस्य तं हन्तुं समुद्रविजयायाऽऽदेशः, उभयोर्धात्रोर्युद्धं, ततो वसुदेवेन साभिज्ञानबाणक्षेपणम् तत्पठनेन समुद्रविजयहर्षः, वसुदेवस्य तत्पादपतनं, स्ववृत्तकथनं, रोहिणी-वसुदेवयोर्विवाह:
३६-४२ वसुदेवस्य बालचन्द्रया सह विवाहः, सर्वाभिः पूर्वोढाभिः स्त्रिभिः सह शौर्यपुरगमनं
४३-५३ पञ्चमः सर्गः राम-कृष्णयो: पूर्वभवनर्णनम्
१-२२ ललितजीवस्य ततश्च्युत्वा वसुदेवभार्याया रोहिण्या-उदरे स्वप्नचतुष्टयदर्शनपूर्वमुत्पत्तिः, समये पुत्रजन्म, राम इति तन्नामकरणं, यथाकालं च कलाग्रहणम्
२३-२७ समुद्रविजयगृहे नारदागमनं, सर्वैरभ्युत्थाय तत्पूजादिकरणं, नारदगमनं च कंसस्य 'कोऽसा'विति
८-३६
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७६
७६
पृच्छा, नृपेणाऽपि तवृत्तकथनम्
२८-४२ ७४-७५ कंसप्रेरितस्य वसुदेवस्य मृत्तिकावतीं गत्वा देवक्या सह विवाहः, देवकनृपेण वसुदेवाय भूरिशः स्वर्णादेर्दशगोकुलनाथस्य नन्दस्य च दानम्
७५-७६ कंसानुजस्याऽतिमुक्तमुनेस्तपःपारणार्थं कंसगृहागमनं, जीवयशसे मुनेर्भविष्यकथनं यथा 'देवक्यां सप्तमो गर्भस्त्वत्पतिपित्रोर्हन्ते'ति
७०-७४ जीवयशसा कंसाय मुनिवचस: कथनं, कंसेन चाऽनागतमेव वसुदेवात् सप्तानामपि देवकीगर्भाणां याचनं, वसुदेवेन-देवक्या च ऋजुत्वात् तत्स्वीकरणं, पश्चात् 'कंसेन छलितोऽहमिति ज्ञात्वा वसुदेवानुतापः
७७-८८ इतो भद्रिलपुरे नागश्रेष्ठी सुलसा च परमश्रावकौ, च तपसा नैगमेषिदेवाराधनं, पुत्रयाचनं च, तेन च 'देवकीगर्भान् कंसेन याचितान् ते मृतगर्भसञ्चारादर्पयिष्ये' इति कथनं, ततो देवकी-सुलसयोः षड्गर्भाणां परावर्तनं, कंसेन मृतगर्भाणां दृषद्यास्फालनं, देवकीगर्भाणां च सुलसागृहे वर्धनम्
८९-९७ अन्यदा ऋतुस्नातया देवक्या स्वप्नसप्तकदर्शनं, महाशुकाद् गङ्गदत्तस्य तत्कुक्षाववतारणं च, नभ:सिताष्टम्यां कृष्णजन्म, देवकीप्रेरितस्य वसुदेवस्य सुतं नन्दगृहे मोचनाय गमनं, देवतासाहाय्यं, तद्भार्यायशोदाप्रसूतां सुतां गृहीत्वा तस्यै स्वसुतं दत्त्वा च पुनर्मथुरागमनं देवक्यै च सुतार्पणं, कंसपुरुषैः कंसाय तदर्पणं, तेन च तस्या नासिकाच्छेदनम्
९८-११५ ७६-७७ नन्दवेश्मनि वसुदेवसुतस्य कृष्णाङ्गत्वात् कृष्ण इति नाम, तच्छत्रूणां देवताभिर्घातनं, गोप-गोपीनां कृष्णेऽत्यन्तं स्नेहश्च
| ११६-१४५ वसुदेवेन तत्साहाय्यार्थं कोशलातो राममाहूय शिक्षां दत्त्वा च नन्दसुतत्वेनाऽर्पणम्
१४६-१५१ ७८ दशधनुस्तुङ्गयो राम-कृष्णयोर्गोपीनामनुरागः, कृष्णस्य रामपार्वे धनुर्वेदयुतानामखिलानां कलानां शिक्षणं, गोपीभिः सह खेलनं च ।
१५२-१६९ ७८-७९ इत: शौर्यपुरे समुद्रविजयप्रियाया शिवायाः कुक्षौ चतुदर्शस्वप्नदर्शनपूर्वं कार्तिककृष्णद्वादश्यामपराजितविमानात् च्युतस्य शङ्खजीवस्याऽवतरणं, श्रावणशुक्लपञ्चम्यां च निशीथे सुतजन्म, दिक्कुमारीकृतानि सूतिकर्माणि, इन्द्रैश्च जन्माभिषेककरणम्
१७०-१७६ इन्द्रकृता जिनस्तुतिः, शिवादेवीपावें प्रभु मुक्त्वा, नन्दीश्वरद्वीपे च यात्रां कृत्वा इन्द्रादीनां स्वस्थानगमनम् १८७-१९६ समुद्रविजयकृतो जन्मोत्सवः तन्नामाऽरिष्टनेमिरिति, मथुरायामपि वसुदेवादिभिरुत्सवकरणम्
१९७-१९९ कंसेन स्वहन्तृज्ञानार्थमरिष्टोक्षादीनां वृन्दावने मोचनं, कृष्णेन तेषां हननं, गोपानां हर्षः कृष्णार्चा च २००-२२१ कंसेन पूजोत्सवव्याजात् शाङ्गस्य पर्षदि स्थापनं 'य एनमारोपयिष्यति तस्मै सत्यभामां दास्ये' इति घोषणं च
२२२-२२५ वसुदेवसुतस्याऽनाधृष्टिनाम्नस्तत्राऽऽगमनं, मध्येमागं गोकुले राम-कृष्णौ दृष्ट्वा निशि ताभ्यां सह वासः, प्रातः कृष्णं गृहीत्वा मथुरागमनं,
२२६-२३२ धनुरुद्धरतोऽनाधृष्टेः पतनं, कृष्णस्य लीलया धनुरुपादानमधिज्यीकरणं च
२३३-२४३ ८०-८१ कंसेन मल्लयुद्धायोजनं, कृष्णस्य मल्लयुद्धदिदृक्षा, रामस्य तदङ्गीकारः, कंसस्य दुष्टत्वाद्यावेदनं च, कृष्णस्य कोप: कंसवधप्रतिज्ञा च
| २४४-२६५/ ८१ राम-कृष्णयोर्मथुरागमनं, गोपुरे एव कंसनियुक्तयोः पद्मोत्तरचम्पकयोर्हस्तिनोस्ताभ्यां हननं, ततो मल्लयुद्धाक्षवाटके गमनं, राम-कृष्णयोर्मुष्टिक-चाणूराभ्यां सह मल्लयुद्धं, कृष्णकृतश्चाणूरवधः, कंसस्य कोपः, कृष्णेनाऽपि कोपात्तस्य ग्रहणं, रामस्य मुष्टिकहननं, कंसरक्षणायाऽऽगतानां भटानां रामेण विद्रावणं, कृष्णकृतः कंसवधश्च
२६६-३१३, ८१-८३ राम-कृष्णयोर्वसुदेवगृहे नयनं, सर्वेषां यदूनां तत्र मेलनं, वसुदेवस्य कृष्णवृत्तकथनं, समुद्रविजयादीनां हर्ष कृष्णोपरि स्नेहश्च, देवक्या कृष्णलालनम्
३१४-३२७८३
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०४
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८५
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श्लोकाः | पृष्ठम् उग्रसेनमुक्तिः, कंसप्रेतकार्य, जीवयशस: प्रतिज्ञा राजगृहे गमनं च, मथुरायामुग्रसेनस्य नृपत्वं, कृष्णस्य सत्यभामया सह विवाह:
३२८-३३४ ८३-८४ जीवयशसा राजगृहं गत्वा जरासन्धाय कंसघातादिवृत्तकथनं, जरासन्धस्य च कंसघातकवधप्रतिज्ञा
३३५-३३८ ८४ जरासन्धस्य मथुरायां सोमकनृपप्रेषणं, कृष्णकृतस्तत्तिरस्कारः, सोमकस्य स्वस्थानगमनं च
३३९-३५७
८४ क्रोष्टुकिनैमित्तिकं पृष्ट्वा अष्टादशकुलकोटीसहितस्य समुद्रविजयस्योग्रसेननृपेण सह प्रस्थानं मध्येविन्ध्यं च प्रापणम्
३५८-३६५ कुद्धेन जरासन्धेन स्वसुतकालस्य राजपञ्चशत्या सह यदून् प्रति प्रेषणं, कालस्य विन्ध्याचलोपत्यकाप्राप्तिः, तत्र च देवतामोहितस्य तस्याऽग्निप्रवेशः
८४-८५ देवताकृतं तज्ज्ञात्वा यदूंश्च दूरं गतान् ज्ञात्वा कालभ्रातृयवनादीनां ससैन्यं राजगृहे निवर्तनं, जरासन्धाय च सर्व कथनं, जरासन्धस्य तच्छ्रवणेन महान् शोक:
३८१-३८४ कालमरणं ज्ञात्वा यदुभिः क्रोष्टुकिपूजनं, सुराष्ट्रामण्डलगमनं च
३८५-३९० रैवतकाद्रेर्वायव्यदिशि तेषां शिबिर न्यासः,सत्यभामायाः पुत्रद्वयप्रसवनं, क्रोष्टुकिकथिते दिने कृष्णस्याऽम्भोधिपूजापूर्वकमष्टमं तपः, लवणाब्धेरधिष्ठातुः सुस्थितस्याऽऽगमनं, कृष्णेन तस्य द्वारिकानगरीप्रकटनाय कथनं, सुस्थितदेवस्येन्द्राय विज्ञप्तिः, इन्द्राज्ञया च वैश्रवणेन द्वारिकापुरीनिर्माणं, राम-कृष्णाभ्यां वासुदेवबलदेवप्रायोग्यवस्त्राभरणायुधादीनां दानं दशार्हेभ्यश्च रत्नाभरणादीनामर्पणं, ततो यदुभिः कृष्णस्याऽभिषेकः, राम-बलदेवयोर्यदुभिः परिवृतयोभरिकायां प्रवेशः, वैश्रवणदर्शितगृहेषु च वासः, ततः कृष्णाज्ञया सार्धत्रयं दिनानां नगर्यां रत्नादीनां वर्षणम्
३९१-४२६ ८५-८६ षष्ठः सर्गः स्वभ्रातृ-स्वजनानां मध्येऽरिष्टनेमिभगवतो वृद्धिः क्रमेण च यौवनं, भ्रातृणामाग्रहेऽपि विवाहार्थं तस्याऽसम्मतिः, राम-कृष्णाभ्यां बहूनां नृपाणां जयो, नयेन प्रजापालनं च । नारदस्य रुक्मिणीपावें गत्वा कृष्णवर्णनं तस्यां च तं प्रति रागोत्पादनं, ततः पटे तद्रूपं कृष्णस्य दर्शयित्वा तस्मिन्नपि रागोत्पादनं, कृष्णस्य रुक्मिणः सकाशात् रुक्मिणीयाचनं, रुक्मिणो निषेधः १२-२२ कृष्णस्य रामेण सह कुण्डिनपुरगमनं, नागपूजार्थमागताया रुक्मिण्याश्च हरणं, रुक्मि-शिशुपालाभ्यां ससैन्यं तयोरनुपदं गमनम्
२३-५० । ८७-८८ बलदेवेन मुशलद्वारा परबलविद्रावणं, रुक्मिणो मदं दृष्ट्वा तस्य रथादिनाशपूर्वं मुण्डनं कृत्वा मोचनं, तस्य च ह्रिया तत्रैव भोजकटनगरस्थापनपूर्वं वासः
५२-५८ कृष्णस्य रुक्मिण्या सह गान्धर्वविवाह:
५९-६४ सत्यभाया उपहासः, रुक्मिण्यै च महद्धिदानम्
६५-७६ नारदवचसा जाम्बवतीरूपप्रशंसां ज्ञात्वा कृष्णेन तदपहरणं, युद्धार्थमागतस्य तत्पितुश्चाऽनाधृष्टिना पराभवनं, कृष्ण-जाम्बवत्योर्विवाहः, जाम्बवतश्च प्रव्रज्या, जाम्बवती-रुक्मिण्योश्च सख्यम्
७७-८६ एवं क्रमेण लक्ष्मणा-सुसीमा-गौरी-पद्मावती-गान्धारीभिः सह कृष्णस्य विवाह:
८७-१०९ रुक्मिणी-सत्यभामयोविवादः, राम-कृष्ण-दुर्योधनानां साक्षित्वे च 'यस्याः पुत्रः परिणेष्यति तस्यै अन्यया स्वकेशा देये'ति पणश्च
|११०-११७ अन्यदा रुक्मिण्या शुभस्वप्नदर्शनं तत्कुक्षौ महाशुक्राच्च्युतस्य देवस्याऽवतरणं, रुक्मिणी-भामयोर्गर्भधारणं, प्रथमं रुक्मिण्याः प्रसूतिस्ततो भामायाः, कृष्णेन रुक्मिणीपुत्रस्य प्रद्युम्न इति नामस्थापनं भामासुतस्य च भानुक इति
११८ तदैव धूमकेतुनामदेवेन प्राग्वैरात् प्रद्युम्नहरणं, वैताढ्ये भूतरमणोद्याने टङ्कशिलोपरि मोचनं च, चरमदेहत्वात् प्रद्युम्नस्याऽनाबाधा, प्रातस्ततो गच्छतः कालसंवरस्य खेचरस्य यानस्खलनं, बालं दृष्ट्वा च स्वपल्यै अर्पणं, स्वपुरे च 'स्वपत्न्या पुत्रप्रसूति'रिति घोषणं, जन्मोत्सवः प्रद्युम्न इति तन्नामस्थापनं च १३०-१३८ ९०-९१
८८
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विषयः
श्लोकाः
पृष्ठम्
इतः कृष्ण-रुक्मिण्योर्बालमदृष्ट्वा महादुःखं, तदा नारदस्य तत्राऽऽगमनमुद्वेगकारणपृच्छा, पुत्रहरणं ज्ञात्वा सीमन्धरस्वामिपावें तच्छुद्ध्यर्थं गमनं, प्रभुणा तस्य हरणाद्युदन्तकथनं, नारदस्य तत्पूर्वजन्मपृच्छा, प्रभुणा तत्कथनम्
| १३९-२२४ ९१-९३ षोडशाब्दान्ते तस्य मात्रा सह सङ्गमो भविष्यतीति सीमन्धरस्वामिवचः श्रुत्वा 'केन कर्मणा रुक्मिण्या पुत्रवियोगः प्राप्त' इति नारदपृच्छा
२२५-२२८ | ९३ तदा प्रभुणा 'तया पूर्वभवे मयूराण्डं घटिकाषोऽशकं यावत् तन्मात्रा वियोजित' मिति तथा 'जाते मयूरे सोऽपि तया तन्मात्रा षोडश मासान् वियोजित' इति 'तया षोडशाब्दिकं पुत्रवियोगकृत् कर्म बद्ध'मिति कथनम्
२२९-२५७ ९३-९४ तच्छ्रुत्वा नारदस्य संवरखेचरपार्वे गमनं तत्र प्रद्युम्नस्य दर्शनं च, ततो द्वारिकां गत्वा कृष्णादीनां पुत्रोदन्तकथनं, रुक्मिण्यै च पूर्ववृत्तकथनं, तच्छ्रवणेन रुक्मिण्याः स्वस्थत्वम्
२५८-२६३ हस्तिनापुरे धृतराष्ट्र-पाण्ड्वोर्वंशस्य परिवारस्य च वर्णन
२६४-२७४ ९४-९५ काम्पील्यपुरे द्रुपदराजेन स्वपुत्र्या द्रौपद्याः स्वयंवरायोजन, दशाह-राम-कृष्ण-दमदन्त-शिशुपाल-रुक्मिकर्ण-सुयोधनादिभ्य आमन्त्रणं, पाण्डुराजायाऽपि पञ्चभिः पुत्रैः सहाऽऽमन्त्रणं, तेषां च गमनम् । २७५-२८१ ___ ९५ स्वयंवरमण्डपे चाऽऽगतया द्रौपद्या पञ्चानामपि पाण्डवानां कण्ठेषु युगपत् स्वयंवरमालाप्रक्षेपणं, दृष्ट्वैतत् सर्वस्य राजमण्डलस्याऽऽश्चर्य, तावता तत्र कस्यचिच्चारणर्षेरागमनं, सर्वैः पृष्टेन तेन तत्कारणकथनम् मुनिना द्रौपद्याः पूर्वभवकथनं, निदानवशादत्राऽस्याः पञ्च पतयः, इत्येवं चारणर्षेः पार्वात् श्रुत्वा कृष्णादीनां सन्तोषः, ततः सोत्सवो विवाहः, पाण्डुना च सर्वेषां राज्ञां दशाह-राम- कृष्णानां च स्वपुरे नीत्वाऽर्चनम्
२८२-३५९। ९५-९७ युधिष्ठिराय राज्यं दत्त्वा पाण्डोर्मृत्यु, माड्रा अपि तदनुयायित्वं, दुर्योधनेन पाण्डवान् द्यूते जित्वा राज्यग्रहणं, पाण्डवानां च राष्ट्रान्निर्वासनं, कुन्त्या द्रौपद्या च सह तेषां द्वारवतीगमनम्
३६०-३७२ कृष्णेन कुन्त्यै तत्सुतेभ्यश्च पृथक् पृथक् प्रासादार्पणं, दशाहश्च पञ्चभ्योऽपि पाण्डवेभ्यो निजकन्यकादानम्, ३७३-३७८ यौवने वर्तमानं प्रद्युम्नं प्रेक्ष्य तत्पालकमातुः कनकमालाया आसक्तिः, तया च प्रद्युम्नाद् भोगयाचनं, प्रद्युम्नेन निषिद्धे च तया सद्भावकथनं, तस्मै गौरी-प्रज्ञप्तिविद्ययोर्दानं, तेनाऽपि च द्रुतमेव तत्साधनं; तत: पुनस्तया भोगार्थं प्राथिते तस्य 'त्वं मे माताऽऽचार्या चेति न वाच्योऽहमत्र पापे त्वये'ति कथनं नगराद् बहिर्गमनं च
३७९-३९६ ९८ कनकमालया तस्मिन् मिथ्याकलङ्कारोपणं, तत्सुतानां प्रद्युम्नेन हननं, तेन कुपितस्य संवरस्य प्रद्युम्नेन पराभवनं तस्मै च यथातथं कथनं, नारदागमनं, तस्मै च प्रद्युम्नेन कनकमालावृत्तकथनम्
३९७-४०४ ९८ नारदेनाऽपि तस्मै सीमन्धरजिनोदितवृत्तकथनं, रुक्मिणी-सत्यभामयोः केशदानपणादिकथनं च, सनारदस्य प्रद्युम्नस्य प्रज्ञप्तिनिर्मितेन विमानेन द्वारिकागमनम्
४०५-४०९ ९८-९९ प्रद्युम्नेन तत्र चमत्काराणां करणं, भामासुतस्य भानुकस्य खिलीकरणम्
४१०-४२४ मायया सत्यभामाया अपि शिरोमुण्डनादिकरणम्
४२५-४४४ ९९-१०० बालसाधुरूपेण प्रद्युम्नस्य रुक्मिणीगृहे गमनं, कृष्णसिंहासने चोपवेशनं, कृष्णनिमित्ते सिद्धानां - सर्वेषां मोदकानां खादनं रुक्मिण्याश्च विस्मयः
४४५-४६६ १०० भामया रुक्मिणीकेशग्रहणाय दासीप्रेषणं, प्रद्युम्नेन च तासामेव दासीनां मुण्डनेन केशप्रेषणं, कुपितया भामया हरये केशदापनाय प्रेरणं, हरिणा रामे प्रेषिते प्रद्युम्नेन कृष्णरूपकरणं, तेन लज्जितस्य रामस्य सभामागत्य कृष्णं दृष्ट्वा तत्कथनं, कृष्णस्य शपथपूर्वकं गमननिषेधः, कुपितायाश्च भामाया स्वगृहे गमनं, इतो नारदेन रुक्मिण्यै 'प्रद्युम्नोऽयं, तव सुत' इति कथनम्
४६७-४८२ १००-१०१ तदा च प्रद्युम्नेन निजरूपे प्रकटिते रुक्मिण्या हर्षावेगः, प्रद्युम्नस्य पितुः किञ्चिदाश्चर्यदर्शनाय रुक्मिणीहरणं विद्याबलेन चमूभङ्गपूर्वं च कृष्णस्य निरायुधीकरणं, नारदेन कृष्णाय 'ते सुत' इति तथ्यकथनं, कृष्णस्य महान हर्षः, सुतेन रुक्मिण्या च सह नगरप्रवेशः
४८३-४९३ १०१
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सप्तमः सर्गः द्वारकायां प्रद्युम्नागमनोत्सवकरणं, कृष्णेन प्रद्युम्नस्याऽनिच्छतोऽपि बहुभिः कन्याभिः सहोद्वाहकरणम् १-७ १०२ अथ प्रद्युम्नऋद्ध्यादिकं दृष्ट्वा भामाया मत्सरेण कोपगृहप्रवेशः, कृष्णेन तत्कारणे पृष्टे 'ममाऽपि प्रद्युम्नसमः सूनुर्भवत्वन्यथा मे मरण'-मिति तस्या उक्तिः, तदा कृष्णेनाऽपि नैगमेषिदेवमुद्दिश्य तपःकरणं, भामार्थं प्रद्युम्नसमपुत्रयाचनं, हारं दत्त्वा 'यस्यां ते पुत्रेच्छा तस्यै हारमिमं दत्त्वा भजस्वे'ति कथयित्वा च देवस्य गमनं, कृष्णेन सत्यायै वासकदानं, प्रज्ञप्तिद्वारेदं ज्ञात्वा प्रद्युम्नेन मातरं पृष्ट्वा जाम्बवत्या सत्यभामारूपकरणं कृष्णपार्वे च प्रेषणं, तदा च महाशुकात्कैट' त्रस्य च्यवनानन्तरं तत्कुक्षाववतरणं सिंहस्वप्नदर्शनं च, भामाया आगमनं, प्रद्युम्नस्य भेरीताडनं, प्रद्युम्नछलमिदमिति ज्ञात्वा कृष्णस्मितम्
८-२८ १०२ प्रात: रुक्मिणीगृहे गतेन कृष्णेन सहारं जाम्बवतीदर्शनं, विस्मयः, जाम्बवत्या च सिंहस्वप्नकथनं, कृष्णेन च ‘प्रद्युम्नतुल्यसूनुस्ते भविते' ति कथनम्
२९-३२ | १०२-१०३ काले जाम्बवत्याः शाम्बनाम्न: पुत्रस्य जन्म, तदैव कृष्णस्य सारथेर्दारुकजयसेनपुत्रौ, मन्त्रिणः सुबुद्धिनामा पुत्रः, सत्यभामाया अनुभानुकोऽन्यासामपि च कृष्णपत्नीनां सुता जाताः, शाम्बस्य च सारथिमन्त्रिपुत्रैः सह वर्धनं कलादिग्रहणं च
३३-३७ रुक्मिण्या प्रद्युम्न कृते रुक्मिपुत्री वैदर्भी कल्पयितुं रुक्मिपार्श्वे दूतप्रेषणं, रुक्मिणा च पूर्ववैरस्मरणेन तिरस्करणं, रुक्मिणीखेदः
३८-४४ शाम्बेन सह प्रद्युम्नस्य चाण्डालरूपं कृत्वा भोजकटनगरे गमनं, युक्त्या च वैदर्भीमुदूह्य स्वनगरागमनम् ४५-८६ | १०३-१०४ शाम्बेन भीरोरुपद्रवकरणं, भामाया तज्ज्ञात्वा कृष्णस्य जाम्बवत्यै तत्कथनं, ततो द्वयोरपि तत्परीक्षाकरणं तस्य नैर्लज्ज्येन कामपारवश्येन च कुद्धेन कृष्णेन नगरात् तन्निर्वासनम्
८७-१०१ । १०४-१०५ ततः प्रद्युम्नेनाऽपि भीरोनित्यमर्दनं, भामया तस्य पुरानिर्गमनाय कथनं, ततस्तस्य स्मशाने गमनं, शाम्बस्याऽपि तत्राऽऽगमनं, द्वयोस्तत्र वास:
|१०२-१०६ १०५ भामया भीरुकृते एकोनशतकन्यामेलनमेकस्याः कन्यायाश्चाऽन्वेषणं, तच्च प्रज्ञप्त्या ज्ञात्वा प्रद्युम्नस्य जितशत्रुनृपरूपेण शाम्बस्य च तत्कन्यारूपेण गमनं, युक्त्या च ताभिरेकोनशतकन्याभिः परिणयनं, तेन सत्यभामाया रोषः कृष्णेनोत्सवपूर्वकं ताभिः कन्याभिः सह शाम्बस्य विवाहकरणं, शाम्बस्य वसुदेवपार्वे गत्वा स्वश्लाघनं, वसुदेवेन च तस्याऽऽक्रोशनं, शाम्बस्य च क्षमायाचनम्
१०७-१३३ १०५ जवनद्वीपादागतानां केषाञ्चिद् वणिजां पार्वे द्वारका-कृष्णादिवर्णनं श्रुत्वा जीवयशसः स्वप्रतिज्ञास्मरणेन रोदनं, जरासन्धस्य तस्यै सान्त्वनदानं 'कृष्णादिवधं करिष्ये' इति कथनं च
| १३४-१४४ १०५-१०६ जरासन्धस्य मन्त्रिभिर्वार्यमाणस्याऽपि स्वसैन्याय प्रयाणादेशः, सहदेवादीनां तत्सुतानां, शिशुपालहिरण्यनाभ-दुर्योधनादीनां च तदनुयायित्वं, सहस्रशो भूपानां तत्साहाय्यार्थमागमनं, विवधैरपशकुनैः स्खलनां प्राप्तस्याऽपि जरासन्धस्य प्रयाणं, नारदेन चरैश्च तज्ज्ञात्वा कृष्णस्याऽपि भम्भाताडनपूर्वकं प्रयाणाय समुत्थानं, सर्वेषां यदूनां तस्य सहगमनाय सत्रहनम्
१४५-१५६ युधे सनद्धानां समुद्रविजयादीनामभिचन्द्रान्तानां नवानां दशार्हाणां तत्पुत्राणां च नामानि
१५७-१६८ १०६-१०७ वसुदेवस्य विविधराज्ञीषूत्पन्नानां पुत्राणां नामानि
१६९-१८१ १०७ रामपुत्राणां नामानि
१८२-१८४ १०७ कृष्णपुत्राणां नामानि
१८५-१८८ उग्रसेनादीनां तत्सुतानां च नामानि
१८९-१९३ | ततः कोष्टुकिना कथिते दिने यदुभिरावृतस्य कृष्णस्य प्रयाणं, मार्गे शुभशकुनानि, सिनपल्यां ग्रामे च वास:
१९४-१९६ | १०७ तदा केषाञ्चिद् विद्याधराणां तत्राऽऽगमनं, जरासन्धगृह्याणां खेचराणां जयाय च वसुदेव-प्रद्युम्न-शाम्बान् वैताढ्ये नेतुं विज्ञप्तिः, कृष्णानुज्ञया समुद्रविजयेन तेषां खैचरैः सह प्रेषणम्
१९७-२०६ / १०७-१०८
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इतो मगधाधीशाय हंसकमन्त्रिणो बोधनपूर्वकं युद्धान्निवर्तनाय निवेदनं, जरासन्धस्य च तिरस्कारः, तदा डिम्भकमन्त्रिणो युद्धकरणपरं वचनम्
२०७-२३१ १०८ जरासन्धस्य स्वसेनानाथेभ्यश्चक्रव्यूहकरणायाऽऽदेशः, मन्त्रि-सेनानीभिश्च तथाकरणं, हिरण्यनाभस्य च चक्रव्यूहसेनानीत्वेऽभिषेकः
२३२-२४१ | १०८-१०९ यदुभिश्च चक्रव्यूहप्रतिद्वन्द्वस्य गरुडव्यूहस्य विरचनं, युयुत्सोररिष्टनेमिनः कृते शक्रेण समातले रथस्य प्रेषणं, समुद्रविजयेन च सेनानीत्वेनाऽनाधृष्टेरभिषेचनम्, युद्धप्रारम्भः
२४२-२६५/ १०९ जरासन्धसैनिकस्तार्क्ष्यव्यूहाग्रसैनिकभञ्जनं, कृष्णेन तेषां स्थिरीकरणं, महानेमिपार्थानाधृष्टिभिः स्वशङ्खपूरणेन परबलक्षोभकरणं, चकव्यूहभञ्जनं च, महानेमिना रुक्मिणं निरस्त्रीकृत्य वध्यकोटिप्रापणं, शत्रुन्तपेन बलीन्द्रात्प्राप्तायाः शक्तेर्महानेमौ प्रक्षेपणं, मातलिवचसा तज्ज्ञात्वा नेमिना महानेमिशरे वज्रसङ्कामणं, तच्छरं च प्रक्षिप्य महानेमिना शक्तेः पातनं, तद्राज्ञश्च निरस्त्रीकरणं, रुक्मिणः सर्वेषामस्त्राणां छेदनं, वधकरणं, तेन सप्तानामपि राज्ञां ततः पलायनम्
२६६-२९५, ११० एवमन्यैरपि यदुपक्षीयैः समुद्रविजयादिभिर्नृपैर्जरासन्धपक्षीयाणां नृपाणां भञ्जनं हननं च, अतस्तेषां परनृपाणां हिरण्यनाभसेनान्यः शरणे गमनम्
२९६-३०० ११०-१११ भीमा-र्जुनाभ्यां रामपुत्रैश्च धार्तराष्ट्राणां विद्रावणं, पार्थेन च दुर्योधनस्य निरस्त्रीकरणं, युधिष्ठिरेण शल्यस्य हननं, भीमसेनेन च दुर्योधनभ्रातृहननं, सहदेवेन च शकुनेः शिरःकर्तनं, नकुलेन उलूकविद्रावणं, द्रौपदेयैश्च दुर्मर्षणादीनां विद्रावणं, पार्थेन जयद्रथहननं, कर्णार्जुनयोर्युद्धं, कर्णस्य च वधः, भीमसेन-दुर्योधनयोयुद्धं, भीमेन च गदया तनिष्पेषणं, तेन कुद्धेन हिरण्यनाभेन यदुसैन्यविद्रावणं, समुद्रविजयात्मजयोर्जयसेनमहीजययोर्वधकरणं च, महानेमिना भगदत्त-तद्गजयोः पातनं, सात्यकिना भूरिश्रवोहननम् अनाधृष्टिना च हिरण्यनाभहननम्
३०१-३७३ | १११-११३ शिशुपालस्य जरासन्धसेनायाः सेनानीत्वेऽभिषेकः, हंसकमन्त्रिणा च समरावनि श्रितस्य जरासन्धस्य यदुसैन्ययोधानां परिचयकारणम्
३७४-३८८ ___ ११३ कुद्धस्य जरासन्धस्य तत्सुतस्य यवनस्य च यदुभिः सह युधे ढौकनं, रामानुजेन सारणेन यवनशिरश्छेदनं, तेन कुपितेन जरासन्धेन बलस्य दशपुत्राणां संहरणं, कृष्णसेनायाः पलायनं, शिशुपालेन कृष्णस्योपहसनं, कृष्णेन शिशुपालस्य शिरश्छेदनम्
३८९-४०४ ११३-११४ एतेन कुद्धस्य जरासन्धस्य यदुसैन्यविद्रावणं, तस्याऽष्टाविंशतिसुतानां रामेण सहाऽन्येषां चैकोनसप्तते: कृष्णेन सह योधनं, रामेणाऽष्टाविंशतेरपि तेषां हननं, तेन कुद्धस्य जरासन्धस्य रामोपरि गदाघात: रामस्य च रुधिरवमनं, कुद्धेन कृष्णेन चैकोनसप्ततेर्जरासन्धपुत्राणां वधकरणम्
४०५-४१९ ११४ मातलिप्रेरितेनाऽरिष्टनेमिना विना कोपं पौरन्दरशङ्खध्मानेन यदुसैन्यस्वस्थीकरणं मातलिद्वारा च रथं भ्रामयित्वा समग्रस्याऽपि शत्रुसैन्यस्य विद्रावणं, क्ष्माभुजां लक्षस्य च भञ्जनं, ततः रुद्ध परसैन्ये नेमे रथभ्रमणं, पाण्डवैश्वाऽवशिष्टानां धार्तराष्ट्राणां हननं, बलदेवस्य च स्वस्थीभूय परसैन्यहननम्
४२०-४३५] ११४-११५ कृष्ण-जरासन्धयोर्युद्धं, सर्वेष्वस्त्रेषु निष्फलेषु जरासन्धेन कृष्णोपरि चक्रक्षेपणं, कृष्णोरसि ताडनं, तस्यैव चक्रस्य कृष्णेन गृहीत्वा जरासन्धोपरि क्षेपणं तच्छिरोलूननं च, जरासन्धस्य चतुर्थनरके गमनम् | ४३६-४५७ अष्टमः सर्गः कृष्णारिनृपाणां विज्ञप्तिपूर्वं नेमिशरणं गमनं, कृष्णेन नेमिगिरा तेषां स्वीकरणं, विविधेषु मगधादिराज्येषु जरासन्धपुत्रादीनां निवेशनं, नेमिनाथेन विसृष्टस्य मातलेः स्वर्गमनं, सर्वेषां च स्वस्वशिबिरगमनम्
१-१२
| ११६ जरासन्धमरणं ज्ञात्वा खेचराणां कृष्णशरणगमनं, प्रद्युम्न-शाम्बयोश्च तैः स्वपुत्रीदानं, वसुदेवादीनामागमनं, युधि मृतानां प्रेतकार्यकरणं, जीवयशसो वह्नौ पतित्वाऽऽत्महननं, सिनपल्लीग्रामस्थाने कृष्णेनाऽऽनन्दपुररचनं, षडभिर्मासैर्भरतार्धसाधनं, कोटिशिलोद्धरणं, देवैर्नृपैश्च तस्याऽर्धचक्रित्वेऽभिषेकः, तदाज्ञया पाण्डवादीनां स्वस्वस्थानगमनं, वासुदेवपरिवारवर्णनम्
१३-४२ ११६-११७ समुद्रविजय-शिवादेव्योर्नेमिनाथस्य विवाहार्थं प्रेरणं, नेमेश्च निषेधः
४३-४७
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यशोमत्या जीवस्योग्रसेन-धारिण्योः पुत्रीत्वेन जन्म, राजीमतीति तन्नाम, यौवनप्राप्तिश्च द्वारकायां धनसेनस्य स्वसुतायाः कमलामेलाया औग्रसेनिनभःसेनाय दानं, नभःसेनावज्ञातेन नारदेन रामसुतनिषधस्य पुत्रस्य सागरचन्द्रस्य पार्वे गत्वा कमलामेलावर्णनं रागोत्पादनं च, कमलामेलापार्वेऽपि गत्वा नारदस्य सागररागोत्पादनं, सागरचन्द्रेण शाम्बमाननं, शाम्बस्य प्रज्ञप्तिसाहाय्येन कमलामेलाया: सागरेण सह विवाहकरणं, कृष्णस्य कोपः, शाम्बस्य कृष्णपादपतनं, कृष्णेन नभ:सेनबोधनं कमलामेलायाश्च
सागराय
दानं, नभ:सेनस्य सागरच्छिद्रमार्गणम्
५०-७४ ११७-११८ प्रद्युम्नस्याऽनिरुद्धो नाम पुत्रः, बाणखेचरस्योषानामकन्यया गौर्याराधनेन अनिरुद्धस्य स्ववरत्वेन ज्ञानं, बाणस्य शङ्करसुराराधनेनाऽजय्यत्ववरप्राप्तिः, उषयाऽनिरुद्धमानाय्य तेन सह गान्धर्वविवाहकरणं, बाणेन नागपाशैस्तद्बन्धनं, प्रज्ञप्त्या तज्ज्ञात्वा कृष्णस्य रामादिभिस्सह तत्राऽऽगमनं, युद्धे शङ्करहननमुषानिरुद्धाभ्यां सह स्वपुरागमनं च
७५-९५ । ११८ नवमः सर्गः
११९ अन्यदा नेमिकुमारस्य कृष्णायुधशालायां प्रवेशनं, प्राञ्चजन्यशङ्खोद्धरणं ध्मानं च, राम-कृष्णयोः सर्वत्र पुरे च क्षोभः, अरिष्टनेमिकृत्यमिदमिति ज्ञात्वा कृष्णस्य तद्दोर्बलपरीक्षेच्छा, बाहुयुद्धाय चाऽऽह्मनं, नेमिना दो मनयुद्धसूचनं, कृष्णस्य तत्र पराजयः, कृष्णे च साशङ्के देवतया शङ्कापनोदनम्
१-३६ ११९-१२० कृष्णेन नेमेः स्वान्तःपुरे आनयनं, तेन सहैव च स्नान-भोजनादिविधानं, सान्तःपुरस्य कृष्णस्य तेन सह क्रीडनं, वसन्तौ सर्वैः सह रैवतके गमनं, तत्र कृष्णस्य तद्राज्ञीनां च नेमेर्भोगेषु मनः कर्तुं विविधाश्चेष्टा नेमेश्च निर्विकारत्वम्
३७-६८ | १२०-१२१ ग्रीष्मौ कृष्णस्य सान्तःपुरस्य नेमिना सह रैवतके गमनं, कृष्णस्य स्वयोषिद्भिः क्रीडा, नेमेरपि भ्रात्रनुरोधतो भ्रातृजायाभिः सह जलक्रीडा
६९-९४ । १२१ क्रीडानन्तरं तटमाश्रितस्य नेमेः सत्यभामादिभिर्विवाहार्थं प्रेरणं, कृष्णेनाऽन्यैश्च यदुभिरपि तत्प्रेरणम् ९५-११५ / १२१-१२२ नेमेवैराग्यपरं चिन्तनं, विवाहार्थं प्रतिपत्तिश्च, सर्वेषां हर्षः, सत्यभामया च नेमेर्विवाहार्थं स्वभगिन्या राजीमत्या: सूचनम्
११६-१२३|| कृष्णेन गत्वोग्रसेनपार्वे नेम्यर्थं राजीमतीयाचनम्
१२४-१३१ समुद्रविजयेन कोष्टुकिमाहूय विवाहदिनपृच्छनं, श्रावणश्वेतषष्ठीति तत्कथनम्
१३२-१३७ कृष्णेन विवाहोत्सवप्रवृत्त्यारम्भकरणं, नेमि-राजीमत्योश्च सज्जीकरणम्
१३८-१४४ जन्ययात्रा नेमेरुग्रसेनगृहगमनं, ससख्या राजीमत्या गवाक्षेण तद्दर्शनम्
१४५-१६२ राजीमत्या हर्षः, दक्षिणाङ्गस्फुरणेन तस्याः सन्तापः, सखीनामाश्वासनम्
१६३-१७० १२३-१२४ विवाहभोजनार्थमानीतानां प्राणिनां करुणस्वरश्रवणाद् दर्शनात् च नेमिना दयया तेषां मोचनं, स्वगृहं प्रति निवर्तनं च, शिवा-समुद्रविजयोर्नेमये पृच्छा, 'दीक्षां ग्रहीष्ये' इति तद्वचनं श्रुत्वा च द्वयोर्मूर्छा, कृष्णस्य नेमये विवाहार्थं विज्ञप्तिः, नेमिना तस्य संसारस्वरूपबोधनं, दीक्षाहेतुकथनं च
१७१-१९९ | १२४-१२५ नेमेहगमनं, लोकान्तिकामरैरागत्य तीर्थप्रवर्तना) विज्ञप्तिकरणं, भगवतश्च वार्षिकदानप्रारम्भः २००-२०९| १२५ राजीमत्या मूर्छा, शोको, विलापश्च, अन्यपरिणयकथने राजीमत्या निषेधः, नेमिसकाशाद् व्रतादानप्रतिज्ञा च २१०-२३५ | १२५-१२६ भगवतो वार्षिकदानं, शकादिभिर्भगवतो दीक्षाभिषेकः, तत उत्तकुरुशिबिकायां भगवतो दीक्षायात्रा, राजीमतीमूर्छ, भगवतश्च जयन्ताद्रौ सहस्राम्रवणगमनं, श्रावणशुक्लषष्ठीतिथौ पञ्चमुष्टिलोचपूर्वकं भगवतः सामायिकग्रहणं, मनःपर्यायज्ञानोत्पत्तिश्च
२३६-२५४ १२६ द्वितीयदिने वरदत्तद्विजगृहे भगवतः परमानेन पारणं, तत्र वसुधारादिवृष्टिश्च
२५५-२५७ १२६ रथनेमे राजीमत्यामनुरागः परिणयप्रार्थना च, राजीमत्या तस्य बोधनम्, अबुध्यमाने च तस्मिन् वमनं कृत्वा वान्तं पातुमुक्त्वा च तत्प्रतिबोधनम्
२५८-२७४ | १२६-१२७
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चतुःपञ्चाशद्दिनानन्तरं रैवतके सहस्राम्रवणे आश्विनामावास्यायां नेमिनाथस्य कैवल्योत्पादः, इन्द्रैरागत्य समवसरणविरचनं, भगवतोऽपि च तत्र पूर्वद्वारेण प्रविश्य, चैत्यवृक्षं प्रदक्षिणीकृत्य 'तीर्थाय नम' इत्युक्त्वा च सिंहासने उपवेशनं, व्यन्तरसुरैश्चाऽन्यासु दिक्ष्वपि भगवत्प्रतिरूपकरणम्
२७५-२८१] १२७ अथ शैलपालकेभ्यो भगवत्समवसृति ज्ञात्वा सपरिवारस्य कृष्णस्य महत्या ऋद्धया तत्र गमनं, प्रदक्षिणावन्दनादि कृत्वा च यथास्थानमुपवेशनम्
२८२-२८८ १२७ इन्द्र-कृष्णाभ्यां भगवतः स्तवनम्
२८९-२९८
१२७ भगवतो देशना
२९९-३६४ १२७-१३० देशनां श्रुत्वा वरदत्तस्य व्रतोत्सुकता, कृष्णेन राजीमत्यनुरागकारणपृच्छा, भगवता स्वस्य तया सहाऽष्टभवसम्बन्धकथनं, वरदत्तस्य भगवता दीक्षादानं, ततः द्विसहस्रक्षत्रियाणां दीक्षा, अन्येषामपि पूर्वभवसम्बन्धिनां दीक्षा, वरदत्तादीनामेकादशानां गणधरत्वेन स्थापनं, तैश्च द्वादशाङ्गीविरचनं, ततो यक्षिणीराजपुत्र्या नैककन्याभिः सह दीक्षा, दशा.ग्रसेन-कृष्णादीनां, शिवा-रोहिणी-देवकी-रुक्मिण्यादीनां च श्रावकत्वम्, द्वितीयपौरुष्यां वरदत्त-देशना, ततः सर्वेषां स्वस्वस्थानगमनम्
३६८-३८३ १३० भगवतः शासनदेवतात्वेन गोमेधयक्षाम्बिकादेव्यो स्थापना
३८४-३८७ १३० दशमः सर्गः अन्यदा हस्तिनापुरे नारदस्य द्रौपद्याऽवज्ञा, तेन कुपितस्य नारदस्य धातकीखण्डभरतेऽमरकङ्कापुरि पद्मनृपपार्वे गत्वा द्रौपदीवर्णनं, पद्मनाभेन पूर्वमित्रसुराराधनेन द्रौपद्याः स्वगृहे आनयनं, द्रौपदीपावें भोगयाचनं, तया चैकमासावधिकरणम्
१-१३ | १३१ पाण्डवानां कृष्णपार्वे गमनं, नारदेनाऽऽगत्य 'साऽमरकङ्कायामस्ती'त्यादिकथनं, सपाण्डवस्य कृष्णस्य मागधतीर्थे गत्वा सुस्थितसुराराधनेन लवणाम्भोधौ मार्गप्रापणम्
२०-३७ । १३१-१३२ अमरकङ्कां गत्वा कृष्णेन दारुकस्य दूततया प्रेषणं, पद्मस्य युद्धायाऽऽगमनं, तदा कृष्णेन ध्मातस्य शङ्खस्य ध्वनि श्रुत्वा तद्धनुषश्चाऽऽस्फालनेन पद्मस्य सैन्यत्रिभागद्वयस्य नाशः, तदाऽवशिष्टत्रिभागेन सह पद्मस्य नगरी प्रविश्य द्वारपिधानं, कृष्णस्य वैक्रियसमुद्धातेन नरसिंहरूपकरणं, पद्मस्य द्रौपदीशरणगमनं, तयाऽपि च तस्य स्त्रीवेषं विरचय्य कृष्णशरणप्रेषणं, तं क्षमयित्वा द्रौपदी च गृहीत्वा कृष्णस्य सपाण्डवस्य प्रतिनिवर्तनम्
३८-६३ १३२ तदैव मुनिसुव्रतनाम्नस्तीर्थकृतः सभायां स्थितेन कपिलवासुदेवेन कृष्णध्मातशङ्खध्वनि श्रुत्वा प्रभोः पृच्छन, भगवताऽपि यथाघटितकथनम्
६४-७३ | १३२-१३३ तत: कपिलस्याऽमरकङ्कां गत्वा पद्मनिर्वासनं, तत्स्थाने च तत्पुत्रस्थापनम्
७४-७६ १३३ कृष्णस्याऽम्भोधि तीर्वा पाण्डवानां गङ्गोत्तरणाय प्रेषणं, तैरपि गङ्गामुत्तीर्य कृष्णबलपरीक्षणार्थं नावस्तत्रैव धारणं, पाण्डवानां बलपरीक्षणाध्यवसितं ज्ञात्वा कुपितेन कृष्णेन तेषां रथमर्दनं, निर्विषयीकरणं, द्वारकागमनं च
७७-८८ कुन्त्या द्वारकामागत्य कृष्णविज्ञप्तिकरणं, कृष्णेन च 'दक्षिणाब्धितटे पाण्डुमथुरानगरी निवेश्य पाण्डवास्तत्र वसन्तु' इति कथनं, हस्तिनापुरे च कृष्णेनाऽभिमन्यु-सुभद्रयोः पुत्रस्य परीक्षिप्तनाम्नोऽभिषेचनम् ८९-९३ नेमिनाथस्य भद्दिलपुरे गमनं, तत्र सुलसा-नागयोः षण्णां सुतानां भगवतो बोधं प्राप्य दीक्षाग्रहणम् ९४-९७ भगवतो द्वारकायां सहस्राम्रणोपवने समवसरणं, तदा तेषां देवकीपुत्राणां त्रिधा युगलिनो भूत्वा क्रमशो देवकीगृहगमनं, तया च विस्मयेनाऽन्त्ययुगलिनोः पृच्छनं, ताभ्यां च यथातथकथनं, देवक्या भगवते पृच्छा, भगवताऽपि यथाघटितकथनं, तया षड्भ्योऽपि वन्दनं, ततस्तस्या खेदः
९८-११३ | १३३-१३४ भगवता तत्पूर्वजन्मदुष्कृतकथनं, तस्याश्च पुत्रजन्माभिकाङ्क्षां ज्ञात्वा कृष्णेन नैगमेषिण आराधनेन देवकीकृते पुत्रयाचनं, ततः कस्यचिन्महर्द्धिकदेवस्य स्वर्गाच्च्युत्वा देवक्याः कुक्षाववतरणं, काले जन्म, गजसुकुमाल इति तन्नाम, रूपेण च कृष्णसादृश्यं, यौवने प्राप्ते तस्य द्रुमनृपकन्यया प्रभावत्या सोमशर्मद्विजपुत्र्या च सोमया परिणयः
११४-१२६ १३४
१३३
१३३
१३३
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(२०)
विषयः
| श्लोकाः ।
पृष्ठम्
नेमिनाथं समवसृतं ज्ञात्वा गजसुकुमालस्य धर्मश्रवणं, वैराग्यं, पितरौ समनुज्ञाप्य च सभार्यस्य तस्य व्रतग्रहणं, सायं स्मशाने प्रतिमाविधानं, सोमशर्मणा तद् दृष्ट्वा कुपितेन तच्छिरसि ज्वलच्चिताङ्गारपूर्णघटीकण्ठस्य स्थापनं, समाधिनाऽधिषहमानस्य तस्य कर्मेन्धनानि दग्ध्वा केवलोत्पत्ति: मोक्षश्च । १२७-१३३ १३४ कृष्णेन तमदृष्ट्वा प्रभोः पृच्छा, तन्मोक्षं ज्ञात्वा कृष्णमूर्छा, संज्ञां लब्ध्वा तेन भ्रातृवधकपृच्छनं, भगवता 'सोमशर्मणे मा कुपः स त्वद्भातुर्मोक्षसाधने सहायः' इति कथनं, कृष्णेन भ्रातुः संस्कारादिकरणं, पुरी प्रविशता च सोमं भयेन मृतं दृष्ट्वा तद्देहं बन्धयित्वा नगरे च भ्रमयित्वा गृध्रादीनां बलितया क्षेपणम् १३४-१४५ १३५ गजसुकुमालशोकेन वसुदेवं विना दशार्हाणां, शिवादेव्याः, प्रभोः सप्तसोदर्याणां, राजीमत्याः, एकनाशायाः, बहूनां कृष्णपुत्राणां यदूनां च परिव्रज्या, वसुदेवस्य कनकवती-रोहिणी-देवकीभिविना सर्वासां पत्नीनां प्रव्रज्या, कृष्णस्य च कन्योद्वाहप्रत्याख्यानाभिग्रहः, ततः कनकवत्याः गृहे स्थिताया अपि कैवल्योत्पत्तिः, स्वयं प्रव्रज्याग्रहणं, स्वामिनं दृष्ट्वा च मासिकानशनेन निर्वाणम्
१४६-१५३ १३५ सागरचन्द्रस्याऽणुव्रतधरस्य प्रतिमाधरस्य श्मशाने कायोत्सर्ग कुर्वाणस्य शिरसि नभःसेनेन चिताङ्गाराणां न्यसनं, तस्य मृत्वा स्वर्गमनम्
१५४-१५८ १३५ शक्रेण स्व:सदसि कृष्णवर्णनं, देवस्य कस्यचिद् द्वारवतीमागत्य कृष्णपरीक्षा, वरदानं च
१५९-१६८ १३५-१३६ कृष्णेन द्वारकायां रोगोपसर्गशान्तिः स्यादिति वरयाचनं, देवेन तस्मै भेरीदानं, भेरीवादनेन रोगाद्युपशान्तिः, अथाऽर्थलुब्धेन भेरीरक्षकेण भेर्याः कन्थीकरणम्, भेरीरक्षककुकृत्यज्ञानेन हत्वा तं कृष्णेनाऽष्टमं कृत्वाऽमरात् पुनरपि भेरीप्राप्तिः
१६९-१७९ १३६ कृष्णेन भेरीवादनेनाऽशिवोपशान्तिकरणं, वैद्यद्वयस्य च चिकित्सायै योजनं, तत्र वैतरणेर्यथोचितं चिकित्सा धन्वन्तरेस्तु पापसंयुता चिकित्सा, भगवता धन्वन्तरेः सप्तमपृथ्वीगमनकथनं, वैतरणेश्च विन्ध्यवने कपित्वप्राप्तिकथनं, ततः साधुचिकित्सां कृत्वाऽनशनेन च तस्य सहस्रारे सुरत्वप्राप्तिकथनं, श्रुत्वैतत् कृष्णस्य धर्मश्रद्धावृद्धिः
१८०-१९९ / १३६ अन्यदा भगवत: पार्वे वर्षास्वविहारकारणं श्रुत्वा कृष्णेनाऽपि स्वगेहादनिःसरणाभिग्रहग्रहणं, स्वगृहे च सर्वेषां प्रवेशनिषेधनं, वीरकुविन्दस्य प्रतिज्ञां ज्ञात्वा कृष्णेन सकृपेन तस्य स्वगृहागमनानुज्ञा २००-२१० १३७ कृष्णेन देशनायां यतिधर्मं श्रुत्वाऽन्यदीक्षाग्राहणानुमोदनादिनियमग्रहणं, स्वकन्यानां युक्त्या प्रव्राजनम्, अथैकदा मातृशिक्षितायाः केतुमञ्जर्याः वचः श्रुत्वा कृष्णेन युक्त्या तस्या वीरकेण सह विवाहकरणं, प्रव्राजनं च
२११-२३० अन्यदा कृष्णस्य वीरकस्याऽपि सर्वेषां साधूनां द्वादशावर्तवन्दनं, कृष्णस्य भगवता क्षायिकसम्यक्त्वाद्यर्जनकथनं, पुनरपि वन्दनोद्यतस्य च भगवता निवारणम्,
२४०-२४८ १३८ कृष्णस्य ढण्ढणनामपुत्रस्य वैराग्याद्दीक्षा, तस्याऽन्यदाऽन्तरायकर्मोदयेन भिक्षाया अलाभे साधुभिश्च भगवतस्तत्कारणे पृष्टे भगवता ढण्ढणपूर्वभवदुष्कृतकथनं, तच्छ्रुत्वा ढण्ढणस्य परलब्ध्या भोजनाग्रहणाभिग्रहः, अलाभपरीषहसहनं च
२४९-२६० १३८ कृष्णेन भगवतो 'दुष्करकारकमहर्षिः क' इति पृष्टे भगवता 'ढण्ढण' इति कथनं, निवर्तमानेन कृष्णेन ढण्ढणं दृष्ट्वा तद्वन्दनं, श्रेष्ठिनैकेन ढण्ढणं समाकार्य मोदकेन तत्प्रतिलाभनं, ढण्ढणेन भगवत्पार्वे गत्वा पृष्टे भगवता 'हरेर्लब्धिरिय' मिति कथिते ढण्ढणस्य तां भिक्षां परिष्ठापयतः शुद्धभावेन केवलोत्पादः | २६१-२७० | १३८-१३९ अन्यदा स्वामिपावें गच्छति रथनेमावकस्माद् वृष्टिं जातां दृष्ट्वा गुहायां प्रवेशः, इतो राजीमत्या अपि वृष्टिवशात्तस्यामेव गुहायां प्रवेशः, वस्त्रमोचनं, रथनेमे: कामातुरतया भोगप्रार्थनं, तया तस्य सम्यक् प्रतिबोधनं, तस्य च पश्चात्तापपरस्य तीव्रव्रतपालनं, प्रभोरग्रे स्वदुश्चरितालोचनं, वत्सरान्ते च केवलोत्पादः | २७१-२८६ १३९ अन्यदा रैवतकाचले समवसृते स्वामिनि कृष्णेन पालक-शाम्बादिपुत्राणां परीक्षणं प्रभोः सकाशात् द्रव्य-भावयोव्याभव्ययोश्च भेदं ज्ञात्वा कृष्णेन पालकनिर्वासनं शाम्बसत्कृतिश्च
२८७-२९४ एकादशः सर्गः
१४० अन्यदा प्रभोर्देशनान्ते कृष्णेन द्वारकाया यदूनां स्वस्य च क्षयस्य हेतोः पृच्छा, भगवताऽपि च 'द्वारका
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(२१)
विषयः
श्लोकाः ।
पृष्ठम्
१४०
यदूनां क्षयो द्वैपायनात् तव स्वभ्रातुर्जरत्कुमारात् क्षयः' इति कथिते जराकुमारस्य द्वैपायनस्य च वनवासित्वं, कृष्णेन च मद्यनिवारणं त्याजनं च।
१-१३ सिद्धार्थस्य प्रव्रज्या, बलदेवस्य तस्मै काले सम्बोधनार्थ विज्ञप्तिः
१४-१८ १४० अन्यदा वनेष्टतः स्वपुरुषान्मद्यं प्राप्य शाम्बस्य कुमारैः सह सुरापानं, मद्यपानान्धैः कुमारैस्तत्र ध्यानरतस्य द्वैपायनचेस्ताडनं, द्वैपायनस्य निदानकरणं, कोधानुपशमनं च
१९-४० | १४०-१४१ द्वारकायां गत्वा कृष्णस्य लोकेभ्यो धर्मनिरतत्वाय सूचनं, शाम्ब-प्रद्युम्नादीनां कुमाराणां जाम्बवतीरुक्मिण्यादीनां च यदुयोषितां प्रव्रज्या, भगवता 'द्वादशेऽब्दे द्वैपायनो द्वारकां धक्ष्यती'ति कथनम् ४१-४७ | १४१ कृष्णखेदं ज्ञात्वा भगवता तस्य वालुकाप्रभागमनकथनं, तेन विधुरस्य कृष्णस्य भगवता भाविनिकाले भरतेऽममतीर्थकृत्त्वकथनं बलदेवस्य च तस्यैव तीर्थे मुक्तेः कथनम्
४८-५५ १४१ द्वैपायनस्य मृत्वाऽग्निकुमारेषूत्पादः, तस्य धर्मप्रभावेण तत्रोपसर्ग कर्तुमक्षमत्वं, छिद्रान्वेषणं च
५६-५९
१४१ द्वादशेऽब्दे प्राप्ते जनैः स्वैराचरणं, तदाऽवकाशमुपलभ्य द्वैपायनेन विविधोत्पातकरणं, पुरी काष्ठतृणादिभिरापूर्य प्रणश्यतो जनांश्चाऽऽनीय कुलकोटीनां द्वात्रिंशेन शतेन सह द्वारकाया ज्वालनम् ६०-७३ | १४१-१४२ वसुदेव-देवकी-रोहिणीनां त्राणाय गतयो राम-कृष्णयोद्वैपायनेन निषेधनं, तेषां चाऽऽहारप्रत्याख्यानं कृत्वा चतुःशरणं च कृत्वा द्वैपायनवर्षितेनाऽग्निना च मृत्वा स्वर्गमनम्
७४-८८ | १४२ राम-कृष्णाभ्यां पुर्या बहिर्गत्वा दह्यमानपुरीदर्शनं, कृष्णस्य शोकः, द्वयोश्च पाण्डुमथुरां प्रति प्रयाणम् ८९-१०० १४२-१४३ रामसूनोः कुब्जवारकस्य जृम्भकदेवैः स्वामिपार्वे नीतस्य प्रव्रज्याग्रहणम्, द्वारकायाश्च षण्मासी यावद्दहनम् १००-१०६/ १४३ हस्तिकल्पपुरं गच्छतो राम-कृष्णयोः दर्शनेनाऽऽरक्षैस्तत्रत्यनृपाय धृतराष्ट्रपुत्राय विज्ञप्तिः, तस्य च सबलस्य बलं हन्तुमागमनं, बलेनाऽऽलानमुन्मूल्य तेषां हननं, तत्क्ष्वेडां च श्रुत्वा कृष्णेनाऽप्यागत्य द्वारपरिघेन सैन्यहननं, ततो वशंवदं नृपं क्षमयित्वा द्वयोरुद्याने गत्वा भोजनकरणं, ततः कौशाम्बवनं प्राप्तयोः कृष्णस्य तृषाऽऽकुलत्वं, तत्कृते च बलभद्रेन जलानयनाय गमनं, कृष्णस्य च पीताम्बरेण स्वं प्रच्छाद्य स्वपनम् १०७-१२८ १४३ तावता जराकुमारस्य तत्राऽऽगत्य कृष्णं दृष्ट्वा मृगबुद्ध्या शरेण हननं, तेन 'जराकुमारोऽह' मित्यादिकथनं, कृष्णोऽयमिति च ज्ञात्वा तस्य मूर्छा, रोदनं च, कृष्णेन तस्मै स्वकौस्तुभं दत्त्वा तस्य पाण्डवपार्वे प्रेषणम्
१२९-१५३ | १४३-१४४ ततः कृष्णस्य शुभध्यानं, वायुकोपेन च द्वैपायनमारणचिन्तया रौद्रध्यानं, मृत्वा च तृतीयनरके गमनम् १५४-१६५ / १४४-१४५ द्वादशः सर्गः
१४६ जलमादायाऽऽगतस्य रामस्य कृष्णं मृतं ज्ञात्वा मूर्च्छनं, रोदनं च, भ्रातरं स्कन्धे समारोप्य वनादिषु भ्रमणम् तदाऽवधिना तद् दृष्ट्वा सिद्धार्थजीवेन देवेनाऽऽगत्य युक्त्या तत्प्रतिबोधनं, ततो निजरूपं प्रकटयित्वा कृष्णमरणकारणादिकथनं, रामेणाऽपि प्रव्रज्यानिश्चयकरणं, देवसाहाय्येन कृष्णशरीरसंस्कारकरणम् १५-३५ | १४६-१४७ बलस्य दीक्षानिश्चयं ज्ञात्वा नेमिनाथेन विद्याधरषिप्रेषणं, तत्पावें दीक्षां गृहीत्वा बलस्य तीव्रतपःकरणम्, अन्यदा पारणे पुर्यां प्रविष्टेन निजरूपाज्जायमानमनर्थं विलोक्य वने गमनं, तत्र च काष्ठहारकैर्दतैराहारादिभिः पारणकरणम्
३६-४८ बलस्य धर्मदेशनया नैकेषां व्याघ्र-सिंहादीनां प्रशान्तत्वं, श्रावकत्वादिभजनं च, जातिस्मरस्य चैकमृगस्याऽतिसंवेगेन सदा बलमुनिसाहचर्य, तत्तपःपारणार्थं च काष्ठहारकादीनामन्वेषणणं च, बलर्षेः भिक्षार्थ नयनं च, अन्यदा रथकारकानागतान् ज्ञात्वा मृगेण बलस्तत्राऽऽनयनं, रथकारेणाऽपि मुनेमस्करणम् ४९-६१ । १४७ बलर्षिणा च रथकारान्तरायापास्तये भिक्षाग्रहणं, मृगस्याऽपि तद् दृष्ट्वाऽनुमोदनम्, एवं त्रयाणामपि धर्मध्यानपरायणानामुपरि वाताहतस्याऽर्धच्छिनस्य तरोः पतनात् त्रयाणामपि मृत्युः ब्रह्मलोके पद्मोत्तरविमाने च सुरत्वम्
६२-७० | १४७-१४८ अथ रामजीवेन देवेनाऽवधिना कृष्णं तृतीयनरकगतं विलोक्य तत्स्नेहात् तदुद्धरणाय तत्पार्वे गमनं, कर्मनियन्त्रितं च तं विलोक्य तत्सन्निधौ वसनाय निर्णयनं, तदा कृष्णेन तस्य भरते गत्वा द्वयोरपि महिमानं कर्तुं सूचनं, रामेणाऽपि तथा करणम्
७१-८९ १४८
२-१४ ।
१४६
१४७
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(२२)
विषयः
जराकुमारस्य पाण्डवसमीपे गमनं द्वारका दाहादिवृत्तकथनं, कौस्तुभार्पणं च शोकमग्नैः पाण्डवैः कृष्णस्य प्रेतकार्यकरणं, ततस्तेषां प्रव्रज्येच्छां ज्ञात्वा नेमिनाथेन धर्मघोषमुनेस्तत्र प्रेषणं, तैरपि जराकुमारं राज्ये न्यस्य द्रौपद्यादिसहितैः प्रव्रज्याग्रहणं, साभिग्रहतपःकरणं च नेमिनाथवन्दनार्थं ततो विहारश्च नेमिनाथभगवतो विविधदेशेषु विहारः, नैकजीवप्रतिबोधनं च
भगवतः परिवारवर्णनं, निर्वाणसमयं ज्ञात्वा प्रभो रैवतके गमनम्
समवसरणे रचिते भगवतः पर्यन्तदेशना, पादपोपगमनानशनं, षटत्रिंशैः पञ्चभिः शतैश्च साधूनां सहितैः आषाढ शुक्लाष्टम्यां निर्वाणं च
प्रद्युम्न - शाम्बादीनां कुमाराणां कृष्णस्याष्टानां महिषीणां, भगवतो बन्धूनां राजीमती - रथनेमिप्रभृतिव्रतिव्रतिनीनां च मोक्षगमनं, शिवा-समुद्रविजयोर्माहेन्द्रकल्पे गमनं, दशार्हाणां च विविधदेवलोकगमनम्, इन्द्रादिभिः प्रभोर्देहस्याऽग्निसंस्कारकरणं तत्स्थाने च नेमिनाथप्रतिमायुतस्य चैत्यस्य रचनं, इतो हस्तिकल्पपुरं प्राप्तैः पाण्डवैः जनेभ्यो नेमिनाथनिर्वाणं श्रुत्वा शोकेन विमलाद्रौ गमनं तत्र चाऽनशनेन केवलं प्राप्य निर्वाणगमनं च द्रौपद्यास्तु ब्रह्मलोकगमनम्
॥ अष्टमं पर्व समाप्तम् ॥
नवमं पर्व
प्रथमः सर्गः, ब्रह्मदत्तचक्रिचरितम्
ब्रह्मदत्तचक्रिणः पूर्वभवानां वर्णनं, यथा, जम्बूद्वीपे भारते साकेतनगरे चन्द्रावतंसपुत्रस्य मुनिचन्द्रनाम्नो वैराग्यात् सागरचन्द्रमुनि पार्श्वे व्रतग्रहणम्, अन्यदा गुरुणा सह विहरतस्तस्य सार्थाद् भ्रष्टत्वात् अटव्यामटनं, तत्र चतुर्भिर्गोपैस्तत्प्रतिचरणं, मुनिनाऽपि तान् प्रतिबोध्य दीक्षार्पणं, तत्र द्वाभ्यां सम्यक्प्रतपालनं द्वयोश्च जुगुप्सा, सर्वेषां स्वर्गमनं, जुगुप्साकारिणोस्ततश्च्युत्वा दासपुत्रत्वं, सर्पदंशेन तत्र विपद्याऽनन्तरजन्मनि मृगत्वं, ततो मृतगङ्गायां हंसत्वं ततश्च वाराणस्यां भूतदत्ताभिधस्य महर्द्धिमातङ्गस्य चित्रसम्भूतिनामपुत्रत्वम्
अत्राऽपि निमित् प्राप्य व्रतं गृहीत्वा सम्यक् पालयतोस्तयोः वन्दनार्थमागतस्य चक्रिणः स्त्रीरत्नस्य केशसंस्पर्शेन सम्भूतमुनेश्चकित्वप्रापणाय निदानकरणं, द्वयोर्मृत्वा सौधर्मे सुरत्वम्
ततश्च्युत्वा चित्रजीवस्य पुरिमताले महेभ्यतनयत्वं, सम्भूतस्य च काम्पिल्ये ब्रह्म-चुलन्योर्ब्रह्मदत्तनामपुत्रत्वेन जन्म, ब्रह्मदत्तस्य द्वादशे वयसि तत्पितुर्मरणं, ब्रह्ममित्रैश्च दीर्घराजस्य ब्रह्मराजराज्यत्राणाय नियोजनं, दीर्घस्य राज्यसम्पद्धरणं चुलन्या सह रमणं च
सर्वमिदं ब्रह्मराजमन्त्रिणा धनुषा ज्ञात्वा ब्रह्मदत्तरक्षणाय स्वसुतवरधनोर्नियोजनं, तस्माच्च स्वमातुर्वृत्तं ज्ञात्वा ब्रह्मदत्तस्य कोप:
तेन शुद्धान्तमध्ये गत्वा स्वकोपप्रकाशनं, तदाकूतं ज्ञात्वा दीर्घेण चुलन्यास्तन्मारणाय सज्जीकरणं, तस्यो - द्वाहं कृत्वा जतुगृहे ज्वालनीयोऽसावित्युपायकरणं च
तज्ज्ञात्वा धनुषोपायेन गङ्गातीरे सत्रमण्डपकरणं, पान्थेभ्योऽन्नपानादिदानं च ततः प्रत्ययितनरैस्तेन जतुगृहावधि सुरङ्गाकरणम् ततो युक्त्या राजकन्यास्थाने दासीमानाय्य ब्रह्मदत्तस्य विवाहकरणम् जतुगृहे वरधनुना सह प्रविष्टे ब्रह्मदत्ते निशार्थे चुलन्यादिष्टपुरुषैस्तज्ज्वालनं, वरधनुना च सुरङ्गाद्वारमुद्घाट्य ततो ब्रह्मदत्तेन सह निष्क्रमणम्
ब्राह्मणगृहे भोजनार्थं प्रविष्टस्य ब्रह्मदत्तस्य ब्राह्मणेन स्वपुत्र्या विवाहकरणम्
ततोऽग्रेगतयोस्तयोर्दीर्घपुरुषैर्मार्गरोधेन वरधनुषि गृहीते ब्रह्मदत्तस्य पलायनम् गच्छतस्तस्याऽऽश्रमं दृष्ट्वा कुलपतिपार्श्वे गमनं, स्ववृत्तकथनं च तच्छ्रुत्वा हृष्टेन तेन स्वस्य तत्पितुलघुभ्रातृत्वकथनं, ब्रह्मदत्तस्य चाऽऽ श्रम एव स्थापयित्वा कलाशिक्षणम्
अन्यदा वनं गतेन ब्रह्मदत्तेन मत्तहस्तिनं दृष्ट्वा तेन सह खेलनं, हस्तिनि च नष्टे तस्य वने भ्रष्टत्वम्
For Private Personal Use Only
श्लोकाः
९०-९५
१४८
९६-९९
१४८
१००-१०५ १४८-१४९
१०६-१०९
११० -१२८
१- २१
२२-१०२
१०३ - १२२
१२३-१२८
१२९-१४४
पृष्ठम्
१५८ - १७७ १७८-१८४ १८५ - १९२
१९३-२०२ २०३ - २१३
१४९
१४९-१५०
१५१
१५१
१५१ - १५४
१५४-१५५
१५५
१४५ - १५७ १५५-१५६
१५५
१५६ १५६ १५६-१५७
१५७
१५७
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(२३)
विषयः
श्लोकाः
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पृष्ठम्
अथाऽग्रे गतेन तेन नदीमुत्तीर्य उद्वसे पुरे वंशजालिकायामसि-वसुनन्दौ दृष्ट्वा ग्रहणं, असिना च वंशजालच्छेदने कस्यचिन्मस्तके छिने तेन सम्यक् दृष्ट्वा शोककरणं, ततो नगरे प्रविष्टस्य तस्य सप्तभूमिकं प्रासादं दृष्ट्वा तत्राऽऽरोहणं, तत्र च निषण्णामेकां नारी वीक्ष्य तस्यै पृच्छनम्
२१४-२२३ | १५७-१५८ तया च पृष्टे तेन स्ववृत्तकथनं, तच्छ्रुत्वा तस्या हर्षः, स्वपरिचयं च दत्त्वा ततो द्वयोरपि गान्धर्वविवाहः | २२४-२३५/ १५८ प्रभाते ब्रह्मदत्तस्य पुष्पवत्या सङ्केतेन ततो निर्गमनं, तत एकं महासरस्ती| तत्तटे च पुष्पाणि विचिन्वत्याः कन्याया रूपं दृष्ट्वा विस्मितस्य तस्य नृपेण स्वपुत्र्या तद्विवाहकरणम्
२३६-२६८ | १५८-१५९ अथाऽन्यदा पल्लीपतिना सह ग्रामघातार्थ ब्रह्मदत्ते गते तत्र सरस्तटे वरधनुमेलनं, तेन च स्ववृत्तान्तकथनम् २६९-३०१ | १५९-१६० ततो दीर्घराजस्य भटानायातान् ज्ञात्वा द्वयोस्ततः पलायनं, ततोऽटतोस्तयोः ब्रह्मदत्तस्याऽन्यान्यकन्यापरिणयनं वरधनुं च कुत्रचिद् गतं मृतं ज्ञात्वा राजगृहे तत्प्रेतकार्यकरणप्रवृत्ते ब्रह्मदत्ते वरधनोस्तत्राऽऽगमनं स्ववृत्तकथनं च
३०२-४०९ | १६०-१६३ अन्यदोन्मत्तहस्तिनं वशं कुर्वतस्तस्याऽऽकृत्यादि दृष्ट्वा विस्मितेन राज्ञा तत्परिचयज्ञानेन बह्वीभिः कन्याभिस्तत्परिणयकरणं, वरधनोश्च मन्त्रिकन्यया परिणयः
४१०-४२५ १६३-१६४ तयोर्बलं संचित्य वाराणसीगमनं, वाराणसीशेन ब्रह्मदत्तस्य स्वकन्यया विवाहकरणं, सेनादानं च, ततो धनुर्मन्त्रिणोऽन्येषां च नृपाणां साहाय्यं लब्ध्वा ब्रह्मदत्तस्य दीर्घ पराभवितुं प्रयाणं, दूतस्य चोत्तरदानं, काम्पील्यरोधनं च
४२६-४३६ १६४ दीर्घस्य युद्धायाऽऽगमनं, चुलन्या वैराग्याद्दीक्षा, युद्धे च ब्रह्मदत्तेन दीर्घस्य हननं, काम्पील्यं प्रविश्य कुरुमत्या स्त्रीरत्नत्वेन प्रतिष्ठापनम्
| ४३७-४४८ | १६४-१६५ ततस्तस्य षट्खण्डभरतक्षेत्रसाधनं, काम्पील्यमागतस्य तस्य चक्रित्वेनाऽभिषेकः
४४९-४७० १६५ अभिषेके च प्रवर्तमाने पूर्वपरिचितद्विजस्य तत्राऽऽगतस्याऽन्तः प्रवेशमलभमानस्य द्वारे स्थित्वैव नृपं सेवमानस्य प्रत्यभिज्ञानेन ब्रह्मदत्तेन तस्मै सर्वत्र भरतक्षेत्रे भोजनादि दापनम्
४७१-४८४ | १६५-१६६ अन्यदा जातिस्मृति प्राप्य पूर्वजन्मसहोदरशुद्धिकृते ब्रह्मदत्तेन जनेभ्यः श्लोकार्धसमस्यार्पणं, चित्रजीवमुनिना तत्पूरणे तस्य पार्वे गमनं, देशनाश्रावणं, मुनये च भोगार्थमामन्त्रणदानं, मुनिना च तस्य प्रतिबोधनं, ब्रह्मदत्तस्याऽबुद्धत्वं, मुनेश्च क्रमशः केवलज्ञान-निर्वाणादि
४८५-५१२ | १६६-१६७ अन्यदा यवनेशेन प्रेषितस्याऽश्वस्य परीक्षार्थं गतस्य ब्रह्मदत्तस्य तेनाऽश्वेनाऽतिदूरे नयनं, तत्रैकसरस्तटे एकस्या नागकन्याया नागरूपेण व्यन्तरेण साकं रमणं वीक्ष्य तयोः शिक्षादानं, नगर्यां निवर्तनं, नागकन्यया च स्वपतयेऽलीककथनं, तच्छ्रुत्वा ब्रह्मदत्तमारणेच्छयाऽऽगतेन नागकुमारेण ब्रह्मदत्त-तन्महिष्योः संलापं श्रुत्वा प्रकटीभूय तत्प्रशंसनं, 'किञ्चिद् याचस्वे'ति कथनं च, ब्रह्मदत्तेन 'सर्वप्राणिभाषामहं जानीया'मिति याचनं, तदा नागेना'ऽन्येषां न शंस्य'मिति कथयित्वा तस्मै वरदानम्
५१३-५५१ १६७-१६८ प्रसाधनगृहे गृहगोलदम्पत्योर्वातां श्रुत्वा हसतो राज्ञो महिष्या तत्कारणपृच्छनं, राज्ञा 'अकथनीयं तद्, अन्यथा मरिष्येऽह'मिति कथितेऽपि तस्या दुराग्रहेण राज्ञा स्मशाने चितां कारयित्वा 'तत्रैव कथयिष्ये' इति तस्यै कथनं, तदा राज्ञः कुलदेवतया छागदम्पत्यो रूपं कृत्वा राज्ञः प्रतिबोधनं ।
५५२-५७० १६८ अन्यदा प्राक्परिचितेन द्विजेनाऽऽगत्य 'सकुटुम्बं मां भोजये'ति याचिते राज्ञा 'मदीयान्नं ते न जीर्यते' इति कथितेऽपि तदाग्रहेण सकुटुम्बस्य तस्य स्वगृहे भोजनकराणं, तद्भोजनमदेन स्मरातुरस्य द्विजकुटुम्बस्य पशुवदाचरणं, द्वितीयदिने द्विजेनाऽमर्षेण राज्ञो वैरसाधनायाऽजापालद्वारा तदक्षिस्फोटने कृते राज्ञा तस्य द्विजस्य सपरिवारस्य घातनं, ततः पुरोधःप्रभृतीनां सर्वेषां विप्राणां घातनं, 'तेषां नेत्राणां स्थालमापूर्य निधातव्य' इति आज्ञाकरणं च, अमात्यैस्तद्रौद्राध्यवसायं विज्ञाय श्लेष्मातकफलैः स्थालमापूर्य तत्पुरतो निधानं, ब्रह्मदत्तस्य नित्यं तेषां स्पर्शनमर्दनै रौद्राध्यवसायवृद्धिः, एवं षोडशवर्षाणि कृत्वा 'कुरुमती'ति ब्रुवाणस्य तस्य मृत्वा सप्तमनरकपृथिवीगमनम्
| ५७१-६०० १६९
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(२४)
श्लोकाः
पृष्ठम्
१७०
१-५८ | १७०-१७१
५९-९८ | १७२-१७३
९९-११७ |
१७३
विषयः द्वितीयः सर्गः- श्रीपार्श्वनाथचरितम् (श्रीपार्श्वनाथस्य पूर्वभवाः) जम्बूद्वीपे भरते पोतनपुरे अरविन्दराजा, तत्पुरोहितो विश्वभूति: परमश्रावकः अनुद्धरा तद्भार्या कमठमरुभूती तत्पुत्रौ, वरुणा कमठभार्या, वसुन्धरा मरुभूतिभार्या, विश्वभूतेरनशनेन मृत्वा सौधर्मे सुरत्वं, तद्वियोगेनाऽनुद्धराया अपि नमस्कारपराया मृत्युः, कमठस्य गृहकार्यकर्मठत्वं, मरुभूतेस्तु संसारासारत्वज्ञस्य धर्मरतत्वं विषयपराङ्मुखत्वं च, कमठस्य परस्त्री-द्यूतादिष्वासक्तिः, वसुन्धरायाः पत्याऽस्पृष्टाया विषयेच्छा, कमठेन मुग्धायास्तस्याश्छलेन विप्लवकरणं, तया सह रमणं च, वरुणया तत् मरुभूतये कथनं, मरुभूतिना तद् दृष्ट्वा राज्ञे कथनं, राज्ञा कमठस्य सविडम्बनं निर्वासनं, तेनाऽपि वने गत्वा तापसदीक्षाग्रहणम्, इतः पश्चात्तापपरस्य मरुभूतेस्तत्क्षमायाचनाय गतस्य मूर्धनि शिलाक्षेपणेन कमठेन तद्धननं, तस्य मृत्वा (द्वितीयभवे) विन्ध्ये इभत्वं, वरुणाया अपि मृत्वा तस्यैवेभस्य करिणीत्वम् अरविन्दस्य दीक्षा, अन्यदा सार्थेन सहाऽष्टापदयात्रायै तगमनं, क्रमेण सार्थस्य मरुभूतीभसेविताटवीप्राप्तिः, तान् दृष्ट्वा कोपान्धेनेभेन तान् प्रति धावनं गर्जनं च, तेन सर्वेषां पलायनं, केवलमवधिज्ञानिनोऽरविन्दर्षे: कायोत्सर्गरतत्वं, तं दृष्ट्वा हस्तिनः प्रशमः, मुनिना तत्प्रतिबोधनं, हस्तिनो जातिस्मरणं, वरुणाकरिण्या सह तस्य श्रावकव्रतग्रहणम् कुञ्जरस्य तपोरतत्वं, शुभध्यानं च, कमठस्य मृत्वा कुक्कुटसर्पत्वं, भ्रमता तेन प्रासुकं पयः पिबन्तं पङ्के मग्नं च मरुभूतीभं दृष्ट्वा दशनं, समाहितस्य तस्य मृत्वा (तृतीयभवे) सहस्रारे सुरत्वं, करिण्या अपि तीव्रतपश्चरणेन विपद्य द्वितीयकल्पे देवीत्वं; गजजीवदेवेन तस्याः स्वकल्पे नयनं, द्वयोश्च सुखभोगः, कुक्कुटाहेस्तु मृत्वा पञ्चमनरके गमनम् (चतुर्थभवे) प्राग्विदेहे सुकच्छे विजये वैताढ्यपर्वते तिलकापुरे गजजीवस्य विद्युद्गतिखेचरेशकनकतिलकयोः पुत्रतया जन्म, किरणवेग इति तन्नाम, यौवने पित्रा तं राज्ये न्यस्य दीक्षाग्रहणं, तस्याऽपि किरणतेजाः पुत्रः, अन्यदा सुरगुरुमुनेर्देशनया विरक्तस्य किरणवेगस्य प्रव्रज्या, अन्यदा पुष्करद्वीपं गत्वा शाश्वतार्हतो नत्वा हैमशैलस्य प्रदेशे तस्य प्रतिमाकरणं, तदा कुक्कुटाहिजीवस्य नरकादुद्वृत्तस्य तत्रैव महाहितयोत्पन्नस्य मुनिं दृष्ट्वा कोपः, मुनिशरीरं वेष्टयित्वा च दशनं, मुनेश्च नमस्कारं स्मृत्वा समाधिनाऽनशनेन च मृत्वा (पञ्चमे भवे) द्वादशे कल्पे देवत्वं, तस्य चाऽहेर्दवाग्निना मृत्वा षष्ठे नरके उत्पत्तिः (षष्ठे भवे) प्रत्यग्विदेहे सुगन्धिविजये शुभङ्करापुयाँ किरणवेगजीवस्य स्वर्गाच्च्युत्वा वज्रवीर्यनृपलक्ष्मीवत्योः वज्रनाभाभिधपुत्रत्वेन जन्म, यौवने पित्रोस्तं राज्येऽभिषिच्य व्रतग्रहणं, तस्य चक्रायुधः पुत्रः, वज्रनाभस्य यौवनादेव संसारभीतस्य चक्रायुधं राज्ये न्यस्य क्षेमङ्करतीर्थकृत्पावें दीक्षाग्रहणम्, अन्यदा वज्रनाभ-मुनेरेकाकिविहारप्रतिमाधरस्य सुकच्छे विजये ज्वलनाद्रौ महाटव्यां गमनं, कायोत्सर्गेणाऽवस्थानं, तस्य सर्पजीवस्याऽपि नरकादुद्वृत्तस्य तस्यामेवाऽटव्यां कुरङ्गकाभिधभिल्लत्वेन जन्म, पापद्धय निर्यातस्य तस्य मुनि दृष्ट्वा कोपः, शरेण च मुनेहननं, मुनेश्च समाधिना मृत्वा (सप्तमे भवे) मध्यप्रैवेवके देवत्वं, कुरङ्गकस्याऽपि महापापानि कृत्वा सप्तमे नरके उत्पत्तिः (अष्टमे भवे) जम्बूद्वीपे प्रत्यग्विदेहे पुराणपुरे वज्रनाभजीवस्य कुलिशबाहुनृपसुदर्शनयोश्चतुर्दशमहास्वप्नदर्शनपूर्वकं पुत्रत्वेन जन्म, सुवर्णबाहुरिति तन्नाम, यौवने पित्रा तं राज्ये न्यस्य व्रतग्रहणं, तस्याऽपि रत्नपुरेशस्य पद्मानामकन्यया सह विवाहः, षट्खण्डसाधनं च, अन्यदा तीर्थकरं समवसृतं ज्ञात्वा तस्य देशनाश्रवणं, देवान् वीक्ष्य च जातिस्मरणं, सुतं च राज्ये न्यस्य विरक्तस्य तस्य दीक्षा, अर्हद्भक्त्यादिभि: स्थानैराराधितैस्तस्य तीर्थकृत्रामार्जनम्, अन्यदा तस्य क्षीरमहागिरिपार्वे क्षीरवणाटवीगमनं, तत्र चाऽऽतापनां कुर्वतस्तस्य प्रतिमयाऽवस्थानं, तदा कुरङ्गकजीवस्याऽपि नरकादुद्वृत्तस्य सिंहत्वेन तत्रैव जन्म, तस्य च स्वर्णबाहुमुनि दृष्ट्वा कोपः, प्रहारकरणं, विदारणं च, मुनेश्चाऽनशनं, समाधिना क्षमापूर्वकं च मृत्वा (नवमे भवे) दशमे कल्पे महाप्रभविमाने देवत्वं, सिंहस्य च विपद्य चतुर्थनरके नरकत्वं ततो निर्गत्य च तिर्यग्योनिषु बहुविधं भ्रमणम्
११८-१५० १७३-१७४
१९८-३१०/ १७५-१७९
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(२५)
१-७
विषयः
श्लोकाः । पृष्ठम् तृतीयः सर्गः
१८० ततः सिंहजीवस्य रोरद्विजकुले सुतत्वेन जन्म, तत्परिवारजनानां मृत्युः, लोकैस्तस्य 'कठ' इति नामकरणं, नित्यदुःस्थितस्य वैराग्येण तापसव्रतग्रहणं पञ्चाग्न्यादितप:सेवनं च
१८० सुवर्णबाहुजीवस्य च जम्बूद्वीपे भरते वाराणस्यामश्वसेननृपतेर्वामामहिषीकुक्षौ चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां चतुर्दशस्वप्नदर्शनपूर्वमवतरणं, पौषकृष्णदशमीदिने च तज्जन्म, षट्पञ्चाशद्दिक्कुमारीभिस्तत्सूतिकर्मकरणं, सुरेन्द्रश्च जन्माभिषेककरणम्
८-४१ । १८०-१८१ अश्वसेनस्याऽपि पुत्रजन्मोत्सवकरणं 'पार्श्व' इति च नामस्थापनं, क्रमेणवर्धमानस्य तस्य यौवनप्राप्तिः ४२-५२ १८१ अन्यदा कुशस्थलपुरीय-नरवर्मनृपपुत्रप्रसेनजितनृपदूतस्य पुरुषोत्तमाख्यस्य प्रवेशः, तेन च-'प्रसेनजितः सुतायाः प्रभावत्याः किन्नरीभ्यः श्रीपार्श्वनाथगुणान् गीयमानान् श्रुत्वा पार्श्वनाथोपरि अनुरागः, तच्च ज्ञात्वा तत्पित्रा तस्याः स्वयंवरायाः प्रेषणनिर्णयनं, तच्च ज्ञात्वा कलिङ्गदेशाधिपस्य यवनस्य प्रभावतीविवाहोत्सुकस्य कुशस्थलरोधन'मिति कथनम्
५३-१०१ | १८१-१८३ तच्छ्रवणेन कुद्धस्याऽश्वसेनस्य युद्धाय सन्नहनं, तच्च ज्ञात्वा पार्श्वकुमारस्य पितरमुपरुध्य प्रयाणं, तदा शक्रेण ससारथिरथप्रेषणं, कुशस्थलं प्राप्य प्रभुणा यवनपार्वे दूतप्रेषणं, यवनस्य दूतवचनानि श्रुत्वा क्रोधः, तन्मन्त्रिणा तस्य शमनं, यवनं बोधयित्वा च पार्श्वकुमारशरणे प्रेषणं, प्रभुणाऽपि च तस्य अभयदानपूर्वकं सत्करणं, कुशस्थलीयरोधोद्वेष्टनाय चाऽऽदेशनम्
१०२-१७० | १८३-१८५ प्रसेनजितो हर्षः, प्रभावत्या सहितस्य तस्य पार्श्वकुमारसमीपे गमनं, विवाहार्थं च प्रार्थनं, पार्श्वकुमारस्य निषेधः, प्रसेनजितः प्रभावतीमादाय पार्श्वनाथेन सहैव वाराणसीगमनम्, अश्वसेनेन तत्सत्करणं, तेन च प्रभावत्याः पार्श्वनाथेन सह विवाहायाऽश्वसेनस्यानुरोधनम्, अश्वसेनेनाऽपि पार्श्वकुमारस्य 'विवाहार्थमनुमन्यस्वे'ति कथनं, 'पितृवचोऽनुल्लङ्घ्य' मिति विचिन्त्य पार्श्वकुमारेणाऽनुमतिदानं, प्रभावत्या सह विवाहकरणं च
१७१-२११] १८५-१८६ अन्यदा कठतापसं पञ्चाऽन्यादितपोरतमागतं ज्ञात्वा पार्श्वनाथस्य तत्र गमनं, करुणया च दयाधर्मप्रकाशनं, कठेन तत्प्रतिकृते स्वामिना स्वपुरुषद्वारा कुण्डस्थकाष्ठमाकृष्य तत्स्फोटने ततो महतः सर्पस्य निर्गमनं, दह्यमानस्य च तस्य भगवता स्वसेवकेन नमस्कारदापनं प्रत्याख्यानकारणं च, सर्पस्य च समाधिना मृत्वा धरणनागराजत्वेनोत्पातः, कठस्याऽपि विशेषतपः कृत्वा मृत्वा च मेघमालितया मेघकुमारे उत्पादः २१२-२३० | १८६-१८७ इतः प्रभोर्लोकान्तिकामरैविज्ञप्तस्य वार्षिकदानपूर्वकं पौषकृष्णैकादश्यां दीक्षा, ततो विहरतो भगवत एकदा तापसाश्रमे गमनं, तत्र रात्रौ कूपसमीपे न्यग्रोधतरुमूले भगवतः प्रतिमयाऽवस्थानं, तदा मेघमालिनाऽवधेः पूर्वभवव्यतिकरं ज्ञात्वा प्रतिभवं वैरं च संस्मृत्य कोपात् प्रभुमुपद्रोतुमुपसर्गकरणं, प्रभौ चाऽक्षुब्धे तेन मेघान् विकुळ कल्पान्तमेघवत् वर्षणं, तेनाऽल्पकालेनैव प्रभोः कण्ठं यावत् जलपूरः, आनासाग्रं यावज्जलमायाति तावद् नागराजधरणेन्द्रस्याऽऽसनकम्पनं, तेनाऽवधिज्ञानोपयोगेन प्रभोरुपसर्ग ज्ञात्वा स्वमहिषीभिस्तत्राऽऽगत्य प्रभोरुपसर्गहरणं मेघमालिनश्चाऽधिक्षेपणम्
२३१-२९५ | १८७-१८९ अथ प्रभोर्दीक्षादिनाच्चतुरशीतिदिनेषु गतेषु वाराणस्यामाश्रमपदोद्याने धातकीतरुतले चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां केवलज्ञानोत्पादः, देवैः समवसरणादिरचनं, अथेदं सर्वं वनपालाज्ज्ञात्वा सपरिच्छदस्य नृपस्य तत्राऽऽगमनं, शक्रेण सह भूत्वा प्रभोः स्तवनं च
२९६-३२० १८९ ततः प्रभोधर्मदेशना, बहूनां प्रव्रज्या श्रावकत्वं च, अश्वसेनस्याऽपि वामादेवी-प्रभावतीसहितस्य दीक्षा, प्रभुणा चाऽऽर्यदत्तादीनां दशानां गणधराणां स्थापनं, शासनाधिष्ठायकत्वेन च पार्श्वयक्ष-पद्मावतीदेवतयोः स्थापनम्
२९७-३६६ | २८९-१९१ चतुर्थः सर्गः पुण्ड्रविषयेषु भगवति गते तामलिप्तीवासिनो वणिक्पुत्रस्यसागरदत्ताख्यस्य वृत्तान्तः, सागरदत्तस्य प्रभुपाश्र्वे प्रव्रज्याग्रहणम्
१-४९ | १९२-१९३
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(२६)
विषयः
श्लोकाः | पृष्ठम्
नागपुरीनिवासिनो बन्धुदत्तस्य वृत्तान्तः, भगवता च तत्पूर्वभववृत्तकथनम्, बन्धुदत्तस्य स्वभार्यया सह व्रतग्रहणम्
५०-२९७ | १९३-२०१ रत्नपुरे नवनिधिस्वामिनृपस्य वृत्तान्तः
२९८-३१० भगवतः परिवारस्य वर्णनं, श्रावणसिताष्टम्यां सम्मेताद्रौ मासिकानशनेन त्रयस्त्रिंशन्मुनियुतस्य प्रभोनिर्वाणम् ३११-३२१ | २०१
॥ नवमं पर्व समाप्तम् ॥
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अहम् ॥ नमो नमः श्रीगुरुनेमिसूरये ॥
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं ॥ श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ॥
॥ अष्टमं पर्व ॥ ॥ श्रीअरिष्टनेमि-कृष्णवासुदेव-बलभद्र-जरासन्धप्रतिवासुदेवचरितप्रतिबद्धम् ॥
॥प्रथमः सर्गः ॥
अहँ ॥ ॐ नमो विश्वनाथाय जन्मतो ब्रह्मचारिणे । कर्मवल्लीवनच्छेदनेमयेऽरिष्टनेमये ॥१॥ श्रीनेमेरर्हतः कृष्णविष्णो रामस्य सीरिणः । जरासन्धप्रतिहरेश्वरित कीर्तयिष्यते ॥२॥ जम्बूद्वीपे द्वीपेऽत्रैव क्षेत्रेऽत्रैवास्ति भारते । अचलायाः शिरोरत्नं नाम्नाऽचलपुरं पुरम् ।।३।। तत्राभूद् विक्रमधनाभिधानो वसुधाधवः । यथार्थनामा समरे विक्रमाक्रान्तशात्रवः ॥४॥ कृतान्त इव दुष्प्रेक्षोऽसुहृदां सुहृदां पुनः । स नेत्रानन्दजननो निशाकर इवाऽभवत् ॥५॥ कल्पद्रुमः प्रणयिनां वज्रदण्डश्च वैरिणाम् । चकासामास तस्योच्चैर्दोर्दण्डश्चण्डतेजसः ॥६॥ तं दिग्भ्यः सम्पदोऽभ्येयुः "स्रवन्त्य इव सागरम् । प्रादुरासन् कीर्तयश्च ततोऽद्रेरिव निर्झराः ॥७॥ सधर्मचारिणी तस्य धरणीव सदा स्थिरा । धारिणी नाम विशदशीलालङ्कारधारिणी ।।८।। सर्वाङ्गरूपसुभगा पुण्यलावण्यशालिनी । सा तस्य भूपतेर्मूर्तिमतीव श्रीरराजत ।।९।। (युग्मम् ॥)
पदम् । भर्तुर्हदि पदं चक्रे सा प्रसून इवाऽलिंनी ॥१०॥ पासाऽन्यदा यामिनीशेषे चूतं 'मत्तालि-कोकिलम् । उत्पन्नमञ्जरीपुञ्ज फैलितं स्वप्न ऐक्षत ॥११॥
तेनं पाणिस्थितेनोचे कोऽप्येवं रूपवान् पुमान् । तवाऽङ्गणे रोप्यतेऽसावध चूतोऽयमुच्चकैः ॥१२॥ कियत्यपि गते कालेऽन्यत्राऽन्यत्र निधास्यते । उत्कृष्टोत्कृष्टफलभाग नववारावधि ह्यसौ ॥१३॥ सा भर्तुराख्यत् तं स्वप्नं सोऽपि तज्ज्ञैर्व्यचारयत् । सूनुः प्रकृष्टस्ते भावीत्याचख्युस्तेऽपि चोन्मुदः ॥१४|| अन्यत्राऽन्यत्र चूतस्य नवकृत्वस्तु रोपणम् । न जानीमः केवलं तत् जानाति यदि केवली ॥१५॥ श्रुत्वा तद्वचनं देवी मुदिता तत्प्रभृत्यपि । बभार गर्भ सा रत्नगर्भेव निधिमुत्तमम् ॥१६॥ काले च सुषुवे पुत्रं पवित्राकारधारिणम् । धारिण्यर्कमिव प्राची" जगतो हर्षकारणम् ॥१७॥ सूनोर्जन्मोत्सवो" राज्ञा महादानपुरःसरम् । अकारि दिवसे पुण्ये धन इत्यभिधाऽपि च ॥१८॥ माता-पित्रोः प्रमोदेन सह प्रववृधे धनः । अङ्कादहूं नीयमानो धात्रीभिरिव पार्थिवैः ॥१९॥
कलाकलापमखिलं कलयामास सक्रमात् । अनङ्गलीलोपवनं यौवनं प्रत्यपादि च ॥२०॥ १. कर्माणि एव वल्ल्यः, तासां वनं, तस्य च्छेदः, तस्मिन् नेमिः चक्रधारा, तस्यै । २. कृष्णवासुदेवस्य । ३. बलभद्रस्य। ४. हलधारिणः । ५. जरासिन्धु- खं० २, पा०, मु० । ६. प्रतिवासुदेवस्य । ७.०श्चरित्रं खं० १-२। ८. क्षेत्रे भरतनामनि पु० । क्षेत्रे चैवा० ला १, की०ला०छा० । ९. पृथ्व्याः । १०. भूपतिः । ११. विक्रमेणाका तं शात्रवं-शत्रुसमूहः येन सः । १२. दुष्प्रेक्ष्यो० खं० १-२, ला० विना । १३. वैरिणाम् । १४. नद्यः । १५. पत्नी । १६. तस्य धारिणी धर्मकारिणी । शीलालङ्कारविशदा धरित्रीव सदा स्थिरा सं० । १७. धरित्रीव ता० । १८. धारणी खं० १, सू० । १९. ०मतीयं० ला० १ । २०. प्रसून इव सालिनी पु० । पुष्पे भ्रमरीव। २१. मत्ता अलयो-भ्रमराः कोकिलाश्च यस्मिन् । २२. ०पुञ्जफलितं सू० । २३. स्वप्नमैक्षत ता० सं० खं० १-२ विना। २४. आम्रण। २५. ततोऽन्यत्र सू० । २६. ०स्यति ला० । आरोपयिष्यते । २७. ०वधिसौ खं० २, सू० विना। २८. हर्षिताः । २९. ०ति केवली यदि खं० १ । तत्फलं जानाति केवली खं० २, ला०, सू०, मु० । ३०. पृथ्वीव । ३१. सिंहीव खं० २ । ३२. ०धारिणी खं० ११ ३३. धारण्य० सू० । ३४. पूर्वदिक् । ३५. ०र्जन्मोत्सवं ला० । ३६. अनङ्गस्यकामदेवस्य लीला-क्रीडा, तस्या उपवनम् । ३७. "अङ्गीकृतवान्" इति ला० टि. ।
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२
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
|इतश्च कुसुमपुरे पुरेऽभूत् पृथिवीपतिः । सिंहः सिंह इवौजस्वी यशस्वी रणकर्मसु ॥२१॥ चन्द्रलेखेव विमला विमला नाम तस्य तु । प्राणप्रिया महादेवी देवीवाऽभून् महीचरी ॥२२॥ तस्यां बहूनां पुत्राणामुपर्यनुपमाकृतिः । कन्या धनवती नाम जज्ञे सिंहमहीपतेः ॥२३॥ रैत्यादिरमणीरूपं जयन्ती रूपसम्पदा । क्रमेण ववृधे साऽथ कला जग्राह चाऽखिलाः ||२४|| [अन्यदा 'कुमुदानन्दे समये समुपस्थिते । सा सखीभिः परिवृता ययावुद्यानमीक्षितुम् ॥२५॥ फुल्लसप्तच्छदोद्भ्राम्यद्द्भ्रमरोद्गीतिबन्धुरे । 'पञ्चबाणबाणीभूतनवबाणद्रुकोरके ॥२६॥ उन्मत्तसारसद्वन्द्वक्रेङ्कारमुखरीकृते । स्वच्छाम्बुसरसीक्रीडत्कलहंसकुलाकुले ||२७|| गायदारामिकारम्यैरिक्षुवाटैर्मनोरमे । तत्रोपैंवनदेवीव स्वच्छन्दं विजहार सा ॥ २८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ [विहरन्ती च सा कञ्चिदशोकस्य तरोस्तले । एकं चित्रकरं चित्रपट्टिकापाणिनैक्षत ॥२९॥ तां चित्रपट्टिकां तस्माद् धनवत्याः सखी बलात् । कमलिन्याददे तत्र नररूपं ददर्श च ॥ ३० ॥ रूपेण विस्मिता तेन सा प्रोचे चित्रकृन्नरम् । कस्येदमद्भुतं रूपं सुरा - ऽसुर - नरेष्वहो !? ||३१|| यद्वा सम्भाव्यते नेदं तेषु रूपं कदाचन । स्वकौशलं दर्शयितुं स्वबुद्ध्यैवाऽऽलिखः खलु ॥३२॥ अनेकजननिर्माणश्रान्तस्य जरत विधेः । ईदृग्निर्माणर्निष्णत्वं कुतस्तस्य भविष्यति ? ||३३|| अथोचे चित्रकृत् स्मित्वा नाऽत्र मे चित्रकर्मणि । यथादृष्टलिखनीये मनागपि हि कौशलम् ||३४|| अयं खलु मयाऽलेखि युवा निरुपमाकृतिः । धनोऽचलपुराधीश श्रीविक्रमैधनात्मजः ||३५|| प्रत्यक्षं प्रेक्ष्य यस्तं हि प्रेक्षते चित्रवत्तिनम् । स कूटलेखक इति मां निन्दति मुहुर्मुहुः ||३६|| तमदृष्टवती त्वं तु मयाऽपि लिखितं ननु । दृष्ट्वा विस्मयसे मुग्धे ! कूपमण्डूकसन्निभा ||३७|| सुरस्त्रियोऽपि मुह्यन्ति दृष्ट्वा तद्रूपमद्भुतम् । मया स्वदृग्विनोदार्थमलेखि तु यथामति ||३८|| |[धनवत्यपि तत्रस्था शुश्राव च ददर्श च । " मकरध्वजबाणानां गोचरत्वमियाय च ॥३९॥ कमलिन्याललापैवं दृग्विनोदाय साध्विदम् । अलेखीरद्धतं रूपं तत्कल्योऽसि विवेक्यसि ||४०|| एवमुक्त्वा कमलिनी प्रारेभे गन्तुमग्रतः । तत्कालशून्यहृदया कथञ्चिद् धनवत्यपि ॥४१॥ व्यावृत्तवृन्तपद्माभमुखी पश्चाद् विलोकिनी । पदे पदे प्रस्खलन्ती गृहं धनवती ययौ ॥ ४२ ॥ चित्रस्थधनरूपेणाऽक्षिप्ता धनवती ततः । नाऽऽससाद रतिं क्वाऽपि मरालीव मेरौ गता ॥४३॥ विदाञ्चकार क्षामाङ्गी न तृष्णां न क्षुधां च सा । निशायामपि नाऽशेत वनाकृष्टेव वारणी ||४४ ।। स्मारं स्मारं धनरूपं लिखितं कीर्तितं च तत् । शिरःकम्पा -ऽङ्गुलीनृत्त-भ्रूक्षेपान् साऽकरोन् मुहुः ॥४५॥ धनध्यानपरवशा यद्यत् किञ्चिदचेष्टत । जन्मान्तरकृतमिव नाऽस्मरत् तत् तदाऽपि सा ॥ ४६॥ विमुक्र्तन-स्नान-चर्चा - ऽलङ्करणा सती । साऽहर्निशं धनं दध्यौ योगिनीवेष्टदेवताम् ॥४७॥ तामन्यदा कमलिनी पप्रच्छ कमलेक्षणे ! । केनाऽऽधिना व्याधिना वा बाध्यसे यदेंसीदृशी ? ॥४८॥ कृतकृत्रिमकोपा तामूचे धनवती ततः । बाह्यो जन इवैव त्वं किं पृच्छसि ? न वेत्सि किम् ? ॥४९॥
(अष्टमं पर्व
१. सिंहो हरिरिवौ० खं० २ । २. युद्धक्रियासु । ३. तस्या खं० १, ला० । ४. रत्यादिवररूपाणि पु० आ० । ५. कुमुदानामानन्दो - विकासो यस्मिन् समये - वसन्तऋतौ । ६. फुल्लत्सप्त० खं० १, ला० । ७. भ्रामरो० खं० १ । विकसितसप्तच्छदवृक्षेऽधिकं भ्राम्यतां भ्रमराणां उद्गीत्या - गायनेन बन्धुरं सुन्दरं, तस्मिन् । ८. कामदेवस्य बाणीभूता नूतना बाणवृक्षकोरका कलिका यस्मिन् तस्मिन् । ९. गायदारामकी० खं० १, ला० । गायदारामकै० की ० ला १, पु० आ० सं० । गायन्त्य आरामिका:- स्त्रियस्ताभी रम्यैः । १०. ०पवने देवीव खं० १-२, ला० विना । ११. चित्रपट्टिकायाम् । १२. सोचे चित्रकरं नरम् ला० । सोचे तं चित्रकृन्नरम् रसंपा० । १३. ० वालिखत् ला० । १४. वृद्धस्य । १५. निष्णत्वं प्रवीणत्वं पारङ्गतत्वं वा । १६. ० विक्रमनृपात्मजः खं० २ । १७. त्वमदृष्टवती तं तु ला० । १८. कामासक्ता बभूवेत्यर्थः । १९. तत्कल्पो० खं० १-२ विना । तद्विज्ञो० पु० । सज्ज:-कुशलः । २०. म्लानपद्मतुल्यमुखीत्यर्थः । २१. आकृष्टा । २२. मरुदेशे । २३. हस्तिनी । २४. ०द्वर्त्तन स्नान- शृङ्गाराभरणा पु० । २५. विलेपनम् । २६. कमलेक्षणाम् की० पु० । २७. यदसादृशी मु० ।
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प्रथमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
द्वितीयं हृदयं मेऽसि जीवितव्यं ममाऽसि वा । नहि त्वं मे सखीमात्रं त्वत्प्रश्नेनाऽस्मि लज्जिता ॥५०॥ ऊचे कमलिनी युक्तमुपालब्धाऽस्मि मानिनि ! । मनःशल्यमहं जाने तवोत्तुङ्गं मनोरथम् ॥५१॥ धनं कामयसे नूनं तस्मादालेख्यदर्शनात् । यदेज्ञयेव पृष्टाऽसि मया तन्नैर्ममात्रकम् ॥५२॥ स्थानेऽनुरागं ते ज्ञात्वा सचिन्ता तत्प्रभृत्यपि । अपृच्छं ज्ञानिनं किं स्यान्मत्सख्याश्चिन्तितो वरः ? ॥ ५३ ॥ भावीति सोऽपि चाऽवोचद् दर्शितप्रत्ययः सदा । तद्धीरा भव शीघ्रं ते सेत्स्यत्येव मनोरथः ॥५४॥ तयेत्याश्वासिता धैर्यं भेजे धनवती तदा । पितरं वन्दितुं चागाद् दिव्यनेपथ्यधारिणी ||५||
तां विसृज्य पिता दध्यौ वरार्हेयं सुता मम । कोऽनुरूपो वरोऽमुष्या भविष्यति महीतले ? ॥ ५६ ॥ एवं चिरं चिन्तयतस्तस्य राज्ञः समाययौ । प्राक्प्रेषितो निजो दूतः श्रीविक्रमधनान्नृपात् ॥५७॥ राजकार्यं स आख्याय स्थितः सन् सिंहभूभुजा । तत्राऽपश्यः किमाश्चर्यमित्युक्तः सोऽवदत् पुनः ॥५८॥ तदपश्यं न यद् विद्याधरेष्वपि सुरेष्वपि । धनस्य विक्रमधनसूनो रूपं मनोरमम् ॥५९॥ तदैवाऽचिन्तयं योग्यो धनवत्या वरो ह्ययम् । स्रष्टुः सृष्टिप्रयासोऽस्तु सफलः 'सङ्गमेऽनयोः ||६०|| प्रीतो राजाऽब्रवीत् साधु स्वयं मत्कार्यचिन्तकें ! । मां कन्यावरचिन्ताब्धिमग्नमुद्धृतवानसि ॥६९॥ तद् धनस्य धनवती-सम्प्रदानाय बुद्धिमन्"'! । गेच्छाऽद्य विक्रमधनं प्रार्थयस्व ममाऽऽज्ञया ॥६२॥ तदा चन्द्रवती नाम धनवत्यनुजाऽऽययौ । पितरं वन्दितुं तच्चाऽ श्रौषीत् सर्वं तयोर्वचः ||६३ || ययौ स दूतः स्वगृहं मुदिता चन्द्रवत्यपि । एत्याऽऽचख्यौ धनवत्यै तद्दिष्ट्याऽऽलापपूर्वकम् ॥६४॥ धनवत्यप्युवाचैवं प्रत्येम्येतद्गिरा न हि । अज्ञानेन वदत्येषा परमार्थं न बुध्यते ॥६५॥ स दूतः प्रेषितो मन्ये कार्येणाऽन्येन केनचित् । इयं तु मुग्धा मत्कार्यमवबुद्धवती खलु ॥६६॥ कमलिन्यब्रवीदत्र दूतः सोऽद्यापि तिष्ठति । जानीहि तन्मुखात् को हि दीपे सत्यग्निमीक्षते ? ॥६७॥ इत्युक्त्वा भावविज्ञा सा तत्र तं दूतमानयत् । अश्रौषीत् तन्मुखात् सर्वं हृष्टा धनवती स्वयम् ॥६८॥ अर्पणीयो धनस्याऽयं मल्लेख इति भाषिणी । धनवत्यार्पयत् तस्य लिखित्वा पत्रकं स्वयम् ॥ ६९ ॥ ततः स दूतः प्रययौ पुरेऽचलपुरे द्रुतम् । अन्तरास्थानमासीनमुपतस्थे च विक्रमम् ॥७०॥ तमूचे विक्रमः कच्चित् कुशलं सिंहभूपते: ? । शीघ्रं भूयस्त्वदागत्या विकल्पैः प्लाव्यते मनः ॥७१॥ सोऽप्यूचे कुशलं, सिंह इह मां प्राहिणोत् पुनः । सुतां धनवतीं दातुं त्वत्सुताय धनाय सः ॥७२॥ यथा धनकुमारोऽयं रूपोत्कृष्टस्तथैव सा । अस्तूचितोऽनयोर्योगः स्वर्ण-मण्योरिवाधुना ॥ ७३॥ अग्रेऽपि युवयोः स्नेहः सम्बन्धेनाऽमुना पुनः । विशिष्टो भवताद् वारि-सेकेनेव महीरुहः ||७४|| आमेत्युदित्वा नृपतिः सत्कृत्य विससर्ज तम् । जगामोपधनं सोऽपि द्वारपालनिवेदितः ॥७५॥ नत्वोपविश्य शंसित्वा स स्वं चाऽऽगमकारणम् । प्रैषीदं धनवत्येति जल्पन् पत्रकमार्पयत् ॥७६॥ तन्मुद्रां धनकुमारः स्फोटयित्वा स्वपाणिना । तत्पत्रं वाचयामास मदनस्येव शासनम् ॥७७|| ‘विशेषितश्री:“ शरदा यौवनेनेव पद्मिनी । परिम्लानमुखी वाञ्छत्यादित्यकरपीडनम् ॥७८॥ दध्यौ धनोऽपि काऽप्येषा तस्याश्छेकौं क्तिरद्भुता । स्नेहातिशयमाख्याति मयि चिंतैविवर्तिनम् ॥७९॥ विमृश्येति स्वहस्तेन लिखित्वा सोऽपि पत्रकम् । धनवत्यै तस्य हस्ते हारेण सममार्पयत् ||८०||
३
१. चित्रदर्शनात्; ०दालिख्य० ला० । २. यदा ज्ञयैव खं० २ । ३. हास्यमात्रम् । ४. चाचख्यौ मु०, खं० १ सू० । ५. सेत्स्यते चला० की० पु० आ० ता० । ६. तां च दृष्ट्वा खं० १ । ७. एवं विचिन्तयतस्तस्य राज्ञस्तत्र समा० खं० २ । ८. समाख्याय ता० पा०ला० १। ९. सममेतयोः खं० २ । १०. ० चिन्तकः ला० पा० ला १-२ की० पु० । ११. बुद्धिमान् खं० २, ला० । १२. ‘त्वं' इति ला०टि० । १३. तद् दूतवचनं, दिष्ट्या - आनन्दः । १४. विश्वसिमि । १५. सभामध्ये । १६. आमित्युदित्वा ला० । १७. धनसमीपे । १८. विशेषिता श्री: शोभा यस्याः सा । १९. सूर्यस्य पाणिग्रहणम् । २० तस्याः श्लोकोक्ति० ला० छा० । चातुर्योक्तिः । २१. चित्तविवर्तनम्० ता० सं० की० ला० खं० १, ला० २, छा० ।
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४
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
||धनेनापि विसृष्टः सन् स दूतः शीघ्रमाययौ । आख्यच्च विक्रमेणाऽर्थं प्रतिपन्नं महीपतेः ॥८१॥ गत्वा नत्वा धनवत्यै लेखं हारं च सोऽर्पयन् । ऊचे तुभ्यं धनेनैतौ स्वहस्तलिखितार्पितौ ॥८२॥ गृह्णती पाणिपद्मेन हारमिन्दुकरामलम् । प्रस्फोट्य मुद्रां तं लेखं धनवत्यप्यवाचयत् ॥८३॥ 'यत् प्रमोदयते सूर्यः पद्मिनीं करपीडनात् । सोऽर्थः स्वभावसंसिद्धो न हि यांच्यामपेक्षते' ॥८४॥ वाचयित्वेति सा हृष्टा दध्यौ पुलकमालिनी । अन्वज्ञासीन् ममाऽर्थं स श्लोकार्थेनाऽमुना खलु ॥८५॥ अयं हि कण्ठे न्यासाय मुक्ताहारः सुधोज्ज्वलः । तेन स्वदोर्लता श्लेषसत्यङ्कारो ममाऽर्पितः ॥८६॥ एवं विचिन्त्य सा हारं निदधे कण्ठकन्दले । द्राक् पारितोषिकं दत्त्वा तं दूतं विससर्ज च ॥८७॥ [राजाऽथ तां दिने पुण्ये सहितां वृद्धमन्त्रिभिः । प्रजिघायाऽचलपुरे परमर्द्धिसमन्विताम् ॥८८॥ तां यान्तमशिषन् माता विमला विमलाशया । भूयाः सदा श्वसुरयोर्भक्ता पत्यौ च देववत् ॥८९॥ सपत्नीष्वप्यनुकूला दक्षिणा च परिच्छदे । पत्युः प्रसादेऽनुत्सिक्ताऽपमानेऽप्यविकार भाक् ||९०|| युग्मम् || एवमाद्यनुशिष्याऽश्रुमुखी सा तां कथञ्चन । व्यसृजत् पौनरुक्त्येनं परीरम्भं वितन्वती ॥९१॥ धनवत्यपि तां नत्वाऽध्यारुह्य शिबिकां वराम् । चचाल सपरीवारा छत्र - चामरमण्डिता ॥ ९२ ॥ * साक्रमेणाचलपुरे पौरैः साश्चर्यमीक्षिता । साक्षाद्धनकुमारस्य श्रीरिवाऽऽगात् स्वयंवरा ॥९३॥ अवात्सीद् बहिरुद्याने शिबिरं विनिवेश्य सा । ऋद्ध्या महत्या ववृते विवाहश्च शुभेऽहनि ॥९४॥ मुको नागवल्ल्येव तडितेव नवाम्बुदः । तया नवोढया रेजे धनोऽभिनवयौवनः ॥ ९५ ॥ रत्या स्मर इव स्वैरं धनवत्या समं धनः । रममाणोऽनयत् कालं कमप्येकमुहूर्त्तवत् ॥९६॥ शृप्रत्यक्ष इव रैर्वैन्तश्चलत्काञ्चनकुण्डलः । "से विक्रमयमाणोऽश्वं ययावुद्यानमन्यदा ॥९७॥ चतुर्ज्ञानधरं तत्र पवित्रितवसुन्धरम् । वसुन्धरं नाम मुनिं सोऽद्राक्षीद् देशनापरम् ॥९८॥ स प्रणम्य यथास्थानमुपविश्य च भक्तिभाक् । शुश्राव देशनां तस्मात् कर्णामृतरसायनम् ॥९९॥ आगाच्च विक्रमधनो धारिणी धनवत्यपि । सर्वेऽपि तं मुनिं नत्वा शुश्रुवुर्धर्मदेशनाम् ||१००|| देशनान्ते व्यज्ञपयत् तं विक्रमधनो नृपः । धने गर्भस्थिते माता स्वप्ने चूतद्रुमैक्षत ॥ १०१ ॥ तस्योत्कृष्टोत्कृष्टफलस्याऽन्यत्राऽन्यत्र रोपणम् । भविष्यति नवकृत्व इत्याख्यात् तत्र कोऽपि न ||१०२।। नववारारोपणस्य कथयाऽर्थं प्रसीद नः । कुमारजन्मनाऽप्यन्यज्ज्ञातं स्वप्नफलं मया ॥१०३॥ सम्यग्ज्ञानायोपयुज्य मनसा सोऽपि कुत्रचित् । दूरे स्थितं केवलिनं पृच्छति स्म समाहितः ॥ १०४॥ केवल्यपि हि विज्ञाय तत्प्रश्नं केवलश्रिया । अरिष्टनेमिचरितमाख्यन् नवभवात्मकम् ॥१०५॥ मनोऽवधिभ्यां स मुनिर्ज्ञात्वाऽऽख्यत् ते सुतो धनः । भवेनाऽनेनैष नवोत्कृष्टोत्कृष्टान् भवान् गमी ॥ १०६ ॥ भवे च नवमेऽरिष्टनेमिर्नाम्नेह भारते । द्वाविंशस्तीर्थकृद् भावी यदुवंशसमुद्भवः ॥ १०७॥ श्रुत्वा च तन्मुनिवचः सर्वे मुमुदिरेतराम् | जिनधर्मे च सर्वेषां भावोऽभूद् भद्रकस्तदा ॥ १०८॥ तं नत्वा विक्रमो वेश्म ययौ सह धनादिभिः । विहारक्रमनिरतः सूरिरप्यन्यतोऽगमत् ॥१०९॥ [[ऋतूचिताभिः क्रीडाभिर्धनवत्या समं धनः । अन्वभूद् विषयसुखं दोगुन्दकें इवामरः ॥ ११० ॥
सोऽन्यदा मज्जनक्रीडां कर्तुं क्रीडासरस्यगात् । धनवत्या समं पल्या श्रीसपल्येव रूपतः ॥ १११ ॥ तत्राऽशोकतरोर्मूले शान्तो रस इवाऽङ्गवान् । घर्म - श्रम - तृषाक्रान्तः शुष्कतालोष्ठपल्लवः ॥११२॥
( अष्टमं पर्व
१. सोऽर्पयत् खं० २, ला० । २. धनेनैव खं० १ । ३. प्रार्थनाम् । ४. रोमाञ्चिता । ५. अर्हति कण्ठे न्यासं मे खं० १ । अयं हि कण्ठन्यासाय खं० २, ला० सू० मु० । ६. शिक्षामदात् । ७. उदारा । ८. परिवारे । ९. अगर्वा । १०. पौनरुक्तेन खं० २, ला० सू० मु० । ११. परि० पु० आ० मु० । 'आलिङ्गनं' लाटि० । १२. 'अभूत्' लाटि० । १३. पूगवृक्ष: । 'सोपारी' । १४. सूर्यपुत्रः । १५. धन: खेलयन् । १६. 'नरः ' लाटि० । १७. मनः पर्यवाऽवधिज्ञानाभ्याम् । १८. दोगंगुद खं० १ । दोगुन्दुग खं० २, ला० । १९. श्रीपल्येव स्वरूपतः खं० २ ।
२०.
मूर्त्तिमान् ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
स्फुटत्पादाब्जरुधिरसिक्तोर्वीको विमूर्छितः । धनवत्या मुनिः कोऽपि पतन् पत्युः प्रदर्शितः ॥११३।। युग्मम् ।। सम्भ्रमादभिसृत्योभौ मुनि तमुपचेरतुः । शिशिरैरुपचारैस्तौ चक्रतुश्चाऽऽप्तचेतनम् ।।११४॥ तं च स्वस्थं प्रणम्योचे धनो धन्योऽस्मि सर्वथा । कल्पद्रुम इवाऽवन्यां मया प्राप्तोऽसि सम्प्रति ॥११५।। पर्यन्तदेशे वसतामस्माकं त्वादृशैः समम् । संसर्गो दुर्लभश्छायाद्रुमैर्मरुनृणामिव ।।११६।। पृच्छ्यसे किन्तु भगवन्नवस्थेयं कुतोऽभवत् ? । न चेत् ते जायते खेदो न गोप्यं चाऽस्ति शंस तत् ॥११७|| पासोऽब्रवीद् भववासेन खेदो मे परमार्थतः । खेदस्त्वेष शुभोदर्को विहारक्रमसम्भवः ॥११८॥ नामतो मुनिचन्द्रोऽहं गुरु-गच्छेन संयुतः । पुरोऽचलं विहारेण साधूनां नैकतः स्थितिः ॥११९॥ सार्थाद् भ्रष्टोऽन्यदाऽरण्ये दिङ्मोहीतस्ततो भ्रमन् । इहाऽऽगां क्षुत्तृषाक्रान्तो मूच्छितश्चाऽपतं भुवि ॥१२०॥ ततः परं यद् भवद्भिः कृतं तेनाऽऽप्सचेतनः । भूयोऽभूवं महाभाग ! धर्मलाभोऽस्तु तेऽनघः ॥१२१॥ यथा क्षणान्नष्टसंज्ञोऽभूवं सर्वं तथा भवे । ईदृगेव ततो धर्मः करणीयः शुभैषिणा ॥१२२॥ इत्युदित्वा तदुचितं गृहिधर्मं जिनोदितम् । सम्यक्त्वमूलं तस्याऽऽख्यन् मुनिचन्द्रो मुनीश्वरः ॥१२३॥ धनवत्या समं सोऽथ मुनिचन्द्रमुनेः पुरः । गृहस्थधर्मं सम्यक्त्वप्रधानं प्रत्यपद्यत ॥१२४॥ गृहे च नीत्वा तेनर्षिः पाना-ऽन्नैः प्रत्यलाभि सः । तत्रैव धर्मशिक्षार्थं कञ्चित्कालं च वासितः ।।१२५।। धनं मुनिरनुज्ञाप्य स्वगच्छेनाऽमिलत् पुनः । सम्यक् श्रावकधौं चाऽभूतां धनवती-धनौ ॥१२६।। तौ पुराऽपि मिथः प्रीतिभाजौ धनवती-धनौ । एकधर्मरतत्वाच्च विशेषेण बभूवतुः ॥१२७॥ पापित्राउन्तकाले स्वे राज्येऽभिषिक्तोऽथ स्वयं धनः । समं श्रावकधर्मेणाऽपालयद् विधिवन्महीम् ॥१२८॥ तस्याऽन्यदोद्यानपाल आख्यादुद्यानगह्वरे । आयातपूर्व्यायातोऽस्ति वसुन्धरमहामुनिः ॥१२९॥ गत्वा ववन्दे सद्यस्तं धनवत्यन्वितो धनः । देशनां चाऽशृणोत् तस्माद् भवाम्भोधिर्महातरीम् ॥१३०॥ .
भवोद्विग्नो धनो राज्ये सुतं धनवतीभवम् । जयन्तं नाम पुण्येऽह्नि न्यधत्त तदनन्तरम् ॥१३१॥ पावसुन्धराद् धनो दीक्षां धनवत्या सहाऽऽददे । धनभ्राता धनदत्तो धनदेवश्च पृष्ठतः ॥१३२॥ धनर्षिर्गुरुपादान्ते तपस्तेपे सुदुस्तपम् । गीतार्थः सन् गुरुणा 'चाऽऽचार्यके स्थापितः क्रमात् ॥१३३॥ प्रतिबोध्य बहून् राज्ञो दीक्षया चाऽनुगृह्य सः । धनवत्या सहाऽऽदत्त पर्यन्तेऽनशनं सुधीः ॥१३४॥ मासान्ते तौ विपद्योभौ कल्पे सौधर्मनामनि । शकसामानिकौ देवावजायेतां महद्धिकौ ॥१३५॥ धनबन्धू धनदेव-धनदत्तौ तथाऽपरे । अखण्डितव्रता मृत्वा सौधर्मे स्वर्गिणोऽभवन् ॥१३६॥ पाइतोऽत्र भरते वैताढ्योत्तर श्रेणिभूषणे । सूरतेजःपुरे सूर इति खेचरचक्यभूत् ॥१३७॥ तस्य विद्युद् घनस्येव विद्युन्मत्यभिधानतः । अतिमात्रप्रेमपात्रं बभूव सहचारिणी ॥१३८॥ आयुः प्रपूर्य सौधर्माद् धनजीवश्च्युतोऽथ सः । विद्युन्मत्याः सूरपल्या उदरे समवातरत् ॥१३९।। पूर्णे च समयेऽसूत देवी विद्युन्मती सुतम् । शुभलक्षणसम्पूर्ण पूर्णेन्दुमिव पूर्णिमा ॥१४०॥ - पुण्येऽहनि ददौ चित्रगतिरित्यभिधां पिता । तस्य सूनोरनूनेनोत्सवेनाऽऽनन्ददायिना ॥१४१।।
वर्धमान: क्रमेणोंपाचार्यं स सकलाः कलाः । जग्राह यौवनं चाऽऽप पुष्पं चाप इवाऽपरः ॥१४२॥ पाइतश्चाऽत्रैव वैताढ्य-दक्षिणश्रेणिवर्तिनि । अनङ्गसिंहो राजाऽभून्नगरे शिवमन्दिरे ॥१४३॥ १. दतिसृत्यो० खं० १ । २. उपचारं चक्रतुः । ३. दुर्लभच्छाया० मु० । ४. प्रच्छ्यसे मु० । ५. सार्थभ्रष्टो मु०, 'र' सत्कप्रतिषु च। ६. दिग्मोही० खं० १-२, ला० । ७. तेऽनघ ! 'र' स्वीकृतपाठे, खं०१, सू०म० । ८. समपद्यत ला०२, आ० । ९. प्रत्यलाभितः खं० २ । प्रतिलाभितः ला० । १०. स्वराज्ये खं० २ । ११. ०पालश्चाख्या० खं० २ । १२. पूर्वमायातः । १३. महानावम् । १४. गुरुणाऽऽचार्यकेऽपि स्था० खं० २ । सूरिपदे स्था० ला० । १५. च खं० २ । १६. अत्र 'प्रथमभवः सम्पूर्णः' इति लाटि. । १७. "द्वितीयो भवः' लाटि. । १८. ०मात्रं प्रेम० मु० । १९. क्रमेणाथोपाचार्यं खं० २ । २०. कामदेवः । २१. अनङ्गसेनो की० ला०२, आ० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पत्नी शशिमुखी तस्य नामतोऽभूच्छशिप्रभा । च्युत्वा धनवतीजीवस्तस्याः कुक्षाववातरत् ॥१४४।। समये सुषुवे पुत्रीं पवित्राङ्गी शशिप्रभा । जाता बहूनां पुत्राणां पश्चादित्यतिवल्लभा ॥१४५।। तस्या रत्नवतीत्याख्यां पिता चके शुभेऽहनि । 'सजलस्थानवल्लीव क्रमेण ववृधे च सा ||१४६॥ अचिरेणाऽपि जग्राह सा कलाः स्त्रीजनोचिताः । यौवनं चाऽऽसदत् पुण्यममूर्तं देहमण्डनम् ॥१४७।। अस्या योग्यो वरः कः स्यादिति पित्राऽन्यदा स्वयम् । पृष्टो नैमत्तिकः किञ्चिच्चिन्तयित्वाऽब्रवीदिति ॥१४८।। योऽसिरत्नं तवाऽऽच्छेत्ता यस्योपरि भविष्यति । सिद्धायतनवन्दारोः पुष्पवृष्टिः सुरैः कृता ॥१४९।। नरलोकशिरोरत्नं स ते रत्नवतीमिमाम् । परिणेता दुहितरमनुरूपसमागमात् ॥१५०॥ युग्मम् । ममाऽपि खड्गरत्नं य आच्छेत्ता सोऽद्भुतैकभूः । जामाता स्यादिति प्रीतो व्यसृजत् ज्ञानिनं नृपः ॥१५१॥ पाइतश्चाऽत्रैव भरते पुरे चक्रपुराभिधे । सुग्रीवनामा राजाऽभूदनुद्ग्रीवों गुणैरपि ॥१५२।। तस्य पत्न्यां यशस्विन्यां सुमित्रस्तनयोऽभवत् । पद्मनामा तु भद्रायामग्रजाऽवरजौ क्रमात् ॥१५३।। सुमित्रस्तत्र गम्भीरो विनयी नतर्वत्सलः । कृतज्ञोऽर्हच्छासनस्थः पद्मस्त्वपरथाऽभवत् ॥१५४।। अस्मिन् जीवति मत्सूनो राज्यं नैव भवेदिति । अभद्रधीर्ददौ भद्रा सुमित्रायोत्कटं विषम् ॥१५५।। विषेण मूच्छितस्तेन सुमित्रो न्यपतद् भुवि । विषवेगा: प्रससृपुर्लहर्य इव वारिधेः ॥१५६॥
आगात् तत्र च सुग्रीवः सम्भ्रमात् सह मन्त्रिभिः । अकारयन्मन्त्र-तन्त्रैश्चोपचारमनेकशः ॥१५७|| विषवेगोपशान्तिस्तु तस्य नाऽभून् मनागपि । भद्रा ददौ विषमिति प्रवादश्चोत्थितः पुरे ॥१५८॥ नंष्ट्वा च क्वाऽप्यगाद् भद्रा स्वदोषपरिशङ्किता । राजाऽप्यकार्षीत् पुत्रार्थे जिनाक़ शान्तिकादि च ॥१५९॥ स्मारं स्मारं सुतगुणान् व्यलपच्च निरन्तरम् । सामन्ता मन्त्रिणोऽन्येऽपि निरुपायास्तथैव च ॥१६०॥ पाअत्रान्तरे चित्रगतिः क्रीडया विचरन् दिवि । विमानेनाऽऽगतस्तत्राऽपश्यच्छोकातुरं पुरम् ॥१६१।। विषव्यतिकरं तं च ज्ञात्वोत्तीर्यविमानतः । सोऽभ्यषिञ्चत् तं कुमारं जलैविद्याभिमन्त्रितैः ।।१६२।। किमेतदिति पृच्छंश्च कुमारः स्फारितेक्षणः । उत्तस्थौ स्वच्छहदयो मन्त्रशक्तेहि नाऽवधिः ॥१६३।। राजाऽऽख्यात् ते विष मात्रा वैरिण्या भद्रया ददे । शमितं चाऽमुना वत्स ! सद्योऽकारणबन्धुना ॥१६४।। कृताञ्जलिः सुमित्रोऽपि प्रोचे चित्रगति प्रति । परोपकारबुद्धयैव मया ज्ञातं कुलं हि वः ॥१६५।। तथाप्यनुगृहाण त्वं स्वकुलाख्यानतोऽद्य माम् । महतामन्वयं श्रोतुं कस्य नोत्कण्ठते मनः ? ॥१६६॥ अथ चित्रगते: पारिपौश्विक: सचिवात्मजः । सर्वं शशंस वंशादि सर्वेषां श्रुतिशर्मदम् ॥१६७|| हृष्टोऽवोचत् सुमित्रस्तं विषदेन विषेण च । ममोपकृतमेवाऽद्य त्वया योगः कुतोऽन्यथा ? ॥१६८॥ नाऽदा जीवितमात्रं मे किं त्वहं रक्षितोऽस्मि च । प्रत्याख्यान-नमस्कारहीनमृत्यूत्थदुर्गतेः ॥१६९।। किं प्रत्युपकरोम्येष तवाऽतुल्योपकारिणः ? । प्रावृषेण्याम्बुदस्येव जीवलोककृपानिधेः ॥१७०।। इत्युक्त्वा स्थितवन्तं तं सुमित्रं मित्रतां गतम् । आपप्रच्छे चित्रगतिर्गन्तुं निजपुरं प्रति ।।१७१॥ सुमित्रोऽप्यब्रवीद् भ्रातः ! सुयशा नाम केवली । अत्राऽऽसन्नप्रदेशेषु विहरन्नस्ति सम्प्रति ।।१७२।। क्रमेण तमिहाऽऽयातं वन्दित्वा गन्तुमर्हसि । तदागमनकालं तदत्रैव परिपालय ।।१७३।। आमेत्युक्त्वा चित्रगतिः क्रीडंस्तेन समं सुखम
इवाऽनैषीत् कियतोऽपि हि वासरान् ॥१७४।। १. तस्य पत्नी शशिमुखी ला० । २. पश्चादत्यन्तवल्लभा मु० । ३. सज्जल० खं० २।४. आहर्ता-अपहर्ता । ५. सिद्धायतनं वन्दमानस्य । ६. नररत्नशिरो० खं० २ । ७. असिरत्नं खं० २ । ८. अद्भुतानामद्वितीयं स्थानम् । ९. अनुद्धतः । १०. तस्यां खं० १ । ११. यशस्वत्यां ला० ला० १, पु. खं० १, सू०म० । १२. सुभद्रायामग्र० ला० ला० १ । १३. ज्येष्ठ-लघुभ्रातरौ । १४. नयवत्सलः खं १, ला०, मु० । १५. विपरीतः । १६. प्रसत्रुवु० मु० । १७. आगाच्च तत्र ला० । १८. ०तन्त्रैरुपचारानने० ला० । १९. स्फुरिते० ला० । २०. स्वस्थ० खं० २ विना। २१. तं विषं ला० । २२. पार्श्वकः मु० 'र'स्वीकृतपाठश्च। २३. कर्णसुखदम् । २४. विषदात्रा । २५. जीवलोकं कृपानिधे ! मु० । २६. इत्युक्त्वोत्थितवन्तं ला० १ । २७. "तिष्ठ' इति लाटि. । २८. युगलिकः ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
उभौ जग्मतुरन्येद्युरुद्यानं तत्र चाऽऽययौ । सुयशाः केवलिमुनिः कल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥१७५॥ स्वर्णाब्जस्थं वृतं देवैश्चिरेप्सितसमागमम् । 'तौ तं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा च निषेदतुः ॥ १७६ ॥ श्रुत्वा सुग्रीवराजोऽपि मुनिमेत्याऽभ्यवन्दत । चकार देशनां सोऽपि मोहनिंद्रादिवामुखम् ॥१७७।। देशनान्ते चित्रगतिर्मुनिं नत्वेदमब्रवीत् । साध्वहं बोधितो धर्मं भगवद्भिः कृपापरैः ॥१७८॥ कुल क्रमागतमपि श्रावकत्वमियच्चिरम् । पुरो निधिमिवाऽभाग्यो नाऽज्ञासिषमहं प्रभो ! ॥ १७९ ॥ एषोऽतुल्योपकारी हि सुमित्रो येन मेँ प्रभो ! । ईदृग्धर्मोपदेष्टारो युष्मत्पादाः प्रदर्शिताः ॥ १८० ॥ इत्युदित्वा तस्य मुनेः पुरश्चित्रगतिः सुधीः । गृहिधर्मं प्रत्यपादि सम्यक् सम्यक्त्वपूर्वकम् ॥१८१॥ मुनिं प्रणम्य सुग्रीवः पप्रच्छ भगवन् ! क्व सौ ? । महात्मनोऽस्थ मत्सूनोर्विषं दत्वा ययाविति ॥ १८२ ॥ मुनिः शशंस सा नंष्ट्वा गताऽरण्ये मलिम्लुचैः । भूषणादिकमाच्छिद्य पल्लीभर्तुः समर्पिता ॥१८३॥ पल्लीशेन वणिक्पार्श्वे विक्रीता सा ततोऽपि हि । प्रणश्य यान्ती महता परिप्लुष्टा दवाग्निना ॥ १८४॥ रौद्रध्यानवती मृत्वा प्रथमे नरके ययौ । ततश्चोद्धृत्य चण्डालगृहिणी सा भविष्यति ॥ १८५ ॥ जाते गर्भे सपत्न्या च कलौ कर्त्तिकया हता । तृतीयं नरकं गत्वा तिर्यग्योनौ गमिष्यति ॥ १८६॥ इत्याद्यनन्तसंसारदुःखं साऽनुभविष्यति । सम्यग्दृष्टेर्भवत्सूनोर्विषदानजपाप्मना ॥ १८७॥
[ राजोचे भगवन् ! यस्य कृते सा कृतवत्यदः । सोऽत्र तिष्ठति तत्पुत्रः सैका तु नरकं गता । १८८।। धिग् धिक् तदेष संसारो राग-द्वेषादिदारुणः । आदास्येऽहं परिव्रज्यां तत्परित्यागकारणम् ॥१८९॥ अथ प्रणम्य राजानं सुमित्र इदमभ्यधात् । धिग् धिङ् मां मातुरीदृक्षकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ १९०॥ स्वामिंस्तदनुजानीहि प्रव्रजिष्यामि सम्प्रति । को वस्तुमिच्छेदीदृक्षे संसारेऽत्यन्तदारुणे ॥ १९९॥ इति ब्रुवाणं तनयं प्रतिर्षिध्याऽऽज्ञया नृपः । राज्ये निवेशयामास स्वयं तु व्रतमाददे ॥ १९२॥ समं केवलिना तेन सुग्रीवर्षिर्ययौ ततः । सहैव चित्रगतिना सुमित्रस्तु निजं पुरम् ॥१९३॥ भद्रापुत्राय पद्माय ग्रामान् सोऽदत्त कत्यपि । दुर्मतिस्तैस्त्वसन्तुष्टो निःसृत्याऽगात् स कुत्रचित् ॥ १९४॥ कथञ्चिदपि चाऽऽपृच्छ्य सुमित्रं नृपमन्यदा । पित्रोत्कण्ठितोऽगच्छत् पुरे चित्रगतिर्निजे || १९५ ।। देवपूजा-गुरूपास्ति-तप:- स्वाध्याय - संयमैः । स सदा व्यापृतः पित्रोरभूदत्यन्तशर्मणे ॥१९६॥ इतः सुमित्रभगिनीं कलिङ्गनृपगेहिनीम् । जहे रत्नवतीभ्राता कमलोऽनङ्गसिंहजः ॥ १९७॥ भगिनीहरणेनाथ सुमित्रं शोर्कैबाधितम् । अज्ञासीत् खेचरमुखात् तदा चित्रगतिः सुहृत् ॥१९८॥ अन्वेष्य 'जामिमानेष्याम्यचिरादिति खेचरैः । तमाश्वास्य चित्रगतिरुत्तस्थे स्वसृशुद्धये ॥ १९९ ॥ कैमलेन हता सेति प्रवृत्तिमुपलभ्य सः । ययौ सवार्भिसारेण नगरे शिवमन्दिरे ||२००|| 'कॅमलं तत्र कमलखण्डं द्विप इव क्षणात् । लीलयोन्मूलयामास शूरः सूर्रनृपात्मजः ॥ २०१ || क्रुद्धः सुतपराभूत्याऽनङ्गसिंहोऽथ सिंहवत् । सिंहनादं विदधानो दधावे सह सेनया ॥ २०२ ॥ विद्याबलात् सैन्यबलाद् दोर्बलाच्च तयोश्चिरम् । महान् रणः प्रववृते दारुणो द्युदामपि ॥२०३॥ अनङ्गो दुर्जयं ज्ञात्वा रिपुं जेतुमनाश्च तम् । देवतादत्तमस्मार्षीत् खड्गरत्नं क्रमागतम् ॥२०४॥ ज्वालाशतदुरालोकं द्विषल्लोंकान्तकोपमम् । कृपाणरत्नं तत्पाणावापपात क्षणादपि ॥२०५॥
१. तं त्रिः प्रद० ला० । २. मोहनिद्राभङ्गे प्रातः समानाम् । ३. कृपाकरैः ता० सं० । ४. हे प्रभो ! ला० । ५. भद्रा । ६. 'तस्करैः' ला०सूटि । ७. 'दग्धा' लाटि । ८. गले मु०; कलहे । ९. राज्ञोचे खं २, सू० । १०. निवसितुम् । ११. ०षिद्धाज्ञया खं० २ । १२. दुर्विनीतस्त्वस० पा० ला० १, आ० । दुर्नीतस्तैस्त्वस० खं० १-२, ला०सू० की.पु.छा.ला. २ । १३. पितृमातृमिलनाय । १४. शोकवार्षिकम् की० पु० । १५. 'लघुभगिनी' इति लाटि० । १६. कमलेनाहृता खं० १ । १७. सर्वसैन्येन । १८. ततः स कमलं तत्र पद्मखण्डमिव ला० । १९. शूर० खं० १; चित्रगतिः । २०. महारण: खं० २ । २१. दारणो खं० १ । २२. देवानामपि । २३. वैरिलोकानां यमसदृशम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
कृपाणपाणिः स प्रोचे रे रेऽपसर बालक ! । पुरतस्तिष्ठतश्छेत्स्ये शिरस्ते 'बिसकाण्डवत् ॥२०६॥ ऊचे चित्रगतिश्चित्रमन्यादृगिव वीक्ष्यसे । बलेन लोहखण्डस्य धिक् त्वां स्वबलवर्जितम् ॥२०७॥ इत्युक्त्वा विद्यया ध्वान्तं विचक्रे तत्र सर्वतः । पुरःस्थमप्यपश्यन्तो द्विषोऽस्थुलिखिता इव ॥२०८॥ अथाऽऽच्छिदच्चित्रगतिस्तं खड्गं तत्कराद् द्रुतम् । द्राक् सुमित्रस्य भगिनी जग्राह च जगाम च ॥२०९।। क्षणान्तरेण चाऽनङ्गो जातालोको विलोकयन् । पाणौ कृपाणं नाऽपश्यत् पुरस्तान्न च तं द्विषम् ।।२१०॥ क्षणं विषादं स प्राप स्मृत्वा च ज्ञानिनो वचः । मत्खड्गहर्ता जामाता भावीति मुमुदे च सः ॥२११॥ कथं स ज्ञास्यते ? यद्वा सिद्धायतनवन्दने । ज्ञेयः कुसुमवृष्ट्येति विमृशन् स्वगृहं ययौ ॥२१२॥ पाअखण्डशीलां तां जामिं सुमित्रपृथिवीपतेः । नीत्वा समर्पयामास कृती चित्रगतिः स्वयम् ॥२१३॥ पुराऽपि हि भवोद्विग्नः सुमित्र: स्वविवेकतः । जातस्वस्रपहारादिवैधुर्यान्नितरामभूत् ॥२१४।। राज्यं न्यस्य सुते गत्वा सुयशोमुनिसन्निधौ । सुमित्रराट् चित्रगतेः समक्षं व्रतमाददे ॥२१५।। पापुरे चित्रगति: स्वेऽगात् 'सुमित्रस्त्वन्तिके गुरोः । किञ्चिदूनानि पूर्वाणि नवाऽधीते स्म बुद्धिमान् ॥२१६।। गुर्वनुज्ञां गृहीत्वैकः सुमित्रो विहरन् गतः । मगधेषु बहिर्गामात् कार्योत्सर्गेण तस्थिवान् ॥२१७॥ वैमात्रेयो भ्रमन् पद्मस्तत्राऽऽयातो ददर्श तम् । सर्वजीवहितं ध्यानस्थितं गिरिमिव स्थिरम् ॥२१८॥ आकर्णाकृष्टबाणेन हृदि पद्मो जघान तम् । स्वमातुर्मिलनायेव नरकाभिमुखः कुधीः ॥२१९।। धर्मभ्रंशो ममाऽनेन न कृतो निघ्नताऽपि हि । कर्मच्छेदसखित्वेन प्रत्युतैष हितावहः ॥२२०॥ अस्मै मया चाऽपकृतं राज्यं दत्तं न यत् तदा । तत् क्षाम्यत्वेष मे सर्वे क्षाम्यन्त्वन्येऽपि जन्तवः ॥२२१।। । एवं ध्यायन कृतप्रत्याख्यानः स्मृतेनमस्कृतिः । मृत्वा सुमित्रोऽभूद ब्रह्मलोके सामानिकः सरः प्रणश्य गच्छन् पद्मोऽपि दष्टः कृष्णाहिना निशि । विपद्य नारको जज्ञे सप्तम्यां नरकावनौ ॥२२३॥ पासुमित्रमृत्युना शोकं कृत्वा चित्रगतिश्चिरम् । जगाम सिद्धायतने यात्रां कर्तुं महामतिः ॥२२४॥
अमिलंस्तत्र यात्रायां बहवः खेचरेश्वराः । रत्नवत्या समं पुत्र्याऽनङ्गसिंहोऽपि चाऽऽययौ ॥२२५॥ चक्रे चित्रगतिश्चित्रां तत्राऽर्चा शाश्वतार्हताम् । रोमाञ्चिताङ्गः स्तोत्रं च गिरा भक्तिविचित्रया ॥२२६।। ज्ञात्वा चाऽवधिना'तत्र समित्रः सर आययौ । तस्योपरि च पष्पाणि ववर्ष स्वामरैः सह ॥२२॥ हृष्टाश्च तुष्टवश्चित्रगतिं सर्वेऽपि खेचराः । अनसिंहोऽप्यज्ञासीत तमेव दैहितवरम ॥२२८॥ पासुमित्रदेव: प्रत्यक्षीभूय हर्षेण भूयसा । किं मां प्रत्यभिजानासीत्यूचे चित्रगतिं तदा ॥२२९।।
त्वं महद्धिः सुर इति चित्रगत्युदिते सुरः । सुमित्ररूपं चक्रे स स्वोपलक्षणहेतवे ॥२३०॥ तं चित्रगतिरालिङ्गच जगादेति मया ह्ययम् । धर्मः प्राप्तस्त्वत्प्रसादादनवद्यो महामते ! ॥२३१।। सुमित्रोऽप्यब्रवीदेवमियमृद्धिर्मयाऽपि हि । आसेदे त्वत्प्रसादेन तदा जीवितदानतः ॥२३२।। प्रत्याख्यान-नमस्कारविहीनोऽहं तदा मृतः । नाऽभविष्यं मनुष्योऽपि प्राणयिष्यो न चेद्धि माम् ।।२३३॥ तयोः कृतज्ञयोरेवं मिथः सुकृतशंसिनोः । श्रीसूरचक्रिप्रमुखा जहषुः खेचरेश्वराः ॥२३४।। पातत्र चित्रगतिं रूप-चरित्राभ्यामनुत्तरम् । प्रेक्षमाणा रत्नवती "विविधे मन्मथेषुभिः ॥२३५।। स्वपुत्रीं विधुरां प्रेक्ष्याऽनङ्गसिंहो व्यचिन्तयत् । ज्ञानिनः संवदैत्येतत् तत्पूर्वकथितं वचः ॥२३६॥
ममाऽसिरत्नं जहेऽसौ पुष्पवृष्टिरिहाऽभवत् । इहाऽभवन्मत्सुताया अनुरागश्च तत्क्षणात् ॥२३७॥ १. विश० ला०पा.की.पु.सं.ता.; कमलनालवत् । २. स्वबलगवितम् मु०, खं० १, ला० सू० । ३. जातप्रकाशदर्शनः । ४. व्यलोकयत् ला० । ५. 'जातः स्वस्त्र०' इति मुद्रितः पाठः । स च न योग्य: प्रतिभाति । ६. वैधुर्यं-दुःखम् । ७. अपरमातुः पुत्रः । ८. हितध्यान० खं० २।९. क्रुधा ला० । १०. अस्मिन् मया मु० । ११. सर्वं खं० १ । १२. स्मृतनवकारमन्त्रः । १३. अवधिज्ञानेन । १४. च सुरैः ला० । चामरैः मु० । १५. दुहितुः पतिम्, पु० । १६. स्वस्योपल० ला० । १७. प्राणयिष्ये खं० २ । क्रियातिपत्तौ द्वितीयपुरुषैकवचन रूपमिदम्। १८. श्रेष्ठम् । १९. विव्यधे ला०सू० । २०. 'मिलति' इति लाटि. । २१. त्येव तत्पूर्वं० ला० । ०पूर्वं क० मु० ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
रत्नवाश्चाऽनुरूपो वरोऽयं ज्ञानिनोदितः । श्लाघ्योऽस्म्यमभ्यां दुहित-जामातृभ्यां जगत्यपि ॥२३८।। देवस्थानेऽत्र सम्बन्धादिकं वक्तुं न युज्यते । चिन्तयित्वेति सपरिवारः स स्वगृहं ययौ ।।२३९।।
सुमित्रदेवं सत्कृत्य व्यसृजत् खेचरानपि । ततश्चित्रगति: पित्रा समं निजगृहं ययौ ।।२४०।। पाप्रहितोऽनङ्गसिंहेन मन्त्र्येक: सूरचक्रिणम् । प्रणम्य व्याजहारैवमव्याजविनयक्रमः ॥२४१॥ स्वामिश्चित्रगतिस्तेऽसौ कुमारो मारसन्निभः । अतुल्यरूप-लावण्यः कस्य चित्रीयते न हि ? ॥२४२।। पुत्री चाऽनङ्गसिंहस्य रत्नं रत्नवती प्रभो ! । रत्नेन चित्रगतिना युज्यतां भवदाज्ञया ॥२४३।। द्वयोरपि त्वमीशोऽसि विवाहाय तदेतयोः । अनङ्गसिंहं मन्यस्व नृसिंह ! विसृजाऽद्य माम् ॥२४४।। सूरोऽप्युचितयोगेच्छुः प्रत्यपद्यत तद्वचः । तयोविवाह चाऽकार्षीन् महोत्सवपुर:सरम् ॥२४५।। तया समं चित्रगतिर्भेजे वैषयिकं सुखम् । अर्हत्पूजादिकं धर्मं चकार च तया सह ॥२४६।। धनदेव-धनदत्तजीवौ च्युत्वा बभूवतुः । मनोगति-चपलगत्याख्यौ तस्याऽनुजावुभौ ॥२४७।। ताभ्यां च रत्नवत्या च समं नन्दीश्वरादिषु । चक्रे चित्रगतिर्यात्रामतिमात्रां सुरेन्द्रवत् ॥२४८॥ अर्हतामन्तिके धर्मं शुश्राव च समाहितः । कलत्र-भ्रातृसहितः साधुशुश्रूषणोद्यतः ॥२४९।। तमन्यदा न्यधाद्राज्ये सूरचकी स्वयं पुनः । उपाददे परिव्रज्यां प्रपेदे च परं पदम् ॥२५०।। पास साधितानेकविद्यः सूरचक्रीव नूतनः । शशास खेचरपतीन् पत्तीकुर्वन्ननेकशः ।।२५१॥ अन्यदा तस्य सामन्तो मणिचूलो व्यपद्यत । शशि-शूरावयुध्येतां राज्यार्थे तत्सुतावथ ॥२५२॥ तयोविभज्य तद्राज्यं चक्री चित्रगतिर्ददौ । पथि च स्थापयामास धर्मवाग्भिः स युक्तिभिः ॥२५३।। तौ तथाऽप्यन्यदा यदध्वा विपेदाते 'वनेभवत । पाश्रुत्वा चित्रगतिस्तच्च दध्याविति महामतिः ॥२५४।। विनश्वर्याः श्रियोऽर्थेऽमी धिग जना मन्दबुद्धयः । युध्यन्तेऽथ विपद्यन्ते निपतन्ति च दुर्गतौ ॥२५५।। श्रिये यथोत्सहन्तेऽमी निरपेक्षा वपुष्यपि । तथोत्सहेरन्मोक्षाय चेत् किं न्यूनं तदा भवेत् ? ॥२५६।। विमृश्यैवं भवोद्विग्नः सुतं रत्नवतीभवम् । ज्येष्ठं पुरन्दरं नाम राज्ये चित्रगतिय॑धात् ॥२५७॥ रत्नवत्या कनिष्ठाभ्यां ताभ्यां च स समाददे । व्रतं दमधराचार्यपार्श्वे चित्रगतिस्ततः ॥२५८॥ चिरं तप्त्वा विधायाऽन्ते पादपोपगमं च सः । विपद्य कल्पे माहेन्द्रे सुरोऽभूत् परमद्धिकः ॥२५९॥ रत्नवत्यपि तत्रैव कनिष्ठौ तौ च बान्धवौ । संजज्ञिरे सरवराः प्रीतिभाजः परस्परम ॥२६०॥ पाइतश्च प्रत्यंग्विदेहे विजये पद्मनामनि । अस्ति सिंहपुरं नाम पुरं सुरपुरोपमम् ॥२६१।। तत्राऽऽसीज्जगदानन्दी हरिणन्दीति भूपतिः । मन्दीकृतान्यतेजस्कोऽधिपतिस्तेजसामिव ।।२६२।। बभूव महिषी तस्य नामतः प्रियदर्शना । दर्शनेनाऽपि पीयूषस्यन्दिनी कौमुदीव या ॥२६३॥ जीवश्चित्रगतेः सोऽथ च्युत्वा माहेन्द्रकल्पतः । कुक्षाववातरत् तस्या महास्वप्नोपसूचितः ॥२६४॥ पूर्णे च काले सुषुवे सा देवी प्रियदर्शना । पाण्डुको»व कल्प तनयं प्रियदर्शनम् ॥२६५।। अपराजित इत्याख्यां तस्य चक्रे महीपतिः । धात्रीभिाल्यमानश्च स क्रमेण व्यवर्धत ।।२६६।।। क्रमात् कलाः स जग्राह यौवनं प्राप च क्रमात् । मूर्त्या मीनध्वजः पुण्यलावण्यजलवारिधिः ॥२६७||
सहपांशुक्रीडितश्च सहाध्यायी च वल्लभः । अभूद् विमलबोधाख्यस्तस्याऽमात्यसुतः सुहृत् ॥२६८॥ १. ०वत्या अनु० ला० । २. ०स्थाने च स० सू० । ३. स्वभवनं पु० । ४. उवाच । ५. निष्कपटविनयान्वितः । ६. कामसदृशः । ७. तदीशो० खं० १-२, ला० सू० सं. । ८. विवाहमका० सू० । ९. मणिचूडो मु० । १०. ०सूरा० खं० १-२, ला० सू० । ११. सुयुक्ति० र०स्वीकृतपाठः, मु० । १२. वनगजवत् । १३. भ्रातृभ्यां सममाददे खं० २।०च सममाददे सू० । ०चाऽथ समा० ला० । १४. दमवरा० ला०पा.ला० १, पु. छा. सं. ता. । १५. स सुरोऽभून्मद्धिकः खं० १ । १६. 'तृतीय: भव:' इति लाटि. । १७. 'चतुर्थः भवः' इति लाटि. । १८. पश्चिम-विदेहक्षेत्रे । १९. सूर्यः । २०. स्पन्दिनी मु०, र०स्वीकृतपाठश्च । स्यन्दनी खं० २ । २१. पाण्डकोर्वीव खं० १-२, सू०ला० ला १-२, पा. सं. ता. । पण्डको. ला० । पाण्डुकवनभूमिः । २२. दर्शिनम् मु० । २३. कामः ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पातावन्यदा हयारूढौ क्रीडया जग्मतुर्बहिः । हृत्वाऽश्वाभ्यां च निन्याते महारण्ये दवीयर्सि ॥२६९।। तत्राऽश्वयोः श्रान्तयोस्तौ वृक्षमूलेऽवतेरतुः । ऊचे विमलबोधं च राजपुत्रोऽपराजित: ॥२७०।। दिष्ट्याऽश्वाभ्यामपहृतावावामाभ्यां कुतोऽन्यथा । अनेकाचर्यपूर्णेयं द्रष्टव्या स्याद् वसुन्धरा ॥२७१॥ गन्तुमापृच्छ्यमानौ हि पितरौ विरहासहौ । विसृजेतां न नौ जातु जातं सम्प्रति साध्विदम् ॥२७२।।
आवयोरश्वहृतयोः पित्रोर्दुःखमभूदिदम् । तेनैव विहरिष्यावो विसोढं पतितं हि तत् ॥२७३॥ पाएवमस्त्वित्यभाषिष्ट यावत् स सचिवात्मजः । तावन्ना तत्र कोऽप्यागाद् रक्ष रक्षेत्युदीरयन् ॥२७४| प्रवेपमानसर्वाङ्गमस्थिरीभूतलोचनम् । मा भैषीरिति तं प्रोचे कुमारः शरणागतम् ॥२७५॥ कुमारं मन्त्रिसूः स्माऽऽह नाऽविमृश्यैवमभ्यधाः । अन्यायकारी यद्येष तदा स्यान्न हि शोभनम् ॥२७६।। ऊचेऽपराजितोऽप्युच्चैः क्षत्रधर्मो ह्यसौ सदा । अन्यायी यदि वा न्यायी त्रातव्यः शरणागतः ॥२७७|| एवं कुमारे वदति हत हतेति वादिनः । एयुरारक्षपुरुषा आकृष्टनिशितासयः ॥२७८।। अपयातं युवां पान्थौ ! मुषिताशेषपत्तनम् । हनिष्यामोऽमुमित्यूचुरारक्षा दूरतोऽपि ते ॥२७९॥ स्मित्वा स्माऽऽह कुमारोऽपि शरणं मामुपागतः । शक्रेणाऽपि न शक्योऽसौ हन्तुमन्यैस्तु का कथा ? ॥२८०॥ कुद्धाः प्रजहूरारक्षा यावत् तावदधावत । आकृष्टासिः कुमारस्तान्निघ्नन् द्वीपी" मृगानिव ॥२८॥ पानंष्ट्वा कोसलराजायाऽऽचख्युः स्वस्वामिने च ते । राजाऽपि सैन्यं स प्रैषीद् वधैषी चोररक्षिणः ॥२८२॥ तदप्यनीकं तरसी पराजिग्येऽपराजितः । आययौ च स्वयं राजा वृत्तः सार्दि-निषादिना ॥२८३॥ तस्करं मन्त्रिपुत्राय समाऽथाऽपराजितः । द्रढयित्वा परिकरमभ्यमित्रो[त्र्यो]ऽभवद् युधि ।।२८४॥ एकस्य दन्तिनो दन्ते पादं न्यस्य स सिंहवत् । आरुह्य कुम्भमवधीत् स्कन्धारूढं निषादिनम् ॥२८५।। तमेवाऽऽरुह्य करिणं युयुधे चापराजितः । उपलक्ष्य नृपायैकेनाऽऽचख्ये मन्त्रिणाथै सः ॥२८६॥ निषिध्य स्वाज्ञया युद्धात् सैनिकान् कोसलेश्वरः । तमूचे मद्वयस्यस्य सुतोऽसि हरिणन्दिनः ।।२८७।। साधु मन्मित्रपुत्रोऽसि विक्रमेणाऽमुना खलु । विना सिंहकिशोरेण को ह्यलं हन्त दन्तिने ? ॥२८८।। स्वगृहात् स्वगृहं दिष्ट्या त्वमायासीर्महाभुजः । इत्युक्त्वा परिरेभे स गजस्थस्तं गजस्थितम् ॥२८९॥ लज्जाविनमदास्याब्जं राजा स्वेभेऽधिरोह्य तम् । निजे निनाय सदने स्वपुत्रमिव वत्सलः ॥२९०॥ विसृज्य तस्करं मन्त्रिपुत्रोऽप्यन्वपराजितम् । आययौ तस्थतुश्चोभौ सुखं कोसलवेश्मनि ॥२९१॥
कन्यां कनकमालाख्यां स्वां कोसैलमहीपतिः । जातानन्दो हरिणन्दिनन्दनायाऽन्यदा ददौ ॥२९२।। पादिनानि कत्यपि स्थित्वा मा भूद् विघ्नो गतेरिति । अनाख्यायाऽन्यदा रात्रौ समित्रोऽपि स निर्ययौ ॥२९३॥ व्रजंश्च कालिकादेव्यायतनस्याऽविरतः । हो हा ! निष्पुरुषो:ति शश्राव रुदितं निशि ॥२९४|| काऽप्येषा रोदिति स्त्रीति निश्चित्य स कृपानिधिः । अनुशब्दं ययौ वीरः शब्दापातीव सायकः ॥२९५॥ ज्वलितज्वलनाभ्यणे स्त्रियमेकां निषादिनी । आकृष्टतीक्ष्णैनिस्त्रिंशं पुरुषं च ददर्श सः ॥२९६।। विद्याधराधमादस्मात् पातु मां कोऽपि यः पुमान् । इति भूयोऽपि चक्रन्द सौनिकौन्तच्छ(श्छ)गीन सा ॥२९७||
आचिक्षेप कुमारस्तमुत्तिष्ठस्व रणाय रे ! । अबलायां किमेतत् ते पुरुषाधम ! पौरुषम् ? ॥२९८॥ १. दूरतरे । २. तौ ला २. । मु० ३. रिष्यामो ला०पा.ला १, की. आ. | ४. विसोढुं सं. मु० । ५. यत् खं० २ । ६. नानरः । ७. प्रकम्पमानसर्वाङ्गं छा० । ८. मन्त्रिसूरुचे माऽवि० पु० । ९. आकृष्टतीक्ष्णखड्गाः । १०. अर्पयत खं० २ । ११. मामेष शरणागत: ला० । १२. शक्योऽयं पु० । १३. 'चित्रक:'-'चित्तो' । १४. पराक्रमेण वेगेन वा । १५. सादि-निषादिभिः मु०, खं० १, ला० । १६. कटिवेष्टनम् । १७. शत्रुसन्मुखः । १८. हस्तिपकम् । १९. मन्त्रिणा च सः खं० १ । २०. कौसले० ला० । २१. लज्जाविनम्रमुखकमलम्। २२. ०धिरुह्य खं० २ । २३. वत्सलम् खं० २ । २४-२५. कोशल० खं० १-२, सू० । कौसल० ला० । २६. ०स्याऽतिदूर० खं० २, ला० । २७. हहा ! खं० २, सू० । २८. निःपु० मु० । २९. शब्दवेधी बाण इव ॥ ३०. निषादितां खं० १-२, सू० ता.सं. ला० २। विषादिनी पु० । विषादितां ला० । ३१. खड्ग । ३२. सौनिकं-सूनास्थानं, तस्यान्तः मध्ये छगी-अजा इव ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
त्वय्यप्यस्यामि चेदं मे पौरुषं नन्विति ब्रुवन् । आकृष्टासिरढौकिष्ट समराय स खेचरः ॥२९९।। वञ्चयमानावन्योऽन्यघातांस्तौ कुशलावुभौ । खड्गाखड्गि चिरं कृत्वाऽयुध्येतां दोर्युधोद्धतौ ॥३००।। दोर्युद्धेऽप्यपराजय्यं मन्यमानोऽपराजितम् । बबन्ध नागपाशेन स विद्याधरकुञ्जरः ॥३०१।। कुमारस्त्रोटयामास तं पाशमपराजितः । 'व्यालद्विप इवाऽऽलानरज्जु कोपेन भूयसा ॥३०२।। विद्याप्रभावतो विद्याधरः स विविधायुधैः । प्रजहार कुमाराय क्रुद्धोऽसुरकुमारवत् ॥३०३॥ पूर्वपुण्यप्रभावाच्च देहसामर्थ्यतोऽपि च । कुमारे प्राभवंस्तस्य प्रहारा न मनागपि ॥३०४|| अत्रान्तरे च मार्तण्डो ययावुदयमूर्धनि । मूर्ति चाऽताडयद् राजपुत्रः खड्गेन खेचरम् ॥३०५।। पपात मूच्छितः पृथ्व्यां तेन घातेन खेचरः । कुमारस्पर्द्धयेव स्त्री तां जघान स्मरः शरैः ॥३०६।। भूयः प्रापय्य चैतन्यमुपचारैर्नभश्चरम् । ऊचे कुमारो युध्यस्व सोऽसि यदि सम्प्रति ॥३०७।। विद्याधरोऽप्यभाषिष्ट सुष्ठ्वहं निजितस्त्वया । रक्षितः स्त्रीवधात् साधु नरकाच्चापि तद्भवात् ॥३०८॥ मम वस्त्राञ्चलग्रन्थौ विद्येते मणि-मूलिके । मणेस्तस्याऽम्भसा घृष्ट्वा मूलिकां देहि मवणे ॥३०९॥ तथा चक्रे कुमारेण सज्जाङ्गोऽभूच्च खेचरः । कुमारपृष्टश्चाऽऽचख्यावेवं व्यतिकरं निजम् ॥३१०॥ पारथनूपुरनाथस्य विद्याधरपतेरियम् । दुहिताऽमृतसेनस्य रत्नमालेति नामतः ॥३१॥ वरोऽस्या ज्ञानिनाऽऽचख्ये हरिणन्दिनृपात्मजः । युवाऽपराजितो नाम गुणरत्नैकसागरः ॥३१२।। तङ्क्षाऽप्यनुरक्ताऽभून्नाऽन्यस्मिन्नकरोन्मनः । मया च वीक्षिताऽन्येधुर्विवाहाय च याचिता ॥३१३।। एषाऽप्युवाच मत्पाणिं गृह्णीयादपराजितः । दहेद् वा दहनो मेऽङ्गं नाऽपरा काऽप्यतो गतिः ॥३१४।। इत्यस्या वचसा कुप्यन्नहं श्रीषेणनन्दनः । सूर्यकान्ताभिधानोऽस्याः पाणिग्रह कृताग्रहः ॥३१५।। निर्गत्य नगैरान विद्या दुःसाध्या अप्यसाधयम् । भूयोऽपि विविधोपायैरमूमर्थितवानहम् ॥३१६।। युग्मम् ॥ नैषा केनाऽप्युपायेन मामियेष यदा तदा । हृत्वाऽऽनीता मयोऽप्यत्र कामान्धाः किं न कुर्वते ? ॥३१७॥ अग्निरङ्गे लगत्वस्याः पूर्यतां स प्रतिश्रवः । इत्यमूं खण्डयित्वाऽहमग्नौ प्रक्षेप्तुमुद्यतः ॥३१८॥ मत्तस्त्वया रक्षितेयं रक्षितोऽहं च दुर्गतेः । द्वयोरप्युपकर्ताऽसि शंस कोऽसि महाभुज ?? ॥३१९।। पाआख्यच्च मन्त्रिसूस्तस्मै कुमारस्य कुलादिकम् । मुमुदे रत्नमालाऽपि सद्योऽभीष्टसमागमात् ॥३२०॥ पितरौ रत्नमालायाः पृष्ठतश्च प्रधाविनौ । कीर्तिमत्यमृतसेनौ तदानीं तत्र चेयतुः ॥३२१॥ पृष्टश्चाऽऽख्यन् मन्त्रिपुत्रो यथावृत्तं तयोरपि । त्राताऽभूत् परि णेतैवेत्यमोदेतामुभावपि ॥३२२॥ ताभ्यां दत्तां रत्नमालामुपयेमेऽपराजितः । तयोरेव गिरोऽदत्त सूरकान्ताय चाऽभयम् ॥३२३।। कुमारे निःस्पृहे सूरकान्तस्ते मणि-मूलिके । आर्पयन् मन्त्रिपुत्रस्य गुटिकाश्चाऽन्यवेषदाः ॥३२४।। आनेतव्या स्वपुत्रीयं निजस्थाने गतस्य मे । इत्युदीर्याऽमृतसेनं प्राचालीदपराजितः ॥३२५।। समं पुत्र्याऽमृतसेनः सूरकान्तश्च खेचरः । स्वं स्वं प्रययतुः स्थानं स्मरन्तावपराजितम् ॥३२६॥ पाकुमारोऽप्यग्रतो गच्छन्नटव्यां विधुरस्तृषा । उपाविशच्चूततले मन्त्रिपुत्रोऽम्भसेऽन्वगात् ॥३२७||
दूरे गत्वा गृहीत्वाऽम्भो यावदागादमात्यसूः । तस्मिश्चततले तावन्नाऽपश्यदपराजितम् ॥३२८॥ दध्यौ च नेदं तत्स्थानं भ्रान्त्याऽन्यत्र किमागमम् ? । किं वा कुमारोऽतितृषा स्वयमप्यम्भसे ययौ ? ॥३२९।। १. ननु त्वय्यपि (विषये) इदं मे पौरुषं अस्यामि-क्षिपामि-काकुः । २. न त्विति मु० । ३. दुष्टगजः । ४. ०वुदयमूनि च ता.सं.छा.ला २; उदयाचले । ५. ०स्पर्धया नूनं तां ला० । ६. समर्थः । ७. स्त्रीवधप्रभवात् । ८. तत्रैवात्यन्तरक्ता० ता० सं० । ९. एतस्या सू० । १०. वचसाऽकुप्यमहं मु० । ११. ग्रहकृतादरः ला० ला १ । पाणिग्राह० खं० २ । १२. विविधा विद्या सू० । १३. दुःसाधा खं-२, सू० । १४. ०नीत्वा मयात्र क्षुत्कामा० खं० १-२, ला० सू० । १५. मया त्वत्र ला० । १६. प्रतिज्ञा । १७.
भुजः खं० १-२ । १८. पृष्ठे तस्य खं० २ । १९. प्रधावितौ मु०, र.स्वीकृतपाठश्च । २०. परिणेता चे० ला० । २१. गिरा दत्तं मु०, र.स्वीकृतपाठश्च । २२. वेषपरावर्तनगुटिकाः । २३. प्रजग्मतुः ता० | २४. त्वगात् मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
विमृश्येति कुमारस्याऽन्वेषणाय प्रतिद्रुमम् । बभ्रामाऽनीक्षमाणस्तं मूच्छितश्चापतद् भुवि ॥३३०॥ लब्धसंज्ञः समुत्थाय सोऽरोदीत् करुणस्वरम् । कुमार ! दर्शयाऽऽत्मानं किं खेदयसि मां मुधा ? ||३३१॥ नाऽपहर्तुं प्रहर्तुं वा त्वामलं कोऽपि मानवः । न तवाऽदर्शने हेतुरमङ्गलमयः सखे ! ॥३३२॥
एवं विलप्य बहुधा तं गवेषयितुं पुनः । ग्रामादिषु परिभ्राम्यन् सोऽगान्नन्दिपुरं पुरम् ॥३३३।। पामन्त्रिसूर्बहिरुद्याने यावदस्थाच्च दुर्मनाः । उभौ विद्याधरौ तावत् तमुपेत्यैवमूचतुः ॥३३४।। विद्याधरेन्द्रो भुवनभानुर्नाम्ना महावने । आस्ते विकृत्य प्रासादं परमद्धिर्महाबलः ॥३३५।। तस्य च स्त: कमलिनी-कुमुदिन्यावुभे सुते । तयोश्च ज्ञानिनाऽऽख्यातो वरः प्रियसुहृत् स ते ॥३३६।। तस्याऽऽनयनहेतोश्च स्वामिनाऽऽवां नियोजितौ । वने तस्मिन्नागताभ्यामावाभ्यां वीक्षितौ युवाम् ।।३३७।। त्वं जलानयनायाऽगाः कुमारं चापराजितम् । हृत्वाऽऽनयाव भुवनभानोः स्वस्वामिनोऽन्तिके ॥३३८॥ तमभ्युदस्थाद् भुवनभानुर्भानुमिवोदितम् । सम्भ्रमाच्चाऽऽसयामास रत्नभद्रासनोत्तमे ॥३३९॥ सत्ययाऽपि गुणस्तुत्या हेयन्नपराजितम् । पुत्र्योस्तयोविवाहार्थे ययाचे खेचरेश्वरः ॥३४०॥ कुमारस्त्वद्वियोगार्हो न प्रत्युत्तरमप्यदात् । मौनी मुनिरिवाऽस्थाच्च त्वामेव परिचिन्तयन् ॥३४१॥ ततश्च स्वामिनाऽऽदिष्टौ त्वामानेतुमितस्ततः । विमार्गन्ताविहाऽऽयावः दिष्ट्या दृष्टोऽसि सम्प्रति ॥३४२॥ तदुत्तिष्ठ महाभाग ! गन्तुं तत्र चल द्रुतम् । कुमारस्य कुमारीभ्यां विवाहस्त्वयि तिष्ठते ॥३४३।। इत्युक्त्या मुदितस्ताभ्यां सह मन्त्रिसुतो ययौ । सद्योऽभ्यणे कुमारस्य प्रमोद इव मूर्तिमान् ॥३४४|| उपयेमे कुमा? ते कुमारोऽपि शुभेऽहनि । कालं कञ्चिदपि स्थित्वा निर्जगाम च पूर्ववत् ॥३४५।। पाश्रीमन्दिरे प्रापतुश्च पुरे तत्रे च तस्थतुः । सूरकान्तदत्तमणिपूर्यमाणेप्सितौ सर्दी' ॥३४६।।
तस्मिन् पुरेऽन्यदोत्तस्थावतुलस्तुमुलध्वनिः । अदृश्यन्त भ्रमन्तश्च सन्नद्धोदायुधा भटाः ॥३४७|| किमेतदिति पुष्टश्च राजपुत्रेण मन्त्रिसः । ज्ञात्वा लोकाच्छशंसैवमत्र राजाऽस्ति सुप्रभः ॥३४८।। स प्रविश्यैकेन पुंसा हतश्छुरिकया च्छलात् । राज्ञो राज्यधरश्चास्य पुत्रादिर्नास्ति कोऽपि हि ॥३४९॥ आत्मरक्षीभवन्नद्य तेनाऽयमखिले पुरे । भ्राम्यति व्याकुलो लोकस्तस्याऽयं तुमुलो महान् ॥३५०॥ दुःक्षत्रियेण केनापि धिगयं घातितो द्विषा । इत्युक्त्वा करुणाम्लानमुखोऽस्थादपराजितः ॥३५१॥ पाअरोहति प्रहारे तु राज्ञः संरोहणैरपि । प्रधानगणिका कामलताऽऽख्याद् राजमन्त्रिणाम् ॥३५२॥ वैदेशिक: पमानात्मद्वितीयोऽत्रास्ति पत्तने । उदारो धामिकः सत्यो मूर्त्या कश्चिदिवाऽमरः ॥३५३॥ सर्वसम्पद्यमानार्थो निर्व्यापारोऽप्यसौ यतः । महाप्रभावस्तदिह सम्भाव्यं किञ्चिदौषधम् ॥३५४॥ निन्युश्च मन्त्रिणोऽभ्यर्थ्य कुमारमुपपार्थिवम् । राजा तद्दर्शनेनाऽपि सुस्थंमन्यो बभूव सः ॥३५५।। कृपावान् राजपुत्रः प्रागपि घातं विलोक्य तु । कृपाभागधिकं मित्रादाददे मणि-मूलिके ॥३५६॥ मणिप्रक्षालनजलं स भूपतिमपाययत् । मूलिकां तज्जलैघृष्ट्वा नृपघाते न्यधत्त च ॥३५७।। सज्जाङ्गो भूपतिश्चाऽभूद्राजपुत्रमुवाच च । कुतोऽकारणबन्धुस्त्वमिहाऽऽयासीः कृपानिधे ! ॥३५८॥ शशंस मन्त्रिसूः सर्वं राजा भूयोऽप्यभाषत । पुत्रोऽयं मद्वयस्यस्य भूपतेर्हरिणन्दिनः ॥३५९॥ अहो ! प्रमादो नाऽबोधं यद्भातुः पुत्रमप्यमुम् । यद्वा प्रमादस्य फलं प्रहारोऽप्येष मेऽभवत् ॥३६०॥
इत्युक्त्वा कन्यकां रम्भां रूपाद्रम्भामिवाऽपराम् । उपरोध्य ददौ तस्मै गुणकीतो नरेश्वरः ॥३६॥ १. नापकर्तुं मु०, र.स्वी.पाठश्च । २. च. खं० २ । ३. मानद ! खं० १-२, ता.ला०छा.आ. । ४. च सूः मु० । ५. अभिमुखं उत्थितः । ६. संभ्रमात् स्थापयामास ला० । ७. लज्जां प्रापयन् । ८. ०न्ताविहाऽऽयातौ ला० ला १, मु०; खं० २, ला० । ९. तिष्ठति ला० । १०. तत्राऽवत० ला० । ११. च तौ खं० २ । १२. सन्नद्धाः सायुधा ला० । १३. आरोहति खं० १, ला०, मु०, ता.विना च । १४. राजमन्त्रिणम् ला०की.छा.सं.ता. । १५. स्वस्थंमन्यो खं० २ । स्वस्थ इव । १६. मूलिकान्त लै० खं १ । १७. नृपाघाते खं० २। १८. कृपानिधि: खं० २ । १९. ०हरिनन्दिन: खं० १, ला० ।
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प्रथमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
रममाणस्तया कालं कञ्चिदप्यतिवाह्य सः । पूर्ववन्निर्ययौ राजपुत्रो मन्त्रिसुतान्वितः ॥३६२॥ ||पुरे कुण्डपुरेऽगाच्च तत्रोद्याने महामुनिम् । दिव्यस्वर्णाम्बुजासीनं स केवलिनमैक्षत || ३६३ || तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य निषद्य च । शुश्राव देशनां तस्मात् श्रुत्योः पीयूषवर्षिणीम् || ३६४|| देशनान्ते 'तु तं नत्वा पप्रच्छेत्यपराजितः । किं भव्योऽहमुताऽभव्यः ? आचख्यौ चेति केवली ॥ ३६५॥ भव्योऽसि भविता चाऽर्हन् द्वाविंशः पञ्चमे भवे । त्वन्मित्रं गणभृच्चाऽयं जम्बूद्वीपस्य भारते ||३६६|| श्रुत्वेति मुमुदाते तौ सेवमानौ च तं मुनिम् । धर्मस्थौ तस्थतुः सुस्थौ तत्र कत्यपि वासरान् ॥३६७॥ गते विहर्तुमन्यत्र मुनौ तत्र तु तावपि । स्थाने स्थाने च चैत्यानि वन्दमानौ विचेरतुः || ३६८ ॥ [[इतश्चाऽऽसीज्जनानन्दे जितशत्रुर्नृपः पुरे । तस्याऽभूत् महिषी नाम्ना धारिणी शीलधारिणी ॥३६९|| स्वर्गाच्च्युत्वा रत्नवती तस्याः कुक्षाववातरत् । पूर्णे च काले साऽसूत नाम्ना प्रीतिमतीं सुताम् ॥३७०॥ ववृधे सा क्रमेणोपाददे च सकलाः कलाः । आसादयामास चोच्चैर्यौवनं स्मरजीवनम् ॥३७१॥ तस्याश्चाऽतिकलाज्ञाया विज्ञोऽप्यज्ञः पुरोऽभवत् । दृष्टिर्न तस्याः कुत्राऽपि तदरंस्त मनागपि ॥३७२॥ पिताऽपि दध्यौ यद्येतां विदग्धां येन केनचित् । वरेणोद्वाहयिष्यामि प्राणांस्त्यक्ष्यत्यसौ तदा || ३७३|| ध्यात्वैवं तां रहऽपृच्छत् पुत्रि ! कस्ते वरो मतः । साऽप्यूचे स वरो मेऽस्तु यो विजेता कलासु माम् ||३७४|| तत्प्रत्यपादि राजाऽपि सा प्रतिज्ञा च पप्रथे । राजानो राजपुत्राश्च कलाभ्यासं भृशं व्यधुः || ३७५॥ [[जितशत्रुर्नृपोऽन्येद्युर्बहिर्मञ्चानकारयत् । राज्ञश्च राजपुत्रांश्चाऽऽजूहवत् तत्स्वयंवरे ॥३८६॥ भूचराः खेचराश्चेयुः कुमारैः सह भूभुजः । स्वनन्दनवियोगार्तं विनैकं हरिणंन्दिनम् ||३७७|| निषेदु॑स्ते च मञ्चेषु विमानेष्विव नाकिनः । इतश्च पर्यटन् दैवात् तत्राऽऽगादपराजितः || ३७८|| सोऽवोचद् विमलबोधं समये स्म समागताः । कलाविचारं तज्ज्ञानां द्रक्ष्यामस्तां च कन्यकाम् ||३७९ ॥ मा नः परिचितोऽज्ञासीदिति तेन सहैव सः । गुटिकायाः प्रयोगेण प्राकृतं रूपमादधे ||३८० ॥ तावुभौ जग्मतुस्तत्र स्वयंवरणमण्डपे । क्रीडया विकृताकारधारिणौ त्रिदशाविव ॥ ३८१|| अनर्घ्यनेपथ्यधरा धरामिव गताऽमरी । चामराभ्यां वीज्यमाना सखी - दासीजनावृता ॥ ३८२॥ आत्मरक्ष-प्रतीहारोत्सार्यमाणपुरोजना । देवी लक्ष्मीरपरेव तत्राऽऽगात् प्रीतिमत्यद्य || ३८३॥ युग्मम् ॥ [ऊचे च मालतीनामाऽङ्गुल्या निर्दिशती सखी । भूचराः खेचराश्चाऽमी गुणिमन्या इहाऽऽययुः ॥३८४|| असौ कदम्बदेशस्य राजा भुवनविश्रुतः । वीरो भुवनचन्द्राख्यः पूर्वदिग्मुखमण्डनम् ॥३८५|| प्रकृत्या दक्षिणश्चाऽयं दक्षिणाशाविशेषकः । नामतः समरकेतुर्मीनकेतुर्वपुः श्रिया ||३८६|| उत्तराशाकुबेरोऽयं कुबेर इति नामतः । वैरीनारीजनास्त्राम्भः-स्फीत कीर्तिलतावनः ||३८७|| अयं सोमप्रभः कीर्त्या जितसोमप्रभो नृपः । अन्येऽपि धवल - शूर - भीमाद्या पार्थिवा अमी ||३८८॥ अयं च खेचराधीशो मणिचूडो महाभुजः । रत्नचूडस्त्वसावेष महाबाहुर्मणिप्रभः ||३८९|| एते च सुमन:- सो-सूराद्याः खेचरेश्वराः । तदीक्षस्व परीक्षस्व सर्वेऽप्येते कलाविदः ||३९०॥ तयेत्युक्ता प्रीतिमती यं यमैक्षिष्ट चक्षुषा । तयाऽऽदिष्ट इवाऽनङ्गस्तं तं बाणैरताडयत् ॥३९१ ॥ मधुमत्तान्यपुष्टस्त्रीस्वरमालम्ब्य साऽकरोत् । विचारं पूर्वपक्षस्था वाग्देवीव विवदिनी ॥ ३९२ ॥ निहतप्रतिभाः सर्वे भूचराः खेचरा अपि । गले गृहीता इव ते नाऽशकन् दातुमुत्तरम् ॥३९३॥
१. ०न्ते मुनिं नत्वा खं० २ । २. स्वस्थौ खं० २, सं.ता.की. । ३. ०भूद् गेहिनी ना० खं० २ । ४. पूर्णे काले च खं० २ । ५. विज्ञोऽप्यविदुरोऽभ० खं० १ । ६. रहे० खं० २ । ७. ०वच्च स्वयं० मु० । ८. ० नन्दिनम् ला० । ९. निषेदुस्तत्र खं० १ । १०. देवाः । ११. आत्मरक्षा मु० । १२. स्मरकेतुर्यो मीन० ला० । १३. जनाश्रान्तः मु० । १४. ०स्फीति० ला०सू० । १५. ०सूर० खं० १-२ । धवलभीमसूरा० ला० । १६. ०सूरसोमा० ला० । १७. यमैषिष्ट खं० १ । १८. वसन्तोन्मत्ता अन्यपुष्टस्त्री- कोकिला, तस्याः स्वरम् । पुष्टास्त्री मु० । १९. प्रवादिनी ला० । २० निहित० खं० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
स्त्रीसम्बन्धात् पक्षमस्याश्चक्रे 'वाग्देव्यतो वयम् । अनया निर्जिता नूनं पुरा केनाऽप्यनिर्जिताः ॥३९४॥ इत्यादि विविधं प्रोचुर्विले क्षास्ते परस्परम् । राजानो राजपुत्राश्च त्रपाऽवनमदाननाः || ३९५ ॥ युग्मम् 11 दध्यौ च जितशत्रुः किं सर्वायासादिमां विधिः । विधाय खिन्नः ? एतस्या नाऽनुरूपं पतिं व्यधात् ? || ३९६ ॥ इयन्त एव राजानो मत्पुत्र्या एषु वौचितः । न कोऽपि कोऽपि हीनोऽन्यो भावी चेत् का गतिस्तदा ? ||३९७।। तन्मन्त्र्यूचे च भावज्ञो विषादेन कृतं प्रभो ! । प्रकृष्टेभ्यः प्रकृष्टाः स्युर्बहुरत्ना हि भूरियम् ॥ ३९८ ॥ राजा वा राजपुत्रो वा "परो वा य इमां जयेत् । स एव हि वरोऽमुष्या घोषणा कार्यतामियम् ॥ ३९९ ॥ साध्वेतदिति जल्पंश्च तथैवाऽकारयन्नृपः । आकर्ण्य घोषणां तां च दध्यावित्यपराजितः ||४००|| स्त्रिया सह विवादे स्यान्नोत्कर्षो विजयेऽपि हि । पुंस्पक्षो विजितः सर्वोऽप्यविवादे भवेत् पुनः ॥ ४०२ ॥ तदुत्कर्षोऽस्तु वास्तु जेतव्या सर्वथाऽप्यसौ । विमृश्येति कुमारो द्राक् प्रीतिमत्याः पुरोऽभवत् ॥४०२॥ अभ्रच्छन्नमिवाऽऽदित्यं दुर्वेषमपि वीक्ष्य तम् । प्राग्जन्मस्नेहसम्बन्धात् प्रीतिं प्रीतिमती दधौ ॥ ४०३॥ पूर्वपक्षं प्रीतिमती प्राग् जग्राह तथैव हि । तां द्राग् निरुत्तरीकृत्य पराजिग्येऽपराजितः ॥४०४॥ स्वयंवरस्रजं सद्यः सा चिक्षेपाऽपराजिते । चुकुपुश्च नृपास्तस्मै भूचराः खेचराश्च ते ॥४०५॥ क एष वाचा वातूलस्तूलवल्लाघवास्पदम् । इमां "कार्पटिकोऽस्मासु सत्तूंद्वोढेति भाषिणः ||४०६ || भूँपा: "संवर्मयामासुः समं सादि - निषादिना । उदस्तशस्त्राः सङ्ग्रामं संरम्भादारभन्त च ||४०७ ॥ युग्मम् ॥ कुमारोऽपि समुत्पत्य हत्वा कञ्चिन्निषादिनम् । तत्कुञ्जरस्थो युयुधे तदस्त्रैः शारिर्वर्तिभिः ॥ ४०८ ॥ क्षणाच्च रथिनं हत्वा प्राहरत् तद्रथस्थितः । क्षणाद् भूमौ क्षणाद् भूयोऽपीभस्थः स युधं व्यधात् ॥ ४०९॥ एकोऽप्यनेकधाभूत इवाऽशनिरिवँ स्फुरन् । अभाङ्क्षीद् विद्विषत्सैन्यमुन्मे॑न्युरपराजितः ॥ ४१० ॥ स्त्रियाऽपि प्राग्जिताः शास्त्रैः शस्त्रैरेकाकिनाऽधुना । इति हीण नृपा योद्धुं सम्भूयाऽपिं डुढौकिरे ||४११॥ [अथ सोमप्रभस्येभमारुरोहाऽपराजितः । तं चोपालक्षयत् सोमो लक्षणैस्तिलकेन च ॥४१२॥ भुजोपपीडं तं सोमः परिरेभे महाभुजम् । दिष्ट्या ज्ञातोऽसि जामेयाऽमेयवीर्येत्युवाच च ॥४१३॥ आख्यच्च राज्ञां सर्वेषां ते सर्वे व्यरमन् रणात् । तैरेव स्वजनीभूतैरध्यास्युद्वाहमण्डपः ॥ ४१४।। ततोऽपराजित-प्रीतिमत्योरन्योऽन्यरक्तयोः । चक्रे विवाहः पुण्येऽह्नि भूभुजा जितशत्रुणा ||४१५ ॥ चक्रे नैसर्गिकं रूपं मनोज्ञमपराजितः । विक्रमेण च रूपेण तस्याऽरे ज्यज्जनोऽखिलः ॥४१६॥ सत्कृत्य व्यसृजत् सर्वान् जितशत्रुर्महीपतीन् । रममाणः प्रीतिमत्या तत्राऽस्थाच्चापराजितः ||४१७|| जितशत्रुनृपामात्यः कन्यां रूपवर्ती निजाम् । ददौ विमलबोधाय सोऽपि रेमे तया सह ||४१८ || [अन्येद्युराययौ तत्र दूतः श्रीहरिन्दिनः । ददृशे च कुमारेण पेरिरेभे च सम्भ्रमात् ॥४१९॥ कुशलं तातपादानामम्बायाश्चेति तेन सः । पृष्टो दूतो जगादैवमश्रुपूर्णविलोचनः ॥४२०॥ शरीरधारणामात्रं कुशलं केवलं तयोः । त्वत्प्रवासदिनादेव तौ ह्यनुद्वानलोचन ॥४२१॥
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श्रुत्वा श्रुत्वा जनश्रुत्या त्वच्चरित्रं नवं नवम् । प्रेमोदेते क्षणं तौ त्वद्वियोगेन च मूर्च्छतः ॥४२२॥ युग्मम् ॥ १. वाग्देवता स्वयम् खं० १ । २. ०र्विलक्ष्या० खं० १ । ३. ०दिना विधिः खं० २ । विधिः सर्वायासाद् इमां विधाय किं खिन: ? ४. चोचितः खं० १, ला० । ५. नरो न कोऽपि ही० मु०, खं० १, ला० । ६. पौरो सू० । पुरो खं० २ । ७. साधु साध्विति मु०, खं० १ । ८. ०यघोषणां खं० २, सू० । ९ वा माऽस्तु खं० २ । १०. च ला० । ११. भिक्षुकः । १२. सत्सु वोढे० खं० १ । १३. नृपाः खं० १-२, ला० सू०मु० । १४. युद्धार्थं सज्जीबभूवुः । १५. निषादिभिः खं० १, ला०, मु० | १६. उदस्त्र० खं० २ । १७. कोपात् । १८. तद्गजस्थोऽपि युयुधे खं० २, मु० । १९. शारवर्ति० ला० । शारि: गजकवचम् । २०. ०रिवाऽस्फुरत् मु०, र स्वीकृतपाठश्च । २१. अतिकोपवान् । २२. लज्जिताः । २३. सम्भूयाऽथ खं० २ । २४. महाभुजः ला० । २५. विवाहं मु०, र स्वीकृतपाठश्च । २६. ०णेव रू० खं० १-२, सू० । २७ तस्याऽरञ्जज्जनो० मु०, र स्वीकृतपाठश्च । २८. ०नन्दिनः ला० । २९. आलिलिङ्गे । ३०. अनुद्वान्तलोचनौ ला० २ । 'आर्द्रनयनौ' इति लाटि । ३१. त्वच्चरितं खं० १, सू० र स्वीकृतपाठः । ३२. प्रमोदेन सू० ।
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(अष्टमं पर्व
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । श्रुत्वा वृत्तान्तमेतं ते सम्यग् ज्ञातुमहं प्रभो ! | प्रेषितोऽद्यापि पितरौ न खेदयितुमर्हसि ॥४२३॥ कुमारोऽप्यश्रुपूर्णाक्षः सगद्गदमभाषत । ईदृग्दुःखप्रदं पित्रोधिग् धिग् मामधर्म सुतम् ॥४२४॥ पाजितशत्रुमथाऽऽपृच्छ्य प्राचालीदपराजितः । आगाच्च भुवनभानुः सुताद्वययुतस्तदा ॥४२५।।
अन्याश्च तेन पूर्वोढास्तत्राऽऽनिन्युः स्वनन्दनाः । राजानः सूरकान्तोऽपि तत्राऽऽगादर्भयार्जितः ॥४२६। प्रीतिमत्या तथाऽन्याभिः प्रनीभिरपराजितः । भूचरैः खेचरैश्चापि राजभिः परिवारितः ॥४२७।। रोदसी छादयन् सैन्येर्भूचरैः खेचरैरपि । स्तोकैरपि दिनैरुत्कः प्राप सिंहपुरं पुरम् ॥४२८॥ युग्मम् ।। हरिणन्दी तमभ्येत्य लुठन्तमवनीतले । परिरभ्याऽङ्कमारोप्य Djचुम्बन् मुहुर्मुहुः ॥४२९॥ माताऽपि प्रणमन्तं तं बाष्पायितविलोचना । पृष्ठे पस्पर्श पाणिभ्यां चचुम्ब च शिरस्तले ॥४३०॥ पादान् श्वशुरयोर्नेमु; प्रीतिमत्यादयोऽपि ताः । स्नुषा विमलबोधेन नामग्राहं प्रदर्शिताः ॥४३१।। भूचरान् खेचरांश्चाथ विससर्जाऽपराजितः । पित्रोर्नेत्रोत्सवं कुर्वन् चाऽस्थात् क्रीडन् यथासुखम् ॥४३२॥ तौ मनोगति-चपलगती माहेन्द्रतश्च्युतौ । अभूतामनुजौ तस्य सूरः सोमश्च नामतः ॥४३३॥
अथाऽन्यदा हरिणन्दी राज्यं न्यस्याऽपराजिते । प्रवव्राज तपस्तप्त्वा प्रपेदे च परं पदम् ॥४३४।। पाअपराजितराजस्य महिषी प्रीतिमत्यभूत् । मन्त्री विमलबोधश्च तौ बन्धू मण्डलेश्वरौ ॥४३५।। पुराऽप्याक्रान्तभूपालः पृथ्वी सुखमपालयत् । भोगांश्चाऽभुक्तं निर्विघ्नमपराजितभूपतिः ॥४३६॥
चैत्यानि च विचित्राणि रथयात्राश्च लक्षशः । कुर्वाणोऽगमत् कालं स पर्मथैरवञ्चितः ॥४३७।। पास गतोऽन्येधुरुद्याने ददशैकं महर्टिकम् । मूर्त्याऽनङ्गमिवाऽनङ्गदेवं सार्थपतेः सुतम् ।।४३८॥ तैमावृतं सर्वंयोभिर्दिव्यनेपथ्यधारिभिः । क्रीडन्तं रमणीयाभी रमणीभिश्च भूरिशः ॥४३९।। ददानमर्थिनामर्थं स्तूयमानं च बन्दिभिः । गीतासक्तं प्रेक्ष्य राजाऽपृच्छत् कोऽसाविति स्वकान् ? ॥४४०॥युग्मम्।। असौ समुद्रपालस्य सार्थवाहस्य नन्दनः । महेभ्योऽनङ्गदेवाख्य इत्याख्यन् पार्थिवाय ते ॥४४१॥ धन्योऽस्मि यस्य वणिजोऽपीत्युदारा महर्द्धयः । एवं प्रशंसन् वेश्माऽऽगात् पुनरप्यपराजितः ॥४४२॥ पाद्वितीयेऽह्नि बहिर्गच्छन् सोऽपश्यन् मृतकं वेजत् । नृभिश्चतुर्भिरुत्क्षिप्तं रसद्विरसडिण्डिमम् ॥४४३॥ अन्वीयमानं रामाभिराघ्नानाभिरुरःस्थलम् । मुक्तकेशं रुदन्तीभिर्मूर्च्छन्तीभिः पदे पदे ॥४४४॥ युग्मम् ॥ कोऽयं मृत इति राज्ञा पृष्टेऽशंसंश्च सेवकाः । स एवाऽनङ्गदेवोऽयं द्राग् विसूचिकतया मृतः ॥४४५।। अहो ! असारः संसारो धिग् धिग् विश्वस्तध्रुग् विधिः । हा प्रमादः प्राणभाजां मोहनिद्रान्धचेतसाम् ।।४४६।। एवं महान्तं संवेगं धारयन्नपराजितः । जगाम स्वगृहं खिन्नस्तस्थौ चाऽहानि कत्यपि ॥४४७॥ पायः प्राक् कुण्डपुरे दृष्टः केवली तत्र सोऽन्यदा । आगात् तस्योपकाराय योग्यं ज्ञानेन तं विदन् ॥४४८॥ श्रुत्वा धर्मं च तत्पाद्यं पुत्रं प्रीतिमतीभवम् । पद्मं निधाय राज्ये स्वे प्रावाजीदपराजितः ॥४४९।। सा च प्रिया प्रीतिमती सूरः सोमश्च बान्धवौ । मन्त्री विमलबोधश्च सर्वेऽनुप्राव्रजस्तदा ॥४५०।। ते सर्वेऽपि तपस्तत्त्वा मृत्वा कल्पेऽयुरारणे । इन्द्रसामानिकाः प्रीतिभाजोऽभूवन् परस्परम् ॥४५१।। पाइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् वर्षे च भैरते पुरम् । इहाऽस्ति हास्तिनपुरं कुरुमण्डलमण्डनम् ॥४५२।।
श्रीषेणस्तत्र राजाऽभूद् रजनीजानिसन्निभः । श्रीरिव श्रीमती नाम्ना महिषी तस्य चाऽभवत् ॥४५३।। १. ०मेतत् ते ला० । ०मेवं ते खं० १ । २. कुमारोऽथाश्रु० ला० । ३. समं स्वसुतया तया सू० । ४. ०दभयोजितः ला० । अभयदानेन सेवकत्वेन अर्जितः । ५. खेचरैर्भूचरै० खं० २ । ६. आकाश-पृथिव्यौ । ७. दिनैर्दक्षः खं० २ । उत्कण्ठितः । ८. मूर्जाऽचुम्बन् खं० १ । ९. चुचुम्ब शिरसस्तले मु० । १०. पुत्रवध्वः । ११. ०श्चाभुङ्क्त खं० २ । १२. धर्मार्थकामैः पुरुषार्थैः । १३. समन्वितं ला० । १४. मित्रैः । १५. व्रजन् मु०, २. । १६. राजघ्नाभि० खं० २ । राजन्तीभि० सू० । १७. ०रुरुस्थलम ला० । १८. रुदती० खं० १, सू० । १९. विश्वस्तद्रु० खं० २ । विश्वस्तद्रोही । २०. धिग् चेष्टितं की. पु. । २१. ते च सर्वे खं० १ । २२. 'पञ्चमभवः समाप्तः' लाटि. । २३. 'षष्ठो भव:' लाटि. । २४. भारते ला० । २५. हस्तिन० ला० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
शङ्खावदातं पूर्णेन्दुं सा विशन्तं मुखाम्बुजे । स्वप्नेऽपश्यन्निशाशेषे पत्ये चाऽख्याद् दिवामुखे ||४५४|| नृपो निर्णीतवांस्तज्ज्ञैः स्वप्नेनाऽनेन चन्द्रवत् । ध्वस्ताशेषद्विषद्ध्वान्तो देव्यां सूनुर्भविष्यति ||४५५॥ ||ईतोऽपराजितजीवश्च्युत्वा तत्कुक्षिमागमत् । काले च साऽसूत सुतं पवित्रं सर्वलक्षणैः ॥४५६॥ पिता तस्याऽकरोच्छ इत्याख्यां पूर्वजाख्यया । धात्रीभिः पञ्चभिः सोऽथ लाल्यमानो व्यवर्धत ||४५७|| साक्षिमात्रीकृत्य गुरुं लीलया चाऽऽददे कलाः । प्रतिजन्म समभ्यस्तास्तस्य सन्निहिता हि ताः ॥ ४५८।। मतिप्रभो नाम गुणनिधिः श्रीषेणमन्त्रिणः । सुतोऽभूद् विमलबोधजीवः प्रच्युत आरणात् ॥४५९॥ सहपांशुक्रीडितश्च सहाध्यायी च सोऽभवत् । स्निग्धः शङ्खकुमारस्य मन्मथस्येव माधवः ॥ ४६० || स तेन सुहृदा सार्धं राजपुत्रैस्तथाऽपरैः । नानाविधाभिः क्रीडाभिः क्रीडन् यौवनमासदत् ||४६१॥ |अथ श्रीषेणमन्येद्युरुच्चैः पूत्कारकारिणः । एत्य विज्ञपयामासुर्दूराज्जानपदा जनाः ||४६२|| अस्ति त्वद्देशसीमायामत्यन्तविषमोन्नतिः । विशालशृङ्गोऽद्रिश्चन्द्रेशिशिरासरिताङ्कितः ॥४६३॥
दुर्गे समरकेतुः पल्लीपतिः स्थित: । अस्मांल्लुण्टति निःशङ्कस्तस्मात् त्रायस्व नः प्रभो ! ||४६४|| तद्बधाय प्रतिष्ठाँसू राजा भम्भामवीवदत् । नत्वा शङ्खकुमारस्तं सप्रश्रयमुवाच च ॥ ४६५ ॥ क एष स्वयमाक्षेपस्तत्र पल्लीशमात्रके । नेभः प्रहन्या (ण्या) मशकं शशकं चं हरिः क्वचित् ॥ ४६६॥ त्वदाज्ञयाऽहं तं बद्ध्वा ताताऽऽनेष्ये ममाऽऽदिश । स्वयं प्रयाणाद् विरम त्रपाकरमिदं हि वः ||४६७ || राज्ञाऽपि तद्वचः श्रुत्वा तदैव सह सेनया । विसृष्टः शङ्खकुमारस्तां पल्लीं निषा ययौ ॥४६८ || श्रुत्वा कुमारमायान्तं दुर्गं शून्यं विमुच्य सः । पल्लीशो गह्वरेऽन्यत्र प्राविशन् मायिनां वरः ||४६९ || कुशाग्रीयमतिः शङ्खकुमारो दुर्गपत्तने । एकं प्रवेशयामास सामन्तं सारसैनिकम् ॥४७०|| स्वयं निकुञ्जे चैकस्मिन्निलीयाऽस्थात् ससैनिकः । पल्लीपतिस्तु तं दुर्गं रुरोध च्छ्लकृत् सदा ॥४७१॥ क्व भो: कुमार ! यासीति यावत् तत्र जगर्ज सः । तावत् कुमारस्तं सैन्यैरववेष्टदनेकशः ॥ ४७२ ॥ इतश्च दुर्गवप्रस्थै राजसैन्यैरघनि सः । इतः कुमारसैन्यैश्च पल्लीनाथोऽन्तरास्थितः ॥४७३|| कण्ठे कुठारं स क्षिप्त्वा कुमारं शरणं ययौ । ऊचे च मायामन्त्राणां प्रतिकर्ता त्वमेव मे || ४७४ स्वामिन् ! दासीभविष्यामि सिद्धो भूर्त इवैष ते । सर्वं मम गृहाणेदं प्रसत्त्याऽनुगृहाण माम् ||४७५|| ततः कुमारस्तेनाऽऽत्तं लप्त्रं यद्यस्य तस्य तत् । सर्वं समार्पयत् तस्माद्दण्डं च स्वयमग्रहीत् ॥४७६॥ पल्लीपतिं 'र्तमादाय कुमारोऽपि न्यवर्तत । पथि सायमवात्सीच्च स्कन्धावारं निवेश्य सः ||४७७ || सोऽथाऽर्धरात्रे तल्पस्थः शुश्राव करुणस्वरम् । ययौ चाऽसिसखा तस्य स्वरस्यैवाऽनुसारतः ॥४७८|| ददर्श चाऽग्रे रुदतीं महिलामर्धवार्धकाम् । ऊचे च मृदु मा रोदीब्रूहि दुःखस्य कारणम् ||४७९॥ तस्य मूर्त्या च वाचा च लब्धाश्वासा जगाद सा । अस्त्यङ्गदेशे चम्पायां जितारिर्नाम भूपतिः ॥४८० || तस्य कीर्तिमतीपत्न्यां पश्चाद् बह्वत्मजन्मनाम् । जाता यशोमती नाम सुताऽस्ति स्त्रीशिरोमणिः ||४८१॥ स्वानुरूपं वरं तस्या अपश्यन्त्या मनागपि । अरोचकिन्या नोऽरंस्त दृष्टिः कुत्रापि रुषे ||४८२ ॥ कदाऽप्यगात् कर्णपथं शङ्खः श्रीषेणनन्दनः । तस्याश्चक्रे हृदि पदं युगपन्मन्मथोऽपि च ॥४८३ ॥ मां शङ्ख एवोद्वोढेति प्रत्यज्ञासीद् यशोमती । स्थानेऽनुरक्तेयमिति मुमुदे चाऽति तत्पिता ॥४८४||
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१. इतोऽपराजितश्च्युत्वा तस्याः कुक्षाववातरत् मु० । २. गुणनिधेः खं० १ सू० । ३. वसन्तऋतुः । ४. ०मोन्नतः मु० ला०, २०
५. चन्द्रशिशिरा नाम्नी सरित्, तयाऽङ्कितः । ६. तत्रास्ति दुर्गे मु० २० । ७. गन्तुकामः । ८. न्मशके शशके ता. सं. पु., विना । ९. वा खं० १-२, ला० सू० । १०. समीपे । ११. सैन्यैरविवेष्टदने० की ० पु० ला० । सैन्यैरवेष्टयदने० मु० । १२. ०रघाति खं० १, ला०, मु०, २० । १३. भूतमिवैक्षते खं० २ । भूतमिवैष खं० १, ला० । १४. प्रसीदाऽनु० पु० । १५. चौर्येण संगृहीतं धनम् । १६. समादाय सं० । १७. असि: खड्गः सखा यस्य, खड्गमात्रेण सहेत्यर्थः । चासिसखस्तस्य खं० १ । १८. ०वाद्धिकाम् खं० २ । १९. बहूनां पुत्राणां पश्चात् । २०. अरोचिकिन्या खं० १-२, ला०सू० । २१. नो रेमे मु० । २२. पौरुषे ला० । २३. चापि मु० ।
(अष्टमं पर्व
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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यावत् तदर्थे श्रीषेणान्तिके प्रैषीन्नरान् नृपः । तावद् ययाचे तां विद्याधरेन्द्रो मणिशेखरः ॥४८५।। नेच्छत्येषा विना शङ्कमित्यूचे तं जितारिराट् । ततोऽन्येधुरहार्षीत् तां स विद्याधरपांशनः ।।४८६।। अहं तु धात्रिका तस्यास्तद्दोर्लग्ना समागता । इहोज्झिता तेन दुष्टखेचरेण बलादपि ॥४८७॥ संसारसारभूतां तां बालां कुत्राऽपि सोऽनयत् । तेनाऽहं विलपाम्येवं जीविष्यति कथं हि सा ? ||४८८।। धीरा भवाऽऽनयाम्येष तां कुमारी विजित्य तम् । इत्युक्त्वाऽन्वेष्टुमारेभे कुमारोऽटन् महाटवीम् ॥४८९।। पाअत्रान्तरे च चण्डांशुरारुरोहोदयाचलम् । विशालशृङमचलं कुमारोऽप्याससाद सः ॥४९०।। एकस्मिन् गह्वरे तस्य तां सोऽपश्यद् यशोमतीम् । 'विवाहायाऽर्थयन्तं च खेचरं ब्रुवतीमिति ॥४९१।। शकोज्ज्वलगुणः शङ्को भर्ता मे नाऽपरः पुनः । अप्रार्थितप्रार्थक ! रे ! स्वं खेदयसि किं मधा ? ॥४९२।। ताभ्यां दृष्टः कुमारोऽपि दुष्टश्चोवाच खेचरः । कालाकृष्टोऽयमायातस्त्वत्प्रियो मद्वशं जडे ! ॥४९३।। अमुं त्वदाशया सार्धं हत्वा बाले ! बलादपि । एष त्वां परिणेष्यामि नेष्यामि च निजौकसि ॥४९४।। इत्युक्तवन्तं तं शङ्कोऽप्युवाचोत्तिष्ठ पाप ! रे ! । परनारीहर ! हराम्येष खड्गेन ते शिरः ।।४९५।। पाउद्यतासी ततश्चोभौ युयुधाते महाभुजौ । वल्गन्तौ चारुचारीभिः कम्पयन्ताविवाचलम् ॥४९६।। कुमारं दोर्बलाज्जेतुं नाऽशकत् स यदा तदा । तप्तायोगोलमुख्यास्त्रैर्युयुधे विद्यया कृतैः ॥४९७।। पुण्योत्कर्षात् कुमारस्य कानिचित् प्राभवन्नाहि । कुमारः खण्डयामास खड्गेनाऽस्त्राणि कानिचित् ॥४९८।। तत: खिन्नानिषण्णाच्च खेचराद्धनुराच्छिदत् । कुमारस्तच्छरेणैव तं विव्याध च वक्षसि ॥४९९।। मूच्छितः सोऽपतत् पृथ्व्यां कृतँबुध्न इव द्रुमः । शङ्खो वातादिना सज्जीकृत्याऽऽह्वत युधे पुनः ॥५००॥ उवाच खेचरेन्द्रस्तमनिर्जितचरो ह्यहम् । निर्जितोऽस्मि त्वया दोष्मन्नसामान्योऽसि सर्वथा ॥५०१॥ इयं यथा त्वया वीर ! गुणक्रीता यशोमती । तथा पराक्रमक्रीतोऽस्म्यपराधं सहस्व मे ||५०२॥ कुमारोऽप्यब्रवीत् ते दोर्वीर्येण विनयेन च । रञ्जितोऽस्मि महाभाग ! ब्रूहि किं करवाणि ते ? ॥५०३।। सोऽप्यूचे चेत् प्रसन्नोऽसि वैताढ्ये तर्हि गम्यताम् । सिद्धायतनयात्रा ते" मम च स्यादनुग्रहः ।।५०४।। शङ्कोऽनुमेने तद्वाचं मुमुदे च यशोमती । एवंविधो मया ववे वर इयुच्छसन्मनाः ।।५०५॥ खेचराश्च तदाऽभ्येयुर्मणिशेखरपत्तयः । ज्ञातोदन्ता नमश्चक्रुः कुमारमुपकारिणम् ॥५०६।। प्रेष्य द्वौ खेचरौ सैन्ये स्ववृत्तान्तमजिज्ञपत् । कुमारः प्राहिणोच्चाशु तत्सैन्यं हस्तिनापुरे ॥५०७।। तां च धात्री यशोमत्यास्तत्राऽऽनाय्य नभश्चरैः । धात्री-यशोमतीयुक्तः शङ्खो वैताढ्यमभ्यगात् ।।५०८।। तत्र सिद्धायतनस्थान् ववन्दे शाश्वतार्हतः । चक्रे च विविधाः पूजा यशोमत्या सहैव सः ।।५०९।। पानिन्ये च कनकपुरे कुमारं मणिशेखरः । देवतामिव चाऽऽनर्थोपवेश्य निजवेश्मनि ॥५१०॥ वैताढ्यवासिनः सर्वेऽप्याश्चर्यमिव चाऽऽगतम् । एत्य शङ्ख-यशोमत्यौ भूयो भूयो व्यलोकयन् ।।५११।। द्विषज्जयादिमूल्येन प्रीतास्तत्राऽपरेऽपि हि । खेचराः पसयोऽभूवन कुमारस्य महर्द्धयः ।।५१२॥ तेऽदुर्निजनिजाः पुत्रीस्तस्मै स प्रत्यवोचत । परिणेष्याम्यमूरेतां परिणीय यशोमतीम् ॥५१३।। मणिशेखरमुख्यास्ते गृहीत्वा स्वस्वकन्यकाः । शङ्ख सह यशोमत्या चम्पायां निन्यिरे तदा ।।५१४४ जितारितिवृत्तान्तो वरं पुत्र्या सहाऽऽगतम् । समावृतं खेचरेन्द्रैरभ्यागान् मुदितो भृशम् ।।५१५।।
सम्भ्रमाच्छङ्खमाश्लिष्य पुर्यां प्रावेशयन्नृपः । पुत्र्या चोद्वाहयामास महोत्सवपुरःसरम् ॥५१६।। १. अधमविद्याधरः । २. तम् सू० । ३. विवाहार्थार्थयन्तं खं० १ । विवाहायार्थकं ता. सं. ला० १, छा० । ४. त्वं खेद० ख० २, ला० सू० । ४. त्वं खेद० मु० । ५. महाबलौ ता०सं० । ६. मनोज्ञगतिभिः । ७. छिन्नमूल मु० । ८. ०निर्जितवरो० मु० । निर्जितपुरो० खं० २। ९. गुणक्रीती खं० १-२, सू० । १०. वो मम खं०१ । ११. मया भर्ता वृत० खं०२, पा०सं०ता०की ला१, आ० । १२. इत्युच्चसत् पुनः ला० । इत्युत्थसन्मना: मु०, र. । १३. सिद्धायतनेषु ला.पु.खं० २, सू०म० । १४. निन्युरन्यदा खं० १ । निन्यिरेऽन्यदा खं० २, ला०सू० ता.सं.पा.ला० । १५. परिवृतं ला० । १६. ०रभ्यगा० मु०, र० ।।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फित
(अष्टमं पर्व
विद्याधरसुतास्ताश्च तदा शङ्ख उपायत । श्रीवासुपूज्यचैत्यानां यात्रां चक्रे च भक्तितः ॥५१७॥ पाविसृज्य खेचरान् स्थित्वा तत्र चाऽहानि कत्यपि । यशोमत्यादिपत्नीभिः शङ्खोऽगाद् हस्तिनापुरै ।।५१८॥ च्युत्वाऽऽरणात् सूर-सोमावभूतामथ तस्य तु । यशोधर-गुणधरावनुजौ पूर्वजन्मवत् ।।५१९।। श्रीषेणराजाऽप्यन्येधुर्दत्त्वा शङ्खाय मेदिनीम् । गुणधरगणधरपादान्ते व्रतमाददे ॥५२०॥ श्रीषेण: पालयामास दुस्तपं स यथा तपः । वसुन्धरां तथा शङ्कः शङ्खोज्ज्वलयशाश्चिरम् ॥५२१॥ उत्पन्नकेवलोऽन्येद्युः श्रीश्रीषेणो महामुनिः । विहरन्नाययौ तत्र सुरसान्निध्यशोभितः ॥५२२॥ उपेत्य शङ्खभूपालस्तं ववन्देऽतिभक्तितः । संसाराम्भोधिनौदेश्यां देशनां च ततोऽशृणोत् ॥५२३॥ देशनान्तेऽवदच्छको वेद्मि त्वच्छासनादहम् । भवे न कोऽपि कस्याऽपि सम्बन्धी किं तु केवलः ॥५२४॥ तथाऽप्यस्यां यशोमत्यां ममत्वं मेऽधिकं कुतः ? । प्रसीदाऽऽख्याहि सर्वज्ञाऽनभिज्ञमनुशाधि माम् ॥५२५॥ केवल्याख्यद धनभवे पत्नी ते धनवत्यसौ । सौधर्मे च सुहृद चित्रगते रत्नवती प्रिया ॥५२६।। माहेन्द्रे च सुहृद् भार्या त्वपराजितजन्मनि । इयं प्रीतिमती कल्पे वारणे ते सुहृत्सुरः ।।५२७॥ सप्तमेऽस्मिन् भवे भार्या भूयस्तेऽभूद् यशोमती । तेनाऽस्यां स्नेहसम्बन्धो भवान्तरभवस्तव ॥५२८।। इतोऽपराजिते गत्वा च्युत्वा वर्षेऽत्र भारते । द्वाविंशस्तीर्थनाथस्त्वं नेमिनाथो 'भविष्यसि ॥५२९।। इयं रोजीमती नाम त्वयाऽनूढाऽनुरागिणी । त्वत्पात्तिपरिव्रज्यो व्रजिष्यति परं पदम् ।।५३०॥ यशोधर-गुणधरौ भ्रातरौ प्राग्भवेषु ते । मन्त्री मतिप्रभश्चैते सेत्स्यन्त्याप्य गणेशैताम् ॥५३१।। पुण्डरीकं सुतं राज्ये न्यस्य शङ्खोऽग्रहीद् व्रतम् । तत्पाद्यं सह बन्धुभ्यां यशोमत्याँऽथ मन्त्रिणा ॥५३२।। गीतार्थोऽभूत् क्रमाच्छङ्खस्तपस्तेपे च दुस्तपम् । अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकृत्कर्म चाऽऽर्जयत् ॥५३३॥ .
पादपोपगमनं स विधाया
न्तेऽपराजितमगान्मुनिशङ्खः । तेऽपि तेन विधिनैव यशोम
त्यादयोऽयुरपराजितमेव ।५३४।। ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रे महाकाव्ये अष्टमे पर्वणि श्रीअरिष्टनेमिपूर्वभववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥
१. शङ्खमुपायत ला० । २. पूजां पु० । ३. दिनानि । ४. ०पुरम् ला० । ५. संसारसमुद्रे नौकासमानाम् । ६. त्वत्प्रवचनतः । ७. अनुशासनं कुरु । ८. ०भवस्तत: सू० । ९. वर्षे तु ला० । १०. भविष्यति खं० २, मु०, र० । ११. राजमती र० । १२. ०परिव्रज्यां मु० र० । १३. गणधरत्वम् । १४. ०मत्या च ला० । १५. ०ऽष्टमपर्वणि खं० १-२ । १६. नेमिचरिते पूर्व० खं० २।
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॥ द्वितीयः सर्गः ॥
इतश्च भरतेऽत्राऽस्ति मथुरेति वरा पुरी । नद्या यमुनया नीलसंव्यानेनेव शोभिता ॥१॥ तस्यां पुर्यां हरिवंश्याद् वसुपुत्राद् बृहद्ध्वजात् । गतेषु भूयःसु नृपेष्वभून्नाम्ना यदुनृपः ॥२॥ यदोरप्यभवत् सूनुः शूरः सूरसमद्युतिः । शूरस्यापि सुतौ शौरि-सुवीरौ वीरकुञ्जरौ ॥३॥
शौरि राज्ये यौवराज्ये सुवीरं न्यस्य शूरराट् । जातसंसारवैराग्य: परिव्रज्यामुपाददे ॥४॥ पाशौरिस्तु मथुराराज्यं सुवीरायाऽनुजन्मने । दत्त्वा कुशार्तदेशेऽगात् तत्र शौर्यपुरं न्यधात् ॥५।। सूनवोऽन्धकवृष्णयाद्या जज्ञिरे शौरिभूभुजः । सुवीरस्य पुनर्भोजवृष्ण्याद्या अमितौजसः ॥६॥ सुवीरो मथुराराज्यं स्वं दत्त्वा भोजवृष्णये । पुरं सिन्धुषु सौवीरं निधायाऽस्थान्महाभुजः ॥७॥ "विन्यस्याऽन्धकवृष्णि स्वे राज्ये शौरिर्महाभुजः । सप्रतिष्ठमनेः पार्श्वे प्रव्रज्य प्रययौ शिवम् ॥८॥ पाभोजवृष्णोर्मथुरायां राज्यं पालयत: सतः । उग्रसेनोऽभवत् सूनुरुदग्रभुजविक्रमः ॥९॥
जज्ञिरेऽन्धकवृष्णेश्च समुद्रायां दशाऽऽत्मजाः । समुद्रविजयोऽक्षोभ्यः स्तिमितः संगरोऽपि च ॥१०॥ हिमवानचलश्चैव धरणः पूरणस्तथा । अभिचन्द्रो 'वसुदेवो दशार्हाख्या दशाऽपि ते ॥११॥ युग्मम् ॥ तेषामभूतामनुजे कुन्ती मद्री च नामतः । पाण्डवेऽदात् पिता कुन्ती दमघोषाय चाऽपराम् ॥१२॥ अन्येधुरन्धकवृष्णिरवधिज्ञानिनं मुनिम् । सुप्रतिष्ठं प्रणम्यैवमपृच्छद्रचिताञ्जलिः ॥१३॥ स्वामिन् ! सूनुर्मे दशमो वसुदेवोऽभिधानतः । अत्यन्तरूप-सौभाग्य: कलावान् विक्रमी च किम् ? ॥१४॥ पाआख्यच्च सुप्रतिष्ठर्षिरासीन् मगधमण्डले । नन्दिग्रामे द्विजो रोरस्तस्य भार्या च सोमिला ॥१५॥ नन्दिषेणस्तयोः सूनुर्बालस्यापि हि तस्य तु । पितरौ तौ विपेदाते मन्दभाग्यशिरोमणेः ॥१६॥ तुन्दिलो दन्तुरश्चलश्चतुरस्रशिरास्तथा । कुरूपोऽन्येषु चाङ्गेषु सोऽत्याजि स्वजनैरपि ॥१७॥ जीवन्मूल्येनाऽपरेधुर्जगृहे मातुलेन सः । मातुलस्य तु तस्याऽऽसत्रुद्वाह्याः सप्त कन्यकाः ॥१८॥ एकां दास्यामि ते कन्यामित्यूचे मातुलश्च तम् । तद्वेश्मकर्म तल्लोभादशेषं च चकार सः ॥१९॥ तत्राऽद्योद्यौवना कन्या तज्ज्ञात्वोवाच मां यदि । प्रदास्यति पिताऽमुष्मै तन्मरिष्यामि निश्चितम् ॥२०॥ शुश्राव नन्दिषेणस्तद्विषण्णो मातुलेन तु । ऊचे सुतां द्वितीयां ते दास्ये मा खेदमुद्वह ॥२१॥ श्रुत्वा द्वितीयपुत्र्याऽपि तद्वच्चक्रे प्रतिवः । अन्यपुत्रीभिरप्येवं प्रतिषिद्धः क्रमेण सः ॥२२॥ ततस्तं मातुलोऽवोचत् पुत्रीमन्यस्य कस्यचित् । याचित्वा ते प्रदास्यामि वत्स ! मा भूस्त्वमाकुलः ॥२३॥ पानन्दिषेणस्ततो दध्यौ निजा नेप्सन्ति माममूः । ईप्सिष्यन्ति कथं त्वन्यकन्या मां रूपदूषितम् ? ॥२४॥ इति निःसृत्य वैराग्याद् ययौ रत्नपुरे पुरे । दम्पतीन् क्रीडतस्तत्र "निरीक्ष्य स्वं निनिन्द सः ॥२५॥ मुमूर्षः सोऽथ वैराग्याद् ययावुपवनान्तरे । सुस्थितं नाम तर्षि ददर्श प्रणनाम च ॥२६॥ ज्ञात्वा ज्ञानेन, तद्भावं स साधुस्तमवोचत । मा मृत्युसाहसं कार्षीरधर्मस्य फलं ह्यदः ॥२७॥ कार्यः सुखाथिना धर्म आत्मघातात् सुखं न हि । स तु प्रव्रज्यया धर्मः सुखहेतुर्भवे भवे ॥२८॥ श्रुत्वैवं च प्रतिबुद्धस्तत्पादान्तेऽग्रहीद् व्रतम् । गीतार्थश्चाभिजग्राह वैयोवृत्त्यं स साधुषु ।।२९।। पाबाल-ग्लानादिसाधूनां वैयोवृत्त्यकरं च तम् । अनिविण्णं सभामध्ये प्रशशंस पुरन्दरः ॥३०॥ १. नीलोत्तरीयवस्त्रेणेव । २.यदोरथाभवत् मु० । ३. सूरः खं०२, ता०सं० । ४. सूर० खं० २ । ५. शौरिपुरं सू० । ६. दत्त्वा भोजकवृष्णये मु० । ७. विधाया० ता०सं० । ८. निधायान्धक० मु० । ९. ०मुनिपार्वे खं० २ । १०. पुत्राः । ११. दरिद्रः । १२. बृहदुदरवान् । १३. दन्तुरचिल्ल० पु० दीर्घदन्तः । १४. 'क्लिन्ननेत्रः' लाटि. । १५. ०श्चतुरश्र० खं० १ । चतुष्कोणशिराः । १६. परिणयनयोग्याः । १७. तत्राद्या यौवना मु० । १८.प्रतिज्ञा । १९. निरूप्य की० पु० । २०. वैयावृत्तिं सं० । वैयावृत्तं की० । २१. वैयावृत्तिकरं सं० । २२. उपविष्टः पु०; खेदरहितम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
अश्रद्दधत् शक्रवचो ग्लानसाधुवपुर्धरः । सुरो रत्नपुराभ्य॑र्णेऽरण्ये कोऽपि समाययौ ॥३१॥ द्वितीयसाधुवेषं च कृत्वा तद्वसतिं ययौ । कवले पारणायाऽऽत्ते नन्दिषेणं जगाद च ॥३२॥ वैयाँवत्त्यं प्रतिज्ञाय कथं भो । भोक्ष्यसेऽधना? । यदहिः क्षत्तषाकान्तो मनिरस्त्यतिसारकी ॥३३॥ मुक्त्वाऽन्नं पानमन्वेष्टं नन्दिषेणोऽथ निर्ययौ । अनेषणीयं तच्छक्त्या देवः कर्तुं प्रचक्रमे ॥३४॥ मुनेर्लब्धिमतस्तस्य प्रभावात् तद्विजृम्भितम् । न प्राभवत् ततः प्राप शुद्ध पानं स कुत्रचित् ॥३५।। जगाम नन्दिषेणश्च ग्लानर्षेस्तस्य सन्निधौ । स तेन मायामुनिना चुकुशे परुषाक्षरम् ॥३६।। अहमीदृगवस्थोऽस्मि त्वं तु भोजनलम्पटः । न शीघ्रमागास्तद्धिक् ते वैयावृत्त्यप्रतिश्रवम् ॥३७॥ नन्दिषेणोऽप्यवोचत् तं सहस्वाऽऽग इदं मम । सज्जं त्वां विदधाम्येष इदं पानं तवोचितम् ॥३८|| पाययित्वा स तं पानमुत्तिष्ठेति जगाद च । ग्लानोऽप्युवाच धिग् मुण्ड ! किं मां नोऽक्षममीक्षसे ? ॥३९।। पाअथ मायामुनि स्कन्धमारोप्य प्रचलंस्ततः । आचुकुशे नन्दिषेण: स तेनैवं पदे पदे ॥४०॥
अरे ! शीघ्रं व्रजन् किं मां दुनोयन्दोलनैर्भृशम् ? । शनैः शनैर्गच्छ सत्यं वैयोवृत्त्यकरोऽसि चेत् ॥४१॥ इत्युक्तोऽतिशनैः सोऽगात् तस्योपरि च सोऽमरः । वर्चश्चक्रेऽब्रवीच्चैवं वेगभङ्गं करोषि किम् ? ॥४२।। अयं महर्षिरुल्लाघः कथं स्यादिति चिन्तयन । नाऽजीगणत तद्वचांसि नन्दिषेणः कटन्यपि ॥४३॥ वर्षोऽपहृत्याऽथ मुनौ पुष्पवृष्टिं व्यधात् मुदा । त्रिस्तं प्रदक्षिणीकृत्य दिव्यरूपोऽनमच्च सः ॥४४॥ तां प्रशंसां शककृतां तस्मै देवः शशंस सः । क्षमयित्वा तुभ्यमहं किं ददामीत्युवाच च ॥४५।। ऊचे मुनिर्मया लब्धो धर्मः परमदुर्लभः । सारं नाऽतः परं किञ्चिदिह त्वत्तो यदर्थये ॥४६॥ इत्युक्तो द्यां ययौ देवः स्वाश्रयं मुनिरप्यगात् । पृष्टश्च साधुभिः सर्वमनुत्सिक्तः शशंस सः ॥४७।। द्वादशाब्दसहस्राणि तपस्तेपे स दुस्तपम् । विहितानशनश्चाऽन्ते निजं दौर्भाग्यमस्मरत् ॥४८।। तपसाऽनेन भूयासं रमणीजनवल्लभः । एवं निदानं कृत्वा स महाशुक्रे सुरोऽभवत् ॥४९॥ ततश्च्युत्वा नन्दिषेणस्तव सूनुरभूदसौ । वसुदेवस्तन्निदानाद् रमणीनां मनोहरः ॥५०॥ ततो राज्येऽन्धकवृष्णि: समुद्रविजयं न्यधात् । स्वयं तु सुप्रतिष्ठान्ते प्रव्रज्य प्रययौ शिवम् ॥५१॥ पाप्रावाजीद् भोजवृष्णिश्च मथुरायां ततोऽभवत् । उग्रसेनो नृपस्तस्य महिषी धारिणी पुनः ॥५२॥ उग्रसेनोऽन्यदा गच्छन् बहि: कमपि तापसम् । स्थितं क्वाऽपि रहो देशेऽद्राक्षीन्मासोपवासिनम् ॥५३॥ तस्य चैषोऽभिग्रहोऽभून्मासोपवासपारणम् । करिष्याम्येकवेश्मात्तभिक्षया नाऽन्यथा पुनः ॥५४॥ मासे मासे पारणं स कृत्वैकगृहभिक्षया । रहःप्रदेशं तमगान्न पुनः सदनान्तरे ।।५५।।। पारणायोग्रसेनस्तं निमन्त्र्य प्रययौ गृहम् । अन्वागात् तापसः सोऽपि विस्मृतश्च महीपतेः ।।५६।। अभुक्त एव स मुनिर्निजमेवाऽऽश्रयं ययौ । तथैव मासक्षमणं भूयोऽपि प्रत्यपद्यत ॥५७|| कथञ्चित् तत्र चाऽऽयातो राजाऽपश्यत् पुनश्च तम् । स्मृत्वा निमन्त्रणं तच्च क्षमयामास चाटुभिः ॥५८ पुननिमन्त्रयामास विसस्मार पुनस्तथा । आगत्याऽभुक्त एव स्वं स्थानं स पुनरभ्यगात् ॥५९।। स्मृत्वा भूयोऽपि तं राजा क्षमयामास पूर्ववत् । न्यमन्त्रयत भूयोऽपि चुकोपाऽथ स तापसः ॥६०॥ तपसाऽनेन भूयासं वधायाऽस्य भवान्तरे । एवं कृत्वा निदानं सोऽनशनेन व्यपद्यत ॥६१॥ पासोऽथोग्रसेनभाया धारिण्या उदरेऽभवत् । तस्याश्च दोहदो जज्ञे पत्युः पलेलभक्षणे ॥६२।। १. ०भ्यारण्ये मु० र० । २. द्वितीयः खं०२, ला०, र० । द्वितीयं खं० १ । ३. पारणायत्ते मु० । ४. वैयावृत्ति सं० । ५. अतिसार-रोगी । ६. पानं गवेषयामीति ला० सू० । ७. ०प्रतिग्रहम् ला० र० । ०प्रतिश्रुतम् की० । ८. आग:-अपराधम् । ९. पाययिष्याम्यहं ला० । १०. नाऽसमर्थम् । ११. दुनोष्यान्दो० मु० । १२. वैयावृत्यं करोषि मु० । १३. विष्ठाम् । १४. नीरोगः । १५. तं त्रिः खं० २ । १६. वरं ता.सं. । १७. निर्गर्वः । १८. ततश्च्युत्वा सूर्यपुरे रूपसौन्दर्यभूरसौ की० पु० । १९. च खं०२ । २०. एकान्ते । २१. ०वाश्रमं खं० १,ला०,मु० । २२.०क्षपणं खं० २, सू० । २३. मांसभक्षणे ।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२१
दिने दिने क्षीयमाणा लज्जमाना च धारिणी । कथञ्चित् कथयामास तं पत्येऽधमदोहदम् ॥६३॥ राज्ञो ध्वान्तस्थितस्याऽथोदरे न्यस्य शशोमिषम् । छित्वा छित्वा प्रपश्यन्त्या देव्यास्तन्मन्त्रिणो ददुः ॥६४|| सा पूर्णदोहदा मूलप्रकृति पुनरागता । ऊचे कि जीवितव्येन ? किं गर्भेण विना पतिम् ? ॥६५॥ मर्तुकामां मन्त्रिणस्तामूचुर्यत्प्राप्तजीवितम् । स्वामिनं दर्शयिष्यामः सप्तरात्रेण ते पुनः ॥६६।। इत्थं स्वस्थीकृतायाश्च तस्या अहनि सप्तमे । तेऽदर्शयन्नुग्रसेनं सा चक्रे च महोत्सवम् ॥६७।। पौषकृष्णचतुर्दश्यां भद्रायां मूलगे विधौ । शर्वर्यां सुषुवे सूनुं सोग्रसेनमहिष्यथ ॥६८।। दोहदेनापि सा गर्भाद् भीता तं जातमात्रकम् । चिक्षेप कांस्यपेटायां कारितायां पुराऽपि हि ॥६९।। राजस्वनामाङ्कमुद्राद्वययुक्तां सपत्रिकाम् । सा दास्याऽक्षेपयद्रनपूर्णां तां यमुनाजले ॥७०॥ सूनुर्जातो मृतश्चेति राज्ञे राज्ञी शशंस च । नद्या निन्ये च मञ्जूषा द्वारे शौर्यपुरस्य सा ॥७१।। पप्रात: शौचार्थमायातः सुभद्रो रसवाणिजः । ददर्श कांस्यपेटां तां चकर्ष च बहिर्जलात् ॥७२।। पत्रिका-रत्नमुद्राभिः सहितं तं च बालकम् । 'बालेन्दुमिव तन्मध्ये स ददर्श सविस्मयः ॥७३। पेटादिना सहाऽऽदाय बालं नीत्वा च वेश्मनि । पुत्रत्वेनाऽऽर्पयन्निन्दोः स्वपत्न्या मुदितो वणिक् ॥७४॥ कंस इत्यभिधां तस्य चक्रतुस्तौ तु दम्पती । वर्धयामासतुस्तं च मधु-क्षीर-घृतादिभिः ॥७५॥ स वर्धमानः कलहशीलो डिम्भानकुट्टयत् । एयुश्च लोकोपालम्भा वणिजोः प्रत्यहं तयोः ॥७६।। ततस्ताभ्यां दशवर्षः सेवकत्वेन सोऽर्पितः । वसुदेवकुमारस्य सोऽभूत् तस्याऽप्यतिप्रियः ॥७७|| सोऽपठद् वसुदेवेन सहैव सकलाः कलाः । सममेव च चिक्रीड सममाप च यौवनम् ॥७८॥
वसुदेवकुमारश्च कंसश्च सहवर्तिनौ । एकराशिगतौ सौम्य-भौमाविव विरेजेतुः ॥७९॥ पाइतः शुक्तिमतीपुर्यां सुर्वसुर्वसुनन्दनः । नंष्ट्वा नागपुरे योगात् तत्पुत्रोऽभूद् बृहद्रथः ॥८०।। पुरे राँजगृहे सोऽगात् तत्र तत्सन्ततावभूत् । बृहद्रथो नाम नृपो जरासन्धश्चः तत्सुतः ॥८१॥ प्रतिविष्णुः प्रचण्डाशस्त्रिखण्डभरतेश्वरः । स दूतेनैवमादिक्षत् समुद्रविजयं नृपम् ॥८२।। वैताढ्यपर्वताभ्यणे पुरे सिंहपुरे नृपम् । दुःसहं सिंहवत् सिंहरथं बद्ध्वा समानय ॥८३।। तदानेतुश्च दास्यामि स्वां जीवयशसं सुताम् । अभीप्सितं किञ्चिदेकं पुरं च प्रवरद्धिकम् ॥८४।। समुद्रविजयं नत्वा वसुदेवोऽभ्ययाचत । तत्कर्तुं दुष्करमपि जरासन्धस्य शासनम् ॥८५।। समुद्रविजयोऽप्यूचे न युद्धावसरस्तव । कुमार ! सुकुमारस्य तदलं याच्चयाऽनया ॥८६॥ भूयोऽपि वसुदेवेन निर्बन्धाद् याचितो नृपः । बहीभिः सह सेनाभिः कथञ्चिद् विससर्ज तम् ॥८७|| पाद्रुतं च वसुदेवोऽगादभ्यागात् सोऽपि सम्मुखः । राजा सिंहरथो युद्धं द्वयोश्च ववृते महत् ॥८८।। व्यैद्रावयत् सिंहरथो वसुदेवस्य तां चमूम् । वसुदेवः स्वयं योद्धं डुढौके कंससारथिः ॥८९।। युयुधाते ततश्चोभौ विविधैरायुधैश्चिरम् । सुरा-ऽसुराविवाऽमर्षादन्योऽन्यं जयकाक्षिणौ ॥१०॥ हित्वाऽथ कंस: सारथ्यं परिघेने महीयसा । दृढं सिंहरथरथं मह्वभाङ्क्षीन् महाभुजः ॥९१॥ १. अन्धकारे स्थितस्य । २. शशमांसम् । ३. पूर्णप्रकृति खं० १ । ४. सुस्थीकृतायास्तु खं० १ । ५. भद्रया ला० । ६. मूलनक्षत्रगते चन्द्रे । ७. पुत्रो जातो पु० । ८. जालेन्दु० सू० । ९. निन्दुः मृतापत्यजननी। १०. बालान् । ११. बुध-मङ्गलग्रहौ । १२. विचेरतुः खं० १ । १३. ०पुर्याः खं० १, ला० । १४. नवमो वसुनन्दनः खं० १, ला०पा०ला० २,आ०,मु० । १५. सो० खं० २ । १६. ०महारथः ला० । १७. राजपुरे ला०पा. । १८. जयद्रथो० मु० । जयरथो० ता.सं.ला० २ । १९. ०सन्धोऽस्य चात्मजः खं० २, ला० मु० । २०. तमानय खं० २ । २१. आग्रहात् । २२. गादथागात् खं० २; ला०आ.मु० ला १ विना च । २३. राजसिंहरथो० सं. ता०पु० छा० । २४. द्वयोः प्रववृते खं० २ । ०श्च ववृधे ता०सं०ला. १-२ । २५. 'अत्रासयत्' लाटि. । २६. ०ऽन्यजय० खं० २ । २७. परिघेण मु० । २८. ०रथमभाक्षीच्च ला० । खं० २ संज्ञकप्रतौ टिप्पणी - यदु, सूर, शौरि, अन्धगवृष्णि, समुद्रविजयाद्या; नेमिः वसुदेव, वासुदेव ॥ यदु, सूर, सुवीर, भोजवृष्णि, उग्रसेन, राजीमती ।।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
कंसं हन्तुं सिंहरथश्चकर्षाऽसिं ज्वलन् कुधा । त्सरुदेशे क्षुरप्रेण वसुदेवश्चकर्त्त च ॥९२॥ छागं वृक इवोत्क्षिप्य बद्ध्वा सिंहरथं ततः । वसुदेवरथेऽक्षैप्सीत् कंसश्छलबलोत्कटः ॥९३॥ भने सिंहरथानीके वार्ष्णेयोऽपि ततो जयी । आदाय तं सिंहरथं क्रमेण स्वपुरं ययौ ॥९४ || वसुदेवं रहस्यूचे समुद्रविजयो नृपः । यद् ज्ञानी क्रोष्टुकिंर्नामाऽशंसन् मम हितं ह्यः ॥९५॥ जरासन्धस्य कन्येयं नाम्ना जीवयशा इति । अलक्षणा पति- पितृकुलक्षयकरी खलु ॥ ९६ ॥ जरासन्धः सिंहरथानयने पारितोषिके । तां ते दास्यति तत्त्यागोपायः कोऽपि विभाव्यताम् ॥९७॥ प्रत्यूचे वसुदेवोऽपि कंसः सिंहरथं रणे । बद्ध्वाऽनैषीत् ततस्तस्मै देया जीवयशाः खलु ॥९८॥ राजाऽप्यूचे वणिक्पुत्र इति तां स न लप्स्यते । विक्रमात् क्षत्रिय इव परमेषं विभाव्यते ॥९९॥ धर्मं दत्त्वऽन्तरे राज्ञा पृष्टोऽथ रसवाणिजः । कंसस्य शृण्वतोऽप्यख्यात् कंसवृत्तान्तमादितः ॥१००॥ ते उग्रसेन-धारिण्योर्मुद्रिके पत्रिकामपि । सुभद्रोऽथाऽऽर्पयद्राज्ञे पत्रिकां सोऽप्यवाचयत् ॥१०१॥ 'उग्रसेनसधैर्मिण्या धारिण्या दोहदादपि । भीतया स्वपतिं त्रातुं त्यक्तः प्राणप्रियः सुतः ॥ १०२ ॥ नाममुद्रासमेतोऽसौ सर्वाभरणभूषितः । क्षिप्त्वाऽन्तः कांस्यमञ्जूषं यमुनायां प्रवाहितः' ॥१०३॥ वाचयित्वेति 'राज्ञोचे यादवोऽयं महाभुजः । औग्रैसेनिरितरथा वीर्यं स्यात् कथमीदृशम् ? ||१०४|| कंसेन सह राजाऽथ जरासन्धार्धचक्रिणे । गत्वाऽर्पयत् सिंहरथमथाऽऽख्यत् कंसविक्रमम् ॥१०५॥ कंसायाऽदाज्जरासन्धः स्वां जीवयशसं सुताम् । पुरीं च मथुरां तेन पितृरोषेण याचिताम् ॥१०६॥ जरासन्धार्पितबलो मथुरायामुपेत्य च । कंसो नृशंसः पितरं बद्ध्वा चिक्षेप पञ्जरे ॥१०७॥ उग्रसेनस्य चाऽभूवन्नतिमुक्तादयः सुताः । अतिमुक्तः पितृदुःखात् प्रव्रज्यामाददे तदा ॥ १०८॥ आनाय्य शौर्येनगरात् सुभद्रं रसवाणिजम् । कृतज्ञमानी सच्चक्रे कंसः स्वर्णादिदानतः ॥१०९॥ अबद्धा धारिणी 'तूंचे कंसं स्वपतिमुक्तये । कथञ्चिदपि तद्वाचा पितरं व्यमुचन्न सः ॥ ११० ॥ मयाऽयं कांस्यपेटायां क्षिप्त्वा नद्यां प्रवाहितः । नोग्रसेनो विवेदेदं निरागों सर्वथा ह्यसौ ॥ १११ ॥ सापराधाऽहमेवेह मोच्यतामेष मे पतिः । इत्यन्वहं कंसमान्यान् गृहेष्वेत्य जगाद सा ॥ ११२ ॥ युग्मम् ॥ तेषामपि गिरा कंस उग्रसेनं मुमोच न । पूर्वजन्मनिदानं हि नाऽन्यथा जातु जायते ॥११३॥ | जरासन्धेन सत्कृत्य विसृष्टः स्वपुरं ययौ । राजा समुद्रविजयोऽप्यन्वितो भ्रातृभिर्निजैः ॥ ११४॥ वसुदेवं शौर्यपुरे भ्रम्यन्तं सर्वदाऽन्वयुः । मन्त्राकृष्टा इव भृशं पौर्य: सौभाग्यमोहिताः ॥११५॥ स्कार्मणसौभाग्यः क्रीडयेतस्ततो भ्रमन् । निनाय कालं कमपि समुद्रविजयानुजः ॥ ११६॥ अन्येद्युरेत्य राजानं रहस्यूचे महाजनः । वसुदेवस्य रूपेणाऽमर्यादः स्त्रीजनोऽभवत् ॥११७॥ वसुदेवं यैकदाऽपि पश्येत् सा विवशैव हि । भूयो भूयः सञ्चरन्तं याः पश्यन्ति कथं नु ताः ? ॥११८॥ ईप्सितं वः करिष्यामीत्युक्त्वा तान् व्यसृजन्नृपः । वसुदेवाय नाऽऽख्येयमित्यूचे चे' परिच्छदम् ||११९॥ अपरेद्युर्वसुदेवं नमस्कर्तुमुपागतम् । निजोत्सङ्गं समारोप्य समुद्रविजयोऽवदत् ॥१२०॥ क्रीडापर्यटनेनाऽपि कृशीभूतोऽसि तद्दिवा । बहिर्न गम्यं भवता स्थेयं मद्गृह एव हि ॥ १२१ ॥ कला गृहाणाऽभिनवाः प्रागधीताश्च संस्मर । भविष्यति विनोदस्ते वत्स ! गोष्ठ्या कलाविदाम् ॥१२२॥ १. त्सरुः खड्गमुष्टिः । २. वसुदेवः । ३. ०किर्नामाचख्यौ खं० १, ला०मु० । ४. कन्यैषा खं० २ । ५. ० तोषिकम् ला० आ० मु० विना; खं० २ विना । ६. ०यशास्ततः ला०आ. मु० खं० १ विना । ७. लिप्सते मु० । ८. धनं ता०सं० । ९. धर्मस्य शपथं दत्त्वा इत्यर्थः। १०. पृष्टोऽसौ ता.सं. । ११.० प्याख्यत् खं० २, ला०सू० । १२. धारिण्यामु० मु० । १३. पत्न्या । १४. राजोचे पा०ला १-२, आ०खं० १-२, ला० विना । १५. कंसः । १६. पुरं ला० । १७. सौर्य० खं०२ । १८ अन्यदा पु० । १९. ऊचे खं० १ । ०त्यूचे ला० । २०. निरपराधः । २१. भ्रमन्तं ला०मु०खं० १ २, ला० सू० । २२. नगरस्त्रियः । २३. स्त्रीणां कार्मणे - आकर्षणे सौभाग्यवान् । २४ तु मु० । २५ वः ला०मु० ।
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(अष्टमं पर्व
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
आमेत्युक्त्वा वसुदेवो विनीतोऽस्थात् तथैव हि । विनोदैर्गीतनृत्ताद्यैदिवसानतिवाहयन् ।।१२३।। तत्राऽऽपतन्ती सोऽन्येद्यं कुब्जिकां गन्धधारिणीम् । पप्रच्छाऽयं कस्य कृते गन्धः ? साऽप्येवमब्रवीत् ॥१२४।। गन्धद्रव्यं कुमारेदं शिवादेव्याऽधुना स्वयम् । श्रीमत्समुद्रविजयनिमित्तं प्रेषितं खलु ॥१२५।। ममाऽप्युपकरोत्येतदिति जल्पन् जहार तत् । गन्धद्रव्यं वसुदेवकुमारो नर्मलीलया ॥१२६।। सरोषा साऽप्युवाचैवं चरितेनाऽमुनैव हि । नियन्त्रितस्तिष्ठसीह तेनाऽप्यूचे कथं न्विति ? ॥१२७।। साऽऽचख्यौ भीतभीता च पौरवृत्तान्तमादितः । रहस्यं खलु नारीणां हृदये न चिरं स्थिरम् ॥१२८।। पौरीभ्यः स्वं रोचयितुं वसुदेवो भ्रमत्यसौ । एवं मां मन्यते राजा कृतं वासेन मेऽत्र तत् ॥१२९।। एवं विचिन्त्य तां दासी विसृज्य च दिनात्यये । कृत्वा गुटिकया वेषान्तरं स निरगात् पुरात् ॥१३०॥ युग्मम् ।। बहिर्गत्वाऽकरोच्चित्यां श्मशानासन्नदारुभिः । अनाथं मृतकं कैञ्चिज्ज्वालयामास तत्र च ॥१३१॥ गुरूणां क्षमणार्थं तु स्तम्भे चैकत्र पत्रकम् । लिखित्वा निजहस्तेन वसुदेवो व्यलम्बयत् ॥१३२।। 'दोषत्वेनाऽभ्यधीयन्त गुरूणां यद्गुणा जनैः । इति जीवन्मृतंमन्यो वसुदेवोऽनलेऽविशत् ॥१३३।। ततः सन्तमसन्तं वा दोषं मे स्ववितकितम् । सर्वे सहध्वं गुरवः । पौरलोकाश्च मूलतः ॥१३४।। इति कृत्वा वसुदेवं विप्रवेषमवर्त्मना । भ्रान्त्वा सन्मार्गगं दृष्ट्वा रथस्था काचिदङ्गना ॥१३५॥ पितृवेश्म व्रजन्त्यम्बामूचे श्रान्तममुं द्विजम् । आरोपय रथे, साऽपि तत्कृत्वा ग्राममासदत् ॥१३६।। युग्मम् ।। तत्र च स्नात-भुक्तः स सायं यक्षगृहं गतः । वसुदेवः प्रविष्टोऽग्निमिति विज्ञाय यादवाः ॥१३७।। क्रन्दन्तः सपरीवारा: प्रेतकार्याणि चक्रिरे । श्रुत्वेति वार्ता निश्चिन्तो विजयखेटेऽगात्पुरे ॥१३८।। सुग्रीवस्तत्र राजाऽभूत् तस्य चोभे कलाविदौं । श्यामा-विजयसेनाख्ये कन्ये अतिमनोरमे ॥१३९।। पर्यणैषीद् वसुदेवः कलाजयपणेन ते । रममाण: समं ताभ्यां तत्र चाऽस्थाद् यथासुखम् ॥१४०॥ पत्न्यां विजयसेनायामक्रूरो नाम नन्दनः । तत्राऽभूद् वसुदेवस्य वसुदेव इवाऽपरः ॥१४१॥ ततोऽपि प्रस्थितः प्रापदतिघोरां महाटवीम् । जलार्थी तत्र वार्ष्णेयो जलावर्तं ययौ सरः ॥१४२॥ दधावे तत्र कोऽपीभो विन्ध्याद्रिरिव जङ्गमः । खेदयित्वा कुमारस्तमारुरोह मृगेन्द्रवत् ॥१४३॥ गजारूढं च तं दृष्ट्वाऽचिर्मालि-पवनञ्जयौ । खेचरौ कुञ्जरावर्तोद्याने नीत्वा व्यमुर्खताम् ॥१४४।। तत्र विद्याधराधीशोऽशनिवेगः स्वकन्यकाम् । श्यामां नाम ददौ तस्मै रेमे च स तया सह ॥१४५॥ वीणावाद्येन वार्ष्णेयस्तस्यास्तुष्टो ददौ वरम् । अवियोगस्त्वया मे स्तादित्ययाचत साऽपि हि ॥१४६।। पार्किकारणो वरोऽसावित्युदिते तेन साऽब्रवीत् । वैताढ्ये किन्नरगीते पुरेऽचिर्माल्यभून्नृपः ॥१४७।। तस्याऽभज्ज्वलनवेगो-ऽशनिवेगश्च नन्दनौ । विन्यस्य ज्वलनं राज्येऽचिौली व्रतमाददे ||१४८।। ज्वलनस्य विमलायां सूनुरङ्गारकोऽभवत् । अहं त्वशनिवेगस्य दुहिता सुप्रभाभवा ॥१४९।। ज्वलनोऽप्यशनिवेगं राज्ये न्यस्य दिवं ययौ । विद्याबलात् तं निर्वास्य राज्यमारकोऽग्रहीत् ॥१५०॥
मत्पिताऽष्टापदेऽथाऽगात् तत्रैकं चारणं मुनिम् । पप्रच्छाऽऽङ्गिरसं नाम राज्यं मे भावि किं न वा ? ॥१५१॥ पामुनिराख्यत् त्वद्दुहितश्यामाभर्तृप्रभावतः । राज्यं ते भावि स ज्ञेयो जलावर्तेभनिर्जयात् ॥१५२।।
मुनिवाक्प्रत्ययादस्थान्निवेश्याऽत्र पुरं पिता । प्रैषीद् द्वौ खेचरौ तत्र जलावर्ते सदैव हि ॥१५३।। जित्वाऽऽरूढो गजं ताभ्यां प्रेक्ष्याऽऽनीतस्त्वमत्र च । मत्पित्राऽशनिविगेन मया चोद्वाहितः प्रभो ! ॥१५४॥ पापुरा च धरणेन्द्रेण नागेन्द्रेण महात्मना । विद्याधरैश्च सम्भूय सैमयोऽयं प्रतिष्ठितः ॥१५५।। १. नृत्या० मु० र० । २. तामप्यूचे सं. १ । ३. किञ्चि० खं० १-२ । ४. क्षामणार्थं ला० । ५. वसुदेवो ला०सू० । ६.
वेषोऽन्य वर्त्मना सू० । अवर्त्मना-उन्मार्गेण । ७. व्रजन्ती स्वानूचे सू० । ८. रुदन्तः पा०ला०१, आ. । ९. कलाविदे खं० १ । १०. कलासु जय एव पण:-प्रतिज्ञा,तेन । ११. व्यमुञ्चतम् खं०२,सू० । १२. एतादृशवरयाचने किं कारणम् । १३. किन्नरागीते खं० २ । १४. ज्वलनस्याचिमालायां ला १ । १५. ०प्रत्ययात्तस्थौ मु० । १६. आचारः ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
अर्हच्चैत्यसमासन्नं सस्त्रीकं साधुपार्श्वगम् । यो हनिष्यति सद्विद्योऽप्यविद्यः स भविष्यति ॥१५६।। इत्यस्मात् कारणात् स्वामिन्नवियोगो वृतो मया । मा व एकाकिनः पापोऽङ्गारकः प्रमथीदिति ॥१५७॥ प्रतिपद्येति तद्वाचं दशमोऽन्धकवृष्णिभूः । तया सह कलाभ्यासविनोदैः कालमत्यगात् ॥१५८॥ पातया सहाऽन्यदा सुप्तं तं जहेऽङ्गारको निशि । प्रबुद्धो वसुदेवोऽपि को मां हर्तेत्यचिन्तयत् ॥१५९।।
अङ्गारकं स प्रैक्षिष्ट श्यामाननसमाननम् । श्यामां च तिष्ठ तिष्ठेति जल्पन्तीमसिधारिणीम् ॥१६०॥ तामङ्गारो द्विधाऽकार्षीद् वसुदेवश्च पीडितः । द्वे श्यामे अभितोऽङ्गारं युद्ध्यमाने ददर्श च ॥१६१॥ इयं मायेति निश्चित्य वसुदेवोऽथ मुष्टिना । जघानाऽङ्गारकं मूनि पविनेवाऽचलं हरिः ॥१६२॥ प्रहारार्तेन वार्ष्णेयस्तेन मुक्तो नभस्तलात् । पपात पुर्याश्चम्पाया बहि: सरसि विस्तृते ॥१६३।। तत्सरो हंसवत् ती| तत्तीरोपवनस्थितम् । वसुदेवो वासुपूज्यायतनं प्राविशत् सुधीः ॥१६४॥ श्रीवासुपूज्यं वन्दित्वा निशाशेषमतीत्य च । ययौ स चम्पामेकेन मिलितेन द्विजन्मना ।।१६५।। वीणापाणीस्तत्र यूनः स्थाने स्थाने निरीक्ष्य सः । द्विजं पप्रच्छ तद्धेतुं द्विजोऽप्येवमभाषत ॥१६६।। श्रेष्ठीह चारुदत्तोऽस्ति तस्य रूपवती सुता । नाम्ना गन्धर्वसेनेति कलानामेकमास्पदम् ॥१६७।। गान्धर्वे यो विजेता मे स भर्तेति प्रतिश्रवः । तस्यास्तेनैष सर्वोऽपि गान्धर्वनिरतो जनः ॥१६८॥ मासे मासे च सुग्रीव-यशोग्रीवाभिधानयोः । गान्धर्वाचार्ययोरग्रेऽनुयोगोऽत्र प्रवर्तते ॥१६९॥ प्रकृष्टं तत्र सुग्रीवं विप्ररूपेण वृष्णिः । गत्वोवाच स्कन्दिलोऽहं विप्रो गौतमगोत्रजः ॥१७०।। अहं गन्धर्वसेनार्थी गान्धर्वं तव सन्निधौ । अध्येष्ये प्रतिपद्यस्व शिष्यं मां दूरदेशिनम् ॥१७१।। तं मूर्ख इति सुग्रीवोऽनादरेण समीपगम् । चकार मन्दधीधूलिच्छत्ररत्नमिवाऽविदन् ॥१७२।। वार्ष्णेयो हासयन् लोकान् ग्राम्योक्त्या स्वं च गोपयन् । गान्धर्वाध्ययनव्याजात् तस्थौ सुग्रीवसन्निधौ ॥१७३॥ सुग्रीवभार्यया वाददिने शौरेः समर्पितम् । वासोयुग्मं सुतस्येव स्नेहाद् विशदशोभनम् ॥१७॥ प्राश्यामादत्तनेपथ्यं तच्च वासोद्वयं नवम् । पर्यधत्त वसुदेवो जनयन् जनकौतुकम् ॥१७५॥ एहि मन्येऽद्य गन्धर्वसेनां जेष्यसि विद्यया । अतिगान्धर्वविज्ञोऽसीत्यहस्यत स नागरैः ॥१७६।। तन्नर्मभिः प्रीयमाणः स ययौ तत्र पर्षदि । सोपहासैनरैरुच्चासनमध्यास्यते स्म च ॥१७७|| गन्धर्वसेना तत्राऽऽगाद् भूचरीव द्युसद्वधूः । सा गन्धर्वविदोऽजैषीद् बहून् स्व-परदेशिनः ॥१७८।। स्वस्य वादक्षणे प्राप्ते समुद्रविजयानुजः । आविश्चक्रे निजं रूपं कामरूपसुरोपमः ॥१७९।। गन्धर्वसेना तद्रूपं प्रेक्ष्य चुक्षोभ तत्क्षणात् । जनो विसिष्मिये सर्वः कोऽसाविति वितर्कयन् ॥१८०॥ लोकैर्या याऽर्पिता वीणा तां तां सोऽदूषयत् सुधीः । गन्धर्वसेना स्वां वीणां ततस्तस्याऽऽर्पयत् स्वयम् ॥१८१॥ सज्जयित्वा च तां वीणां स ऊचे सुभ्र ! कि मया । अनया वीणया गेयं ? साऽप्येवं प्रत्यवोचत ।।१८२॥ मुनेर्विष्णुकुमारस्य पद्मचक्रयग्रॅजन्मनः । त्रिविक्रमाभिसम्बद्धं गीतं गीतज्ञ ! वादय ॥१८३॥ तथा जगौ च वार्ष्णेयः पुंवेषेव सरस्वती । यथा जिगाय गन्धर्वसेनां पार्षद्यसम्मतम् ॥१८४।। चारुदत्तस्ततः श्रेष्ठी व्यसृजद् वादिनोऽखिलान् । स्वगृहे वसुदेवं च गौरवेणाऽनयत् स्वयम् ॥१८५॥ विवाहकाले श्रेष्ठ्यूचे गोत्रमुद्दिश्य वत्स ! किम् ? । स्वकन्यासम्प्रदानं ते करोमि ब्रूहि सुन्दर ! ॥१८६।। १. मैवमेका० ला० । २. स वधीदिति मु० । ३. ०वृष्णिसूः मु० सं. १, ला० । ४. श्यामाननः कपिः, तेन समं आननं यस्य । ५. ०ङ्गारकमूनि खं० १, ला०, मु० । ६. इन्द्रः । ७. ०पाणीन् जनांस्तत्र ला० । ८. गन्धर्वे ता. सं. ला० १, पु. । ९. गान्धर्वे नि० खं० २ । सङ्गीते । १०. गन्धर्वा० खं० २ । ११. परीक्षा । १२. प्रकृष्टस्तत्र खं० २ । १३. विप्रवेषेण ला०मु०, खं० १-२, ला० सू० । १४. वृष्णिभूः सू० । १५. ०धूलिच्छन्नं रत्न० खं० २, ला० । १६. गन्धर्वा० खं० २ । १७. पर्यधात् की० । १८. जेष्यति खं० १ । १९. ०र्वविद्योऽसी० ता. सं. । २०. उपहासैः । २१. सः मु० । २२. देवाङ्गना । २३. गान्धर्व० ला० । २४. कामरूपं मु० । २५. ०पमम् ता० सं०की०ला०पा०म० । २६. पद्मनामकस्य चक्रिणो ज्येष्ठबन्धोः । २७. ०नुजन्मनः ता०सं०की० । २८. पार्षद्यसंयुताम् मु० ।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
स्मित्वोचे वसुदेवोऽपि वद यत् ते मतं कुलम् । श्रेष्ठ्यप्यूचे वणिक्पुत्रीत्यदस्ते स्मितकारणम् ॥१८७।। समये कथयिष्यामि पुत्र्या वृत्तान्तमादितः । इत्युक्त्वाऽकारयच्छ्रेष्ठी विवाहं वर-कन्ययोः ॥१८८।। तौ सुग्रीव-यशोग्रीवौ स्वे श्यामा-विजयाद्वये । कन्यके वसुदेवाय ददतुर्गुणरञ्जितौ ॥१८९॥
अपरेधुर्वसुदेवं चारुदत्तोऽब्रवीदिति । शृणु गन्धर्वसेनायाः सर्वमद्य कुलादिकम् ॥१९०॥ पाइहैव पुयाँ श्रेष्ठ्यासीद् भानु म महाधनः । तस्य भार्या सुभद्रेति तावपुत्रत्वदुःखितो ॥१९१।। सुतजन्माऽन्यदा पृष्टस्तकाभ्यां चारणो मुनिः । भावीत्याख्याय स ययौ क्रोच्चाऽहं सुतोऽभवम् ॥१९२॥ मित्रैः सहैकदा क्रीडन्नपश्यं सिन्धुरोधसि । आकाशगामिन: कस्याऽप्यहिन्यासं मनोहरम् ॥१९३॥ स्त्रीपदैः सप्रिय इति ज्ञातोऽसावग्रतोऽपि च । रम्भागृहं पुष्पतल्पं फलका-ऽसी च दृष्टवान् ॥१९४॥ तत्राऽदूरे लोहकीलैः खेचरं कीलितं द्रु) । अद्राक्षं तदसे: कोशे चौषधीवलयत्रयम् ॥१९५।।
स तु तास्वेकयौषध्या स्वबुद्ध्या मोचितो मया । संरोहितोऽन्ययाऽकारि चेतनस्तु तृतीयया ॥१९६।। पास मामवोचद् वैताढये नगरे शिवमन्दिरे । महेन्द्रविक्रमनृपात्मजोऽमितगतियहम् ॥१९७।।
सुहृदा धूमशिखेन गौरमुण्डेन चाऽन्वितः । अहं क्रीडन्नेकदाऽगां हीमन्तं वरपर्वतम् ॥१९८॥ हिरण्यरोम्नस्तत्राऽहं स्वमातुलतपस्विनः । कुमारी दृष्टवान् रम्यां नामतः सुकुमालिकाम् ।।१९९।। गतः स्मरातः स्वं स्थानं मित्राद् ज्ञात्वा च मां तथा । पित्रा सद्यः समानाय्य तयाऽहं परिणायितः ॥२००।। रममाणस्तया सार्धमहमस्थामथाऽन्यदा । अभिलाषी धूमशिखस्तस्यां ज्ञातो मयेङ्गितैः ॥२०१॥ तथाऽप्यहं तेन सह व्यहार्षमिह चाऽऽगतः । प्रमत्तः कीलितस्तेन हृता च सुकुमालिका ॥२०२॥ भवता मोचितश्चास्मि ब्रहि किं करवाणि ते? । तवाऽकारणमित्रस्य येन स्यामनणः सखे ! ॥२०३।।
अहं त्वदर्शनेनाऽपि कृतकृत्योऽस्मि सुन्दर ! । एवं मया भाषितोऽथ सोऽगादुत्पत्य खेचरः ॥२०४॥ पाअहं च गतवान् वेश्म मित्रैः क्रीडन् यथासुखम् । क्रमाच्च यौवनं प्राप्तः पित्रोर्नेत्रोत्सवं ददत् ॥२०५।। सर्वार्थमातुलसुतां नाम्ना मित्रवतीमहम् । ततः पित्रोनिदेशेन शुभेऽह्नि परिणीतवान् ॥२०६॥ कलासक्तश्च तस्यां नाऽभूवं भोगपरायणः । तथा दृष्ट्वा पितृभ्यां च मुग्धोऽसाविति तकितः ॥२०७॥ ललितायां ततो गोष्ठ्यामहं वैदग्ध्यहेतवे । क्षिप्तः पितृभ्यां व्यचरं स्वैरं चोपवनादिषु ॥२०८॥ कलिङ्गसेनादुहितुः सदने विलसन्नहम् । वसन्तसेनावेश्याया द्वादशाब्दानि तस्थिवान् ॥२०९॥ व्ययितास्तत्र चाऽज्ञानात् षोडश स्वर्णकोटयः । कलिङ्गसेनया निःस्व इति निर्वासितोऽस्मि च ॥२१०॥
मृत्युं ज्ञात्वा ततः पित्रो१ःस्थो धैर्यं प्रपद्य च । वाणिज्यार्थं स्वभार्याया भूषणानि गृहीतवान् ॥२११॥ पामातुलेन सहाऽन्येधुश्चलितो भूषणैस्तु तैः । शीरवर्तिनगरे कसं क्रीतवानहम् ॥२१२॥
तोमलिप्त्यां गच्छतो मे स कर्पासो दवाग्निना । दग्धो निर्भाग्य इति च मातुलेनाऽहमुज्झितः ॥२१३।। पाअश्वारूढस्ततश्चैकोऽप्यचलं पश्चिमां-प्रति । विपन्नः सोऽपि चाऽश्वो मे पादचारी ततोऽभवम् ॥२१४|| द्राँघीयसाऽध्वना क्लान्तः क्षुत्-पिपासाकरालितः । अगां प्रियङ्गनगरं वणिग्जनसमाकुलम् ॥२१५॥ दृष्टः सुरेन्द्रदत्तेन पितृमित्रेण तत्र च । पुत्रवद् वस्त्र-भोज्याद्यैः सत्कृतोऽस्थां यथासुखम् ॥२१६॥ वृद्ध्याऽऽदाय द्रव्यलक्षं वार्यमाणोऽपि तेनं च । धनायोपात्तभाण्डोऽहं यानेनाऽविशमम्र्बुधौ ॥२१७।। प्राप्याऽथ यमुनाद्वीपमन्तीप-पुरादिषु । कुर्वन् गतागतं स्वर्णकोटिरष्टाऽहमार्जयम् ॥२१८|| पाततः स्वदेशाभिमुखं चलितोऽहं जलाध्वना । स्फुटितं यानपात्रं च फलकं चैकमासदम् ॥२१९॥ १. ०र्नामा खं० १ । २. क्रमात्त्वहं मु० । ३. समुद्रतीरे । ४. वीक्षिताः खं० २, सू०, ता.सं.ला० । वीक्षितम् पा० आ० । ५. वृक्षेण । ६. व्रणरहितः । ७. ०रोम्ण० खं० २ । ८. स्वस्थानं खं० १ । ९. ०श्चास्मिन् खं० १।१०. करवाण्यतः छा० की० ला २, मु०। ११. व्यचरं पितृभ्यां खं० ११ १२. निर्धनः । १३. वाणिज्यार्थं मु० । १४. उसीरवर्ते न० खं० २ । १५. ताम्र० मु० । १६. ततोऽचरम् ता०सं० । १७. अतिदीर्घेण । १८. 'व्याज' इति भाषायाम् । १९. तत्र खं० २ । २०. पोतेना० ला० । २१. ०मम्बुधिम् मु०।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
सप्तभिर्वासरैस्तेन तीर्णवानहमम्बुधिम् । उर्दुम्बरावतीवेलं नाम तीरमुपोगमम् ॥२२०।। तत्र राजपरं नाम कथमप्याप्तवान् पुरम् । बहिस्तस्याऽऽश्रमपदे गतोऽस्म्यद्दामपादपे ॥२२१।। त्रिदण्डिनं दिनकरप्रभ इत्यभिधानतः । तत्राऽद्राक्षं परिव्राजं तस्याऽऽख्यं स्वकुलादिकम् ।।२२२।। पातेन चाऽस्म्युपचरितः पुत्रवत् प्रीतचेतसा । अन्येधुर्भणितश्चाऽहं धनार्थीव विभाव्यसे ।।२२३।। तदेहि वत्स ! गच्छावः पर्वतं तत्र ते रसम् । दास्यामि येन कनककोटयः स्युर्यथारुचि ॥२२४॥ एवं चोक्तस्तेन समं चलितोऽहं प्रमोदभाक् । अनेकसाधकां प्राप्तोऽस्म्यपरेऽह्नि महाटवीम् ॥२२५।। गच्छन्तौ तस्य शैलस्य नितम्बेऽथ महाबिलम् । बयन्त्रशिलाकीर्णं गतौ यममुखोपमम् ॥२२६।। मन्त्रेणोद्धाटयामास तद् द्वारं स त्रिदण्डिकः । प्रविष्टौ दुर्गपातालाभिधानं तन्महाबिलम् ॥२२७।। भ्रान्त्वा तत्र बहु प्राप्तौ कूपं रसनिकेतनम् । चतुर्हस्तप्रविस्तारं नरकद्वारदारुणम् ।।२२८।। कूपान्तः प्रविशाऽऽदत्स्वाऽलाबुना रसमित्यहम् । उक्तस्तद्धतरज्ज्वाऽथ कूपे मञ्चिकयाऽविशम् ॥२२९।। चतुष्पुरुषपर्यन्ते मेखलापरिवारितः । दृष्टो मया रसस्तत्र निषिद्धश्चाऽस्मि केनचित् ।।२३०॥ अवोचमहमप्येवं चारुदत्तोऽस्मि वाणिजः । प्रवेशितो भगवता रसाथ किं निषेधसि ? ॥२३१।। सोऽप्यवोचद् वणिगस्मि धनकाङ्क्षी त्रिदण्डिना । तेन क्षिप्तो रसकूपे बलये पशुमांसवत् ।।२३२॥ सोऽगात् पापोऽपरेकायो भक्षितश्च रसेन मे । मा विशस्तदिहाऽलाबुन्यहं क्षेप्स्यामि ते रसम् ॥२३३।। ततो मयाऽर्पितालाबु पूरयित्वा रसेन सः । अबध्नान् मञ्चिकाधस्ताद् रज्जु चाऽहमकम्पयम् ।।२३४॥ रज्जुमकर्षद् भगवांस्तटासन्नगतं से माम् । अयाचद्रसपात्रं तन्न चोत्तारयति स्म सः ॥२३५।। तं च लुब्धं द्रोहिणं च ज्ञात्वा कूपेऽक्षिपं रसम् । समञ्चिकं सोऽक्षिपन् मां तत्र वेद्यामथाऽपतम् ॥२३६।। स चाकारणबन्धुमिभाषत विषीद मा । रसान्तन गतोऽसि त्वं साधु वेदौ स्थितोऽसि च ॥२३७।। यदा तदाऽत्रैति गोधा तत्पुच्छमवलम्ब्य भोः ! । गन्तव्यं भवता द्वारे प्रतीक्षस्व तदागमम् ।।२३८।। कालं कियन्तमप्यस्थां नमस्कारं गुणन्मुहुः । स्वस्थस्तद्वचसा चाऽहं पुमान् सोऽपि व्यपद्यत ॥२३९।। अन्यदा शब्दमश्रौषं भीषणं चकितस्त्वहम् । स्मृत्वा च तद्वचोऽवेदं सा गोधाऽऽयाति निश्चितम् ॥२४०।। साऽऽगात् पातुं रसं तस्या वलिताया महौजसः । उभाभ्यामपि हस्ताभ्यां लाङ्गले लग्नवानहम् ।।२४१।। गोपाल इव गोपुच्छलग्नो नद्यास्ततोऽवीत् । तत्पुच्छलग्नो निरगां तत्पुच्छं चाऽमुचं बहिः ॥२४२।। मूच्छितश्चाऽपतं भूमौ लब्धसंज्ञोऽथ पर्यटन् । प्राप्तोऽस्म्यरण्यॆमहिषेणाऽऽरूढश्च शिलामहम् ॥२४३।। ताडयंस्तुङ्गशृङ्गेण तां शिलां महिषोऽथ सः । गृहीतो वाहसेनाऽऽशु कीनाशस्येव बाहुना ॥२४४।। तयोर्युद्व्यग्रयोश्चाहं समुत्तीर्य पलायितः । वेगेन गतवान् ग्राममटवीप्रान्तवर्तिनम् ॥२४५।। पातत्र मातलमित्रेण रुद्रदत्तेन वीक्षितः । पालितश्चाथ भूयोऽपि पुनर्नव इवाऽभवम् ।।२४६।। गृहीत्वाऽलैंक्तकप्रायं भाण्डं तुच्छमहं ततः । अचालिषं तेन सह स्वर्णभूमिं प्रति द्रुतम् ।।२४७|| इषुवेगवतीं नाम पथि चोत्तीर्य निम्नगाम् । गिरिकूटे गतावावां ततो वेत्रवने क्रमात् ॥२४८।।
प्राप्तौ टङ्क्षणदेशं च गृहीत्वा द्वौ च मेषकौ । तदारूढा-वजपथं" कान्तवन्तौ ततः परम् ॥२४९।। १. उदम्बरा० पा.की.आ.पु.मु० । २. मुपागतः खं० २ । ३. राजपुरी खं० १, ला० । ४. स्वं कुलादि च सू० । स्वकुलादि च खं० १, ला० । ५. धनार्थीति खं० २ । ६. अनेकश्वापदां ला० । ७. ० स्म्यपराह्ने ला० । ८. प्रविष्टो खं० २, ला० । ९. प्राप्तो खं० १ । प्राप्तः ला० । १०. तुम्बिकया ! ११. रसार्थे खं० २, सू० । १२. ०पापः परं कायो ला० । मम अध:शरीरम् । १३. रज्जु चकर्ष ला०आ., खं० १, ला० सू०म० । १४. ०स्तटासन्नं ला०पा०ला० २ मु० । १५. च खं०१, ला० । १६. माम् मु० । १७. ०ाँ वणिगूचे खं० १, सू०म० । १८. नमस्कारपरायणः ता. । १९. गुणन् मु०र० । २०. तद्वचो दध्यौ ला० । २१. तस्याश्चलि० ला० । २२. कूपात् । २३. प्राप्तोऽस्म्यरण्यं मु० । २४. ०स्तुण्ड० ता०सं० छा०ला० २, खं० १-२, ला०सू० । २५. 'अजगरेण' लाटि. । २६. यमराजस्य । २७. गृहीत्वा लक्षक० मु० । २८. ढङ्कण० ला १, पा० । २९. अजेन गम्यते यस्मिन् मार्गे सोऽजपथः ।
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द्वितीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
ततो रुद्रोऽवदन्नाऽतो विषयः पादचारिणाम् । हत्वाऽजौ कुर्वहे भस्त्रे अन्तर्लोमे बहिष्पले ॥२५०॥ प्रविशावस्तयोरन्तरिह भारण्डंपक्षिभिः । मांसभ्रमाद् गृहीतौ तैर्यास्यावः स्वर्णमेदिनीम् ॥२५१॥ अवोचमहमप्यावामुत्तीर्णौ दुर्गमां भुवम् । यकाभ्यां तावजावेतौ कथं हन्वः स्वबन्धुवत् ? ॥२५२॥ न तावत् तावकावेतौ कथं मां त्वं निषेधसि ? । इत्युक्त्वा सोऽवधीदादौ क्रुद्धो निजमजं द्रुतम् ॥२५३॥ मामपश्यद् द्वितीयोऽजो दीर्घकातरया दृशा । तं चाऽवोचमहं त्रातुं त्वां नेशोऽस्मि करोमि किम् ? ॥२५४॥ तथापि तेऽस्तु शरणं जैनो धर्मो महाफलः । स एव विधुरे बन्धुः पिता माता प्रभुश्च सः ॥ २५५ ॥ ततो मत्कथितं धर्मं शिरसा प्रतिपन्नवान् । मया दत्तं नमस्कारं सोऽश्रौषीच्च समाहितः ॥ २५६|| हतश्च रुद्रदत्तेन देवर्भूयं जगाम सः । अन्तस्तद्भस्त्रयोरावां प्रविष्टौ च क्षुरीधरौ ॥ २५७॥ भारुण्डाभ्यामुद्धृतौ च द्वयोश्चैकाऽऽमिषेर्च्छया । आयुध्यमानयोर्मार्गे पतितोऽहं सरोवरे ॥२५८॥ भस्त्रां क्षुरिकया दीर्त्वा तीर्त्वा च निरगामहम् । गच्छन्नग्रेऽटवीमध्येऽद्राक्षमेकं महागिरिम् ॥२५९॥ तत्राऽऽरूढेन दृष्टश्च कायोत्सर्गस्थितो मुनिः । वन्दितश्च मया धर्मलाभं दत्त्र्त्तेति सोऽवदत् ॥२६०|| ||कथं त्वं चारुदत्तेहाऽभ्यागाद् दुर्गक्षितावहो ?! | सुर - विद्याधर - खगानृते नाऽन्यस्य यगतिः || २६१ ॥ एषोऽमितगतिः सोऽहं यस्त्वया मोचितः पुरा । तदा द्युत्पतितः प्रापं तमुपाष्टापदे द्विषम् ॥ २६२॥ त्यक्त्वा मम प्रियां नंष्ट्वा सोऽगादष्टापदाचले । तां पतन्तीं गृहीत्वाऽहं स्वस्थानमगमं पुनः ||२६३|| राज्ये मां स्थापयित्वा च मत्पिता व्रतमात्तवान् । पार्श्वे चारणयतिनोर्हिरण्य-स्वर्णकुम्भयोः ॥२६४|| पल्यां मनोरमायां मेऽभवत् सिंहयशाः सुतः । वराहग्रीव इत्यन्यो मत्तुल्यबलविक्रमः || २६५ ॥ पल्यां विजयसेनायां सर्वगान्धर्वकोविदा । पुत्री गन्धर्वसेनेति रूपशालिन्यजायत ॥ २६६ ॥ राज्यं च यौवराज्यं च दत्वा विद्याश्च पुत्रयोः । पितृ-गुर्वोस्तयोः पार्श्वेऽहमपि व्रतमात्तवान् ॥ २६७॥ लवणाम्भोधिमध्यस्थो द्वीपोऽयं कुम्भकण्ठकः । कर्कोटकश्च शैलोऽयं तप्ये यत्र स्थितस्तपः ॥२६८|| अत्र त्वं कथमायासीरिति तस्याऽभिपृच्छतः । क्रमादाख्यातवानत्मव्यसनं सर्वमप्यहम् ॥२६९॥ [अत्रान्तरे च नभसा तत्तुल्यौ रूपसम्पदा । विद्याधरवरौ तत्रेयतुस्तं च प्रणेमतुः ॥२७०॥ तत्सादृश्यान्मया ज्ञातौ तत्सुताविति तौ ततः । चारुदत्तं प्रणमतमित्यवोचन्महामुनिः ॥ २७९ ॥ तात ! तातेति जल्पन्तौ तौ मां नत्वा निषेदतुः । अत्राऽन्तरे च दिविषद्विमानं द्योरवातरत् ॥ २७२॥ ततोऽवतीर्य त्रिदशो महर्द्धिम नमोऽकरोत् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य तं महर्षिमवन्द || २७३ || पृष्टस्ताभ्यां खेचराभ्यां तं वन्दनविपर्ययम् । आँख्यद् देवश्चारुदत्तो धर्माचार्यो ह्ययं मम ॥२७४|| तथाहि काशीपुर्यां द्वे परिव्राजौ बभूवतुः । सुभद्रा - सुलसे जामी वेद-वेदाङ्गपारगे ||२७५॥ तदा च वादिनस्ताभ्यां बहवोऽपि पराजिताः । परिव्राट् याज्ञवल्क्यस्तु वादायाऽन्येद्युरायौ ॥२७६॥ जितः शुश्रूषको जेतुर्भवितेति प्रतिश्रवम् । विधाय तेन सुलसा जिता दासीकृता च सा ॥ २७७॥ याज्ञवल्क्यः सुलसया तया शुश्रूषमाणया । तण्या नवतारुण्यो जज्ञे कामवशंवदः ॥२७८॥ पुर्या अदूरे निवसंस्तया चिक्रीड सोऽन्वहम् । अजायत सुतस्तस्यां याज्ञवल्क्यत्रिदण्डिनः ॥२७९॥ लोकोपहासभीतौ च पिप्पलस्य तले सुतम् । विहाय नंष्ट्वा सुलसा-य - याज्ञवल्क्यौ प्रजग्मतुः ॥ २८०॥ तद्विज्ञाय सुभद्राऽऽगात् तं च जग्राह बालकम् । अदन्तं पिप्पलफलं मुखे निपतितं स्वयम् ॥ २८१॥
१. बहिर्मांसं ययोस्ते । २. भारुण्ड० खं० २, सू० । ३. भयत्रस्तया दृष्ट्या । ४. देवत्वम् । देवीभूयं खं० २ । ५. भारण्डा० मु० । ६. द्वयोश्चाथामिषे० ला० । ७. अत्रा० ला० । ८. दत्वेत्युवाच सः ला० मु० । दत्त्वेति सोऽब्रवीत् पा. । ९. पतन्तीं तां खं० २ । १०. कुम्भकण्टकः र. स्वीकृतपाठः । ११. 'तपिंच् ऐश्वर्ये वा' (सि. १२६७) दिवादिषु आत्मने० धातुः । १२. निजदुःखम् । १३. प्रणमतमित्यूचे च खं० १, ला० मु० । १४. आख्याद् खं० १ । १५. परिव्राजे ला० १। परिव्राज्यौ की. पा. पु. छा. ला० । १६. तारुण्यात् की० । १७. विधाय ला० । १८. भक्षयन्तम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पिप्पलाद इति नाम यथार्थं तस्य साऽकरोत् । यत्नादवर्धयत् तं च वेदाद्यं चाऽध्यजीगपत् ॥२८२॥ महाप्राज्ञः सोऽतिविद्वान् वादिदापहोऽभवत् । तद्वादहेतोः सुलसा-याज्ञवल्क्यौ समेयतुः ॥२८३।। स द्वावप्यजयद् वादे ज्ञात्वा च पितरौ निजौ । त्यक्तोऽमूभ्यामहमिति क्रोधं परमुपाययौ ॥२८४॥ सम्यक् प्रतिष्ठाप्य माता-पितृमेधादिकान् मोन् । पितृमेधे मातृमेधे चाऽवधीत् पितरौ से तौ ॥२८५॥ पिप्पलादस्य शिष्योऽहं वाग्बलि मतस्तदा । पशुमेधादिकान् कृत्वा नरकं घोरमासदम् ॥२८६॥ उद्धृत्ये नरकाज्जातः पञ्चवारानहं पशुः । यज्ञे द्विजन्मभिः क्रूरैर्भूयो भूयो विनाशितः ॥२८७॥ ततोऽजष्टङ्कणेऽभूवं चारुदत्तेन चाऽमुना । आख्यातधर्मो रुद्रेण हतः सौधर्ममाप्नुवम् ॥२८८॥ धर्माचार्यो ममाऽयं तच्चारुदत्तः कृपानिधिः । नमोऽकारि ततः पूर्वं न क्रमो लङ्घितो मया ॥२८९॥ इत्युक्तौ तेन देवेन तावप्येवमवोचताम् । उपकारी तवेवाऽस्मत्पितुरप्येष जीवदः ॥२९०॥ स देवो मामथाऽवोचच्चारुदत्त ! वदाऽनघ ! । किमैहलौकिकं ते प्रत्युपकारं करोम्यहम् ।।२९१।। समये त्वं समागच्छेरित्युक्तः स मयाऽमरः । तिरोऽधात् खेचराभ्यां तु नीतोऽहं शिवमन्दिरे ॥२९२।। पताभ्यां च तज्जनन्या च तत्राऽस्थां कृतगौरवः । तद्वन्धुभिः खेचरैश्च पूज्यमानोऽधिकाधिकम् ॥२९३।। इमां गन्धर्वसेनां तौ निजजामि प्रदर्श्य मे । ओख्यतां प्रव्रजस्तातस्तदाऽऽवामेवमादिशत् ।।२९४॥ आख्यातं ज्ञानिनाऽस्माकं यद्विजित्य कलास्वमूम् । युष्मज्जामि वसुदेवकुमारः परिणेष्यति ॥२९५।। मद्वन्धोश्चारुदत्तस्याऽर्पणीया भूचरस्य तत् । इमां यथा वसुदेवो भूचरः सुखमुद्वहेत् ॥२९६।। स्वपुत्रीं तद्गृहीत्वेमां गच्छेति तदुदीरिते । यावत् पर्यचलं तावत् सोऽपि देवः समागमत् ॥२९७।। सोऽमरः खेचरौ तौ च तद्गृह्याश्चाऽन्यखेचराः । मामिहाऽऽनैषुरक्षेपाद् व्योमयानेन लीलया ॥२९८॥ स्वर्ण-माणिक्य-मुक्तानां कोटिकोटी: प्रदाय मे । अगात् स देवः स्वं स्थानं ते च विद्याधरोत्तमाः ॥२९९।। पसर्वार्थं मातुलं प्रातर्भार्यां मित्रवतीमपि । वसन्तसेनां वेश्यां चाऽपश्यमाबद्धवेणिकाम् ॥३००।
इयं गन्धर्वसेनाया उत्पत्तिर्वसुदेव ! ते । कथिताऽद्य वणिक्पुत्रीत्यवज्ञासीः स्म जातु मा ॥३०१॥ पचारुदत्तादिति श्रुत्वा वृत्तान्तं वृष्णिनन्दनः । अधिकं मुदितो रेमे समं गन्धर्वसेनया ॥३०२।। पाचैत्रे स गच्छन्नुद्यानं रथारूढस्तया सह । मातङ्गवेषां मातङ्गावृतामैक्षिष्ट कन्यकाम् ॥३०३।।
गन्धर्वसेना 'तौ प्रेक्ष्य सविकारौ परस्परम् । उवाच सारथिं रथ्यांस्त्वरयेत्यरुणेक्षणीं ॥३०४॥ द्रुतं गत्वा चोपवने क्रीडित्वा च तया समम् । भूयोऽपि चम्पानगरी वसुदेवः समाययौ ॥३०५।। पतं मातङ्गगणादेत्य जरन्मातङ्गिका तदा । दत्त्वाऽऽशीरुपविश्यैवं वसुदेवमवोचत ॥३०६।।
पुरा स्वेषां विभज्याऽऽदात् स्वं राज्यमृषभध्वजः । तदा तु नमि-विनमी नाऽभूतां तत्र दैवतः ॥३०७॥ राज्यार्थिनौ सिषेवाते तौ व्रतस्थमपि प्रभुम् । धरणेन्द्रस्तयोश्चाऽदाद् राज्यं श्रेण्योर्द्वयोः पृथक् ॥३०८॥ राज्यं सुतेभ्यः कालेन दत्त्वा तौ स्वामिसन्निधौ । प्रव्रज्य जग्मतुर्मोक्षं मुक्तौ द्रष्टमिव प्रभुम् ॥३०९।। नमिसूनुस्तु मातङ्गः परिव्रज्य दिवं ययौ । तद्वंशेऽस्ति प्रहसितो नामतः खेचरेश्वरः ॥३१०॥ तस्य जायाऽस्मि हिरण्यवती मम तु नन्दनः । सिंहदंष्ट्रो नीलयशास्तत्सुता प्रैक्षि या त्वया ॥३१॥ तामुद्वह त्वं कुमार ! मोरा" त्वनिरीक्षणात् । क्षण: शुभो वर्ततेऽसौ विलम्बं सहते न सा ॥३१२॥
ऊचे शौरिविचिन्त्याऽहं वक्ष्यामि पुनरापतेः । साऽवोचत् तत्राऽऽगामी त्वमहं वेहेति वेत्ति कः ? ॥३१३॥ १. वादिदर्पासहो० ला० मु० । २. यज्ञान् । ३. च खं० १ । ४. ०स्ततः खं० १-२, ला० । ५. उद्धृत्य मु० र० । ६. च चारु० ला० । ७. जीवकः खं० १ । ८. तेऽहं प्रत्युपकारमादधे खं० १, ला०की०पु० छा० ला० २ । ९. आख्यातां खं० १, मु० र० । १०. प्रावज० खं० १ । ११. ०णेष्यते खं० २ । १२. स्वां पुत्री ला० । १३. समाययौ ला० मु० । १४. ययौ खं० १, ला० मु० । १५. सर्वार्थमातुलं खं० २, ला० मु० २० । १६. वसुदेव-मातङ्गकन्ये । १७. अश्वान् । १८. रक्तेक्षणा । १९. आत्मीयजनानाम् । २०. राज्यं वृषभ० की। २१. व्रतस्थमपि तं प्रभुम् मु० । २२. कामातम् । २३. आगच्छेः । २४. तत्र गामी खं० १, मु० र० । २५. चेहे० खं० १, ला० ।
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द्वितीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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इत्युक्त्वा सा ययौ क्वाऽपि ग्रीष्मे शौरिरथाऽन्यदा । क्रीडित्वाऽम्भसि सुष्वाप समं गन्धर्वसेनया ||३१४|| तं गृहीत्वा करे गाढमुत्तिष्ठेति वदन् मुहुः । तेन मुष्ट्या ताड्यमानो भूत एकोऽहरद् द्रुतम् ॥३१५॥ चितासमीपे नीतश्च सोऽपश्यज्ज्वलितानलम् । घोररूपां खेचरीं च तां हिरण्यवतीं पुरः ||३१६|| स्वागतं चन्द्रवदनेत्युक्तः प्रेतस्तयाऽऽदरात् । तस्यै समर्प्य वार्ष्णेयं क्षणेनाऽपि तिरोदधे ॥३१७॥ स्मित्वा वार्ष्णेयमूचे सा त्वयाऽचिन्ति कुमार ! किम् ? । तां वृण्वस्मदुपरोधादिदानीमपि सुन्दर ! ||३१८|| तदा पूर्वेक्षिता नीलयशाः साऽपि सखीवृता । तत्राऽऽजगाम श्रीदेवीवाऽप्सरः परिवारिता ॥३१९॥ गृहाण स्वैप्रियमिति पितामह्योदिता तैया । वसुदेवमुपादाय व्योम्ना नीलया ययौ ॥ ३२० ॥ हिरण्यवत्यपि प्रातर्वसुदेवमभाषत । मेघप्रभवनाकीर्णो हीमानेष महागिरिः ॥३२१॥ चारणाधिष्ठिते चाऽत्राऽङ्गारको ज्वलनात्मजः । भ्रष्टविद्यः खेचरेन्द्रो विद्या भूयोऽस्ति साधयन् ॥३२२॥ विद्याश्चिरेण सेत्स्यन्ति तस्य त्वद्दर्शनात् पुनः । आशु सिध्यन्ति तत् तस्योपकर्तुं गन्तुमर्हसि ॥ ३२३ ॥ अलमेतेन दृष्टेनेत्युक्ता सा वृष्णिसूनुना । वैताढ्याद्रावनैषीत् तं नगरे शिवमन्दिरे ॥ ३२४ ॥ सिंहदंष्ट्रनरेन्द्रेण नीत्वा स्वौकसि याचितः । तां नीलयशसं कन्यां दशार्हः परिणीतवान् ॥३२५॥ [तदा च तुमुलं श्रुत्वा शौरिः पप्रच्छ कारणम् । द्वा: स्थाऽऽख्यदिह शकटमुखं नामाऽस्ति पत्तनम् ॥३२६॥ तत्र राट् नीलवान्नाम तस्य नीलवती प्रिया । तयोर्नीलाञ्जना पुत्री नीलनामा च नन्दनः ॥३२७|| भ्रातुः स्वस्रा समं पूर्वं सङ्केत इति चाऽभवत् । सार्धं दुहित्रा पुत्रस्य कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ॥३२८॥ नीलाञ्जनायाः पुत्री त्वत्प्रिया नीलयशा इयम् । अभून्नीलकुमारस्य नीलकण्ठाभिधः सुतः ॥ ३२९॥ नील: सुतार्थे सङ्केतदत्तामेतामयाचत । एतत्पित्रा पृष्ट आख्यन् मुनिरेवं बृहस्पतिः ||३३० || पिता भरतवर्षार्धभर्तुर्विष्णोर्यदूत्तमः । वसुदेवो वरोऽमुष्या भावी सौभाग्यमन्मथः ||३३१|| आनीतो विद्यया त्वं तद्राज्ञेमां परिणीतवान् । तदर्थे चाऽऽगतो नीलो जितश्च तुमुलस्ततः ॥३३२॥ || श्रुत्वेति मुदितः शौरिस्तया क्रीडन् ददर्श च । विद्यौषधीभ्यो ड्रीमन्तं यातः शरदि खेचरान् ||३३३|| विद्यादाने तव शिष्यो भवामीत्यवदत् स ताम् । आमेत्युक्त्वा तमादाय ह्रीमत्यद्रौ ययौ च सा ॥ ३३४॥ तत्र शौरिं रन्तुकामं ज्ञात्वा सा कदलीगृहम् । विकृत्य रमयामासाऽपश्यच्चैकं केलापिनम् ॥३३५॥ अहो ! पूर्णकलापोऽयं कलापीति सविस्मया । स्वयमेव तमानेतुं दधावे मदिरेक्षणा ||३३६|| गतामुपमयूरं च मयूरव्यंसकः स तु । स्वांसमारोप्य तां जह्रे व्योम्नि तार्क्ष्यवदुत्पतन् ॥३३७|| शौरिस्तमनुधावंश्च घौंषेऽगाद् गोपिकाचितः । तत्रोषित्वा निशां प्रातः प्राचालीद् दक्षिणां प्रति ॥३३८॥ [[सोऽगाद् गिरितटग्रामं तत्र वेदध्वनिं गुरुम् । श्रुत्वा पप्रच्छ कमपि द्विजं तत्पाठकारणम् ॥३३९॥ ऊचे द्विजो दशग्रीवसमये नारदर्षये । दिवाकरः खेचरोऽदात् स्वसुतां रूपशालिनीम् ॥३४०|| तद्वंश्योऽस्ति सुरदेवो ग्रामेऽत्र ग्रामणीर्द्विजः । तस्य पल्यां क्षत्रियायां सोम श्रीर्वेदवित् सुता ||३४१|| पित्रा पृष्टस्तद्वरार्थे करालो ज्ञान्यभाषत । एतां वेदे यो विजेता स एनां परिणेष्यति ॥ ३४२ ॥ तां विजेतुमयं लोको वेदाभ्यासपरोऽनिशम् । वेदोपाध्याय इह च ब्रह्मदत्तोऽस्ति नामतः || ३४३॥ वेदाचार्यं तमित्यूचे विप्रीभूयाथ यादवः । गौतमः स्कन्दिलो विप्रोऽध्येष्ये वेदास्त्वदन्तिके ॥ ३४४|| अनुज्ञातस्ततस्तेनाऽपठद् वेदांस्तदग्रतः । वेदे सोमश्रियं जित्वा पर्यणैषीच्च यादवः ॥३४५॥ [विलसन् स तया तत्र ययावुद्यानमन्यदा । तत्रेन्द्रशर्मनामानमद्राक्षीदैन्द्रजालिकम् ॥३४६॥
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१. चिन्तयाऽस्म० खं० २, ला० मु० र० । २. स्वं प्रिय० ला० । ३.० नया ता०सं०पा० । ४. द्वाःस्थोऽख्यदिह मु० र० । ५. मयूरम् । ६. कृत्रिममयूरः । ७. स्कन्धमारोप्य ला० । स्वंसमा० सू० विना सर्वत्र, मु०, २० । ८. गरुडवत् । ९. आभीरपल्ल्याम् । १०. तदा खं० १ । ११ विजेता यः खं० १ । १२. गौतमगोत्रीय: स्कन्दिलनामकः । १३. वादे खं० १, ला० । १४. ०दैन्द्रजालकम् खं० १ । ०दिन्द्रजालिकम् ला० । ०च्चेन्द्रजालिकम् मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
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तस्याऽऽश्चर्यकरीं विद्यां दृष्ट्वा शौरिरयाचत । सोऽप्युवाच गृहाणेमां विद्यां मानसमोहिनीम् ||३४७| विद्येयं सायमारब्धा सिध्यत्यभ्युदये रवेः । परं बहूपसर्गेति सखा कोऽपि विधीयताम् ॥३४८|| न मे सखा विदेशस्याऽस्तीत्युक्तस्तेन सोऽवदत् । भ्रातः ! सखाऽस्मि ते भ्रातुर्जाया च वनमालिका ॥ ३४९॥ इत्युक्तश्चाऽग्रहीद् विद्यां शौरिस्तां विधिवज्जपन् । मायाविना शिबिकया पजह्रे चेन्द्रशर्मणा || ३५०|| विमृशन्नुपसर्गं तं शौरिर्विद्यां जजाप च । प्रातर्ज्ञात्वा च तेन्मायां शिबिकाया अवातरत् ॥३५१॥ धावत्सु चेन्द्रशर्मादिष्वतिगच्छन् स यादवः । दिनशेषे प्राप तृणशोषकं सन्निवेशनम् ॥३५२॥ |[तत्र चाऽऽयतने सुप्तो नरार्देनैत्य च द्रुतम् । उत्थापितो वसुदेवः प्रजं मुष्टिर्भिश्च तम् ॥ ३५३ ॥ बाहूबाहवि कृत्वा च पुरुषादं चिराय तम् । शौरिः संयमयामास प्रोतेर्न क्रीतमेषवत् ॥३५४॥ भूमवास्फाल्य रजक इव क्षौमं शिलातले । अवधीत् पुरुषादं तं प्रातर्लोकोऽप्युदैक्षत ॥ ३५५॥ लोकः प्रीतो रथे शौरिमारोप्याऽन्तर्निवेशनम् । वाद्यमानेन तूर्येण वर्यं वमिवाऽनयत् ॥३५६॥ पञ्च कन्याशतान्यस्मै लोकस्तूर्णमढौकयत् । तन्निषिध्याऽब्रवीच्छौरिर्नरादः को न्वसाविति ? ॥३५७॥ तत्रैकः कश्चिदाचख्यौ श्रीकाञ्चनपुरे पुरे । कलिङ्गेष्वभवद् राजा जितशत्रुर्महाभुजः || ३५८|| सोदासस्तस्य पुत्रोऽयं प्रकृत्या मांसलोलुपः । राजा से तु निजे देशे प्राणिनामभयं ददौ ||३५९॥ दिने दिने चैक बहिर्मांसं तेन सुतेन तु । याचितः प्रतिपेदे सोऽनभीष्टमपि भूपतिः ॥ ३६० ॥ प्रत्यहं बर्हिणं वंशगिरेः सूदाः समानयन् । पाकाय तु हतोऽन्येद्युर्माजरिण हृतोऽथ सः || ३६१ ॥ ततः सूदा मृर्तीर्भस्य पक्त्वा तस्मै पलं ददुः । अद्याऽतिस्वादु किं मांसमित्यपृच्छच्च सोऽपि तान् ॥३६२॥ यथातथे तदाऽऽख्याते सोदासोऽप्येवमादिशत् । दिने दिने शिंखिस्थाने संस्कार्योऽतः परं नरः || ३६३॥ इत्युदित्वा स्वयं डिम्भान्नित्यं लोके जहार सः । ज्ञातश्च भूभुजा कोपात् स देंशान्निरवास्यत ॥३६४॥ पितृभीतः सोऽत्र दुर्गे निवसन् प्रत्यहं नरान् । विनिघ्नन् पञ्चषान् पापः साधु साधु हतस्त्वया ||३६५॥ इत्युक्तस्तैर्मुदा शौरिस्ताः कन्याः परिणीतवान् । उषित्वा च निशां सोऽगादचलग्राममुत्तमम् || ३६६ || तत्र मित्रश्रियं सार्थवाहपुत्रीमुपायत । यादवो ज्ञानिना तस्या वरत्वेनोदितः पुरा ॥ ३६७॥ वेदैसामपुरं गच्छन् स तया वनमालया । एह्येहि देवरेत्युक्त्वा निन्ये निजनिकेतने ॥३६८|| तया च वसुदेवोऽयमित्याख्यातेऽथ तत्पिता । पृष्ट्वा स्वागतमित्याख्यदत्रास्ति कपिलो नृपः ॥ ३६९ ॥ कपिला नाम कन्याऽस्य त्वं तस्या ज्ञानिना वरः । तिष्ठन् गिरितटग्रामे महात्मन् ! कथितः पुरा ॥ ३७० ॥ स्फुलिङ्गैवदनं नाम सोऽश्वं प्रदमैयिष्यति । तवोपलक्षणोपायस्तेनैष ज्ञानिनोदितः || ३७१|| त्वामानेतुं प्रैषि राज्ञा मज्जामातेन्द्रजालिकः । इन्द्रशर्माऽन्तरा तु त्वं गत इत्याख्यदत्र सः ॥ ३७२|| दिष्ट्याऽऽयासीर्दमयाऽश्वमित्युक्तस्तेन वृष्णिसूः । तं राज्ञोऽश्वमदमयत् कपिलामुदुवाह च ॥ ३७३ ॥ प्रतीक्षितस्तेन राज्ञा श्यालेनांऽशुमताऽपि च । सोऽजीजनत् कपिलायां कपिलं नाम नन्दनम् ॥ ३७४॥ हस्तिबन्धे गतोऽन्येद्युर्बद्ध्वाऽरोहत् स हस्तिनम् । तं वियत्युत्पतन्तं च जघानैकेन मुष्टिना ॥ ३७५ ॥ सरस्तीरे पतन्नीलकण्ठाख्यश्च स खेचरः । बभूव यो नीलयशोविवाहेऽप्याययौ युधं ॥ ३७६ ॥ ततो भ्राम्यन् ययौ शौरिः पुरे सालगुहाह्वये । भाग्यसेनं नृपं तत्र धनुर्वेदमशिक्षयत् ॥३७७॥ योद्धुं च भाग्यसेनेन मेघसेनं तदग्रजम् । तत्राऽऽयातं वसुदेव: पराजिग्ये महाभुजः || ३७८ ।।
३०
१. सहायकारी । २. सोऽब्रवीत् पा०आ० । ३. भ्रातृजाया सू० । ४. ०कया स जह्रे पु० । ५. तां मायां मु० । ६. ०शेषेऽप्याप ला० । ७. ०शोधकं सू० । ८ नरानत्तीति नरादः, मनुष्यराक्षसः । ९. प्रजघ्ने मु० । १०. मुष्टिभिर्भृशम् मु० । ११. वस्त्रेण । १२. भूमौ चा० ला० । १३. ग्रामे । १४. वेश्म समानयत् ला० । १५. पुनर्निजदेशे खं० १ । १६. मयूरमांसम् । १७. तेन तु याचितः। प्रतिपेदे सोऽतिभीष्टोऽन० खं० २ । १८. ततस्तदा मु० । १९. मृतबालकस्य । २०. मयूरस्थाने । २१. स्वदेशा० मु० । २२. साधुरेष हत० ला० । २३. वेदसामपुरे खं० २ । वेदसोम० र । २४. स्फुल्लिङ्गवहनं मु० । २५. प्रमदयि० खं० २ । २६. ० स्तेनैव ला० । २७. ० मुदवाह खं० १, ला०र० । २८. ० रोहत हस्ति० ला० । २९. युधे खं० २, सू० ।
(अष्टमं पर्व
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । भाग्यसेननृपः पद्मोपमां पद्मावती सुताम् । मेघसेनस्त्वश्वसेनां वार्ष्णेयाय ददौ तदा ॥३७९॥ पद्मावत्यश्वसेनाभ्यां रन्त्वा तत्र चिराय सः । जगाम भद्दिलपुरे नगरे वृष्णिनन्दनः ॥३८०॥ पातत्राऽपुत्रविपन्नस्य पुण्डुराजस्य कन्यकाम् । पुण्ड्रां नृरूंपामौषध्या राज्यं पान्ती ददर्श सः ॥३८१।।
वार्ष्णेय: स्त्रीति तां ज्ञात्वा सानुरागामुपायत । पुण्ड्रो नाम सुतस्तस्यां जज्ञे राजा च सोऽभवत् ॥३८२॥ पाखेचरोऽङ्गारकस्तत्र रात्री हंसॉपदेशतः । हृत्वा चिक्षेप गङ्गायां समुद्रविजयानुजम् ।।३८३।। प्रातः शौरिददर्शेलावर्धनं नामतः पुरम् । तत्राऽट्टे सार्थवाहस्योपाविशत् तदनुज्ञया ॥३८४।। तत्प्रभावात् तस्य लाभे हेमलक्षमजायत । सोऽपि ज्ञात्वा तत्प्रभावं गौरवादाललाप तम् ॥३८५।। तं स्वर्णरथमारोप्य सार्थवाहोऽनयद् गृहे । अथ रत्नवती कन्यां तेनं स्वां पर्यणाययत् ॥३८६।। पाजाते शक्रमहेऽन्येद्यः श्वशुरेण सहैव सः । दिव्यं स्यन्दनमारूढो महापरपरे ययौ ॥३८७॥ बहिः पुराच्च प्रासादान् नूतनान् प्रेक्ष्य यादवः । पप्रच्छ श्वशुरं किं नु द्वितीय कमिदं पुरम् ? ॥३८८॥ सार्थवाहोऽवदत् सोमदत्तोऽत्राऽस्ति महीपतिः । मुखश्रियाऽतिसोमश्रीः सोमश्रीस्तस्य कन्यका ॥३८९॥ तस्याः स्वयंवरकृते प्रासादाः कारिता इमे । आहूताश्च नृपा भूयो विसृष्टास्तदीटवात् ॥३९०।। श्रुत्वेति यादवो गत्वा शक्रस्तम्भं नमोऽकरोत् । तं नत्वा राजशुद्धान्तोऽप्यचलत् पूर्वमागतः ॥३९१।। तदा चाऽऽलानमुन्मूल्य तत्राऽऽगाद् भूपतेद्विपः । रथाद्राजकुमारी च पातयामास भूतले ॥३९२।। दीनामशरणां शौरिस्तां प्रेक्ष्य शरणार्थिनीम् । स्थित्वाऽग्रेऽतर्जयदिभं प्रतिकार इव स्वयम् ॥३९३।। तां त्यक्त्वा यादवायेभो दधावे क्रोधदुर्धरः । खेदयामास तमिभं यादवोऽपि महाबलः ॥३९४।। मोहितेभो यादवस्तामादायैकत्र वेश्मनि । नीत्वा चाऽऽश्वासयामासोत्तरीयपवनादिना ॥३९५॥ धात्रीभिः सा गृहे निन्ये शौरिस्तु श्वशुरान्वितः । कुबेरसार्थवाहेन गौरवान्निजवेश्मनि ॥३९६।। तत्र शौरिः स्नात-भुक्तोऽस्थाद्यावत्तावदागता । जयाशी:पूर्वकं राजप्रतीहारीदमब्रवीत् ॥३९७|| भूपतेः सोमदत्तस्य सोमश्रीर्वरकन्यका । स्वयंवरे वरस्तस्याः किल स्यादित्यभूत् पुरा ॥३९८|| परं सर्वाणयतिनोऽभ्यागतान् केवलोत्सवे । पश्यन्त्यास्त्रिदशांस्तस्या जातिस्मृतिरजायत ॥३९९।। ततः प्रभृत्यसौ मौनमालम्ब्याऽस्थान्मृगेक्षणा । मया रहसि चाऽन्येद्युः पृष्टा सत्येवमब्रवीत् ॥४००। पाआसीद् देवो महाशुक्रे भोगास्तेन मया सह । अतिवल्लभया भुक्ताः सुचिरं तत्र जन्मनि ॥४०१॥ मयैव सह सोऽन्येधुर्यात्रां नन्दीश्वरादिषु । कृत्वाऽर्हज्जन्मोत्सवं च स्वस्थानाय न्यवर्तत ॥४०२॥ यावच्च ब्रह्मलोकेऽगात् तावदच्योष्ट सोऽमरः । शोकात तं च मार्गन्ती भरतेऽत्र कुरुष्वगाम् ॥४०३॥ केवलज्ञानिनौ तत्र दृष्ट्वाऽपृच्छं दिवश्च्युतः । क्व मे पतिः समुत्पन्नः ? ततस्तावेवमूचतुः ॥४०४॥ हरिवंशे तव पतिः प्रादुर्भूतो नृपोलये । त्वमपि प्रच्युता स्वर्गाद राजपुत्री भविष्यसि ॥४०५।। यदा शक्रमहे च त्वां कुञ्जरान्मोचयिष्यति । स तदानीं पुनरपि पतिस्तव भविष्यति ॥४०६॥ तौ वन्दित्वा भक्तिपूर्वं स्वस्थानमगमं तदा । क्रमाच्च्युत्वाऽहमुत्पन्ना सोमदत्तस्य कन्यका ॥४०७|| - सर्वाणकेवले देवान् दृष्ट्वा जातिस्मृति गता । एतदज्ञासिषं तस्मात् कृतं मौनमिदं मया ।।४०८।। एतत् तस्या वचः सर्वं मया राज्ञे निवेदितम् । राज्ञा विसृष्टाश्च नृपाः स्वयंवरसमागताः ॥४०९।। प्रत्ययश्चाऽभवत् तस्या मोचितायास्त्वया द्विपात् । त्वामानेतुं प्रेषिताऽस्मि तदेाद्वह वीर ! ताम् ॥४१०॥ तया सह ततो गत्वा वसुदेवो नृपौकसि । सोमश्रियमुपायंस्त रेमे च स तया समम् ॥४११।। १. भद्रिल० खं० १, ला० । २. पुंद० मु० । ३. पुंदा मु० । ४. नृरूपेणौ० खं० २ । नृरूपामोष० मु०र. । ५. पाती खं० १-२, ला०सू० । ६. पुंदो मु० । ७. हंसरूपं गृहीत्वा । ८. लाभो मु० । ९. तेनासौ सू० । १०. इन्द्रमहोत्सवे । ११. द्वितीयीक० खं० १-२ । द्वैतीयीक० सू० । द्वितीयं किमिदं मु० । १२. तेषां नृपाणां अपाटवात्-अनैपुण्यात् । १३. राज्ञोऽन्तःपुरस्त्रियः । १४. नीत्वा सा० मु० । १५. नृपान्वये की०पु० । १६. राज्ञः पुत्री मु० । १७. भविष्यति खं० २ । १८. धीर खं० १ । १९. तत्र तया सह मु० । च स तया सह सू० ।
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३२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पाशौरिः सुप्तोत्थितोऽन्येधुर्नाऽपश्यत् तां मृगेक्षणाम् । करुणं च रुदंस्तस्थौ शून्यचित्तो दिनत्रयम् ॥४१२।। स्थितामुपवनेऽद्राक्षीद् वार्ष्णेयस्तामुवाच च । केनाऽऽगेसेयच्चिरं त्वं नष्टाऽसि वद मानिनि ! ॥४१३॥ साऽप्यूचे त्वत्कृतेऽकारि विशिष्टो नियमो मया । मौनव्रते स्थिता चाऽस्मि प्राणनाथ ! दिनत्रयम् ॥४१४।। अचित्वा देवतां चैतां भूयः पाणिग्रहं कुरु । अयं हि विधिरत्रेति शौरिश्चक्रे च तत् तथा ॥४१५॥ देव्याः शेषेति मदिरां यादव: पायितस्तया । भेजेतरां रतिसुखं कान्दर्पिक इवाऽमरः ॥४१६।।
सुप्तो निशि तया सार्धं निद्राच्छेदे सं तां पुनः । अन्यरूपामुदक्षिष्ट सुभ्र ! काऽसीत्युवाच च ॥४१७॥ पासाऽप्यूचे दक्षिणश्रेण्यां सुवर्णाभाभिधे पुरे । चित्राङ्गो नाम राजाऽभूत् तस्याऽङ्गारवती प्रिया ॥४१८|| तयोर्मानसवेगस्तुक् कन्या वेगवती त्वहम् । चित्राङ्गः परिवव्राज राज्ये विन्यस्य तं सुतम् ॥४१९।। मद्भात्रा तेन ते भार्या स्वामिन् ! जहे गतहिया । रतये चाटुभिश्चित्रैर्भणिता मन्मुखेन च ॥४२०॥ महासती तु ते पत्नी प्रत्यपद्यत तन्नहि । अमंस्त मां सखीत्वेन त्वामानेतुं च साऽऽदिशत् ॥४२१॥ आयाता त्वामहं दृष्ट्वा स्मरार्ताऽकार्षमीदृशम् । ममाऽसि कुलकन्यायाः पतिरुद्वाहपूर्वकः ॥४२२॥ प्रातर्वेगवतीं दृष्ट्वा लोकः सर्वो विसिष्मिये । सोमश्रीहरणं लोके साऽऽचख्यौ पत्यनुज्ञया ॥४२३॥ पारतश्रान्तस्तया सुप्तो वसुदेवोऽन्यदा निशि । जहे मानसवेगेन वेगादतिगरुत्मता ॥४२४॥
ज्ञात्वा च वसुदेवेन जघ्ने मुष्ट्या स खेचरः । प्रहारार्त्तश्च तं सद्योऽमुञ्चद् भागीरथीजले ॥४२५।। विद्यां साधयतश्चण्डवेगस्य व्योमचारिणः । तत्रस्थस्याऽपतत् स्कन्धे स विद्यासिद्धिकारणम् ॥४२६।। विद्या सिद्धा त्वत्प्रभावान्महात्मन् ! किं ददामि ते? | तेनेत्युक्तो वृणिपुत्रोऽमार्गद् विद्यां खगामिनीम् ॥४२७||
तां विद्यां खेचरः सोऽदाद् द्वारे कनखलस्य च । समारेभे साधयितुं वसुदेवः समाहितः ॥४२८॥ पाततो गते चण्डवेगे विद्यद्वेगनपात्मजा । खेचरी मदनवेगा तत्राऽऽयाता ददर्श तम् ॥४२९।। हृत्वा स्मरार्ता सा शौरिं नीत्वा वैताढ्यपर्वते । उद्याने पुष्पशयने पुष्पचापमिवाऽमुचत् ।।४३०॥ नगरेऽमृतधाराख्ये स्वयं तु प्रविवेश सा । प्रातः शौरिं नमोऽकापुरेत्य तद्भातरस्त्रयः ॥४३१।। आद्यो दधिमुखस्तेषु दण्डवेगो द्वितीयकः । तृतीयश्चण्डवेगो यस्तस्य विद्याप्रदोऽभवत् ।।४३२।। नीत्वा शौरि पुरे ते तु तया मदनवेगया । विधिनोद्वाहयामासुः सुखं रेमे तया च सः ॥४३३।। तोषयित्वा तयाऽन्येद्युः शौरिर्मदनवेगया । याचितः प्रददौ तस्यै वरं भुजभृतां वरः ॥४३४॥ शौरिं दधिमुखोऽन्येधुनमस्कृत्येदमब्रवीत् । दिवस्तिलकनाम्न्यस्ति पुरे त्रिशिखरो नृपः ।।४३५।। सूर्पकस्य सुतस्यार्थे मत्पितुः कन्यकामिमाम् । सोऽयाचिष्ट न चाऽदत्त विद्युद्वेगस्तु मत्पिता ॥४३६॥ पित्रा पुत्रीवरं पृष्टश्चारणर्षिरदोऽवदत् । हरिवंश्यो वसुदेवो भावी त्वदुहितुर्वरः ॥४३७॥ चण्डवेगस्य गङ्गायां विद्यां साधयतः से तु । स्कन्धे पतिष्यति निशि विद्याः सेत्स्यन्ति तत्क्षणात् ॥४३८॥ श्रुत्वेति मत्पिता नाऽदात् तस्मै पुत्रीं विशेषतः । बद्ध्वा च बलिना नीतो राजा त्रिशिखरेण सः ॥४३९॥ पत्न्या मदनवेगायाः स्वयं दत्तं वरं स्मरन् । श्वशुरं मोचयेदानीं मां" यं च मानय ॥४४०॥ पानमिवंशीदिकन्दो नः पुलस्त्यस्तस्य नन्दनः । तद्वंशे मेघनादोऽभूदरिञ्जयपुरेश्वरः ॥४४१।। सुभूमचक्री जामाता तस्मै श्रेणिद्वयश्रियम् । ददावस्त्राणि दिव्यानि ब्राह्माऽग्नेयादिकानि च ॥४४२॥ तस्य वंशेऽभवद् राजा रावणोऽथ बिभीषणः । बिभीषणस्याऽन्वयेऽभूद् विद्युद्वेगः पिता मम ॥४४३।। तान्यस्त्राणि क्रमायातान्यादत्स्व सफलानि ते । महाभाग्यस्य भावीनि निर्भाग्याणां मुधा तु नः ॥४४४॥ इत्युक्त्वा तेन दत्तानि जग्राहाऽस्त्राणि वृष्णिः । असाधयच्च विधिना पुण्यैः किं न हि सिध्यति ? ॥४४५॥ १. आगसा-अपराधेन । २. व्रतस्थिता खं० २ । ३. वेगः सूः मु० । तुक्-पुत्रः । ४. ० णिता सू० । ५. सा मु०। ६. सखीत्वे सा सू० । ७. समादिशत् सू० । ८. सार्थकः खं०२।९. ब्रह्मचारिणः खं०१ । विद्याधरस्य । १०. ०वार्ष्णेयोऽमार्गय ला०। ११. कामदेवम् । १२. गृहे खं० २ । १३. तत्र ला० । १४. सतः सू० । १५. च क्षणात् खं० २, सू० । १६. राजा ला० । १७. मा खं०१।१८. श्यालम् । १९. ०वंश्यादि० की०पु० । २०. निर्भाग्यस्य खं० २ । २१. पुनः मु० । २२. वृष्णिभूः मु०।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
३३
पाश्रुत्वा मदनवेगां च प्रदत्तां भूचराय ताम् । क्रोधाध्मातस्त्रिशिखरः स्वयं योद्धमुपाययौ ॥४४६।। मायामयं स्वर्णतुण्डं स्यन्दनं खेचरार्पितम् । आरूढो युयुधे शौरिर्वतो दधिमुखादिभिः ॥४४७॥ ऐन्द्रेणाऽस्त्रेण वार्ष्णेयस्त्रिशिखरशिरोऽच्छिदत् । अमोचयच्च श्वशुरं दिवस्तिलकमेत्य तम् ॥४४८।। एत्य च श्वशुरपुरे शौरेविलसतः सतः । पत्न्यां मदनवेगायामनाधृष्टिः सुतोऽभवत् ॥४४९।। पासिद्धायतनयात्रां सोऽन्येधुश्चके सखेचरः । खेचरीभिर्वीक्ष्यमाणः सरांगाभिर्मुहर्मुहः ॥४५०॥ यात्रायाश्चाऽऽययौ शौरिरेहि वेगवतीति च । व्याहार्षीन् मदनवेगां तल्पं साऽपि जेही कुधा ॥४५॥ तदा त्रिशिखरपत्न्या सूर्पणख्या तदालयम् । निर्दह्य मदनवेगारूपयाऽहारि वृष्णिसूः ॥४५२॥ तया जिघांसया व्योम्नो मुक्तो राजगृहान्तिके । तृणपुञ्जस्योपरिष्टात् पपात च यदद्वहः ॥४५३।। गीयमाने जरासन्धे ज्ञात्वा राजगृहं पुरम् । गतः शौरिः स्वर्णकोटिं जित्वाऽक्षरर्थिनां ददौ ॥४५४॥ बध्वाऽऽर: पगृहं ततः शौरिरनीयत । विनाऽपराधं कि बद्धोऽस्मीत्यपृच्छच्च तान् महान् ॥४५५॥ तेऽप्यूचुर्ज्ञानिनाऽऽख्यातं जरासन्धस्य यः प्रगें । कोटि जित्वाऽर्थिनां दाता तत्सूनुर्वधकस्तव ॥५६॥ सोऽसि राजाज्ञया तेन निरागैस्कोऽपि मार्यसे । इत्युक्त्वा वसुदेवं ते मध्येभस्त्रं प्रचिक्षिपुः ॥४५७॥ अपवादभयात् छन्नं ते वार्ष्णेयं जिघांसवः । अंगुरलोठयन् वेगवत्या धात्र्यग्रहीच्च तम् ॥४५८॥ नीयमानस्तया शौरिर्दध्यावित्यहमप्यहो ! । मन्ये गृहीतो भारुण्डैश्चारुदत्त इवाऽम्बरे ॥४५९॥ मुक्तश्च पर्वतेऽपश्यद् वेगवत्याः पदद्वयम् । उपलक्ष्य च भस्त्राया निर्ययौ यदुपुङ्गवः ॥४६०॥ नाथ ! नाथेति रुदैती सुदतीमालिलिङ्ग ताम् । त्वया कथमहं प्राप्त इत्यपृच्छच्च यादवः ॥४६॥ अश्रूण्युन्मृज्य साऽवोचच्छंयनोत्थितया मया । तदा तल्पे न दृष्टोऽसि स्वामिन् ! भाग्यविपर्ययात् ॥४६२॥ सममन्तःपुरस्त्रीभी रुदैत्याः करुणं मम । प्रज्ञप्त्या विद्ययाऽऽख्यातं हरणं पतनं च ते ॥४६३॥ ततः परमजानाना व्यमृशं यत्पतिर्मम । पार्वे कस्याऽप्यूषेविद्या नोऽऽचष्टे तत्प्रभावतः ॥४६४।। ततश्च त्वद्वियोगार्ता स्थित्वा कालं कमप्यहम् । त्वामन्वेष्टुं जगद् भ्रान्ता स्वामिन् ! भूपत्यनुज्ञया ।४६५।। दृष्टोऽसि सिद्धायतने समं मदनवेगया । तच्चैत्याच्च पुरे प्राप्तं त्वामनुप्रापमाश्वहम् ॥४६६॥ तत्र चाऽन्तर्हिताऽ श्रौषं मन्नामोदीरितं त्वया । चिरं विरह क्लेशं चाऽमुचं स्नेहतस्तव ॥४६७॥ , कुद्धा मदनवेगा द्राक् प्रविवेशाऽन्तरालय । कृतं प्रदीपनं चाऽथ सूर्पणख्यौषधीबलात् ॥४६८।। हतश्च मदनवेगारूपया त्वं तया ततः । तयोज्झ्यमानं त्वां धर्तुमन्वधावमहं द्रुतम् ॥४६९।। कल्पितमानसवेगारूपाऽधस्तात् स्थिता तया । अहं दृष्टा तर्जिती च विद्यौषधिसमर्थया ॥४७०॥ तस्याश्च नंष्ट्वा चैत्याय यान्ती मुनिमलङ्ग्यम् । मम विद्यास्ततो भ्रष्टा धात्री च मिलिता तदा ॥४७१।। चिन्तयन्ती क्व मे भर्तेत्यहं धात्रीं न्ययोजयम् । तया भ्रमन्त्या दृष्टस्त्वं निपतन् पर्वताग्रतः ॥४७२।। गृहीतश्च तया वेगात् त्वं भस्त्रान्तःस्थितः प्रभो ! । हीमत्तीर्थे पञ्चनदे समानीय व्यमुच्यथाः ॥४७३॥ इति श्रुत्वा सह तया तत्स्थेऽस्थात् तापसाश्रमे । कन्यां ददर्श सोऽन्येधुनद्यां पाशनियन्त्रिताम् ॥४७४||
भणितो वेगवत्या च स स्वयं च कृपापरः । कन्यकां तां नागपाशबन्धाच्छौरिरमोचयत् ॥४७५।। १. अयोमयं ला० । २. शिरोऽच्छिनत् ता.सं. । ३. प्रेक्ष्यमाणः ला०२। ४. सादराभि० खं० २। ५. ययौ मु०, खं० १ ला० २।६.०नख्या खं०१-२, ला०सू० । ७. ०रूपायाऽहारि खं०१। ८. द्यूतपाशैः । ९. प्रातः । १०. सोऽपि ला० । ११. राज्ञाऽऽज्ञया की.पा.ला० । १२. निरपराधी । १३. अद्रेरलोट० ता.सं.की.पा.ला २। १४. धात्र्या० खं० २, सू० । १५. पुरतोऽपश्य० की. । १६. रुदन्ती ला० । १७. सुदन्ती मु० । १८. ०च्छ्यानो० खं० १ । १९. समं ततः पुर० ता०सं० २०. रुदन्त्याः खं० २। २१. ०विद्यामाचष्टे मु० । २२. स्थिता मु० । २३. प्राप्ते त्वय्यनु० ला० । २४. अदृश्या । २५. विरहजक्लेशं खं० १ । २६. चामुञ्चं ला० । २७. क्रुधा मु०र०।२८. ०रालये ला० । २९. चक्रे सू० । ३०. सूर्पनख्यौ० खं १-२, ला०सू० । ३१. तयोह्यमानं पा०म० । उत्पाट्यमानं ला० । ३२. तर्किता खं० १-२, ला०, ता.सं.पा.आ. । ३३. नष्टा खं० १ विना । ३४. श्रीमत्तीर्थे ला० । हीमन्ताद्रेः पु० । ३५. विमु० ला० । ३६. ततोऽस्था० पु०ला० २ । तत्रास्था० खं० १-२, ला० सू०म० । ३७. चाऽन्येद्यु० ला०मु०, खं० १-२, ला०सू० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
मूच्छितोत्थापिता सा च शौरिणा जलसेकतः । ततः प्रदक्षिणीकृत्य वसुदेवमवोचत ॥४७६।। पासिद्धा विद्यास्त्वत्प्रभावान्ममाद्य शृणु चापरम् । वैताढ्याद्रावस्ति पुरं नाम्ना गगनवल्लभम् ॥४७७॥ विद्युदंष्ट्रो नमिवंश्यो राजाऽभूत् तत्र सोऽन्यदा । प्रत्यग्विदेहे प्रतिमास्थितं मुनिमुदैक्षत ॥४७८।। भोः ! कोऽप्ययमुत्पातस्तन्नीत्वैनं वरुणाचले । हतेत्युक्त्वाऽताडयत् तं विद्युइंष्ट्रो नभश्चरैः ॥४७९।। शुक्लध्यानजुषस्तस्य मुनेज॑ज्ञे च केवलम् । केर्वेलिमहिमार्थं च धरणेन्द्रः समाययौ ।।४८०॥ तस्यर्षेः प्रत्यनीकांस्तान् विलोक्य धरण: कुधा । भ्रष्टविद्यांश्चकाराऽऽशु दीनास्ते चैवमूचिरे ॥४८१॥ कोऽप्येष इति नो विद्मो विद्युइंष्ट्रेण केवलम् । उत्पातोऽसाविति प्रेर्य कर्मेदं कारिता मुनौ ॥४८२॥ धरणेन्द्रोऽप्युवाचाऽस्य केवलोत्सवहेतवे । अहमागामरे पापा ! अज्ञानान्धाः ! करोमि किम् ? ॥४८३।। भूयः क्लेशेन विद्या वः सेत्स्यन्ति परमाहताम् । साधूनां तच्छितानां च द्विषं मोक्ष्यन्ति ताः क्षणात ॥४८४|| रोहिण्याद्या महाविद्या विद्युदंष्ट्रस्य दुर्मतेः । न सेत्स्यन्त्यस्य सन्ताने पुरुषस्य स्त्रिया अपि ॥४८५।। अथ सेत्स्यन्ति ता: साधोर्महापुंसश्च दर्शनात् । इत्युदित्वा धरणेन्द्रो ययौ निजनिकेतनम् ।।४८६।।। पाइह विद्याः साधयन्ती कन्या तद्वंशसम्भवा । विष्णुना पुण्डरीकेणोदूढा केतुमती पुरा ॥४८७॥ सिद्धविद्या त्वत्प्रभावात् तद्वंश्याऽहं च कन्यका । बालचन्द्रेति चन्द्रास्य ! मामद्वह वशंवदाम ॥४८८। किं विद्यासिद्धिहेतोस्ते यच्छामीति तयोदितः । वेगवत्यै देहि विद्यामित्यूचे वृष्णिनन्दनः ॥४८९।। सा गृहीत्वा वेगवतीं ययौ गगनवल्लभे । जगाम वसुदेवस्तु तापसाश्रममेव तम् ॥४९०॥ सद्य आत्तव्रतौ भूपौ निन्दन्तौ निजपौरुषम् । तत्राऽऽयातौ प्रेक्ष्य शौरिः पप्रच्छोद्वेगकारणम् ॥४९१।। पातावूचतुश्च श्रावस्त्यामस्ति राजा महाभुजः । एणीपुत्रः पवित्रात्मा चरित्रैरतिनिर्मलैः ॥४९२॥
पुत्र्याः प्रियङ्गसुन्दर्याः स्वयंवरकृते नृपाः । तेनाऽऽहूता न चैकोऽपि तद्दुहित्रा वृतो नृपः ॥४९३।। ततः सङ्ग्राम ऑरम्भि कुद्धैः सम्भूय पार्थिवैः । एकेनाऽपि हि तत्पित्रा जिताः सर्वेऽपि विद्रुताः ॥४९४।। गिरिषु प्राविशन् केऽपि केऽप्यरण्येऽप्सु केऽपि च । आवां तु तापसौ भूतौ धिग् नौ क्लीबौ वृथाभुजौ ॥४९५।। श्रुत्वेत्यबोधयत् तौ च जैनधर्मं यदूद्वहः । ततः प्राव्रजतां शौरिः श्रावस्त्यां तु स्वयं ययौ ॥४९६।। तत्रोद्याने देवगृहं त्रिद्वारं प्रेक्षते स्म सः । दुष्प्रवेशं मुखद्वारे दत्तद्वात्रिंशदर्गले ॥४९७।। पार्श्वद्वारा प्रविष्टः स प्रतिमास्तत्र चैक्षत । एकस्यहिणश्च त्रिपदो महिषस्य च ॥४९८॥ किमेतदिति तेनैक: पृष्टो विप्रोऽब्रवीदिति । जितशत्रुनृपोऽत्राऽऽसीत् तस्य सूनुर्मूगध्वजः ॥४९९।। श्रेष्ठी च कामदेवोऽभूत् स्वगोष्ठे सोऽन्यदा ययौ । जगदे दण्डकाख्येन गोपालेन निजेन च ॥५००॥ अस्या महिष्यास्तनयाः ञ्चि पूर्वं मया हताः । अयं तु षष्ठस्तनयो जातो भद्रतराकृतिः ।।५०१।। जातमात्रोऽपि मत्पादौ नमैति स्म चलेक्षणः । भयाद् वेपथुमांस्तेन त्रातोऽयं कृपया मया ॥५०२।। त्वमप्यस्याऽभयं देहि कोऽपि जातिस्मरो ह्ययम् । इत्युक्तो महिषं श्रेष्ठी श्रावस्त्यां कृपयाऽनयत् ।।५०३॥ राजा तस्याऽभयं तेन याचितः श्रेष्ठिना ददौ । श्रावस्त्यां निर्भयमसौ सर्वत्रापि भ्रमत्विति ॥५०४।। मगध्वजकुमारणांऽहिरेकस्तस्य चिच्छिदे । स तु निर्वासितो राज्ञा प्रव्रज्यां प्रत्यपद्यत ।।५०५।। व्यापादि महिषः सोऽष्टादशे च दिवसे ततः । मृगध्वजस्य द्वाविंशे दिने जज्ञे तु केवलम् ॥५०६।।
देवा-ऽसुर-नृपा-ऽमात्यास्तमागत्य ववन्दिरे । जितशत्रनपस्तुचे किं वैरं महिषेण वः ? ५०७।। पाशशंस केवली पूर्वमश्वग्रीवोऽर्धचत्र्यभूत् । तस्याऽमात्यो हरिश्मश्रुः कौलो धर्मं निनिन्द सः ॥५०८।।
राजा समर्थयामास सदा धर्मं स आस्तिकः । एवं विरोधो ववृधे तयोर्नृपति-मन्त्रिणोः ॥५०९॥ १. पश्चिममहाविदेहक्षेत्रे । २. हरे० ला० । ३. केवल० ला० २। ४. अज्ञानान् वः पा० । अज्ञानां वः मु० । ५. 'द्वेषकर्तारं' लाटि.। ६. विद्यासिद्धा सं० । ७. वरः मु० । ८. आरेभे खं० १, सू०ला० । ९. तौ च प्रा० खं० १, सू०ला० । १०. स्वगोष्ठं ला० । ११. नमते खं० १ । १२. इत्युक्त्वा ला० । १३. विपेदे पु.ला० । व्यापादितो महिषः सोऽष्टादशदिवसे मृतः ता०सं० । १४. ०ष्टादशमे दि० ला० । १५. कौलसम्प्रदायानुयायी । 'नास्तिकः' लाटि. ।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकाफुरुषचरितम् । तौ त्रिपृष्ठा-ऽचलाभ्यां च हतौ सप्तममीयतुः । नरकं तत उद्वृत्तौ भ्रमतुर्बहुधा भवम् ।।५१०॥ अश्वग्रीवस्ततः सोऽहमभूवम् तव नन्दनः । हरिश्मश्रुर्महिषोऽभूत् तद्वैराच्च हतो मया ॥५११।। मृत्वाऽभवल्लोहिताक्षाभिधोऽयमसुराग्रणीः । वन्दितुं मां समायातो भवनाटकमीदृशम् ॥५१२॥ तं नत्वर्षि लोहिताक्षस्तस्यर्षेः श्रेष्ठिनोऽपि च । त्रिपदो महिषस्यापि रत्नमूर्तीरिहाऽकरोत् ॥५१३।। पा श्रेष्ठिनः कामदेवस्य वंशे तस्योऽस्ति सम्प्रति । कामदत्त इति श्रेष्ठी तस्य बन्धुमती सुता ॥५१४।। श्रेष्ठिना तद्वरौर्थे च पृष्टो ज्ञान्याख्यदत्र य: । उद्घाटयेन् मुखद्वारं स भावी त्वत्सुतावरः ॥५१५।। वसुदेवस्तदाकर्ण्य तद्वारमुदघाटयत् । श्रेष्ठी तत्रैत्य तां कन्यां ददौ तस्मै तदैव हि ॥५१६।। तं द्रष्टुं कौतुकाद् राजपुत्री पित्रा सहाऽऽगता । प्रियङ्गसुन्दरी दृष्ट्वा चाऽनङ्गार्ताऽभवत् क्षणात् ॥५१७॥ द्वा:स्थ: प्रियङ्गसुन्दर्यास्तां दशां वृष्णिजन्मने । एणीपुत्रचरित्रं चाऽकीर्तयद् रचिताञ्जलिः ॥५१८॥ गृहे प्रियङ्गसुन्दर्या अवश्यं प्रातरापतेः । इत्युक्त्वा स ययौ द्वाःस्थः शौरिस्त्वैक्षिष्ट नाटकम् ॥५१९।। पतत्राऽ श्रौषीन्नमिपुत्रो वासवः खेचरोऽभवत् । तद्वंश्या वासवाश्चाऽन्ये पुरुहूतश्च तद्भवः ॥५२०।। पर्यटन् द्विपमारूढः पुरुहूतोऽन्यदैवत । अहल्यां गौतमभार्यां रमयामास चाऽऽश्रमे ॥५२१।। तदा तया॑ऽपविद्यस्य पुल्लिङ्गं गौतमोऽच्छिदत् । तच्छ्रुत्वा यादवो भीतो नाऽगात् प्रियङ्गसुन्दरीम् ॥५२२।। बन्धुमत्या समं शौरिः सुप्तो निद्रात्यये च सः । निशि देवी ददशैकां काऽसाविति विचिन्तयन् ॥५२३।। किं चिन्तयसि वत्सेति जल्पन्ती साऽपि देवता । पाणौ गृहीत्वाऽनैषीत् तमशोकवनिकान्तरे ।।५२४।। पाइत्यूचे चाऽत्र भरते श्रीचन्दनपुरे पुरे । अमोघरेता भूपोऽभूत् तस्य चारुमती प्रिया ॥५२५।।
चारुचन्द्रः सुतो वेश्याऽनङ्गसेनेति नामतः । तस्याः कामपताकेति पुत्री चाऽऽसीत् सुलोचना ॥५२६।। राज्ञो यज्ञेऽथ तस्येयुस्तापसास्तेषु कौशिकः । तृणबिन्दुश्चोपाध्यायौ फलान्यापर्यतामुभौ ॥५२७॥ कुत: फलांनीदृशानि पृष्टौ राज्ञोचतुश्च तौ । हरिवंशोत्पत्त्यानीतकल्पद्रोरादितः कथाम् ।।५२८॥ छुर्या तदा च नृत्यन्ती जहे कामपताकिका । चारुचन्द्रकुमारस्य कौशिकर्षेश्च मानसम् ।।५२९।। यज्ञे वृत्ते कुमारस्तामात्मसादकरोद् द्रुतम् । स तापसः कौशिकस्तु पार्थिवात् तामयाचत ॥५३०॥ ऊचे राजा कुमारेण गृहीता श्राविका त्वसौ । प्रतिपन्ने सति पत्यौ न द्वितीयं पतिं भजेत् ।।५३१॥ एवं राज्ञा प्रतिषिद्धः सङ्क्रुद्धः कौशिकोऽशपत् । रमयिष्यति चेन्नारी तत् तदैव मरिष्यति ॥५३२।। राजाऽथ चारुचन्द्राय दत्त्वा राज्यं स्वसूनवे । प्रपेदे तापसीभूय वनवासं महामतिः ।।५३३॥ अज्ञातगर्भा तद्राज्ञी वनं तेन समं ययौ । कालेन प्रकटे गर्भे पत्युः शङ्काच्छिदेऽवदत् ॥५३४|| तया च सुषवेऽन्येधुऋषिदत्तेति कन्यका । क्रमेण श्राविका साऽभूच्चारणश्रमणान्तिके ।।५३५।। सा प्राप यौवनं तस्या मातृ-धात्र्योऽम्रियन्त च । तत्राऽन्येधुर्भगव्येनाऽऽययौ राजा शिलायुधः ।।५३६।। तदर्शनात् कामवशस्तदातिथ्यं प्रपद्य च । नीत्वैकान्तेऽरमयत् तां नानाभङ्ग्या शिलायुधः ॥५३७।। साऽप्यूचेऽहमतुस्नाता गर्भः स्याच्चेत् कथञ्चन । आख्याहि कुलकन्यायास्तदा का नाम मे गतिः ? ॥५३८।। सोऽप्युवाचाऽहमैक्ष्वाकः श्रावस्त्यां पुरि पार्थिवः । शिलायुधो नामधेर्यात् शतायुधनृपात्मजः ॥५३९॥ यदि ते जायते पुत्रः श्रावस्त्यां स ममान्तिके । त्वयाऽऽनेयो मया कार्यः स एव नृपतिस्तदा ॥५४०।। इत्युक्ते तद्बलान्येयुस्तामापृच्छ्य ययौ च सः । तत् साऽपि पितुराचख्यौ क्रमाच्च सुषुवे सुतम् ।।५४१।।
तेन प्रसवरोगेण ऋषिदत्ता व्यपद्यत । ज्वलनप्रभनागस्याऽग्रमहिषी बभूव च ॥५४२।।। १. उद्धृतौ मुर. । २. तत्रास्ति ला० । ३. तद्वरार्थेन खं० १ । ४. वासवा जज्ञे पुरु० ला० । ५. गोतम० खं० १-२, सू० । ६. तस्याप्यविद्यस्य सू० । तस्योप० खं० २ । तस्योपविष्टस्य ला० । ७. गोतमो० खं० १-२, सू० । ०मोऽच्छिनत् ता०सं० । ८. तस्यैयु० मु० । ९. फलानीदेशीति ता.सं. खं० २, ला० । १०. ०वंश्योत्पन्नानीतिकल्प० ला० । ११. छुर्या की०र० । १२. समाहितः खं० १ । १३. समाययौ की० । १४. ०काऽथाभू० ला० । १५. ०{गयया० ला० । १६. ०धेयच्छत्रायुध० ला० । ०धेयच्छता० खं० २१ १७. सा ता० सं० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तत्पिताऽमोघरेतास्तं पाणिनाऽऽदाय दारर्कम् । रुरोद तापसः शोकादस्तोकं सोऽन्यलोकवत् ॥५४३।। ज्वलनप्रभभार्या तु साऽहं ज्ञात्वाऽवधेः स्वयम् । तत्रैत्य तं मृगीरूपा स्तन्येनाऽवर्धयं सुतम् ॥५४४॥ एणीपुत्र इति नाम्ना विख्यातस्तेन सोऽभवत् । मृत्वाऽभूत् कौशिकोऽहिर्दृग्विषो मत्पितुराश्रमे ॥५४५।। मत्तातं सोऽदशत् करो हतं तस्य मया विषम् । बोधितः सोऽप्यहिर्मत्वा बलो नाम सरोऽभवत ॥५४६॥ ऋषिदत्तावपुः कृत्वा श्रावस्त्यामेत्य भूपतेः । तस्याऽऽर्पयं सुतं तच्चाऽसंस्मरन् सोऽग्रहीन हि ॥५४७|| मुक्त्वा तस्यान्तिके पुत्रं स्थित्वाऽऽकाशेऽहमभ्यधाम् । वने तदर्षिदत्ताख्या कन्याऽहं रमिता त्वया ॥५४८॥ त्वत्तः सुतोऽसौ जज्ञेऽस्मिन् जायमाने मृता त्वहम । देवत्वं प्रापवत्येणीभय चैनमवर्धयम् ॥५४९।। एणीपुत्रः सुतस्तेऽसावित्युक्ते तु शिलायुधः । राज्ये निधाय तं पुत्रं प्रव्रज्य त्रिदिवं ययौ ॥५५०॥ पाएणीपुत्रेणाऽपत्यार्थेऽष्टमभक्तेन तोषिता । अदां पुत्रीमहं जज्ञे चैषा प्रियङ्गसुन्दरी ॥५५१॥ अस्याः स्वयंवरे राज्ञाऽनेनाऽऽहूता महीभुजः । न चैकोऽप्यनया वव्रे युद्धं चाऽऽरम्भि राजभिः ॥५५२।। मत्सान्निध्याज्जिताः सर्वेऽप्येणीपुत्रेण भूभुजः । प्रियङ्गसुन्दरी सा तु त्वां दृष्ट्वाऽद्य वुवूर्षति ॥५५३।। त्वदर्थेऽष्टमभक्तेन तयाऽस्म्याराधिताऽनघ ! । मयाऽऽदिष्टस्त्वामवोचद् वेत्रभृद्न्धरक्षितः ॥५५४॥ अज्ञानात् त्वमवाज्ञासीरधुना तु ममाऽऽज्ञया । तेनाऽऽहूतः परिणयरेणीपुत्रस्य तां सुताम् ॥५५५॥ याचस्व च वरं कञ्चिदित्युक्तो यादवोऽवंदत् । मया स्मृता समागच्छे: प्रतिपेदे च सा तथा ॥५५६।। शौरि बन्धुमतीगेहे मुक्त्वा देवी तिरोदधे । प्रातःस्थेन सहित शौरिरायतने ययौ ॥५५७।। प्रियङ्सुन्दरीं तत्र पूर्वायातामुपायत । गान्धर्वेण विवाहेन यादवः परया मुदा ॥५५८।।
देवीदत्तवरं शौरिं स द्वा:स्थोऽष्टादशे दिने । राज्ञे व्यजिज्ञपद् राजाऽप्यानैषीत् तं स्ववेश्मनि ॥५५९।। पाइतश्च वैतादयगिरौ पुरे गन्धसमृद्धके । गन्धारपिङ्गलो राजा तस्य कन्या प्रभावती ॥५६०॥
सा भ्रमन्ती सुवर्णाभे नगरेऽगाद् ददर्श च । सोमश्रियं सखीत्वेन सपदि प्रत्यपादि च ॥५६१।। तस्याश्च पतिविरहं ज्ञात्वोवाच प्रभावती । मा ताम्य सखि ! भर्तारमानयामि तवाऽधुना ॥५६२॥ ऊचे निःश्वस्य सोमश्रीर्वेगवत्यानयद् यथा । आनेष्यसि तथैव त्वं नाथं मे रूपमन्मथम् ॥५६३।। न ह्यहं वेगवत्यस्मीत्युदित्वा च प्रभावती । श्रावस्त्यामेत्य वार्ष्णेयं गृहीत्वा तत्र चाऽऽनयत् ॥५६४॥ कृतान्यरूपस्तत्राऽस्थात् शौरिः सोमश्रिया समम् । ज्ञातो मानसवेगेन बद्धश्चाऽन्येधुरेत्य सः ॥५६५।। जाते कलकले शौरिर्मोचितो वृद्धखेचरैः । तेन मानसवेगेन विवादश्च प्रचक्रमे ॥५६६।। वैजयन्त्यां ततः पुर्यां बलसिंहनृपान्तिके । 'तौ वादेऽधिष्ठितौ तत्र ते चेयुः सूर्पकादयः ॥५६७।। ऊचे मानसवेगः प्राक् सोमश्रीर्मम कल्पिता । अनेन हि च्छेलादूढा मददत्ता च मत्स्वसा ।।५६८॥ उवाच शौरिः सोमश्रीर्मयोढा पितृकल्पिता । तां जहेऽसौ वेगवत्याः सर्वं वेत्ति जनोऽपि तत् ॥५६९।। एवं मानसवेगस्तु जितो युद्धार्थमुत्थितः । नीलकण्ठोऽङ्गारकश्च सूर्पकाद्याश्च खेचराः ॥५७०॥ ददौ वेगवतीमाताऽङ्गारवत्यथ शौरये । दिव्यं धनुर्निषङ्गौ च प्रज्ञप्ती तु प्रभावती ॥५७१।। विद्या-दिव्यास्त्रपुष्टौजा बिडौजा इव यादवः । एकोऽपि खेचरान् सर्वानजैषील्लीलयैव तान् ॥५७२॥ बद्ध्वा मानसवेगं चाऽक्षिपत् सोमश्रियः पुरः । श्वश्र्वा अङ्गारवत्याश्च गिरा शौरिर्मुमोच तम् ॥५७३।। वृतो मानसवेगाथै त्यीभूतैः स खेचरैः । सोमश्रीयुग् विमानस्थो महापुरपुरं ययौ ॥५७४॥ तत्र सोमश्रिया सार्धं विललास यद्वहः । अन्येधुः सूर्पकेणाऽश्वीभूय जहे स मायिना ।।५७५।। ज्ञात्वा च मुष्टिना शौरिस्ताडयामार
पूर्पकेण ततो मुक्तः सोऽपतज्जाह्नवीजले ॥५७६।। १. बालकम् पा० आ० । २. एणीरूपा खं० २ । ३. स्वयम् पु०सं० । ४. जहे सू० । ५. जातोऽस्मिन् खं० १ । ६. आदां खं० १। ७. राज्ञा तेना० ला० । ८. ०द्रङ्गरक्षितः खं० १ ला० । ०दङ्गरक्षितः खं० २। ९. ०वदीत् खं० १ । १०. गन्धर्वेण खं० २ । ११. राज्ञो० खं० २ । १२. अन्विष्यसि ला० । १३. वसुदेव-मानसवेगौ । १४. चैयुः मु० । १५. बला० ला० । १६. वेगवत्या सर्वं र.। १७. ० त्यभूतैः खं० १ ।
॥जयामास सप
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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स उत्तीर्य च गङ्गायाः प्रययौ तापसाश्रमम् । तत्रैक्षिष्ट स्त्रियं चैकां कण्ठन्यस्तास्थिमालिकाम् ॥५७७॥ पृष्टाश्च तापसा आख्यन् जितशत्रुनृपप्रिया । जरासन्धस्य पुत्रीयं नन्दिषेणेति नामतः ।।५७८।। [युग्मम्] वशीकृता परिव्राजैकेनैषा स च भूभुजा । हतस्तदस्थीन्यद्यापि धत्तेऽसौ दृढेकार्मणा ॥५७९॥ ततो मन्त्रबलाच्छौरिस्तां चक्रे गतकार्मणाम् । जितशत्रुर्ददौ तस्मै जामि केतुमती निजाम् ॥५८०॥ एत्य डिम्भो जरासन्धद्वा:स्थस्तं नृपमब्रवीत् । नन्दिषेणाप्राणदाता प्रेष्यतामुप॑कार्ययम् ॥५८१।। राज्ञाऽपि युक्तमित्युक्ते तेनैव वेत्रिणा । रथारूढो ययौ शौरिर्मगधेश्वरपत्तनम् ॥५८२॥ बद्धस्तत्र स आरक्षैरपृच्छद् बन्धकारणम् । तेऽप्याचख्युर्जरासन्धस्याऽऽख्यातं ज्ञानिना ह्यदः ॥५८३।। नन्दिषेणां दुहितरं यस्ते सज्जीकरिष्यति । हन्ता ते तत्सुतोऽवश्यं ज्ञातश्चाऽऽसीति हन्यसे ।।५८४॥ इत्युक्त्वा यादवं वध्यस्थाने पशुमिवाऽनयन् । असज्जन् मुष्टिकाद्याश्च ते दशाह निबहितुम् ॥५८५।। तदा गन्धसमृद्धेशोऽपृच्छद् गन्धारपिङ्गलः । प्रभावत्या वरं विद्यां वसुदेवं च साऽवदत् ॥५८६।। तेन प्रैषि तमानेतुं तत्र धात्री भगीरथी । सा निन्ये तेभ्य आच्छिद्य शौरिं गन्धसमृद्धके ॥५८७॥ पर्यणैषीत् तत्र शौरिः पितृदत्तां प्रभावतीम् । रममाणस्तया सार्धं चावतस्थे यथासुखम् ॥५८८।।
विद्याधरस्त्रीरपराश्च शौरिः,
गत्वोपयेमेऽथ सुकोशलां च । सुकोशलायाः सदने स्थितश्च,
__ प्रत्यूहहीनं विषयानभुङ्क्त ॥५८९।।
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये अष्टमपर्वणि श्यामादि-सुकोशलान्तं मानुषी-विद्याधरी पैरिणयनो नाम
द्वितीयः सर्गः ॥
१. धत्ते सा सू० । २. दृढकर्मणा मु० । दृढं कार्मणं यस्यां सा । ३. ०मुपकारिणम् ता०सं० । ४. तस्याचख्यु० खं० १ । ५. हन्यते खं० १ । ६. येमेऽथ सुरेन्द्ररूपः खं० १ । येमे च सुको० मु० । ७. सुकोसलां खं० १। ८. सुकोसलायाः खं०
१-२, सू०। ९. ०हीने ला० । १०. सुकोसला० खं० १-२, सू० । ११. ०शलान्तकन्यापरि० मु० ।
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॥ तृतीयः सर्गः ॥ इतश्चाऽत्रैव भरते विद्याधरपुरोपमम् । पेढालपुरमित्यस्ति सद्भुितनिधानभूः ॥१॥ तत्रोत्फुल्लगृहोद्यानानिलो भवति शर्मणे । वस्त्राधिवासनागन्धकारी यूनामहर्निशम् ॥२॥ तत्रौकोरत्नबद्धोर्वीसङ्क्रान्तोडुषु बालिकाः । क्षिपन्ति पाणीन् यामिन्यां दन्तौडङ्कशङ्कया ॥३॥ तद्गृहेषूत्पताकेषु दृश्यन्ते निधिशालिषु । प्रचलत्पताकाच्छायारक्षा विषधरा इव ॥४॥ तन्निवासी जनः सर्वः सर्वतः समपृच्यत । दृढेन जिनधर्मेण नीलीरागेण वस्त्रवत् ॥५॥ प्रतत्र राजा हरिश्चन्द्रश्चन्द्रवनिर्मलो गुणैः । बभूवाऽद्भुतया ऋद्ध्या बिडोजर्स इवाऽनुजः ॥६॥
सूत्थानस्येन्द्रियजये नय-विक्रमशालिनः । तस्य भ्रूवल्लरीदास्यमनिशं शिश्रियुः श्रियः ।।७।। तस्य श्रियामपाराणां स्पर्धयेव यशांस्यपि । अपारीभूय भुवने व्यजृम्भन्त निरर्गलम् ॥८॥ तस्याऽमलयशोराशेर्भागधेयमगीयत । सुर-खेचरनारीभिर्वैताढ्याधियंकास्वपि ॥९॥ तस्याऽग्रमहिषी प्राणवल्लभा रूपेशालिनी । अभूलक्ष्मीवती नाम लक्ष्मीर्लक्ष्मीपतेरिव ॥१०॥ शीलेन लज्जया प्रेम्णा दाक्ष्येण विनयेन च । बभूव सा पतिमनः-कुमुदानन्दचन्द्रिका ॥११॥ आलपन्ती प्रणयिनः प्रीतिकोमलया गिरा। सा सुधासारणिमिवाऽऽदधे तत्कर्णरन्ध्रयोः ॥१२॥ सा कलाभिः पल्लविता पुष्पिता 'यादिभिर्गुणैः । पतिभक्त्या च फलिता 'बभौ वल्लीव जङ्गमा ॥१३॥ पाकालेन गच्छता लक्ष्मीवत्या प्रसषवे सता । सूतिकागहमङ्गल्यदीपिकेव स्वरोचिषा ।।१४।। सर्वलक्षणया जातमात्रयाऽपि तया तदा । श्रियेव गृहमेयुष्या पितरौ तावहष्यताम् ॥१५॥ पूर्वजन्मपतिस्तस्या धनदोऽभ्येत्य तत्क्षणम् । तत्राऽतनिष्ट कनकवृष्टिं प्राक्स्नेहमोहितः ॥१६॥ तया कनकवृष्ट्या च हृष्टो लक्ष्मीवतीपतिः । तस्याः सुतायाः कनकवतीति विदधेऽभिधाम् ॥१७॥ अङ्कादइँ सञ्चरन्ती सा धात्रीणां स्तनन्धयी । क्रमाद् बभूव हंसीव पादचङ्क्रमणक्षमा ॥१८॥ तां पद्भयामुपसर्पन्तीं दृष्ट्वा प्रक्रान्ततालिकाः । उल्लापनैनवनवैर्गायन्ति स्मोपातरः ॥१९॥ शनैः शनै स्तां जल्पन्तीं लल्ल-मन्मनया गिरा । महरालापयन् धात्र्यः शारिकॉमिव कौतकात ॥२०॥ आबद्धकन्तला लोलकण्डला क्वाणिनपरा । सा रत्नकन्दुकै रेमे रमेवाऽपरमूर्तिभाक् ॥२१॥ कृत्रिमैः पुत्रकैर्नित्यं रममाणा ववर्ष सा । हर्षप्रकर्षमुद्दामं मातुरुन्निद्रचक्षुषः ॥२२॥ उज्झन्ती मौरध्यमधुरां क्रमेण क्षीर कण्ठताम् । कलाकलापग्रहणयोग्या कनकवत्यभूत् ॥२३।। शुभेऽह्नि कनकवती कलाग्रहणहेतवे । उचितस्य कलाचार्यस्याऽर्पयामास भूपतिः ॥२४॥ अष्टादशाऽपि च लिपीलिपिस्रष्ट्रीव "साऽबुधत् । शब्दपारायणं चक्रे कण्ठस्थं निजनामवत् ।।२५।। तर्काभ्यासादलमभत "पत्रदाने गरोरपि । छन्दोऽलङ्कारशास्त्राब्धिपारदश्वर्यजायत ।।२६।। १. आश्चर्यम् । २.३. यत्रो० मु० । ४. ओक:-गृहम् । ५. तारासु । ६. हस्तिदन्तघटितकर्णाभूषणशङ्कया । ७. यद्गृहे० मु० । ८. चलत्पताकिकाच्छाया० पु० मु० । चिरं पताकाच्छायापदेशाद् विष० वि० ला० सू० । ९. तत्र वासी सू० । यत्र मु० । १०. सममृज्यत खं० २ । समविध्यत सू० । समरज्यत मु० । 'वासितः' लाटि० । ११. इन्द्रस्य । १२. सुध्यान० खं० १ सू० । सोत्साह० ला० । सुस्थान० मु० । उद्यमवतः । १३. ऊर्ध्वभूमिषु । १४. शीलशालिनी की० । १५. लक्ष्मवती खं० २ । १६. प्रणयिनी खं० २ । १७. ०णिमिव दधे पु०आ० । १८. पुष्पिताऽऽह्लादिभि० ला० । १९. ०ऽऽवनौ ला० । २०. ०गृहमाङ्गल्य० मु०। ०दीपकेव खं० २ । २१. स्वकान्त्या । २२. अकरोत् । २३. ०मोहतः खं० २ । २४. आह्वानैः । २५. धात्र्यः । २६. शनैः सा जल्पन्ती ला० । २७. अस्फुटया । २८. सारिका 'मेना' इति भाषायाम् । २९. क्वणत्-शब्दं कुर्वत् नूपुरं यस्याः । ३०. ववर्ध खं० २, ला० सू० । ३१. बालताम् । ३२. ब्राह्मीव । ३३. साधुवत् खं० १ । ३४. व्याकरणम् । ३५. गुरोरपि वादायाह्वानदाने।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
षड् भाषानुगया वाचा काव्यकौशलमाप च । अचित्रीत चित्रे च पुस्तकर्मण्यभत ||२७|| किया - कारकेंगुप्तज्ञा वेदित्री च प्रहेलिकाः । सकलद्यूतदक्षा च सारथ्यकुशलाऽप्यभूत् ॥२८॥ संवाहँकत्व-कल्पाऽभूज्जज्ञे रसवर्तीकलाम् । प्राप मायेन्द्रजालादिप्रादुर्भावननैपुणम् ॥ २९ ॥ आचर्यकमिव प्राप तूर्यत्रितयदर्शने । सा काऽपि हि कला नास्ति सम्यग् यां न विवेद सा ||३०|| षड्भिः कुलकम् ॥ [सा प्रपेदेऽनवद्याङ्गी लावण्यजलनिम्नगा । कलाकलापसफलीकरणं मध्यमं वयः ||३१|| तद् दृष्ट्वा पितरौ तस्या वरान्वेषणतत्परौ । अपश्यन्तौ वरं योग्यमारेभाते स्वयंवरम् ||३२|| || अपरेद्युः स्वसदने सुखासीना मृगेक्षणा । अकस्मादागतं राजहंसमेकं ददर्श सा ||३३|| अशोकपल्लवाताम्रचञ्च-च्चरण- लोचनम् । पाण्डिम्ना नवडिण्डीरपिण्डैरिव विनिर्मितम् ||३४|| स्वर्णघर्घरिकामालभारिग्रीवं कलस्वनम् । नृत्यन्तमिव यानेन तं दृष्ट्वा सेत्यचिन्तयत् ||३५|| युग्मम् ॥ कस्याऽप्यनल्पपुण्यस्य विनोदास्पदमेष हि । स्वामिस्वीकारबाह्यं हि पक्षिणां भूषणं कुतः ? ||३६|| स्वामिनो यस्य कस्याऽपि भवत्वेष सितच्छेदः । विनोदायाऽस्तु मे बाढं ममेहोत्कण्ठते मनः ||३७|| गवाक्षलीनमथ तं हंसं सा हंसगामिनी । मङ्गल्यचामरमिव श्रियः स्वयमुपाददे ||३८|| पद्मक्षी पाणिपद्मेन सुखस्पर्शेन सा शनैः । मरालं लालयामास तं क्रीडापुण्डरीकवत् ॥३९॥ शिरीषसुकुमारेण पाणिनाऽमार्जयच्च सा । तस्याऽमलं पिच्छकोशं केशपाशं शिशोरिव ॥ ४० ॥ सखीं कनकवत्यूचे दारुपञ्जरमानय । यथा तत्र क्षिपाम्येनं नैकत्र स्थायिनः खगाः ॥ ४१ ॥ दारुपञ्जरमानेतुं सा यावत् प्राचलत् सखी । स हंसो वक्तुमारेभे तावन्मानुषभाषया ||४२|| राजपुत्रि ! विर्विक्ताऽसि मा मा मां पञ्जरे निधा: । तुभ्यं निवेदयिष्यामि प्रियं किञ्चिद् विमुञ्च माम् ||४३|| हंसं मानुषवाचा तं वदन्तं प्रेक्ष्य विस्मिता । सा गौरवाददोऽवादीत् प्रियातिथिमिवाऽऽगतम् ॥४४॥ प्रत्युताऽसि प्रसादाह हे हंस ! कथय प्रियम् । शर्करातोऽपि मधुरा वार्ताऽर्धकथिता सती ||४५ ।। ||हंसोऽप्याख्यत् कोशैलायां नगर्यां खेचरेशितुः । कोशैलस्याऽमरीकल्पा दुहिताऽस्ति सुकोशला ॥४६॥ कोशलापतिश्चास्ति युवा सौन्दर्य सारभूः । तं दृष्ट्वा भज्र्ज्यंते रेखा सर्वेषां रूपशालिनाम् ॥४७॥ सुकोशैंलापतिर्लोकोत्तररूपः स सुन्दरि ! । तद्रूपसदृशं रूपं ह्यदर्शे यदि नाऽन्यतः ॥४८॥
यथा हि स युवा रूपसम्पदा नृशिरोमणिः । नारीशिरोमणिस्तद्वत् त्वमप्यसि मनस्विनि ! ॥४९॥ युवयोरूपदृश्वाऽहं युवयोः सङ्गमेच्छया । त्वां तस्य सम्यगाख्यायाऽऽख्यातवानस्मि तं तव ॥५०॥ स्वयंवरं च ते श्रुत्वा तथा तस्याऽसि वर्णिता । तव स्वयंवरे भद्रे ! स यथा स्वयमेष्यति ॥५१॥ स्वयंवरे बहूनां च मध्ये तैमुपलक्षयेः । नक्षत्रनाथं नक्षत्रेष्विवाऽनल्पेन तेजसा ॥५२॥ तन्मुञ्च मां स्वस्ति तुभ्यमपवादो धृते मयि । विधिर्भट्टारक इव पत्यर्थं प्रयते तव ॥ ५३ ॥ न सामान्यः पुमानेष क्रीडया हंसरूपभृत् । पतिः सम्पत्स्यतेऽनेन दध्यौ कनकवत्यदः ॥५४॥ तं मुमोच च सा हस्तात् स उत्पत्य विहायसा । तदुत्सङ्गे चित्रपटमपातयदुवाच च ॥५५॥
१. संस्कृतं, प्राकृतं, मागधी, पैशाची, शौरसेनी, अपभ्रंश: इति षड् भाषाः । २. चित्रेषु मु० र० । ३. पुस्तं धातुकाष्ठादिभिर्वस्तुनिर्माणं तत्कर्मणि । “पुस्तं लेप्यादिकर्मणि" (अमर० २, शूद्र० २८); लेप्यं मृदा पुत्तलिकादिकरणं, आदिना काष्ठपुत्तलिकाकर्म गृह्यते (टीका) । ४. प्रावीण्यमलभत । ५. ०कारकगुप्तिका ला०पु० आ० । ६. समस्या: । ७. अङ्गमर्दनकलायां दक्षा । ८. ०वतीं कलाम् । ९. आचार्यत्वम्। १०. गेयं नृत्यं वाद्यं च । ११. नदी । १२. तां दृष्ट्वा पा. पु० । १३. श्वैत्येन । १४. डिण्डीरः समुद्रफेनः । १५. स्वर्णस्य घर्घरिका-किङ्किणिका:, तासां मालां बिभर्ति ग्रीवायां स: । १६. गमनेन । १७. हंसः । १८. माङ्गल्य: मु० | १९. पद्माक्षा मु० । २०. 'लीलाकमलवत्' लाटि० । २१. ०मलपिच्छ० खं० २ । २२. विदग्धाऽसि खं० २। विवेकशीला । २३. मानववाचा छा० । २४. 'सन्मुखं' लाटि० । २५.२६.२७.२८. 'कोशल' मध्ये श स्थाने 'स०' खं० १ - २, सू० । २९. ०सारभृत् खं० २ । ३०. भग्नरेखाऽस्मि स० खं० १ । भग्नरेखोऽस्मि स० सू० । ३१. सुकोसला० खं० १-२, सू० । ३२. दर्पणे । ३३. रूपद्रष्टाऽहं खं० १, ला०मु० । ३४ ततः खं० २ । ३५ त्वमुप० मु० । तमपि ल० ला० । ३६. चन्द्रम् । ३७ विधिभट्टा० मु० र० । भट्टारकः पूज्यः । ३८. ०ते तेन खं० १-२, ला०
For Priv39-Shiv
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
इहाऽस्ति लिखितो भद्रे ! स युवा यादृगीक्षितः । दृष्ट्वाऽऽलेख्यगतममुं जानीथास्तमिहाऽऽगतम् ॥५६॥ प्रीता कनकवत्यूचे कृताञ्जलिपुटा च तम् । कोऽसि त्वं ? कथयित्वा स्वं मनागनुगृहाण माम् ॥५७॥
स खेचरो हंसँचरश्चलत्काञ्चनकुण्डलः । दिव्याङ्गरागनेपथ्यस्तथ्यवागिदमभ्यधात् ।।५८॥ पाअहं चन्द्रातपो नाम खेचरोऽस्मि वरानने ! । भाविनस्त्वत्पतेरस्य पादशुश्रूषणोद्यतः ॥५९।। विद्याप्रभावादन्यच्च निरघे ! कथयामि ते । त्वामेष्यत्यन्यदूत्येन स्वयंवरदिने च सः ॥६०॥ इत्युक्तवन्तं दत्ताशी: खेचरं विससर्ज सा । दध्यौ च संवदति मे दिष्ट्या यदैवतं वचः ॥६१॥ पातयाऽथ चित्रस्थपतिदर्शनातृप्तया पट: । भूयो भूयोऽक्षिवच्चके मीलनोन्मीलनास्पदम् ॥६२।।
क्षणं मूजि क्षणं कण्ठे क्षणं हृदि च सा पटम् । दधे विरहतापार्ता बाला कदलिकाण्डवत् ॥६३।। पाचन्द्रातपोऽपि तत्कालं तयोः सङ्गमकौतुकी। ययौ विद्याधरपरे विद्याधरविभूषिते ॥६४॥ विद्याशक्त्या महीयस्या स न स्वानिवाऽस्खलन् । वसुदेवाश्रितं वासभवनं प्राविशन्निशि ॥६५।। हंसरोमतूलिकाङ्के तल्पे धौतोत्तरच्छदे । सकलत्रं वसुदेवं शयानं च ददर्श सः ॥६६॥ विद्याधरीभुजलौच्छीर्षकं सुखशायिनम् । पार्दसंवाहनेनोपार्कस्त शौरिं स सेवितुम् ॥६७॥ शौरी रतक्लमोत्पन्ननिद्रासुखभरोऽपि हि । क्षणादथ जजागार सूत्थाना हि नरोत्तमाः ॥६८।। आकस्मिकं निशीथेऽपि तं तदोद्वीक्ष्य यादवः । न बिभाय न चुकोप प्रत्युतैवं परामृशत् ॥६९।। पुमानेष विरुद्धो में न हि तावदुपासनात् । शरणार्थी भवेद् यद्वा यद्वा मत्कार्यचिन्तकः ॥७०॥ यद्यालपाम्यमुं पादसेवकं मृदुवागपि सुरतक्लान्त्या तदा देव्यपि जागृयात् ।।७१।। न चोपेक्षितुमर्हामि सेवापरममुं जनम् । उपेक्षकस्यापि हि मे न निद्राऽस्मिन्निह स्थिते ।।७२॥ तदुत्थाय प्रयत्नेन देवीमप्रतिबोधयन् । पर्यङ्कात् परतो भूत्वा वार्तयाम्यमुमादृतम् ॥७३॥
अनन्दोलितपर्यङ्कस्तनुलाघवनाटनात् । दशार्हस्तल्पमुज्झित्वा निषसाद ततोऽन्यतः ॥७४॥ पचन्द्रातपोऽपि सर्वाङ्गरत्नाभरणभूषितः । दशार्ह दशमं भक्त्या प्राणमत् पत्तिलेशवत् ॥७५।। य आख्यत् कनकवतीं सोऽयं चन्द्रातपाभिधः । विद्याधर इति शौरिरुपलक्षयति स्म तम् ॥७६।। दशाहः प्रतिपत्त्यहँ तं परिष्वज्य खेचरम् । पृच्छति स्म स्वागतिकः स्वयमागमकारणम् ॥७७।। ततश्चन्द्रातपश्चन्द्रातपशीतलया गिरा । प्रौढ्या प्रज्ञावतां धुर्यो वक्तुमेवं प्रचक्रमे ॥७८॥ पातादृशीं कनकवतीं तवाऽऽख्याय यदूद्वह ! । त्वामप्याख्यातवानस्मि तस्यै सद्भूतवर्णनात् ॥७९॥ विद्याबलाच्च त्वां नाथ ! पटे लिखितवानहम् । तं पटं चाऽर्पयं तस्यै तन्मुखाम्भोजभास्करम् ॥८०॥ दृष्ट्वा पटस्थं त्वां राकामृगाङ्कमिव सम्मदात् । तस्या अमुञ्चताम् वारि लोचने चन्द्रकान्तवत् ॥८१।। साऽधात् तदैव त्वन्मूर्तिसनाथं तं पटं हृदि । दातुं विरहसन्तापसंविभागमिव त्वयि ॥८२।। सा यन्त्रशालभञ्जीव वर्षनेत्रा कृताञ्जलिः । मामिति प्रार्थितवती गौरवोत्तारिताञ्चला ॥८३।। मोपेक्षिष्ठा वराकी मां नाऽऽप्तो" मे त्वदृतेऽपरः । उपानयेस्तं पुरुषं सर्वथा मत्स्वयंवरे ॥८४।। नाथाऽद्य कृष्णदशमीदिवसस्तदनन्तरम् । भावी सितायां पञ्चम्यां पूर्वाह्ने तत्स्वयंवरः ॥८५॥ स्वयंवरोत्सवे तत्र प्रयोतुं यूयमर्हथ । त्वत्सङ्गमाशाजीवातुरनुग्राद्यैव सा त्वया ॥८६।। १. चित्रगतम् । २. प्रीत्या पु०आ० । ३. कथयात्मानं की० । ४. भूतपूर्वो हंस: हंसचरः । हंसवर० खं० १-२ । ५. ०श्चलकाञ्च० - खं० १ । ६. ०रूपेण ला० । अन्यस्य दूतो भूत्वा । ७. तया च खं० १ । ८. वायुरिव' लाटि० । ९. ०लतोत्कर्षकं खं० १ । १०. पादसंवाहनेन शौरिं सेवितुमारेभे । ११. विभावयन्न चु० खं० १ । १२. परामृशन् खं० १-२ । १३. सुखसुप्ता रत० की०म० । १४. च खं० १-२, ला० सू० । १५. अनान्दोलित० पु०आ०म० । १६. तदन्यत: ला० । १७. प्रतिपत्त्यर्थं ता० सं० । १८. स्वागतिकं मु० र० । १९. पूर्णिमाचन्द्रम् । २०. हर्षात् । २१. तस्या ववर्षतुर्वारि मु० । २२. चन्द्रकान्तमणिवत् । २३. ०मिवोद्यता सू० । २४. यान्त्रिकपुत्तली । २५. त्वया विनाऽपरो मे न हितः । २६. स्वामिस्त्वं गन्तुमर्हसि खं० १, ला० की० छा० ला०२ । २७. 'भवत्सङ्गमस्याशैव जीवितं यस्याः सा' लाटि. ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पावसुदेवोऽप्यथाऽवादीच्चन्द्रातप ! दिनोंदये । आपृच्छ्य स्वजनानेवं करिष्ये मुदैमुद्वह ॥८७॥ तिष्ठेस्त्वं प्रमदवने मया सह यियासया । स्वप्रयत्नफलं हन्त पश्येस्तस्याः स्वयंवरम् ॥८८॥ एवमुक्ते तिरोऽधत्त स विद्याधरदारकः । वसुदेवस्तु सुष्वाप तल्पेऽनल्पप्रमोदभाक् ॥८९॥ पास्वजनान प्रातरापृच्छयाऽनुज्ञाप्य प्रेयसीजनम् । वसुदेवो ययौ प्रातः पेढालपुरपत्तनम् ॥९॥ तत्र राजा हरिश्चन्द्रः समागत्य यद्वहम् । अवासयदुपवने लक्ष्मीरमणनामनि ॥९१।। अशोकपल्लवाताम्र पाटलामोदशालिनि । केतकीकुसुमस्मेरे सप्तच्छदसुगन्धिनि ।।९२।। कृष्णेक्षु-नागरगाढ्ये कुन्दकुड्मलदन्तुरे । तत्रोद्याने विशश्राम शौरिर्दृष्टिं विनोदयन् ॥ ९३।। युग्मम् ॥ ततश्च कनकवतीपिता स्वविभवोचिताम् । अर्हणामर्हणीयस्य व्यधादानकदुन्दुभेः ॥१४॥
पूर्वनिष्पादितेषूच्चैः-प्रासादेषु गृहेषु च । तत्रोद्याने स्थितः शौरिरैतिहमशृणोदिदम् ॥९५।। पापुरा समवसरणं श्रीनमिस्वामिनोऽभवत् । इहोद्याने सेव्यमानं सुरा-ऽसुर-नरैश्वरैः ॥९६।। इहाऽमरीभिः सहिता रासकेनाऽर्हतः पुरः । लक्ष्मी रेमे तदाद्येतल्लक्ष्मीरमणमित्यभूत् ।।९७।। तत्र चाऽऽयंतनेषच्चैः प्रतिमाः श्रीमदर्हताम । दिव्योपहारैरानर्च ववन्दे च यदवहः ॥९८॥ पातदा च विष्वग् रत्नाढ्यं सुमेरुमिव जङ्गमम् । उत्पल्लवं द्रुममिव पताकालक्षलक्षितम् ॥१९॥ अनेककरि-मकर-तुरगाकरमब्धिवत् । आदित्यमण्डले रुचामाचामकमिवाऽचिषा ॥१००।। समेघनादं व्योमेव बन्दिकोलाहलाकुलम् । मङ्गल्यतूर्यनिर्घोषैतर्जिताम्बुदगर्जितम् ॥१०१।। उत्कन्धरीकृताशेषविद्याधरमवातरत् । विमानमेकमद्राक्षीत् तत्र शौरिरनाकुलः ॥१०२॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ पप्रच्छ चैकमग्रस्थं वसुदेवो दिवौकसम् । विमानं शक्रसँधीचः कस्येदं नाकिनो ? वद ॥१०३।। सोऽब्रवीद् धनदस्येदं तदारूढः स चाऽधुना । उत्तरत्यत्र भूलोके कारणेन गरीयसा ॥१०४॥ पूजयित्वाऽर्हत्प्रतिमाश्चैत्येऽस्मिन् प्रयतिष्यते । अचिरात् कनकवतीस्वयंवरदिदृक्षया ॥१०५।। तदा चाऽचिन्तयत् शौरिर्धन्या कनकवत्यहो ! । देवा अप्युपतिष्ठन्ते प्रारब्धे यत्स्वयंवरे ॥१०६॥ अथाऽवतीर्य धनदः प्रतिमाः श्रीमदर्हताम् । आनर्च च ववन्दे च सङ्गीतं चाऽप्यचीकरत् ॥१०७|| अहो ! महात्मा देवोऽयं पुण्यभाक् परमार्हतः । अहो ! प्रभावनापात्रं शासनं श्रीमदर्हताम् ॥१०८।। अहो ! धन्योऽस्मि यस्यैतदद्भुतं दृष्टिगोचरम् । सुचिरं चिन्तयामास शौरिरेवं समाहितः ॥१०९॥ तत्र वैश्रवण: पूजां समाप्य श्रीमदर्हताम् । यथारुचि प्रचलितो ददर्शाऽऽनकदुन्दुभिम् ॥११०। अचिन्तयच्च काऽप्यस्य पुंसो लोकोत्तराकृतिः । अमराणामसुराणां खेचराणां च नास्ति या ॥१११॥ धनदोऽनुपमश्रीकमाकृत्या प्रेक्ष्य यादवम् । अङ्गलीसंज्ञयाऽऽह्वास्त विमानस्थः समम्भ्रमम् ॥११२॥ अहं मनुष्यो देवोऽयं महद्धिः परमार्हतः । इत्यगाद् वसुदेवस्तमभीरुः कौतूकीति च ॥११३।। धनदो ऽपि ततः स्वार्थसतृष्णो वृष्णिनन्दनम् । प्रियालापादिसत्कारपात्रीचक्रे वयस्यवत् ॥११४॥ प्रकृत्याऽपि विनीतात्मा सत्कृतश्चेति वृष्णिसूः । कृताञ्जलिस्तं प्रावोचदाज्ञापय करोमि किम् ? ॥११५॥
अथावदद वैश्रवणः श्रोत्रशर्मदया गिरा । साधयाऽनन्यसाध्यं मे देत्यमेकं महाशय ! ॥११६।। पाअस्मिन् पुरे हरिश्चन्द्रनरेन्द्रस्य कुमारिका । सुता कनकवत्यस्ति तामिदं वद मदिरा ॥११७॥
शक्रस्य देवराजस्योत्तरदिक्पतिरिच्छति । त्वां वैश्रवण उद्वोढुं मैंनुष्यप्यमरी भव ॥११८।। १. दिवात्यये खं० १ । दिनात्यये ला०ता०पा०सं०की०ला० । निशात्यये पु० । २. मुदमुद्वहे. मु० । ३. स्वयंवरे मु० र० । ४. सत्कारम् । ५. वसुदेवस्य । ६. पूर्वं नि० ला० । ७. इतिहासम् । ८. 'तत आरभ्य । ९. चायतनेऽप्युच्चैः खं० २, मु० । १०. उत्पल्लवद्रुम० खं० २ । ११. ०रुचमेकं गृहमिवार्चिषाम् खं० १ । आचामकं-'व्यापकं' लाटि. । १२. माङ्गल्य० मु० । १३. ०षनिर्जिता० ता० सं० । निर्घोषैस्तर्जिता० ला० । १४. इन्द्रसमानस्य कस्य देवस्य । १५. ०दमिहारूढः खं० १, ला० । १६. दृष्टिगोचरः त० सं० की० छा० । १७. न सुराणां नासुराणां ता.सं.पा.की.पु.खं०२ । न सुराणां खेचराणां नासुराणां सू० । १८. अभ्यगाद् की० । इत्यागाद्० २ । १९. ततोऽपि धनदः ता०सं० । २०. वृष्णिभूः ता०सं० । २१. श्रवणानन्दया खं०१, सू० । २२. दौत्य० ला०ता०सं०, र० । २३. मानुष्य० मु० र० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
मम चाऽमोघया वाचा समीरण इवाऽस्खलन् । प्रदेशं कनकवतीभूषितं त्वमवाप्स्यसि ॥११९।। ततश्च गत्वा स्वावासे दिव्यालङ्करणादिकम् । मुक्त्वा प्रेष्यों चितं शौरिमलिनं वेषमाददे ॥१२०॥ यान्तं मलिनवेषं तु यादवं धनदोऽवदत् । किमुदारं वेषमौज्झीः सर्वत्रोऽऽडम्बरोऽर्हति ॥१२१।।
शौरिः प्रोवाच वेषेण मलिनेनोज्ज्वलेन वा । किं नाम कार्य ? दूत्ये हि मण्डनं वाग ममाऽस्ति सा ॥१२२। पास्वस्ति तुभ्यं' प्रयाहीति धनदेनोदितः पुनः । निःशङ्कं वसुदेवोऽगाद् हरिश्चन्द्रगृहाङ्गणम् ॥१२३।। हस्त्यश्व-रथ-योधादिनिरुद्धद्वारमप्यथ । वसुदेवोऽविशद् वेश्म हरिश्चन्द्रमहीपतेः ॥१२४॥ अदृश्यमानः केनाऽपि ततश्चाऽप्रस्खलद्गतिः । योगीवाऽञ्जनसिद्धोऽगादग्रतो वृष्णिनन्दनः ॥१२५।। पारुद्धं बद्धपरिकरैः सौविदैत्रपाणिभिः । प्राविशत् प्रथमं कक्षान्तरं शौरिनुपौकसः ॥१२६॥ इन्द्रनीलमयोर्वीकं चलत्कान्तितरङ्गितम् । साम्भोवापीभ्रमकरं शौरिस्तत्क्षणमैक्षत ॥१२७।। दिव्याभरणधात्रीणां स्त्रीणामप्सरसामिव । सुरूपाणां सवयसां तत्र वृन्दं ददर्श सः ॥१२८।। स्वर्णस्तम्भं मणिमयपाञ्चालीकं चलद्ध्वजम् । कक्षान्तरमथाऽविक्षद् द्वैतीयीकं यदूद्वहः ॥१२९। ज्योत्स्नासहोदरक्षीरतरङ्गेऽथ तृतीयके । कक्षान्तरेऽविशत् क्षीरोदधाविव सुरद्विपः ॥१३०॥ स्त्रीजनं तत्र सोऽपश्यद् दिव्याभरणभूषितम् । असम्मान्तं सुरपुरेऽप्सरोजर्नमिवाऽऽगतम् ।।१३१।। तुर्यं कक्षान्तरं प्राप्तोऽपश्यच्च जलकुट्टिमम् । तरङ्गतरलं हंस-कुररादिसमाकुलम् ॥१३२।। तत्राऽऽत्मानं प्रपश्यन्तीविनाऽप्यादर्शमङ्गनाः । शङ्गारकर्म कर्वाणाः प्रेक्षाञ्चक्रे यदद्वहः ॥१३३।। अश्रौषीच्छारिका-कीरोदीर्यमाणं च मङ्गलम् । चेटीजनं च प्रैक्षिष्ट गीत-नृत्यसमाकुलम् ॥१३४॥ कक्षान्तरं पञ्चमं च ययौ शौरिददर्श च । मनोरमं मारकतं कुट्टिमं स्वर्गृहोपमम् ॥१३५।। मुक्ता-विद्रुमदामौघांश्चामरांश्चाऽवलम्बितान् । सङ्क्रान्तांस्तत्र सोऽपश्यन् मायाकारकृतानिव ॥१३६।। सुरूंपवेषा रत्नालङ्कारभाण्डभृतोऽभितः । शालभञ्जीरिव स्तम्भलग्नाश्चेटीर्ददर्श च ॥१३७॥ प्राप्तः कक्षान्तरं षष्ठं सोऽद्राक्षीत् पद्मकुट्टिमम् । दिव्यं सरोवरमिव सर्वत: पद्ममण्डितम् ॥१३८।। दिव्याङ्गरागपूर्णानि मर्णिपात्राणि चाऽग्रतः । अपश्यत् तत्र वार्ष्णेयो दैवतान्यंशुकानि च ॥१३९।। कृमिरागांशुकभृतां सुदृशां तत्र वृष्णिभूः । मूर्तानामिव सन्ध्यानां वृन्दं दृग्विषयं व्यधात् ॥१४०॥ कक्षान्तरे सप्तमे च शौरिः कुट्टिममैक्षत । लोहिताक्षमयस्तम्भं कर्केतनमणीमयम् ॥१४१॥ तत्राऽपश्यत् कल्पवृक्षान् कुसुमाभरणानि च । पानीयपूर्णकलश-करकोणां च धोरैणीः ॥१४२।। कलाविदः सर्वदेशभाषादक्षाः सुलोचनाः । कुण्डलालीढगण्डाश्च सोऽद्राक्षीद् वेत्रधारिणीः ॥१४३॥ पसोऽचिन्तयच्च कस्याऽपि नाऽवकाशोऽत्र वेश्मनि । एताभित्रधारीभिर्नीरन्धं परिवारिते ॥१४४॥ एवं चिन्तयतः शौरेर्लीलाकनकपद्मभृत् । पक्षद्वाराध्वना दिव्येवेषैका दास्युपाययौ ॥१४५।। अपृच्छन् वेत्रधारिण्यस्तास्तामेवं ससम्भ्रमाः । स्वामिनी कनकवती क्व तिष्ठति ? करोति किम् ? ॥१४६।। साऽप्याख्यत् प्रमदवने प्रासादे दिव्यवेषभृत् । देवताकृतसान्निध्या स्वामिन्येकैव तिष्ठति ॥१४७।। वसुदेवोऽपि तच्छ्रुत्वा तां ज्ञात्वा तत्र तस्थुषीम् । पक्षद्वाराध्वना दासी-कथितेन विनिर्ययौ ॥१४८।। प्राप्तश्च प्रमदवने प्रासादं सप्तभूमिकम् । तुङ्गेप्राकारमद्राक्षीत् तं शनैरारुरोह च ।।१४९।। दिव्यालङ्कार-नेपथ्यधरां कल्पलतामिव । सर्वर्तुपुष्पाभरणां साक्षादिव वनश्रियम् ॥१५०॥ १. इवाचलन् ता०सं० । २. कनकवत्या मु० । ३. दूतयोग्यम् । ४. च खं०२, सू० । ५. ०डम्बरोऽर्घति खं० १-२, ला०ता०सं०पा० । ६. दौत्ये र० । ७. सोविदै० खं० २ । ८. ०कसि ला० । ९. चलकान्ति० खं० १-२, सू० । १०. चलध्वजम् खं० १-२, सू० । ११. द्वितीयीकं खं० १ । १२. ऐरावणः । १३. ०जनसमागतम् मु० । १४. जलात्मकं (स्फाटिक) भूतलम् । १५. ०कुलीरादि० खं० २। कुररः पक्षिविशेषः मत्स्यनाशनः, बकः । १६. ०त्सारिका० खं० २, मु० । १७. ०नृत्त० खं० १, ला० । १८. मरकतमणिमयम्। १९. सुवेषरूपा मु० । २०. स्तम्भं खं० २ । २१. पद्मरागमणिमयभूतलम् । २२. मणिवस्त्राणि खं० २ । २३. वृष्णिसूः मु० । २४. पूर्णाः क० ला०सू० । २५. 'झारी' इति भाषायाम् । २६. श्रेणीः । २७. पार्श्वद्वारमार्गेण । २८. तुझं प्रा० मु० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
आजन्मसृष्टिसर्वस्वमिव रूपश्रिों विधेः । भद्रासनस्थितामेकामपि सानुचरामिव ॥१५१॥ पटालिखितपुंरूपं पश्यन्ती तन्मयीमिव । अद्राक्षीत् कनकवतीमुपसर्पन यदद्वहः ॥१५२॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। पादशाह कनकवती पटरूपमिवाऽपरम् । दृष्ट्वेष्टागमनज्ञानाद् व्यकसत् प्रातरब्जवत् ॥१५३॥
सा दृष्ट्वा यादवं चित्रं चित्रं दृष्ट्वा च यादवम् । ददर्श श्रान्तमश्रान्तनेत्रा हर्षोच्छ्वसत्तनुः ॥१५४|| दशाहमर्चमाना सा नेत्रैरिन्दीवरैरिव । भद्रासनाद् द्रागुदस्थात् कृताञ्जलिरुवाच च ॥१५५॥ त्वमाकृष्टोऽसि मे पुण्यैस्तव दास्यस्मि सुन्दर ! । इत्युक्त्वा वसुदेवस्य सा नन्तुमुपचक्रमे ॥१५६।। दशाहः प्रणमन्तीं तां प्रतिषिध्यैवमभ्यधात् । भृत्योऽस्मि मा प्रणंसीस्त्वं स्वामिन्यसि महाशये ! ॥१५७।। यो हि स्यादनुरूपस्ते तं प्रणन्तुं त्वमर्हसि । अविज्ञातकुले भृत्ये मा मय्यनुचितं कृथाः ॥१५८।। 'सोवाच सर्वं ज्ञातं ते त्वमेवाऽसि पतिर्मम । यस्त्वं देवतयाऽऽख्यातो ध्यातश्चित्रगतश्च यः ॥१५९।। पावसुदेवोऽवदद् भद्रे ! नाऽहमस्मि पतिस्तव । यस्ते देवतया ख्यातः पतिस्तस्याऽस्मि किङ्करः ॥१६०॥
श्रूयतां च स ते भर्ता शक्रस्योत्तरदिक्पतिः । स्वःस्त्रीमुखाब्जभसलो धनदो विश्वविश्रुतः ॥१६१।। तस्याऽस्मि किङ्करो दूतो याचेऽहं त्वां तदाज्ञया । भवाऽग्रमहिषी तस्य सेव्यमानाऽमरीजनैः ॥१६२।। साऽब्रवीद् धनंदे नामग्राहं कृतनमस्कृतिः । शकसामानिकः क्वाऽयं क्वाऽहं मानुषकीटिका ॥१६३।। दूत्यं यन्मय्यनुचितं क्रीडामात्रं हि तस्य तत् । मानुषीणां सुरैर्जातु भूतपूर्वो न सङ्गमः ॥१६४॥ वसुदेवोऽवदद् भद्रे ! देवतादेशमन्यथा । कुर्वाणा दवदन्तीव त्वमनर्थमवाप्स्यति(सि?) ॥१६५।। पाऊचे कनकवत्येवं धनदेत्यक्षरैः श्रूतैः । मम प्राग्जन्मसम्बन्धात् कुतोऽप्युत्कण्ठते मनः ॥१६६॥
दुर्गन्धस्य शरीरस्यौदारिकस्य सुधार्दनाः । नेशते गन्धमपि हि सोढुमिाहतं वचः ॥१६७।। तत्यच्छद्मना छन्नस्त्वमेव हि पतिर्मम । गत्वा चाऽऽख्याहि मद्वाचं देवस्योत्तरदिक्पतेः ॥१६८।। त्वद्दर्शनेऽपि नाऽर्हामि मानुषीमात्रमस्म्यहम् । पूज्योऽसि प्रतिमां कृत्वा सप्तधातुतनोर्मम ॥१६९।। पअदृश्यमान: केनाऽपि ततश्च यदुपुङ्गवः । पथा यथागतेनैव ययौ धनदसन्निधौ ॥१७०।। यावदाख्यातुमारेभे तं वृत्तान्तं यदूद्वहः । तावत् प्रोवाच धनदः सर्वं विदितमेव मे ॥१७१॥ पुरः सामानिकानां च धनदः प्रशशंस तम् । महापंसोऽस्य काऽप्येषा निर्विकारचरित्रता ? ||१७२।। इति प्रशंसन् धनदो नाम्ना सुरपतिप्रियम् । देवदूष्यांशुकयुगं दिव्यगन्धाधिवासितम् ।।१७३।। सूरप्रभं शिरोरत्नं दकगर्भे च कुण्डले । हारं शशिमयूखं च केयूरे ललितप्रभे ॥१७४॥ नक्षत्रमालिकां चार्धशारदामभिधानतः । सुदर्शनौ च कटको विचित्रमणिमण्डितौ ॥१७५॥ विचित्ररत्नं च कटिसूत्रकं स्मरदारुणम् । दैवतानि च माल्यानि दैवतं च विलेपनम् ॥१७६॥ तदैव वसुदेवाय 'प्रेददौ परितोषभाक् । तदङ्गलग्नं कृत्वा च सोऽप्यभूद् धनदोपमः ॥१७७।। पञ्चभिः कुलकम् ।।
वसुदेवं तथा दृष्ट्वा धनदेनाऽपि सत्कृतम् । श्यालादयः सहाऽऽयाताः सर्वे मुमुदिरेतराम् ॥१७८॥ पहरिश्चन्द्रोऽपि हि तदा तत्राऽऽगत्य सकौतुकः । प्रणम्य धनदं बद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ॥१७९।। भवद्भिरितं वर्षमद्य देवाऽन्वगृह्यत । स्वयंवरदिदक्षणां यद युष्माकमिहाऽऽगमः ॥१८०। इत्युक्त्वा सज्जयामास स स्वयंवरमण्डपम् । मञ्चाश्च कारयामास विविधासनबन्धुरान् ॥१८१॥ विमानच्छायया पृथ्व्याः सन्तापमवसादयन् । उद्दण्डैपुण्डरीकालिदर्शितेन्दुपरम्परः ॥१८२।। वीज्यमानः सुरवधूपाणिपल्लवलालितैः । विद्युदुत्क्षिप्तकरणनर्तकैरिव चामरैः ॥१८३॥ १. जन्मपर्यन्तं विधिना या सृष्टिः सृष्टा, तस्याः सारसर्वस्वमिव । २. श्रियां ला० । ३. तन्मया० ला० । ४. ददर्शाऽश्रान्तनेत्राब्जा हर्षोत्कर्षोच्छसत्तनुः ला० । ५. ०वमब्रवीत् मु० । ६. मैवं मे सत्कृतिं कृथाः खं० २ । ७. भ्रमरः । ८. ०धनदनाम० मु०। ९. दौत्यं ला० । १०. अमृतभक्षिणः, देवाः । सुधौदनाः मु० खं० १, र० । ११. ०मित्यर्हतां मु० । १२. त्वाख्याहि खं० १२, सू०। १३. ०सन्निधिम् खं० २, सू० । १४. ०भे वृत्तान्तं च ला० । १५. ददौ च ला० । १६. शाला० खं० २, सू० । १७. ०मपसारयन् मु० । १८. श्वेतच्छत्रश्रेण्या दर्शिता इन्दूनां पंक्तिर्येन सः । १९. ०नक्षत्रैरिव ला० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगम्फितं
(अष्टमं पर्व
पाालिखिल्यैरिव रविः स्तूयमानश्च बन्दिभिः । ततः स्वयंवरं द्रष्टं प्रचचालोत्तरापतिः ॥१८४।। त्रिभिविशेषकम् ॥ श्वेतदिव्यांशुकोल्लोचं ज्योत्स्नालिप्तमिवाऽम्बरम् । स्मरसज्जीकृतधनुःसन्निभाबद्धतोरणम् ॥१८५।। रत्नादर्शाङ्कितं विष्वगनेकाऊरिवाऽऽश्रितम् । रत्नमय्याऽष्टमङ्गल्या शोभितद्वारभूमिकम् ॥१८६।। खे बलाकाभ्रमकरैः शोभितं शुभ्रकेतुभिः । नानारत्नमयोर्वीकं सुधर्माया इवाऽनुजम् ।।१८७।। वराणां दृग्विनोदाय प्रक्रान्तप्रेक्षणीयकम् । प्रविवेशोत्तराधीशस्तं स्वयंवरमण्डपम् ॥१८८। चतुभिः कलापकम् ।। पतत्रैकैस्मिन् भव्यमञ्चे धनदो हंसवाहनः । खस्थे सिंहासने स्वःस्त्रीजनावृत उपाविशत् ।।१८९।।
अदूरे धनदस्याऽथ तस्यैव युवराडिव । वसुदेवो निषसाद प्रसादसुभगाननः ॥१९०।। क्रमेणाऽन्येऽपि मञ्चेषु राजानः परमर्द्धयः । विद्याधराश्च न्यषदन् स्पर्धमाना इव श्रिया ॥१९१।। धनदो निजनामाङ्कामर्जुनस्वर्णनिर्मिताम् । ऊर्मिकामार्पयत् शौरेः स न्यधात् कन्यकाङ्गलौ ॥१९२।। ऊर्मिकाया: प्रभावेण तदैव यदुनन्दनम् । कुबेरमूर्तिमद्राक्षीत् तत्रस्थः सकलो जनः ॥१९३।।
अहो ! कुबेरो भगवान् मूत्तिद्वयभृदागतः । प्रघोषाद्वैतमित्युच्चैः स्वयंवरसदामभूत् ।।१९४।। पासदशश्वेतवसना ज्योत्स्नाक्तेव विभावरी । मुक्ताताडङ्करुचिरा सा द्वीन्दुिरिव मेरुभूः ॥१९५।।
अलक्तरसरक्तोष्ठी पक्वबिम्बेव बिम्बिका । हारभूषितवक्षोजाऽद्रिभूरिव सनिर्झरा ।।१९६॥ बिभ्रती स्मरदोलाभं पाणिभ्यां पुष्पदाम च । तदा कनकवत्यागात् तत्र हंसीव मन्थरम् ॥१९७।। त्रिभिविशेषकम् ॥ पातया च तत्राऽऽगतया स स्वयंवरमण्डपः । मङ्गल्यया दीपिकया गृहगर्भ इवाऽशुभत् ।।१९८।। दृशा सम्भावयामास वुवूषूनखिलांश्च सा । कैरवाणीन्दुलेखेव भासा 'शैशियसारया ।।१९९।। चित्रदृष्टं वसुदेवं दू]दृष्टं च तत्र तम् । अपश्यन्ती विषादात्मा मम्लौ सायमिवाऽब्जिनी ॥२००।। सैपांशक्रीडिकाहस्तन्यस्तभाराऽथ सा चिरम् । निःस्पन्दा शालभञ्जीव तस्थावस्वास्थ्यमीयुषी ॥२०१।। तस्यां कमप्यवण्वत्यां राजानः स्वं व्यलोकयन् । किं रूप-वेष-चेष्टादिदोषोऽस्मास्विति शङ्कया ॥२०२।। पासख्यूचे कनकवतीं किमद्याऽपि विलम्बसे? । स्वयंवरस्रक् कस्याऽपि न्यस्यतां कण्ठकन्दले ॥२०३।। हरिश्चन्द्रसुतोवाच रुच्यो हि वियते वरः । यश्च मे रोचते मन्दभाग्या पश्यामि तं नहि ॥२०४।। दध्यौ च क उपायो मे? का गतिश्च भविष्यति ? । इष्टं वरं न पश्यामि भव रे हृदय ! द्विधा ॥२०५।। इत्थं चिन्तातुरा प्रेक्ष्य धनदं प्रणिपत्य च । दीना रुदती सा बद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ॥२०६।। देव ! प्राग्जन्मपत्नीति नर्मेत्थं मा कृथा मयि । मया वुवूर्षितो भर्त्ता त्वया चक्रे तिरोहितः ।।२०७।। स्मित्वोचे धनदः शौरिं महाभाग ! मयाऽपिताम् । मुद्रां कुबेरकान्ताख्यामिमां हस्तादपाकुरु ॥२०८।। शौरिस्तामूर्मिकां हस्तादुत्तार्य धनदाज्ञया । स्वमूतिभागभूद् भूयो नाट्याभिनयपात्रवत् ।।२०९।। सा दशार्ह स्वमूर्तिस्थमुपलक्ष्य वलक्षदृक् । बहिर्भूतप्रमोदेव बभूव पुलकाङ्किता ।।२१०।। उपसृत्य च तत्कण्ठे रणज्झणितनूपुरा । स्वयंवरस्रजं न्यास्थन्निजां भुजलतामिव ।।२११।। दिवि दुन्दुभयो नेदुस्तदा च धनदाज्ञया । मङ्गल्यकं चोन्मनसोऽप्सरसः सरसं जगुः ॥२१२॥ अहो ! धन्यो हरिश्चन्द्रो ववे यस्य सुता वरम् । जगत्प्रधानमित्युच्चैर्विष्वद्रीची च वागभूत् ॥२१३।। देवता धनदादिष्टा वसुधारां निरन्तराम् । सद्यो ववृषुराचारलाजानिव कुलाङ्गनाः ॥२१४|| वसुदेवस्य कनकवत्याश्चोपयमोत्सवः । तदा बभूव तन्वानो हर्षस्यैकातपत्रताम् ।।२१५।। पाअथ विज्ञापयामास श्रीदं नत्वा यदूद्वहः । किमायाता यूयमत्रेत्यस्मि ज्ञातुं कुतूहली ॥२१६।। १. ऋषिभिः । २. धनदः । ३. तत्रैकस्मिन्नुच्चमञ्चे मु०, खं० १-२, ला०सू० । तत्रैकस्मिन् रुच्यमञ्चे सं०पु०ला० २ । ४. स्वस्थे मु० । ५. कनिष्ठाङ्गलौ खं० २, ला०म०र० । कनिष्ठाङ्गलौ इत्यर्थः । ६. प्रभावेन तमेव ला० । ७. ज्योत्स्नासहिता । ८. सद्वीन्दु० की०छा०ला०२, मु०, खं० १-२, ला०सू० । ९. मन्थरा ला० । १०. इवाबभौ मु० । ११. शौण्डीर्य० मु० । १२. दौत्य० ला० । १३. सखीहस्तन्यस्तभारा । १४. नि:स्पन्दशाल० ता०सं० । १५. ०वृण्वन्त्यां ला० । १६. भव्यो की०ला० । १७. शुद्धदृष्टिः । १८. रूणज्झ० ता.सं.ला.पा.की. । १९. मङ्गल्यकण्ठोन्मनसो० र० । २०. ०विषूची वागभूत्तदा मु०, र० खं० १-२ । विश्वव्यापिनी । २१. निरन्तरम् ता.सं.पा.की.ला. खं० २, सू० । २२. विज्ञपया० खं० १-२, सू० ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
श्रीदः प्रोचे सहर्षस्तं शौरिमाबद्धकङ्कणम् । कुमार ! श्रूयतामत्र मैमाऽऽगमनकारणम् ॥२१७॥
अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । सङ्गरं नाम नगरमस्त्यष्टापदसन्निधौ ॥२१८॥
तत्राभून्मम्मणो राजा तस्य वीरमती प्रिया । सभार्यः सोऽन्यदाऽचालीत् पापद्धयै नगराद् बहिः ॥ २१९|| सार्थेन सममायातमेकं मलमलीमसम् । क्षमाश्रमणमद्राक्षीद् रक्षःक्षुद्राशयोऽथ सः ॥२२०॥
असावशकुनं मेऽभून्मृगयोत्सवविघ्नकृत् । इति सोऽधारयत् साधुं सार्थाद् यूथादिव द्विपम् ॥२२१|| भूयो राजकुले गत्वा सकलत्रोऽपि भूपतिः । सोऽस्थाद् द्वादश घटिकास्तमृषि विप्रेलापयन् ॥२२२॥ ताभ्यां जातानुकम्पाभ्यां दम्पतीभ्यां ततो मुनिः । अप्रच्छि कुत आयासीः ? क्व वा गच्छसि ? कथ्यताम् ॥ २२३॥ मुनिर्बभाषे चलितो रोहीतकपुरादहम् । अष्टापदार्हद्विम्बानि सार्थेन सह वन्दितुम् ||२२४|| भवद्भयां च महात्मानौ ! सार्थादस्मि वियोजितः । नाऽष्टापदमगां धर्मकर्म बह्वन्तरायकम् ॥ २२५ ॥ दम्पती लघुकर्मत्वाद् वार्तयन्तौ तु तं मुनिम् । तौ विसस्मरतुः कोयं दुःस्वप्नमिवं 'मङ्क्ष्वपि ॥ २२६॥ तावार्द्रहृदयौ ज्ञात्वा परोपकृतिधीर्मुनिः । तयोराख्यज्जीवदयाप्रधानं धर्ममार्हतम् ॥ २२७॥ अविद्धकर्णौ तौ धर्माक्षरैराजन्म दम्पती । किञ्चिद्धर्माभिमुखतां ततः प्रभृति जग्मतुः ॥२२८॥ प्रत्यलाभयतां भक्त्या भक्त पानादिना च तम् । प्रियातिथिमिवाऽभ्यर्णमवाऽतिष्ठपतां च तौ ॥२२९॥ किं तु राजसभावेन विनिवार्याऽपरं जनम् । चक्रतुस्तौ स्वयमेव तस्यर्षेः प्रतिलाभनम् ॥ २३०॥ धर्मज्ञानौषधं दत्वा कर्मरोगार्तयोस्तयोः । मुनिः सोऽष्टापदं प्राप ताभ्यामनुमतश्चिरात् ॥२३१॥
चिरं व्रतिसंसर्गात् प्रपद्य श्रावकव्रतम् । पालयामासतुर्यत्नाद् द्रविणं कृपणाविव ॥ २३२ ॥ वीरमत्यन्यदा धर्मस्थिरीकरणहेतवे । निन्ये शासनदेव्याऽष्टापदे धर्मजुषां न किम् ? ॥२३३॥ आर्हती: प्रतिमास्तत्र पूज्यमानाः सुरासुरैः । दृष्ट्वा सा प्रापदानन्दं मुक्तेवाऽत्राऽपि जन्मनि ॥ २३४॥ चतुर्विंशतिमप्यर्हद्विम्बान्यष्टापदाचले । वन्दित्वा पुनरप्यागात् स्वपुरं खेचरीव सा ॥ २३५ ॥ जिनं जिनं प्रत्यकार्षीत् सा चौऽऽचाम्लानि विंशतिम् । तीर्थावलोकनाद् धर्मे दधाना स्थेयसीं धियम् ॥२३६॥ उपरिन्यस्तरत्नानि सुवर्णतिलकानि सा । चतुर्विंशतिमर्हद्भ्यः कारयामास भक्तिभाक् ॥२३७॥ अन्येद्युः सपरीवारा गत्वाऽष्टापदमूर्धनि । सा स्नात्रपूर्वमानर्च चतुर्विंशतिमर्हताम् ||२३८|| तासामर्हत्प्रतिमानां ललाटेषु न्यधत्त च । श्रीवल्ले: कुसुमानीव हैमानि तिलकानि सा ॥ २३९ ॥ चारणश्रमणादीनां तीर्थे तस्मिन्नुपेयुषाम् । दत्वा दानं यथार्हं सा तपस्तदुदयापयत् ॥२४०॥ ततश्च कृतकृत्येव प्रनृत्यन्तीव चेतसा । सा धीमती वीरमती पुनरागात् स्वपत्तनम् ॥ २४९ ॥ पृथक्शरीरौ तावेकमनसाविव दम्पती । धर्मकर्मोद्यतौ कालं कियन्तमपिं निन्यतुः ॥ २४२ ॥ समाधिमरणं प्राप्य 'पूर्णे काले विवेकिनौ । देवलोके तावभूतां देवो देवी च दम्पती ॥२४३॥ |च्युत्वा मम्मणजीवोऽथ जम्बूद्वीपेऽत्र भारते । बहलीनाम्नि विषये नगरे पोतनाह्वये ॥ २४४॥ धम्मिलख्यस्याऽऽभीरस्य रेणुकोदरसम्भवः । धन्यो नामाऽभवत् पुत्रः पात्रं पुण्यस्य भूयसः ॥ २४५ ॥ युग्मम् ॥ स तु वीरमतीजीवः प्रच्युत्य त्रिदशालयात् । धूसरीनामधेयेन धन्यस्यैव गृहिण्यभूत् ॥ २४६ ॥
१. समागमन० ला० । २. सगरं खं० २ । संगमं सू० । ३. पापद्ध ला. ता.सं. सू० । ४. राक्षस इव क्षुद्राशयः । ५. विप्रलाभयन् ला० । सन्तापयन् । ६. महामानौ मु० । ७. वार्तां कुर्वन्तौ । ८. 'शीघ्रं' खं० २ टि. । ९. 'धर्म' इत्यक्षरमश्रुतपूर्वी । १०. ०मिवाभ्यर्णे ला० । ०मिवाभ्यर्ह० खं० १ २, सू० । ११. ०मवातिष्ठयतां मु० । ०मवातिष्ठिपतां र० । ०मवातिष्ठपतं ला० । १२. राजा स्वभा० खं० २ । १३. ०वार्य परं ला० । १४. धर्मध्यानौ० ता. । १५. साऽऽचामाम्लानि ता०सं०ला० पु० ला० २ । १६. स्थिरतराम् । १७. ० स्तदुदपादयत् मु० । १८. कियन्तमतिनि० खं० २, ला० । १९. पूर्णकाले मु० । पूर्वकाले
२० । २०. देवदेव्यौ
च ला० । २१. धम्मिलासस्या० मु०, र०, खं० १ ।
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४६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व पामहिषीश्चारयामास धन्योऽरण्येऽनुवासरम् । महिषीचारणं ह्यांद्यमाभीराणां कुलव्रतम् ॥२४७।। दुर्दशैर्दर्शयन् दर्शयामिनीरिव दुर्दिनैः । यन्त्रधारागृहीभूतव्योमा प्रोद्दामवृष्टिभिः ॥२४८॥ निनदन् दर्दुरातोद्य इवोद्यद्द१रारवैः । कुर्वन्नुर्वी च हरितैः केशपाशवतीमिव ॥२४९।। वृष्टिसृष्टोरुसेवालपिछलीभूतभूतलः । सञ्चरत्पान्थचरणचीत्कार्याजानुकर्दमः ॥२५०।। कुर्वन् द्यां विद्युदावर्तेल्मुकावर्तिनीमिव । वर्षारात्रः प्रववृतेऽन्यदा वैरी प्रवासिनाम् ॥२५१॥ चतुभिः कलापकम् ।। महिषी: पङ्कसम्पर्कहर्षकैङ्कारकारिणीः । धन्यश्चारयितुमगात् प्रवर्षत्यपि वारिदे ॥२५२॥ बिभ्राणः छत्रकं मूनि महद्वारिनिवारणम् । पर्याटीदटवीं धन्योऽनुव्रजन् महिषीव्रजम् ।।२५३।। पातस्थिवांसं प्रतिमया पादेनैकेन निश्चलम् । उपवासकृशं वृष्टिसहमारण्यकेभवत् ॥२५४॥
शीताा कम्पमानाङ्गं वातान्दोलितवृक्षवत् । क्षमाश्रमणमद्राक्षीदेकं धन्यः परिभ्रमन् ॥२५५।। युग्मम् ॥ तथा परीषहसहं तं दृष्ट्वा मुनिपुङ्गवम् । जातानुकम्पः स्वं छत्रं स तन्मूर्धन्यधारयत् ।।२५६।। धृतातपत्रो धन्येनाऽनन्यसामान्यभक्तितः । प्रभ्रष्टवृष्टिकष्टोऽभूदृषिः स वसताविव ॥२५७॥ मद्यपानाद् दुर्मदीव वृष्टेर्न व्यरमद् घनः । न तु निर्विविदे धन्यस्तथाऽपि छत्रधारणात् ॥२५८॥ क्रमयोगेने वृष्टश्च विरराम घनाघनः । यावदृष्टिकृतध्यानाभिग्रहाच्च महामुनिः ॥२५९।। तत्कालं महिषीपालस्तं प्रणम्य मुनीश्वरम् । पादसंवाहनापूर्वमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥२६०॥
महर्षे ! विषमः कालः पङ्केनाऽऽतङ्कदा मही । तदद्य कुत आयासीरायासमविदन्निव ॥२६१॥ पामहर्षिरपि तस्याऽऽख्यत् पाण्डुदेशादिहाऽऽगमम् । यास्यामि लङ्कानगरी गुरुपादपवित्रिताम् ॥२६२॥ गच्छतश्चाऽब्दकालोऽयमन्तरायोऽन्तराऽभवत् । धाराधरोऽखण्डधारं वर्षितुं च प्रचक्रमे ॥२६३॥ वर्षत्यब्दे च गमनं महर्षीणां न युज्यते । वृष्ट्यन्ताभिग्रहं कृत्वा ततोऽत्रैव स्थितोऽस्म्यहम् ॥२६४॥ विरतायामद्य वृष्टौ महात्मन् ! सप्तमेऽहनि । सम्पूर्णाभिग्रहो यामि वसतौ क्वाऽपि सम्प्रति ॥२६५।। धन्योऽप्युवाच हर्षेण महर्षे ! महिषं मम । याप्येयानमिवाऽऽरोह पङ्कदुःसञ्चरा हि भूः ॥२६६॥ स मुनिः स्माऽऽह जीवेषु नाऽऽरोहन्ति महर्षयः । परपीडाकरं कर्म ह्याचरन्ति न जातु ते ॥२६७॥ पादचक्रमणा एव महर्षय ! इति ब्रुवन् । स मुनिस्तेन सहितः प्रययावुपपत्तनम् ॥२६८॥ महर्षि स्माऽऽह महिषीपालो नत्वा कृताञ्जलिः । दोयहं महिषीर्यावत् तावदत्र प्रतीक्ष्यताम् ॥२६९।। इत्युक्त्वा से गृहं गत्वा दुग्ध्वा च महिषीर्दुतम् । आदायैकं दुग्धकुम्भमभ्योगात् तं महामुनिम् ॥२७०॥ धन्योऽतिधन्यमात्मानं मन्यमानः प्रमोदभाक् । तं मुनि कारयामास पारणं पुण्यकारणम् ॥२७१॥ वर्षारात्रमतिक्रम्य पोतने स तपोधनः । जगाम रुचितं स्थानमी-शुद्धयुचितेऽध्वनि ॥२७२॥ धन्योऽपि सह धूसर्या सुचिरं श्रावकव्रतम् । अपालयद् दृषल्लेखास्थिरं सम्यक्त्वमुद्वहन् ॥२७३॥ तौ धन्यौ धूसरी-धन्यौ काले जगृहतुर्वतम् । पालयित्वा च सप्ताब्दी विपेदाते समाहितौ ॥२७४।। पात्रे पीयूँषदानेनाऽजितपुण्यावुभौ च तौ । जातौ हैमवते युग्मधर्मों लेश्याविशेषतः ।।२७५॥
अनार्त-रौद्रध्यानौ तावपि मृत्वोदपद्यताम् । क्षीर डिण्डीरनामानौ देवौ दाम्पत्यशालिनौ ॥२७६।। पादेवश्च्युत्वेह भरते विषये कोशैलाभिधे । नगर्यां कोर्शलाख्यायामिक्ष्वाकुकुलजन्मनः ॥२७७।।
निषधस्याऽवनिपते: सुन्दरोदरसम्भवः । नलो नामाऽभवत् पुत्रः कूबरस्तस्य चाऽनुजः ॥२७८॥ युग्मम् ॥ १. चैवमा० खं० २ । २. अमावस्यारात्रीः । ३. गृहीभूतं व्योम प्रो० मु० । ४. निनदद्द१० मु० । शब्दं कुर्वद् दर्दुरनामातोद्यंवाद्यं यत्र सः । ५. ०शेवाल० खं० १-२, सू० । ६. पिच्छिली० ला० । पङ्किलीभूत । ७. ०रुलूका० मु० । उल्कापातवर्तिनीमिव । ८. वृष्टिं सहमानं वनेभवत् ला० । ९. ०भक्तिकः ला० । १०. ०कारणात् खं० १ । ११. योगेण खं० २ । १२. लङ्कां ला० । १३. शिबिकामिव । १४. स्वगृहं मु० र० । १५. ०मभ्यगा० मु० र० । १६. ०मीर्याशुद्धयच्युते० ता०सं० । १७. पाषाणरेखावत् स्थिरम् । १८. दुग्धदानेन । १९. हैमवतौ ला० । हैमवतक्षेत्रे । २०. युगलिकौ । २१. क्षीरडिण्डीर-क्षीरडिण्डीरानामानौ, एकशेषसमासः । २२,२३. कोसला० खं० १-२, सू० ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
इतश्चाऽस्ति विदर्भेषु नगरं कुण्डिनाह्वयम् । तत्र चाऽभून्नृपो भीमरथो भीमपराक्रमः ॥२७९॥ तस्याऽभूत् पुष्पदन्तीति जाया मायाविवर्जिता । 'तर्जितस्वर्वधूरूपा परया रूपसम्पदा ॥२८०॥ अर्थ-धर्माविरोधेन काममप्यनुपालयन् । निर्विघ्नं बुभुजे भोगांस्तया सह महीपतिः || २८१ ॥ एकदा क्षीरडिण्डीरा प्रच्युत्य त्रिदशालयात् । तस्याः कुक्षाववातारीत् सुतात्वेन शुभे क्षणे ॥ २८२॥ तदा च सुखसुप्ता सा शयनीये मनोरमे । निशावसाने सुस्वप्नं दृष्ट्वा राज्ञे व्यजिज्ञपत् ॥ २८३ ॥ स्वामिन् ! जानाम्यहं सुप्ता श्वेतहस्ती तवौकसि । दवग्निप्रेरितोऽविक्षत् साक्षादिव यशश्चयः ||२८४|| राजाऽपि व्याजहारैवं सर्वशास्त्राब्धिपारगः । कोऽपि पुण्याधिको गर्भः सम्भूतोऽद्य तवोदरे ॥ २८५ ॥ यावदेवं वार्तयन्तौ राजा राज्ञी च तस्थतुः । तावदागात् स शुभ्रेभोऽभ्रमप्रिय इव च्युतः ॥ २८६ ॥ नृपं सकलत्रमपि निजस्कन्धे स सिन्धुरः । क्षणादारोपयामास तत्पुण्यप्रेरितो हि सः ॥२८७॥ पुष्पदामक्षेपपूर्वं पूज्यमानः स नागरैः । भ्रान्त्वा पुरे पुनः सौधमेत्य तावुदतारयत् ॥२८८॥ स्वयं चाऽऽलीयतोऽऽलाने स सिन्धुरधुरन्धरः । ववृषुश्चाऽथ पुष्पाणि रत्नानि च दिवौकसः ॥ २८९॥ सुगन्धिभिर्यक्षैपङ्कैः सर्वाङ्गमनुलिप्य तम् । अर्चित्वा चोत्तमैः पुष्पै राजा नीराँजनां व्यधात् ॥२९०॥ पूर्णकाले व्यतीपातादिदोषादूषितेऽन्यथ । कार्दंम्बिनीव तडितं राज्ञी कन्यामजीजनत् ॥२९१॥ सब्रह्मचारी तरणेस्तस्याश्च तिलकोऽलिके । सहजोऽभून् महापुंसः श्रीवत्स इव वक्षसि ॥ २९२॥ सा स्वयं भास्वती तेन तिलकेन विशेषतः । उपरिन्यस्तरत्नेनोर्मिका हैमीव दिद्युते ॥ २९३॥ तज्जन्मनः प्रभावेर्णे भीमो निःसीमविक्रमः । बभूव भूभुजां मूर्ध्ना धार्यमाणोग्रशासनः ॥२९४॥ तस्यामुदरवर्तिन्यां राज्ञी स्वप्ने यदैक्षत । दवाग्निभीतमायन्तं दन्तीन्द्रमिति निर्ममे ॥ २९५ ॥ सम्पूर्णे मासि दुहितुस्तस्याः कुण्डिनभूपतिः । दवदन्तीत्यमिधानं निधानं हर्षसम्पदः ॥ २९६ ॥ युग्मम् | सुगन्धिमुखनिःश्वासभ्रमद्भ्रमरधोरणिः । दिने दिने वर्धमाना साऽभवद् रिङ्खणक्षमा ||२९७|| अपि मातृसपत्नीनां सा सौम्यमुखपङ्कजा । करात् करं सञ्चचार पुष्पात् पुष्पमिवाऽलिनी ॥२९८॥ अङ्गुष्ठमध्यर्मीस्फोटधृततालाः पदे पदे । तां धात्र्योऽरमयन् वक्त्रतिमिलावाद्यवादनैः ॥ २९९॥ रर्णैज्झणिति कुर्वद्भ्यां नूपुराभ्यां पुरस्कृता । क्रमेण कर्तुमारेभे पादचङ्क्रमणं च सा ||३००|| रेमे रमेव सा मूर्ता भूषयन्ती गृहाङ्गणम् । तत्प्रभावाद् हि निधयः प्रत्यक्षाः क्ष्माभुजोऽभवन् ॥३०१ || [[सम्प्राप्ते चाऽष्टमे वर्षे तां कन्यामार्पयन्नृपः । कलाचार्यस्य वर्यस्य कलाग्रहणहेतवे ॥३०२|| साक्षिमात्रमुपाध्यायोऽभवत् तस्याः सुमेधसः । कला: सञ्चक्रमुस्तस्यां ह्यादर्शे प्रतिबिम्बवत् ॥३०३|| साऽभूदें धीतिनी कर्मप्रकृत्यादिषु धीमती । तस्याः पुरश्च स्याद्वादाक्षेपकः कोऽपि नाऽभवत् ॥३०४|| कन्यां कलाकलापाम्बुराशेस्तां पारदृश्वरीम् । वागीश्वरीमिव पितुः पार्श्वे गुरुरथाऽनयत् ॥३०५|| सागुरोराज्ञया सर्वं कलाकौशलमात्मनः । सम्यक् प्रदर्शयामास गुणारामैकसारणिः ||३०६ || तथा श्रुतार्थप्रावीण्यं प्रकट्यकृत सा पितुः । यथा सोऽप्यभवत् सम्यग्दर्शनाढ्यैनिदर्शनम् ॥३०७॥ सहस्राधिकलक्षेण दीनाराणां नरेश्वरः । कलाचार्यं स्वदुहितुः पूजयित्वा विसृष्टवान् ॥३०८|| ||दवदन्त्याश्च पुण्यातिशयान् निर्वृतिदेवता । साक्षाद्भूयाऽर्हत्प्रतिमामर्पयामास काञ्चनीम् ॥३०९॥
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४७
१. निर्जित० खं० २ । २. वनाग्नि० सं.ला०पा. ला० २, छा । ३. ऐरावणः । ४. हस्ती । ५. चालीयदालाने ला० । ६. यक्षकर्दमैः । “कर्पूरा-गुरु- कक्कोलकस्तूरी - चन्दनद्रवैः स्याद् यक्षकर्दमः" (अभि० चि. ३/६३८) । ७. नीराजनं ला० २, की०, आरात्रिकम् । ८. न्यधात् खं० २ । ९. पूर्णे खं० १, ला० सू० । १०. मेघमाला । ११. ललाटे । १२. ०वेन खं० २ । १३. ०मायातं खं० २ । १४. स्वजनैः हर्ष० खं० २ । १५. चलनक्षमा । १६. ० मास्फोट्य धृत्वा तालं पदे० ला० । १७. मुखरूपडिण्डिमवाद्यस्य वादनैः । १८. झणज्झ० खं० २, सू०ता०सं०ला०पा० । रुणज्झ० ला० । १९. परिष्कृता खं० १ - २, सू० | 'अलंकृता' लाटि. । २००ऽथाष्टमे खं० २, सू० । २१. अधीतमनयेति अधीतिनी । २२. गता( तां )पितुः पार्श्वे मनोहराम् खं० २ । २३. ०नाद्यनिद० खं० १ २ । ०नादौ निद० ला० । २४. 'निर्वृति' इत्यभिधाना देवता, शासनदेवता, 'निर्वाणी' इत्यभिधदेव्या नामान्तरं स्यादिति कल्प्यते ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
देव्युवाच च हे वत्से ! प्रतिमा भाविनोऽर्हतः । एषा श्रीशान्तिनाथस्य पूजनीया त्वयाऽनिशम् ॥३१०॥ इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे देवी प्रतिमां दवदन्त्यपि । निनायोत्फुल्लनयना वन्दित्वा निजवेश्मनि ॥ ३११॥ |[रममाणा वयस्याभिः सुदंती दवदन्त्यथ । यौवनं पावनं प्राप प्रपां लावण्यवारिणः ॥ ३१२ || राजा राज्ञी च तां दृष्ट्वा कन्यामन्यूनयौवनाम् । तद्विवाहोत्सवं द्रष्टुभभूतामुत्कमानसौ ॥३१३॥ तस्यास्तत्तद्गुणगणानुरूपवरचिन्तया । पितरावत्यदूयेतामन्तःशल्यातुराविव ॥ ३१४|| क्रमेण दवदन्त्यष्टादशवर्षा बभूव च । न तूपलेभे भूपालस्तद्योग्यं प्रवरं वरम् ॥३१५॥ स्वयंवरोऽतिप्रौढानामनूढानां हि योषिताम् । युक्त इत्यादिशद् दूतान् राज्ञामाहूतये नृपः ||३१६ ॥ राजानो राजपुत्राश्च युवानः परमर्द्धयः । आययुस्त्वरितं तत्र स्पर्धमाना मिथः श्रिया ||३१७ || दृश्यमानैः करैटिभिरसङ्ख्यैर्भूभुजां तदा । उपत्यकेव विन्ध्याद्रेः कुण्डिनोपान्तभूरभूत् ॥३१८॥ निषधोऽपि हि तत्राऽऽगान्नृपतिः कोशलेश्वरः । नलेन कूबरेणाऽपि पुत्राभ्यां सहितस्तदा ॥३१९॥ सर्वेषां स्वागतं राज्ञामभियानपुरःसरम् । चकार कुण्डिनाधीशोऽतिथीनामुचितं ह्यदः ॥ ३२० ॥ भीमोऽथ कारयामास स्वयंवरणमण्डपम् । पालकस्य विमानस्याऽनुजन्मानमिवर्द्धिभिः ॥३२१॥ मञ्चांश्च मण्डपस्याऽन्तर्विमानाभानकारयत् । प्रत्येकं स्थापितस्वर्णसिंहासनमनोरमान् ॥३२२॥ |[राजानोऽथाऽऽययुस्तत्र स्पर्धमाना महर्द्धिभिः । दिव्यालङ्कारवसनाः शक्रसामानिका इव ॥३२३॥ सर्वे निषेदुर्मञ्चेषु विपञ्चितवपुः श्रियः । नानाविधाभिश्चेष्टाभिः स्पष्टवैदग्ध्यबन्धुराः ॥३२४|| कृतोत्तरीयपर्यङ्कश्चलद्दलमनोरमम् । करेण लीलाकमलं लालयामास कञ्चन ॥ ३२५ ॥ सुगन्धिमल्लिकापुष्पाण्याजघ्रौ कोऽपि भृङ्गवत् । मन्मथस्य यशोराशिवणिकामिव निर्मलाम् ॥३२६॥ करेणोल्लालयामास कश्चित् कुसुमकन्दुकम् । मृगाङ्कमण्डलं व्योम्नि स्रष्टुकाम इवाऽपरम् ॥ ३२७॥ व्यलिखल्लीलया पाणि-पाणिजाग्रैः क्षणे क्षणे । कोऽपि स्वां भांसुरी सान्द्रसारं ङ्गमदपङ्किलाम् ॥३२८॥ दीप्ताङ्गुलीयमणिना पाणिना दृढमुष्टिना । मुष्टिग्रस्तदन्तमुष्टिं छुरीं कश्चिदनीनृतत् ॥३२९|| छेकः केतकपत्राणि दारं दारमुदारधीः । जग्रन्थ कोऽपि कमलं कमलाकमलोपमम् ॥३३०|| कश्चिदामलकस्थूलमुक्ताफलविनिर्मितम् । कण्ठावलम्बिनं हारं मुहुः पस्पर्श पाणिना ॥३३१॥ देवता देवतागारमिव तं वरमण्डपम् । भूषयन्ती दवदन्त्यप्याययौ पितुराज्ञया ॥ ३३२|| अलङ्करणसन्दोहैर्मुक्तामणिविनिर्मितैः । अलङ्कृताङ्गवयवामुत्फुल्लामिव मल्लिकाम् ॥३३३|| प्रसरत्सारणीवारितरङ्गकुटिलालकाम् । बिभ्राणां तिलकं भाले युवराजं रवेरिव ॥ ३३४॥ कज्जलश्यामलकचां नीरन्ध्रकुचमण्डलाम् । वस्त्राणि रम्भागर्भत्वक्सगर्भाणि च बिभ्रतीम् ||३३५|| स्वच्छश्रीचन्दनरसविलिप्तामायतेक्षणाम् । दवदन्तीं नृपाः प्रेक्ष्य चक्षुस्तत्रैव चिक्षिपुः ॥ ३३६ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ [अन्तःपुरप्रतीहारी ततश्च नृपशासनात् । तस्याः शंसितुमारेभे नामग्राहं महीपतीन् ||३३७|| शिशुमारपुराऽऽयातो जितशत्रुनृपात्मजः । ऋतुपर्णनरेन्द्रोऽयं देवि ! सम्भाव्यतां दृशीं ॥ ३३८ ॥ इक्ष्वाकुवंशतिलको गुणरत्ननिधानर्भूः । चन्द्रभूश्चन्द्रराजोऽयमर्मुकं किं वुवूर्षसि ? ||३३९॥ चम्पेशो भोगवंश्योऽयं सुबाहुर्धरणेन्द्रभूः । अमुं वृणीष्व जाह्नव्या सेव्यसे शीकैरानिलैः ||३४०|| राजा रोहीते केशोऽयं पावैनिश्चन्द्रशेखरः । द्वात्रिंशद्ग्रामलक्षाधिपतिस्ते किमु रोचते ? || ३४१ ॥
२
४८
१. सुदन्ती मु० । २. प्राप सौभाग्य प्रपां० खं० २ । ३. गजैः । ४. तलहट्टी । ५. कोसले० खं० १ २ सू० । ६. अभिगमनपूर्वकम् । ७. विस्तारित । ८. पाणी पाणि० मु० २. । पाणि-पाणिजाग्रैः हस्त-नखग्रैः । ९. स्वामासुरीं मु०, खं० १-२, ला०सू० । श्मश्रूम् । १०. मृगमदलिप्ताम् । ११. मुष्टौ ग्रस्तो धृतो दन्तनिर्मितो मुष्टि: (दन्तमुष्टिः ) यस्या: छुर्या: । १२. ० मुष्टि- छुरीं खं० १ २, ला० सू० । १३. ०वलम्बितं मु० । १४. ०दन्त्यथा० मु० । १५. ० विलिप्ती० खं० १ सू० । १६. शिंशु० खं० २ । सुंसुमार० पु. । १७. दृशि सू० । १८. ० निधानसूः खं० १ २, सू० । १९. ०ममुं किं न वु० खं० १ । किं न हर्षसि पु० । २०. ० वंशोऽयं मु० । २१. सीकरा० ला०पा० आ०मु० । २२. रोहीतक - ईशः । २३. पावनश्चन्द्र० ला० पवनपुत्रः ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
क्ष्मापतिः शशलक्ष्माऽयं जयर्केशरिनन्दनः । श्रीनन्दनसमो मूर्त्या किमाकर्षति ते मनः ? ||३४२ ॥ जह्रुसूर्यज्ञदेवोऽयमादित्यकुलमण्डनः । नृपतिर्भृगुकच्छेशो महेच्छेऽमुं किमिच्छसि ? ॥३४३ || भरतेशकुलोत्तंसो नृपोऽयं मानवर्धनः । विश्वप्रतीतं तदमुं पतिं वृणु पतिंवरे ! ||३४४|| कुसुमायुधपुत्रोऽयं नृपतिर्मुकुटेश्वरः । किमस्य रोहिणीवेन्दोः पत्नी भवितुमर्हसि ||३४५|| कोशलानामधीशोऽयं निषधोऽरिनिषेधकृत् । ऋषभस्वामिकुलजो राजा संविदितोऽस्तु ते ॥ ३४६|| अस्यैव तनयः सोऽयं नलो नाम महाबलः । तवाऽस्त्वभिमतो यद्वा कूबरोऽयं नलानुजः ||३४७|| दवदन्त्यपि तत्कालं नलस्य गलकन्दले । स्वयंवरस्रजं न्यास्थल्लक्ष्मीरिव मुरद्विषः ||३४८|| अहो ! सुष्ठु वृतं सुष्ठु वृतमित्यम्बरे गिरः । खेचराणां प्रादुरासन् वृते सति तया नले ||३४९|| [[अथैकैखड्गमाकृष्य धूमकेतुमिवाऽपरम् । कृष्णराजकुमारो द्रागुत्थाय नलमाक्षिपत् ॥३५०|| स्वयंवरस्त्रक् क्षिप्तेयं दवदन्त्या वृथैव ते । नह्येतां मयि सत्यन्यः कश्चिदुद्वोढुमीश्वरः ॥३५१|| तन्मुञ्च भीमतनयां नो वा भव धृतायुधः । कृष्णराजमनिर्जित्य भविष्यसि कृती कथम् ? ॥३५२॥ स्मयमानो नलोऽवादीदरे क्षत्रियपांसन ! । दवदन्त्या वृतो न त्वमिति किं दूयसे मुधा ? ||३५३|| वृतोऽस्मि दवदन्त्याऽहं तदिमां परयोषितम् । इच्छस्यघमनादृत्य तथाऽपि न भवस्यरे ! ||३५४ || इति निस्त्रिंशमाकृष्य नर्तयामास पाणिना । नलोऽनल इवाऽसह्यतेजाः क्रोधधुताधरः || ३५५ || नलस्य कृष्णराजस्य चाऽनीकमुभयोरपि । सद्यः संवर्मयामास धृर्तमर्माविदायुधम् ||३५६|| दध्यौ च दवदन्त्येवं धिगहो ! मन्निबन्धनः । उपस्थितोऽयं प्रलयः क्षीणपुण्या किमस्म्यहम् ? || ३५७|| आर्हती यद्यहं तर्हि मातः ! शासनदेवते ! । नलोऽस्तु विजयी क्षेममस्तु चाऽनीकयोर्द्वयोः || ३५८।। इत्युक्त्वा वारिभृङ्गारमुपादाय तदम्भसा । चिक्षेपाऽनर्थशान्त्यर्थं दवदन्ती छटात्रयम् ॥३५९॥ कृष्णराजोऽथ तद्वारिच्छटाच्छोटितमस्तक: । अङ्गार इव निर्वाणो निस्तेजास्तत्क्षणादभूत् ||३६०॥ तदा शासनदेव्याश्च प्रभावात् कृष्णभूपतेः । करात् पपात निस्त्रिंशः पक्वपत्रमिव द्रुमात् ॥ ३६१|| हतप्रभावो दध्यौ च कृष्णोऽहिरिव निर्गरः । न सामान्यो नलोऽमुष्मिन्न विमृश्य व्यभषिषि ॥३६२॥ तदयं प्रणिपातार्ह इति कृष्णो विचिन्तयन् । प्राणमन्नलपादानां प्रेषणायातदूतवत् ॥३६३॥ उवाच च विनीतः सन् ललींटघटिताञ्जलिः । अविमृश्य कृतं स्वामिन् ! मूर्खस्याऽऽगः सहस्व मे || ३६४|| नलोऽपि कृष्णं सैम्भाष्य व्यसृजत् प्रणिपातिनम् । भीमोऽपि जामातृगुणैर्मेने पुण्यवतीं सुताम् ॥३६५॥ ||भीमः सत्कृत्य सत्कृत्य नृपानन्यान् विसृज्य च । नलस्य दवदन्त्याश्च व्यैधादुपयमोत्सवम् ॥ ३६६॥ नलस्य ववाहमहे वृत्ते स्वविभवोचितम् । हस्त्यश्वादि ददौ हस्तमोचने भीमभूपतिः || ३६७|| आबद्धकङ्कणौ गोत्रजरतीगीतमङ्गलौ । गृहचैत्यमवन्देतां तौ" नवोढौ वधू - वरौ ॥ ३६८|| महेन महता भीम - निषधौ वसुधाधवौ । कारयामासतुरथ तयोः कङ्कणमोचनम् ॥३६९|| ततश्च भीमो निषधं सपुत्रमपि भक्तिभाक् । सत्कृत्य व्यसृजत् किञ्चिदन्वगाच्च स्थितिर्ह्यसौ ॥ ३७० ॥ दवदन्तीमनुपैतिं यान्तीमम्बाऽन्वशादिति । देहच्छायेव मा त्याक्षीर्व्यसनेऽपि पतिं सुते ! ||३७१|| अनुज्ञाप्य स्वपितरौ दवदन्तीमुपेयुषीम् । रथमारोपयामास नलोऽङ्के च न्यवीविशत् ॥ ३७२ ॥ ततश्च कोशलाधीशे कोशलामभिगच्छति । सिषिचे भूर्गजमदैः सान्द्रैर्मृगमदैरिव ||३७३ ||
४९
१. ० केसरि० खं० १-२, सू० । २. कामदेवसमः । ३. जह्नुपुत्रः । ४ ०र्भरुकच्छेशो० खं० १-२, ला०सू० । ५. ०रिवाऽसुर० ९ख० २ । विष्णोः । ६. अथैकं खं० १-२, ला०सू० विना र० । ७. क्षत्रियाधम ! । ८. धृतमर्माविधा० र । मर्मभेदकायुधधरम् । ९. अर्हद्धर्मोपासिका । १०. निर्विषः । निर्भर: ला० । ११. व्यभाषिषम् ला० । १२. ललाटे खं० २ । १३. सम्भाव्य मु० । १४. ०पातितम् खं० २ । १५. चक्रे उपयमो० खं० २ । १६. विवाह० मु० र० । १७. गृहे चैत्य० मु० र० खं० १ । १८. नवोढौ च वधू० ला० । १९. ०मनुपति खं० १ २ सू० । २० प्रयान्त्यम्बान्व० सू०, ला० । प्रयात्यम्बान्व० खं० १ । यान्तीं मातान्व० पा० ला०र० आ० । २१. नलोऽङ्कं च ला० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
ररासाऽश्वखुरक्षुण्णा कांस्यतालमिवाऽवनिः । अचित्र्यन्त च पन्थौनो रेखाभिरभितोऽनसाम् ॥३७४॥ मिथो नीरन्ध्रगमनैः पादातैर्भूरदर्शिन । क्रमेलकैश्च निष्पत्राः क्रियन्ते स्माऽध्वपादपाः || ३७५।। सैन्यैः पीताम्भसोऽभूवन् पङ्कशेषा जलाशयाः । सैन्यरेणुभिरुद्भूतैर्भूर्द्वितीयेव खेऽप्यभूत् ||३७६ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ गच्छतो निषधस्याऽस्तमन्तरालेऽप्यगाद् रविः । ब्रह्माण्डं तमसाऽपूरि वामलूर इवाऽम्भसा ||३७७ ।। न व्यरंसीत्तु निषधः स्वपुरीदर्शनोत्सुकः । स्वस्थानगमनोत्कण्ठा कस्य न स्याद् बलीयसी ? ॥३७८॥ न स्थलं न जलं नाऽपि गर्तावृक्षादिकं न च । अलक्ष्यत तमस्येकातपत्रत्वमुपेयुषि ॥३७९ || तमसा रुद्धदृक्कर्म चतुरिन्द्रियतां गतम् । सैन्यं दृष्ट्वाऽङ्कशयितां दवदन्तीं नलोऽवदत् ||३८०|| देवि ! क्षणं प्रबुध्यस्व तमसोपद्रुतं बलम् । स्वकीयतिलकादित्यं प्रकाशय यशस्विनि ! ॥ ३८१ ॥ उत्थाय दवदन्ती स्वं ललाटं पर्यमार्जयत् । स चाऽदीपिष्ट तिलकस्तमोऽहिगरुडो भृशम् ॥३८२॥ ततश्च गन्तुमारेभे निर्विघ्नमखिलं बलम् । विनाऽऽलोकेन लोको हि जीवन्नपि परौसुवत् ॥ ३८३॥ लेलिह्यमानं भ्रमरैः पद्मखण्डमिवाऽग्रतः । तस्थिवांसं प्रतिमया ददर्शैकं मुनिं नलः ॥ ३८४॥ ऊचे च पितरं स्वामिन् ! महर्षिर्दृश्यतामसौ । वन्द्यतां च गृह्यतां च पथः प्रासङ्गिकं फलम् ॥३८५॥ कायोत्सर्गे स्थितोऽयं हि केनचिन्मत्तदन्तिना । गण्डकण्डूयियिषेया द्रुमवत् पर्यघृष्यत ॥३८६॥ भृशं तद्गण्डकण्डूतिसङ्क्रान्तमदसौरभात् । दश्यमानो मधुकरैः सहतेऽसौ परीषहम् ॥३८७|| ध्यानान्न चालितश्चैष मत्तेनाऽपि हि दन्तिना । स्थिरपादो गिरिरिव पुण्यैर्दृष्टोऽयमन्तरे ||३८८|| जातश्रद्धोऽथ निषधः सपुत्रः सपरिच्छदः । क्षणं सिषेवे तमृषिं प्राप्तं तीर्थमिवोत्तमम् ॥३८९॥ नलः सदारो निषध - कूबरौ चाऽपरेऽपि हि । नत्वोप श्लोक्य निरुपद्रवं कृत्वा च तं ययुः ॥ ३९० ॥ कोशलायाः परिसरमासाद्य च नलोऽवदत् । इयं हि नः पुरी देवि ! जिनायतनमण्डिता ॥३९१|| दवदन्त्यपि तत्कार्लेमुत्कण्ठोत्कण्ठितां ययौ । तच्चैत्यदर्शनादुच्चैः केकिनीवाऽब्ददर्शनात् ॥३९२॥ अभ्यधत्त च धन्याऽस्मि यया लब्धो नलः पतिः । वन्दिष्यन्ते मयाऽमूनि चैत्यानि प्रतिवासरम् ॥३९३॥ प्रारब्धमङ्गलाचारां सर्वतस्तोरणादिभिः । प्रविवेश विशांनीथः शुभेऽह्नि नगरीं निजाम् ॥ ३९४ ॥ नलश्च दवदन्ती च तत्र स्वैरविहारिणौ । जलक्रीडां विदधतुर्हंसाविव कदाचन ॥ ३९५॥ मिथः संवलितैकैकदोः सनाथीकृतोरसौ । अन्वभूतां कदाचिच्च दोलान्दोलनजं सुखम् ||३१६॥ स्वयं कदाचिद् ग्रथितैः पुष्पैरतिसुगन्धिभिः । विचित्रबन्धं धम्मिल्लं पूरयामासतुर्मिथः ||३९७|| बन्ध-मोक्ष-गम-चरचतुरौ दुस्तराशयौ । कदाचिदक्षद्यूतेन चिक्रीडतुरनाकुलौ ॥३९८॥ आतोद्यानि ततादीनि क्रमशः परिवादयन् । नलः कदाचिद् रहसि दवदन्तीमनतर्यत् ॥ ३९९ ॥ एवं नल-दवदन्त्याववियुक्तौ दिवानिशम् । लीलायितैर्नवनवैः कियत्कालमतीयतुः ॥४००॥ अन्येद्युर्निषधो राजा स्वे राज्येऽस्थापयन्नलम् । कूबरं यौवराज्ये तु स्वयं च व्रतमाददे ||४०२ ॥ नलोऽपि पालयामास प्रजमिव निजां प्रजाम् । तत्सुखेन सुखी दुःखी तद्दुःखेन च सर्वदा ||४०२|| बुद्धि-विक्रमसम्पन्नं निःसपत्नं भुजौजसा । अलं नलं जेतुमभूद् भूपतिः कोऽपि नाऽपरः ||४०३ ॥ नलः पप्रच्छ चाऽन्येद्युः सामन्तादीन् क्रमागतान् । किं पित्रोपार्जितामेव शास्मि भूमिमुताऽधिकाम् ? ॥४०४||
५०
(अष्टमं पर्व
१. ०खर० मु० । २. वर्त्मानो ला० सू० । ३. रथानाम् । ४. पदातै० सू० विना । ५. ०र्भूरदर्शना मु० । ६. ०स्याध्वन्यन्त० ला० । ७. वामलूरमिवा० खं० २, ला० विना । वामलूरो वल्मीकः । ८. व्यरंसीच्च मु० र० । ९. गर्तो वृक्षा० २० । १०. विबुध्यस्व की० ला० २ । ११. तमसोपहतं ता०सं० । १२. तमांसि एव सर्पास्तेषु गरुडः । १३. मृत इव । १४. गण्डू० ला० । १५. ० कण्डूजिघृषया खं० २ । १६. व्यमन्तरा मु०, खं० २, ला० । १७. स्तुत्वा । १८. कोसला० खं० १-२, सू० । १९. तत्कालमकुण्ठोत्कण्ठिता खं० १ सू० । ०तत्कालं शीघ्रमुत्कण्ठिता खं० २ । ०मुत्कण्ठिता ला० । २०. ०चारः ला० । २१. पृथ्वीपतिः । २२. संचलितै ० मु० २० । २३. ०मतीययुः खं० १ । २४. ०राज्ये च सुतं निजम् । निवेशयामास नलं स्वयं० खं० २ । २५. लालया० खं० २ । २६. लीलया नीतिवित् प्रजाम् खं० २ । २७ गुणज्येष्ठं खं० २ ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
तेऽवोचन्निषधोऽभुक्त त्र्यंशोनं भरतार्धकम् । त्वया तु सकलं भुक्तं युक्तं पुत्रोऽधिकः पितुः ॥४०५।। किन्त्वितो योजनशतद्वयं तक्षशिला पुरी । कदम्बो नृपतिस्तत्र त्वदाज्ञां न प्रतीच्छति ॥४०६।। भरतार्धजयोद्भूतयशःशशिनि तावके । दुविनीतः स एवैक: कलङ्कश्रियमश्नुते ॥४०७॥ उपेक्षित: प्रमोदेन व्याधिलेश इव त्वया । प्रकाममाप्तोपचयः कृच्छ्रसाध्यत्वंमागतः ॥४०८।। कृतं च रोषपरुषं महाबाहो ! मनस्त्वया । सोऽद्रिभ्रष्टो घट इव विशीर्णश्च न संशयः ॥४०९॥ तदादौ दूतमादिश्य स दुर्मत्तः प्रबोध्यताम् । प्रणिपाते च दण्डे च स्वेच्छा तस्य ततः परम् ।।४१०॥ इत्युक्ते नैषधि तमवष्टम्भमहागिरिम् । अनुशिष्याऽऽदिशत् सैन्यपरिस्पन्देन भूयसा ॥४११॥ पादूतोऽपि गत्वा त्वरितं गरुत्मानिव दुर्द्धरः । कदम्बराजं व्याजहे स्वस्वामिनमहेपयन् ॥४१२।। मत्स्वामिनमहो ! वैरिवनदावानलं नलम् । सेवस्व भृशमेधस्व माऽऽत्मतेजोवधं कृथाः ॥४१३॥ अहं त्वत्कुलदेवीभिरधिष्ठित इवोच्चकैः । हितं ते वच्मि सेवस्व नलं विमृश मा मुहः ॥४१४।। दशनाग्रैर्दशन्नोष्ठं राहुरिन्दुकलामिव । कदम्बोऽम्बामुख इव स्वमजानन्नदोऽवदत् ॥४१५॥ बालिशः किं किमुन्मत्तो वातसुप्तोऽथ किं नलः ? । वैरिस्तावराहं मामपि जानाति यो न हि ॥४१६॥ कलामात्या अपि न किं सन्ति राजकले तव? । न्यषेधि नैषधिन मुग्धधीमधिक्षिपन ॥४१७॥ तद्गच्छ दूत ! राज्यस्य निविण्णो यदि ते प्रभुः । तदस्तु सज्जोऽहमपि तस्यैषोऽस्मि रणातिथिः ॥४१८|| दूतोऽपि हि कदम्बोक्तं तदहङ्कारदारुणम् । आगत्य कथयामास नलस्य बलशालिनः ॥४१९।। ततस्तक्षशिलाधीशं महाहङ्कारपर्वतम् । सर्वसन्त्रहनेनाऽभिषेणयामास नैषधिः ॥४२०॥ नलस्तक्षशिला सर्वां वेष्टयामास सेनया । कुर्वन् द्वितीयप्राकारामिवाऽऽस्फोलितदन्तिभिः ॥४२१॥ कदम्बोऽपि हि सन्नह्य ससैन्यो निर्ययौ बहिः । न सिंहः सहतेऽन्यं हि गुहाद्वारोपसर्पिणम् ॥४२२।। मिथो युयुधिरे योधाः क्रोधारुणविलोचनाः । शराशरिकृतव्योममण्डपाश्चण्डतेजसः ॥४२३॥ नलः कदम्बमूचे च मारितैः किमिभादिभिः ? । आवां युध्यावहे हन्त द्वन्द्वयुद्धेन वैरिणौ ॥४२४॥ ततो नलः कदम्बश्च जङ्गमाविव पर्वतौ । युयुधाते द्वन्द्वयुद्धैर्दोर्युद्धादिभिरुत्तमैः ॥४२५॥ नलात् कदम्बो दर्पान्धो यद्यधुद्धमयाचत । पराबभूवे जयिना तत्र तत्र नलेन सः ॥४२६।। क्षेत्रव्रतं मयाऽतोलि नलेन तु महौजसा । मृत्युकोटि प्रापितोऽस्मि तन्मा मृर्षि पतङ्गवत् ॥४२७।। तस्मात् पलायनं कृत्वा व्रतमासादयाम्यहम् । पलायनमपि श्रेयो यस्योदर्कोऽतिनिर्मलः ॥४२८।। इति चेतसि सञ्चिन्त्य कदम्बः प्रपलाय्य च । विरक्तो व्रतमादत्त तस्थौ प्रतिमया च सः ॥४२९।। नलः कदम्बं दृष्ट्वाऽऽत्तव्रतमूचे जितोऽस्म्यहम् । क्षमा क्षमान्तरासक्तो मा त्याक्षीजितकास्यसि ॥४३०॥ महाव्रतधरो धीरः स कदम्बमहामुनिः । नलस्य नोत्तरमदान्निरीहस्य हि किं नृपः ? ॥४३१।। नलः कदम्बं व्यावर्ण्य तत्सत्त्वेन शिरो धुनन् । तत्सूनुमेव तद्राज्ये जयशक्तिं न्यवीविशत् ॥४३२॥ पाततश्च नलराजस्य जिष्णोविष्णोरिवाऽखिलैः । भरतार्धपतित्वाभिषेकोऽकारि नरेश्वरैः ॥४३३॥ अथ कोशलनाथस्य कोशलामधिजग्मुषः । राजानो भक्तिकुशलाः सर्वे कौशैलिकान्यदुः ॥४३४॥
अपि खेचरनारीभिर्गीयमानबलो नलः । रममाणः समं भैम्या भूमिमन्वशिषच्चिरम् ॥४३५॥ पाकूबरः स्वकुलाङ्गारो राज्यलुब्धो नलस्य तु । छलं गवेषयामास सत्पात्रस्येव शाकिनी ॥४३६।। १. ०धोऽभुङ्क्त र० मु० । २. पुत्रोऽधिकः पितुः परः खं० २ । ३. प्रसादेन खं० २ । ४. ०पचयात् ला० । ५. कष्टसाध्य० खं० २ । ६. ०त्वमाप सः ता. सं. । ७. दृढतायां गिरिसमम् । ०महागिरम् ला० । ८. सैन्यपरिवारेण । ९. 'लज्जामकुर्वन्' लाटि.। १०. मूल् बालो वा । ११. वाऽथ सुप्तो० ता० । वाते, वातेन वा सुप्तः । १२. मुस्ता 'मोथ' नामा वनस्पतिविशेषः, तत्र वराहः । १३. ०दारणम् खं० १, ला० । १४. ०सन्नाहने० र० मु० । १५. ०स्फलित० ला० । १६. च खं० १-२, ला० । १७. पराभूतो विजयिना मु० । १८. क्षत्रवृत्तं मु० । १९. ०कोटी मु० र० । २०. मृषं ला० । २१. ०दर्को हि नि० ला० । उदर्क: आगामिकाल: परिणामः । २२. क्षमान्तरे-परलोके आसक्तः । २३. ०काश्यसि खं० २ । ०कास्यपि ला० । विजेताऽसि । २४. नल: सू० । २५. उपहारान्। २६. छलमन्वेषया० खं० १, सू०ला० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगम्फितं
(अष्टमं पर्व
शनकैहारयन्न
। कबरस्तु
तत्राऽऽगा
द्यूतासक्तिनलस्याऽभूत् सदा न्यायवतोऽपि हि । चन्द्रस्याऽपि कलङ्कोऽस्ति क्व रत्नमनुपद्रवम् ? ॥४३७|| जयामि मेदिनीमेनामिति कराशयो हृदि । कूबरो रमयामास सर्वदा देवेनेर्नलम् ॥४३८।। रेमाते तो बहं कालं देवनातलीलया । सञ्चचार डमरुकग्रन्थिवच्च जयों द्वयोः ॥४३९।। अन्यदाऽनुगम-चर-बन्ध-मोक्षक्षमोऽपि हि । नलो नाऽलमभूज्जेतुं कूबरं दैवदोषेतः ॥४४०।। अनुकूलो नलस्याऽक्षः कोक्ष्यमाणोऽपि नाऽपतत् । तच्छाराँन् कूबरः क्रूरो मुहुर्मुहुरमारयत् ॥४४१।। ग्राम-कर्बट-खेटादि शनकैरियन्नलः । हीयमानोऽभवल्लक्ष्म्या ग्रीष्मे सर इवाऽम्भसा ॥४४२॥ विषसादाऽखिलो लोको नले द्यूतममुञ्चति । कूबरस्तु जहर्षोच्चैः पूर्यमाणसमीहितः ॥४४३।। नलानुरक्तो लोकश्च हा हा ! कर्तुं प्रचक्रमे । हाहाकारं तमाकर्ण्य तत्राऽऽगाद् दवदन्त्यपि ॥४४४॥ उवाच च नलं नाथ ! नाथामि त्वां प्रसीद मे । मुञ्च द्यूतं द्रोहको ते वैरिणाविव देवनौ ॥४४५|| वेश्यागमनवद् द्यूतं क्रीडामात्रं मनीषिणः । सेवन्ते नाथ ! न त्वेवमन्धङ्करणमात्मनः ॥४४६।। वरं राज्यं स्वयं देहि कुबरायाऽनुजन्मने । श्रीरत्ताऽस्मात् प्रसह्येति प्रवादं माऽऽत्मनः कृथाः ॥४४७|| उपार्जिता युद्धशतैर्दूतोंत्तीर्णा मही तव । दुनोति देवाऽत्यन्तं मामश्रोतोगतर्सिक्थवत् ॥४४८॥ तद्वाचं न हि शुश्राव ददर्शाऽपि न तां नलः । अध्यारूढो मदावस्थां दर्शमीमिव वारणः ॥४४९॥ पत्या भृशमवज्ञाता रुदैती दवदन्त्यथ । कुलामात्यादिकानूचे नलं द्यूतान्निषेधत ॥४५०।। तेषामपि वचो नैव प्रबभूव मनागपि । नैषधेरौषधमिव सन्निपातवतो भृशम् ।।४५१॥ नलोऽनलस एवाऽभूद् द्यूते हारितभूरपि । ततः सार्धं, दवदन्त्याऽप्यन्तःपुरमहारयत् ॥४५२॥ नलो हारितसर्वस्वस्ततश्चाऽमुञ्चदङ्गतः । परिविव्रजिषुरिव सर्वमाभरणादिकम् ॥४५३॥ कुबरोऽथ नलं प्रोचे मेह स्थास्त्यज मद्भवम् । पित्रा राज्यं तवाऽदायि ममाऽदायि तु देवनैः ॥४५४।। न लक्ष्मीर्दोष्मतां दूरे मा द्रोप्सीरिति तं ब्रुवन् । संव्यानमात्रोपात्तस्वः प्रचचाल नलस्ततः ॥४५५।। नलानुलग्नां भैमी तु भीमवाक् कूबरोऽवदत् । द्यूते जिताऽसि मा गास्त्वं मच्छुद्धान्तमलङ्करु ॥४५६।। अथाऽमात्यादयः प्रोचुः कूबरं तु दुराशयम् । न स्पृशत्यन्यपुंश्छायामपि भैमी महासती ॥४५७॥ अवरोधे निधा मेमा ज्येष्ठपत्नी हि मातृवत् । शिशवोऽपि पठन्त्येवं ज्येष्ठो भ्राता पिता यथा ॥४५८॥ कुरुषे चेत् प्रसदैवं तदा भीमसुता सती । करिष्यते भस्मसात् त्वां सतीनां नाऽस्ति दुष्करम् ॥४५९।। अनर्थं मा प्रपद्येथाः कोपयित्वा सतीमिमाम् । भर्तारमनुगच्छन्ती प्रत्युतोत्साह्यतामियम् ॥४६०॥ ग्राम-खेटादिदानेन पर्याप्तं ते नलं प्रति । तदर्पय सपाथेयं रथमेकं ससारथिम् ॥४६१॥ इत्युक्तो व्यसृजद् भैमी नलेन संह कूबरः । अर्पयामास च रथं सपाथेयं ससारथिम् ॥४६२॥ नलोऽवदन मया लक्ष्मीर्भरतार्धजयाजिता । क्रीडया त्यज्यते येन तस्य मे का रथस्पृहा ? ॥४६३।। पानलं प्रधानपुरुषाः प्रोचिरे चिरसेवकाः । वयमप्यनुयामस्त्वां कूबरस्तु निषेधति ॥४६४॥ तवाऽनुजस्त्वया दैत्तराज्यस्त्याज्यश्च नैष नः । अस्मिन् वंशे हि यो राजा स सेव्यो नः क्रमो ह्यसौ ॥४६५।। ततो नाऽऽगन्तुमर्हामस्त्वया सह महाभुज ! । भार्या मन्त्री सखा पत्तिर्दवदन्त्येव तेऽधुना ॥४६६॥ शिरीषसुकुमाराङ्गीमङ्गीकृतसतीक्रमाम् । भीमजां पादचारेण कथं नेष्यसि वर्त्मनि ? ॥४६७।।
मार्ग तपनसन्तापस्फुलिङ्गद्वालुकाकणम् । चुम्बेदेषा कथं पादैः कमलोदरसोदरैः ? ॥४६८॥ १. मेतामिति खं० २ । २. पाशैः । ३. बहुकालं मु० र० । ४. द्वयोर्जयः मु० । ५. दैवमोहितः मु० । ६. कांक्षमाणो० खं० २, ला० । ७. तच्छारीन् पा०आ०ला० । तच्छारीः । शारिः-शारः 'सोगठी' । ८. प्रार्थयामि । ९. श्रीर्गता० ला० । १०. द्यूतेन गता। ११. नासिकारन्ध्रगतान्नकणवत् । १२. ०सिक्थुवत् मु० । १३. ददर्श च न खं० २ । १४. गजस्य मदावस्थाप्रकारः । १५. रुदन्ती मु० । १६. प्रावर्तत ला० । १७. ०पातभृतो० खं० २ । १८, ०श्चामुच० खं० १-२, ला० सू० । १९. दर्प मा कार्षीः । २०. उत्तरीयवस्त्रमात्रधनः । २१. कूबरं तुबराशयम् खं० १-२, ला० सू० । २२. अन्त:पुरे । २३. मैनाम्, ता०ला० । २४. अलम् । २५. दत्तराज्यश्चैषोऽपि नैषधि: पु० ला० २ । दत्तराज्यस्त्याज्य श्च नैषधिः खं० १, सू० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
तद् गृहाण रथं नाथ ! प्रसीदाऽनुगृहाण नः । देव्या सममिहाऽऽरोह क्षेमोऽध्वा स्वस्ति चाऽस्तु वः ॥४६९।। प्रधानपुरुषैरेवं प्रार्थ्यमानो मुहुर्मुहुः । दवदन्त्या सह नलो रथमारुह्य निर्ययौ ।।४७०।। एकवस्त्रां दवदन्ती दृष्ट्वा स्नानोद्यतामिव । नागर्यो रुरुदुर्बाष्पजलक्लेदितकञ्चकाः ॥४७१।। पागच्छंश्च पुरमध्येन हस्तपञ्चशतोन्नतम् । ददशैकं नलः स्तम्भं दिग्गजालानसन्निभम् ।।४७२॥ राज्यभ्रंशोद्भवं दुःखमविदन्निव कौतुकात् । तं नलो लीलयोद्दधे कदलीमिव वारणः ।।४७३।। पुनरारोपयमास स्तम्भं तत्रैव तं नलः । उत्खोत-प्रतिरोपाख्यं शंसन्निव नृपव्रतम् ॥४७४।। दृष्ट्वा च नागरा: प्रोचुर्नलस्याहो ! महद्बलम् । व्यसनं बलिनोऽप्यस्य प्रमाणं नियतिः खलु ॥४७५।। क्रीडतोऽस्य नगोद्याने कूबरेण समं पुरा । महर्षिराजगामैको ज्ञानरत्नमहानिधिः ॥४७६। स आख्यद् भाव्यसौ योम्यभरतार्धपतिर्नल: । पूर्वस्मिन् जन्मनि मुनेः क्षीरदानप्रभावतः ॥४७७।। पुरीमध्ये महास्तम्भं हस्तपञ्चशतोन्नतम् । चौलयिष्यति योऽवश्यं भरतार्धपतिः स हि ॥४७८।। द्वयं संवाद्यभूदेतद् भरतार्धपतिर्नलः । स्तम्भश्च चालितोऽनेन दृष्टः स्वैरेव लोचनैः ॥४७९।। नले जीवति न ह्यन्य: कोशलोयां महीपतिः । भावीति यत् त्ववादीत् स विसंवादि बभूव तत् ॥४८०॥ वाग् दृष्टप्रत्यया तस्य भवित्री नाऽन्यथाऽथवा । किं ज्ञायते यदि पुनर्न नन्दिष्यति कूबरः ? ॥४८१।। कदाचित् स्याद् यदि पुनर्नल एवात्र भूपतिः । नलस्य पुण्यश्लोकस्य सर्वथा पुण्यमेधताम् ॥४८२॥ एवं लोकवचः शृण्वन् पुरी तत्याज कोशलाम् । रुदाँ दवदन्त्याऽत्रैः स्नाप्यमानरथो नलः ॥४८३।। अभ्यधान्नैषधिः पत्नी क्व यामो देवि ! सम्प्रति ? । न हि स्थानमनुद्दिश्य प्रवृत्तिश्चेतनावताम् ॥४८४|| वैदर्युवाच दर्भाग्रतीक्ष्णधीर्देव ! गम्यताम् । कुण्डिने तत्र मे तातोऽतिथीभूयाऽनुगृह्येताम् ॥४८५।। तथैवाऽथ नलादिष्टः सव्येष्ठा प्रेरयन् हयान् । आशिश्रायाऽऽश्रयो भक्तेर्दिशं कुण्डिनमण्डिताम् ।।४८६।। व्याघ्रघूत्कारघोराद्रिगुहामुरगदारुणाम् । दुःश्वापदशताकीर्णा सङ्कीर्णा भिल्ल-लुब्धकैः ॥४८७॥ सिंहमारितवन्येभदन्तदन्तुरभूतलाम् । क्रीडास्थानं यमस्येव नलः प्रापदथाऽटवीम् ॥४८८।। युग्मम् ।।
आकर्णाकृष्टकोदण्डान् प्रचण्डानभिसर्पतः । यमदूतोपमान् भिल्लान् गच्छन्नग्रे ददर्श सः ॥४८९।। भिल्लास्ते ननृतुः केऽपि पानगोष्ठीपरा इव । केऽपि चाऽ वादयन् शृङ्गमेकदन्तद्विपोपमाः ॥४९०।। केचित् कलकलं चक्रू रङ्गादाविव नर्तकाः । केचिच्च ववृषुर्बाणान् धारासारानिवाऽम्बुदाः ॥४९१॥ करास्फोटं व्यधुः केऽपि मल्ला इवनियोधिनः । सर्वे सम्भूय रुरुधुर्नलं श्वान इव द्विपम् ॥४९२।। त्रिभिविशेषकम् ॥ द्रुतं रथादथोत्तीर्य कोशादाकृष्य नैषधिः । अनर्तयन्मुष्टिरङ्गेऽसियष्टि नर्तकीमिव ॥४९३।। भीमजाऽपि रथं मक्त्वा बाहौ धत्वाऽवदन्नलम । क एतेषु तवाऽऽक्षेपः सिंहस्य शशकेष्विव ॥४९४। व्यापार्यमाणश्चैतेषु पशुमात्रेषु नैषधेः । हेष्यत्यसौ भरतार्धजयश्रीवासभूरसिः ॥४९५।। इत्युक्त्वा भीमतनया हुङ्कारानमुचन् मुहुः । मान्त्रिकी मण्डलस्येव स्वसमीहितसिद्धये ॥४९६।। मुच्यमानास्तु ते भैम्या हुङ्कारास्तत्प्रभावतः । विशन्तो भिल्लकर्णेषु तीक्ष्णायःसूचितां ययुः ॥४९७।। भिल्लास्तु ते ययुः सर्वे कान्दिशीका दिशो दिशम् । तौ तु तानभिधावन्तौ रथाद् दूरे बभूवतुः ॥४९८।। पाइतश्च भिल्लैरपरैरपजहे तयो रथः । कुर्यात् पुरुषकारः किं दैवें वक्रत्वमीयुषि ? ॥४९९।। तस्यामटव्यां भीमायां भैमीमादाय पाणिना । पाणिग्रहोत्सवं तस्याः स्मौरयन्नभ्रमन्नलः ॥५००।। वैदर्भी दर्भविद्धांहिक्षरद्रुधिरबिन्दुभिः । चकाराऽरण्यवसुधामिन्द्रगोपाङ्कितामिव ॥५०१॥ पट्टबन्धः पुरा मूर्धन्यभूद् भैम्यास्तदा पुनः । नलेन पादयोश्चक्रे दारं दारं स्वमंशुकम् ।।५०२।। १. उत्पाट्य प्रति० खं० २ । २. 'दक्षिण' लाटि० । ३. चलयि० खं० १, सू० । ४. ०द्यभूदेतै० खं० २ । ५. चलितो येन ता०सं०। ६. कोशलाया० पा० मु० । ७. स्यादिदं पुन० खं० १ । ८. रुदन्त्या मु० । ९. ०नुगृह्यत खं० २ । १०. ०दिष्टसव्येष्टा मु० । सव्येष्ठा सारथिः । ११. व्याघ्रपूत्कार० ला० २ । व्याघ्रबूत्कार० ता०सं०म० । १२. नियोगिनः खं०१। च योधिन: खं० २। द्वन्द्वयुद्धं कुर्वाणाः । १३. मुष्टिरेव रङ्ग-नाट्यशाला तत्र । १४. नैषधिः खं० १ । नैषधे ! ला० । १५. देववक्रत्व० ख० १-२ । १६. स्मर० खं० १, सू० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
भीमजां वीजयामास श्रान्तासीनां तरोस्तले । तालवृन्तीकृतनिजपरिधानाञ्चलो नलः ॥५०३।। नल: पलाशै: पालाशैः पुटं कृत्वाऽऽहृतं पयः । तामपीप्यत् पञ्जरस्थां शारिकामिव तर्षिताम् ॥५०४॥ पप्रच्छ भीमजाऽप्येवं कियैत्यद्याऽप्यटव्यसौ । इह द्विधैव भवितुं कम्पते हृदयं मम ॥५०५॥ नलोऽप्याख्यदटव्येषा योजनानां शतं प्रिये ! । पञ्चैव योजनान्यस्या गतान्याश्रय धीरताम् ॥५०६।। एवं वार्तयतोस्तस्मिन्नरण्ये गच्छतोस्तयोः । सूर्योऽस्तमाप, कथयन्निव सम्पदनित्यताम् ॥५०७|| पाअथाऽवचित्य निवृन्तीकृत्य चाऽशोकपल्लवान् । दवदन्त्याः कृते चके नलस्तल्पमनल्पधीः ।।५०८।। उवाच च प्रियां तल्पं शयित्वा त्वमलङ्करु । निद्रायाः समयं देहि दुःखविस्मृतिसख्यसौ ॥५०९॥ भैम्यभ्यधादितो देव ! पश्चिमायामदूरतः । अस्ति संवसथो मन्ये गवां हम्भारवं शृणु ॥५१०॥ किञ्चिदग्रे परिक्रम्य तदिहाऽऽवसथे वयम् । यामो यामवंती तत्र सुखसुप्तैनिगम्यताम् ।।५११।। नलः प्रोवाच हे भीरु ! तापसानामिहाऽऽश्रमः । अशुभोदर्कसम्पर्कास्ते च मिथ्यादृशः सदा ॥५१२॥ अपि तापससङ्गत्या सम्यक्त्वं हि विनाश्यते । मनोरमं क्षीरमिवाऽऽरनालेन कृशोदरि ! ॥५१३।। तदत्रैव सुखं शेष्व मा कृथास्तन्मुखं मनः । भवामि यामिकोऽहं ते सौविदल्ल इव स्वयम् ॥५१४।। तत्र पल्लवतल्पे स्वं संव्यानार्धमथाऽक्षिपत् । तूलिकां प्रच्छदवतीं प्रेयस्याः स्मरयन्नलः ॥५१५॥ वन्दित्वा देवमहन्तं स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतिम् । वैदर्भी तत्र चाऽशेत गाङ्गे हंसीव रोधसि ॥५१६॥ पनिद्रामुद्रितनेत्रायां वैदा कोशलेश्वरः । चिन्तां चक्रे महावर्तमिव व्यसनवारिधेः ।।५१७॥ श्वशुरः शरणं येषां नराणां ते नराधमाः । दवदन्त्याः पितुर्गेहं तत्कथं यात्वसौ नल: ? ॥५१८॥ हृदयं वज्रसात्कृत्वा तत् त्यक्त्वा प्रेयसीमपि । गच्छामि स्वेच्छयाऽन्यत्राऽऽत्मानमादाय रङ्कवत् ॥५१९।। शीलप्रभावाद् भैम्याश्च न स्यात् कश्चिदुपद्रवः । शीलं सतीनां सर्वाङ्गरक्षामन्त्री हि शाश्वतः ॥५२०॥ इत्याकृष्य छुरी राजा स्वसंव्यानार्धमच्छिदत् । भैम्या वस्त्रे स्वरुधिरेणाऽक्षराणि लिलेख च ॥५२१।। 'विदर्भेष्वेष यात्यध्वा वटालङ्कतया दिशा । कोशलेषु च तद्वामस्तयोरेकेन केनचित् ।।५२२।। गच्छेः स्वच्छाशये ! वेश्म पितुर्वा श्वशुरस्य वा । अहं तु क्वाऽपि न स्थातुमुत्सहे "हे विवेकिनि !' ।।५२३॥ युग्मम् ।। अक्षराणि लिखित्वैवमशब्दं प्ररुदन्नलः । अग्रतो गन्तुमारेभे चौरवन्निभृतक्रमः ॥५२४।। प्रसुप्तां प्रेयसीं पश्यन्नलो वलितकन्धरः । तावदग्रे ययौ यावददृश्यत्वमियाय सा ॥५२५।। अचिन्तयच्च तां बालामनाथां शयितां वने । क्षुत्क्षामो भक्षयेद् व्याघ्रः सिंहो वा यदि का गतिः ॥५२६।। तदृष्टिविषयीकृत्य तां रक्षामि निशामहम् । प्रातः स्वरुचि यात्वेषा मया कथितयोः पथोः ॥५२७॥ युग्मम् ॥ तैरेव पादैर्वलितः पतितार्थः पुमानिव । दृष्ट्वा भूलुठितां जायां नल: पुनरचिन्तयत् ॥५२८॥ दवदन्त्येकवस्त्रेयमेका स्वपिति वर्त्मनि । अहो ! नलस्य शुद्धान्तमसूर्यपश्यमीदृशम् ।।५२९।। अहो ! मत्कर्मदोषेण कुलीनेयं सुलोचना । प्रविवेश दशामेव हताशः किं करोम्यहम् ? ॥५३०॥ मयि सत्यपि पार्श्वस्थेऽप्युन्मत्तवदनाथवत् । भूमौ शेते वरारोहा जीवत्यद्याऽपि ही नलः ॥५३१।। १. पलासपालाशैः खं० २। पलाशवृक्षस्य पत्रैः । २. कृत्वा द्रुतं मु० र० । ३. कियत्यन्थाऽप्य० पा० । ४. न्याधेहि खं० २, ला० । ५. अवचित्याथ खं० १-२, ला० सू० मु० । ६. ग्रामः । ७. रात्रिः । ८. ०श्रय: खं० २ । ९. अति ला० । १०. विनश्यति मु० र०। ११. स्मारयन्नत: खं० २ । १२. कथं यातु त्वसौ ला० । १३. ५१८ पद्यानन्तरं पु. प्रतावधिकोऽयं श्लोको दृश्यते
"यतः- उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमास्तु पितुर्गुणैः । अधमा मातुलैः ख्याताः श्वसुरैश्चाधमाधमाः ॥" १४. 'वज्रसदृशं' लाटि, । १५. "वडरुक्खि दाहिणि दिसिं जाइ विदभि मग्ग । वामदिसिं पुण कोसलहिं जहिं भावइ तिहां लग्ग" ॥ इति की० प्रतौ टि० । १६. हि खं० २ । १७. मन्दपदः । १८. क्षुत्क्षामां ला० । १९. कल्पितयोः खं० १ । २०. पतितधनः । २१. ०वेशाटवीमेव ला० । २२. श्रेष्ठा स्त्री।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
मयैकाकिन्यसौ मुक्ता प्रबुद्धा मुग्धलोचना । मोक्ष्यते जीवितेनाऽपि स्पर्द्धयेव मया सह ॥५३२॥ भक्तां तदेनां वञ्चित्वा नाऽन्यतो गन्तुमुत्सहे । जीवितं मरणं वाऽपि मम स्तादनया सह ॥५३३।। अथवाऽनेकदुःखानामरण्ये नरकोपमे । पात्रं नारकिक इव भवाम्येकोऽहमस्त्वसौ ॥५३४।। मया तु वस्त्रे लिखितामाज्ञां ज्ञात्वा मृगाक्ष्यसौ । स्वयं गत्वा कुशलिनी वत्स्यति स्वजनौकसि ॥५३५।। इति निश्चित्य तां रात्रिमतिक्रम्य च नैषधिः । प्रबोधसमये पत्न्यास्तिरोऽधात्त्वरितक्रमम् ॥५३६।। पाउन्निद्रपङ्कजामोदिमृदुप्रत्यूषमारुते । निशाशेषे दवदन्ती स्वप्नमेवमुदैवत ॥५३७॥ यदहं फलिते फुल्ले पत्रले चूतपादपे । आरुह्य तत्फलान्यादं शृण्वन्ती भृङ्गनिःस्वनान् ॥५३८॥ अकस्माद् वनकरिणोदमूलि च स पादपः । पतिताऽहं च मेदिन्यां ततोऽण्डेमिव पक्षिणः ॥५३९॥ युग्मम् ।। भैमी प्रबुद्धा तत्कालमपश्यन्ती नलं पुरः । दिशोऽवलोकयामास मृगी यूथादिव च्युता ॥५४०॥ अचिन्तयच्चाऽऽपतितमत्याहितमनाहतम् । अशरण्यामरण्ये मां प्रेयानपि मुमोच यत् ॥५४१।। यद्वा मुखक्षालनाय प्राणेशो मे निशात्यये । गतो भविष्यति क्वाऽपि वार्यानेतुं जलाशये ॥५४२।। नीतो रमयितुं यद्वोपरुध्य नियतं नलः । कयाचिदपि खेचर्या तद्रूपालोकलुब्धया ॥५४३॥ क्रीडन् कलायां कस्याञ्चिज्जितो मन्ये तया च सः । कृतावस्थानपणितस्तस्थौ चाऽद्यापि नैति यत् ॥५४४॥ ते द्रुमाः पर्वतास्तेऽपि तदरण्यं च सा च भूः । एकमेव न पश्यामि नलं कमललोचनम् ।।५४५॥ एवं चिन्ताप्रपन्ना सा दर्श दर्श दिशोऽखिलाः । प्राणनाथमपश्यन्ती निजं स्वप्नं व्यचारयत् ॥५४६।। सहकारो नलो राजा राज्यं पुष्प-फलादिकम् । फलास्वादो राज्यसुखं मृगाः परिजनो मम ।।५४७॥ सहकारतर्यश्चोन्मूलितो वनदन्तिना । राज्यादुत्थाप्य दैवेने प्रावास्यत स मे पतिः ॥५४८॥ यच्चाऽस्मि पतिता वृक्षात् तद् भ्रष्टाऽस्मि नलादहम् । स्वप्नेनाऽनेन ननं मे नलो दुर्लभदर्शनः ॥५४९।। त्रिभिविशेषकम् ॥ स्वप्नार्थमिति निर्णीय सा दध्याविति धीमती । न राज्यं न पतिश्चेति द्वयमापतितं मम ॥५५०॥ व्यलपन मुक्तकण्ठं च सा तारं तारलोचना । दुर्दशापतितानां हि स्त्रीणां धैर्यगुणः कुतः ? ॥५५१॥ हा नाथ: मां किमत्याक्षी:? किं भाराय तवाऽभवम् ?।न ह्यात्मीया कञ्चलिका जातु भाराय 'भोगिनः ॥५५२।। मर्मणाऽन्तरितोऽभूस्त्वं यद्वा वल्लीवने क्वचित् । तत्प्रकाशो भव चिरं न हि नर्माऽपि शर्मदम् ॥५५३।। प्रार्थये वः प्रसीदन्त मह्यं हे वनदेवताः! । प्राणेशं दर्शयत मे मार्ग वा तत्पवित्रितम् ॥५५४॥ द्विधा भव धरित्रि ! त्वं वालुङ्कमिव पाकिमम् । त्वद्दत्तविवरेणाऽहं प्रविश्याऽऽप्नोमि निर्वृतिम् ॥५५५।। पाएवं भैमी विलपन्ती रुदती नयनोदकैः । सारणीवारिभिरिव सिषेचाऽरण्यपादपान् ॥५५६॥ जले स्थले वा छायायामातपे वा नलं विना । ज्वरा या इव तस्या न निर्वृतिलवोऽप्यभूत् ।।५५७।। भ्रमन्त्यटव्यां संव्यानाञ्चले दृष्टवाऽक्षराणि सा । वाचयामास हर्षेण विकसन्नयनाम्बुजा ॥५५८।। दध्यौ च तन्मनःपूर्णसरोहंस्यस्मि खल्वहम् । कुतोऽन्यथैवमादेशप्रसादास्पदता मम ॥५५९॥ तदद्य पत्यरादेशं मन्ये गरुवचोऽधिकम् । कर्वन्त्या मे तदादेशमिहलोकोऽतिनिर्मलः ॥५६०॥ तद् व्रजामि पितुर्वेश्म सुखवासनिबन्धनम् । पति विना हि तद्वेश्माऽभिभवायैव योषिताम् ॥५६१॥
पत्या सहाऽपि हि मया पितृवेश्म यियासितम् । विशेषतोऽद्य तद्यामि पत्यादेशवशंवदा ॥५६२।। १. कत्वा मु० । २. ततोऽण्ड इव मु० र० । ३. अत्याहितं-महाभयम् । ४. भविष्यत्यथवा ला० । ५. पणत० मु०। ६.५४५ श्लोकादनन्तरं पु. प्रतावेवं पाठो दृश्यते - "रणे वास पिएण सिउं विहि एतलउं करिज्ज । धण कण कंचण आभरण जइ लावउ तउ दिज्ज ॥" ७. चिंतासमुद्दपडियं(या) दहदिसि चाहंति भुंभला नयणी । अच्छइ को इणि अवसरि जो हत्थालंबणं देइ ॥ इति टि. की० प्रतौ । ८. निजस्वप्नं खं० १-२, सू० । ९. पुष्पलता ता० । १०. तरुर्यस्योन्मू० ला० । ११. देवेन ला० । १२. सर्पस्य । १३. चिर्भटकम् - चीभईं। १४. पक्वम् । १५. रुदन्ती मु०॥ १६. एतच्च पत्यु० मु०॥ १७. कुर्वत्या ला० । १८. विनापि मु० र० । विना तु खं० १-२, सू० । १९. पतिगृहं पराभवायैव ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पाइति न्यग्रोधमार्गेण भैमी गन्तुं प्रचक्रमे । नलाक्षराणि पश्यन्ती पार्वे नलमिव स्थितम् ॥५६३॥ व्याघ्रा व्यात्ताननास्तस्या खादनायोत्थिता अपि । समीपमागन्तुमलमनलस्येव नाऽभवन् ॥५६४॥ गच्छन्त्यास्त्वरितं तस्या वल्मीकमथनोत्थिताः । जाङ्गल्या इव मूर्तया नाभ्यसर्पन महोरगाः ॥५६५।। स्वच्छायामपि भिन्दन्तौ दन्तैरन्येभशंकया । मत्ता अपि ययुर्दूरं तस्याः सिंह्या इव द्विपाः ।।५६६।। प्राभूवन् पथि गच्छन्त्यास्तस्या नान्येऽप्युपद्रवाः । सर्वत्र कुशलं तासां स्त्रीणां याः स्युः पतिव्रताः । ॥५६७।। सा पुलिन्दपुरन्ध्रीवाऽतिविसंस्थुलकुन्तला । सद्यःस्नातेव सर्वाङ्गमपि स्वेदजलाविला ॥५६८॥ करीर-बदरीप्रायकण्टकिद्रुमघर्षणैः । प्रक्षरद्रुधिरा निर्यनिर्यासाव सल्लकी ॥५६९॥ बिभ्रती मार्गसङ्क्रान्तं रजस्त्वचमिवाऽपराम् । त्वरितं त्वरितं यान्ती दवत्रस्तेव हस्तिनी ॥५७०॥ आवासितमुदैक्षिष्ट सङ्कटं शाकटादिभिः । मार्गे महद्धिकं सार्थं शिबिरं नृपतेरिव ॥५७१॥ चतुभिः कलापकम् ॥ अचिन्तयच्च सार्थश्चेत् कश्चिदप्यधिगम्यते । सोऽरण्याब्धितरण्ड: स्यात् तदा मे पुण्यसम्पदा ॥५७२।। स्वस्थीभूय च सा तस्थौ यावत् तावच्च दस्यवः । परितो रुरुधुः सार्थं देवसेनामिवाऽसुराः ॥५७३।। तां चौरसेनामायान्तीमीति चौरमयीमिव । दृष्ट्वा बिभ्युः सार्थलोकाः सुलभा धनिनां हि भीः ॥५७४॥ हंहो मा भैष्ट मा भैष्ट लोकाः सार्थनिवासिनः । इति तत्कुलदेवीवोवाच वाचं नलप्रिया ॥५७५॥ व्याजहार च सा चौरान रे रे यात दुराशयाः । रक्ष्यमाणे मयाऽमुष्मिन् सार्थेऽनर्थमवाप्स्यथ ॥५७६।। एवं वदन्तीमपि हि दवदन्तीं मलिम्लुचाः । वातूलामिव भूतात्तामिव चाऽजीगणन्न हि ।।५७७।। ततो मुमोच हुंकारांश्चौराहंकारदारणान् । कुण्डिनाधीशदुहिता हितार्थं सार्थवासिनाम् ॥५७८।। श्रुतैश्च तस्या हुङ्कारैर्बधिरीकृतकाननैः । दस्यवस्ते पलायन्त धनु दैरिव द्विकाः ॥५७९।। अस्मत्पुण्यैः समाकृष्टा काऽप्येषा देवता खलु । अस्मानरक्षच्चौरेभ्य इति सार्थजनोऽवदत् ॥५८०।। सार्थनाथोऽपि तां भक्त्या प्रणम्य जननीमिव । पप्रच्छ किमिहाऽरण्ये परिभ्रमसि काऽसि वा ? ॥५८१॥ सासंदृग् बान्धवायेव सार्थवाहाय भैम्यपि । अशंसदानलद्यूतात् सर्वं वृत्तान्तमात्मनः ॥५८२॥ उवाच सार्थवाहोऽपि महाबाहोर्महीपतेः । नलस्य पत्नीत्यपि मे पूज्याऽस्यद्याऽस्मि पुण्यभाक् ॥५८३॥ त्वयोपकारक्रीताः स्मस्तस्करेभ्यश्च रक्षणात । तत्पनीहि ममाऽऽवासं स्तोकं यत क्रियते त्वयि ५८४॥ एवमुक्त्वा सार्थवाहो नीत्वा पटगृहे निजे । भैमी विश्रामयामासाऽऽराधयन् देवतामिव ॥५८५।। पावर्षानाटकनान्द्याभां गर्जामच्चैर्विपञ्चयन । अखण्डधारां विदधे वष्टि धाराधरस्तदा ॥५८६।। स्थाने स्थाने परीवाहै: प्रवहद्भिनिरन्तरैः। ससारणीकमुद्यानमिवाऽभूदभितोऽपि भूः ॥ ५८७।। अखातसरसां वारिपूर्णानां दर्दुरारवैः । नद्यद्द१रकातोद्यमयीवोपान्तभूरभूत् ॥५८८॥ बभूव सर्वतोऽरण्ये वाराहीदोहदप्रदः । पङ्कः पादेषु पान्थानां मोचकप्रक्रियाकरः ॥५८९।। त्रिरात्रमनवच्छिन्ना वृष्टिरासीत् तदोत्कटा । भैमी त्वस्थात् सुखं तत्र प्राप्तेव पितृवेश्मनि ॥५९०॥
वर्ष वर्षं स्थिते मेघे दवदन्ती महासती । सार्थं हित्वा पुनरपि प्राग्वदेकाकिनी ययौ ॥५९१।। पनलप्रवासदिवसादपि भीमसुता सती । चतुर्थादितपोलीनाऽत्यगान्मार्ग शनैः शनैः ॥५९२।। उत्पिङ्गलकचं शैलमिव दीप्तदवानलम् । जिह्वाज्वालाकरालास्यं द्विजिह्वमिव दारुणम् ॥५९३।।
कतिकादारुणकरं तालदघ्नं कृशक्रमम् । अमावास्यातमःश्यामं घटितं कज्जलैरिव ॥५९४।। १. दूरे ला० २. निर्यन्-निर्गच्छन् यो निर्यासः रस: 'गुंद', तेनाऽऽर्दा सल्लकी (वृक्ष) इव सा । ३. मिवापरम् मु०र० । ४. उपद्रवम् । ५. ऽबिभ्यन् खं० २, ला० । ६. चौराः अरे ! ला० । ७. ०रान् स्फाराहंकार० खं.२ । ८. ०दारुणान् मु० र० विना । ९. काकाः । १०. अस्मान् रक्षति चौरेभ्यः इति ला० ला० २ । ११. साश्रु मु० र० । १२. त्वया चाद्योपकृताः स्म० खं० १ । ०क्रीतोऽस्मि ला० । १३. मास राध० मु० । १४. ०धारं खं० १, ला० सू० । १५. जलोच्छासैः, 'अधिकजलनिर्गमनमार्गः । १६. ससारणिक० मु० र० । १७. वराही० मु० विना । १८. पादत्राणपरिधायकः । १९. ०त्यागा० ला० । ०भ्यगा० ता०सं०पु० खं० २ । २०. तालवृक्षप्रमाणम्। तालदनकृश० खं० १-२, मु० २० ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
५७
शार्दूलचर्मसंव्यानं भीषणेभ्योऽपि भीषणम् । रक्षोऽद्राक्षीदथैकं सा पुत्रं पितृपतेरिव ॥५९५ ॥ त्रिभिविशेषकम् ॥ बुभुक्षाक्षामकुक्षेर्मे चिराद् भक्ष्यमुपस्थितम् । मङ्क्षु त्वां भक्षयिष्यामीत्युवाच च स राक्षसः ॥ ५९६ ॥ भीताऽप्यथोऽवदद् धैर्यमालम्ब्य नलगेहिनी । श्रुत्वा मदीयं वचनं यथारुचि त्वमचरेः ॥५९७|| जातस्य हि ध्रुवं मृत्युरकृतार्थस्य मृत्युभीः । आजन्म परमार्हत्याः कृतार्थायास्तु सा न मे ॥५९८॥ परस्त्रियं मा स्पृश मां स्पृशन्नपि न नन्दसि । ममाऽऽक्रोशेन मूढात्मन्नेषाऽस्मि विमृश क्षणम् ॥५९९|| इति धैर्येण वैदर्भ्या हृष्टः स रजनीचरः । उवाच भद्रे ! तुष्टोऽस्मि किं तवोपकरोम्यहम् ? || ६०० || साऽप्यूचे यदि तुष्टोऽसि देवयोने ! निशाचर ! । तर्हि पृच्छामि कथय कदा मे पतिसङ्गमः ? ||६०१॥ विज्ञायाऽवधिना तस्यै कथयामास राक्षसः । सम्पूर्णे द्वादशे वर्षे प्रवासाहाद्यशस्विनि ! ||६०२॥ पितृवेश्मस्थितायास्ते स्वयमेव समागतः । मिलिष्यति नलो राजा समाश्वसिहि सम्प्रति ||६०३|| युग्मम् | कल्याणि ! भणसि त्वं चेत् तदा त्वां तातवेश्मनि । नयाम्यर्धनिमेषेण यासीर्माऽऽयासमध्वनि ||६०४ || सा प्रोचे कृतकृत्याऽस्मि नलागमनशंसनात् । परपुंसा सह नाऽहं प्रयामि स्वस्ति ते व्रज ||६०५ ॥ दर्शयित्वा निजं रूपं स ज्योतिर्मयमात्मनः । उत्पपाताऽम्बरतले तडित्पुञ्ज इव क्षणात् ॥ ६०६॥ [पत्युः प्रवासं विज्ञाय साऽपि द्वादशहायनीम् । चकाराऽभिग्रहानेवं सतीत्वंद्रुमपल्लवान् ||६०७॥ रक्तवस्त्राणि ताम्बूलं भूषणानि विलेपनम् । विकृतीरपि नाऽऽदास्ये न यावन्मिलितो नलः ||६०८|| गिरेरेकस्य च प्राप्य कन्दरां दरवर्जिता । भैमी प्रावृषमत्येतुं तत्रैवाऽवस्थितिं व्यधात् ॥६०९॥ सा बिम्बं शान्तिनाथस्य स्वयं निर्माय मृन्मयम् । न्यवीविशद् गुहाकोणे मनसीवाऽमले निजे ॥६१०॥ स्वयंगलितपुष्पाणि स्वयमानीय भीमजा । त्रिसन्ध्यं पूजयामास तद्विम्बं षोडशार्हतः ||६११॥ चतुर्थादितप:प्रान्ते पारणं परमार्हती । प्रासुकैर्बीजरहितैः कृतिन्यकृत सा फलैः ॥६१२॥ सोऽपश्यन् सार्थवाहोऽपि सार्थमध्ये नलप्रियाम् । आगादनुपदं तस्याः क्षेममस्त्विति चिन्तयन् ॥६१३॥ गुहायामागतस्तस्यां सार्थवाहो ददर्श च । दवदन्तीमर्चयन्तीमर्हद्विम्बं समाधिना ॥६१४|| दृष्ट्वा क्षेमवतीं भैमीं सार्थवाहः प्रमोदभाक् । नत्वा चोपाविशद् भूमौ विस्मयस्मेरलोचनः ||६१५॥ भैमी समाप्याऽर्हत्पूजां स्वागतप्रश्नपूर्वकम् । सार्थेशं वार्त्तयामास सुधामधुरया गिरा ॥ ६१६॥ अदूरवासिनः केऽपि तापसास्तत्र सत्वरम् । "आगुस्तच्छब्दमाकर्ण्यात्कर्णाश्चाऽस्थुर्मृगा इव ||६१७ || धाराधरोऽम्बुधाराभिर्दुर्धराभिर्धराधरम् । ताडयन्नभितष्टङ्गैरिवाऽऽरेभे च वर्षितुम् ॥६१८|| आहन्यमाना भल्लीभिरिव धाराभिरम्भसाम् । ते प्रोचिरे क्व गच्छामः ? क्व पयो वञ्च्यतामिदम् ? ॥ ६१९ ॥ दृष्ट्वा च तान् कान्दिशीकान् श्वापदानिव तापसान् । उवाच भैमी मा भैष्ट मा भैष्टेति प्रकृष्टवाक् ॥६२०॥ कृत्वा च परिधौ तेषां कुण्डं कुण्डिनराट्सुता । सतीधुरन्धरा धीरं व्याजहाराऽतिहारिवाक् ॥६२१॥ सत्यस्मि यद्यहं यद्यार्हती ऋजुमना यदि । कुण्डात् तदस्मादन्यत्र वर्षन्तु स्तनयित्नवः ॥ ६२२॥ तदैव भीमतनयासतीत्वस्य प्रभावतः । कुण्डे धृतच्छत्र इव पयस्तत्राऽपतन्नहि ||६२३॥ पर्वतः सर्वतोऽपि द्राग् धौतो नीरैरराजत । निर्मलैश्यामलवपुर्नदीस्त्रात इव द्विपः ॥६२४॥ गह्वराणि गिरेस्तस्याऽभूवन् वर्षति वारिदे । परितो वारिपूर्णानि पूर्तानीवाऽम्बुदश्रियः ॥६२५॥ तद्दृष्ट्वाऽचिन्तयन् सर्वे काऽप्येषा खलु देवता । मानव्या नेदृशं रूपं न च शक्तिरपीदृशी ॥ ६२६॥ सार्थवाहो वसन्तस्तां पप्रच्छ स्वच्छधीरथ । भद्रे ! कथय को नाम देवोऽयं पूज्यते त्वया ? ॥६२७॥
१. यमराजस्य । २. मदीयवचनं खं० २ । ३. तमाचरे: र० स्वीकृतप्रतिषु सर्वत्र । ४. प्रवासदिनात् । ५. साहं सू० । ६. सतीव्रतद्रुपल्लवान् ला० । ७ ० वर्जिताम् खं० २, ला०सू० । भयरहिता । ८. निर्दोषैः । ९. पण्डिता । कृतज्ञाऽकृत ता०सं०पु० । १०. अगा० ला० । ११. आयु० ता०सं० । १२. ०भेऽथ खं० २, सू०ला० । ०भे प्रव० खं० १ । १३. प्रगल्भवाक् ता०सं०। । १४. कुण्डात् तस्मात्तदन्यत्र ला० । १५. मेघाः । १६. निर्मल: मु०र० । १७. वारिपूर्णानि मूर्त्तानि पू० ला० सू० । १८. पूर्त्तानि - जलाशयाः, ‘इष्टापूर्त्त’कर्मसु 'पू' कर्म । १९. ० श्रिया खं० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
भैयाख्यात सार्थवाहाय, देवोऽर्हन परमेश्वरः । त्रैलोक्यनाथो भविनां प्रार्थनाकल्पपादपः ॥६२८॥ आराधयन्त्यहममुमिह तिष्ठामि निर्भया । एतत्प्रभावात् प्रभवन्त्यत्र व्याघ्रादयो न मे ॥६२९॥ अर्हत्स्वरूपमाख्याय वैदर्भी धर्ममार्हतम् । वसन्तसार्थवाहायाऽहिंसादिकमचीकथत् ।६३०।। तं च धर्म तयाऽऽख्यातं वसन्तः प्रत्यपद्यत । धर्मकामगवी दिष्ट्या दृष्टाऽसीति मुदाऽवदत् ॥६३१।। हेयोपादेयविर्द्रय तापसा अपि तद्गिरा । तद्धर्मं प्रत्यपद्यन्ताऽनुस्यूतमिव चेतसि ॥६३२॥ निजं तापसधर्मं तेऽनिन्दस्तद्धर्मवासिताः । अवाप्तक्षीरपाणाय कस्मै रोचेत काञ्जिकम् ? ॥६३३॥ वसन्तसार्थवाहोऽपि तत्रैवाऽकारयत् पुरम् । पुरन्दरपुराकारं महेभ्यैर्यन्न मुच्यते ॥६३४।। तापसानां पञ्चशती प्रबुद्धाऽत्रेति कारणात् । तत्पुरं तापसपुरमिति सर्वत्र पप्रथे ॥६३५॥ स्वार्थज्ञः सार्थवाहों हि स स्वमर्थं कृतार्थयन् । चैत्यं श्रीशान्तिनाथस्य पुरे तस्मिन्नकारयत् ॥६३६।।
स सार्थवाहस्ते सर्वे तापसाः स जनोऽखिलः । समयं गमयामासुरर्हद्धर्मपरायणाः ॥६३७।। पअन्यदा तु निशीथेऽद्रिशिखरे नलवल्लभा । ददर्शोद्योतमादित्यः स्फुलिङ्ग इव यत्पुरः ॥६३८॥
उत्पततो निपततस्ततश्च पतगानिव । भैमी व्यलोकयद् देवाऽसुरान् विद्याधरानपि ॥६३९॥ तेषां जयजयारावतुमुलेन प्रबोधिताः । अपश्यन् विस्मयोत्पश्या वणिजस्तापसाश्च ते ॥६४०॥ रोदस्योरन्तर्रा' मानदण्डरूपं महागिरिम् । तमारुरोह वैदर्भी सवणिग्जन-तापसा ॥६४१।। तत्रोत्पन्नकेवलस्य सिंहकेसरिणो मुनेः । केवलमहिमानं ते प्रारब्धं ददृशुः सुरैः ॥६४२॥ द्वादशावर्तपूर्वं ते वन्दित्वा तं महामुनिम् । तत्पादमूले न्यषदन् द्रुममूल इवाऽध्वगाः ॥६४३॥
आगाद् यशोभद्रसूरिस्तदा तस्य मुनेगुरुः । तं च केवलिनं ज्ञात्वा वन्दित्वा न्यषदत् पुरः ॥६४४|| पासिंहकेसर्यपि स्वामी करुणारससागरः । मर्माविधमधर्मस्य विदधे धर्मदेशनाम् ॥६४५।। मानष्यं दर्लभं हन्त प्राणिनां भ्रमतां भवे । तल्लब्ध्वा सफलं कार्यं स्वयमप्त इव द्रमः ॥६४६।। मानुष्यकस्य च फलमाददीध्वं सुमेधसः । मुक्तिप्रदं जीवदयाप्रधानं धर्ममार्हतम् ॥६४७।। श्रोतृ श्रोत्रसुधासारं धर्ममाख्याय पावनम् । स महर्षिः कुलपति प्रोचे तत्संशयच्छिदे ॥६४८।। दवदन्त्या तवाऽऽख्यातो धर्मो यः स तथैव हि । अर्हद्धर्माध्वपथिकी भाषते नेयमन्यथा ॥६४९॥ महासतीयमाजन्माऽऽर्हती वो दृष्टप्रत्यया । ती हि वर्षन् जीमूतो रेखाकुण्डे धृतोऽनया ॥६५०॥ सतीत्वेनाऽऽर्हतीत्वेन चाऽमुष्या देवता अपि । सदा सान्निध्यकारिण्योऽरण्येऽप्यस्यास्ततः शिवम् ॥६५१।। सार्थोऽस्य सार्थवाहस्य चौरेभ्यो रक्षितः पुरा । अस्या हङ्कारमात्रेण प्रभावोऽतः परं हि कः? ॥६५२॥ पातदा च कश्चिदप्यागात् तत्र देवो महद्धिकः । स वन्दित्वा केवलिनमूचे भैमीमभीमवाक् ॥६५३॥ भद्रे ! तपोवनेऽमुष्मिन् शिष्यः कुलपतेरहम् । अभूवं कर्परो नाम तपस्तेजोदुरासदः ॥६५४॥ पञ्चाग्निसाधकमपि ते तपोवनतापसाः । न मामपूजयन्नाऽपि वचसाऽप्यभ्यनन्दयन् ॥६५५।। ततोऽहमभिमानेन तद्विहाय तपोवनम् । द्रुतमन्यत्र गतवानाविष्टः कोधरक्षसा ॥६५६॥ नीरन्ध्रतिमिरायां च यामिन्यां त्वरितं व्रजन् । पतितोऽद्रिकन्दरायामहं वार्यामिव द्विपः ॥६५७॥ सर्वे दन्ता गिरिदन्तास्कँलितास्यस्य मे तदा । जीर्णशुक्तिपुटानीव व्यशीर्यन्त सहस्रधा ॥६५८॥ सप्तरात्रं तथैवाऽस्थां दन्तपातव्यथातुरः । दुःस्वप्नस्येव मे वार्तामपि चकुर्न तापसाः ॥६५९।। ततः स्थानान्मयि गते गृहादिव महोरगे । प्रत्युताऽभूत् सुखं तेषां तापसानां महत्तरम् ॥६६०॥ १.भैम्यप्याख्यत् सार्थवाह ! मु०र० । २. हेयोपादेयविद्रूप० मु० । हेयोपादेयविद्भूता खं० २ । ३. निजतापस० खं० २ । ४.
पानाय ला० । ५. काञ्जिका खं० २, मु० । काञ्चिकम् खं० १ । ६. तत्रैवाऽवासयत् मु० । ७. पुरं तत्र स्वयमपि खं० १२, सू० 'र'स्वीकृतपाठश्च । पुरं तच्च स्वयमपि ला० । ८. ०वाहोऽपि र० । ९. च ला० । १०. अग्निकणः । ११. पक्षिणः । १२. विस्मयेनोवं पश्यन्तः । १३. ०रन्तरात्मानं खं० १-२, ला०सू० विना; र० । १४. केवलि० मु० । केवलिबहुमानं ला० । १५. तथा ला० । १६. सार्थस्य खं० १-२। १७. ततोऽहमति० ता०सं० । १८. वारी-गजबन्धनी । १९. ०दन्तास्फालि० खं० १-२, ला० विना च; र० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तापसानां ततस्तेषामुपर्याविरभून्मम । प्रदीपनकवहन्याभः क्रोधो दुःखानुबन्धकः ॥६६१॥ जाज्वल्यमानः क्रोधेन दुर्मनाः प्राप्य पञ्चताम् । इहैव तापसारण्ये महाविषधरोऽभवम् ॥६६२।। दशनायाऽन्यदाऽहं तेऽधाविषं स्फारयन् फणान् । नमस्कारश्च पठितस्त्वया मद्गतिरोधकः ॥६६३|| नमस्काराक्षरैः सद्यः पतितैः कर्णगोचरम् । धृतः सन्दंशकेनेव नाऽभिगन्तुमशक्नुवम् ॥६६४॥ पुनश्च दर्यामेकस्यां प्राविशं हतशक्तिकः । भेकादीनाहरन् जीवानजीवं तत्र च स्थितः ॥६६५॥ अन्यदा वर्षति घने तापसानां पुरस्त्वया । कथ्यमानमिमं धर्ममश्रौषं परमार्हति ! ॥६६६।। यो जीवहिंसां कुरुते स संसारे निरन्तरम् । भ्रमन् दुःखान्यवाप्नोति मरुभूमाविवाऽध्वंगः ॥६६७|| तच्छ्रुत्वाऽचिन्तयं चाऽहं जीवहिंसापरः सदा । पापात्मा पन्नगोऽस्म्येष का गतिर्मे भविष्यति ? ॥६६८।। मयैवमूहापोहाभ्यां ज्ञातं यत् तापसा इमे । क्व नामैते मया दृष्टा इति भूयोऽप्यचिन्तयम् ॥६६९।। तदा च जातिस्मरणमुत्पेदे मम निर्मलम् । अस्मार्ष ह्यः कृतं कार्यमिव पूर्वभवं ततः ॥६७०॥ उत्कल्लोलशिरानीरमिव वैराग्यमक्षयम् । ममोदपद्यताऽकार्षमथाऽनशनमात्मना ॥६७१॥ ततो विपद्य सौधर्मे कल्पेऽभूवमहं सुरः । तपःक्लेशसहानां हि न मोक्षोऽपि दवीयसि ॥६७२॥ सोऽहं विमाने कुसुमसमृद्धे कुसुमप्रभः । नाम्ना देवोऽस्मि भुञ्जानः स्वःसुखं त्वत्प्रसादतः ॥६७३।। यदि ते धर्मवचनं न स्यान्मे कर्णगोचरम् । तदा कैषा गतिमें स्यात् पापपङ्कमहाकिरें:? ॥६७४|| विज्ञाय चाऽवधिज्ञानाद् भद्रे ! त्वामुपकारिणीम् । द्रष्टुमत्राऽऽगमं धर्मपुत्रस्तेऽहमतः परम् ॥६७५।। वैदा ज्ञापयित्वा स्वं से गीर्वाणोऽथ तापसान् । उवाच श्लक्ष्णया वाचा बन्धून् ग्रामागतानिव ॥६७६।। भोस्तापसाः ! पूर्वभवे तत्कोपाचरणं मम । क्षमध्वं पालयत च प्रपन्नं श्रावकव्रतम् ॥६७७|| इत्युक्त्वा तमहे: कायमाकृष्य गिरिकन्दरात् । उल्लम्ब्य नन्दिवृक्षे च प्रोवाच कुसुमप्रभः ॥६७८॥ यः कोऽपि कोपं कुरुते लोका:! कोपफलेन हि । स ईदृशो भवेत् सर्पः कर्परोऽहं यथा पुरा ॥६७९।। अग्रेऽपि सम्यक्त्वधरस्तदा कुलपतिः स तु । भाग्योदयेन वैराग्यं परमं प्रत्यपद्यत ॥६८०॥ अथ केवलिनं नत्वा तापसानामधीश्वरः । व्रतं ययाचे वैराग्यशाखिनः फलमुत्तमम् ॥६८१॥ केवल्यूचे यशोभद्रसूरिरेष तव व्रतम् । दास्यत्यसावेव गुरुर्ममाऽप्यममताधनः ॥६८२।। पुनर्विस्मयमापन्नोऽपृच्छत् कुलपतिर्मुनिम् । गृहीतवानसि कथं प्रव्रज्यां ? भगवन् ! वद ॥६८३॥ पकेवल्याख्यत् कोशलायां नगर्यां नलभूपतेः । अनुजः कुरुते राज्यं कूबरो वरवैभवः ॥६८४||
सूनुस्तस्याऽस्म्यहं सड़ानगरीशो ममाऽऽदित । नृपतिः केशरी बन्धुमती नाम निजात्मजाम् ॥६८५॥ पित्राऽऽदिष्टस्तत्र गत्वा पर्यणैषं च तामहम् । नवोढां च समादायाऽचालिषं स्वपुरं प्रति ॥६८६॥ मार्गे चाऽऽगच्छताऽनेकशिष्यो गुरुरयं मया । अदर्शि समवसृतः कल्याणमिव मूर्तिमत् ॥६८७॥ तत्र भक्त्या परमया वन्दितोऽयं मुनिर्मया । कर्णामृतप्रपाधर्मदेशना चाऽस्य शुश्रुवे ॥६८८।। देशनान्ते मया पृष्टः कियदायुर्ममेत्यसौ । दत्तोपयोगश्चाऽवोचत् पञ्चैव दिवसा इति ॥६८९॥ आसन्नं मरणं ज्ञात्वा ततोऽभैषमकम्पिषि । महाभयं प्राणभयं सर्वेषामपि देहिनाम् ॥६९०॥ सूरिमौ स्माऽऽह मा भैषीर्वत्साऽऽदत्स्वाऽनगारताम् । अप्येकाहपरिव्रज्याऽवश्यं स्वर्गापवर्गदा ॥६९१।। ततः प्रव्रजितोऽमुष्मादस्याऽऽदेशादिहाऽऽगमम् । शुक्लध्याने स्थितो घातिक्षयात् केवलमासदम् ॥६९२।। इत्युक्त्वा रचयन् योगनिरोधं सिंहकेसरी । भवोपग्राहिकर्माणि हत्चाऽगात् परमं पदम् ॥६९३॥ पुण्यक्षेत्रे सुरैर्नीत्वा तस्य केवलिनो वपुः । तत्कालमग्निसंस्कारपात्रीचके शुभाशयैः ॥६९४॥ १. दरे । २. परमार्हतः ता०सं० । ३. ०वाध्वगा: खं० २, सू० विना । ४. उत्कल्लोलसिरा० मु० । ५. 'सूकरस्य' खं० २, ला०टि० । ६. गीर्वाणः सर्वतापसान् ला०।७. कोमलया। ८. प्रपन्नश्रावक० खं०२।९. कर्परोऽयं १०।१०. ला०प्रतौ ६८० श्लोकस्य स्थानेऽयं श्लोकोऽस्ति- "महासत्याः प्रसादेनाऽस्माभिर्धर्मो जिनोदितः । अग्रेऽपि सम्यक्त्वयुतः परमः प्रत्यपद्यत ॥" ११. ज्ञात्वा ला०पु० । १२. दत्तवान् । १३. केसरी खं० १, ला०सू० । १४. विश्रुता खं० २, ला० ता०सं०की०छा० ला०२ । १५. सूरिर्मा खं० २, सू० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पायथार्थनामा विमलमति: कुलपतिस्तु सः । प्रव्रज्यां श्रीयशोभद्रसूरिपादान्तिकेऽग्रहीत् ॥६९५॥ दवदन्त्यपि दान्तात्मा तं महर्षिमभाषत । ममाऽपि भगवन् ! देहि प्रव्रज्यां मुक्तिमातरम् ॥६९६।। यशोभद्रोऽवदत रिरद्यापि दवदन्ति ! ते । नलेन सह भोक्तव्या भोगा नाऽर्हसि तद् व्रतम् ॥६९७॥ पाविभातायां विभावाँ मुनिरुत्तीर्य पर्वतात् । पादैः पवित्रयामास तत् तापसपुरं पुरम् ॥६९८॥
तत्र चैत्यं प्रतिष्ठाय सोऽर्हद्धर्मोपदेशकः । सम्यक्त्वारोपणं चके पौराणां करुणानिधि ॥६९९।। पमलीमसाङ्गवसना धर्मध्यानपरायणा । सप्ताब्दी तत्र भैम्यस्थाद् भिक्षुणीव गुहागृहे ॥७००।पान्थ एकोऽन्यदा तस्याः कथयामास यन्मया । दृष्टोऽमुकप्रदेशेऽद्य दवदन्ति ! पतिस्तव ॥७०१।। दवदन्त्यपि तत्कालं पीततद्वचनामृता । रोमाञ्चोच्छसदङ्गाऽभूदिदं प्रेम्णो हि लक्षणम् ॥७०२॥ कोऽयमाप्याययति मामिति भीमसुता सती । अधावताऽनु तच्छब्दं शब्दवेधीव मार्गणः ॥७०३॥ भीमजाया गुहामध्याकर्षणप्रतिभूरिव । तां गुहाया स आकृष्य क्वचनाऽपि तिरोदधे ॥७०४॥ सा ददर्श न तं पान्थमत्यजत् तां गुहामपि । इत्यभूदुभयभ्रष्टा दैवं दुर्बलघाति हि ॥७०५॥ पतिता सा महारण्ये ययौ तस्थावुपाविशत् । व्यलुठद् व्यलपद् भूयो भूयोऽश्रान्तं रुरोद च ॥७०६।। किं करोमि ? क्व यामीति विमृशन्ती विमर्शवित् । तामेव गन्तुमारेभे कन्दरामादरेण सा ॥७०७।। सा राक्षस्यैकया दृष्टा छागी वृक्येव वर्त्मनि । प्रसारितास्यगुहया खादिष्यामीति चौच्यत ॥७०८।। भैम्यूचे यदि मे भर्ता नलो मनसि नाऽपरः । तत्सतीत्वप्रभावेण हताशा भव राक्षसि ! ॥७०९॥ सर्वज्ञो भगवानष्टादशदोषविवर्जितः । यद्यर्हन्नेव देवो मे हताशा भव राक्षसि ! ॥७१०॥ अष्टादशब्रह्मरता विरताः करुणापराः । साधवो गुरुवश्चेन्मे हताशा भव राक्षसि ! ॥७११।। आजन्माऽपि मम स्वान्ते विलग्नो वज्रलेपवत् । अस्ति यद्यार्हतो धर्मो हताशा भव राक्षसि ! ॥७१२॥* तच्छ्रुत्वा राक्षसँवधूरमुचत् तच्चिोदिषाम् । महर्षय इवाऽमोघवचना हि पतिव्रताः ॥७१३।। न सामान्येयमन्यूनप्रभावेति प्रणम्य ताम् । क्षणादपि तिरोधत्त स्वप्नायातेव राक्षसी ॥७१४॥ पायान्ती चाऽग्रे जलाकारतरङ्गीभूतवालुकाम् । ददर्शाऽद्रिनदीमेकां निर्जलां नलवल्लभा ॥७१५।।
शून्योपवनकुल्यायामिव तस्यामनम्भसि । उदैन्यन्ती दवदन्ती शुष्यत्तालु-रदोऽवदत् ।।७१६।। यदि मे मानसं सम्यग्दर्शनेनाऽधिवासितम् । तदत्रोद्वीचि 'वार्यस्तु गङ्गायामिव निर्मलम् ॥७१७।। इत्युक्त्वा 'पाणिघातेन भूतलं प्रजहार सा । सद्यो नद्यम्बुयुक्ताऽभूदिन्द्रजालनदीव सा ॥७१८॥ क्षीरोदधिर्शिरोद्भतमिव स्वाद यथारुचि । करेणकेव तद भैमी पपौ क्षीरोज्ज्वलं जलम् ॥७१९॥ ततोऽपि यान्ती वैदर्भी परिश्रममुपेयुषी । उपाविशद् वटस्याऽधो वटवासिवधरिव ॥७२०॥ तां तथास्थामथाऽद्राक्षुः पान्थाः सार्थादुपागताः । ऊचुश्च काऽसि भद्रे ! त्वं देवीव प्रतिभासि नः ॥७२१।। सोचे माऽस्म्यहं सार्थभ्रष्टाऽरण्ये वसामि च । यियासुस्तापसपुरं नियुङ्गध्वं मां तदध्वनि ॥७२२।। तेऽवोचन् याति यत्राऽस्तं रविस्तां दिशमाश्रयः । तवाऽध्वानं दर्शयितुं नेश्महे वयमुत्सुकाः ॥७२३॥ वारि६ चाऽऽदाय यास्यामः सार्थे स्वस्मिन्नितोऽस्ति सः । तत्रैषि चेन्नयामस्त्वां वसति क्वाऽपि पत्तने ॥७२४॥
तं सार्थं तैः सहाऽऽगाच्च तत्र तां करुणापरः । धनदेवः सार्थवाहोऽपृच्छत् का त्वं ? किमत्र च? ॥७२५।। भैयूँचेऽहं वणिक्पुत्री समं भर्ना पितुर्गृहे । चलिता निशि सुप्ताऽपि तेन त्यक्ताऽस्मि वर्त्मनि ॥७२६।। त्वदीयैः पुरुषैरत्राऽऽनीताऽहं सोदरैरिव । तन्मां नय महाभाग ! स्थाने वसति कुत्रचित् ॥७२७।। १. ०पतिः स तु खं० २ । २. दन्तात्मानं म० खं० १-२, ला०सू० । ३. नमस्कृत्य मु० । ४. वर्धापयति । ५. बाणः । ६. अलुटद् ला०। ७. भूयः श्रान्तं मु० र० । ८. ०वधूरमुञ्चत् खं० १-२, ला० सू० विना । ९. खादितुमिच्छाम् । १०. महर्द्धय० मु० । ११. उदकमिच्छन्ती। १२. नद्यां मे स्तात् कान्तिनिर्मलं जलम् खं० १ । १३. पाणिभागेन ता.सं. । १४. ०सिरोद्भूत० खं० १, मु० र० । १५. यक्षवधूरिव। १६. नीरमादाय पा० । १७. तत् खं० १, सू० । १८. भैम्यूचेऽस्मि मु० । ★ ७१२ इत्ययं श्लोक: खं० २ प्रतौ न ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
६१
पसार्थेशोऽवददचलपुरे यास्याम्यहं पुरे । त्वमप्यागच्छ हे वत्से ! त्वां हि नेष्यामि पुष्पवत् ॥७२८॥ इत्युक्त्वा सार्थवाहस्तां स्नेहलः स्वां सुतामिव । अधिरोप्योत्तमे याने गन्तुं प्रास्थित सत्वरः ॥७२९॥ अथैकस्मिन्नद्रिकुले वारिझात्कारनिझरे । सार्थमावासयामास सार्थनाथशिरोमणिः ॥७३०॥ वैदर्भी सुस्थिता तत्र सुखसुप्ताऽशृणोन्निशि । नमस्कारं पठ्यमानं केनचित् सार्थवर्तिना ॥७३१॥ उवाच सार्थवाहं सा नमस्कारं पठन्नसौ । साधर्मिको मे तदमुं दिदृक्षेऽहं त्वदाज्ञया ॥७३२॥ तस्याः पूरयितुं वाञ्छां सार्थवाहः पितेव सः । तामादाय नमस्कार श्रावकस्याऽऽश्रयं ययौ ॥७३३।। तं श्रावकं बन्धुमिव कुर्वाणं चैय॑वन्दनाम् । ददर्शाऽथ पटौकःस्थं भैमी शममिवाऽङ्गिनम् ॥७३४॥ आचैत्यवन्दनं भैमी तत्राऽस्थाच्च निषेदुषी । तं महाश्रावकमनुमोदमानाऽश्रुपूर्णदृक् ॥७३५।। ददर्श वन्द्यमानं च पटालिखितमाहतम् । जीमूतश्यामलं बिम्बं ववन्दे च नलप्रिया ॥७३६।।
चैत्यवन्दनपर्यन्ते कृतस्वागतमङ्गलम् । भैमी पप्रच्छ तं भ्रातः ! कस्येदं बिम्बमर्हतः ? ॥७३७।। पाश्रावकः कथयामास धर्मशीले ! स्वसः ! शृणु । मल्लेरेकोनविंशस्याऽर्हतो बिम्बं भविष्यतः ॥७३८।। भविष्यतोऽर्हतो बिम्बं कारणात् पूजयाम्यहम् । तच्चाऽद्य शृणु कल्याणि ! मम कल्याणकारणम् ॥७३९॥ अब्धिकाञ्चीशिरोरत्ने काञ्चीपुर्यामहं वणिक् । तत्राऽन्यदा धर्मगुप्तो ज्ञानवान् मुनिराययौ ॥७४०॥ स मुनिः समवासार्षीदुद्याने रतिवल्लभे । तं वन्दित्वा पर्यपृच्छं क्व तीर्थे निर्वृतिर्मम ? ॥७४१॥ स आख्यन मल्लिनाथस्याऽर्हतस्तीर्थे दिवश्च्यतः । प्रसन्नचन्द्रो राजा त्वं मिथिलायां भविष्यसि ||७४२।। मल्लेरेकोनविंशस्याऽर्हतः सम्प्राप्य दर्शनम् । उत्पन्नकेवलज्ञानो निर्वाणं त्वमवाप्स्यसि ॥७४३।। तदादि मल्लिनाथेऽहमुत्पन्नात्यन्तभक्तिकः । पटे तबिम्बमालेख्य धर्मज्ञे ! पूजयायदः ॥७४४।। आख्यायेति स्ववृत्तान्तं पप्रच्छ श्रावकोऽप्यदः । धर्मबन्धोर्ममाऽऽख्याहि काऽसि त्वं पुण्यदर्शने !? ॥७४५।। तस्मै श्रावकवर्याय धनदेवाय तादृशम् । सर्वं पतिवियोगादि वृत्तमाख्यदुदर्सदृक् ॥७४६।। श्रावकोऽपि करन्यस्तहनुर्बाष्पायितेक्षणः । असंमात्रेव वैदर्थ्यां दुःखेनाऽधिष्ठितोऽवदत् ॥७४७॥ मा शोचीरीदृशं कर्मोदितं ते दुःखकारणम् । पिता ते सार्थवाहोऽयं भ्राताऽहं सुखमास्स्व तत् ॥७४८।। पाप्रभाते सार्थवाहोऽपि प्राप्याऽचलपुरं पुरम् । मुमोच तत्र वैदर्भीमन्यतोऽगात् स्वयं पुनः ॥७४९।। तृषिता नगरद्वारवाप्यामाशु विवेश सा । लक्षिता जलह/भिर्मूर्तेव जलदेवता ॥७५०।। वामोऽहिर्गोधया तस्या जनसे जलसीमनि । आयाति दुःखिनां दुःखे दुःखं तत्सौहृदादिव ॥७५१॥ साऽपाठीविनमस्कारं तत्प्रभावेण गोधया । मुक्तोंऽहिरिन्द्रजालिक्या गलान्तकृतवस्त्विव ॥७५२॥ मुखां-ऽहि-हस्तं प्रक्षाल्य पीत्वा तद्वारि हारि च । मन्दं मन्दं मरालीव सा वाप्या निर्ययौ बहिः ॥७५३।। सा विषण्णा निषण्णा च शीलरत्नकरण्डिका । वरण्डिका तटे वाप्याः पावयन्ती दृशा पुरम् ॥७५४।। ऋतुपर्णनृपस्तत्राऽभूत् सुपर्ण इवौजसा । चन्द्रोज्ज्वलयशाश्चन्द्रयशास्तस्य च गेहिनी ॥७५५॥ तत्र चन्द्रयशोदास्यो वार्यानेतुं समाययुः । मस्तकन्यस्तकलशा मिथो नर्मपरायणाः ॥७५६॥ दास्यस्ता दुर्दशां प्राप्तामपि ताममरीमिव । ददृशः पङ्कमग्नाऽपि पद्मिन्येव हि पद्मिनी ॥७५७|| भैम्या रूपं प्रपश्यन्त्यस्ताश्च वाप्यां सविस्मयाः । मन्दं मन्दं प्रविविशुर्मन्दं मन्दं च निर्ययुः ॥७५८॥ गत्वा च कथयामासुस्तां तथारूपशालिनीम् । स्वामिन्यै चन्द्रयशसे सम्प्राप्तमिव शेवर्धिम् ॥७५९।। ताश्च चन्द्रयशाः प्रोचे समानयत तामिह । मत्पुत्र्याश्चन्द्रवत्याः सा भगिनीव भविष्यति ॥७६०॥
वापीपरिसरे तस्मिन्नेव ता द्रुतमाययुः । नगराभिमुखां लक्ष्मीमिवाऽथ ददृशुश्च ताम् ॥७६१॥ १. ०वन्दनम् ता०सं०ला० । २. धर्ममिवा० ला० । ३. अस्ति का० खं० २ । ४. निर्वाणम् । ५. भविष्यति खं० २ विना, र० । ६. ०याम्यहम् मु० र० । ७. धनदेवस्तयोदितम् ला० विना । ८. ०दुदश्रुदक् खं० २, ता०सं०ला० आ०ला०२, छा० विना । ९. असंमातेव खं० १, ला०सू० । असंमात्रेण र० । १०. ०रैन्द्रजालिक्या खं० १-२ । ११. तटे वाप्याः पावयन्ती दृशाऽचलपुरं पुरम् खं० २ । वरण्डिका-भीता-इति मु० प्रतौ टि. । १२. गरुडः । १३. सेवधिम् खं० २ । निधिः ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
ऊचुश्च नगरेऽमुष्मिन्नृतुपर्णस्य भूपतेः । राज्ञी चन्द्रयशोनाम्नी त्वामाह्वयति गौरवात् ॥७६२ ॥ आज्ञापयति च त्वं हि पुत्री चन्द्रवतीव मे । तदेहि भद्रे ! दुःखेभ्यः प्रकल्पय जलाञ्जलिम् ॥७६३॥ तिष्ठन्ती शून्यचित्तेह छलमाप्य दुरात्मभिः । व्यन्तरादिभिराविष्टा त्वमनर्थमवाप्स्यसि ॥७६४|| एवं च चन्द्रयशसो वचनेनाऽर्द्रमानसा । दवदन्त्यपि पुत्रीत्वस्त्रे हक्रीती ततोऽचलत् ॥७६५॥ स्वामिन्या धर्मपुत्री त्वमपि स्वामिन्यसीति सा । ताभिविनयवक्त्रीभिरनीयत नृपौकसि ॥७६६ ॥ चन्द्रयशाः पुष्पदन्त्या भैमीमातुः सहोदरा । मम मातृष्वसैवेति विवेद न तु भीमजा || ७६७ ॥ जामेयी दवदन्ती मेऽस्तीति चन्द्रयशाः पुनः । विवेद बाल्यदृष्टां तु तामुपालक्षयन्त्र हि ॥ ७६८|| पुत्रीप्रेम्णा तु तां दूरादपि राज्ञी ददर्श सा । प्रमाणमन्तःकरणं खल्विष्टाऽनिष्टनिर्णये ॥७६९ ॥ सस्वजे चन्द्रयशसाऽतिगाढं च नलप्रिया । तदङ्गसादं श्रमजमपनेतुमिवाऽऽदरात् ॥७७०॥ वर्षन्त्यश्रूणि वैदर्भी राज्ञ्याः पादाववन्दत । तत्प्रीत्यैवक्रयं पादक्षालनेनेव तन्वती ॥७७१॥ पृष्टा च चन्द्रयशसा काऽसि त्वमिति भीमजा । कथयामास तत्सर्वं सार्थवाहाय यत्पुरा ॥ ७७२॥ वैदर्भीमभ्यधाच्चन्द्रयशाः कल्याणि ! मगृहे । यद्वच्चन्द्रवती तद्वत् त्वमप्येधस्व शर्मभिः ॥ ७७३|| ||देव्यन्यदा चन्द्रयशाः प्रोचे चन्द्रवतीं सुताम् । मज्जामेय्या दवदन्त्या सदृशीयं तव स्वसा ॥ ७७४|| तस्याः सम्भाव्यते नैवंविधमागमनं क्वचित् । अस्माकमपि यः स्वामी नलः पत्नी हि तस्य सा ॥७७५ ॥ सचतुश्चत्वारिंशति योजनानां शते च सा । कथमागमनं तस्या दुर्दशा चेदृशी कुत: ? ||७७६ ॥
सा च चन्द्रयशा देवी प्रत्यहं नगराद् बहिः । दीनाऽनाथादिपात्रेभ्यो ददौ दानं यथारुचि ॥७७७।। | तामन्यदचे वैदर्भी दानमत्र ददाम्यहम् । आगच्छेन्मे यदि पुनः पतिर्याचकवेषभाक् ॥ ७७८।। आयुक्ता चन्द्रयशसा दवदन्ती तदाद्यपि । पत्याशया क्लेशसहा ददौ दानं यथास्थिति ॥७७९॥ दानार्थिनश्च प्रत्येकं भैम्यपृच्छद् दिने दिने । ईदृग्रूपः पुमान् कोऽपि किं युष्माभिरदृश्यत ? || ७८०|| दानशालास्थिताऽन्येद्युश्चौरमेकं ददर्श सा । बद्ध्वाऽऽरक्षैर्नीयमानं वाद्यमानो ग्रडिण्डिमम् ॥७८१॥ अपृच्छद् भीमतनयाऽप्यारक्षानमुना हि किम् । अपराद्धं वधप्राप्तिप्रक्रियाऽस्य यदीदृशी ||७८२ ॥ एष चन्द्रवतीदेव्या जहे रत्नकरण्डिकाम् । वध्योऽसौ कर्मणाऽनेनेत्याख्यन्नारक्षपूरुषाः ॥७८३॥ चौरोऽपि नत्वा वैदर्भीमूचे दृष्टोऽस्मि ते दृशा । कथं प्राप्स्यामि मरणं ? शरणं भव देवि ! मे ॥७८४|| आरक्षानागमय्योचे तं चौरं दवदन्त्यपि । मा भैषीर्जीवितव्येन कुशलं ते न संशयः ॥ ७८५ ।। इत्युक्त्वा भीमतनया सतीत्व श्रावणां व्यधात् । सत्यस्मि चेद् विशीर्यन्तां बन्धनान्यभितोऽस्य तु ॥ ७८६|| सतीत्व श्रावणामेवं कृत्वा भृङ्गारवारिणा । त्रिस्तमाच्छोटयच्चौरं द्राक् तद्बन्धाश्च त्रुटुः ॥७८७|| अथत्थिते कलकले किमेतदिति चिन्तयन् । ऋतुपर्णनृपस्तत्राऽऽजगाम सपरिच्छदः ॥ ७८८|| सविस्मयस्मेरनेत्रो नेत्रकैरवकौमुदीम् । दवदन्तीं दन्तकान्तिधौताधरदलोऽवदत् ॥७८९ ॥ सर्वत्र राजधर्मोऽयं "मात्स्यन्यायनिषेधकः । यद् दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनं च यशस्विनि ! ॥७९०॥ राजा गृह्णन् करं पृथ्व्या रक्षेच्चौराद्युपद्रवम् । चौरादीनां हि पापेन लिप्येत स्वयमन्यथा ॥ ७९१ ॥ तत् पुत्रि ! न निगृह्णामि यद्यमुं रत्नतस्करम् । तत्परस्वापहाराय प्रयतेताऽभयो जनः ॥ ७९२॥ भैम्यूचे मयि पश्यन्त्यां यदि मार्येत देहभृत् । श्राविकायाः कृपालुत्वं तदा मे तात ! कीदृशम् ॥७९३॥ क्षम्यतामपराधोऽस्य शरणाश्रित एष मे । दुष्टरोग इवास्याऽऽत्ति: सङ्क्रान्ता तात ! मय्यपि ॥ ७९४ || ऋतुपर्णनरेन्द्रोऽथ तं मुमोच मलिम्लुचम् । महासत्या धर्मपुत्र्यास्तस्या अत्युपरोधतः ॥७९५ ॥
मुक्तमात्रः स चौरोऽपि त्वं मे मातेति भीमजाम् । प्रतिपेदे तिलकयन् भालं भूतलरेणुना ||७९६ || १. स्नेहक्रीता मु० २० । २. ० निष्टदर्शने सू० । ३ तस्या अङ्गखेदम् । ४. तत्प्रीतिमूल्यम् । ५. तामन्यदा च मु० २० । ६. प्रयुक्ता ला० । ७. ०मानाग्र० मु० र० । ८. ०श्रावणं खं० २, ला० । ९. सविस्मयो स्मेरनेत्रो मु० २० । १०. मत्स्यगलागलन्यायः । ११. एतस्या उप० मु० । ०स्तस्या अप्युप० र० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । प्राणदानोपारं तं दिवानिशमविस्मरन् । मुक्तः स तस्करो भैमी नमश्चक्रे दिने दिने ॥७९७॥ पातमन्यदा चौरवरं पप्रच्छ नलवल्लभा । कोऽसि त्वं ? कुत आयासीरपशङ्क निवेदय ॥७९८॥
स आख्यत् तापसपुरे पुरे परमसम्पदः । वसन्तसार्थवाहस्य दासोऽहं पिङ्गलाह्वयः ॥७९९॥ व्यसनैरभिभूतेन वसन्तस्यैव वेश्मनि । खनित्वा खात्रमग्राहि कोशसारं मया निशि ॥८००। नष्टोऽहं लोजपाणिश्च प्राणत्राणपरायणः । लुण्टाकैर्लुण्टितो मार्गे कियत् क्षेमं दुरात्मनाम् ? ॥८०१।। अत्राऽऽगत्याथ राजानमृतुपर्णमसेविषि । 'सेवां मनस्वी कः कुर्यात् कुर्याद् वा तर्हि भूपतेः ? ॥८०२॥ ततः सञ्चरता राजहh चाऽधर्मबुद्धिना । मया चन्द्रवतीदेव्या दृष्टा रत्नकरण्डिका ।।८०३।। तदर्शनान्मनोऽचालीन्मम तद्धरणेच्छया । परस्त्रीदर्शनात् पारदारिकस्येव दुर्धियः.॥८०४।। चिल्ली हारमिवाऽहार्षमथ रत्नकरण्डिकाम् । विधायाऽप्रदीनं चोत्तरीयं निरगां ततः ॥८०५।। ऋतुपर्णनरेन्द्रेण कैश्चिच्चौरेङ्गितैरहम् । लक्षितोऽस्म्यतिदक्षेण नाऽलक्ष्यं दक्षताजुषाम् ॥८०६।। आरक्षैः पार्थिवार्दिष्टैर्बद्धोऽहं तत्क्षणादपि । वधार्थं नीयमानश्च त्वामद्राक्षं महासति ! |८०७।। दूरादपि त्वां शरणं प्रपन्नस्तारमारटन् । मोचितोऽस्मि त्वया छाग इव वध्यत्वमागतः ॥८०८॥ पाअन्यच्च तापसपुराद् गतायां स्वामिनि ! त्वयि । विन्ध्याकृष्टो द्विप इव वसन्तो भोजनं जहौ ॥८०९।। बोधितश्च यशोभद्रसूरिणाऽन्यजनेन च । उपोषितः सप्तरात्रं बुभुजे सोऽष्टमेऽहनि ॥८१०।। स वसन्तोऽन्यदाऽऽदाय महामूल्यमुपायनम् । जगाम कूबरनृपं द्रष्टं श्रीदसमं श्रिया ॥८११।। उपायनेन तुष्टश्च तस्मै कूबरपार्थिवः । प्रददौ तापसपुरराज्यं छत्रादिलाञ्छितम् ।।८१२।। तं सामन्तपदे कृत्वा तस्याऽदादभिधान्तरम् । वसन्तश्रीशेखर इत्यवनीशो नलानुजः ॥८१३।। कबरेण विसृष्टश्च भम्भया वाद्यमानया । आगतस्तापसपुरे वसन्तो राज्यमन्वशात् ॥८१४॥ पाभैम्यूचे वत्स ! दुष्कर्म कृतं प्रव्रज्य निस्तर । प्रमाणं मातुरादेश इति चोवाच पिङ्गलः ॥८१५।। तत्र चाऽऽगादनगारद्वितयं पर्यटत् तदा । प्रत्यलाभि च वैदा दोषवर्जितभिक्षया ॥८१६॥ बभाषे तावषी भैमी भगवन्तावयं पुमान् । यदि योग्यस्तदेतस्य व्रतदानात् प्रसीदतम् ॥८१७।। ताभ्यां योग्योऽयमित्युक्ते पिङ्गलोऽयाचत व्रतम् । ततो देवगृहे नीत्वा सद्यः प्रवाजितश्च सः ॥८१८|| पार्विदर्भेशोऽन्यदाऽ श्रौषीन्नलो यदनुजन्मना । द्यूते हारितराज्य श्रीः कूबरेण प्रवासितः ॥८१९। दवदन्ती गृहीत्वा च स विवेश महाटवीम् । न ज्ञायते गतः क्वाऽपि किं जीवति मृतोऽथवा ? ॥८२०॥ पुष्पदन्त्यपि तद्राज्ञो मुखाच्छ्रुत्वाऽरुदद्र्शम् । नारीणामातुरत्वे हि न दूरे नयनोदकम् ॥८२१।। ततश्च हरिमित्राख्यस्तदन्वेषणहेतवे । स्वाम्यादेशपटू राजबटू राज्ञा न्ययोज्यत ॥८२२॥ नलं च दवदन्ती च बटुः सर्वत्र शोधयन् । स ययावचलपुरेऽविक्षच्च नृपपर्षदि ॥८२३।। पप्रच्छ तं चन्द्रयशा निषण्णं नृपतेः पुरः । कच्चित् क्षेमं पुष्पदन्त्यास्तदीयस्य जनस्य च ॥८२४।। स आख्यत् कुशलं देव्याः पुष्पदन्त्याः सदोदितम् । नलस्य दवदन्त्याश्च कुशलं चिन्त्यमीश्वरि ! ||८२५।। उक्तश्च किं ब्रवीषीति देव्याः सोऽकथयद् बटुः । नल-भैम्योः कथां द्यूतादारभ्याऽत्यन्तदुःश्रवाम् ।।८२६।। ततश्च चन्द्रयशसि रुदन्त्यां प्ररुरोद च । हर्षवार्तास्वनध्यायी राजलोकस्तदाऽखिलः ॥८२७।। सर्वं दुःखातुरं प्रेक्ष्य क्षामकुक्षिर्बुभुक्षया । बटुर्ययौ दानशाला भोज्यचिन्तामणिहि सा ॥८२८।। तत्राऽऽसीनो भोजनार्थं दानशालाधिकारिणीम् । दवदन्ती स्वामिपुत्रीमुपलक्षयति स्म सः ॥८२९॥ स ववन्दे दवदन्त्याः पादौ रोमाञ्चमुद्वहन् । विस्मृतक्षुद्व्यथो हर्षादुत्फुल्लाक्षो जगाद च ॥८३०॥ देवि ! केयमवस्था ते निदाघ इव वीरुधः ? । दिष्टया दृष्टाऽसि जीवन्ती सर्वेभ्यः स्वस्ति सम्प्रति ॥८३१।। इत्युत्थाय द्रुतं चन्द्रयशोदेवीमवर्धयत् । तवाऽस्ति दानशालायां दवदन्तीति स "ब्रुवन् ।।८३२॥ १. ०पकारां मु० । २. सेवामतिश्वी खं० १-२ । ३. चाधर्म० मु० र० । ४. शकुनि:-'चील' । ५. पादानपर्यन्तम् । ६. सोऽष्टमे दिने मु०र०।७. श्रीदसमः ता०सं०की०ला छा० । ८. प्रसीदताम्र० १९. प्रावाजित० मु०र० । १०. वैदर्भे० खं० १, सू० । ११. संलपन् मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तच्छ्रुत्वा दानशालायां गत्वा चन्द्रयशा द्रुतम् । दवदन्तीमालिलिङ्ग मरालीव मृणालिनीम् ॥८३३।। ऊचे च वत्से ! धिग् धिग् मां यया नाऽस्युपलक्षिता । सामुद्रिकैरद्वितीयैर्लक्षणैर्व्यञ्जिताऽपि हि ॥८३४॥ किमात्मगोपनं कृत्वा वञ्चिताऽस्मि त्वयाऽनघे !? । यद्येति दुर्दशा दैवात् का हीर्मातृकुले निजे? ॥८३५।। हा वत्से ! किं त्वया मुक्तो नलो? मुक्ताऽसि तेन वा ? । नूनं मुक्ताऽसि तेन त्वं त्वं सती तं न मुञ्चसि ॥८३६।। त्वयाऽपि यदि हीयेत दुर्दशापतितः पतिः । उदयेत तदा नूनं पश्चिमायां दिवाकरः ॥८३७।। नलोऽत्याक्षीः कथमिमां? मत्पार्वे नाऽमुचः कथम् ? । किं ते कुलोचितमिदं दयितां त्यजतः सतीम् ? ॥८३८।। दुःखं गृह्णामि ते वत्से ! क्रियासमवतारणम् । आगः सहस्व मे यत् त्वं न मयाऽस्युपलक्षिता ॥८३९॥ तमोऽहिगरुडः कृष्णनिशायामपि भौसुरः । क्व वा स तिलको बाले ! तवाऽलिकसहोद्भवः ? ॥८४०॥ इति स्ववदनाम्भोजनिष्ठीवनरसेन सा । भैम्या अमार्जयद् भालं जिघ्रन्ती मूनि तां मुहः ॥८४१॥ रैपिण्डोऽग्न्युत्तीर्ण इव मेघमुक्त इवाऽर्यमा । तत्कालं भालतिलको वैदा दिद्युतेतराम् ॥८४२॥ ततश्चाऽस्नपयच्चन्द्रयशा देवी नलप्रियाम् । गन्धोदकैः स्वपाणिभ्यां देवताप्रतिमामिव ॥८४३।। वाससी धवले सूक्ष्मे ज्योत्स्नारसमये इव । भैमी चन्द्रयशोदेव्याऽपिते परिदधे ततः ॥८४४॥ देवी चन्द्रयशाः प्रीता पाणिनाऽऽदाय भीमजाम् । प्रमोदवारिसरसी निषसाद नपान्तिके ॥८४५॥ पातदा चाऽस्तं ययौ सूर्योऽपूर्यताऽशेषमम्बरम् । सूचिभेद्येन तमसा कज्जलेनेव भाजनम् ।।८४६।। विवेश नाऽन्धतमसं तदा सदसि भूपतेः । भैमीतिलकतेजोभिः स्खलितं काष्ठिकैरिव ॥८४७॥ उवाच देवी नृपतिर्नन्वियायाऽस्तमर्यमा । नेह दीपो न वा वह्निरहीवोद्योत एष किम् ? ॥८४८॥ जन्मतः सहसंसिद्ध वैदास्तिलकं च तम् । राज्ञी प्रादर्शयद् राज्ञे ज्योतिर्जलमहाहूदम् ॥८४९।। प्यधात्तत् तिलकं राजा कौतुकेन स्वपाणिना । अभूद् गिरिगुहाप्रायं तमसा मङ्घ तत्सदः ॥८५०॥ अपसार्य पुनः पाणि पप्रच्छाऽतुच्छसम्मदः । राजा पित्रीयितो भैमी राज्यशादिकां कथाम् ।।८५१।। न्यग्मखी कथयामास रुदती दवदन्त्यपि । नल-कबरयो तादारभ्य सकलां कथाम् ॥८५२॥
राजाऽपि स्वोत्तरीयेण भैम्याः सम्माW चक्षुषी । उवाच पुत्रि ! मा रोदीन कश्चिद् बलवान् विधेः ॥८५३।। पाअत्रान्तरे दिवो देवः कश्चिदुत्तीर्य पर्षदि । तत्राऽऽगाद् भीमतनयामूचे च रचिताञ्जलिः ॥८५४॥ दवदन्ति ! तवाऽऽदेशाच्चौरः पिङ्गलको ह्यहम् । प्रव्रज्यं तापसपुरे कर्दाचिद् विहरन्नगाम् ।।८५५।। तत्र स्मशानमध्येऽस्थामहं प्रतिमया स्थिरः । चितानलोत्थितो दूरं प्रासारच्च दवानलः ॥८५६॥ तेनाऽहं दह्यमानोऽपि धर्मध्यानादविच्युतः । स्वयमाराधनां कृत्वा नमस्कारपरायणः ॥८५७|| भूपृष्ठे पतितस्तत्र 'समिधीभूतविग्रहः । विपद्य त्रिदशोऽभूवं नामधेयेन पिङ्गलः ॥८५८॥ युग्मम् ।। ततोऽज्ञासिषमवधे रक्षितोऽस्मि त्वया वधात् । प्रव्रज्यां ग्राहितश्चाऽस्मि तत्प्रभावात् सुरोऽभवम् ॥८५९॥ मां महापापिनं भद्रे ! यधुपैक्षिष्यथास्तदा । अप्राप्तधर्मो मृत्वाऽहमयास्यं नरके ततः ॥८६०॥ वैदर्भि ! त्वत्प्रसादेनाऽऽसदं धुसदनश्रियम् । इति त्वां द्रष्टुमागच्छं विजयस्व महासति ! ॥८६१॥ इत्युक्त्वा च हिरण्यस्य सप्तकोटी: प्रवृष्य सः । सुरस्तिरोऽधादुत्पत्य विद्युत्पुञ्ज इवाऽम्बरे ॥८६२॥ इति साक्षात्कृतफलं द्युसदा धर्ममार्हतम् । ऋतुपर्णनरेन्द्रोऽपि प्रपेदे विदुषां वरः ॥८६३॥
सम्प्राप्तावसरश्चोचे हरिमित्रस्तदा नृपम् । देवाऽऽदिश चिराधातु दवदन्ती पितुर्गृहे ।।८६४॥ पततश्च चन्द्रयशसाऽप्युक्तो राजैवमस्त्विति । विदर्भान् प्रति वैदर्भीमादिशत् सेनया सह ।।८६५।।
आगच्छन्ती दवदन्ती श्रुत्वा भीमनृपोऽभ्यगात् । कृष्टो बलीयसा प्रेम्णा दुधरणेव वाजिना ॥८६६॥ १. यद्येवं मु०र० । २. क्रियाः सम० मु० र० । क्रियां सम० ला० । 'क्रियासम्' कृधातोराशी:प्रथमपुरुषैकवचनप्रयोगः । ३. भास्करः ता०सं०म० । ४. स्वर्णपिण्डः । ५. सूच्यभेदेन मु० । ६. काष्ठकै० म० । वेत्रधारिभिः । ७. राज्ञो ता०सं० । ८. प्यधात्तं मु० र० । पिधात्तत् खं० २ । ९. राजसभा । १०. पित्रीयते खं० २ । पित्रीयन्ति खं० १ । पित्रीयतो सू० । पितेवाऽऽचरन् । ११. तदा च ला० । १२. तदा हि वि० मु०र० । १३. भूमध्ये ला० । १४. दग्धकाष्ठतुल्यदेहः । १५. ०फल: खं० २ ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
दृष्टमात्रेऽपि पितरि वैदर्भी पादचारिणी । स्मेरास्यपद्मा धावित्वाऽपतत् तत्पादपद्मयोः ॥८६७॥ र्पितुः पुत्र्याश्च सोत्कण्ठं चिरान्मिलितयोस्तयोः । पतद्भिर्नेत्रसलिलैर्भूरभूद् भूरिकर्दमा ॥८६८॥ ज्ञात्वा सह समायातां पुष्पदन्तीं तदात्मजा । आलिङ्गति स्म सुदृढं यमुना जाह्नवीमिव ॥८६९॥ लगित्वा तद्गलेऽरोदीन्मुक्तकण्ठं नलप्रिया । इष्टे दृष्टे नवमिव दुःखं भवति देहिनाम् ||८७० ।। प्रक्षाल्य च क्षणादूर्ध्वं मुखाम्भोजानि वारिणा । ते मिथो वार्तयामासुर्दुःखोद्गिरणपूर्वकम् ||८७१॥ अङ्कमारोप्य वैदर्भी पुष्पदन्ती जगाद च । दृष्टाऽस्यायुष्मती दिष्ट्या भाग्यं जागर्ति नः खलु ॥८७२ ॥ सुखेनाऽस्मद्गृहे कालं गमयन्ती चिरादपि । पतिं द्रक्ष्यसि जीवन् हि प्राणी भद्राणि पश्यति ||८७३|| हरिमित्राय तुष्टोऽदाद् ग्रामपञ्चशतीं नृपः । ऊचे च दास्ये राज्यार्धमपि तुभ्यं नलागमे ||८७४|| पुरे गत्वा नृपश्चक्रे दवदन्त्यागमोत्सवम् । दिनानि सप्त देवार्चां गुर्वच च विशेषतः ॥ ८७५ ॥ अष्टमेऽह्नि च वैदर्भी विदर्भपतिरब्रवीत् । तथा करिष्यते शीघ्रं नलः सङ्गस्यते यथा ॥ ८७६॥ [तदा चैं हित्वा वैदर्भी नलोऽरण्ये परिभ्रमन् । अपश्यदेकतो धूमं वनकँक्षात् समुत्थितम् ॥८७७|| धूमस्तोमो ऽञ्जनश्यामो व्यानशे स नभस्तलम् । अच्छिन्नपक्षः कोऽप्यद्रिः खे यातीति भ्रमप्रदः ||८७८ || धूमो निमेषमात्रेण ज्वालामालाकरालितः । भुवः प्रादुर्भवन् विद्युद्युतमेघविडम्ब्यभूत् ||८७९|| वंशानां दह्यमानानां त्रत्त्रटिति निःस्वनम् । आक्रन्दं श्वापदानां च ततः शुश्राव नैषधिः ॥ ८८० ततो 'देवानले दीप्ते शब्दं शुश्राव मानुषम् । ऐक्ष्वक ! नल ! भूपाल ! रक्ष मां क्षत्रियोत्तम ! ||८८१॥ निष्कारणोपकारी त्वं पुंव्रतेनाऽसि यद्यपि । तथाऽपि तुभ्यमुर्वीशोपकरिष्यामि रक्ष माम् ||८८२॥ तं शब्दमभिगच्छंश्च लतागहनमध्यगम् । महोरगं नलोऽद्राक्षीद् रक्ष रक्षेति भाषिणम् ॥८८३|| पप्रच्छ च कथं वेत्सि मां मन्नाम मदन्वयम् ? । कथं वा मानुषी वाक् ते? ममाऽऽख्याहि महोरग ! ||८८४ ॥ आख्यत् सर्पोऽहमभवं मनुष्यः पूर्वजन्मनि । तज्जन्माभ्यासतो भाषा मानुषी मे प्रवर्तते ॥ ८८५ ॥ ममाऽस्ति चावधिज्ञानमुज्ज्वलं तेन वेद्म्यहम् । त्वां च त्वन्नामधेयं च त्वद्वंशं च यशोनिधे ! ||८८६ ॥ [नलो जातानुकम्पोऽथ कम्पमानस्य भोगिनः । कर्षणायाऽक्षिपद् वल्लीवनोपरि निजां पटीम् ||८८७|| उत्तरीयाञ्चलं राज्ञो भूलग्नं प्राप्य पन्नगः । अवेष्टयत् स्वभोगेन बालकेनोर्मिकामिव ॥८८८॥ पन्नगेन तदाक्रान्तमुत्तरीयं निजं नलः । उदर्पानाद् रज्जुमिव चकर्षोत्कर्षभकृपः ||८८९ || गत्वोखरप्रदेशे च वनवह्नेरगोचरे । मुमुक्षु मङ्क्षु भूपालं दन्दशूकोऽदशत् करे ॥८९०|| स्वेदबिन्दुमिवाऽऽच्छोट्य तं नागमवनीतले । नलः प्रोवाच भोः ! साधु कृतज्ञेन कृतं त्वया ॥ ८९१ ।। ममोपकारिणः साधूपकृतं पन्नग ! त्वया । यो हि पाययति क्षीरं त्वज्जात्या सोऽपि दश्यते ॥८९२ ॥ नलस्यैवं विवदतो विषेणाऽङ्गे प्रसर्पता । कुब्जतां वपुरापेदे धन्वेवाऽधिज्यतां गतम् ॥८९३॥ सोऽणुपिङ्गकचः प्रेत इव लम्बौष्ठ उष्ट्रवत् । सूक्ष्मपाद - करः स्थूलोदरो रङ्क इवाऽभवत् ॥८९४॥ सर्वाङ्गमपि बीभत्सविकृताकारधार्यभूत् । आशीविषविषग्रस्तो नलो नट इव क्षणात् ॥८९५ ॥ अचिन्तयच्च रूपेणाऽमुना मे जीवितं मुधा । गृह्णामि तत् परिव्रज्यां परलोकोपकारिणीम् ॥८९६॥ [नलस्यैवं चिन्तयतः सोऽहिस्त्यक्त्वाऽहिरूपताम् । दिव्यालङ्कारवसनस्तेजोरूपः सुरोऽभवत् ॥८९७॥ ऊचे च मा विषीदः स्म तवाऽहं निषधः पिता । तुभ्यं दत्त्वा तदा राज्यं परिव्रज्यामुपात्तवान् ||८१८ || परिव्रज्याफलेनाऽहं ब्रह्मलोके सुरोऽभवम् । अद्राक्षं चाऽवधिना त्वां प्रपेदानमिमां दशाम् ॥८९९॥ मैंया मायोरगीभूय दुर्दशापतितस्य ते । गण्डोपरि पिटकवत् कृताऽङ्गेषु विरूपता ॥९००|| अङ्गेषु वैरूप्यमपि मयोत्पादितमीदृशम् । उपकाराय मन्यस्व कटुभेषजपानवत् ॥९०१॥
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९. पितृपुत्र्योश्च ता०सं० । २. विदर्भापति० खं० १-२, सू० । ३. तदा हित्वा च खं० २ । ४. वनविभागात् । ५. दावा० मु० र० । ६. इक्ष्वाकुनल मु० । ७. स्वशरीरेण । ८ कूपात् । ९. ०त्कर्षभाग् नृपः मु० र० । उत्कर्षभाक् कृपा यस्य सः । १०. ० रूपधरो० खं० १ । ११. मायामहोरगीभूय ता०सं० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
त्वया दासीकृताः सर्वे राजानस्ते तव द्विषः । वैरूप्याऽनुपलक्ष्यं त्वां नोपद्रोष्यन्ति सम्प्रति ॥९०२।। इदानीमपि मा कार्षीः परिव्रज्यामनोरथम् । भोक्तव्या भूस्तवाऽद्याऽपि तावत्येव चिरं नल ! ॥९०३।। कथयिष्यामि समयं परिव्रज्योचितं च ते । स्वाहा मौहर्तिक इव सुस्थितोऽतः परं भव ॥९०४॥ पुत्रेदं श्रीफलफलमिमं रत्नकरण्डकम् । गृहाण यत्नाद् रक्षेश्च क्षत्रव्रतमिवाऽऽत्मनः ॥९०५॥ स्वरूपार्थी यदा त्वं स्याः श्रीफलं स्फोटयेस्तदा । देवदूष्याण्यदूष्याणि द्रक्ष्यसि त्वं तदन्तरे ॥९०६।। तदैवोद्घाटये रत्नकरण्डमपि तत्र तु । हारादीन्यतिहारीणि द्रक्ष्यस्याभरणानि च ॥९०७|| सद्यः परिहितैर्देवदूष्यैराभरणैश्च तैः । तदैव देवताकारं निजं रूपमवाप्स्यति(सि) ॥९०८॥ पानल: पप्रच्छ तं तात ! दवदन्ती स्नुषा तव । किं यत्र मुक्ता तत्राऽस्ति गता वा क्वचिदन्यतः ? ॥९०९॥ देवोऽप्याख्यत् ततः स्थानाद् विदर्भागमनावधि । भैम्या वृत्तान्तमखिलं तत्सतीत्वं प्ररूपयन् ॥९१०॥ जगाद च नलं वत्स: किमरण्ये भ्रमन्नसि । नयामि तत्र स्थाने त्वां यस्मिन् जिगमिषा तव ॥९११॥ नल: प्रोवाच मां देव ! सुसुमारपुरे नय । देवोऽपि हि तथा कृत्वा जगाम निजधामनि ॥९१२।। नलोऽपि नन्दनवने तत्पुरोपान्तवम॑नि । स्थितो ददर्शाऽऽयतनं सिद्धायतनसन्निभम् ॥९१३॥ तत्र चैत्ये विशन् कुब्जो ददर्श च तदन्तरे । प्रतिमां नमिनाथस्योत्पुलकस्तामवन्दत ॥९१४॥ ततो नलः सुसुमारनगरद्वारमभ्यगात् । तत्र चाऽऽलानमुन्मूल्य भ्रमन्मत्तगजोऽभवत् ॥९१५।। स्पृष्टासनोऽनिलेनापि स व्यधूनयदासनम् । उपरि स्फुरतो हस्तेनाऽऽचकर्ष खगानपि ॥९१६॥ दृष्टिं दृष्टिविषस्येव जहुँस्तस्येभजी विकाः । महावात इवोद्यानतरूनपि बभञ्ज सः ॥९१७।। दधिपर्णनृपस्तत्र वप्रमारुह्य सत्वरम् । उच्चैरुवाच तं नागं वशं नेतुमनीश्वरः ॥९१८॥ कर्याद गजं मे यो वश्यमवश्यं तस्य वाञ्छितम । ददामि किं भोः ! कोऽप्यस्ति गजारोहणधर्वहः ? ॥९१९॥ कुब्जोऽवादीत् तदाकर्ण्य क्व स क्व स मतङ्गजः ? । तमहं गमयिष्यामि वश्यतां पश्यतां हि वः ॥९२०॥ आगात् कुब्जे वदत्येवं स गर्जन्नूजितं गजः । तमभ्यधावत् कुब्जोऽपि मां पयामस्पृशन्निव ॥९२१॥ मा मृथा मा मृथाः कुब्जाऽपसराऽपसरेत्यलम् । लोको जगाद निःशङ्ख केसरीव ययौ तु सः ॥९२२।। प्रससाराऽपससार पपात च लुलोठ च । स कन्दुक इव कुब्जः कुञ्जरं विप्रतारयन् ॥९२३।। भूयो भूयश्च लाङ्गलमाक्रमन् विक्रमी नलः । वार्त्तिकः पन्नगमिव खेदयामास तं गजम् ॥९२४।। जितश्रमो नलो जातश्रमं विज्ञाय तं गजम् । द्राग् गरुत्मानिवोत्पत्याऽऽरुरोहाऽऽरोहकाग्रणीः ॥९२५॥ पूर्वासनमधिष्ठाय पादौ न्यस्य कैलापके । दृढयामास तद्ग्रन्थिमाघ्नन् कुम्भौ चपेटया ॥९२६॥ कलापंताडनाव्यात्तर्वक्त्रं चीत्कारकारिणम् । करिणं वाहयामास तं कुब्जो नर्तयन् सुणिम् ॥९२७।। तस्याऽथो घोषयामास जनो जयजयारवम् । तद्गले चाऽक्षिपद् राजा स्वयं कनकशृङ्खलाम् ॥९२८।। मदनमयमिव तं कृत्वा व्यालं नलो बली । आलानलीनतां निन्ये कक्षानाड्योत्ततार च ॥९२९।। ततो नलोऽमलयशाः प्रणिपतिमसंस्पृशन् । अभ्यर्णे दधिपर्णस्योपाविशत् सवैया इव ॥९३०॥ दधिपर्णोऽथ तं प्रोचे गजशिक्षाविचक्षण !। किमन्यदपि भोः कुब्ज ! वेत्सि? सम्भावनाऽस्ति ते ॥९३१॥ कुब्जोऽप्युवाच हे राजन् ! किमन्यत् कथयामि ते । सूर्यपाकां रसवीं वेद्मि किं तां दिदृक्षसे ? ॥९३२॥ स राजा सदनं गत्वा सूर्यपाककुतूहली । कुब्जाय तण्डुलान् शाकान् वेषवारादि चाऽऽर्पयत् ॥९३३॥ चरून् सूर्यातपे मुक्त्वा 'सौरी विद्यामनुस्मरन् । मक्षु निष्पादयामास दिव्यां रसवती नलः ॥९३४॥ कल्पवृक्षविशेषेण दत्तयेव मनोज्ञया । रसवत्या तया राजा बुभुजे सपरिच्छदः ॥९३५॥ १.सोऽहं मौ० मु०र० । महामौहू० ला० । अहो मौ०सू० । 'स्वाहा' उच्चारणक्षणं कथयन् ज्योतिविद् इव । २.०पुरं मु०र० । ३. स्कन्धप्रदेशम् । ४. शुण्डया। ५. जहू० खं०१-२॥ ६.०जीवकाः खं० २, लासू० । हस्तिपकाः । ७. गारुडिकः । ८. श्रेष्ठारोहक इव। ९. कण्ठरज्ज्वाम् । १०. कलापताडनव्यात्त० खं० २ । ११. ०व्यात्तवक्त्रचीवर० मु० । १२. शूणिम् खं० १-२ । अङ्कशम् । १३. मदनं 'मीण' इति । १४. पार्श्वस्थरज्जुबलेन । १५. ०पातमसंस्पृशन् मु० र० । १६. सुहृदिव । १७. शौरी खं० २। १८. कल्पवृक्षावि० ख० १ ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
श्रमापनोदजननीं परमानन्ददायिनीम् । आस्वाद्य तां रसवतीं दधिपर्णनृपोऽवदत् ॥९३६॥ एवंविधां रसवर्ती नलो जानाति नाऽपरः । चिरं परिचिता ह्येषा सेवमानस्य मे नलम् ॥ ९३७॥ तत् किं नलोऽसि विकृताकारो ? नैतादृशो नलः । योजनद्विशत्या तस्याऽन्तरितस्याऽऽगमः कुतः ? ॥९३८|| एकाकित्वं कुतस्तस्य भरतार्धमहीपतेः । तद्रूपं च मया दृष्टं जितगीर्वाण- खेचरम् ॥९३९॥ ततः कुब्जाय तुष्टोऽदाद् वस्त्रालङ्करणादिकम् । टङ्कलक्षं च नृपतिर्ग्रामपञ्चशतीमपि ॥ ९४० ॥ सर्वं जग्राह तत्कुब्जो ग्रामपञ्चशतीं विना । राजाऽप्युवाच किं कुब्ज ! तवाऽन्यदपि दीयताम् ? ॥९४१।। कुब्जो बभाषे तर्ह्येतन्मम पूरय वाञ्छितम् । मृगयां मद्यपानं च स्वाज्ञावधि निवारय ॥ ९४२ ॥ राजाऽपि वचनं तस्य मानयन्निजशासने । वार्तामपि निराकार्षीन्मृगया - मद्यपानयोः ॥ ९४३ ॥ दधिपर्णनृपोऽन्येद्युः कुब्जमूचे रहः स्थितः । कोऽसि त्वं ? कुत आयासीः ? क्व वास्तव्योऽसि वा? वद ||९४४|| कुब्जः प्रोचे कोशलायां नलराजस्य सूपकृत् । हुण्डिकाख्योऽस्मि तत्पार्श्वे शिक्षिताश्च कला मया ॥ ९४५ ॥ नलो भ्रात्रा कूबरेण जितो द्यूतेऽखिलां महीम् । दवदन्तीमुपादाय प्रपेदेऽरण्यवासिताम् ॥९४६॥ नलो विपेदे तत्रैव ततोऽहं त्वामुपागमम् । मायाविनमपात्रज्ञं श्रितोऽस्मि न तु कूबरम् ॥९४७॥ दधिपर्णोऽपि हि तया नलपञ्चत्ववार्तया । हृदि वज्राहत इव चक्रन्द सपरिच्छदः ॥ ९४८ ॥ दधिपर्णनृपः प्रेतकार्यं बाष्पाम्बुवारिदः । चक्रे नलस्य कुब्जेन वीक्ष्यमाणो धृतस्मितम् ॥ ९४९ ॥ [दवदन्तीपितुः पार्श्वे दर्धिपर्णनृपोऽन्यदा । केनाऽपि हेतुना दूतं प्रैषीत् सौहार्दवर्त्मना ॥ ९५० ॥ भीमेन सत्कृतो दूतः स तत्पार्श्वे सुखं वसन् । उवाच वार्तां प्रस्तावेऽन्यदैवं वदतां वरः ॥ ९५१ ॥ नलस्य सूपकारोऽस्ति मत्स्वामिनमुपागतः । सूर्यपाकां रसक्तां स वेत्ति नशासनात् ॥९५२॥ दवदन्ती तदाकर्ण्यात्कर्णा पितरमब्रवीत् । प्रणिधिं प्रेष्य जानीहि कीदृगस्ति स सूपकृत् ? ॥ ९५३॥ सूर्यपाकां रसवतीं वेत्ति नाऽन्यो नलं विना । गोपितात्मा यदि पुनर्भविता नल एव सः ॥ ९५४ ॥ ततः स्वाम्यर्थकुशलं कुशलाख्यं द्विजोत्तमम् । आहूय सत्क्रियापूर्वमादिदेश विशां पतिः ॥ ९५५ ॥ सुंसुँमारपुरे गत्वा पश्य तं राजवल्लभम् । कां कां कलां स जानाति किंरूपश्चेति निश्चिनु ॥९५६॥ प्रभोः प्रमाणमादेश इत्युक्त्वा चलितो द्विजः । प्रेर्यमाणः सुशकुनैः सुंसुमारपुरं ययौ ॥९५७॥ ॥पृच्छन् पृच्छन् ययौ कुब्जसमीपे निषसाद च । सर्वाङ्गविकृताकारं तं दृष्ट्वा विषसाद च ॥ ९५८ ॥ दध्यौ च क्व नलः क्वाऽयं ? क्व मेरुः क्व च सर्षपः ? | उत्पन्नाऽस्ति नलभ्रान्तिर्दवदन्त्या वृथैव हि ॥ ९५९ ॥ निश्चेष्ये सम्यगिति च मनसा सम्प्रधार्य सः । जगौ श्लोकयुगलकं नैलाप श्लोकगर्भितम् ॥९६०॥ “निर्घृणानां निस्त्रपाणां निःसत्त्वानां दुरात्मनाम् । धूर्वहो नल एवैकः पत्नीं तत्याज यः सतीम् ॥ ९६१॥ सुप्तामेकाकिनीं मुग्धां विश्वस्तां त्यजतः प्रियम् । उत्सेहाते कथं पादौ नैषधेरल्पमेधसः ?" ॥९६२॥ मुहुर्मुहुः पठ्यमानं तच्छ्रुत्वा दयितां स्मरन् । रुरोदाऽनर्गलगलन्नयनाब्जजलो नलः ॥९६३॥ किं रोदिषीति विप्रेण पृष्टः प्रोवाच हुण्डिकः । गीतं ते मैञ्जु करुणरसमाकर्ण्य रोदिमि ॥९६४॥ कुब्जेन पृष्टः श्लोकार्थं स विप्रोऽकथयत् कथाम् । आद्यूतात् कुण्डिनपुरे वैदर्भीगमनावधि ॥ ९६५ ॥ पुनराख्यदहो ! कुब्ज ! सूर्यपाकेन सूपकृत् । सुंसुमारेशदूतेनाऽऽख्यातस्त्वं भीमभूपतेः ||९६६ || एवंविधचरित्रेण नलो भवति नाऽपरः । भैम्येति भीममभ्यर्थ्य त्वां द्रष्टुं प्रेषितोऽस्म्यहम् ॥९६७॥ अचिन्तयं च त्वां दृष्ट्वा क्व कुब्जस्त्वं दुराकृति: ? । क्व नलो देवतारूप: ? क्व खद्योतः क्व भास्करः ? ॥ ९६८ ॥ मम चाऽऽगच्छतोऽभूवञ्च्छकुनानि शुभानि तु । तानि सर्वाण्यन्यथात्वं" ययुर्नाऽसि नलो यतः ॥ ९६९ ॥ दवदन्तीं हृदि ध्यायन् रुदन् कुब्जोऽधिकाधिकम् । उपरुध्य गृहेऽनैषीत् तं विप्रमिति चाऽवदत् ॥९७०||
६७
१. यावदाज्ञम् मु० । २. ०पर्णो मु०र० । ३. नलशिक्षणात् । ४. सुसु० मु० र० । ५ तद्राज० मु० २० । ६. कलामसौ वेत्ति पु० मु० । ७. सुसु० मु० र० । ८. सर्वाङ्गे खं० २ । ९ उत्पन्नाऽस्मिन्नल० खं० १ विना । १०. नलापकीर्तिगर्भम् । ११. सतीम् मु० । १२. मंक्षु खं० २ । १३. ० त्वमयु० ता०सं० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
महासत्या दवदन्त्या महापुंसो नलस्य च । कथां तवाऽऽख्यातवतः स्वागतं कि विधीयताम् ? ॥९७१।। इत्युक्त्वा विदधे स्नान-भोजनादिभिरौचितीम् । तस्याऽदाच्च दधिपर्णदत्तमाभरणादि सः ॥९७२॥ कुशल: कुशलेनाऽथ कुण्डिनं नगरं ययौ । यादृष्टं च तं कुब्जं भैमीपित्रे शशंस च ॥९७३॥ कुब्जो यथा खेदयति स्माऽऽरुरोह च तं गजम् । तथाऽऽख्यत् सूर्यपाकां च दृष्टां रसवतीं द्विजः ॥९७४।। हेममालां टङ्कलक्षं वस्त्रालङ्कारणानि च । आख्यत् कुब्जेन दत्तानि श्लोकगानं च तन्निजम् ॥९७५।। भैम्यूचे स नलस्तात ! प्राप्तो वैरूप्यमीदृशम् । केनाऽप्याहारदोषेण कर्मदोषेण वा खलु ॥९७६।। कौशलं गजशिक्षायां दानमद्भुतमीदृशम् । सूर्यपाको रसवती नाऽन्यस्याऽस्ति नलं विना ॥९७७।। तात ! केनाऽप्युपायेन तं कुब्जकमिहाऽऽनय । यथा स्वयं परीक्षेऽहं तं निरीक्ष्येङ्गितादिभिः ॥९७८।। भीमराजोऽवदत् पुत्रि ! तवाऽलीकस्वयंवरम् । प्रारभ्य दधिपर्णस्याऽऽह्वानाय प्रेष्यतां नरः ॥९७९।। तव स्वयंवरं श्रुत्वा दधिपर्णः समेष्यति । सोऽग्रेऽपि त्वयि लुब्धोऽभूद् वृतः किंतु नलस्त्वया ॥९८०।। दधिपर्णेन च सह स कुब्जोऽप्यागमिष्यति । त्वामन्यस्मै दीयमानां न सोढा स हि चेन्नलः ॥१८१।। नलोऽश्वहृदयज्ञोऽस्ति स कुब्जो नल एव चेत् । रथाश्वैरेव विज्ञेयः सं स्वयं प्रेरयन् रथम् ॥९८२॥ तस्य च प्रॉजतो वाहाः स्युः समीरणरंहसः । वाहरूपेण सम्प्राप्ता मूर्ता इव समीरणाः ॥९८३॥
आसन्नं दिनमाख्येयं यस्तता नलो हि सः । न स्त्रीपरिभवं कोऽपि सहते किं पुनर्नलः ? ॥९८४|| पादूतेन सुंसुमारेशं भीमराट् पञ्चमीदिने । आह्वादागमैनप्रश्चिन्तयामास चेति सः ॥९८५।। भैमी प्रेप्स्योऽतिदूरे सा तत्र श्वो गम्यते कथम् ? । किं करोम्यरति प्राप्तो मीनः स्तोक इवाऽम्भसि ॥९८६।। कुब्जो दध्यौ सती भैमी नाऽन्यं पुरुषमिच्छति । इच्छेद् वा तर्हि तां को हि गृह्णीयान्मयि सत्यपि ॥९८७।। दधिपर्णं विदर्भायां षड्भिर्यामैर्नयाम्यहम् । अनेन सह मेऽपि स्याद् यानं प्रासङ्गिकं यथा ॥९८८॥ ऊचे च दधिपर्णं स मा ताम्य ब्रूहि कारणम् । न ह्यनाख्यातरोगस्य रोगिणोऽपि चिकित्सितम् ॥९८९।। दधिपर्णोऽवदत् कुब्ज ! कथाशेषो नलोऽभवत् । स्वयंवरं पुनरपि वैदर्भी श्वः करिष्यति ॥९९०।। चैत्रस्य शुद्धपञ्चम्यां भावी तस्याः स्वयंवरः । षड्याम्येवाऽन्तरे तस्यै गतिः का मे भविष्यति ? ॥९९१।। बहुभिदिवसैर्दूतोऽप्यागात् तेनैव वर्त्मना । सार्धेनाऽह्ना कथं यामि ? भैमीलुब्धो मुधाऽस्म्यहम् ॥९९२॥ कुब्जो जगाद हे राजन् ! मा विषीदाऽचिरादपि । नेष्यामि त्वां विदर्भायां रथं साश्वं ममाऽपय ॥९९३।। गृहाण स्वैरमित्युक्तो राज्ञा कुब्जो वरं रथम् । जग्राह जात्यावश्वौ च सर्वलक्षणलक्षितौ ।।९९४।। दध्यौ च दधिपर्णस्तं कुशलं वीक्ष्य सर्वतः । न सामान्यः पुमानेष देवो वा खेचरोऽथवा ॥९९५।। रथं कृत्वा च युक्ताश्वं कुब्जः प्रोवाच तं नृपम् । रथमारोह नेष्यामि विदर्भा त्वां निशात्यये ॥९९६।। राजा स्थगीधरश्छत्रधरश्चामरधारिणौ । कुब्जश्च षडमी सज्जीकृतमारुरुहू रथम् ॥९९७।। तद्विल्वं तं करण्डं च कट्यामाबध्य वाससा । स्मृत्वा पञ्चनमस्कारं कुब्जो रथ्यानखेटयत् ॥९९८।। रथः प्रवीर्य मानाश्वो नैषधिनाऽश्वहृद्विदा । जगाम स्वामिचित्तेन विमानमिव नाकिनः ॥९९९।। प्रच्छेदो दधिपर्णस्य रथवेगानिलोद्भुतः । अथाऽपतत् कृतस्तेन नलस्येवाऽवतारणे ॥१०००। दधिपर्णोऽवदत् कुब्जं मुहूर्त धार्यतां रथः । वातेनोड्डीय खगवद् गतां गृह्णाम्यहं पटीम् ॥१००१॥ दधिपर्णनृपो यावदवादीदिति कुब्जकम् । तावद् रथो व्यतीयाय पञ्चविंशतियोजनीम् ॥१००२।। स्मयमानोऽवदत कब्जः कोऽस्ति ते नपते ! पटी? । पटीपाताद योजनानां पञ्चविंशतिरुज्झिता । १. विधीयते ला० । २. दिकम् सू० । ३. तथा दृष्टं ला० । ४. तथाऽऽख्यात् मु० र० । ५. ०पाकरसवती मु० र० । ६. ततः खं० २। ७. तत् स्वयं मु० र० । ८. प्रेरयतः अश्वाः । ९. वायुवेगाः । १०. यस्तदैति मु० । ११. आगमने आतुरः । १२. चेतसि मु० र० । १३. भैमीप्रेप्सा मु० र० । १४. चिकित्सनम् खं० २ । १५. षडेव प्रहरा अन्तरे सन्ति । १६. तस्याः खं० २, सू० । १७. अश्वान् अनोदयत्। १८. प्रचीय० मु० । १९. उत्तरीयवस्त्रम् । २०. निलोद्धत: खं० १-२, ला० सू० । २१.
काऽस्ति धात्रीश ! ते पटी खं० २ ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एते हि मध्यमा वाहा भवेयुर्या । एतावता तद् व्रजेयुः पञ्चाशद्योजनीमपि ॥१००४।। दधिपर्णनृपो दूरादनेकफलसङ्कलम् । अक्षाख्यं वृक्षमद्राक्षीदिति चोवाच सारथिम् ॥१००५।। अस्मिन् फलानि यावन्ति तावन्त्यगणयन्नपि । वेदम्यहं दर्शयिष्यामि व्यावृत्तः कौतुकं तव ॥१००६।। कुब्जो जगाद हे राजन् ! कालक्षेपाद् बिभेषि किम् ? । मा भैषीरश्वहृदयविदुरे मयि सारथौ ॥१००७।। एकमुष्टिप्रहारेण सर्वाणि पुरतस्तव । फलानि पातयिष्यामि मेघोऽम्भः पृषानिव ॥१००८॥ राजा प्रोवाच तर्हि त्वं फलानि कुब्ज ! पातय । अष्टादश सहस्राणि तेषां स्युः पश्य कौतुकम् ॥१००९।। कुब्जोऽप्यपातयत् तानि सङ्ख्याति स्म च भूपतिः । यथाख्यातानि चाऽभूवन्नैकं हीनं न चाधिकम् ॥१०१०॥ कुब्जोऽश्वहृदयविद्यां दधिपर्णाय याचिताम् । ददौ तस्मादाददे च सङ्ख्याविद्यां यथाविधि ॥१०११॥ प्रातर्विदर्भाभ्यर्णेऽगात् सरथः कुब्जसारथिः । दधिपर्णनृपश्चाऽभूत् पद्मवद् विकसन्मुखः ॥१०१२॥ पातदैव च निशाशेषे वैदर्भी स्वप्नमैक्षत । यथावत् कथायामास पितुरग्रे च हर्षभांक् ॥१०१३।। मया निर्वृतिदेव्यद्य निशान्ते सुखसुप्तया । अदर्शि कोशलोद्यानं तयेहाऽऽनीतमम्बरे ॥१०१४।। पुष्पितं फलितं चूतं चाऽऽरूढाऽस्मि तदाज्ञया । विकस्वरं सरोजं च मम हस्ते तयाऽर्पितम् ॥१०१५।। मयि तत्राऽधिरूढायां कश्चिदेको विहङ्गमः । पुराधिरूढो धेसिति पपात धरणीतले ॥१०१६॥ भीमोऽप्युवाच हे पुत्रि ! स्वप्नोऽयमतिशोभनः । तथाऽऽह निर्वृतिर्देवी पुण्यराशिस्तवोद्यतः ॥१०१७॥ खे दृष्टं कोशलोद्यानं कोशलैश्वर्यदं तव । माकन्दारोहणात् पत्या सह सङ्गस्यसे द्रुतम् ॥१०१८॥ अग्रे तत्राऽधिरूढश्च यः पपात विहङ्गमः । स कूबरनृपो राज्यात् पतिष्यति न संशयः ॥१०१९।। प्रभातसमये स्वप्नदर्शनादद्य ते नलः । मिलिष्यत्यत्र काले हि स्वप्नः शीघ्रं फलप्रदः ॥१०२०।। पातदानीमेव पूार सम्प्राप्तो दधिपर्णराट् । पुमांश्च मङ्गलो नाम भीमायाऽऽख्यात् तमागतम् ॥१०२१॥
भीमोऽभ्यगाद् दधिपर्ण परिरेभे च मित्रवत् । गृहार्पणादिनाऽऽतिथ्यं कृत्वा चैवमवोचत ॥१०२२।। सूर्यपाकां रसवती कुब्जस्ते वेत्ति सूपकृत् । तां दर्शय दिदृक्षोर्मे वार्तया कृतमन्यया ॥१०२३॥ आदिक्षद् दधिपर्णोऽपि कुब्जं रसवतीकृते । सोऽपि तां दर्शयामास कल्पवृक्ष इव क्षणात् ॥१०२४॥ भीमस्तया रसवत्या बुभुजे सपरिच्छदः । दधिपर्णोपरोधेन तत्स्वादं च परीक्षितुम् ॥१०२५॥ स्थालं तदोदनभृतमानाय्य दवदन्त्यपि । बुभुजे तद्रसास्वादादज्ञासीत् कुब्जकं नलम् ।।१०२६।। भैम्यूचे च ममाऽऽख्यातं ज्ञानिना सूरिणा पुरा । सूर्यपाका रसवती नलस्यैवेह भारते ॥१०२७।। अयं कुब्जोऽस्तु कुण्टोऽस्तु यादृशस्तादृशोऽस्तु वा । कारणं तत्र किमपि नल एव न संशयः ॥१०२८॥ नलस्यैका रसवती परीक्षाऽन्याऽपि विद्यते । नलाङ्गल्याऽप्यहं स्पृष्टा भवाम्युत्पुलका खलु ॥१०२९॥ कुब्जोऽङ्गल्या स्पृशतु मां तिलकं रचयन्निव । अभिज्ञानान्तरेणेष भवेद् यदि पुननेलः ॥१०३०।। कुब्जो नलोऽसीति पृष्टः प्रोचे भ्रान्ताः स्थ सर्वथा । क्व नलो देवतारूपः ? क्वाऽन) द्रष्टुमप्यहम् ? ॥१०३१॥ तद्वक्षोऽस्पृक्षदङ्गल्या कुब्जोऽथाऽत्युपरोधतः । अतिलाघवतः पत्रमिवाऽऽर्द्राक्षरमार्जकः ॥१०३२॥ तावताऽप्यङ्गलिस्पर्शेनाऽऽनन्दाद्वैतदायिना । भैम्याः कर्को टेकमिवाऽजनिष्टोत्कण्टकं वपुः ॥१०३३॥ सुप्तां तदा मामत्याक्षीरिदानी क्व नु यास्यसि । चिरात् प्राणेश ! दृष्टोऽसीत्यवोचद् भीमजा मुहुः ॥१०३४॥ नीतो गृहान्तरेऽभ्यर्थ्य कुब्जो बिल्वात् करण्डकात् । आकृष्य वस्त्रा-ऽलङ्कारानामुयॊऽभूत् स्वरूपभाक् ॥१०३५।। पाततश्च भीमतनया यथारूपं निजं पतिम् । तमालिलिङ्ग सर्वाङ्गमपि वल्लीव पादपम् ॥१०३६॥ समागतं पुनारे नलं कमललोचनम् । आलिङ्गयाऽध्यासयामास भीमः सिंहासने निजे ॥१०३७।।
त्वं स्वामी सर्वमेतत ते समादिश करोमि किम् ?। एवं वदन भीमरथो वेत्रीवाऽस्थात् कृताञ्जलिः ॥१०३८॥ १. सत्तमाः पा० । नूत्तमाः मु० । २. बिभीतकवृक्षम् । ३. बिन्दून् । ४. हर्षवाक् खं० २ । ५. झटिति खं० १, ला० सू० विना । ६. शीघ्रफलप्रद: खं० १-२ । ७. तदागमम् ता०सं० । ८. कुण्ठो० ता० सं० पु० । ९. रोमाञ्चिता । १०. ०न्तरेणैव मु० र० । ११. बिल्ववृक्ष इव । १२. परिधाय ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
दधिपर्णो नलं नत्वाऽवदन्नाथोऽसि नः सदा । तत् क्षमस्व यदज्ञानात् त्वय्यकार्यमनुष्ठितम् ॥१०३९॥ पाअत्रान्तरे धनदेवः सार्थवाहो महद्धिकः । स आगादुपदापाणिर्द्रष्टुं भीमरथं नृपम् ॥१०४०॥
वैदर्भी सार्थवाहस्य तस्य पूर्वोपकारिणः । अकारयद् भीमनृपात् स्वबन्धोरिव गौरवम् ॥१०४१॥ ऋतुपर्णश्चन्द्रयशास्तत्सूता चन्द्रवत्यपि । वसन्तश्रीशेखरश्च स तापसपरेश्वरः ॥१०४२।।। तत्राऽऽययुर्दवदन्त्याऽऽायिताः पितृवाचिकैः । नितान्तमुत्कण्ठितया पूर्वोपकृतिलिप्तया ॥१०४३।। युग्मम् ।।
अतिसक्रियमाणास्ते नित्यं भीमेन भूभुजा । तस्थुर्मासं नवनवैरातिथ्यैः प्रीतचेतसः ॥१०४४॥ पअन्यदा तस्थुषां तेषां सर्वेषां भीमपर्षदि । प्रातर्देवो दिवः कश्चिदायासीद् भाप्लुताम्बरः ॥१०४५।। प्रोचे च प्राञ्जलिभैमी स तापसपतिः पुरा । त्वया विमलमत्याख्यः प्रबोधित इति स्मर ॥१०४६॥ स तापसपतिर्मत्वा सौधर्मेऽहं सुरोऽभवम् । श्रीकेसरोऽभिधानेन विमाने केसराभिधे ॥१०४७॥ अर्हद्धर्मे स्थापितोऽहं मिथ्यादृष्टिरपि त्वया । तेन धर्मेण देवोऽहमभूवं त्वत्प्रसादतः ॥१०४८|| इत्युक्त्वा च हिरण्यस्य कोटी: सप्त प्रवृष्य सः । क्वचिदन्तर्दधे देवः स्वां प्रकाश्य कृतज्ञताम् ॥१०४९॥ पावसन्त-दधिपर्णर्तुपर्णा भीमोऽपरेऽपि हि । महाबला महीपाला राज्येऽभिषिषिचुर्नलम् ॥१०५०॥ ते राजानो नलादिष्टाः स्वानि स्वानि बलान्यथ । सङ्कीर्णत्वं ददानानि पृथ्व्यां प्राज्यान्यमेलयन् ॥१०५१॥ शभेऽह्नि तैन्पैः सार्धं नलोऽतलपराक्रमः । राज्यलक्ष्मी जिघक्षः स्वामयोध्यामभ्यषेणयत् ॥१०५२॥ कैरप्यहोभिस्तरणि तिरयन् रतिवल्लभम् । अयोध्योपवनं गत्वाऽध्युवास रतिवल्लभम् ॥१०५३।। समागतं नलं ज्ञात्वा कूबरो वरवैभवम् । भिया कण्ठगतप्राण इवाऽभूद् भृशमाकुलः ॥१०५४|| पानलस्तं स्माऽऽह दूतेन देवनैर्दीव्यतां पुनः । ममैवाऽस्तु त्वदीया श्रीर्मदीयाऽपि तवाऽस्तु वा ॥१०५५॥ कूबरोऽपि रणशङ्कामपाकृत्य प्रमोदभाक् । पुन तं समारेभे जितँकासी हि तत्र सः ॥१०५६॥ सर्वामुर्वी जिगायाऽथ भाग्यवान्नैषधोऽनुजात् । भाग्ये हि विजयो नणां पाणिपञ मरोंलति ॥१०५७।। नलेन जितराज्योऽपि सोऽतिकूरोऽपि कूबरः । ममाऽनुजन्मायमिति नाऽप्रसादास्पदं कृतः ॥१०५८।। वैदर्भीजानिना राज्यमलङ्कृत्य निजं तदा । अरुषा कूबरश्चक्रे पूर्ववद्यौवराज्यभाक् ॥१०५९॥ नल: स्वं राज्यमासाद्य दवदन्तीयुतस्तदा । कोशलानगरीचैत्यान्युत्कण्ठावानवन्दत ॥१०६०॥ राज्याभिषेकमाङ्गल्योपायनानि महीभुजः । सर्वेऽप्यानिन्यिरे भक्त्या भरतार्धनिवासिनः ॥१०६१॥ सकलैरवनीपालैः पालिताखण्डशासनः । बहून्यब्दसहस्राणि भरतार्धं नलोऽशिषत् ॥१०६२॥ स्वर्गादन्येधुरागत्य निषधो देवभूयभाक् । विषयार्णवैपाठीनमिति प्राबोधयन्नलम् ॥१०६३।। भवारण्ये लुण्ट्यमानं सदा विषयतस्करैः । आत्मनोऽपि विवेकस्वमरक्षन् पुरुषोऽसि किम् ? ॥१०६४।। प्रव्रज्यासमयाख्यानं प्रतिपन्नं पुरा मया । तदिदानी परिव्रज्यां गृहाणाऽऽयुस्तरोः फलम् ॥१०६५।। इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे देवस्तत्र चाऽभ्याययौ तदा । जिनसेनाभिधः सूरिरवधिज्ञानशेधिः ॥१०६६।। दवदन्ती-नलौ गत्वा ववन्दाते तमादरात् । पृष्टश्च प्राग्भवं ताभ्यामाख्यायैवमुवाच सः ॥१०६७॥ प्राप्तं राज्यं त्वया साधोः क्षीरदानात् तथा मुनौ । क्रोधाद् द्वादशघटिकाद् विरहो द्वादशाब्दिकः ॥१०६८।। इति श्रुत्वा पुष्कलाख्ये सुते राज्यं निधाय तौ । गृहीत्वा च व्रतं तस्मात् पालयामासतुश्चिरम् ॥१०६९।। नलोऽन्यदा तु भोगार्थी दवदन्त्यां मनोऽकरोत् । अथाऽऽचार्यैः परित्यक्तः पित्राऽऽगत्य प्रबोधितः ॥१०७०॥ अशक्नुवन् व्रतं कर्तुं प्रपेदेऽनशनं नलः । नले जातानुरागाऽथ दवदन्त्यपि तद् व्यधात् ।।१०७१॥ नलो मृत्वा कुबेरोऽहमभूवं सा तु भीमजा । मत्प्रियाऽजनि सा च्युत्वा शौरेः कनकवत्यभूत् ।।१०७२।। १. नृपं ज्ञात्वा० खं० २ । २. त्वय्यन्ना( न्या )य्यमनु० खं० १-२, ला० । ३. भीमनृपं ता०सं० विना । ४. पितृवाचकैः मु० २० । पितुः भीमनृपस्य वाचिकैः-सन्देशकैः । ५. कान्त्या दीपितं अम्बरं येन सः ॥६. ०तोऽस्मि खं० १-२, ला० । ७. आच्छादयन् । ८. ०काशी मु० २० । ९. मराल इव आचरति । १०. वैदर्भी जाया यस्य सः नल: तेन । ११. विषयसुखसमुद्रे मकरतुल्यम् । १२. लुट्यपानं खं०र० । १३. विवेकं ला०सू० । विवेक एव धनम्। १४. पुरुषो असि खं० २। १५. सेवधिः खं० २, ला० । १६. भोगार्थि आ० भोगार्थम् मु० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
अस्यां प्राग्भवपत्नीत्वस्नेहातिशयमोहितः । इहाऽऽगतोऽस्मि स्नेहो हि याति जन्मशतान्यपि ॥१०७३।। अस्मिन्नेव भवे तावदियं कनकवत्यहो ! । दशार्ह ! कर्माण्युन्मूल्य निर्वाणं च 'गमिष्यति ॥१०७४।। सहेन्द्रेण वन्दनाय गतस्यैतत् पुरा मम । महाविदेहे कथितं विमलस्वामिनाऽर्हता ॥१०७५।। इत्थं कनकवत्यास्तु कथां प्राग्भवसङ्गताम् । कुबेरो वसुदेवाय समाख्याय तिरोदधे ॥१०७६।।
अतिशयितचिरानुरागयोगात्,
कनकवतीमुपयम्य वृष्णिसूनुः । अरमत पुनरेव खेचरीभिः ,
सुभगशिरोमणिरद्वितीयरूपः ॥१०७७||
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये अष्टमे पर्वणि कनकवतीपरिणयन-तत्पूर्वभववर्णनो नाम
तृतीयः सर्गः ॥
१. भविष्यति ला० । २. हेमचन्द्रसूरि वि० ला० । ३. अष्टमपर्वणि खं० २, ला० ।
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॥ चतुर्थः सर्गः ॥
सूर्यकेणाऽन्यदा सुप्तः स जऽथ 'प्रबोधभाक् । जघान सूर्पकं मुष्ट्या सूर्पकस्तं मुमोच च ॥१॥ गोदयां पतितः शौरिस्तीर्त्वा कोल्लापुरे ययौ । पद्मश्रियं पद्मरथराजपुत्रीं व्युवाह च ॥२॥ तत्रापि नीलकण्ठेन हृतो मुक्तश्च सोऽपतत् । चम्पासरसि तत् तीर्त्वा मन्त्रिपुत्रीमुपायत ||३|| ततो हृतः सूर्पकेण मुक्तो गङ्गाजलेऽपतत् । ततोऽप्युत्तीर्य विचरन् ययौ पल्लीं सहाऽध्वगैः ॥४॥ पल्लीपतेर्जरानामकन्यां परिणिनाय च । अजीजनत् तत्र जरत्कुमारं नाम नन्दनम् ॥५॥ सोऽवन्तिसुन्दरी सूरसेनामथ नरद्विषम् । जीवयशसमपराश्चोपयेमे नृपात्मजाः ॥६॥ [गच्छन्तर्मेन्यदा मार्गे तमूचे देवता मया । दत्ता रुधिरराट्कन्या रोहिणी ते स्वयंवरे ॥७॥ त्वया तु पटहस्तत्र वाद्य इत्युदितस्तया । स जगामाऽरिष्टपुरे स्वयंवरणमण्डपम् ॥८॥ जरासन्धप्रभृतिषु तत्राऽऽसीनेषु राजसु । आययौ रोहिणी साक्षाद् भुवं प्राप्तेव रोहिणी ॥ ९ ॥ ते स्वं रुरोचयिषवस्तस्यै तत् तच्चिचेष्टिरे । स्वानुरूपमपश्यन्त्यै नैकोऽपि रुरुचे परम् ॥१०॥ कृतवेषान्तरः शौरिर्मध्यस्थस्तूर्यवादिनाम् । वादयामास पटहमेवं पाठस्फुटाक्षरम् ॥११॥ एह्येहि मां कुरङ्गाक्षि ! कुरङ्गीव किमीर्क्षसे ? । तवाऽनुरूपो भर्ताऽस्मि त्वत्सङ्गमसमुत्सुकः ॥१२॥ तच्छ्रुत्वा रोहिणी रोहेत्पुलका तन्निरीक्षणात् । स्वयंवरस्रजं कण्ठे वसुदेवस्य विन्यधात् ॥१३॥ जज्ञे राज्ञां कलकलो हतैनमिति भाषिणाम् । अनया तौर्थिको वव्रे प्रहासश्चेत्यभूद्भृशम् ॥१४॥ रुधिरं कोशलाधीशो दन्तवक्रोऽतिवक्रवाक् । सोपहासमुवाचैवं वैहासिक इवोच्चकैः ॥ १५ ॥ यदि "पाणविकायेयं कन्यका दित्सिता त्वया । तत्कुलीनाः कुलीनेन किमाहूता अमी नृपाः गुणानभिज्ञा चेदेषा वृणुते तौर्थिकं नरम् । नोपेक्षणीयं तत्पित्रा पिता बाल्ये हि शासिता ||१७|| ऊचे च रुधिरस्तेऽलं विचारेणाऽमुना नृप । । स्वयंवरे कन्यकानां प्रमाणं हि वृतो नरः ॥१८॥ अथोचे न्यायविदुरो विदुरः साध्विदं नृपः । तथाऽपि युज्यते प्रष्टुं वर एष कुलादिकम् ॥१९॥ वसुदेवोऽवदत् कोऽयं प्रस्तावः कुलकीर्तने ? । वृतोऽहमनया यस्माद् यादृशस्तादृशोऽपि सन् ॥२०॥ • असहिष्णुर्ममेमां योऽपहरिष्यति तस्य तु । कथयिष्यामि दोर्वीर्यदर्शनेनाऽऽत्मनः कुलम् ॥ २१ ॥ जरासन्धो निशम्याऽथ वचस्तस्येदमुद्धतम् । इत्यादिक्षन्नृपान् कुद्धः समुद्रविजयादिकान् ॥२२॥ राजविप्लवकृत्तावद्रुधिरोऽयं नृपाधमः । द्वितीयोऽयं पाणविको मत्तः पणवदनात् ॥२३॥ राजकन्या मयाऽप्याप्ततीयताऽपि न तृप्यति । वीतास्तोच्चद्रुफलाप्त्या खर्वाङ्ग इव दृप्यति ||२४|| ततो हतेमौ रुधिर-तौयिकौ तूर्णमेव भोः! । इत्युक्तास्ते युधेऽसज्जन् समुद्रविजयादयः ॥ २५ ॥ खेचरेन्द्रो दधिमुखः सारथीभूय स स्वयम् । रथेऽधिरोहयामास वसुदेवं रणोद्यतम् ॥२६॥ तदा वेगवतीमात्राऽङ्गारवत्याऽर्पिताऽन्यथ । आददे चाप - तूणानि शौरिः समरदुर्धरः ||२७|| भग्नं च रुधिरबलं जरासन्धस्य पार्थिवैः । वसुदेवो दधिमुखेनेरयामास वाजिनः ॥२८॥ आदावप्युत्थितं शत्रुञ्जयं यदुवरोऽजयत् । दन्तवक्रमभाङ्क्षीच्च शल्यराजं बभञ्ज च ॥२९॥ जरासन्धोऽथ साशङ्कं समुद्रनृपमब्रवीत् । न पाणविकमात्रोऽयमसाध्योऽन्यमहीभुजाम् ॥३०॥
॥१६॥
१. वसुदेवः । २. प्रमोदभाक् सं०ला । ३. गोलायां खं० २, ला० । ४. जराकुमारं पु० ला०२, पा० । ५. ० मन्यदा तत्र ता०सं०आ० । ० मन्यदाऽन्यत्र र० । ६. स्वस्मै सा रोचयेत' इत्येवमिच्छाभाजः । ७. ०मपश्यन्ती नैको० पु०पा०ला० । ० मपश्यन्त्यै न को० मु० । ८. ०मीक्ष्यसे खं० २ । ९. रोमाञ्चिता । १०. तूर्यवादयिता पटहवादक: । ११. विदूषकः । १२. वाद्यवादकाय । १३. दातुमिष्टा । १४. न्यायचतुरः । १५. ० वादनः खं० २ । १६. वातेन अस्तं क्षिप्तं यदुन्नतवृक्षफलं तस्य प्राप्त्या । १७. कुब्जः ।
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चतुर्थः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । जह्येनं स्वयमुत्थाय हतेऽस्मिन् रोहिणी तव । सर्वेषां भङ्गवैलक्ष्यमपाकुरु महीभुजाम् ॥३१॥ समुद्रविजयोऽप्यूचे परदारैः कृतं मम । त्वदाज्ञया तु योत्स्येऽहमनेन सह दोष्मता ॥३२॥ इत्युक्त्वा युयुधे भ्रात्रा समुद्रविजयोऽपि हि । विश्वाश्चर्यकरं जज्ञे शस्त्राशस्त्रि चिरं तयोः ॥३३॥ को न्वसौ मेऽप्यलमिति दध्यौ यावद् यदूत्तमः । वसुदेवः पुरस्तावत् साक्षरं बाणमक्षिपत् ॥३४॥ समुद्रस्तं गृहीत्वेषु तद्वर्णानित्यवाचयत् । वसुदेवो नमति त्वां निर्गतश्छद्मना तदा ॥३५॥ , पाअथ हृष्टो दशार्हेशो वत्स ! वत्सेत्युदीरयन् । सायं गौरिव वत्सोत्का दधावे रथमुत्सृजन् ॥३६॥ उत्तीर्य वसुदेवोऽपि न्यपतत् तस्य पादयोः । उद्धृत्य च समुद्रस्तं दोभ्या॑ सपदि सस्वजे ॥३७॥ वत्स ! वर्षशतं क्वाऽऽस्था इति पृष्टोऽग्रजन्मना । आचख्यौ वसुदेवः स्वं वृत्तान्तं सर्वमादितः ॥३८॥ समुद्रविजयो भ्रात्रा तादृग्विकमशालिना । यथाऽहृष्यत् तथा तेन जामात्रा रुधिरोऽपि हि ॥३९॥ जरासन्धः स्वसामन्तबन्धुं ज्ञात्वा च तं तथा । सम्प्राप कोपोपशमं मुदे हि स्वो गुणाधिकः ॥४०॥ प्रसङ्गमिलितै राजस्वजनैनितोत्सवः । जज्ञे विवाहः पुण्येऽह्नि रोहिणी-वसुदेवयोः ॥४१॥ रुधिरेणाऽर्चिता जग्मुर्जरासन्धादयो नृपाः । यादवंस्तत्र तस्थुस्तु वत्सरं कंससंयुताः ॥४२॥ पतत्राऽन्येधुर्वसुदेवोऽपृच्छद् रहसि रोहिणीम् । कथं त्वया नृपान् मुक्त्वा वृतः पाटहिकोऽप्यहम् ? ॥४३॥ साऽप्याचख्यौ सदा विद्यां प्रज्ञप्तिमहमार्चयम् । तयाऽऽख्यातं भविता ते दशार्हो दशमो वरः ॥४४॥ ज्ञेयः पटहवाद्येन स त्वया तु स्वयंवरे । ज्ञेयः तत्प्रत्ययादेव त्वं वृतोऽसि मया तदा ॥४५॥ सभास्थितेषु चाऽन्येद्युः समुद्रविजयादिषु । काऽप्यर्धजरती यच्छन्त्याशिषं खादवातरत् ॥४६॥ उवाच वसुदेवं सा बालचन्द्राजनन्यहम् । नाम्ना धनवतीपुत्र्याः कृते त्वां नेतुमागता ॥४७॥ सा पुत्री बालचन्द्रा मे पुत्रिका वेगवत्यपि । त्वप्रिलम्भविधुरे तिष्ठतस्ते दिवानिशम् ॥४८॥ ऐक्षिष्ट वसुदेवोऽपि समुद्रविजयाननम् । राजाऽप्यूचे याहि परं मा स्म स्थाः पूर्ववच्चिरम् ॥४९॥ राजानं क्षमयित्वाऽथ वसुदेवस्तया सह । ययौ गगनयानेन पुरे गगनवल्लभे ॥५०॥ समुद्रविजयोऽप्यागात् स्वं पुरं कंससंयुतः । तस्थौ च वसुदेवस्याऽऽगमने नित्यमुन्मुखः ॥५१॥ पित्रा काञ्चनदंष्ट्रेण खेचरेन्द्रेण कल्पिताम् । चन्द्रास्यां बालचन्द्रां तु वसुदेव उपायत ॥५२॥ पूर्वोढा वरयोषितो निजनिजस्थानादथाऽऽदाय सोऽन्वीतो व्योमचरैः पदातिभिरिवाऽत्युच्चैर्विमानस्थितः । औगाच्छौर्यपरं समद्रविजयेनोत्कण्ठितेनाऽऽदरादाश्लिष्टः प्रसरद्भजोर्मिपयसांपत्येव शीतद्युतिः ॥५३॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषे(षचरिते?) महाकाव्ये
अष्टमे पर्वणि वसुदेवहिण्डिवर्णनो नाम
चतुर्थः सर्गः ॥
१. अलम् । २. ०देवस्तं मु०र० । ३. यादवा० मु०। ४. त्वद्वियोगपीडिते । ५. विद्याधरैः । ६. आगात् सूर्यपुरम् ता०सं० ॥ ७. समुद्रेन। ८. चन्द्रः ।
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॥ पञ्चमः सर्गः ॥ इतश्च हास्तिनपुरे श्रेष्ठ्यभूत् कोऽपि तस्य च । ललिताख्योऽभवत् पुत्रो मातुरत्यन्तवल्लभः ॥१॥ श्रेष्ठिन्याश्चाऽन्यदा जज्ञे गर्भः सन्तापदो भृशम् । तया च विविधद्रव्यैः पात्यमानोऽपि नाऽपतत् ॥२॥ जातश्च पुत्रः श्रेष्ठिन्या दास्यै त्यक्तुं च सोऽपितः । दृष्टश्च श्रेष्ठिना पृष्टा किमेतदिति दास्यथ ॥३॥ असावनिष्टः श्रेष्ठिन्याऽत्याज्यतेति तयोदिते । श्रेष्ठी गृहीत्वा तं छनमन्यत्र 'समवर्धयत् ॥४॥ गङ्गदत्त इति नामाऽदत्त तस्य शिशोः पिता । मातुश्छन्नं ललितोऽपि लालयामास तं सदा ॥५।। पापितरं ललितोऽन्येधुरभ्यधत्त 'मधूत्सवे । भोज्यते गङ्गदत्तोऽद्य सह चेच्छोभनं तदा ।।६।। श्रेष्ठ्यूचे यदि ते माता तं पश्येत् तन्न शोभनम् । ललितोऽप्यब्रवीत् तात ! यतिष्ये तददर्शने ॥७॥ श्रेष्ठिनाऽपि ताँऽऽदिष्टो ललितो गङ्गदत्तकम् । तिरस्करिण्याऽन्तरितं भोजनार्थं न्यैषादयत् ॥८॥ पुरस्तात् स्वयमासीनौ तौ श्रेष्ठि-ललितौ तदा । भुञ्जानौ गङ्गदत्ताय भोज्यं छन्नं "स्म यच्छतः ।।९।। वातोद्भुते काण्डपटे श्रेष्ठिनी तं ददर्श च । केशैः कृष्ट्वा कुट्टयित्वा गृहस्रोतसि चाऽक्षिपत् ॥१०॥ उद्विग्नौ श्रेष्ठि-ललितौ श्रेष्ठिन्याश्छन्नमेव तम् । स्नपयित्वाऽबोधयतां गङ्गदत्तं महामती ॥११।। पातदा च साधवस्तत्र भिक्षार्थं समुपागताः । पृष्टाश्च ताभ्यां श्रेष्ठिन्यास्तत्पुत्रद्वेषकारणम् ॥१२॥ अथैकः साधुरित्याख्यदेकस्मिन् सन्निवेशने । अभूतां भ्रातरौ तौ तु बहिः काष्ठार्थमीयतुः ॥१३॥ काष्ठैर्भूत्वा तत्र गैन्त्रीमग्रस्थो ज्येष्ठ आपतन् । ददर्श पथि वेल्लंन्ती चळलुण्डां महोरगीम् ॥१४॥ सोऽप्यवोचत् कनीयांसं गन्त्र्याः सारथिमैत्र रे ! । गन्त्रीतो रक्षणीयेयं चर्कलुण्डा वराकिका ॥१५॥ तच्छ्रुत्वा सर्पिणी साऽपि हृष्टी विश्वासभागभूत् । तत्राऽऽयातः कनिष्ठस्तां दृष्ट्वा चैवमवोचत ।।१६।। ज्येष्ठेन रक्षिताऽस्तीयं तथाऽप्यस्या उपर्यहम् । नेष्ये गन्त्रीं श्रोतुमेतदस्थिभङ्गस्वरं मुदा ॥१७॥ तथा चक्रे स च क्रूरस्तच्छ्रुत्वा साऽपि पन्नगी । कोऽप्येष मम वैरीति चिन्तयन्ती व्या(व्य?)पद्यत ॥१८॥ सा जज्ञे तव भार्येयं ज्येष्ठो भ्राता विपद्य सः । अस्याः सूनुर्ललितोऽभूत् प्रियः प्राग्जन्मकर्मणा ॥१९॥ सोऽयं मृत्वा कनिष्ठोऽस्या अनिष्टः पूर्वकर्मणा । गङ्गदत्तः समुत्पेदे प्राक्तनं कर्म नाऽन्यथा ॥२०॥ ततो विरक्ता जगृहु: पिता पुत्रौ च ते व्रतम् । जग्मतुः श्रेष्ठि-ललितौ महाशुक्रमुभौ दिवम् ।।२१।। तत्तु मातुरनिष्टत्वं गङ्गदत्तः पुनः स्मरन् । विक्वाल्लभ्यनिदानी महाशुक्रं 'दिवं ययौ ॥२२॥ पाततश्च ललितजीवो महाशुक्रात् परिच्युतः । वसुदेवस्य भार्याया रोहिण्या उदरेऽभवत् ।।२३।। गजा-ऽब्धि-सिंह'-शशिनो विशतो रोहिणीमखे। स्वप्नेऽपश्यन्निशाशेषे हलभृज्जन्मसूचकान् ॥२४॥ रोहिणी रोहिणीशाभं समये सुषुवे सुतम् । तस्य जन्मोत्सवं चक्रू राजानो मागधादयः ॥२५॥ राम इत्यभिरामं च तस्य नामाऽकरोत् पिता । क्रमाच्च ववृधे रामः सर्वेषां रमयन् मनः ॥२६।। जग्राह च कलाः सर्वा रामो गुरुजनान्तिके । अम्लानप्रतिभादर्शसङ्क्रान्तसकलागमः ॥२७॥ पाअथाऽन्यदा वसुदेव-कंसादिपरिवारितम् । आगात् समुद्रविजयं स्वच्छन्दो नारदो मुनिः ॥२८॥
समुद्रविजयः कंसो वसुदेवोऽपरेऽपि च । अभ्युत्थाय तमानचुरुद्यन्तमिव भास्करम् ।।२९।। तेषां च पूजया प्रीतः क्षणं स्थित्वा च नारदः । उत्पपाताऽन्यतो गन्तुं स्वैरचारी सदा हि सः ॥३०॥ १. कालक्रमेण द्वितीयो ता० । २. तमवर्ध० खं० २ । ३. वसन्तोत्सवे । ४. तदा० ला० । ५. जवनिकया । ६. न्यषेद० मु० । ७. च मु० । ८. ०द्भूतेऽकाण्ड० मु० । ९. केशे खं० २ । १०. तथा मु० । ११. शकटम् । १२. लुठन्तीम् । १३. चक्क० मु० र० । १४. सारथिमग्रतः मु० । १५. चक्क० मु० र० । १६. हृष्ट्वा खं० २ । १७. ०कर्मण: ता०सं०ला० । १८. 'विश्ववल्लभो भविष्यामी'ति निदानकारी । १९. ०शुक्रदिवं मु० ।
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पञ्चमः सर्गः) ।
श्रीत्रिषष्टिशलाकापरुषचरितम् ।
पाकोऽसाविति च कंसेन पृष्टोऽवादीदिदं नृपः । पुरादस्माद् बहिर्यज्ञयशा: प्राक् तापसोऽभवत् ।।३१।। यज्ञदत्ता तस्य भार्या सुमित्रो नाम नन्दनः । अभूत् पत्नी सुमित्रस्य नाम्ना सोमयशा इति ॥३२॥ मध्याज्जृम्भकदेवानां देवश्च्युत्वाऽऽयुषः क्षये । आगात् सोमयशकुक्षौ सञ्जज्ञे चैष नारदः ॥३३॥ एकोहं तापसास्ते चोपोष्याऽहन्यपरे पुनः । उपेत्य वनमुञ्छन पारयन्ति सदाऽपि हि ॥३४।। तेऽन्यदा ययुरुञ्छायाऽशौकद्रौ न्यस्य नारदम् । ददृशुर्जुम्भकास्ते च तं बालमसमद्युतिम् ॥३५।। प्राग्जन्ममित्रमवधेत्विा ते नारदं तदा । अस्तम्भयन्नशोकस्य छायां तदुपरिस्थिताम् ॥३६।। ततो ययुः स्वकार्याय सिद्धार्था वलितास्तु ते । तं दृष्ट्वा जगृहु: स्नेहाद् वैताढ्याद्रौ च निन्यिरे ॥३७॥ तैर्देवैः स्तम्भितच्छायः सोऽशोकस्तत्प्रभृत्यपि । छायावृक्ष इति ख्यातो बभूव पृथिवीतले ॥३८॥ जुम्भकैः पालितो बालः स वैताढ्याद्रिकन्दरे । शिक्षितश्चाऽष्टवर्षः सन् विद्याः प्रज्ञप्तिकादिकाः ॥३९।। ताभिश्च व्योमगमनो नवमो नारदो मुनिः । एतस्यामवसर्पिण्यामयं चरैमविग्रहः ॥४०॥ मुनिना सुप्रतिष्ठेन त्रिकालज्ञानशालिना । उत्पत्तिर्नारदमुनेरियं हि कथिता मम ॥४१॥ कलिप्रियः प्रकृत्याऽयमवज्ञातश्च कुप्यति । एकत्र चाऽनवस्थायी सर्वत्राऽपि हि पूज्यते ॥४२॥ पाकंसेनाऽन्येधुराहूतः स्नेहादानकदुन्दुभिः । दशार्हेशमनुज्ञाप्य मथुरायां ययौ पुरि ॥४३॥ कंसस्तत्राऽन्यदा शौरिमूचे जीवयशोऽन्वितः । गरीयस्यस्ति नगरी नामतो मृत्तिकावती ॥४४॥ तस्यां मम पितृव्योऽस्ति देवको नाम भूपतिः । देवकी नाम तस्याऽस्ति देवकन्योपमा सुता ॥४५।। गत्वा परिणय त्वं तामेषोऽस्म्यनुचरस्तव । मा मे प्रणययाच्चाया अमुष्याः खण्डनं कृथाः ॥४६।। दाक्षिण्यनिधिरित्युक्तो दशार्हो दशमः स तु । चचाल सह कंसेन मार्गे चैक्षिष्ट नारदम् ॥४७।। विधिना शौरिकंसाभ्यामचितो नारदो मुनिः । प्रीतोऽपृच्छन् कुतो हेतोः कुत्र वा चलितौ युवाम् ? ॥४८।। उवाच शौरिः कंसेन सुहृदा चालितोऽस्म्यहम् । परिणाययितुं कन्यां देवकी देवकात्मजाम् ।।४९।। जगाद नारदः साधु कंसेनाऽऽरब्धमीदृशम् । निर्मायाऽप्यनुरूपाणां योगे धाताऽप्यपण्डितः ॥५०॥ रूपेणाऽप्रतिरूपस्त्वं वसुदेव ! यथा नृषु । नारीषु देवकसुता तथा सा खलु देवकी ॥५१॥ परिणीतास्त्वया बयः खेचर्योऽपि हि कन्यकाः । असारा मंस्यसे तास्तु नूनं “सम्प्रेक्ष्य देवकीम् ॥५२॥
अस्मिन्नुचितसंयोगे मा भूद् विघ्नः कुतोऽप्यतः । गत्वाऽऽख्यास्यामि देवक्यै वंसुदेव ! भवद्गुणान् ॥५३॥ पाइत्युक्त्वोत्पत्य स मुनिर्देवकीसदनं ययौ । तयाऽर्चितश्चाऽऽशीस्तेति वसुदेवो वरोऽस्तु ते ॥५४।। वसुदेवः क इत्युक्तस्तया स मुनिरब्रवीत् । युवा दशार्हो दशमो विद्याधरवधूप्रियः ॥५५।। किमन्यद् यस्य रूपेण तुल्या देवादयोऽपि न । वसुदेवः स इत्युक्त्वा नारदर्षिस्तिरोदधे ।।५६॥ युग्मम् । पातद्रीि हृदि देवक्या विवेशाऽऽनकदुन्दुभिः । औदितो मृत्तिकावत्यां पुर्यां तु क्रमयोगतः ।।५७|| देवकेनाऽचितौ तौ तु शौरि-कंसौ विवेकिनौं । आसयित्वाऽऽसनेऽनँधै पृष्टावागमकारणम् ॥५८।। कंसोऽप्यवोचदुचितां वसुदेवाय देवकीम् । प्रदापयितुमत्राऽऽगामिदमागमकारणम् ।।५९।। अवदद देवको नैष विधिः कन्यार्थमागमः । स्वयमेव वरस्येति दास्याम्यस्मै न देवकीम् ॥६०॥ एवं विलक्षौ तौ द्वाप्येयतः शिबिरं निजम् । अन्तःपुरं प्राविशत् तु देवकः पृथिवीपतिः ।।६।। पानमस्कृतोऽथ देवक्या देवकः परया मुदा । अनुरूपं वरं पुत्रि ! लभस्वेत्याशिषं ददौ ॥६२।। आख्यच्च देवको देव्यै वसुदेवाय देवकीम् । अद्य दापयितुं कंस उद्युक्तो मामयाचत ॥६३।। देवकी वसुदेवाय नाऽदां तद्विरहासहः । तच्छ्रुत्वा व्यषदद् देवी रुरोदोच्चैश्च देवकी ॥६४|| १. सोमयशा:० खं० २ । २. एकदिनम् । ३. धान्यकणादानेन । ४. ०याऽशोकाधो ता० सं० । ०याऽशोकांही की० ला० । ५. चरमशरीरः । ६. वसुदेवः । ७. मंस्यते ता०सं०ला० । मन्यसे मु० । ८. नूनं तां प्रेक्ष्य खं० २ । ९. रम्यानिव भ० खं० २ । १०. आशिषं ददौ । ११. तद्दिनाद् हृदि खं० २ । १२. आयातौ र० आगतो खं० २, ला० । आयातो खं० १, सू० । १३. विवेकिनौ खं० २ । १४. ०नये खं० १, ला० सू० । १५. वसुदेवस्य खं० २ । १६. द्वावपीयतुः खं० १-२, सू० विना ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
देवकोऽपि तयोर्भावं सम्यक्ज्ञात्वैवमब्रवीत् । अलं विषादेन युवां प्रष्टुं ह्यहमिहाऽऽगमम् ॥६५॥ देव्यप्यूचे वसुदेवो देवक्या उचितो वरः । पुण्यैरस्याः स्वयमसावागाद् वरणहेतवे ॥६६॥ इत्युक्तो देवकः कंस-वसुदेवौ स्वमन्त्रिणा । सद्यः 'सम्मानयामास स्वयं पूर्वापमानितौ ॥६७।। जज्ञे विवाह: पुण्येऽह्नि देवकी-वसुदेवयोः । तारेतारं गीयमानैर्नवैर्धवलमङ्गलैः ॥६८॥ देवको वसुदेवाय ददौ स्वर्णादि भूरिशः । दशगोकुलनाथं च नन्दं गोकोटिसंयुतम् ॥६९।। पादशाह-कंसौ मथुरामीयतुर्नन्दसंयुतौ । सुहृद्विवाहोपज्ञं चाऽऽरेभे कंसो महोत्सवम् ॥७०॥ पूर्वोपात्तव्रतश्चाऽतिमुक्तः कंसानुजो मुनिः । तप:कृशाङ्गः कंसौकस्यागात् पारणहेतवे ॥७१।। तदा जीवयशाः कंसपत्नी मद्यवशंवदा । साधूत्सवदिनेऽमुष्मिन् देवराऽसि समागतः ॥७२।। नृत्य गायन्मया सार्धमित्यादि बहुधा तया । कण्ठे लगित्वा स मुनिरकर्थि गृहस्थवत् ॥७३।। सोऽपि ज्ञानी शशंसैवं यन्निमित्तोऽयमुत्सवः । तद्गर्भः सप्तमो हन्ता पति-पित्रोस्त्वदीययोः ॥७४।। पातां वाचं स्फूर्जथुनिभां श्रुत्वा जीवयशा द्रुतम् । भयाद् गतमदावस्था तं मुमोच महामुनिम् ॥५॥ गत्वा कंसाय साऽऽचख्यौ कंसोऽप्येवमचिन्तयत् । मोघीभवेद वज्रमपि न पुनर्मनिभाषितम् ॥७६।। न यावत् कोऽपि जानाति तावदानकदुन्दुभिम् । सप्ताऽपि देवकीगर्भान् याचे स्वयम॑नागतम् ॥७७।। याचितो देवकीगर्भान् न चेद् दास्यति मे सुहृद् । तदाऽन्यथा यतिष्येऽहं यथा स्यात् क्षेममात्मनः ॥७८।। विचिन्त्यैवं मदावस्थां नाटयन्नमदोऽपि सः । जगामोपवसुदेवं दूराद् विरचिताञ्जलिः ॥७९॥ अभ्युत्थाय दशार्हस्तमर्हति स्म यथोचितम् । स्वपाणिना परामृश्य ससंभ्रममुवाच च ॥८०॥ सुहृत् ! प्राणप्रियो मेऽसि किञ्चिद् वक्तुमना इव । प्रेक्ष्यसे च तदाऽऽचक्ष्व यद् ब्रवीषि करोमि तत् ॥८१॥ जगाद प्राञ्जालिः कंसः कृतार्थोऽग्रेऽप्यहं सखे ! । जरासन्धाज्जीवयशोदापनेन कृतस्त्वया ।।८२।। सप्तैतो देवकीगर्भान जातमात्रान् माऽपयेः । वसुदेवोऽप्युजुमनास्तत् तथा प्रत्यपद्यत ॥८३॥ युग्मम् ॥ वृत्तानभिज्ञा देवक्यप्यभ्यधादेवमस्त्विदम् । वसुदेवसुतानां च त्वत्सुतानां च नाऽन्तरम् ॥८४।। त्वयैव ह्यावयोर्योगो व्यधायि विधिनेव भोः ! । किमद्याऽनधिकारीव हे कंस ! व्याकरोष्यदः ? ॥८५।। दशार्होऽप्यवदत् सुभ्र ! पर्याप्तं बहुभाषितैः । जातमात्राः सप्त गर्भाः कंसायत्ता भवन्तु ते ॥८६॥ प्रसादोऽयं ममेत्यूचे कंसः क्षीबोपदेशतः । समं दशार्हेण सुयं पीत्वा च स्वगृहं ययौ ।।८७।।
अश्रौषीन् मुनिवृत्तान्तं पश्चादानकदुन्दुभिः । कंसेन छलितोऽस्मोति सत्यवागन्वतप्यत ॥८८॥ पाइतश्च भद्रिलपुरे श्रेष्ठीभ्यो नाग इत्यभूत् । श्रेष्ठिनी सुलसा नाम परमश्रावकौ च तौ ॥८९॥
अतिमुक्तश्चारणर्षिः सुलसायास्तु शैशवे । आचख्यौ यदसौ बाला निन्दुरेव भविष्यति ॥९०॥ तया च तपसाऽऽराधि नैगमेषी हरेः सुरः । तुष्टश्च याचितः पुत्रानूचे ज्ञात्वा तु सोऽवधेः ॥९१।। अहं हि देवकीगर्भान् हन्तुं कंसेन याचितान् । निन्दोस्ते गर्भसञ्चारादर्पयिष्यामि धार्मिकें! ॥९२॥ इत्युक्त्वा निजशक्त्या स देवकी-सुलसे समम् । रजस्वले व्यधात् ते च समं गुव्यौ बभूवतुः ।।९३।। समं च सुषुवाते ते मृतं गर्भं च सौलसम् । सञ्चार्य देवकीगर्भं सुलसायाः सुरो ददौ ॥९४।। एवं तयोस्तु षड्गर्भान् स सुरः पर्यवर्तयत् । कंसोऽपि निन्दुगर्भीस्तान् दृषद्यास्फालयद् दृढम् ॥९४॥ षट् च ते देवकीगर्भाः सुलसायाः स्वपुत्रवत् । गृहे सुखमवर्धन्त तस्या एव स्तनन्धयाः ॥९६।।
नाम्नाऽनीकयशोऽनन्तसेनावजितसेनकः । निहतारिदेवयशाः शत्रुसेनश्च ते १२त्वमी ॥९७॥ पाअथ देवक्यूतुस्त्राता सिहां-ऽर्का-ऽग्नि-गज-ध्वजान् । विमान-पद्मसरसी निशान्ते स्वप्न ऐक्षत ॥९८।।
च्युत्वा शुक्राद् गङ्गदत्तस्तस्याः कुक्षाववातरत् । गर्भं च धारयामास रत्नमाकरभूरिव ॥९९।। १. समानयामास मु० । २. तारतारं मु० । ३. मानीतै० खं०२। ४. गाय मया मु०र० । ५.वजनि?षतुल्याम् । ६. ०मनागतान मु० । ७. सप्तैतान् ला०, सप्तैतो र० । ८. ममार्पय ता०सं०ला० पु० । ९. मत्तत्वमिषतः । १०. भद्दिल० मु०र० । ११. मृतवत्सा । १२. धार्मिकि ! खं० १, ला० सू० । १३. न्वमी खं० २ । १४. स्वप्नमै० मु० र० ।
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पञ्चमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
७७
पुत्रं नभः सिताष्टम्यां निशीथेऽसूत देवकी। कृष्णं सदेवसान्निध्यं शत्रुदृक्पातघातिनम् ॥१०॥ तद्गृह्या देवताः कंसायुक्तान् यामिकपूरुषान् । स्वशक्त्या स्वापयामासुरुपभुक्तविषानिव ॥१०१।। देवक्यवोचदाहय पर्ति कंसेन पाप्मना । अमित्रेण मित्ररूपेणाऽसि वाचा नियन्त्रितः ॥१०॥ जातं जातं सुतं मेऽसौ हन्ति तन्माययाऽप्यमुम् । रक्ष पुत्रं न मायाऽपि पाप्मने भ्रूणरक्षिणाम् ॥१०३।। नन्दस्य गोकुले नीत्वा मुञ्चेमं मम बालकम् । गृहे मातामहस्येव तत्र वर्धिष्यते ह्यसौ ॥१०४॥ साधु साध्विति तां जल्पन् स्नेहार्दो यदुपुङ्गवः । बालमादाय निरगात् तद्गृहात् सुप्तयामिकात् ॥१०५।। दधुस्तस्योपरि च्छत्रं पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे । उद्दण्डैरष्टभिर्दीपैर्मार्गोद्योतं च देवताः ॥१०६।। धवलर्षभरूपेण भूत्वाऽग्रे तस्य देवताः । द्वाराण्युद्घाटयामासुः पुर्या अन्यैरलक्षितम् ॥१०७॥ प्राप्तश्च गोपुरे शौरिरुग्रसेनेन भूभुजा । पृष्टश्च पञ्जरस्थेन किमेतदिति विस्मयात् ॥१०८॥ कंसस्य प्रत्यनीकोऽयमिति शौरिस्तमर्भकम् । दर्शयन्नुग्रसेनाय सहर्षमिदमभ्यधात् ॥१०९॥ त्वद्विषो निग्रहोऽमुष्मादमुष्माच्च तवोदयः । भविष्यति परं राजन्नाऽऽख्येयं कस्यचित् त्वया ॥११०॥ एवमस्त्विति तेनोक्ते शौरिनन्दगृहे ययौ । नन्दभार्या यशोदाऽपि तदैव सुषुवे सुताम् ॥१११।। सुतं दत्त्वा यशोदायै शौरिरादाय तत्सुताम् । आनीय देवकीपाश्र्वे सुतस्थानेऽमुचत् क्षणात् ॥११२॥ शौरिश्च निर्ययौ ते च प्रबुद्धाः कंसपूरुषाः । किं जातमिति जल्पन्तो ददृशुस्तत्र तां सुताम् ॥११३।। तां कंसस्याऽऽर्पयंस्तेऽथ दध्यौ कंसोऽपि यो मम । मृत्यवे सप्तमो गर्भः स स्त्रीमात्रमभूदसौ ॥११४॥ मन्ये मुनिवचो मिथ्याऽनया कि हतयेति सः । छिननाशापुटां कृत्वा देवक्यास्तां समार्पयत् ॥११५॥ पाकृष्णाङ्गत्वात् कृष्ण इति नाम्नाऽऽहूतः स बालकः । रक्ष्यमाणो देवताभिर्ववृधे नन्दवेश्मनि ॥११६।। देवकी तु गते मासे वसुदेवमभाषत । द्रष्टमुत्कण्ठिता पुत्रं तत्र यास्यामि गोकुले ॥११७।। ऊचे शौरिरकस्मात् त्वं यान्ती कंसेन लक्ष्यसे । उत्पाद्य कारणं तस्माद् गन्तुं देवकि ! युज्यते ॥११८॥ ततोऽन्विता बहुस्त्रीभिः सर्वतो गोपथेन गाः । अर्चन्ती गोकुलं गच्छेर्देवक्यपि तथाऽकरोत् ॥११९॥ श्रीवत्सलाञ्छितोरस्कं नीलोत्पलदलद्युतिम् । उत्फुल्लपुण्डरीकाक्षं चक्राद्यङ्ककर-क्रमम् ॥१२०॥ नीलरत्नमिवोन्मृष्टं यशोदोत्सङ्गवर्तिनम् । ददर्श हृदयानन्दं नन्दनं तत्र देवकी ॥१२१॥ युग्मम् ।। गोपूजाव्याजतो नित्यं ययौ तत्र च देवकी । ततः प्रभृति गोपूजाव्रतं प्रववृते जने ॥१२२॥ . तदा च पितृवैरेण सूर्पकस्याऽऽत्मजे उभे । वसुदेवापकारायाऽक्षमे शकुनि-पूतने ॥१२३॥ शाकिन्याविव पापिष्ठे यशोदा-नन्दवर्जितम् । कृष्णमेकाकिनं हन्तुमीयतुस्तत्र गोकुले ॥१२४॥ युग्मम् ॥ शकुनिः “शकटं चक्रे कृष्णोपरि कटुस्वरा । विषलिप्तं पूतना तु स्तनं कृष्णाननेऽक्षिपत् ॥१२५।। कृष्णसान्निध्यकारिण्यो देवतास्तत्क्षणादपि । तेनैव शकटेनोभे ते प्रहृत्य व्यपादयत् ॥१२६॥ नन्दस्तत्राऽऽगतोऽपश्यत् कृष्णमेकाकिनं स्थितम् । पर्यस्तं शकटं तच्च खेचौं ते च मारिते ॥१२७॥ मुषितोऽस्मीति जल्पंश्च कृष्णमड़े निधाय सः । साक्षेपमूचे गोपालान् पर्यस्तः शकटः कथम् ? ॥१२८॥ राक्षस्याविव रक्तस्ये के चैते गतजीविते ? । वत्सो ममाऽयमेकाकी स्वभाग्येनैव जीवितः ॥१२९॥ गोपा अप्यूचिरे स्वामिन् ! बालेन बलिना तव । पर्यस्तं शकटमिदमेते चैकेन मारिते ॥१३०॥ तच्छ्रुत्वा नन्द ऐक्षिष्ट सर्वेष्वङ्गेषु केशवम् । अक्षताङ्गं च तं प्रेक्ष्य यशोदामित्यभाषत ॥१३१॥ कथमेकाकिनं पुत्रं मुक्त्वा यास्यन्यकर्मसु ? । स्तोकान्मुक्तोऽयमद्यैवाऽपायेषु निपतन्निह ॥१३२।। सर्पिर्घटेष्वपि लठत्सृज्झित्वा कृष्णमेककम् । न त्वया क्वाऽपि गन्तव्यं पर्याप्तं तेऽन्यकर्मभिः ॥१३३।। इति श्रुत्वा यशोदाऽपि हा ! हताऽस्मीति भाषिणी । आघ्नाना पाणिना वक्षोऽभ्येत्य कृष्णमुपाददे ॥१३४।। १. श्रावण वदि ८ । २. तत्पक्षपातिनः । ३, स्थापया० खं० २ । ४. भ्रूणरक्षणात् मु० र० । ५. द्वारमुद्घा० ख० २ । ६. दुर्गद्वारे । ७. सूर्पनख्या० मु० विना सर्वप्रतिषु । ८. ०शकटारूढाधःस्थे कृष्णे कटु व्यरौत् खं० १, सू० विना । ९. पर्यस्तं शकटं ता०सं० । १०. रक्ताक्षे र० । ११. चैतेन खं० २। १२. नन्दः प्रैक्षिष्ट मु० र० । १३. संप्रेक्ष्य ता०सं०की० । १४. घृतघटेषु ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
न क्षतोऽसीति पृच्छन्ती सर्वाङ्गेक्षणपूर्वकम् । कृष्णं चुचुम्ब शिरसि यशोदा सस्वजे । तम् ॥ १२२ ॥ आदरेण यशोदा तं नित्यं स्वयमधारयत् । उत्साहशीलः कृष्णस्तु छलेनेतस्ततो ययौ ॥१३६॥ ||दाम्नोदरेऽन्यदा कृष्णं तद्दामान्तमुर्दूखले । बद्ध्वा तद्यानभीता सा प्रतिवेश्मगृहं ययौ ॥ १३७ || तदा च सूर्पकसुतो वैरं पैतामहं स्मरन् । तत्रैत्याऽन्योऽन्यमासन्नयमलार्जुनतां ययौ ॥१३८॥ कृष्णं सोलूखलं पेष्टुं स तयोश्चाऽन्तरेऽनयत् । भङ्क्त्वाऽर्जुनतरू जघ्ने कृष्णदेवतयाऽथ सः ॥१३९॥ कलभेनेव कृष्णेनोन्मूलितौ यमलार्जुनौ । इति गोपमुखात् श्रुत्वा नन्दोऽभ्यागाद् यशोदया || १४० || तौ धूलिधूसरं कृष्णं स्नेहन्मूर्धिन चुचुम्बतुः । दामोदरेत्यूचिरे च तं गोपा दामबन्धनात् ॥१४१॥ वल्लवैर्ववीभिश्च सोऽत्यन्तं प्राणवल्लभः । उरस्यङ्के शिरसि चाऽऽरोप्यते स्म दिवानिशम् ॥१४२॥ जग्राह दधिसाराणि मन्थनीभ्यः स चापलात् । अवार्यमाणः स्नेहाद्रैगपैस्तत्कौतुकेंक्षिभिः ॥१४३॥ व्याहरन् विहरन् वाऽपि प्रहरन्नाहरन्नपि । यशोदा - नन्द - गोपानामानन्दाय बभूव सः || १४४ || अपायभीतास्ते धर्तुं तं यान्तं जातु नाऽशकन् । अन्वयुः केवलं स्नेहगुणपाशनियन्त्रिताः ॥१४५॥ ||दशार्होऽप्यशृणोत् तेन हते शकुनि पूतने । पर्यस्तं शकटं भग्नौ तौ चाऽपि यमलार्जुनौ ॥१४६॥ चिन्तयामास चैवं स गोपितोऽपि मया सुतः । स्वौजसा प्रथमानोऽस्ति मा ज्ञासीत् कंस एष तम् ॥ १४७॥ ज्ञात्वाऽपि किंञ्च माऽलं” भूत् कर्तुं सोऽस्मिन्नमङ्गलम् । ततः कृष्णस्य साहाय्ये सुतेभ्यः प्रेषयामि कैम् ? ॥१४८॥ अक्रूराद्याः कूरबुद्धेः कंसस्य विदिती हि ते । आदेष्टुं साधु रामस्तदद्याऽप्यविंदितोऽस्य सः ॥१४९॥ निश्चित्यैवं कोशलाया रोहिणीं रामसंयुताम् । शौरिरानाय्य 'सम्भाष्य प्रैषीच्छौर्यपुरे पुरे ॥ १५० ॥ राममाहूय सोऽन्येद्युः कथयित्वा यथातथम् । शिक्षां दत्त्वा सुतत्वेनाऽर्पयन्नन्द-यशोदयोः ॥ १५१ ।। तौ द्वौ दशधनुस्तुङ्गौ रेमाते सुन्दराकृती । निर्निमेषं वीक्ष्यमाणौ गोपीभिर्मुक्तकर्मभिः ॥१५२॥ कृष्णोऽध्यैष्ट धनुर्वेदमन्या अप्यखिलाः कलाः । रामस्य पार्श्वे गोपोपनीतोपकरणः सदा ॥१५३॥ कदाचित् सुहृदौ भूत्वा शिष्याचार्यो कदापि तौ । विविधं विचिचेष्टाते क्षणमप्यवियोगिनौ ॥ १५४॥ गच्छतो मत्तवृषभान् पुच्छे जग्राह केशवः । रामो भ्रातृबलं जानन्नुदासीन इवैक्षत ॥ १५५ ॥ यथा यथा हि ववृधे कृष्णस्तत्र तथा तथा । गोपीनां मान्मथो जज्ञे विकारस्तन्निरीक्षणात् ॥१५६॥ तं मध्येकृत्य हँल्लीसं चक्रुर्गोपालयोषितः । भ्रमन्त्यः परितोऽम्भोजं भ्रमर्य इव निर्भरम् ॥१५७॥ तं पश्यन्त्यो यथा गोप्यो नयने न ह्यमीलयन् । कृष्ण ! कृष्णेति जल्पन्त्यस्तथैवोष्ठपुटे अपि ॥१५८॥ कृष्णे गतमनस्कत्वात् पतिता अपि दोहनीः । अजानन्त्यो गवां दोहं भुवि चक्रुः कदापि ताः ॥१५९॥ कृष्णं पराङ्मुखं यान्तं सम्मुखीकर्तुमाशु ताः । अस्थानेऽनाटयंस्त्रासं त्रस्तत्राणपरो हि सः ॥ १६० ॥ सिन्दुवारादिदामानि ग्रथित्वा गोपिकाः स्वयम् । स्वयंवरस्स्रज इव निदधुः कृष्णवक्षसि || १६१॥ स्खलितं गीत-नृत्तादौ चक्रुस्ता बुद्धिपूर्वकम् । कृष्णाच्छिक्षापदेशेन प्रसादालापलिप्सवः ॥१६२॥ येन तेन प्रकारेण जजल्पुः पस्पृशुश्च तम् । अगोपितविकारास्ता गोपेन्द्रं गोपयोषितः ॥ १६३॥ मयूरपिच्छाभरणः कृष्णो गोपालगूर्जरी: । गोपालीभिरविच्छिन्नं पूर्यमाणश्रुतिंगी ||१६४ || कृष्णोऽत्यगाधवारिस्थान्यपि पद्मानि लीलया । तरन् हंस इवोद्धृत्य गोपीभ्योऽदत्त याचितः ॥१६५॥ दृष्टो हरति नश्चित्तमदृष्टो जीवितं पुनः । भवद्भ्रातेत्युपालम्भं ददू रामाय गोपिकाः ॥१६६॥ गिरिशृङ्गस्थितो वेणुं वादयन् मधुरस्वरम् । नृत्यंश्च हासयामास रामं रामानुजो मुहुः || १६७ ||
७८
१. ० मुलूखले ला०ता०सं० । २. प्रातिवेश्मगृहे मु० र० । प्रतिवेशि० खं० १, ला०सू० । प्रतिवेश० खं० २ । ३. समीपस्थअर्जुनवृक्षद्वयताम् । ४. सोदूखलं मु० २० । ५. ०र्जुनतरून् खं० १, ला० । ६. मोहान्मूर्ध्नि मु० । ७. ०रेऽतस्तं गोपा० खं० २ । ८. ०केक्षुभि: मु० । ९. कंसो मा० खं० १ । १०. नाडलं ला०पु०पा०की० । ११. किम् खं० २ । १२. विदिताश्च ते मु० । १३. ० विदितोऽस्ति सः ता०सं० । १४. संलाप्य ता०सं० । १५ प्रैषीत् सूर्यपुरे ता०सं० । १६. कामस्य । १७. स्त्रीणां रासकः । १८. ‘दोणी' इति भाषायां दुग्धभाण्डम् । १९. ० नृत्यादौ मु० । २०. प्रासादा० खं० २ । २१. गोपालगीतिकाः । गुर्जरीम् खं० २ । २२. गोपिकाभि० ला० । २३. ०श्रुतिं जगौ खं० १ ।
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पञ्चमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । गायन्तीषु च गोपीषु कृष्णगोपे च नृत्यति । हस्ततालं ददौ रामो रङ्गाचार्य इवोद्भटः ॥१६८|| एवं च क्रीडतोस्तत्र गोपयो राम-कृष्णयोः । एकादश संमा जग्मुः सुषमाकालवत् सुखम् ॥१६९।। पाइतश्च श्रीं शौर्यपुरे समुद्रविजयप्रिया । शिवाऽपश्यन्निशाशेषे महास्वप्नांश्चतुर्दश ॥१७०।। गजो-क्ष-सिंह-श्री-दाम-चन्द्रा-के-ध्वज-वार्घटॉः । पद्मसरो-ब्धि-विमान-रत्नपुञ्जा-ऽग्नयस्तु ते ॥१७१।। तदा च कार्तिके कृष्णद्वादश्यां त्वौष्ट्रगे विधौ । च्युत्वाऽपराजितात् शङ्खः शिवाकुक्षाववातरत् ॥१७२।। नारकाणामपि सुखमुद्योतश्च जगत्त्रये । तदाऽभूदावश्यकं हि कल्याणेष्वर्हतीमदः ॥१७३।। प्रबुद्धा च शिवादेवी पत्युः स्वप्नान् शशंस तान् । स्वप्नार्थं प्रष्टुमाहूतः क्रोष्टुकिस्तत्र चाऽऽययौ ॥१७४।। चारणश्रमणश्चैकस्तत्र स्वयमुपाययौ । नृपेणोत्थाय सोऽवन्दि न्यषादि च महासने ॥१७५॥ सक्रोष्टकिर्मुनिः पृष्टो राज्ञा स्वप्नफलं तदा । आख्याद् यत् ते सुतो भावी तीर्थकृत्रिजगत्पतिः ॥१७६॥ इत्याख्याय जगामर्षी राजा राज्ञी च तौ मुदम् । बिभराञ्चक्रतुर्भूरि स्नाताविव सुधारसैः ॥१७७|| देवी च धारयामास गर्भं गूढं सुखावहम् । प्रत्यङ्गमपि लावण्य-सौभाग्योत्कर्षदायिनम् ॥१७८॥ श्रावणश्वेतपञ्चम्यां निशीथे त्वाष्ट्रगे विधौ । सा देवी सुषुवे सूनुं कृष्णाभं शङ्खलाञ्छनम् ॥१७९।। पषट्पञ्चाशद्दिक्कुमार्यः स्वस्वस्थानेभ्य एत्य ताः । चक्रिरे सूतिकर्माणि शिवादेवी-जिनेन्द्रयोः ॥१८०॥ एत्य शक्रः पञ्चरूपो रूपेणैकेन च प्रभुम् । आददे चामरे द्वाभ्यामेकेन च्छत्रमुज्ज्चलम् ॥१८१।। एकेनोल्लालयन् वज्रं वैल्गन्नतकवत् पुरः । जगाम मेरुशिखरेऽतिपाण्डुकम्बलां शिलाम् ॥१८२।। युग्मम् ॥ स्वाड़े स्वामिनमारोप्य सिंहासन इवोच्चकैः । अधिसिंहासनं तत्र निषसाद पुरन्दरः ।।१८३।। अथाऽच्युतप्रभृतयः सुरेन्द्रास्तत्र च क्षणात् । जिनेन्द्रं स्नपयामासुस्त्रिषष्टिरपि भक्तितः ॥१८४॥ ईशानाङ्के स्थापयित्वा शक्रोऽपि स्वामिनं ततः । विधिनाऽस्नपयद् दिव्यैश्चाऽऽनर्च कुसुमादिभिः ।।१८५।। विधायाऽऽरात्रिकं भर्तुः प्रणम्य च कृताञ्जलिः । इति स्तोतुं समारेभे भक्तिनिर्भरवाग् हरिः ॥१८६।। पा"शिवगामिन् ! शिवाकुक्षिशुक्तिमुक्तामणे ! प्रभो ! । शिवानामेकनिलय ! भगवंस्त्वं शिवङ्करः ॥१८७।। तुभ्यमभ्यर्णमोक्षाय 'समक्षाशेषवस्तवे । विविधद्धिनिधानाय द्वाविंशायाऽर्हते नमः ॥१८८।। हरिवंशः पवित्रोऽयं पवित्रा भारती च भूः । यस्मिश्चरमदेहस्त्वमवातारीजगद्गुरो ! ॥१८९।। कृपया एक आधारो ब्रह्मणश्चैकमास्पदम् । ऐश्वर्यस्याऽऽश्रयश्चैकस्त्वमेव त्रिजगद्गुरो ! ॥१९०॥ भवतो दर्शनेनैवाऽतिमहिम्ना जगत्पते ! । देहिनां मोहविध्वंसाद् देशनाकर्म सिध्यति ॥१९१।। विनैवं कारणं त्राता विना हेतं च वत्सलः । विना निमित्तं भर्ता त्वं हरिवंशैकमौक्तिक ! ||१९२।। अद्याऽपराजितादेतद् भरतक्षेत्रमुत्तमम् । शर्मणे यत्र लोकस्य बोधिदस्त्वमवातरः ॥१९३॥ नित्यं भजन्तु त्वत्पादा मानसे मम हंसताम् । चरितार्था भवतु च त्वद्गुणस्तवनेन गी:" ॥१९४।। इति स्तुत्वा जगन्नाथमादाय च पुरन्दरः । मुमोच श्रीशिवादेवीपार्वे नीत्वा यथास्थिति ॥१९५|| स्वामिनेऽप्सरसो धात्री पञ्चाऽऽदिश्याथ वासवः । कृत्वा नन्दीश्वरे यात्रां निजं स्थानमुपाययौ ॥१९६॥ पाप्रातरर्कमिवोद्यन्तं प्रेक्ष्य सूनुं महाद्युतिम् । जन्मोत्सवं प्रमुदितः समुद्रविजयोऽकरोत् ॥१९७।। स्वप्ने रिष्टमयी दृष्टा चक्रधाराऽत्र गर्भगे । मात्रा तस्याऽरिष्टनेमिरित्याख्यां तत्पिता व्यधात् ।।१९८।। अरिष्टनेमिनो जन्म श्रुत्वा हर्षप्रकर्षतः । मथुरायां वसुदेवादयश्चक्रुर्महोत्सवम् ॥१९९।। वसुदेवगृहेऽन्येधुर्देवकी "द्रष्टुमापतन् । तां छिन्नैकघ्राणपुटां कंस: कन्यामदैवत ॥२००।। भीतोऽथ कंसो वेश्मैत्याऽप्रच्छन्नैमित्तिकोत्तमम् । सप्तमाद् देवकीगर्भान्मुनिनोक्तं वृथाऽर्थ न? ॥२०१।।
१. दधौ ता०सं०पु०ला०छा०आ० । २. वर्षाणि । ३. श्रीसूर्यपुरे पु० ता० सं० मु० । ४. पूर्णकुम्भः । ५. चित्रानक्षत्रस्थिते । ६. र्हतां यत: खं० २ । ७. आख्यद् य० खं० २ । आख्यच्च ते ला० । ८. बलानर्त० मु० । नृत्यम् । ९. इन्द्रः । १०. कल्याणानाम् । ११. प्रत्यक्षाणि समग्रवस्तूनि यस्य तस्मै । १२. कृपानामेक ता०सं० । १३. ब्रह्मचर्यस्य । १४. विनैककारणं खं० १ । १५. स्वामिनो० खं.१-२, ला० विना। १६. द्रष्टुमागतः ला०मु० । १७. वृथाथ तत् खं० १, सू० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट न मृषा ऋषिभाषितम् । सप्तमो देवकीगर्भः क्वचिदस्ति तवाऽन्तकृत् ।।२०२॥ अरिष्टो यस्तवोक्षोऽस्ति केशी नाम महाहयः । खरमेषौ च दुर्दान्तौ मुञ्च वृन्दावनेऽथ तान् ॥२०३।। 'गिरिसारानप्यमून् यस्तत्र क्रीडन् यदृच्छया । हनिष्यति स हन्ता ते देवक्याः सप्तमः सुतः ॥२०४।। अन्यच्च यत् क्रमायातं शार्गं धन्व त्वदोकसि । पूज्यमानं त्वज्जनन्या स एवाऽऽरोपयिष्यति ।।२०५।। आख्यातं ज्ञानिना यत् तद् भविष्यति भविष्यतः । दोष्मतो वासुदेवस्य दुःस्पर्शमितरैर्जनैः ॥२०६॥ कालियाहेः स दमकश्चाणूरस्य च घातकः । पद्मोत्तरं चम्पकं च हनिष्यति तव द्विपौ ।।२०७।। स्वारिं ज्ञातुमथो कंसोऽरिष्टादीनमुचद् वने । चाणूर-मुष्टिको मल्लावादिदेश श्रमाय च ॥२०८।। तदा शरद्यरिष्टोक्षा स रिष्टमिव मूर्तिमत् । अन्तर्वृन्दावनं गर्जन् गोपलोकमुपाद्रवत् ॥२०९॥ शृङ्गाग्रेणों द्दधे गाः स तटीपङ्कमिवोच्चकैः । तुण्डाग्रेणाऽलोठयच्च सपिर्भाण्डान्यनेकशः ॥२१०॥ . त्रायस्व कृष्ण ! कृष्णेति राम ! रामेति चोच्चकैः । अतिदीनो वल्लवानां तदा कलकलोऽभवत् ।।२११॥ रामेण सह गोविन्दः किमेतदिति सम्भ्रमात् । धावितः पुरतोऽद्राक्षीत् तमुक्षाणं महौजसम् ॥२१२॥ कश्चिदर्थो न नो गोभिन चाऽऽज्यैरपि तिष्ठ तत् । इति वृद्धैनिषिद्धोऽपि कृष्ण आह्वास्त तं वृषम् ।।२१३।। विषाणे उन्नमय्योच्चैराकुञ्चितमुखो रुषा । उत्पुच्छयमानोऽरिष्टो गोविन्दायाऽभ्यधावत ॥२१४।। तं शृङ्गयोर्गृहीत्वाऽऽशु वालयित्वा च तद्गलम् । विधाय च निरुच्छासमरिष्टमवधीद्धरिः ॥२१५।।
मृत्याविव मृति नीतेऽरिष्टे हृष्टाः समन्ततः । आनर्चुवल्लवाः कृष्णं सतृष्णास्तन्निरीक्षणे ॥२१६।। पाकृष्णस्य क्रीडतोऽन्येधुः केशी कंसकिशोरकः । कीनाश इव दुष्टाशो विवृतास्यः समाययौ ॥२१७।।
दन्तैर्वत्सतरान् गृह्णन्निघ्नन् गोगंभिणीः खुरैः । भीषणं हेषमाणश्च स कृष्णेनाऽत्यतय॑त ॥२१८।। जिघत्सोः प्रसृते तस्य दन्तक्रकचदारुणे । मुखे वज्रोपमं बाई 'वलयित्वा हरिय॑धात् ।।२१९।। आग्रीवं बाहुना तेन तथाऽदार्यत तन्मुखम् । परासुः स यथा जज्ञेऽरिष्टसार्थ इवोत्सुकः ॥२२०॥ कंसस्य खर-मेषौ तु तत्राऽटन्तौ खरौजसौ । अन्येधुर्लीलया कृष्णो निजघान महाभुजः ॥२२१।। तानाकर्ण्य हतान् कंसः सम्यक् स्वारिं परीक्षितुम् । शार्गं पूजोत्सवव्याजात् स्थापयामास पर्षदि ॥२२२।। तस्य चोपासिकां सत्यभामां "जामि कुमारिकाम् । चक्रे सदा सन्निहितामुत्सवं च प्रचक्रमे ॥२२३।। एवं चाऽघोषयत् कंसो यः शार्गमधिरोपयेत् । सत्यभामामहं तस्मै दास्ये सुरवधूपमाम् ॥२२४।।
श्रुत्वेदं तत्र सम्प्रापुर्दूरादपि महीभुजः । न चाऽऽरोपयितुं धन्वाऽलम्भूष्णुः कश्चिदप्यभूत् ॥२२५।। पातच्छ्रुत्वा मदनवेगानन्दनो वसुदेवजः । अनाधृष्टिर्वीरमानी वेगिनं रथमास्थितः ॥२२६।।
आगच्छन् गोकुले तत्र राम-कृष्णौ युतावुभौ । प्रेक्ष्योवास निशामेकामालपन् लालयंश्च तौ ॥२२७॥ प्रातश्च रथमारुह्याऽनुजं रामं विसृज्य च । सोऽचलत् कृष्णमादाय मथुरामार्गदर्शकम् ॥२२८॥ मार्गे महाद्रुसङ्कीर्णे विलग्नस्तद्रथो वटे । तं च मोचयितुं नाऽलमनाधृष्टिर्बभूव सः ॥२२९।। पत्तिस्तत्र व्रजन् कृष्णो लीलयोन्मूल्य तं वटम् । चिक्षेपाऽन्यत्र तदनु रथाध्वानमृगँ व्यधात् ॥२३०॥ अनाधृष्टिस्ततो हृष्टः प्रेक्ष्य तं तस्य विक्रमम् । उत्तीर्य परिरेभे तं रथे चाऽऽरोपयत् स्वयम् ॥२३१।। क्रमादुत्तीर्य कालिन्दी प्रविश्य मथुरां च तौ । तामनेकागतनृपां धनुष्पर्षदमीयतुः ॥२३२॥ पाअभ्यर्णे धनुषस्तस्याऽधिष्ठात्रीमिव देवताम् । तौ तां ददृशतुः सत्यभामामम्भोजलोचनाम् ॥२३३।।
कृष्णं सतृष्णं पश्यन्ती सत्यभामाऽपि तत्क्षणम् । तं वरं मनसा वने मनोभवशरातुरा ॥२३४॥ १. वृषभः । २. पर्वतान् इव बलवन्तः । ३. स्वकीयशत्रुम् । ४. अमङ्गलम् । ५. ०ग्रेणोत्क्षिपन् खं० १ । ६. मुखाग्रेण । ७. किसोरक: खं० २, ला० । अल्पवया हयः । ८. गावश्च ताः गभिण्यश्च गोगभिण्य: ताः । ९. दन्ता एव क्रकचः तेन दारुणे ॥ १०. वालयित्वा ता०सं०छा०की० ला०र०, खं० १-२, ला०सू०विना । ११. गर्दभ-मेण्ढकौ । १२. तीक्ष्णमोजो ययोस्तौ । १३. भगिनीम् । १४. कृष्णम्। १५. पथि तत्र खं० २ । कृष्णो मार्गदर्शकत्वेन पद्भ्यां चलन्नासीदिति गम्यते । १६. दधे पु० । १७. कामबाणेन पीडिता ।
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पञ्चमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अनाधृष्टिरथोपेत्योद्धरन्नपि हि तद्धनुः । पपात पिच्छिलभ्रश्यत्पाद उष्ट्र इवाऽवनौ ॥२३५॥ तं शीर्णहारं निष्पिष्टमुकुटं भ्रष्टकुण्डलम् । सत्यभामा ताल्यश्चाऽन्ये च स्मेरदृशोऽहसन् ।।२३६।। तत्प्रहासासहः सद्यस्तद्धनुः पुष्पदामवत् । दामोदर उपादत्ताऽधिज्यीचक्रे च हेलया ॥२३७|| तेन कुण्डलितेनाऽभाद् धनुषोद्दामतेजसा । औखण्डलधनुर्दण्डेनेव वार्षुकवारिदः ॥२३८।।
अनाधृष्टिः पितुर्वेश्म गत्वा तद् द्वारि केशवम् । मुक्त्वा रथस्थं मध्येऽगादिति पित्रे शशंस च ॥२३९।। पाशार्गं धन्व मया तातैकाकिनाऽप्यधिरोपितम् । यदन्यैः पार्थिवैः स्प्रंष्टमप्यशक्यत न क्वचित् ।।२४०।। साक्षेपो वसुदेवस्तमूचे याह्यविलम्बितम् । त्वां धन्वारोपिणं ज्ञात्वा कंसो व्यापादयिष्यति ॥२४१॥ आकर्ण्य तदनाधृष्टिीतो निर्गत्य वेश्मतः । जगाम सह कृष्णेन त्वरितं नन्दगोकुले ॥२४२।। आपृच्छय राम-गोविन्दौ सोऽथ शौर्यपुरे ययौ । प्रवादश्चेत्यभून्नन्दपुत्रेणाऽऽरोपितं धनुः ॥२४३॥ चापाधिरोपणाद् दून: कंसश्चापमहोत्सवम् । अपदिश्य नियुद्धाय मल्लान् सर्वान् समादिशत् ॥२४४।। वसुदेवेन चाऽऽहूताः कंसदुर्भाववेदिना । सर्वेऽपि स्वाग्रजाः सर्वेऽप्यक्रूराद्याश्च सूनवः ॥२४६।। कंसेनाऽपि हि सत्कृत्य मञ्चेषूच्चतरेषु ते । उपावेश्यन्त भास्वन्त इव तेजोभिरुद्भटाः ।।२४७।। मल्लयुद्धोत्सवं श्रुत्वा राम कृष्णोऽब्रवीदिति । तत्राऽऽवामार्य ! गच्छावः पश्यावो मल्लकौतुकम् ।।२४८।। पाप्रतिपद्य च तद रामो यशोदामित्यभाषत । प्रगणीकरु नौ स्नानं यियास्वोर्मथरां परीम ॥२४९।। तां किञ्चिदलसां प्रेक्ष्य साक्षेपमवदद् बलः । गोविन्दस्य भ्रातृवधाख्यानप्रस्तावनाकृते ॥२५०॥ अयि ! किं विस्मृतः प्राच्यो दासीभावस्तवाऽधुना ? । अस्मदीयं यदादेशं नाऽनुतिष्ठसि सत्वरम् ।।२५१।। विच्छायं वचसा तेन कृष्णमादाय सीत्वतः । नद्यां निनाय स्नानाय यमुनायां वशंवदम् ॥२५२।। तमुवाच च किं वत्स ! विच्छाय इव दृश्यसे ? । प्रावृषेण्याम्बुदमरुत्संस्पृष्ट इव दर्पण: ।।२५३॥ बलदेवं जगादैवं गोविन्दो गद्गदाक्षरम् । किं मे माता त्वया भ्रातर्दासीत्याक्षिप्य जल्पिता ? ||२५४|| रौमाभिरामं रामोऽपि निजगाद जनार्दनम् । न ते यशोदा जननी नन्दश्च जनको न वा ॥२५५॥ किन्तु ते देवकी माता सा देवकनृपात्मजा । विश्वकवीर ! सुभगो वसुदेवश्च ते पिता ॥२५६॥ मासे मासे दिदृक्षुस्त्वां स्तन्यसिक्तमहीतला । गोपूजाव्याजतोऽत्रैति देवकी साश्रुलोचना ॥२५७।। उपरोधेन कंसस्य मथुरायामवस्थितः । वसुदेवोऽस्ति नौ तातो दाक्षिण्यैकमहोदधिः ।।२५८॥ वैमात्रेयोऽग्रँजस्तेऽहं त्वदपायाभिशङ्किभिः । तातपादैः समादिष्टस्त्वां रक्षितुमिहाऽऽगमम् ॥२५९।। किं पित्राऽहमिह क्षिप्त इति पृष्टोऽनुजन्मना । कंसोपज्ञं स आचख्यौ सर्वं भ्रातृवधादिकम् ॥२६०॥ तच्छ्रुत्वा कुपितः कृष्णः कृष्णवर्मेव दारुणः । प्रत्यज्ञासीत् कंसवधं नद्यां स्नातुं विवेश च ॥२६१।। पाकंसस्येव प्रियसुहृद् दष्टुकामो जनार्दनम् । कालिन्दीजलमग्नाङ्गः कालियोऽहिरधावत ।।२६२।। तत्फणामणिविद्योतात् किमेतदिति वादिनि । रामे कृष्णः समुत्थाय तमुत्पलमिवाऽऽददे ॥२६३॥ घ्राणे नलिननालेन सोऽहिौरिव नस्तितः । उपर्यारुह्य कृष्णेन वाहितश्च चिरं जले ॥२६४।। निर्जीवमिव तं खिन्नं मुक्त्वा कृष्णोऽथ निर्ययौ । एत्य सौनातिकैविप्रैः परिवत्रे च कौतुकात् ।।२६५।। पाततः परिवृतौ गोपै राम-कृष्णौ महौजसौ । चेलतुः प्रति मथुरां प्रपेदाते च गोपुरम् ॥२६६॥ कंसादिष्टमहामात्रप्रेरितौ तत्र च द्विपौ । पद्मोत्तरश्चम्पकश्चाऽधावतां सन्मुखं तयोः ॥२६७।।
दन्तोत्खननमष्टयादिघातैः पद्मोत्तरं गजम । कष्णोऽवधीत् सिंह इव बलभद्रस्तु चम्पकम् ॥२६८।। १. पिच्छिल आर्द्रपङ्के भ्रश्यन्तौ पादौ यस्य सः । २. तत्सख्यः, च दास्यश्चान्ये ला० । ३. इन्द्रधनुर्दण्डेन । ४. वर्षक० खं० १, ला० । वर्षक० सू० । ५. शार्गधन्व मु० र० । ६. स्पष्टुमण्य० पु०ला०छा०आ०की० । ७. सूर्यपुरे ता०सं० । ८. व्याजात् । ९. बाहुयुद्धाय । १०. च० मु० । ११. उद्विग्नम् । १२. बलदेवः । १३. वशंवदः मु० । १४. वनिताभिरामम्, सामाभिरामम् ता०सं०की०पा०ला० । १५. च मु० र० । १६. अपरमातुः पुत्रः । १७. ज्येष्ठभ्राता । १८. अग्निः । १९. नलिनीनालेन मु० र० । २०. नस्थितः मु० । नाथितः । २१. सुस्नातं पृच्छन्तीति सौनातिकाः ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तौ नन्दनन्दनावेतावरिष्टादिनिघातिनौ । इत्यन्योऽन्यं दर्श्यमानौ नागरैर्गुरुविस्मयैः ।।२६९॥ नील-पीताम्बरधरौ वनमालाधरावुभौ । गोपावृतौ राम-कृष्णावंक्षवाटमुपेयतुः ॥२७०।। युग्मम् ॥ तत्रैकस्मिन् महामञ्चे जनमुत्सार्य तत्स्थितम् । निःशङ्कौ सपरीवारौ भ्रातरौ तौ निषेदतुः ॥२७१।। तं शत्रु दर्शयामास कंसं कृष्णाय सात्वतः । अनुज्येष्ठं पितुंस्तांश्च समुद्रविजयादिकान् ।।२७२।।
को न देवोपमावेतावित्यन्योऽन्यविमशिनः । तौ प्रेक्षाञ्चक्रिरे भूपा मञ्चस्था नागराश्च ते ॥२७३।। पाकंसाज्ञया युयुधिरे तत्र मल्ला अनेकशः । तत्प्रेरितश्च चाणूर उदस्थात् पर्वताकृतिः ॥२७४।।। सोर्ज पर्जन्यवद् गर्जन् करास्फोटं विधाय च । आक्षिपन् क्ष्माभुजः सर्वांश्चाणूरोऽवोचदुच्चकैः ॥२७५।। यः कोऽपि जातो वीरेण वीरमानी च कोऽपि यः । नियुद्धयुद्धश्रद्धां मे स पूरयतु दुर्धरः ॥२७६।। कृष्णोऽसहिष्णुस्तं दर्पं चाणूरस्याऽतिगर्जतः । मञ्चादुत्तीर्य विदधे भुजास्फोटं महाभुजः ॥२७७।। गोविन्दस्य करास्फोटः पुच्छाच्छोटो हरेरिव । "आस्फोटयदिव द्यावा-पृथिव्यावुद्भटध्वनिः ॥२७८।। वयसा वपुषा चैर्ष गरिष्ठः श्रमकर्कशः । नियुद्धजीवी चाणूरः सदा करश्चम॒रुवत् ॥२७९॥ अयं दुग्धमुखो मुग्धो मृदुः पद्मोदरादपि । वनवासादनभ्यासो न युद्धं युज्यतेऽनयोः ॥२८०॥ असमञ्जसमेतद्धि धिगहो ! विश्वगर्हितम् । इत्युच्चैर्भाषमाणानां लोकानां तुमुलोऽभवत् ।।२८१॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ पाअथ क्रुद्धोऽवदत् कंस: केनेहाऽऽकारिताविमौ । गोपालौ गोपयःपानमत्तौ ? किन्त्वागतौ स्वयम् ॥२८२॥
युध्यमानौ स्वयं चैतौ को नामेह निषेधति ? । यस्य पीडाऽनयोश्चाऽस्ति पृथग्भूत्वा स जल्पतु ॥२८३।। युग्मम् ।। इति कंसवचः श्रुत्वा तूष्णीकोऽभूज्जनोऽखिलः । स्मेरनेत्रारविन्दश्च गोविन्द इदमभ्यधात् ॥२८४।। राजपिण्डेन पुष्टोऽयं कृताभ्यासश्च सर्वदा । समर्थश्च शरीरेण चाणूरो मल्लकुञ्जरः ॥२८५।। मया गोपालबालेन गोपयःपानजीविना । हरिपोतेन हस्तीव हन्यमानोऽद्य दृश्यताम् ॥२८६।। युग्मम् ।। कंसस्तत्सौष्ठवाद भीतो यगपद्यद्धहेतवे । द्वितीयं मुष्टिकं नाम महामल्लं समादिशत् ॥२८७।।
उत्थितं मुष्टिकं दृष्ट्वा मञ्चादुत्तीर्य सात्वतः । नियुद्धाय तमाह्वास्ताऽविंहस्तो रणकर्मणि ॥२८८।। पाततश्च कृष्ण-चाणूरौ तौ चोभौ राम-मुष्टिको । नियों द्धं प्रववृताते नागपाशोपमैर्भुजैः ॥२८९।। तेषां दृढपदन्यासैरङ्कम्पिष्टेव मेदिनी । पुस्फोटेव करास्फोर्टरवैर्ब्रह्माण्डमण्डपः ॥२९०॥ तौ च मुष्टिक-चाणूरावुत्क्षिप्य तृणपूलवत् । क्षिप्तौ खे राम-कृष्णाभ्यां पश्यन्तो जहषुर्जनाः ।।२९१।। चाणूर-मुष्टिकाभ्यां च मनागपि हि तौ भटौ । उत्क्षिप्यमाणौ सम्प्रेक्ष्य लोको म्लीयन्मुखोऽभवत् ॥२९२।। दृढमुष्ट्या च चाणूरं ताडयामास केशवः । दन्तीव तरसी दन्तमुशैलेन शिलोच्चयम् ॥२९३॥ मानदो जयमांनोऽथ चाणूरोऽरिष्टसूदनम् । जघानोरःस्थले मुष्ट्या वज्रगोलसमौजसा ॥२९४।। मदेनेव लुलदृष्टिस्तेन घातेन पीडितः । अधोक्षजो मीलिताक्ष: पपात पृथिवीतले ॥२९५।। कंसेन प्रेरितो दृष्ट्या चाणूरश्छलवेदिना । हन्तुं विसंज्ञं गोविन्दं पाप: पुनरधावत ।।२९६।। जिघांसुं तं बलो ज्ञात्वा सद्योऽभ्युत्सृष्टमुष्टिकः । अताडयत् प्रकोष्ठेने पतद्वज्रानुहारिणा ॥२९७।। चाणूरस्तेन घातेन सप्त चापानपासरत् । कृष्णोऽपि हि समाश्वस्य पुनराह्नते' तं युधे२ ॥२९८।। मध्येमाक्रम्य जानुभ्यां शीर्ष दोष्णाऽऽनमय्य च । जघान मुष्ट्या गोविन्दश्चाणूरं गुरुविक्रमः ॥२९९।।
चाणरो वान्तरुधिरधारो विधुरलोचनः । कृष्णेन मुमुचे भीतैरिव प्राणैरपि क्षणात् ।।३००।। १. मल्लयुद्धस्थानं 'अखाडो' इति भाषायाम् । २. कौ तु खं० १, ला०म० र. । ३. सोगं मु० । ४. सिंहस्येव । ५. अस्फोट० मु० र० । ६. चैव खं० २ । ७. मृगविशेषः । ८. ०मेतद् धिग् मु० २० । ९. ०माह्वास्त वि० मु० र० । अविहस्त:-अव्याकुलः, सज्जः । १०. नियुद्धं ला०पु० आ० । ११. ०स्फोटरावै० ख० २ । १२. म्लानमुखो० मु० र० । १३. वेगेन । १४, ०मुसलेन खं० २, सू० । १५. ०मानी च मु० र० । जायमानोऽथ 'र०' स्वीकृतप्रतिषु । १६. कृष्णः । १७. च महीतले पु० । १८. जिघांसन्तं खं० १२, ला०सू० । १९. मुष्टिकमल्लं त्यक्त्वा । २०. 'पहोंचो' इति भाषायाम् । २१. पुनराह्वात मु० र० । २२. युधि मु० र० । २३. मध्यं कटिप्रदेशं जानुभ्यामाकम्य, बाहुना शीर्षमानमय्य ।
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पञ्चमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कंसोऽथ भय-कोपाभ्यां वेपमानोऽब्रवीदिति । अरे ! गोपब्रुवावेतौ मार्यतामविलम्बितम् ॥३०१॥ येनैतौ पोषितौ सौ तं नन्दमपि रे ! हत । आदाय तस्य सर्वस्वमिहाऽऽनयत दुर्मतेः ॥३०२।। तद्गुह्योऽन्योऽपि यः कश्चित् तस्य त्राताऽन्तरे भवेत् । समानदोषः सोऽप्याशु निहन्तव्यो मदाज्ञया ॥३०३।। अथोचे पुण्डरीकाक्षोऽरुणाक्षः कोपसम्भ्रमात् । मृतंमन्योऽसि नाऽद्यापि त्वं चाणूरे हतेऽपि हि ? ॥३०४।। तावद् रक्ष त्वमात्मानं हन्यमानं मयाऽद्य रे ! । पश्चात् स्वामर्षसदृशं नन्दादिषु समादिशेः ॥३०५॥ इत्युक्त्वोत्पत्य गोविन्दो मञ्चमारुह्य तत्क्षणात् । संगृह्य कंसं केशेषु पृथिव्यां पर्यपातयत् ॥३०६।। विशीर्णमुकुट स्रस्तान्तरीयं तरलेक्षणम् । सूनाबद्धं पशुमिव तमुवाच जनार्दनः ॥३०७॥ त्वया कृता भ्रूणहत्या स्वरक्षार्थं वृथैव रे? । इदानीं न भवस्येष स्वकर्मफलभाग्भव ॥३०८।। *आत्तरूप इव 'व्याले धर्तकंसे हरौ तदा । विसिष्मिये च बिभयाञ्चकार च जनोऽखिलः ॥३०९॥ अथ यौक्त्रिकबन्धेनाऽनुच्छासीकृत्य मुष्टिकम् । यज्ञोपनीताजमिव वीरो नीलाम्बरोऽवधीत् ।।३१०॥ इतश्च कंसरक्षार्थं कंसगृह्या महाभटाः । कृष्णं हन्तुमधावन्त विविधायुधपाणयः ॥३११।। मञ्चस्तम्भमथोद्धृत्य रामस्तान् परिताडयन् । द्रुतं विद्रावयामास मधुस्था मक्षिका इव ॥३१२।। कृष्णोऽपि पादं शिरसि न्यस्य कंसं व्यपादयत् । कैशैः कृष्ट्वाऽक्षिपद् रङ्गाद् बहिस्तं दाविवाऽर्णवः ।।३१३।। पाकंसेन पूर्वमानीता जरासन्धस्य सैनिकाः । तदा संवर्मयामासू राम-कृष्णजिघांसया ॥३१४॥ तांश्च सन्नह्यतः प्रेक्ष्य समुद्रविजयो नृपः । सन्नह्याऽढौकयद् युद्धे तदर्थं हि तदागमः ॥३१५।। द्राक् समुद्र इवोद्वेले समुद्रविजये नृपे । दिशोदिशं ययुनँष्ट्वा जरासन्धस्य सैनिकाः ॥३१६।। राम-कृष्णावनाधृष्टिरारोप्य स्यन्दने निजे । समुद्रविजयादेशाद् वसुदेवगृहेऽनयत् ॥३१७॥ सर्वेऽपि यदैवस्तत्र समुद्रविजयादयः । वसुदेवगृहे गत्वा दैत्त्वाऽऽस्थानीमुपाविशन् ॥३१८|| अर्धासनासितबल: स्वाङ्कमारोप्य केशवम् । मुहश्चचुम्ब शिरसि वसुदेवोऽश्रलोचनः ।।३१९।। किमेतदिति सोदर्यैः पृष्ट आनकदुन्दुभिः । कृष्णवृत्तान्तमाचख्यावतिर्मुक्तेतिवृत्तत: ॥३२०॥ ततः समुद्रविजयः स्वोत्सङ्गे कृष्णमादधे । रामं तत्पालनप्रीतः प्राशंसच्च मुहुर्मुहुः ॥३२१।। तयैकनासया पुत्र्या सहाऽऽगत्य च देवकी । अङ्कादकं सञ्चरन्तं कृष्णमादाय सस्वजे ॥३२२।। ऊचुश्च यदवो वीरा वसुदेवमुदश्रवः । एकीक्यपि जगज्जेतुं त्वं क्षमोऽसि महाभुज ! ॥३२३।। कंसेनाऽतिनृशंसेन जातजातांस्त्वमात्मनः । हन्यमानान् सुतान् वीर ! कथं नामाऽसि सोढवान् ? ||३२४।। वसुदेवोऽप्युवाचैवमाजन्म परिपालितम् । सत्यव्रतं त्रातुमहं दुष्कर्मेदं विसोढवान् ॥३२५।। देवक्याश्चाऽऽग्रहेणाऽयं कष्णः प्रक्षिप्य गोकुले । मयोऽरक्षि नन्दसतां सञ्चार्येमां वराकिकाम् ॥३२६।। स्त्रीमात्रं सप्तमो गर्भो देवक्या इत्यवज्ञया । एकं नासापुटं छित्त्वा मुमोचेमां स पापधीः ॥३२७॥ पाभ्रातृ-भ्रातृव्यसम्मत्या समुद्रविजयस्ततः । कारागारादुग्रसेनं कर्षयामास पार्थिवम् ॥३२८।। राज्ञा सहोग्रसेनेन समुद्रविजयादयः । कंसस्य प्रेतकार्याणि कालिन्दीपुलिने व्यधुः ॥३२९।। कंसस्य माता पत्न्यश्च देंदुर्नद्यां जलाञ्जलीन् । मानात्तु न ददौ जीवयशाः कोपावाच च ॥३३० गोपावेतौ राम-कृष्णौ दशााँश्च ससन्ततीन् । घातयित्वा प्रेतकार्यं करिष्ये स्वपतेरहम् ॥३३१॥ अन्यथाऽग्नौ प्रवेक्ष्यामि प्रति श्रुत्येति सोच्चकैः । निर्गत्याऽगाज्जरासन्धाश्रिते राजगृहे पुरे ॥३३२।। राम-कृष्णानुज्ञयाऽथ समुद्रविजयो नृपः । चकार मथुरापुर्यामुग्रसेनं नरेश्वरम् ।।३३३॥ १. गोपसुता० मु० । गोपाधमौ । २. तत्पक्षपाती । ३. कृष्णः । ४. नोऽद्यापि मु० । ५. स्वकीयकोधसदृशं कार्यम् । ६. स्रस्तोत्तरीयम् की०छा०ला०लार० आ० । ७. गर्भहत्या । ८. गजे । ९. धूतकंसे खं० १-२ । १०. यौत्रिक० मु० र० । ११. बलदेवः । १२. काष्ठमिव । १३. युधे मु० विना । १४. नष्ट्वा खं० २ । १५. यादवा० खं० १-२, ला० । १६. स्वस्थानीयमुपाविशत् को० । १७. ० मुक्तकवृत्ततः मु० । १८. यादवाः आ० मु० । १९. एककोऽपि ता०सं० । २०. जाताज्जातांस्त्व० ता०सं०आ० । २१. अरक्षि नन्दतनयाम् पु० । २२. कंसस्य उत्तरक्रियां चक्रुरित्यर्थः । २३. ०सन्धश्रिते मु० । *'रूप'पदं पशुवाचकं, आत्तरूपे-आत्तपशौ इत्यर्थः सम्भवति ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
प्रदत्तामुग्रसेनेन सत्यभामां जनार्दनः । दिने क्रोष्टकिनाऽऽख्याते पर्यणैषीद् यथाविधि ।।३३४॥ पाइतश्च सा जीवयशा रुदती मुक्तकुन्तला । प्रविवेश जरासन्धास्थान्यामश्रीरिवाऽङ्गिनी ॥३३५।। जरासन्धेन पृष्टाऽथ कथञ्चिदपि साऽवदत् । अतिमुक्तकवृत्तान्तं कंसघातकथां च ताम् ॥३३६॥ प्रत्युवाच जरासन्धः साधु कंसेन नो कृतम् । यन्नाऽहन् देवकीमेव क्षेत्राभावे कुतः कृषिः ? ।।३३७।।
मा रोदीरधना वत्से ! रोदयिष्यामि तस्त्रियः । समूलघातं तान् हत्वा परितः कंसघातकान् ॥३३८।। पातामित्युक्त्वा जरासन्धः सोमकं नाम पार्थिवम् । अनुशिष्य प्रजिघाय समुद्रविजयान्तिके ॥३३९।। स एत्य मथुरापुर्यां समुद्रविजयं नृपम् । इत्युवाच जरासन्धः समादिशति वः प्रभुः ॥३४०।। पुत्र्यस्माकं जीवयशा जीवितादपि वल्लभा । तत्स्नेहात् तत्पतिः कंस: कस्यैतत् विदितं न हि ? ॥३४१|| भवन्तोऽपि हि भृत्या नः सुखं तिष्ठन्तु किं पुनः । अर्पणीयौ राम-कृष्णौ क्षुद्रौ कंसद्रुहाविमौ ॥३४२॥ किं चाऽयं सप्तमो गर्भः पुराऽप्यर्पित एव हि । सोऽद्याऽर्प्यतामसौ रामः पुनस्तद्गोपनौगसि ॥३४३॥ ऊचे समद्रविजयो मत्परोक्षेऽपिता यदि । ऋजना वसदेवेन षड गर्भास्तद्धि नोचितम ॥३४५|| वत्साभ्यां राम-कृष्णाभ्यां स्वभ्रातृवधवैरतः । कंसो हतश्चेत् तदिह किमेतावपराध्यतः ? ॥३४५।। एको दोषोऽयमस्माकं यत् स्वैरी बाल्यतोऽपि हि । वसुदेवस्तस्य बुद्ध्या हताः षट् सूनवो मम ॥३४६।। प्राणभूतौ मम सुतौ राम-कृष्णौ वधेच्छया । त्वद्भर्तुर्याचमानस्य नविमृश्यविधायिता ॥३४७॥ सकोपं सोमकोऽप्यूचे न खलु स्वामिशासने । युक्तायुक्तविचारोऽर्हः सेवकानां कदाचन ॥३४८।। षड् गर्भा यत्र ते राजंस्तत्रैतावपि दुर्मती । गच्छतां मा स्म कण्डूयस्तुण्डं तक्षकभोगिनः ॥३४९।। विरोधो बलिना सार्धं न हि क्षेमाय जायते । कस्त्वं मेष इवेभस्य पुरतो मगधेशितुः ?॥३५०॥ क्रुद्धोऽभ्यधाच्च गोविन्दस्तातेन चिरमार्जवात् । पालिते स्नेहसम्बन्धे त्वत्स्वामी कि प्रभूयते ? ॥३५१।। न न: प्रभुर्जरासन्धः प्रत्युतैवं स विब्रुवन् । कंसो द्वितीयस्तद्गच्छ यथेच्छं शंस तस्य भोः ! ॥३५२।। इत्युक्तः सोमकोऽवोचत् समुद्रविजयं प्रति । कुलाङ्गारः सुतस्तेऽसौ दशार्ह ! किमुपेक्षसे ? ॥३५३।। तद्गिरा प्रज्वलन् कोपादनाधृष्टिरदोऽवदत् । भूयो भूयो याचमानः पुत्रौ तातान्न लज्जसे ? ॥३५४।। स जामातृवधेनाऽपि दूनो राजगृहेश्वरः । षड्भ्रातृनिधनेनाऽपि न दूनाः किं वयं ननु ? ॥३५५।। दोष्मान् रामश्च कृष्णश्चाऽन्येऽप्यक्रूरादयो वयम् । न सहिष्यामहे हन्त त्वामेवमभिभाषिणम् ।।३५६।। इत्यनाधृष्टिना रोषाद्धर्षितो रोषविह्वलः । उपेक्षितः समुद्रेण स्वस्थानं सोमको ययौ ॥३५७।। पाद्वितीयेऽह्नि दशार्हेशो मेलयित्वा स्वबान्धवान् । पप्रच्छ क्रोष्टुकिं नाम हितं नैमित्तिकोत्तमम् ॥३५८।। त्रिखण्डभरतेशेन जरासन्धेन विग्रहः । उपस्थितोऽयमस्माकं ब्रूहि यद्भाव्यतः परम् ।।३५९॥ सोऽप्युवाचाऽचिरादेतौ राम-कृष्णौ महाभुजौ । त्रिखण्डभरताधीशौ तं निहत्य भविष्यतः ॥३६०।। यात प्रतीच्यामधुना समुद्दिश्याऽम्बुधेस्तटम् । भावी शत्रुक्षयारम्भो गच्छतामपि तत्र वः ॥३६१।। सत्यभामा च यत्रैषा प्रसूते दारकद्वयम् । पुरीनिवेशं तत्रैव कृत्वा स्थेयमशङ्कितैः ॥३६२॥ ततो घोषणया राजा स्वां यात्रां 'स्वानजिज्ञपत् । एकादशकुलकोटीसंयुतो मथुरां जहौ ॥३६३।। गत्वा शौर्यपुरे सप्तकुलकोटीस्ततोऽपि हि । आदाय ज्ञातिसहितः समुद्रविजयोऽचलत् ॥३६४।।
उग्रसेननरेन्द्रोऽपि समुद्रनुपमन्वगात् । मध्यविन्ध्यं च सर्वेऽपि जग्मुः सुखसुखं पथि ॥३६५।। पातदा च सोमको राजा जरासन्धार्धचक्रिणे । गत्वा शशंस तत्सर्वं क्रोधवह्नीन्धनायितम् ॥३६६।। जरासन्धमथ क्रुद्धं कालः सम्प्रेक्ष्य तत्सुतः । उवाच भवतां के हि यदवोऽमी तपस्विनः ? ॥३६७।। तदादिश दिशामन्ताद् वढेरब्धेश्च मध्यतः । कृष्ट्वा यदून हनिष्यामि निवर्तिष्येऽन्यथा न हि ॥३६८॥ १. रुदन्ती मु० । २. कंसघातक-स्त्रियः । ३. गोपनादपि मु० । रक्षणापराधे । ४. स्वैरम् पु० । ५. प्रभुवदाचरति । ६. पुनः मु०। ७. दशार्हेण मु० । ८. पश्चिमदिशि । ९. स्वकीयान् । १०. मां समन्ताद् खं० २ ।
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पञ्चमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
ततः कालं जरासन्धो राजपञ्चशतीयुतम् । महासेनापरिवृतं यदून् प्रति समादिशत् ॥३६९।। कालो भ्रात्रा यवनेन सहदेवेन चान्वितः । वार्यमाणोऽप्य॑शकुनै निमित्तैनि यिवान् ।।३७०।। स यदूनामनुपदं गच्छन् प्रापाऽचिरादपि । विन्ध्याचलोपत्यकोर्वीमदूरोषितयादवाम् ॥३७१।। दृष्ट्वा कालमथाऽऽसन्नं राम-कृष्णाभिरक्षिकाः । विचक्रुर्देवताः शैलमेकद्वारं पृथुन्नतम् ।।३७२।। उषितं च यदसैन्यं भस्मीभूतं कृशानुना। उपचित्यं स्त्रियमेकां रुदंती च विचक्रिरे ॥३७३।। तां प्रेक्ष्य काल: पप्रच्छ भद्रे ! किमिति रोदिषि ? । साऽऽख्यद् भीता जरासन्धाद् दुद्रुवुर्यदवोऽखिलाः ॥३७४।। तेषां च पृष्ठतो वीरः काल: काल इवाऽचलत् । तत्राऽऽसन्ने च चकिताः प्राविशन् यदवोऽनले ॥३७५।। दशाह राम-कृष्णौ च चितायामविशन्निह । तेषां वियोगे बन्धूनां वेक्ष्याम्यग्नावसावहम् ॥३७६।। इत्युक्त्वा साऽविशद् वह्नौ देवतामोहितश्च सः । कालोऽवोचत् सहदेवं यवनं भूभुजोऽपि च ॥३७७।। मया तातस्य जामेश्च पुरतोऽदः प्रतिश्रुतम् । वह्नयादिभ्योऽपि कृष्ट्वाऽहं हनिष्यामि यदून् खलु ॥३७८।। प्रविष्टान् मद्भयादग्नौ तान् हन्तुमहमप्यहो ! । सत्यसन्धः प्रवेक्ष्यामि ज्वलितेऽस्मिन् हुताशने ॥३७९।।
इत्युक्त्वा सोऽसिफलकी विवेशाऽग्नौ पतङ्गवत् । मृतश्च स्वेषु पश्यत्सु देवतामोहितात्मसु ॥३८०॥ पाअत्राऽन्तरे चाऽस्तगिरि जगाम भगवान् रविः । ऊषुस्तत्रैव यवन-सहदेवादयश्च ते ॥३८१॥
जाते प्रभाते तेऽपश्यंस्तं नाद्रिं न चितां च ताम् । दूरं गता यदवश्चेत्याख्यंस्तेभ्यश्च हेरिकाः ॥३८२।। वृद्धौंलोचनतो ज्ञात्वा सम्मोहं देवताकृतम् । यवनाद्या निवृत्याऽऽख्युस्तत्सर्वं मगधेशितुः ॥३८३।।
अतुच्छया मूर्च्छयाऽथ जरासन्धोऽपतद् भुवि । ससंज्ञः काल ! कालेति कंस ! कंसेति चाऽरुदत् ।।३८४।। पाविज्ञाय कालमरणं गच्छन्तो यदवोऽपि ते । आनर्चुः क्रोष्टकिं जातप्रत्ययं भूरिसम्मदाः ॥३८५।। पथ्येकस्मिन् वने तेषां तस्थुषां सोऽतिमुक्तकः । समाययौ चारणर्षिर्दशाशेन चाऽऽर्च्यत ॥३८६॥ समुद्रविजयोऽपृच्छत् तं प्रणम्य महामुनिम् । अमुष्मिन् व्यसनेऽस्माकं भगवन् ! कि भविष्यति ? ॥३८७।। ऋषिर्बभाषे मा भैषीविंशो ह्येष तीर्थकृत् । कुमारोऽरिष्टनेमिस्ते त्रैलोक्याद्वैतपौरुषः ॥३८८॥ राम-कष्णौ बल-विष्ण द्वारकास्थाविमौ पनः । जरासन्धवधादर्धभरतेशौ भविष्यतः ॥३८९। ततो हृष्टस्तमचित्वा समुद्रो व्यसृजत् मुनिम् । सुखाकरैः प्रयाणैश्च सुराष्ट्रीमण्डलं ययौ ॥३९०॥ पातत्र रैवतकस्याद्रेः प्रत्यगुत्तरतोऽथ ते । अष्टादशकुलकोटीसंयुताः शिबिरं न्यधुः ॥३९१॥
कृष्णपत्नी सत्यभामा तत्राऽसूत सुतावुभौ । भानु-भामरनामानौ जात्यजाम्बूनदद्युती ॥३९२॥ दिने क्रोष्टकिनाऽऽख्याते स्नातः कतबलिहरिः । अम्भोधिं पूजयामास विदधे चाऽष्टमं तपः ॥३९३।। ततस्तृतीययामिन्यां नभस्थः सुस्थितोऽमरः । लवणाब्धेरधिष्ठाता तत्राऽऽगच्छन् कृताञ्जलिः ॥३९४।। कंसारये पाञ्चजन्यं सुघोषं मुष्टिकारये । ददौ स देवो दिव्यानि रत्नमाल्यांशुकानि च ॥३९५।। स देवः कृष्णमूचे च कुतो हेतोस्त्वया स्मृतः ? । सुस्थितो नाम देवोऽहं ब्रूहि किं करवाणि ते ? ॥३९६।। उवाच कृष्णस्तं देवं या पूर्वं पूर्वशाङ्गिणाम् । पुर्यत्र द्वारकेत्यासीत् पिहिता सा त्वयाऽम्भसा ॥३९७॥ ममाऽपि हि निवासाय तस्याः स्थानं प्रकाशय । 'तथा' कृत्वा सोऽपि देवो गत्वेन्द्राय व्यजिज्ञपत् ॥३९८॥ शक्राज्ञया वैश्रवणश्चके रत्नमयीं पुरीम् । द्वादशयोजनायामां नवयोजनविस्तृताम् ।।३९९।। तुङ्गमष्टादशहस्तान्नवहस्तान् स भूगतम् । विस्तीर्णं द्वादशहस्तांश्चक्रे वप्रं सखौतिकम् ॥४००।। वृत्ताश्च चतुरस्राश्च व्यायता गिरिकूटकाः । स्वस्तिकाः सर्वतोभद्रा मन्दरा अवतंसकाः ॥४०१।। वर्धमानाश्चेतिसंज्ञाः प्रासादास्तत्र लक्षशः । एकभूमा द्विभूमाश्च त्रिभूमाद्याश्च निमिताः ॥४०२॥ युग्मम् ।। १. प्यशकुनदुनिमित्तैनि० छा० मु० विना । २. निर्जगाम । ३. ०रक्षका: मु० र० । ४. चितासमीपे । ५. रुदन्ती मु० । ६. प्रतिश्रवम् पा० । ७. चरपुरुषाः । ८. वृद्धालोकनतो पा० पु० । ९. जातसंमदा: ला०सू० । १०. चार्चित: ला०ता०सं०पु० । ११. सौराष्ट्रदेशम् । १२. वायव्यदिशि। १३. व्यधुः ला०ला०र०।१४. जात्यसुवर्णवत् कान्तिः ययो तौ। १५. कृष्णाय। १६. बलदेवाय । १७. पूर्ववासुदेवानाम् । १८. नवहस्तान् महीगतम् पु० । ०हस्तांश्च भू० मु० । १९. सुखा० मु० । २०. मन्दारा खं० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
विचित्ररत्न-माणिक्यैश्चत्वरेषु त्रिकेष्वपि । जिनचैत्यानि दिव्यानि निमितानि सहस्रशः ॥४०३।। आग्नेय्यां दिशि तत्राऽऽदौ सौवर्णो वप्रसंयुतः । समुद्रविजयस्याऽभूत् प्रासादः स्वस्तिकाभिधः ॥४०४।। प्रासादौ च तदभ्यर्णेऽक्षोभ्य-स्तिमितयोः क्रमात् । नन्द्यावर्त-गिरिकूटौ सप्राकारौ बभूवतुः ॥४०५॥ नैर्ऋत्यां सागरस्याऽभूत् प्रासादोऽष्टांश उच्चकैः । प्रासादौ वर्धमानाख्यौ ततः पञ्चम-षष्ठयोः ॥४०६।। नाम्ना पुष्करपत्रोऽभून्मारुत्यां धरणस्य तु । आलोकदर्शनो नाम पूरणस्य ततोऽपि हि ।।४०७।। तदभ्यर्णेऽभिचन्द्रस्य विमुक्तो नामतोऽभवत् । ऐशान्यां वसुदेवस्य कुबेरच्छन्दसंज्ञितः ॥४०८॥ स्त्रीविहारक्षमो नाम राजमार्गसमीपतः । उग्रसेननरेन्द्रस्य जज्ञे प्रासाद उन्नतः ॥४०९।। कल्पद्रुमैर्वृताः सर्वे सेभैशालाः समन्दुराः । सप्राकारा बृहद्वाराः पताकामालभारिणः ॥४१०।। तेषां च मध्ये प्रासादो नामतः पृथिवीजयः । चतुरस्रो बृहद्वारो बलदेवस्य निर्ममे ॥४११।। प्रासादोऽष्टादशभूमः सर्वतोभद्रसंज्ञितः । नानागृहपरिवारो वासुदेवस्य चाऽभवत् ।।४१२।। सधर्मासदृशी राम-कृष्णप्रासादयोः परः । सभा सर्वप्रभासाख्या नानामाणिक्यमय्यभूत् ॥४१३॥ अष्टोत्तरशतेनोच्चैर्जिनबिम्बैविभूषितम् । मेरुशृङ्गमिवोत्तुङ्ग मणि-रत्न-हिरण्मयम् ॥४१४|| नानाभूमिगवाक्षाढ्यं विचित्रस्वर्णवेदिकम् । अर्हदायतनं रम्यं निर्ममे विश्वकर्मणा ॥४१५॥ युग्मम् ।। सरांसि दीर्घिका वाप्यश्चैत्यान्युद्यानवीथिकाः । अन्यच्च सर्वं तत्राऽहोरात्रेण धनदोऽकरोत् ॥४१६।। एवं च रम्या नगरी द्वारकेन्द्रपुरीसमा । बभूव वासुदेवस्य देवताभिर्विनिर्मिता ॥४१७॥ तस्याः पुरों रैवतकोऽपोंच्यामासीत् तु माल्यवान् । सोमनसोऽद्रिः प्रतीच्या मुदीच्यां गन्धमादनः ॥४१८।। ततः प्रात: कुबेरोऽदाद् विष्णवे पीतवाससी । नक्षत्रमालां मुकुटं महारत्नं च कौस्तुभम् ॥४१९।। शार्ग धन्वाऽक्षय्यतरौ तणौ खड़गं च नन्दकम । कौमोदकी गदां चैव रथं च गरुडध्वजम् ॥४२० रामायाऽदाद् वनमालां मुसलं नीलवाससी । तालध्वजं रथं तूणावक्षय्येषू धनुर्हलम् ॥४२१॥ दशभ्योऽपि दशार्हेभ्यो रत्नान्याभरणानि च । व्यश्राणयद वैश्रवणस्ते ह्या राम-कृष्णयोः ॥४२२॥ ज्ञात्वा द्विट्सूदनं कृष्णं सर्वेऽपि यदवस्ततः । अभ्यषिञ्चन् प्रमुदिता अपरोदैधिरोधसि ॥४२३॥ सिद्धार्थसारथिं रामः कृष्णो दारुकसारथिम् । रथमारोहतां वीरौ प्रवेष्टुं द्वारकापुरीम् ॥४२४।। वृतौ रथस्थैर्यदुभिश्चन्द्रा-ऽकौं भ-ग्रहैरिव । तौ तां पुरीं प्राविशतां भवज्जयजयारवाम् ॥४२५।। तस्यां वैश्रवणेन दशितगृहेष्वस्थुर्दशार्हा हरी, रामोऽन्ये यदवः कुलानि च परीवारोऽथ कृष्णाज्ञया । रत्र-स्वर्ण-धनैर्विचित्रवसनैर्धान्यैश्च सार्धं त्र्यहं, वर्षन् यक्षपतिः पुरीमभिनवां तां पूरयामास सः ॥४२६।।
।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रे महाकाव्ये अष्टम" पर्वणि राम-कृष्णा-ऽरिष्टनेमिजन्म-कंसवध-द्वारिकानिवेशकीर्तनो नाम
पञ्चमः सर्गः ॥
१. आग्नेय्यदिशि खं०२। २.०पत्रोऽभूद् वायव्याम् पु० ॥ ३. गजशालासहिताः, अश्वशालासहिताः । ४. पताकामालधारिणः । ५. ०भद्रसंज्ञक: पु० मु० आ० खं० १-२, ला० । ६. सर्वप्रवासाख्या ता०सं०छा०पा० । सर्वप्रसादाख्या ला० । ७. द्वारिके० खं० १-२, ला० । ८. पूर्वस्याम् । ९. दक्षिणदिशि । १०. ०च्यां कौबेर्याम् पा० आ०, उत्तरदिशि । ११. शार्गधन्वा० मु० र० । १२. अयच्छत् । १३. पश्चिमसमुद्रतटे । १४. द्वारिका० खं० २, ला० । १५. नक्षत्र-ग्रहै: । १६. ०जयारवम् मु० । १७. वैश्रमणेन खं० २ । १८. सार्धानि त्रीणि दिनानि । १९. धनदः । २०. ०ऽष्टमपर्वणि खं० २, ला० सू० । २१. द्वारका० खं० २, सू० ॥
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॥ षष्ठः सर्गः ॥
तत्र कृष्णः सरामोऽपि दशार्हानंनुवर्तयन् । रममाणः सुखं तस्थौ यदुभिः परिवारितः ॥१॥ तन्वन्मुदं दशार्हाणां भ्रात्रोश्च हलि-कृष्णयोः । अरिष्टनेमिर्भगवान् ववृधे तत्र च क्रमात् ।।२।। ज्यायांसोऽपि लघूभूय चिक्रीडुः स्वामिना समम् । सर्वेऽपि भ्रातरः क्रीडाशैलोद्यानादिभूमिषु ॥३॥ स्वामी दशधनुस्तुङ्गः क्रमात् प्राप च यौवनम् । आजन्म कामविजयी तेनाऽविकृतमानस: ॥४॥ पितृभ्यां राम-कृष्णाद्यैर्धातृभिश्च दिने दिने । अyमानोऽपि कन्यानामुद्वाहं न ह्यमन्यत ॥५॥
राम-कृष्णौ च तौ भूपान् समाचक्रमतुर्बहून् । शकेशानाविव युतौ पर्यपातामुभौ प्रजाः ॥६।। पपर्यटन्नारदोऽन्येद्युः कृष्णौकसि समाययौ । कृष्णेन च सरामेण स्वयं विधिवदर्चितः ॥७॥
सोऽथ कृष्णान्तःपुरेऽगात् तत्र स्वं सत्यभामया । पश्यन्त्या दर्पणे नाऽचि व्यग्रत्वाद्विष्टरादिना ।।८।। ततः स निरगात् कुद्धो विरुद्धं चेत्यचिन्तयत् । केशवान्तःपुरैः सर्वैरचिंता नारदाः सदा ॥९॥ इयं तु पतिवाल्लभ्याद् रूप-यौवनगर्विता । अभ्युत्थानं दूरतोऽस्तु दृग्मात्रमपि न ह्यदात् ॥१०॥ ततोऽमूमतिरूपायाः सपत्न्याः प्राप्तिसङ्कटे । पातयामीति विमृशन् स ययौ कुण्डिनं पुरम् ॥११॥ पाताऽभूद् भीष्मको राजा तस्य पत्नी यशोमती । तयो रुक्मी सुतः कन्या रुक्मिणी रूपशालिनी ॥१२।। गतश्च नारदस्तत्र रुक्मिण्या च नमस्कृतः । वरोऽर्धभरतेशस्ते कृष्ण: स्तादित्युवाच च ॥१३॥ कृष्णः कोऽसाविति तया पृष्ट आख्यच्च नारदः । अद्वैतान् रूप-सौभाग्य-शौर्यादीन् कृष्णगान् गुणान् ॥१४|| तच्छ्रुत्वा रुक्मिणी कृष्णे सानुरागाऽभवत् क्षणात् । कृष्णमेवाऽभिलष्यन्ती तस्थौ मन्मथविह्वला ॥१५॥ पटे लिखित्वा तद्रूपं द्वारिकामेत्य नारदः । दर्शयामास कृष्णस्य सुधावतिनिभं दृशोः ।।१६।। दृष्ट्वा च कृष्णः पप्रच्छ नारदं भगवन्नियम् । का नाम देवताऽलेखि पटेऽस्मिन् भवता वद ॥१७॥ स्मित्वोचे नारदो नेयं देवता किन्तु मानुषी । कुमारी रुक्मिणी जामिः कुण्डिनेशस्य रुक्मिणः ।।१८।। तद्रूपविस्मितः कृष्णः सद्योऽपि प्रेष्य पूरूषम् । रुक्मिणी रुक्मिण: पार्वे ययाचे प्रियया गिरा ॥१९।। हसित्वोवाच रुक्म्येवं गोपो हीनकुलोऽप्यहो । मज्जामि याचते मूढः कोऽयं तस्य मनोरथः ॥२०॥ दास्ये मैथुनिकायाऽमूं शिशुपालाय भूभुजे । उचितो ह्यनयोर्योगो रोहिणी-शशिनोरिव ॥२१॥ इति श्रुत्वा स दूतोऽपि तद्वाचं परुषाक्षराम् । आँगम्य कथयामास स्वामिने पीतवाससे ॥२२।। पतं च व्यतिकरं ज्ञात्वा नीत्वा रहसिं रुक्मिणीम् । ऊचे पितृष्वसा धात्री गिरा प्रेमपवित्रया ॥२३॥
शैशवे त्वां ममाऽङ्कस्थां प्रेक्ष्यर्षिरतिमुक्तकः । आख्याद् यदग्रमहिषी कृष्णस्यैषा भविष्यति ॥२४॥ कथं कृष्णः परिज्ञेय इति पृष्टस्तु सोऽवदत् । ज्ञेयः कृष्णोऽपराम्भोधौ द्वारकासन्निवेशनात् ॥२५।। कृष्णाय याचमानायाऽप्यसि दत्ता न रुक्मिणा । शिशुपालाय किन्तु त्वं प्रदत्ता दामघोषये ॥२६।। रुक्मिण्यूचे किमृषीणां विसंवदति भाषितम् । प्रातःस्तनितमब्धानां किं वा भवति निष्फलम् ॥२७॥ पाकृष्णेऽभिलाषां रुक्मिण्या ज्ञात्वैवं सा पितृष्वसा । सद्यः प्रच्छन्नदूतेन कृष्णायैवमजिज्ञपत् ॥२८॥ माघमासे सिताष्टम्यां नागपूजामिषादहम् । रुक्मिण्या सह निर्गत्य यास्याम्युद्यानवीथिकाम् ॥२९॥
आगन्तव्यं त्वया तत्र रुक्मिण्या चेत् प्रयोजनम् । अन्यथा शिशुपालोऽमूं परिणेष्यति मानद ! ॥३०॥ पाइतश्च शिशुपालः स आहूतस्तेन रुक्मिणा । उद्वोढुं रुक्मिणीमागात् ससैन्यः कुण्डिनं पुरम् ॥३१॥
तत्राऽऽयातं शिशपालं रुक्मिणीवरणोद्यतम् । ज्ञापयामास कृष्णाय नारदः कलिकौतुकी ॥३२।। १. अनुसरन् । २. बलदेव । ३. अरक्षताम् । ४. तत्रासीत् की. ला० । ५. मद्भगिनीम् । ६. विवाहाय । ७. आगत्य ला० मु० । ८. कृष्णाय । ९. एकान्ते । १०. पश्चिमसमुद्रे । ११. दमघोषपुत्राय । १२. प्रातः मेघानां गर्जितम् । १३. शिशुपालोऽयम् ता० सं० । १४. ०पालोऽपि खं० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पाकृष्णोऽपि सह रामेण विभिन्नं रथमास्थितः । जगाम कुण्डिनपुरं स्वैरप्यनुपलक्षितः ॥३३।। तदा तया पितृष्वस्रा सखीभिश्च समावृता । नागपूजाकृते रुक्मिण्युद्यानभुवमाययौ ॥३४॥ अवतीर्य रथात् कृष्णो ज्ञापयित्वा स्वमादितः । नत्वा पितृष्वसारं तामित्यवोचत रुक्मिणीम् ॥३५।। त्वामागां दूरतोऽप्येष द्विरेफ इव मालतीम् । कृष्णोऽहं त्वद्गुणाकृष्टो रथमध्यास्स्व तन्मम ॥३६।। अनुज्ञाता पितृष्वस्रा तया तद्भावविज्ञया । आरुरोह रथं स्वान्तमिव कृष्णस्य रुक्मिणी ॥३७॥ ततः किञ्चिद् गते कृष्णे 'स्वदोषापोहहेतवे । पितृष्वसाऽन्यदास्यश्व तस्याः पूच्चक्रुरुच्चकैः ॥३८॥ रुक्मिन् ! रुक्मिन् ! स्वसा तेऽसौ प्रसह्यं ननु रुक्मिणी । हियते तस्करेणेव सरामेणाऽद्य शाङ्गिणा ॥३९॥ पाञ्चजन्यं सुघोषं च दध्मतुस्तौ च यादवौ । यादौराशिरिवाऽक्षुभ्यदभितो रुक्मिण: पुरम् ॥४०॥ पारुक्मी च शिशुपालश्च महाबाहू महाबलौ । महासैन्यावनुपदं चेलतू राम-कृष्णयोः ॥४१॥
दृष्ट्वा च चकिता रुक्मिण्युवाचाऽङ्कस्थिता हरिम् । क्रूरो महौजा मद्भ्राता शिशुपालश्च तत्समः ॥४२॥ तद्गृह्या बहवोऽन्येऽपि वीराः संवर्मिता इह । युवां त्वेकाकिनावत्र तेन भीताऽस्मि, का गतिः? ॥४३॥ हसित्वा हरिरप्यूचे मा भैषीः क्षत्रिया ह्यसि । केऽमी वराका रुक्म्याद्याः पश्याऽदः सुभ्र ! मद्बलम् ॥४४|| इत्युक्त्वा तत्प्रत्ययार्थमर्धचन्द्रेण शार्ङ्गभृत् । “तालालीमेकघातेन नलपतिमिवाऽच्छिदत् ॥४५॥ अङ्गुलीयकवजं चाऽङ्गुष्ठाङ्गुलिनिपीडनात् । दलयामास "निर्धष्टमसूरकणलीलया ॥४६॥ तेन पत्योजसाऽत्यन्तं रुक्मिणी प्रमदं दधौ । पद्मिनीव प्रभाताळतेजसा विकीनना ॥४७|| रामं बभाषे गोविन्दो गृहीत्वेमां वधू व्रज । अहमेतान् हनिष्यामि रुक्म्यादीननुधावतः ॥४८॥ रामोऽप्युवाच गच्छ त्वं हनिष्याम्यहमेव तान् । रुक्मिण्यप्यवदद् भीता सातव्यः सोदरो मम ॥४९॥ रामोऽपि कृष्णानुमतः प्रत्यपद्यत तद्वचः । योद्धं तत्रैव तस्थौ च जगाम तु जनार्दनः ।।५।। पाअथाऽऽयातं परबलं प्रोत्क्षिप्तमुशलो बलः । मन्थाचल इवाऽम्भोधि ममन्थाऽमन्थरो रणे ॥५१॥ वज्रेणेवाऽद्रय: पेतुस्तस्याऽयोऽग्रेण दन्तिनः । चूर्णसादभवंश्चाऽपि घटकर्परवद् रथाः ॥५२॥ सहैव शिशुपालेन व्यद्रवद् रुक्मिणश्चमः । वीरमानी पुना रुक्मी बलभद्रमदोऽवदत् ॥५३॥ अहो धष्टोऽसि गोपाल ! तिष्ठ तिष्ठाऽग्रतो मम । एषोऽहं ते हरिष्यामि गोपयःपानजं मदम् ॥५४॥ प्रतिपन्नं स्मरन् रामः सन्त्यज्य मुशलं शरैः । तस्याऽभाङ्क्षीद् रथं वर्माऽच्छिदद् रॉन् जघान च ॥५५॥ ततश्च रुक्मिणं रामो वध्यकोटिमुपागतम् । लूनकेशं क्षुरप्रेण कृत्वोवाच हसन्निति ॥५६।। मद्ध्वा बान्धव इति न वध्योऽसि प्रयाहि रे । मण्डोऽपि हि स्वपत्नीभिविलसाऽस्मत्प्रसादतः ॥५७॥ एवमुक्तश्च मुक्तश्च हिया नेयाय कुण्डिनम् । रुक्म्यस्थात् किन्तु तत्रैव न्यस्य भोजकटं पुरम् ॥५८।। पाकष्णोऽपि रुक्मिणीमचे प्रविशन द्वारकापुरीम् । देवीयं देवरचिता पुरी रत्नमयी मम ॥५९॥ सुरद्रुममयोद्यानेष्वस्यां सुभ्र ! मया सह । रंस्यसे त्वमविच्छिन्नसुखा सुरवधूरिव ॥६०॥ बभाषे रुक्मिणी कृष्णं पत्न्यस्तव महर्द्धयः । प्रदत्ताः पितृभिः सन्ति सहाऽऽयातपरिच्छदाः ॥६१॥ एकाकिन्यहमानीता बन्दीव भवता प्रिया । हसनीया यथा तासां न भवामि तथा कुरु ॥६२॥ करिष्ये त्वां तदधिकामित्युक्त्वा रुक्मिणी स्वयम् । सत्यभामागृहाभ्यर्णप्रासादेऽमुञ्चदच्युतः ॥६३।। गान्धर्वेण विवाहेन परिणीयाऽथ रुक्मिणीम् । स्वच्छन्दं रमयामास रजनी तां जनार्दनः ॥६४॥ पाजनप्रवेशं रुक्मिण्या सदनेक्षिदच्युतः । स्वप्रियां मे दर्शयेति तं भामोचे च साग्रहम् ॥६५॥ १. परावृता खं० २, सू० । २. भ्रमरः । ३. स्वदोषच्छादनाय । ४. हठात् । ५. पूरयामासतुः । ६. समुद्रः । ७. अर्धचन्द्रबाणेन । ८. तालवृक्षपङ्कितम् । ९. तृणविशेष, नालपतिमिवाः की० मु० । १०. मुद्रिकाहीरकम् । ११. रन्धितमसूरधान्यकणलीलया । १२. विकसितमुखा । १३. भ्राता खं० २ । १४. अमन्दः शीघ्रः । १५. मुशलेन । १६. दुद्राव मु० । १७. दृष्टोऽसि मु० । १८. हनिष्यामि ला र० । १९. हयान् । २०. बाणेन मुण्डनं कृत्वा । २१. प्राविशन् मु० । २२. द्वारिका० ला० । द्वारकां सू० । २३. न्यषेधत् ।
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षष्ठः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
लीलोद्याने श्रीगृहे श्रीप्रतिमां सज्जनच्छलात् । हरिरुत्सारयामास निपुणैश्चित्रकारकैः ॥६६।। तत्रैत्य कृष्णः श्रीस्थाने स्थापयामास रुक्मिणीम् । देवीनामागमे तिष्ठेनिश्चलेत्यशिषच्च ताम् ॥६७|| गतोऽथ कष्णः स्वं स्थानं प्रप्रच्छे चेति भामया। कुत्र स्थाने त्वया मुक्ता विद्यते हन्त वल्लभा ॥६८॥ अस्ति सा श्रीगृहे मुक्तेत्याख्याते शाधन्वनो । सपत्नीभिः समं सत्यभामा श्रीसदनं ययौ ॥६९।। श्रीस्थानस्थां तत्र दृष्ट्वा रुक्मिणी साऽब्रवीदिति । अहो ! रूपं श्रियो देव्याः कौशलं शिल्पिनामहो ! ॥७॥ इत्युक्त्वा तां प्रणम्योचे लक्ष्मि ! देवि ! तथा कुरु । यथा नव्यां हरेः पत्नी रूपलक्ष्म्या जयाम्यहम् ॥७१।। एवं जाते च ते पूजां करिष्यामीत्युदीर्य सा । जगाम पार्वे कृष्णस्य प्रिया ते क्वेत्युवाच च ॥७२॥ सत्ययाऽथाऽपराभिश्च सहाऽगाच्छीगृहे हरिः । रुक्मिणी तत्र चोत्थाय कां नमामीत्यवोचैत ॥७३॥ कृष्णेन दर्शिता तस्याः सत्यभामाऽब्रवीदिति । कथं वन्दिष्यतेऽसौ मामज्ञानाद् वन्दिता मया ॥७४॥ हसित्वा हरिरप्यूचे को दोषः स्वसृवन्दने । सत्या विलक्षा गेहेऽगाद् रुक्मिणी नंतपूर्विणी ॥७५॥ रुक्मिण्यै महतीमृद्धिं ददौ कंसनिषूदनः । प्रेमपीयूषनिर्मग्नो रेमे च सहितस्तया ॥७६।। पाकृष्णेनाऽन्येधुरायातो नारदोऽभ्यर्च्य भाषितः । कि दृष्टं किञ्चिदाश्चर्यं भ्रमसि त्वं हि तत्कृते ॥७७|| नारदोऽप्यब्रवीद दृष्टं शण वैताढ्यपर्वते । जाम्बवान खेचरेन्द्रोऽस्ति शिवचन्द्रा च तत्प्रिया ॥७८।। विष्वक्सेनस्तयोः सूनुः कन्या जाम्बवती पुनः । रूपेण तस्याः सदृशी न काऽपि त्रिजगत्यपि ॥७९॥ क्रीडार्थं सा च गङ्गायां नित्यं हंसीव गच्छति । आश्चर्यभूतां तां दृष्ट्वा तवाऽऽख्यातुमिहाऽऽगमम् ॥८०॥ तच्छ्रुत्वा शाईभृत् तत्र ययौ सबलवाहनः । सखीवृतां जाम्बवती रममाणां ददर्श च ॥८१॥ यथोक्ता नारदेनेयं तथैवेति विदन् हरिः । अपाहरज्जाम्बवतीं जज्ञे च तुमुलो महान् ॥८२॥ खड्ग-खेटकभृच्चाऽऽगाज्जाम्बवान् क्रोधमुद्वहन् । जिग्येऽनाधृष्टिना चाऽऽशु निन्येऽभ्यर्णे च शाङ्गिणः ॥८३।। तां जाम्बवान् जाम्बवती ततश्चाऽदत्त शार्डिणे । अपमानाद् विरक्तस्तु प्रव्रज्यां स्वयमाददे ॥८४॥ जाम्बवत्सूनुना विषक्सेनेन सहितो हरिः । आदाय तां जाम्बवती जगाम द्वारकापुरीम् ॥८५॥ रुक्मिणीसदनाभ्यर्णे तस्या हर्म्यं ददौ हरिः । योग्यमन्यच्च सा त्वासीद्रुक्मिण्या सह सख्यभाक् ॥८६॥ अन्यदा सिंहलेशस्य श्लक्ष्णरोम्णोऽन्तिके गतः । निवृत्य चाऽऽगतो दूतः कृष्णायेति व्यजिज्ञपत् ।।८७।। नोऽभ्यनन्दत् तवाऽऽदेशं श्लक्ष्णरोमास्ति तस्य तु । कन्यका लक्ष्मणा नाम तवैवाऽर्हति लक्षणैः ॥८८।। द्रुमसेनेन सेनान्या रक्षिता स्नातुमर्णवे । सेदानीमाययौ सप्तरात्रं स्नास्यति तत्र च ॥८९॥ श्रुत्वेति सह रामेण कृष्णस्तत्र जगाम च । निहत्य तं च सेनान्यमगादादाय लक्ष्मणाम् ॥९०॥ उदुह्य लक्ष्मणां कृष्णो जाम्बवत्योकसोऽन्तिके | निदधे रत्नसदने प्रददौ च परिच्छदम् ॥११॥
स्खरीपुर्यां सुराष्ट्राराष्ट्रभूपतिः । राष्ट्रवर्धन इत्यासीद् विनया तस्य तु प्रिया ॥९२।। तयोश्च नमुचिः सूनुर्युवराजो महाभुजः । दुहिता तु सुसीमेति निःसीमा रूपसम्पदा ॥९३॥ नमुचि: सिद्धदिव्यास्त्र: कृष्णाज्ञां न ह्यमन्यत । स्नातुं प्रभासे सोऽन्येधुर्ययौ सह सुसीमया ॥९४।। निवेश्य शिबिरं तत्र स्थितं विज्ञाय तं हरिः । जघान सबलोऽभ्येत्य सुसीमामाददे च ताम् ॥१५॥ तोमप्युदुह्य गोविन्दो लक्ष्मणासदनान्तिके । मुमोच हर्ये तस्यै च प्रक्रियां महतीं ददौ ॥९६।।
राष्ट्रवर्धनराजोऽपि सुसीमायै परिच्छदम् । प्राहिणोत् कृष्णहेतोश्च विवाहाहँ गजादिकम् ॥९७॥ पामरौ वीतभयेशस्य गौरी कन्यामुपायत । हरिः सुसीमागेहस्योपान्तगेहे मुमोच च ॥९८॥ १. सज्जीकरणमिषात्, मज्जनच्छलात् पु० ला० २। २. धन्विना मु० र०. । ३. त्युवाच च मु० २ । ४. नतपूर्विणीम् पा० ला० सं० आ० । ५. निसूदन: खं० १, २, ला० सू० । ६. मत्कृते ता० सं० । ७. वदन् मु० । ८. शाङ्गिणः मु०र० । ९. अङ्गीकृतवान्। १०. इतश्चाय:खुरीपुर्याम् ला० की. ला० १, इतश्वायुस्खुरी० खं० २, ला० सू०, इतवाजस्तुरी० खं० १, इतश्चाजस्करीपुर्याम् ता० सं० पा० पु० । ११. प्रभासतीर्थे । १२. तामप्युद्वाह्य खं० १-२, ला० सू० मु० । १३. ऋद्धिपरिवारम् । १४. विवाहार्थम् ता० सं० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
अथाऽरिष्टपुरे कृष्णः प्रययौ हलिना सह । हिरण्यनाभदुहितुः पद्मावत्याः स्वयंवरे ॥ ९९ ॥ राज्ञा हिरण्यनाभेन रोहिणीसोदरेण तौ । पूजितौ विधिवद्वीरौ जामेयाविति सम्मदात् ॥१००॥ हिरण्यनाभनृपते रैवतो नामतोऽग्रजः । प्रवव्राज समं पित्रा तीर्थे भगवतो नमः ||१०१ || तत्सुता रेवती रामा सीता बन्धुमतीति च । पुरा प्रदत्ता रामाय रोहिणीतनुजन्मने ॥ १०२ ।। सर्वेषां पश्यतां राज्ञां जह्रे पद्मावतीं हरिः । स्वयंवरागतान् राज्ञो युध्यमानान् जिगाय च ॥१०३॥ पत्नीयुतौ राम-कृष्णावीयतुर्द्वारकां ततः । कृष्णो गौरीगृहाभ्यर्णे गृहे पद्मावतीं न्यधात् ॥१०४॥ ||इतश्च पुष्कलावत्यां पुर्यां गान्धारनीवृति । नग्नजित्तनयश्चारुदत्तो नामाऽभवन्नृपः ॥१०५॥ गान्धारी नाम तस्याऽऽसीद् भगिनी सुभगाकृतिः । दत्तपत्रेव लावण्यसम्पदा खेचरीष्वपि ॥१०६॥ मृते पितरि दायादैश्चारुदत्तः पराजितः । दूतेन शिश्रिये कृष्णं शरण्यं शरणाय सः ॥ १०७ ॥ गन्धारेषु हरिर्गत्वा तद्दायादान् रणेऽवधीत् । चारुदत्तप्रदत्तां च तां गान्धारीमुपायत ॥ १०८ ॥ पद्मावतीगृहाभ्यर्णे तस्या वेश्म ददौ हरिः । इत्यभूवन्महिष्योऽष्टौ कृष्णस्य क्रमवेश्मगाः ||१०९|| ||रुक्मिण्याश्च गृहेऽन्येद्युरतिमुक्तर्षिरागतः । तं दृष्ट्वा सत्यभामाऽपि तत्रैवाऽऽशु समाययौ ॥११०॥ रुक्मिण्याऽप्रच्छि स मुनिः किं मे स्यात् तनयो न वा । भावी कृष्णसमः पुत्रस्तवेत्युक्त्वा ययौ च सः ॥ १११ ॥ सत्यभामा मुनिवचो मन्यमाना तदात्मगम् । उवाच रुक्मिणीं सूनुर्भावी कृष्णसमो मम ॥ ११२ ॥ प्रत्यूचे रुक्मिणी नर्षिवचनं फलति च्छलात् । एवं विवदमाने ते कृष्णाभ्यर्णमुपेयतुः ॥११३॥ तदा दुर्योधनो राजा तत्राऽऽयातः स्वसोदरः । भामयोचे मम सुतो जामाता ते भविष्यति ॥ ११४॥ रुक्मिण्याऽपि तथोक्तः स स्माऽऽह दास्ये सुतामहम् । तस्मै यं युवयोरेका तनयं प्रसविष्यते ॥११५॥ भामोवाच सुतो यस्याः प्रथमं परिणेष्यते । तद्विवाहेऽन्यया केशा देयास्तस्याः स्वकाः खलु ॥ ११६॥ साक्षिणः प्रतिभुवश्च रामपादा जनार्दनः । दुर्योधनश्चेत्युदित्वा स्वौको द्वे अपि जग्मतुः ॥११७॥ [अन्यदा रुक्मिणी स्वप्ने वलक्षवृषभस्थिते । विमाने स्वं समारूढं ददर्श प्रत्यबोधि च ॥११८॥ तदानीमेव च सुरो महाशुक्रान्महर्द्धिकः । प्रच्युतो रुक्मिणीदेव्या उदरे समवातरत् ॥११९॥ तं च स्वप्नं हरे रुक्मिण्याचख्यौ प्रातरुत्थिता । विश्वैकवीरस्ते सूनुर्भावीति व्याकरोच्च सः ॥१२०॥ तदा च दासी भामायाः स्वप्नव्याख्यां निशम्य ताम् । गत्वा शशंस भामायै तस्याः श्रवणदुःखदम् ॥१२१॥ साऽपि स्वप्नं कल्पयित्वोपेत्याऽऽख्याच्छार्ङ्गपाणये । हस्तिमल्लोपमो हस्ती स्वप्नेऽद्य ददृशे मया ॥१२२॥ . तत्कूटर्मिङ्गतैर्ज्ञात्वाऽप्यसौ मा कुप्यदित्यथ । व्याख्यात् कृष्णस्तव सुतो भविष्यति शुभः खलु ॥१२३॥ दैवात् तदाऽभवत् त गर्भोऽवर्धिष्ट चोदरम् । रुक्मिण्युत्तमगर्भत्वाद् यथावस्थोदरा त्वभूत् ॥ १२४ ॥ सत्यभामाऽन्यदा विष्णुमुवाच तव पत्न्यसौ । शशंस मायया गर्भं निरीक्षस्वोदरं द्वयोः ॥ १२५ ॥ तदा चाऽवर्धयत् कृष्णं दास्येका यत् सुतोऽधुना । सुषुवे रुक्मिणीदेव्या महात्मा काञ्चनप्रभः ॥ १२६ ॥ सत्यभामाऽपि तच्छ्रुत्वा विलक्षा क्रोधविह्वला । गृहं यान्त्येव सुषुवे भानुकं नामतः सुतम् ॥१२७॥ कृष्णोऽपि मुदितोऽगच्छदुक्मिण्याः सदने तदा । अर्वाक्सिंहासनासीन आनाय्याऽपश्यदात्मजम् ॥१२८॥ प्रद्योतयन् दिशः सर्वाः प्रद्युम्नोऽस्त्वेष नामतः । तमित्युल्लापर्यैन् बालं क्षणमस्थाज्जनार्दनः ॥ १२९ ॥ |[प्राग्वैराद् रुक्मिणीवेषो धूमकेतुः सुरस्तदा । एत्य कृष्णाद् गृहीत्वाऽर्भं प्रति वैताढ्यमभ्यगात् ॥ १३०॥ ययौ च भूतरमणोद्याने टङ्कशिलोपरि । दध्यौ चैनं किमास्फाल्य हन्मि नैवं हि दुःखभाक् ॥१३१॥ तन्मुञ्चामि शिलापृष्ठे निराहारः क्षुधातुरः । क्रन्दन्नेष म्रियेतेति तं तत्रोत्सृज्य सोऽगमत् ॥१३२॥
९०
१. विधिवत् पूजयामास पा० । २. ०भ्यर्णगृहे खं. २, सू० । ३. गान्धारभूषणे खं० १ सू० ला० र०, गान्धारदेशे । ४. दत्तं पत्रं प्रशस्तिपत्रं यस्याः सा । ५. गोत्रिभिः । ६. कृष्णस्य अष्टौ पट्टराज्ञ्यः (१. सत्यभामा, २. रुक्मिणी, ३. लक्ष्मणा ४. जाम्बवती ५. सुसीमा ६. गौरी ७. पद्मावती ८. गान्धारी) । ७. परिणेष्यति मु० । ८. स्वगृहम् । ९. शुभ्र । १०. ऐरावतोपमः । ११. चेष्टाभिः । १२. सत्यभामायाः १३. पूर्व । १४. ०पयित्वा स क्षण० ला । १५. बालकम् । १६. स मु० ।
(अष्टमं पर्व
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षष्ठः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
सोऽर्भश्चरमदेहत्वान्निरुपक्रमजीवितः । 'बहुपर्णाञ्चिते देशे निपपाताऽविबाधितम् ॥१३३॥ प्रातश्चाऽग्निज्वालपुरात् स्वपुरं गच्छतः सतः । यानं तत्राऽस्खलत् कालसंवरस्य खचारिणः ।।१३४॥ विमानस्खलने हेतुं खेचरेन्द्रः स चिन्तयन् । अधस्तादुत्तताराऽर्भं तं चाऽपश्यन् महाद्युतिम् ॥१३५।। विमानस्खलने हेतुर्महात्मा कोऽप्यसाविति । पत्न्यै कनकमालायै पुत्रत्वेनाऽऽपयत् सं तम् ॥१३६। स्वपुरे मेघकूटाख्ये स गत्वा खेचरोऽवदत् । मम पत्नी गूढगर्भाऽऽसीत् तनयं सुषुवेऽधुना ॥१३७।।
पुत्रजन्मोत्सवं कृत्वा संवरः सुदिनेऽकरोत् । दिशां प्रद्योतनात् तस्य प्रद्युम्न इति चाऽभिधाम् ॥१३८।। पाइतश्च कृष्णो रुक्मिण्योपेत्याऽप्रच्छि व ते सुतः । सम्प्रत्येव त्वया नीत इत्यूचे सा च विष्णुना ॥१३९।। प्रतारयसि किं नाथेत्युक्तः कृष्णस्तया पुनः । केनाऽपि च्छलितोऽस्मीति बहुधाऽन्वैषयत् सुतम् ॥१४०॥ सुतोदन्ते त्वसम्प्राप्ते रुक्मिणी मूच्छिताऽपतत् । रुरोद लब्धसंज्ञा तु तारं परिजनैः समम् ॥१४१|| यदवो यदुपत्न्यश्च तस्थुः सर्वेऽपि दुःखिताः । सत्यभामां विमुच्यैकां तदीयं च परिच्छदम् ॥१४२।। प्रभविष्णोर्न किं विष्णोः पुत्रोदन्तोऽधुनाऽपि हि । रुक्मिण्येवं ब्रुवाणाऽदाद् दुःखं कृष्णस्य दुःखिनः ॥१४३।। अशेषैर्यदुभिः सार्धं तत्रोद्विग्नस्य शाङ्गिणः । सभायां नारदोऽभ्यागात् किमेतदिति चावदत् ॥१४४॥ कृष्णो बभाषे रुक्मिण्या जातमात्रः करान्मम । हृतः केनाऽपि तनयः शुद्धि जानासि तस्य किम् ॥१४५।। उवाच नारदोऽत्राऽऽसीन्महाज्ञान्यतिमुक्तकः । स गतो मोक्षमधुना न ज्ञानी कोऽपि भारते ॥१४६।। सीमन्धरतीर्थकरः सर्वसंशयनाशनः । साम्प्रतं प्राग्विदेहेषु गत्वा प्रक्ष्यामि तं हरे ! ॥१४७॥ कृष्णेन यदुभिश्चान्यैरभ्याभ्यर्थितो ययौ । नारदस्त्वरितं तत्र यत्र सीमन्धरः प्रभुः ॥१४८।। स्थितं समवसरणे तं जिनेन्द्रं प्रणम्य सः । पप्रच्छ कृष्ण-रुक्मिण्योर्भगवन् ! क्व सुतोऽधुना? ॥१४९।। स्वाम्याख्यद् धुसदा धूमकेतुना प्राग्भवारिणा । हृतश्छलेन कृष्णस्य प्रद्युम्नो नाम नन्दनः ॥१५०॥ मक्तस्तेनोपवैताढ्यं शिलायां न त सोऽमत । हन्तं चरमदेहत्वात् स केनाऽपि न शक्यते ।।१५१।। प्रातश्च गच्छता दृष्टः संवरेण खचारिणा । पुत्रत्वेनाऽर्पितः पत्यै वर्धमानोऽस्ति सम्प्रति ॥१५२॥ कथं वैरं धूमकेतोस्तेनाऽभूत् पूर्वजन्मनि? । भूयोऽपि नारदेनैवं पृष्टः स्वामीत्यवोचत् ॥१५३।। पाजम्बूद्वीपस्य भरते मगधेषु महद्धिके । शालिग्रामेऽस्त्युपवनं ख्यातं नाम्ना मनोरमम् ॥१५४॥ तस्योद्यानस्याऽधिपतिर्यक्षोऽभूत् सुमना इति । अवात्सीत् तत्र च ग्रामे सोमदेव इति द्विजः ॥१५५॥ सोमदेवस्याऽग्निलायां पत्न्यामभवतां सुतौ । अग्निभूतिर्वायुभूतिश्चौभौ वेदार्थकोविदौ ॥१५६।। विद्यया विश्रुतौ तत्र द्वावपि प्राप्तयौवनौ । भुञ्जानौ विविधान् भोगांस्तस्थतुस्तौ मदोद्धरौ ॥१५७।। तस्मिन् मनोरमोद्यानेऽपरेधुर्नन्दिवर्धनः । आचार्यः समवासार्षील्लोकेनैत्य च वन्दितः ॥१५८॥ अग्निभूति-वायुभूती दृप्तौ त्वेत्यैवमूचतुः । शास्त्रार्थं वेत्सि चेत् कञ्चित् तद् भो ! वद सिताम्बर ! ॥१५९।। नन्दिवर्धनशिष्यस्तौ सत्योऽवोचत् कुतो युवाम् । समायातौ शालिग्रामादिति तावप्यशंसताम् ॥१६०॥ भूयः सत्योऽवदत् प्राप्तौ मानुष्यं भोः ! कुतो भवात् । इति पृच्छामि तद् ब्रूतं जानीथो यदि किञ्चन ॥१६१॥ ततस्तौ तस्थतुर्लज्जाधोमुखौ ज्ञानवर्जितौ । आख्यातुं तद्भवं सद्यो मुनिरेवं प्रचक्रमे ॥१६२॥ ग्रामस्याऽस्य वनस्थल्यां शृगालौ पललाशिनौ । युवां पूर्वभवेऽभूतमहो ! ब्राह्मणसत्तमौ ! ॥१६३।। क्षेत्रे कुटुम्बिनैकेन चर्मरज्ज्वादिकं निशि । मुंक्तं वृष्ट्याऽऽीकृतं तत् ताभ्यां सर्वमभक्ष्यत ॥१६४॥ अत्याहाराद् विपद्योभौ तौ युवां निजकर्मणा । सोमदेवद्विजसुतौ सञ्जाताविह जन्मनि ॥१६५॥ पाप्रभाते हालिक: सोऽपि सर्वं तत्प्रेक्ष्य भक्षितम् । गतः स्वगेहे कालेन मृत्वाऽभूत् स्वर्गुषासुतः ॥१६६।। १. बहुपर्णाचिते ता० सं० ला०, बहुपर्णचिते खं०१। २. नि:पपाता० मु० । ३. विद्याधरस्य । ४. सुतम् मु० र० । ५. बहुत्रा० खं० २, बहु चा० ला० । ६. ०न्वेषयत् खं० १-२, मु० र० । ७. समर्थस्य । ८. पूर्वविदेहेषु । ९. पृच्छामि मु० । १०. रत्यर्थाभ्यर्चितो खं० २ । ११. स्वाम्याख्याद् मु० र० । १२. गत्वैव० ख० १ । १३. किञ्चित् खं० २, ला० सू० । १४. प्राप्तं खं० १ । १५. तद्भूत खं० २ । तदवृत्तं जानीषे ला० । १६. सत्यो मु० । १७. पूर्वभवेऽभूता० ता० पा० ला० मु० । १८. पृक्तं ला० । १९. स्वपुत्रवधूसुतः।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगम्फितं
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(अष्टमं पर्व
जातिस्मरत्वं 'सम्प्राप्तः स्नुषा माता सुत: पिता । कथं वाच्यो मयेत्यासीज्जन्ममूकः स कैतवात् ॥१६७॥ न चेद् वां प्रत्ययस्तत् तं पृच्छतं मूकहालिकम् । वृत्तान्तमेनं स यथा मौनं मुक्त्वा ब्रवीति वाम् ।।१६८।। लोकेन सद्योऽप्यानीतः स मौनी तत्र हालिकः । उचे च मुनिना ब्रूहि प्राग्जन्म निजोदितः ॥१६९।। पुत्रः पिता पिता पुत्र ईदृक् प्रायो भवस्थितिः । प्राग्जन्मसम्बन्धभवां हियं मौनं च तत् त्यज ॥१७०॥ आत्मसंवादमुदितः स नमस्कृत्य तं मुनिम् । सर्वेषां शृण्वतामाख्यत् प्राग्जन्म स्वं तथैव हि ॥१७॥ प्राव्रजन् बहवस्तत्र प्रबन्ध्य स च हालिकः । हास्यमानौ जनैस्तौ तु विलक्षौ जग्मतर्गहम् ॥१७२॥ पाविप्रौ वैरायमाणौ तौ सासी हन्तुं तु तं मुनिम् । निश्यायातौ सुमनसा यक्षेण स्तम्भितौ क्षणात् ॥१७३।। प्रातश्च ददृशुर्लोकास्तन्माता-पितरौ च तौ । कन्दन्तौ सुमना यक्षः प्रत्यक्षमिदमभ्यधात् ॥१७४॥ एतौ मुनि जिघांसन्तौ दुर्मती स्तम्भितौ मया । प्रव्रज्यां यदि गृह्णीतस्तदा मुञ्चामि नाऽन्यथा ॥१७५॥ दुष्करः साधुधर्मो नौ धर्मं तु श्रावकोचितम् । करिष्याव इति ताभ्यामुक्ते मुक्तौ सुरेण तौ ॥१७६॥ तदादि चक्रतुस्तौ तु जिनधर्मं यथाविधि । नाऽर्हद्धर्मं तत्पितरौ प्रपेदाते मनागपि ॥१७७॥ अग्निभूति-वायुभूती तो मृत्वाऽभवतां सुरौ । षट्पल्यप्रमितायुष्को कल्पे सौधर्मनामनि ॥१७८।। च्युत्वाऽभूतां गजपुरेऽर्हद्दासवणिजः सुतौ । पूर्णभद्र-माणिभद्रौ श्रावको प्राग्भवक्रमात् ॥१७९॥ महेन्द्रो नाम तर्षिरन्यदा समवासरत् । अर्हद्दासः प्रवव्राज श्रुत्वा धर्मं तदन्तिके ॥१८०॥ पूर्णभद्र-माणिभद्रौ महेन्द्रं वन्दितुं मुनिम् । यान्तौ शुनिकां चण्डालं दृष्ट्वा सिष्णिहतुः पथि ॥१८१॥ गत्वा नत्वा महेन्द्रर्षि तौ पप्रच्छतुरेष कः । चण्डाल: का च शुनिका स्नेहो यदर्शनेन नौ ॥१८२॥ स आचख्यावग्निभूति-वायुभूतिभवे हि वा । पिता विप्रः सोमदेवोऽभवन्माताऽग्निलाभिधा ॥१८३॥ पिता स मृत्वा भरतेऽत्रैव शङ्खपुरेऽभवत् । जितशत्रुर्नाम नृपः परदाररतः सदा ॥१८४॥ मृत्वाऽग्निला तु तत्रैव पुरे शङ्कपुरेऽजनि । सोमभूतेब्राह्मणस्य रुक्मिणी नाम गेहिनी ॥१८५ तां स्वगेहाङ्गणगतां जितशत्रुनृपोऽन्यदा । व्रजन् ददर्श सद्योऽपि जज्ञे" कामवशेश्च सः ॥१८६॥ उत्पाद्याऽगः सोमभूतेस्तां राजाऽन्तःपुरे न्यधात् । सोऽग्निमग्न इवाऽस्थात् तु द्विजस्तद्विरहातुरः ॥१८७॥ जितशत्रुस्तया रन्त्वा सहस्रं शरदामथ । मृत्वा बभूव नरके त्रिपल्योपमजीवितः ॥१८८॥ ततश्च हरिण: सोऽभूद्धतो मृगयुणा पुनः । जज्ञे श्रेष्ठिसुतो मायी सोऽपि मृत्वाऽभवद् गजः ॥१८९॥ दैवाज्जातिस्मरः सोऽभूत् प्रायं कृत्वा मृतोऽहनि । अष्टादशे त्रिपल्यायुर्वैमानिकसुरोऽभवत् ॥१९०|| ततश्च्युत्वैष चण्डालः सोऽभूत् सा रुक्मिणी पुनः । भवं भ्रान्त्वाऽभूच्छुनीयं तेन वां स्नेह एतयोः ॥१९१॥ इति श्रुत्वा पूर्णभद्र-माणिभद्रौ तदाऽऽप्तया । जातिस्मृत्याऽबोधयतां चण्डालं शुनिकां च ताम् ॥१९२॥ ततो विरक्तश्चण्डालो मासं सोऽनशने स्थितः । मृत्वा नन्दीश्वरद्वीपे त्रिदशः समजायत ॥१९३।। प्रबुद्धा शुनिकों साऽपि विहितानशना मृता । तत्रैवाऽभूत् शङ्खपुरे राजपुत्री सुदर्शना ।।१९४।। पुनरप्यागतस्तत्र महेन्द्रर्षिः शशंस ताम् । पृष्टोऽर्हद्दासपुत्राभ्यां शुनी-चण्डालसद्गतिम् ॥१९५॥ ताभ्यां भूयोऽपि सा राजहिता प्रतिबोधिता । उपादाय परिव्रज्यां देवलोकमुपाययौ ॥१९६।। पापूर्णभद्र-माणिभद्रौ गृहिधर्मं तु तौ तदा । कृत्वा मृत्वा च सौधर्मेऽभूतां सामानिको सुरौ ॥१९७।। च्युत्वा च हास्तिनपुरे विष्वक्सेनस्य भूपतेः । मधु-कैटभनामानावभूतां तनयावुभौ ॥१९८॥
नन्दीश्वरसुरः सोऽपि च्युत्वा भ्रान्त्वा भवं चिरम् । अभूद् वटपुरे राजा नामतः कनकप्रभः ॥१९९।। १. स प्राप्त: खं० सू० । २. स्वकमादित: खं० १, । ३. असिना सहितौ । ४. सुमना यक्षः प्रत्यक्षं क्रन्दन्ताविदमभ्यधात् की। ५. तौ विपद्य बभूवतुः खं० १, सू० । ६. माहेन्द्रो मु० । ७. आवयोः । ८. युवयोः । ९. सोमदेवो द्वितीयभवे जितशत्रुनृपः । १०. अग्निला द्वितीयभवे रुक्मिणी । ११. जहे खं० २ । १२. कामवशंवद: मु० । १३. अपराधम्। १४. वर्षाणाम् । १५. इतश्च खं० २। १६. व्याधेन। १७. अनशनम् । १८. शुनकी र० । १९. चाण्डाल खं० १, ला०, चण्डालयोर्गतिम् सू० । २०. हस्तिना० खं० २, हस्तिन० मु०।
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षष्ठः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
च्युत्वा सुदर्शना साऽपि भवं भ्रान्त्वा च भूरिशः । कनकप्रभराजस्य चन्द्राभेति महिष्यभूत् ।।२००॥ विष्वक्सेनो मधुं राज्ये यौवराज्ये च कैटभम् । निधाय व्रतमादाय ब्रह्मलोकमुपागतः ॥२०१।। वशीकृताशेषभुवोर्मधु-कैटभयोस्तयोः । पल्लीपतिश्छलात् श्वेव भीमो देशमुपाद्रवत् ॥२०२॥ मधः प्रतस्थे तं हन्तुं मार्गे वटपरेऽथ सः । अभ्यचितो भोजनाद्यैः कनकप्रभभूभुजा ॥२०३॥ स सेवक: स्वामिभक्त्या पत्न्या चन्द्राभया समम् । उपतस्थे भोजनान्ते प्राभृतेन मधुं नृपम् ॥२०४।। मधुं प्रणम्य चन्द्रामा भूयोऽप्यन्तःपुरं ययौ । तदैवाऽऽदित्सति मधुः कामार्तस्तां बलादपि ॥२०५।। तदा निषिद्धोऽमात्येन ययौ मधुनपोऽग्रतः । भीमं पल्लीपति जित्वा निवृत्तस्तत्र चाऽऽययौ ॥२०६।। कनकप्रभराजेन भूयोऽपि मधुरर्चितः । उवाच प्राभृतैस्तेऽलं चन्द्राभैव ममाऽर्प्यताम् ॥२०७॥ याच्यमानोऽपि कनकप्रभस्तां न ददौ यदा । तदाऽऽच्छिद्यापि चन्द्राभां निनाय स्वपुरे मधुः ।।२०८।। पपात मूर्छितः पृथ्व्यां विधुरः कनकप्रभः । उत्थाय विललापोच्चैरुन्मत्त इव चाऽभ्रमत् ॥२०९।। पाव्यवहारे सहाऽमात्यैस्तस्थौ मधनपोऽन्यदा । तन्निर्णयमकृत्वाऽपि चन्द्राभासदनं ययौ ॥२१०॥ चिरायितं किमद्येति पृष्ठश्चन्द्राभया मधुः । पारादारिकवादेऽस्थामहमद्येत्यवोचत ॥२११॥ तं स्मित्वोवाच चन्द्राभा स पूज्य: पारदारिकः । मधुरूचे कथं पूज्यो ? निग्राह्याः पारदारिकाः ॥२१२॥ भूयोऽप्युवाच चन्द्राभा यद्येवं न्यायनिष्ठुरः । आत्मानं किं न जानीषे प्रथमं पारदारिकम् ? ॥२१३॥ तच्छ्रुत्वा प्रतिबुद्धः स लज्जितोऽस्थादथाऽऽययौ । गायन्नृत्यन् राजमार्गे वृतोऽभैः कनकप्रभः ॥२१४|| दध्यौ तं प्रेक्ष्य चन्द्राभा मद्वियोगे दशामिमाम् । मत्पतिः प्राप्तवानेष धिग् मां परवशामिमाम् ॥२१५।। सा विचिन्त्येति मधवे तमायातमदर्शयत् । स्वेन दुष्कर्मणा तेन मधुरप्यन्वतप्यत ॥२१६॥ मधुर्बन्धुसुतं राज्ये न्यस्य कैटभसंयुतः । व्रतं जग्राह विमलवाहनस्याऽन्तिके गुरोः ॥२१७।। तौ तेपाते तपोऽत्युग्रं सहस्रान् शरदां बहून् । द्वादशाङ्गधरौ साधुवैयावृत्त्यकरौ सदा ॥२१८॥ विधायाऽनशने प्राप्ते विहितालोचनावुभौ । मृत्वाऽभूतां महाशुक्रे तौ सामानिकनाकिनौ ॥२१९॥ पाकनकप्रभराजोऽपि क्षुत्तृषादिभिरदितः । समासहस्रत्रितयं क्षपयित्वा व्यपद्यत ।।२२०॥ स नामतो धूमकेतुर्योतिष्केषु सुरोऽभवत् । ज्ञात्वाऽवधेः पूर्ववैरं मधुजीवं ममार्ग च ॥२२१।। मधुं महद्धिदेवत्वादपश्यन्नैव सोऽमरः । च्युत्वा प्राप्य च मर्त्यत्वं तापसः समजायत ।।२२२।। कृत्वा बालतपो मृत्वा सोऽथ वैमानिकोऽभवत् । मधुं महद्धि तत्राऽपि नैह्यभूद् द्रष्टुमीश्वरः ॥२२३॥ च्युत्वा ततोऽपि संसारं भ्रान्त्वा कर्मवशात् पुनः । धूमकेतुरिति नाम्ना ज्योतिष्केषु सुरोऽभवत् ॥ २२४॥ पाअत्राऽन्तरे मधुजीवो महाशुक्रात् परिच्युतः । रुक्मिण्या वासुदेवस्य महिष्या उदरेऽभवत् ॥२२५।। धूमकेतुः पूर्ववैराज्जातमात्रं तमर्भकम् । जहे जिघांसुश्चाऽक्षैप्सीद् दुष्टष्टङ्कशिलोपरि ॥२२६।। स्वप्रभावादक्षताङ्गः संवरेणाऽऽददे च सः । रुक्मिण्याः षोडशाब्दान्ते भविता तस्य सङ्गमः ॥२२७
एवं वियोगः पत्रेण रुक्मिण्याः केन कर्मणा ? । इति पृष्टो नारदेन प्रभुः सीमन्धरोऽवदत् ॥२२८|| पाजम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रे मगधमण्डले । लक्ष्मीग्रामाभिधे ग्रामे सोमदेवोऽभवद् द्विजः ।२२९।। तस्य लक्ष्मीवती भार्या कदाऽप्युपवने गता । दृष्ट्वाऽस्पृशन् मयूराण्डं कुङ्कमाक्तेन पाणिना ॥२३०|| तत्स्पर्शेन तदण्डं तु वर्ण-गन्धान्तरं गतम् । मात्रा स्वमित्यजानत्या घटिकाषोडशोज्झितम् ॥२३१।। ततो वष्टाब्दतोयेन स्वभावस्थं तदण्डकम् । दृष्ट्वा सङ्गोपितं मात्रा कालेनाऽभून्मयूरकः ॥२३२॥ भूयो लक्ष्मीवती तत्राऽऽयाता तं केकिबालकम् । दृष्ट्वाऽतिरम्यं जग्राह रुदैत्यामपि मातरि ॥२३३।। स्वगृहे पञ्जरे न्यस्य प्रीणाति पान-भोजनैः । तं तथा साऽशिषन्नृत्यं यथा चारु ननर्त सः ॥२३४।। १. देवलोक खं० २, ता० सं० ला० पा० आ० । २. पल्लीपतिच्छलादेव मु० । ३. आदातुमैच्छत् । ४. प्राभृतेनालं० ला० । ५. न्याये। ६. चिरायातं खं० १, ला० सू० । ७. तमायान्त० मु० र० । ८. मधुर्धन्धुसुतम् मु० र० । ९. पीडितः । १०. वर्ष । ११. न ह्यमुं मु०। १२. त्यजानन्त्या मु० र० । १३. ०षोडशोज्झ्य तम् खं० १ । १४. ततोऽदृष्टाब्द० मु० । १५. रुदन्त्या० मु० र० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तन्माता तु मयूरी सा रंसन्ती विरसस्वरम् । न मुमोच प्रदेशं तं पुत्रस्नेहनियन्त्रिता ॥२३५॥ ततस्तां लोक इत्यूचे कौतुकं ते नं पूर्यते । इयं वराकी म्रियते मयूरी, मुञ्च तत्सुतम् ॥२३६।। तद्राि साऽपि सकृपाऽमुञ्चत् षोडशमासिकम् । उद्यौवनं तत्र नीत्वा यतः स्थानादुपाददे ॥२३७|| बद्धं तेन प्रमादेन ब्राह्मण्या षोडशाब्दिकम् । कर्म स्वपुत्रविरहवेदनीयं महत्तरम् ॥२३८॥ पाअन्येधुर्दर्पणे तस्यौः पश्यन्त्याः स्वं विभूषितम् । मुनिः समाधिगुप्ताख्यो भिक्षार्थं प्राविशद् गृहे ॥२३९॥ भिक्षामस्मै प्रदेहीति तामूचे तत्पतिर्द्विजः । आहूतः केनचित्पुंसा तदैव स बहिर्ययौ ॥२४०॥ तया थुविंति कुर्वत्या जल्पित्वा परुषाक्षरम् । निर्वासितः स महर्षिभरं च पिहितं द्रुतम् ॥२४१॥ जुगुप्साकर्मणा तेन सप्तमेऽहनि साऽभवत् । सर्वांगीणगलत्कुष्टा विरक्ताऽग्नौ विवेश च ॥२४२॥ मृत्वा तत्राऽभवद् ग्रामे गर्दभी रजकस्य सा । भूयोऽपि मृत्वा तत्रैव ग्रामेऽभूद् गर्तसूकरी ॥२४३।। साऽपि मृत्वा शुन्यभवद् दग्धा साऽपि दवाग्निना । भावभेदेन मायुर्बद्ध्वा तत्र व्यपद्यत ॥२४४॥ पुरस्य भृगुकच्छस्य समीपे नर्मदातटे । दुर्गन्धा दुर्भागा कोणाभिधाऽभूद् धीवरात्मजा ॥२४५॥ मुक्ता पितृभ्यां तद्गन्धासहाभ्यां नर्मदातटे । उद्यौवना जनं नावोत्तारयामास साऽनिशम् ॥२४६।। दैवात् समाधिगुप्तर्षिः शीतौ तत्र चाऽऽययौ । कायोत्सर्गेण निश्यस्थान्निष्कम्पः साँनुमानिव ॥२४७॥ महात्मैष निशां सर्वां कथं शीतं सहिष्यते । विमृश्येत्याईचित्ता सा तं तृणैः प्रावृणोन्मुनिम् ॥२४८॥ व्यतीतायां विभावर्यां मुनिवर्यं ननाम सा । भद्रिकेत्यादिशद् धर्मं तस्यै सोऽपि महामुनिः ॥२४९॥ एष क्वाऽपि मया दृष्ट इति ध्यात्वा चिरं तया । पृष्टः स मुनिराचख्यौ तस्यास्तान् प्राक्तनान् भवान् ॥२५०|| भूयोऽप्यूचे महर्षिः स कृतसाधुजुगुप्सया । इह जाताऽसि दुर्गन्धा सर्वं कर्मानुसारि हि ॥२५१।। सा जातजातिस्मरणा जुगुप्सां प्राग्भवे कृताम् । तं मुनि क्षमयामास गर्हन्ती स्वं मुहुर्मुहुः ॥२५२।। साऽभूच्च श्राविका तेन मुनिना च कृपालुना । धर्मश्रीनामधेयाया आर्यिकायाः समर्पिता ॥२५३॥ सहैव विहरन्ती सा ग्रामे क्वाऽपि प्रयातया । धर्मश्रिया नायलस्य श्रावकस्य समर्पिता ॥२५४॥ एकान्तरोपवासस्था जिनपूजारता सदा । अनैषीद् द्वादशाब्दानि सा स्थिता नायलाश्रये ॥२५५।। सा कृतानशना मृत्वाऽच्युतेन्द्रस्य महिष्यभूत् । पञ्चपञ्चाशत्पल्यायुः प्रच्युत्याऽभूत् तु रुक्मिणी ॥२५६।। मयूरीपुत्रविरहदानादब्दानि षोडश । रुक्मिणी पुत्रविरहदुःखान्यनुभविष्यति ॥२५७|| पाश्रुत्वेति भगवन्तं तं नमस्कृत्य च नारदः । उत्पत्येयाय वैताढये मेघकूटाह्वये पुरे ॥२५८॥ दिष्ट्या तवाऽभवत् पुत्र इति जल्पंश्च नारदः । संवरेणाऽचितस्तस्य प्रद्युम्नश्च प्रदशितः ॥२५९॥ नारदोऽपि च तं दृष्टवा रुक्मिणीसदृशं सुतम् । सप्रत्ययः संवरं तमापृच्छ्य द्वारकां ययौ ॥२६०॥ कष्णादीनां स आचख्यौ पुत्रोदन्तमशेषतः । रुक्मिण्यास्तु लक्ष्मीवतीभववृत्तान्तपूर्वकम् ॥२६१।। ततश्च रुक्मिणी देवी भक्तितो रचिताञ्जलिः । सीमन्धरं भगवन्तं तत्रस्थाऽपि नमोऽकरोत् ॥२६२।। भविता षोडशाब्दान्ते सुतेन सह सङ्गमः । इत्याहतेन वचसा स्वस्था तस्थौ च रुक्मिणी ॥२६३।। ाइतश्च पूर्वं वृषभस्वामिनः कुरुरित्यभूत् । सुतो यस्याऽभिधानेन कुरुक्षेत्रमिहोच्यते ॥२६४।। कुरोः सुतोऽभवद् हस्ती यन्नाम्ना हस्तिनापुरम् । हस्तिभूपतिसन्तानेऽनन्तवीर्योऽभवन्नृपः ॥२६५।। तस्माच्च कृतवीर्योऽभूत् सुभूमश्चक्रभृत् ततः । ततोऽप्यसङ्ख्यभूपेषु शान्तनुः पार्थिवोऽभवत् ।।२६६।। गङ्गा सत्यवती चेति तस्याऽभूतामुभे प्रिये । गङ्गायामभवत् पुत्रो भीष्मो भीष्मपराक्रमः ॥२६७|| चित्राङद-चित्रवीयौँ सत्यवत्याः सतावभौ । अम्बिका-ऽम्बालिका-ऽम्बेति चित्रवीर्यस्य त् प्रियाः ॥२६८॥
तासां धृतराष्ट्र-पाण्डु-विदुरास्तनयाः क्रमात् । धृतराष्ट्रे न्यस्तराज्योऽभूत् पाण्डुम॑गयापरः ॥२६९।। १. कूजन्ती । २. तु ला० । ३. तस्यां पश्यन्त्यां मु० । ४. थुक्कातिकुर्वन्त्या मु० । ५. विरूपा खं० २ । ६. नाम्ना काणाऽभू० खं० १, सू० । ७. पर्वतः । ८. दयालुचित्ता । ९. मुनिः । १०. प्राकृतान् मु०, प्राकृतान् र० । ११. क्षामया० मु० र० । १२. शंवरे० खं० १-२, ला० । १३. शंवरं खं० १, ला० । १४. हस्तितोऽनेकभूपेष्वनन्तवीर्यो पु० सू० । १५. पत्न्यौ । १६. न्यस्तराज्ये मु० २० ।
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षष्ठः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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९५
धृतराष्ट्रः पर्यणैषीदष्टौ सुबलजन्मनः । गन्धारराज-शकुनेर्गान्धार्याद्याः सहोदराः ॥२७०॥ दुर्योधनादयस्तासु शतं सञ्जज्ञिरे सुताः । पाण्डोर्युधिष्ठिर-भीमा-ऽर्जुनाः कुन्त्यां तु नन्दनाः ॥२७१।। पाण्डोः पत्न्यां द्वितीयायां शल्यस्वसरि नन्दनौ । मद्रयामभूतां नकुल-सहदेवौ महाभुजौ ॥२७२।। ते पाण्डुपुत्राः पञ्चाऽपि शूराः पञ्चानना इव । खेचराणामप्यजय्या विद्याभुजबलोजिताः ॥२७३।।
अनज्येष्ठं विनीतास्ते दर्नीतिमसहिष्णवः । अचित्रीयन्त पञ्चाऽपि लोके लोकोत्तरैर्गुणैः ॥२७४॥ पाअन्येधुः काम्पील्यपुराद् द्रुपदस्य महीपतेः । आगत्य दूतो नत्वा च पाण्डुराजमदोऽवदत् ।।२७५॥ .
सुता द्रुपदराजस्य धृष्टद्युम्नस्य चाऽनुजा । चुलनीकुक्षिजाताऽस्ति द्रौपदी नाम कन्यका ॥२७६।। तस्याः स्वयंवरे सर्वे दशार्हाः सीरि-शाङ्गिणौ । दमदन्त-शिशुपालौ रुक्मी कर्णः सुयोधनः ॥२७७॥ अपरेऽपि हि राजानः कुमाराश्च महौजसः । राज्ञोऽऽहूताः प्रेष्य दूतान् गच्छन्तः सन्ति सम्प्रति ॥२७८॥ युग्मम् ।। एभिर्देवकुमाराभैः कुमारैः पञ्चभिः सह । तत्राऽऽगत्याऽलङ्करुष्व तं स्वयंवरमण्डपम् ॥२७९॥ तैः सुतैः पञ्चभि त्रैर्युक्तो बाणैरिव स्मरः । पाण्डुस्तदाऽऽगात् काम्पील्यं राजानोऽन्येऽपि चाऽऽययुः ॥२८०॥ द्रुपदेनाऽचिंतास्तत्र प्रत्येकमपि पार्थिवाः । स्वयंवरसदोऽध्यस्थुरन्तरिक्षमिव ग्रहाः ॥२८१॥ पाअथ स्नाता शुचिवेषा माल्या-ऽलङ्कारधारिणी । द्रौपद्यर्हन्तमर्चित्वा सखीभिः परिवारिता ॥२८२॥ रूपेणाऽमरकन्येवाऽऽगात् स्वयंवरमण्डपम् । सामानिकैरिव सुरैः कृष्णादिभिरलङ्कतम् ॥२८३।। तत्र सख्या नामग्राहं दर्श्यमानेष राजस । पश्यन्ती द्रुपदसुता प्रययौ यत्र पाण्डवाः ॥२८४।। सा सानुरागा चिक्षेप स्वयंवरणमालिकाम् । पञ्चानामपि कण्ठेषु युगपत् पाण्डुजन्मनाम् ॥२८५।। किमेतदिति साश्चर्यं तत्राऽभूद् राजमण्डलम् । यावत् तावच्चारणर्षिस्तत्र कश्चित् समाययौ ॥२८६।। द्रौपद्याः पञ्च भर्तारः किं नु स्युरिति राजभिः । कृष्णादिभिः सोऽनुयुक्तः समाचख्याविदं मुनिः ॥२८७।। पाइयं हि पञ्चपतिका प्राग्भवार्जितकर्मणा । भविष्यति किमाश्चर्यं कर्मणां विषमा गतिः ॥२८८।। तथा ह्यत्रैव चम्पायां पुरि विप्रास्त्रयोऽभवन् । सोमदेवः सोमभूतिः सोमदत्तश्च सोदराः ॥२८९॥ तेषां धान्य-धनाढ्यानामासन् पत्न्यः क्रमादिमाः । नागश्रीरथ भूतश्रीर्यक्षश्रीश्चेति नामतः ॥२९०॥ मिथः स्निग्धाश्च तेऽन्येधुर्व्यवस्थामिति चक्रिरे । वारवारेण भोक्तव्यं सर्वैरेकैकवेश्मनि ॥२९१।। तथैव कुर्वतां तेषां सोमदेवगृहेऽन्यदा । भोजनावसरे प्राप्ते नागश्रीः 'प्रगुणं व्यधात् ॥२९२।। तया विविधभोज्यानि पचन्त्या विविधं तदा । अजोनत्या कट्वलाबु विपच्य व्यञ्जनीकृतम् ॥२९३॥ एतत् कीदृग्जातमिति ज्ञातुमास्वादितं तया । अभोज्यमिति चाऽज्ञायि थूत्कृतं च तदैव हि ॥२९४।। संस्कृतं स्वादर्भिद्रव्यैरप्येतद्विविधैर्मया । कट्वेवेति विमृशन्ती विषण्णा तदगोपयत् ॥२९५।। तद्वर्जमपरैभौज्यैर्भोजयामास सा तदा । सकुटुम्बानपि पति-देवरान् गृहमागतान् ।।२९६॥ पतदा सुभूमिभागाख्य उद्याने समवासरत् । श्रीधर्मघोष आचार्यो ज्ञानवान् सपरिच्छदः ॥२९७।। शिष्यो धर्मरुचिस्तस्य मासक्षपणपारणे । सोमदेवादिषु गतेष्वागान्नागश्रियो गृहम् ॥२९८॥ एषोऽपि तोषितोऽनेन भवत्विति विमृश्य सा । अलार्बुव्यञ्जनं तस्मै नागश्रीर्मुनये ददौ ॥२९९।। सोऽप्यपूर्वं मया द्रव्यं लब्धमित्यभिचिन्तयन् । गत्वा दर्शयितुं पात्रं गुरुहस्ते समार्पयत् ॥३००। गुरुस्तद्गन्धमाघ्रायोवाचेदं भोक्ष्यसे यदि । तदा विपत्स्यसे वत्स ! तत्परिष्ठापयाऽऽश्विदम् ॥३०१॥ सम्यग्ज्ञात्वाऽपरं पिण्डं गृहीत्वा पारयेरिति । तेनोक्तः स बहिर्गत्वा शुद्धं स्थण्डिलमासदत् ॥३०२॥ तत्र पात्रात् तुम्बरसबिन्दुरेकोऽपतत् स्वयम् । म्रियमाणा अपश्यच्च तत्र लग्नाः पिपीलिकाः ॥३०३।। १. सुबलराजसुतस्य । २. गन्धारदेशाधिपशकुनेः अष्टौ भगिन्यः गान्धार्याद्याः पर्यणैषीत् । ३. कुन्त्यास्तु मु० र० । ४. शल्यनृपस्य भगिन्याम् । ५. स्वयंवरे तत्र सर्वे ला० । ६. राजाहूताः ला०१, पा० मु० । ७. ऽध्यष्ठ० ला० सू० । ८. ०णामरकन्याभाऽऽगात ला० पा० मु० । ९. पृष्टः । १०. बहुप्रकारेण सज्जम् । ११. अजानन्त्या खं० २ । १२. कटुतुम्बम् । १३. अलाबू० मु० र०।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
दध्यौ च बिन्दुनाऽप्यस्य म्रियन्तेऽनेकजन्तवः । स्यात् परिष्ठापितेऽस्मिंस्तु कियतां प्राणिनां मृतिः || ३०४ || वरमेको विपन्नोऽहं न पुनः प्राणिराशयः । निश्चित्येति स तत् तुम्बं स्वयमौद समाहितः || ३०४।। विधायाऽऽराधनां सम्यक् स समाधिपरायणः । मृत्वा सर्वार्थसिद्धेऽभूदहमिन्द्रः सुरोत्तमः ||३०६|| [इतश्च ते धर्मघोषाचार्या धर्मरुचेः कुतः । विलम्बोऽभूदिति ज्ञातुमादिक्षन्नपरान् मुनीन् ॥३०७॥ तैर्बहिः स मृतो दृष्टस्तद्रजोहरणादि च । आदायाऽऽख्यायि गत्वा च गुरवे गुरुखेदिभिः || ३०८|| ततः सोऽतिशयँज्ञानोपयोगेन गुरुर्जगौ । नागश्रियो दुश्चरितं श्रमणानामशेषतः || ३०९ || ततः सकोपा व्रतिनो व्रतिन्यश्चैत्य तत्र ते । सोमदेवप्रभृतीनां लोकानां चाऽऽचचक्षिरे ||३१०|| सोमाद्यैः साऽपि नागश्रीर्विप्रैर्निर्वासिता गृहात् । निर्भर्त्स्यमाना लोकैश्च दुःखं पर्याट सर्वतः ॥ ३११॥ कास-श्वास- ज्वर-कुष्टादिभी रोगैः सुदारुणैः । क्रान्ता षोडशभिः साऽऽपन्नारकत्वमिहाऽपि हि ॥ ३१२ || क्षुधिता तृषिता जीर्णखण्डवासा निराश्रया । पर्यटन्ती क्रमान्मृत्वा सा षष्ठं नरकं ययौ || ३१३॥ उद्धृत्य नरकान्म्लेच्छेऽप्यजायत विपद्य च । सप्तमं नरकं प्राप तद्वृत्ता झषेष्वभूत् ॥३१४॥ सप्तमं नरकं भूयो गत्वा म्लेच्छेष्वजायत । एवं द्विर्द्विर्ययौ पापा सर्वेषु नरकेषु सा ||३१५|| ततश्च पृथ्वीकायादिषूत्पद्याऽनेकशश्च सा । अकामनिर्जरायोगाद् दुष्कर्माऽशातयद् बहु ||३१६ || [ततश्चाऽत्रैव चम्पायां नाम्नाऽभूत् सुकुमारिका । श्रेष्ठि सागरदत्तस्य सुभद्राकुक्षिजा सुता ||३१७ || तत्रैवाऽऽसीज्जिनदत्तः सार्थवाहो महोधनः । भद्रा च गेहिनी तस्य सागरो नाम तत्सुतः ||३१८|| उपसागरदत्तौको जिनदत्तोऽन्यदा व्रजन् । उद्यौवनामपश्यत् तां कुमारीं सुकुमारिकाम् ||३१९।। अधिसौधं कन्दुकेन रममाणामुदीक्ष्य ताम् । योग्येयं मत्सुतस्येति स ध्यायन् स्वगृहं ययौ ॥३२०|| ततः सबन्धुरभ्येत्य जिनदत्तः स्वसूनवे । ययाचे सागरदत्तात् कुमारी सुकुमारिकाम् ॥३२१|| ऊचे सागरदत्तोऽपि सुता प्राणप्रिया मम । न स्थातुमहमीशोऽस्मि मनागप्यनया विना ॥ ३२२॥ मम चेद् गृहजामाता त्वत्सुतः सागरो भवेत् । तदा स्वपुत्रीं यच्छामि तस्मै सह धनादिभिः ॥ ३२३॥ आलोचयिष्यामीत्युक्त्वा जिनदत्तो गृहं ययौ । सागरस्य समाख्याच्च मौनेनाऽस्थाच्च सागरः || ३२४|| अनिषिद्धं ह्यनुमतमिति न्यायेन तत्पिता । मेने सागरदत्ताय गृहजामातरं सुतम् ॥ ३२५॥ तया कुमार्या ताभ्यां तु सागरः परिणायितः । तया समं वासगृहे गत्वा तल्पं च शिश्रिये ॥ ३२६ ॥ पूर्वकर्मवशात् तस्याः स्पर्शेनाऽङ्गारवद् भृशम् । दह्यमानः क्षणं तस्थौ कथञ्चित् तत्र सागरः ॥३२७॥ निद्रायमाणां तां मुक्त्वा नंष्ट्वा स स्वगृहं ययौ । अपश्यन्ती पतिं साऽपि निद्राच्छेदेऽरुदद्भृशम् ॥३२८॥ वधू-वरस्य दर्शनशौचहेतोः सुभद्रया । चेट्यादिष्टा प्रगेऽद्राक्षीद्रुदतीं तां धंवेोज्झिताम् ॥ ३२९ ॥ सा गत्वाऽऽख्यात् सुभद्रायै सुभद्रा श्रेष्ठिने पुन: । श्रेष्ठी तु जिनदत्तायोपालम्भं प्रददौ स्वयम् ॥३३०|| आहूय जिनदत्तोऽपि रहः स्वसुतमब्रवीत् । त्वया न युक्तं विदधे त्यजता सज्जनात्मजाम् ||३३१|| इदानीमपि तद्गच्छ वत्सोपसुकुमारिकम् । प्रतिपन्नं मया हीदृक् सज्जनानां पुरस्तदा ||३३२|| व्याहरत् सागरोऽप्येवं वरमग्नौ विशाम्यहम् । यास्यामि न पुनस्तात ! जातूपसुकुमारिकँम् ॥३३३॥ एतत् सागरदत्तोऽपि तत्कुड्यन्तरितोऽशृणोत् । निराशश्च ययौ गेहमूचे च सुकुमारिकाम् ||३३४|| विरक्तः सागरस्ते हि तत् तुभ्यमपरं पतिम् । अन्विष्याऽहं करिष्यामि पुत्रि ! मा खेदमुद्वह ||३३५|| सथान्येद्युर्गवाक्षस्थोऽपश्यत् कर्परधारिणम् । जीर्णखण्डाम्बरं भिक्षायाचकं मक्षिकावृतम् ॥ ३३६|| आहूय श्रेष्ठिना सोऽपि त्याजितः कर्परादिकम् । स्त्रपयित्वा भोजितश्च चर्चितश्चन्दनेन च ॥३३७॥
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१. संहारः प्राणिनां कियान् ला० १ । २. तं तुंब खं० २, विना । ३. स्वयमादत् मु० । ४ ०तिशयाज्ज्ञानो० खं० २ । ५. o नि: कासिता मु० । ६. तदुद्धृता मु० २० । ७. मत्स्ययौनो । ८. ०ऽशोषयद्० ला०, अक्षपयत् । ९. धनाधिपः मु० । १०. गृहे खं० १-२, ला० सू० । ११. दन्तधावनकारणात् । १२. पतिरहिताम् । १३. सुकुमारिकाम् मु० र० खं० १ २ । १४. जातूपसुकुमारिकाम् ला० सू० विना । १५. स चान्येद्यु० खं० १ ।
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षष्ठः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
ऊचे च तं मया दत्ता पुत्रीयं सुकुमारिका । भोजनादिषु निश्चिन्तः सुखं तिष्ठ सहाऽनया ॥ ३३८ ॥ इत्युक्तः प्रययौ वासगृहं सह तयाऽथ सः । सुप्तश्च तद्वपुःस्पर्शादग्निस्पृष्ट इवाऽभवत् ॥ ३३९॥ उत्थाय च निजं वेषमादाय स पलायितः । विषण्णा सा तथैवाऽस्थाद् दृष्टा पित्रेत्यभाष्यत ॥३४०|| वत्से ! प्राक्कर्मणामेष उदयोऽन्यन्न कारणम् । सन्तुष्टा तिष्ठ तद्दानं ददती मम वेश्मनि ||३४१|| तथैव सा ददौ दानं शान्ता धर्मरता सती । कदाचिदागुस्तद्वेश्मन्यार्या गोपालिका इति ॥ ३४२|| सा प्रत्यलाभयत् ताश्च शुद्धैः पानाऽशनादिभिः । तत्पार्श्वे धर्ममाकर्ण्य प्रबुद्धा व्रतमाददे || ३४३॥ तुर्य षष्ठाऽष्टमादीनि सा तपांसि प्रकुर्वती । गोपालिकाभिरार्याभिः सह व्यहरताऽन्वहम् ॥३४४॥ आर्यास्ताः सा कदाऽप्यूचे पश्यन्ती रविमण्डलम् । सुभूमिभागोद्यानस्थाऽऽतापनां विदधाम्यहम् ||३४५|| ता अप्यूचुः स्ववसतेर्बहिर्न खलु कल्पते । आतापना व्रतिनीनामाम्नातमिदमागमे ॥ ३४६॥ तदश्रुत्वेव सुभूमिभागोद्यानेऽभ्युपेत्य सा । आतापनामुपाक्रंस्त सूर्ये निहितलोचना ॥३४७॥ |[अथैककामुकेनाऽङ्गे स्थापितामपरेण तु । धृतातपत्रामन्येन वीज्यमानां सुखानिलम् ||३४८ ॥ बध्यमानकचामेकेनाऽन्येनाऽङ्के धृतांहिकाम् । गणिकां देवदत्ताख्यां तत्राऽऽयातां ददर्श सा ॥ ३४९ ॥ युग्मम् ॥ सा. त्वसम्पूर्ण भोगेच्छा निदानमकरोदिदम् । एषेव पञ्चपतिका भूयासं तपसाऽमुना ||३५०॥ साऽङ्गशौचपरा चाऽऽसीदभ्युक्षन्ती पदे पदे । आर्याभिर्वार्यमाणा च चेतस्येवमचिन्तयत् ॥ ३५१ ॥ आर्यिकाणां गौरवितो पुराऽभूवं गृहं स्थिता। भिक्षाचरीमिदानीं मां तर्जयन्ति यथा तथा ॥ ३५२ || किमभिरिति ध्यात्वा विभिन्नेऽस्थात् प्रतिश्रये । एकाकिनी स्वैरिणी सा चिरं व्रतमपालयत् ॥३५३॥ संलेखनामष्टमासान् कृत्वाऽनालोच्य सा मृता । नवपल्योपमायुष्का सौधर्मे देव्यजायत || ३५४|| च्युत्वा चाऽभूद् द्रौपदीयं निदानात् प्राक्तनादमी । अमुष्याः पतयः पञ्च सञ्जाताः कोऽत्र विस्मयः ? ||३५५ || इत्युक्ते मुनिना व्योम्नि साधु साध्विति गीरभूत् । साध्वमी पतयोऽभूवन्निति कृष्णादयो जगुः || ३५६|| तैरेव राजस्वजनैः स्वयंवरसमागतैः । कृतोत्सवाः पर्यणैषुर्द्रौपदीमथ पाण्डवाः || ३५७|| तत: पाण्डुर्दशार्हांस्तान् कृष्णमन्यांश्च भूभुजः । विवाहार्थमिवाऽऽनीतान् गौरवात् स्वपुरेऽनयत् ॥ ३५८ ॥ अर्चित्वा सुचिरं तत्र दशार्हान् सीरि- शार्ङ्गिणौ । आपृच्छमानान् व्यसृजद् भूपानन्यांश्च पाण्डुराट् ॥३५९॥ ||पाण्डुर्युधिष्ठिरायाऽथ दत्त्वा राज्यं व्यपद्यत । अन्वियाय च तं माद्री कुन्त्यै दत्त्वा सुतद्वयम् ॥३६०|| ततश्चास्तंगते पाण्डौ पाण्डवांस्तान् समत्सराः । न मेनिरे धार्तराष्ट्रा राष्ट्रलुब्धा दुराशयाः ॥३६१ ॥ दुर्योधनेन तद्वृद्धास्तोषिता विनयादिना । जिताश्च पाण्डवा द्यूते राज्यं 'तेर्षात् पणीकृतम् ॥३६२॥ पणीकृतां द्रौपदीं च जित्वा दुर्योधनोऽग्रहीत् । क्रोधरक्तेक्षणाद् भीमाद् बिभ्यत्तां पुनरार्पयत् ॥ ३६३॥ कृत्वाऽवमाननां ते च धार्तराष्ट्रैः स्वराष्ट्रतः । निर्वासिताः पाण्डुसुता वनवासमशिश्रियन् ॥ ३६४|| वनाद् वनं चिरं भ्रान्त्वा दशार्हानुजया तया । कुन्त्या द्वारवतीं नीतास्ते पञ्चाऽपि हि पाण्डवाः || ३६५ ॥ दिव्यास्त्रयोधिनः सर्वे विद्याभुजबलोर्जिताः । ययुः समुद्रविजयस्यौकः प्रथमतोऽपि ते ॥ ३६६॥ समुद्रविजयस्तत्राऽक्षोभ्याद्या भ्रातरश्च ते । भगिनीं भागिनेयांश्च स्नेहादानर्चुरञ्जसा ॥३६७ || ऊचुर्दशार्हास्त्वं" तेभ्यो दायादेभ्यः समागता । दिष्ट्या दृष्टाऽसि जीवन्ती सापत्यापि हि हे स्वसः ! || ३६८ || कुन्त्यप्यूचे सपुत्राऽपि जीविताऽहं तदैव हि । मया यदैव जीवन्त: श्रुता यूयं ससूनवः || ३६९ ॥ लोकोत्तरं चरित्रं च वत्सयो राम-कृष्णयोः । शृण्वती मुदितात्राऽऽगां तद्दर्शनसमुत्सुका ॥३७०॥ सानुज्ञाता भ्रातृभिस्तैः सपुत्राऽगात् सभां हरेः । तामभ्युत्तस्थतू राम कृष्णौ भक्त्या च नेमतुः || ३७१ || राम-कृष्णौ पाण्डवाश्च यथापूर्वं परस्परम् । कृता श्लेष - नमस्कारा यथोचितमुपाविशन् ॥ ३७२ ||
१. तिष्टेः खं० २, ला० सू० । २. दृष्ट्वा ता० सं० पु० की ० छा० ला० । ३ मुपाक्रांस्त ला० । ४. सिञ्चन्ती । ५. सम्मानिता । ६. पुराऽभवं खं० १ । ७. उपाश्रये । ८. कृतोत्सवे खं० २ बिना । ९. मिहानीतान् मु० २० । १०. वांस्ते स० ला० । ११. क्षुद्रा लुब्धा खं० २ । १२. तृष्णावशात् । १३. विजयस्यौकसि प्रथमं च ते ला० । १४. दशार्हास्तां मु० । १५ दुर्योधनादिभ्यः सकाशात् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
पऊचे कृष्णः साधु यूयमिहाऽऽयाताः स्ववेश्मनि । युष्माकं च यदूनां च लक्ष्मी: साधारणी' खलु ॥३७३।। ऊचे युधिष्ठिरस्तेषां सदा दास्यः श्रियो हरे ! । येषामभिमतोऽसि त्वं किं पुनर्ये मतास्तव॥३७४।। अस्मन्मातृकुलमिदं त्वयाऽलङ्कर्वता हरे ! । वर्तामहे विश्वतोऽपि विशेषेण महौजसः ॥३७५॥ सत्कृत्य विविधालापैः कुन्ती-कुन्तीसुतानपि । कृष्णो नियोजयामास प्रासादेषु पृथक् पृथक् ॥३७६॥ लक्ष्मीवती वेगवती सुभद्रां विजयां रतिम् । ददुः क्रमात् पाण्डवेभ्यो दशार्दा निजकन्यकाः ॥३७७।। यदुभिः पूज्यमानास्ते कृष्णेन च बलेन च । युधिष्ठिराद्याः पञ्चाऽपि सुखं तत्राऽवतस्थिरे ॥३७८।। पाइतश्चाऽधिगतकलाकलापं प्राप्तयौवनम् । प्रद्युम्नं प्रेक्ष्य कनकमालाऽभून्मदनातुरा ॥३७९॥ दध्यौ च सा न हीदृक्षः खेचरेष्वस्ति कश्चन । मन्ये देवोऽपि नेदृक्षः का कथा भूमिचारिषु? ॥३८०॥ तत्स्वयंवर्धितस्याऽस्य तरोरिव फलं ह्यदः । स्वयं भोगोऽन्यथा नूनं जन्माऽपि हि मुधा मम ॥३८१॥ विमृश्यैवं सा जगाद प्रद्युम्नं कलया गिरा । इहैवाऽस्त्युत्तरश्रेण्यां नाम्ना नलपुरं पुरम् ॥३८२॥ गौरीवंशोद्भवस्तत्र निषधो नाम भूपतिः । तस्याऽहं राजसिंहस्य पुत्री पुत्रस्तु नैषधिः ॥३८३॥ गौरी नाम महाविद्या दत्ता पित्रा मम स्वयम् । दत्त्वा प्रज्ञप्तिविद्यां च मामुपायत संवरः ॥३८४॥ शंवरो मयि रक्तस्तु नाऽन्यां युवतिमिच्छति । सिद्धविद्याद्वयाया मे बलात् तस्य तृणं जगत् ॥३८५।। एवंविधाऽनुरक्ताऽहं त्वां वृणोमि भजस्व माम् । मा स्म प्रणयभङ्ग मे कार्षीरज्ञानतोऽपि हि ॥३८६।। प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीच्छान्तं पापं किञ्चिद् ब्रवीष्यदः । माता त्वमसि पुत्रोऽहं पातायेदं द्वयोरपि ॥३८७॥ साऽप्यूचे नाऽसि मे जातः किन्तु त्वां प्राप शंवरः । अग्निज्वालपुरादायान्मार्गे केनचिदुज्झितम् ॥३८८॥ ममाऽपितो वर्धनाय त्वं कस्याऽपि हि नन्दनः । निःशङ्कं भुक्ष्व तद्भोगान् मया सह यदृच्छया ॥३८९।। स्त्रीगृहे पतितोऽस्मीति चिन्तयन् सोऽब्रवीत् ततः । शंवरात् त्वत्सुतेभ्यश्च लप्स्येऽहं जीवितुं कथम् ? ॥३९०॥ सोचे सुभग ! मा भैषीमहाविद्ये उभे अपि । गृहाण गौरी-प्रज्ञप्त्यौ भवाऽजय्यो जगत्यपि ॥३९१।। न ह्यकृत्यं करिष्यामीत्यन्तर्निश्चित्य कृष्णसूः । ऊचे प्रयच्छ मे विद्ये करिष्ये त्वद्वचस्ततः ॥३९२॥ प्रज्ञप्ति-गौयौँ साऽदत्त महाविद्ये स्मरातुरा । असाधयच्च प्रद्युम्न: पुण्योदयवशाद् द्रुतम् ॥३९३।। तया चाऽभ्यर्थितो रन्तुं व्याहार्षीत् कृष्णनन्दनः । मम संवर्धनात् पूर्वं केवलैव जनन्यभूः ॥३९४|| आचार्या तु भवस्यद्य विद्यादानेन मेऽनघे । न वाच्यस्तत् त्वया किञ्चिदत्राऽहं पापकर्मणि ॥३९५॥ तामेवमुक्त्वा मुक्त्वा च प्रद्युम्नोऽथ पुराबहिः । गत्वा कालाम्बुकावापीतटेऽवास्थित दुर्मनाः ॥३९६॥ पानखैः कनकमाला स्वं दीर्वा कलकलं व्यधात् । किमेतदिति पृच्छन्तस्तत्पुत्राश्च समाययुः ॥३९७।। युष्मत्पितुः पुत्रकेणोद्यौवनेन दुरात्मना । स्वैरं विदारिताऽस्म्यैषा मार्जारेणेव पिण्डदा ॥३९८।। ततस्ते कुपिताः सर्वे गत्वा कालाम्बुकातटे । पाप पापेति जल्पन्तः प्रद्युम्ने प्राहरन् द्रुतम् ॥३९९।। विद्याद्वयोर्जितद्युम्नः प्रद्युम्नो लीलयाऽपि तान् । जघान संवरसुतान् शम्बरोंनिव केशरी ॥४००॥ शंवरोऽपि सुतवधात् क्रुद्धस्तं हन्तुमागतः । विद्याजनितमायाभिः प्रद्युम्नेन जितश्च सः ॥४०१।। प्रद्युम्न: सानुतापोऽथ संवराय यथातथम् । मूलादारभ्य कनकमालोदन्तं शशंस तम् ॥४०२।। तेनाऽपि सानुतापेन प्रद्युम्नः परिपूजितः । तदा च नारद ऋषिः प्रद्युम्नान्तिकमाययौ ॥४०३।। प्रज्ञप्त्या ज्ञापितं तं च प्रद्युम्नः पर्यपूजयत् । अज्ञापयच्च कनकमालावृत्तान्तमादितः ॥४०४॥ पअथ प्रद्युम्न-रुक्मिण्योः सीमन्धरजिनोदितम् । सर्वं वृत्तान्तमाख्याय निजगादेति नारदः ॥४०५।।
आदौ पुत्रस्य वीवाहे केशदानपणः पुरा । सपत्न्या भामया सार्धमस्ति त्वन्मातुरुद्यतः ॥४०६।। १. साधारणा ला० । २. महे वयं योद्धाः (धाः) खं० २। ३. कुन्तीकुन्ती सुता मु० र० । ४. मनोज्ञया । ५. राजहंसस्य खं० १ । ६. शंवरः खं.१-२, सू० । ७. संवरो मु०। ८. पापायेदं मु० खं० १-२, ला० सू० । ९. आगच्छन् । १०. वर्धयितुं पु० । ११. जीवितं खं० १, सू० विना । १२. भवाऽजेयो खं-२ । १३. प्रद्युम्नः, कृष्णभूः खं० २, ता० सं० । १४. तटे चास्थित मु० र० । १५. चिन्तातुरः । १६. भोजनदात्री । १७. प्रद्युम्नं खं० २ । १८. द्युम्नं बलम् । १९. शम्बरा मृगविशेषाः । २०. ०वधक्रुद्ध० खं० २ । २१. विवाहे खं० २, र० । २२. प्रकटः ।
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षष्ठः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
भार्माया भानुकः सूनुः साम्प्रतं परिणेष्यते । त्वन्मात्रा तत्र दातव्याः स्वकेशाः पणहारिताः ॥ ४०७ || केशदानविप्लवेन त्वद्वियोगरुजा च सा । सत्यपि त्वयि तनये मरिष्यत्येव रुक्मिणी ||४०८|| सनारदोऽपि प्रद्युम्नस्ततः प्रज्ञप्तिनिर्मितम् । विमानमारुह्य ययावाश्वेव द्वारकापुरीम् ||४०९|| [आख्यैच्च नारदः सेयं त्वत्पितुर्द्वारकापुरी । यां विधाय स्वयं रत्नैर्धनदोऽपूरयद् धनैः ||४१०|| प्रद्युम्नोऽप्यभ्यधात् तिष्ठेर्विमाने त्वमिहैव हि । द्वारकायां चमत्कारं यावत् किञ्चित् करोम्यहम् ॥४११॥ आमेति नारदेनोक्ते तत्रस्थां कृष्णनन्दनः । सत्यभामासुतोद्वाहजन्ययात्रामुदैक्षत ||४१२ || हृत्वा कन्यां तदुद्वाह्याममुञ्चन्नारदान्तिके । मा भैषीः कृष्णपुत्रोऽसावित्यूचे नारदोऽपि ताम् ॥ ४१३॥ कपिभृत्पुरुषो भूत्वा प्रद्युम्नो वनपालकान् । ऊचे फलादि ददतां क्षुधितस्याऽस्य मत्कपेः ॥४१४॥ अयं भानुकवीवाहायाऽऽरामो रक्ष्यते खलु । न किञ्चित् तत् त्वया वाच्यमित्यूचुर्वनपालकाः ॥४१५॥ प्रलोभ्य भूरिभिर्द्युम्नैस्तान् प्रद्युम्नः प्रविश्य च । कपिनाऽकारयत् तेनोद्यानं रिक्तं फलादिभिः ॥४१६॥ `जात्यवाजिवणिग्भूत्वा ततः सोऽगात् तृणापणे । तत्राऽऽपणिभ्योऽयाचिष्ट तृण्यां" स्वहयहेतवे ॥४१७|| तथैवाऽददतस्तांस्तु प्रलोभ्य द्रविणेन सः । चकार सर्वमतृणं प्रद्युम्नो निजविद्यया ॥४१८॥ तथैव स्वादु सलिलस्थानान्यसलिलानि सः । पीत्वा चकार वाह्याल्यां वाहं चाऽवाहयत् स्वयम् ॥४१९॥ दृष्टश्च भानुकेनाऽश्वः पुष्टः कस्यैष इत्यथ । प्रद्युम्नोऽपि ममैषोऽश्व इत्याचख्यौ कुतूहली ॥४२०॥ भानुकः सादरोऽवोचत् प्रयच्छाऽमुं तुरङ्गमम् । यत् त्वं याचिष्यसे मूल्यं तत् ते दास्यामि बह्वपि ॥ ४२१ ॥ प्रद्युम्नस्तमभाषिष्ट परीक्ष्याऽऽदत्स्व वाजिनम् । राजापराधोऽपरथाऽनागसोऽपि भवेन्मम ॥४२२ ॥ परीक्षितुमथाऽऽरोहद् भानुकस्तस्य वाजिनम् । वाजं नाटयता तेन पातितः स महीतले ॥४२३॥ स एैडकमथारूढो हस्यमानः पुरीजनैः । वसुदेवसदस्यागात् पार्षद्यानपि हासयन् ॥४२४॥ प्रद्युम्नोऽपि द्विजीभूय पठन् वेदं कलस्वरम् । प्राविशद् द्वारिकां भ्राम्यन् सर्वत्राऽपि त्रिकादिषु ॥ ४२५ ॥ भामादासीमपश्यच्च कुब्जिकां तां च विद्यया । सरलाङ्गीं चकाराऽऽशु पथि वेत्रलतामिव ॥ ४२६॥ पतित्व पादयोः सोचे क्व यूयं चलिता ननु ? । प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीद् यत्र लप्स्ये भोजनमिच्छया ||४२७॥ सोचे तर्ह्येहि दास्यामि भामादेव्या निकेतने । सज्जितं सुतवि (वी) वाहे मोदकादि यथारुचि ॥४२८ ॥ जगाम धाम भामाया: प्रद्युम्नाऽपि तया सह । तोरणद्वारि तं मुक्त्वा दासी भामान्तिकं ययौ ॥४२९॥ काऽसीति भामया पृष्टा दास्यूचे साऽस्मि कुब्जिका । भूयोऽपि भामाऽभाषिष्ट केनाऽसि सरलीकृता ? ॥४३०|| दास्याख्यद् ब्राह्मणोदन्तं भामोचे क्वाऽस्ति स द्विज: ? । साऽप्यूचे तोरणद्वारे मया मुक्तोऽस्ति सम्प्रति ॥ ४३१|| तमानय महात्मानमित्यादिष्टाऽथ भामया । तं वेगादानयत् तत्र सा दासी कपटद्विजम् ॥४३२॥ [स दत्वाऽऽशिषमासीनो जगदे सत्यभामया । ब्रह्मन् ! सपत्न्या रुक्मिण्या मां रूपेणाऽधिकां कुरु ॥४३३|| मायाविप्रोऽप्युवाचैवं सुरूपा त्वं हि दृश्यसे । ईदृग् नाऽपरनारीणां रूपं पश्यामि कुत्रचित् ॥ ४३४ ॥ बभाषे सत्यभामाऽपि भद्र ! जल्पसि साध्विदम् । तथाऽपि रूपेऽनुपमां विशेषेण कुरुष्व माम् ॥४३५॥ सोऽप्यभाषत यद्येवं विरूपा भव सर्वतः । भवेद् रूपविशेषो हि वैरूप्ये सति मूलतः ||४३६|| किं करोमीति तत्पृष्ट उपादिशदिति द्विजः । शिरो मुण्डय मष्या च लिम्प देहमशेषतः ॥४३७॥ जीर्णखण्डस्यूतवासा भूत्वा भव ममाऽग्रतः । यथा लावण्यसौभाग्यश्रियमारोपयामि ते ॥ ४३८|| सा तदप्यर्थिनी चक्रे विप्रोऽप्येवमवोचत । बुभुक्षया पीडितोऽहमस्वस्थः किं करोमि तत्? ॥४३९॥
९९
१. भामया खं - १ - २ । २. द्वारिका० खं. २ । ३. आख्याच्च खं. २ । ४. द्वारिका० खं० २, ला० । ५. द्वारिकायां खं- २, ला० । ६. तत्रस्थः ला० । ७. जान । ८. धनैः । ९. जात्य- अश्व व्यापारी । १०. तत्र वणिग्भ्यो० ता० सं० । ११. तृणसमूहस्तृण्या, तृणान् ला० सू० । १२. प्रद्युम्नः प्रत्यभाषिष्ट खं. १, ला० सू०, ता० सं० ला० ला०२० छा० । १३ इडिक्कमथा० ता० सं० छा० ला० २. पु० । स हिडिक्क खं. १-२, तदेडिक० सू० । महाजं - मेषम् १४. पतिता ला० । १५. भामान्तिके खं. २ । १६. द्वारि खं० २ । १७. दिष्टा च खं० १, २ ला० मु० ।
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१००
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
भामाऽपि तं भोजयितुं सूपकारान् समादिशत् । विप्रोऽप्येवमुपादिक्षद् भामायाः श्रवणान्तिके ॥४४०॥ रुडुबुडु रुडुबुडु इति मन्त्रस्त्वयाऽनघे । पुरतः कुलदेवीनां जप्यो मद्भोजनावधि ॥४४१।। स तथा कुर्वती तस्थौ भुञ्जानो द्विजकश्च सः । सर्वं रसवतीसारं विद्याशक्त्या समापयत् ॥४४२।। भामातो बिभ्यतीभिः स पयःकरकपाणिभिः । कथञ्चित् सूपकारीभिः समुत्तिष्ठेत्यभाष्यत ॥४४३।। अहमद्याऽपि नो तृप्तस्तृप्तिर्यत्र भविष्यति । तत्र यास्यामीति वदन् स मायाब्राह्मणो ययौ ॥४४४।। पबालसाधुवपुर्भूत्वा ततोऽगाद् रुक्मिणीगृहे । रुक्मिण्या ददृशे दूरात् स नेत्रानन्दचन्द्रमाः ॥४४५।। तस्याऽऽसनार्थं वेश्मान्तः प्रविवेश च रुक्मिणी । कष्णसिंहासने सोऽपि पूर्वन्यस्त उपाविशत् ॥४४६॥ आत्तासना निर्गता च तथाऽऽसीनमुदीक्ष्य तम् । बभाषे रुक्मिणी देवी विस्मयस्मेरलोचना ॥४४७।। कृष्णं वा कृष्णजातं वा विना सिंहासनेऽत्र हि । अन्यं पुमांसमासीनं सहन्ते न हि देवताः ॥४४८॥ स मायासाधुरप्यूचे प्रभावात् तपसो मम । न किञ्चिद्देवताः कर्तुमलंकीणविक्रमाः ॥४४९॥ आोस्तर्हि कुतो हेतोरिति पृष्टस्तयाऽथ सः । ऊचे तपो निराहारं षोडशाब्दी मया कृतम् ॥४५०॥ मातुः स्तन्यमपि मया न पीतं जन्मतोऽपि हि । तत्पारणार्थमत्राऽऽगां देहि किञ्चिद् यथोचितम् ॥४५१॥ रुक्मिण्युवाच न क्वाऽपि षोडशाब्दं तपः श्रुतम् । श्रुतं चतुर्थादारभ्य वत्सरावधिकं मुने ! ॥४५२॥ सोऽप्यूचे किं तवाऽनेन ? यद्यस्ति यदि दित्ससि । तद्देहि नो चेद् यास्यामि सत्यभामानिकेतनम् ॥४५३॥ साऽप्यवोचन्नाऽद्य किञ्चिदुद्वेगात् पाचितं मया । सोऽपि पप्रच्छ कि नाम तवोद्वेगस्य कारणम् ? ॥४५४॥ उवाच साऽपि तनयवियोगे कुलदेवताः । आराधयमियत्कालमहं तत्सङ्गमाशया ॥४५५।। । इदानी कुलदेवीनां दातुकामा शिरोबलिम् । ग्रीवायां प्राहरं यावत् तावद् देवीत्यवोचत् ॥४५६।। पुत्रि ! मा साहसं कार्षीः पुष्पिष्यति यदा तव । अकालेऽप्येष माकन्दस्तदा त्वत्सूनुरेष्यति ॥४५७॥ अयं मुकुरितश्चाऽद्य न च सूनुः समेति मे । तत्साधो ! पश्य होरां त्वं कदा मे पुत्रसङ्गमः ? ॥४५८।। सोऽप्यूचे रिक्तहस्तानां न होरा फलदायिनी । रुक्मिण्यपि प्रत्युवाच ब्रूहि तुभ्यं ददामि किम् ? ॥४५९॥ सोऽप्यवादीत् तपःक्षामकुक्षेः पेयां प्रयच्छ मे । उदयुत च पेयार्थं तद्रव्यान्वेषणेन सा ॥४६० भूयो बभाषे तां साधुरत्यन्तं क्षुधितोऽस्म्यहम् । द्रव्येन येन केनाऽपि पेयां कृत्वा प्रयच्छ मे ॥४६१।। प्राकृसिद्धैर्मोदकैः साऽथ पेयां कर्तुं प्रचक्रमे । तस्य विद्याप्रभावेण चलनः प्राज्वलन्न तु ॥४६२॥ खिन्नां प्रेक्ष्य स तामूचे पेया निष्पद्यते न चेत् । प्रीणयाऽतिक्षुधितं मां तदेभिरपि मोदकैः ॥४६३॥ साऽप्यूचे मोदका ह्येते कृष्णस्याऽन्यैः सुदुर्जराः । नर्षिहत्यां करिष्यामि दत्त्वैतान् भवते मुने ! ॥४६४|| सोऽप्यभाषिष्ट तपसा न मे किमपि दुर्जरम् । सा साशङ्का ततस्तस्मायेकैकं मोदकं ददौ ॥४६५॥ दत्तान् दत्तान् शीघ्रमेव भुञ्जानं तं तु मोदकान् । सस्मिता विस्मिता सोचे महर्षे ! बलवानसि ॥४६६॥ पाइतस्तथा जपन्तीं तां भामामित्यवदन्नराः । फलादिरिक्तमारामं चके स्वामिनि ! कोऽपि ना ॥४६७|| तणाहान्निस्तुणांश्चके कोऽपि कोऽपि जलाशयान । निर्जलान् कोऽपि ते भानुमश्वेनोपाद्रवत् सुतम् ॥४६८।। श्रुत्वेति भामा पप्रच्छ क्व न स ब्राह्मणो हलाः!? । तद्दास्योऽपि यथावस्थमाचख्युस्तस्य चेष्टितम् ॥४६९।। ततो विषण्णा सामर्षा केशानयनहेतवे । दासी: पटलिकाहस्ताः प्राहिणोद् रुक्मिणी प्रति ॥४७०॥ ऊचिरे रुक्मिणी ताश्च केशानर्पय मक्षु नः । श्रीभामास्वामिनी ह्येवं समादिशति मानिनी ॥४७१।। मायासाधुः स तच्छ्रुत्वा तासामेव हि कुन्तलैः । भूत्वा पटलिकां भामासमीपं प्रजिघाय 'ताः ॥४७२॥ किमेतदिति भामोक्ता दास्य ऊचुर्न वेत्सि किम? । यादृशः स्वामिनि ! स्वामी परिवारोऽपि तादृशः ॥४७३॥
भामोद्भामो ततः प्रैषीन्नापितान् रुक्मिणीगृहे । तानेवाऽमुण्डयत् साधुः शिरस्त्वक्छेदपूर्वकम् ॥४७४।। १. सडूबुडू रुडूबुडू ला० । २. जाप्यो सं० की० पा. ला० ला० र० । ३. सहते खं० २, ला० सू० । ४. देवता खं० २, ला० सू०। ५. आगात् तर्हि खं० २ । ६. क्षीरम् । ७. उद्योगमकार्षीत् । ८. अग्निः । ९. संप्रेक्ष्य पा० । १०. दृष्ट्वा च सस्मिता खं० २ । ११. स: खं० २ । १२. अधिककोधा ।
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षष्ठः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१०१ आयातान्नापितान् मुण्डान् प्रेक्ष्य भामा क्रुधा हरिम् । गत्वाऽभाषिष्ट रुक्मिण्यास्त्वं केशप्रतिभूरभूः ॥४७५॥ केशदानपणः सोऽद्य दाप्यतां मम केशव! । उत्थाय स्वयमाहूय मुण्डां कारय रुक्मिणीम् ॥४७६।। हसित्वा हरिरप्यूचे त्वमेवाऽसीह मुण्डिता । साऽप्यूचे नर्मणाऽद्याऽलं तत्केशानद्य दापय ॥४७७।। कृष्णेन प्रेषितो रामो रुक्मिण्याः सदने ततः । प्रद्युम्नः कृष्णरूपं च विचके तत्र विद्यया ॥४७८।। ठीणो वलित्वा रामोऽपि पूर्वस्थानं पुनर्ययौ । तत्राऽपि कृष्णं प्रेक्ष्योचे हास्यं किं प्रस्तुतं त्वया ? ॥४७९।। केशार्थं तत्र मां प्रेष्य स्वयं गत्वेह चाऽऽगतः । वधूर्वयं च सहसा हैपिता युगपत् त्वया ॥४८०॥ तत्र नाऽगामिति हरिश्चोचे शपथपूर्वकम् । माया तवैवेति वदन्त्यांगाद् भामा निजे गृहे ॥४८१॥ प्रत्यायतितुमारेभे तां विष्णुस्तैद्गृहे गतः । रुक्मिण्या नारदश्चाऽऽख्यत् प्रद्युम्नोऽयं सुतस्तव ॥४८२॥ पआविष्कृत्य निजं रूपं प्रद्युम्नो देवसन्निभम् । पपात पादयोर्मातुश्चिरदुःखतमोरविः ॥४८३।। रुक्मिणी प्रक्षरत्स्तन्या बाहुभ्यामालिलिङ्ग तम् । चुचुम्ब च मूर्ति मुहुर्हर्षाश्रुप्लावितेक्षणा ॥४८४॥ प्रद्युम्नस्तां जगादाऽथ ज्ञाप्यस्तावन्न खल्वहम् । दर्शयामि पितुर्यावदाश्चर्यं किञ्चनाऽपि हि ॥४८५।। हर्ष-व्यग्रा रुक्मिणी तु न हि प्रत्युत्तरं ददौ । मायारथे समारोप्य रुक्मिणी प्रचचाल सः ॥४८६।। प्रद्युम्नः पूरयन् शङ्ख क्षोभयन् जनमब्रवीत् । हरामि रुक्मिणीमेष कृष्णो रक्षतु चेद् बली ॥४८७|| कोऽयं मुमूर्षुर्दुर्बुद्धिरिति जल्पन् जनार्दनः । ससैन्योऽप्यन्वधाविष्ट शार्ङ्गमास्फालयन् गुहुः ॥४८८॥ प्रद्युम्नस्तच्चमूं भक्त्वा विद्यासामर्थ्यतो हरिम् । सद्यो निरायुधीचके निर्दन्तमिव दन्तिनम् ॥४८९।। यावद् विष्णुर्विषण्णोऽभूत् तावद् वामेतरो भुजः । स्पन्दितस्तेन सहसा बलाय च निवेदितम् ॥४९०॥ तदैत्य नारदोऽवादीद् गृह्यतामेष ते सुतः । रुक्मिणीसहितः कृष्ण ! पर्याप्तं युद्धवार्तया ॥४९१॥ कृष्णं ननाम प्रद्युम्नो रामं च चरणान् स्पृशन् । ताभ्यां च सस्वजे गाढं चुम्बद्भ्यामसकृच्छिरः ॥४९२।। प्रद्युम्नं सहजातयौवनमिव स्वर्वासिलीलास्पृशं, स्वाङ्के न्यस्य जनार्दनो जनमनःकौतूहलोत्पादकम् । रुक्मिण्या सहितो विवेश नगरी तामिन्द्रवद द्वारिकां, द्वारे न्यस्तनवीनतोरणकृतभ्रूविभ्रमां सम्भ्रमात् ॥४९३॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते
महाकाव्ये अष्टमें पर्वणि रुक्मिण्यादिपरिणयनपाण्डव-द्रौपदीस्वयंवर-प्रद्युम्नचरितवर्णनो नाम
षष्ठः सर्गः ॥
१. साक्षी । २. रुक्मिणी । ३. लज्जिताः । ४. वदन्त्यगा० मु० र० । ५. सत्यभामागृहे । ६. अधिकृत्य ला० । ७. देवलीला। ८. ०ष्टमपर्वणि मु० । ९. कीर्तनो मु० ।
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सप्तमः सर्गः
अथ प्रवर्तमानेऽत्र प्रद्युम्नागमनोत्सवे । दुर्योधन: समुत्थाय वासुदेवं व्यजिज्ञपत् ॥१॥ पत्री मे ते स्नषा स्वामिन् ! केनाऽप्यपहृताऽधुना । तन्मग्यतां क्वाऽपि यथा भानुकः परिणीयते ॥२॥ कृष्णोऽप्युवाच सर्वज्ञो नाऽहं स्यां तादृशोऽपि चेत् । तत् किं मया रौक्मिणेयो न ज्ञातः केनचिद् हृतः? ॥३॥ प्रज्ञप्त्या तामहं ज्ञात्वाऽत्राऽऽनेष्यामीत्युदीरयन् । तत्र प्रद्युम्न आनैषीत् तां स्वयंवरकन्यकाम् ॥४॥ कृष्णेन दीयमानां तां मम ह्येषा वधूरिति । प्रद्युम्नो न हि जग्राह पर्यणैषीच्च भानुकः ॥५॥ अनिच्छुनाऽपि प्रद्युम्नेनोत्सवेन महीयसा । खेचरीः क्षमापकन्याश्च गोविन्द उदवाहयत् ॥६॥ प्रद्युम्नानयनहेतोरुपकारिणमार्चतम् । नारदं व्यसृजतां च रुक्मिणी-शार्ङ्गधारिणौ ॥७॥ पाप्रद्युम्नस्य महाऋद्ध्या ताम्यन्ती श्लाघयाऽपि च । भामा कोपगृहे गत्वा शिश्ये जर्जरमञ्चके ||८|| तत्राऽऽयातश्च कंसारिर्व्याजहार ससम्भ्रमः । केनाऽपमानिताऽसि त्वं येनैवं सुभ्र ! ताम्यसि ? ॥९॥ साऽप्यूचे नाऽपमानो मे किन्तु प्रद्युम्नसन्निभः । न चेन्मे भविता सूनुर्मरिष्यामि तदा ध्रुवम् ॥१०॥ पाकृष्णस्तदाग्रहं ज्ञात्वा त्रिदशं नैगमेषिणम् । उद्दिश्याऽष्टमभक्तेन पौषधं प्रत्यपद्यत ॥११॥
आविर्भूय नैगमेषी तमूचे किं करोमि ते? । कृष्णोऽप्युवाच भामायै देहि प्रद्युम्नवत् सुतम् ॥१२॥ नैगमेष्यवदद यस्यां पत्रेच्छा ते भजस्व ताम् । त्वममुं हारमोमोच्य ततो भावीप्सितः सुतः ॥१३॥ अर्पयित्वा च तं हारं नैगमेषी तिरोदधे । वासँकं वासुदेवोऽपि सत्यायै मुदितो ददौ ॥१४॥ प्रज्ञप्त्या ज्ञापितस्तच्च प्रद्युम्नोऽम्बामजिज्ञपत् । ऊचे चाऽऽदत्स्व तं हारं मत्तुल्यसुतकाङ्क्षया ॥१५॥ रुक्मिण्यूचे त्वयैवाऽस्मि कृतार्था वत्स ! सुनूना । किञ्च प्रसूते भूयोऽपि न स्त्रीरत्नं कदाचन ॥१६॥ का सपत्नीषु तेऽभीष्टा यस्यां पुत्रं ददाम्यहम् ? । प्रद्युम्नेनेति सा भूयः पृष्टाऽभाषिष्ट रुक्मिणी ॥१७॥ त्वद्वियोगे दुःखितायाः समुदुःखा ममाऽभवत् । पुरा जाम्बवती वत्स ! तस्यां स्तात् त्वत्समः सुतः ॥१८॥ प्रद्युम्नानुज्ञया साऽथाऽऽजूहवज्जाम्बवत्सुताम् । प्रद्युम्नोऽपि हि तां भामारूपामकृत विद्यया ॥१९।। सा तदाख्याय रुक्मिण्या प्रेषिता सदने हरेः । सायं ययौ तेन हारं दत्त्वा च बुभुजे मुदा ॥२०॥ तदैव च महाशुक्राद् देवः प्रच्युत्य कैटभः । आगात् कुक्षौ जाम्बवत्याः सिंहस्वप्नोपसूचितः ॥२१॥ ततो ययौ जाम्बवती हृष्टा निजनिकेंतनम् । आययौ सत्यभामा च कृष्णौकोवासकार्थिनी ॥२२॥ तां दृष्ट्वाऽचिन्तयत् कृष्णो भोगातृप्ता अहो ! स्त्रियः । अधुनैव गता ह्येषा यद् भूयोऽप्येति सत्वरा ॥२३॥ सत्यारूपं विधायाथ कयाऽपि च्छलितोऽस्मि किम् ? । यदेषा मा विलक्षा भूदिति रेमे तया सह ॥२४।। तस्या रमणसमयं रौक्मिणेयोऽवगम्य तम्११ । भेरीमताडयद् विष्णोविश्वप्रक्षोभकारिणीम् ॥२५॥ केनेयं ताडिता भेरीत्यपृच्छत् क्षुभितो हरिः । ताडिता रौक्मिणेयेन शशंसेति परिच्छदः ॥२६॥ स्मित्वा दध्यौ हरिनं भामाऽद्य च्छलिताऽमुना । तनयोऽपि हि सापत्नः सपत्नीदशकोपमः ॥२७॥ किञ्चित् सर्भयसम्भोगाद् भामाया भीरुरात्मजः । भविता भवति खलु नाऽन्यथा भवितव्यता ॥२८॥ पाप्रातश्च रुक्मिणीगेहे गतोऽपश्यज्जनार्दनः । तेन दिव्येन हारेण भूषितां जाम्बवत्सुताम् ॥२९॥ निस्पन्दाक्षं प्रेक्षमाणमचे जाम्बवती हरिम् । "किमेवमीक्षसे स्वामिन् ! सैवाऽस्मि तव पत्न्यहम् ॥३०॥ ऊचे च विष्णुर्हारोऽयं दिव्यो देवि ! कुतो न्विति । साऽप्यूचे त्वत्प्रसादेन किं न वेत्सि स्वयं कृतम् ? ॥३१॥ १. पुत्रवधूः । २. प्रद्युम्नः । ३. खेचर-क्षमाप० आ० मु०, विद्याधरी: राजकन्यकाश्च । ४. ०णमचितम् मु० र०। ५. त्वमिमं र०।६. परिधाप्य । ७. सहशयनम् । ८. निकेतने मु०। ९. कृष्णस्य गृहं तस्मिन् भोगार्थिनी सत्यभामा आययौ । १०. च्छलितोऽस्यहम् खं० २। ११. ताम् खं० १,२, ला० सू० । १२. विश्वविक्षोभ० पा०म० । १३. सभयं मु०र० । १४. किमेवं वीक्षसे की०म०।
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सप्तमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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सिंहस्वप्नं च साऽऽचख्यौ व्याचख्यौ च जनार्दनः । प्रद्युम्नतुल्यस्तनयस्तव देवि ! भविष्यति ॥३२॥ पाइत्युक्त्वा प्रययौ विष्णुः समये जाम्बवत्यपि । शाम्बं नामाऽसूत सुतं सिंहीवाऽद्वैतविक्रमम् ॥३३।। दारुको जयसेनश्च सारथेमन्त्रिणः पुनः । सुबुद्धिरेते तनयाः समं शाम्बेन जज्ञिरे ॥३४।। अभूच्च सत्यभामायाः सूनुनाम्नाऽनुभानुकः । गर्भाधानानुसारात् तु भीरुरित्यपराभिधः ॥३५।। अन्यासामपि गोविन्दपत्नीनां जज्ञिरे सुताः । महौजसो महावीर्या भद्रेभकलभा इव ॥३६।। मन्त्रि-सारथिपुत्रैश्च समं शाम्बो व्यवर्धत । क्रमात् कलाकलापं च प्राज्ञो जग्राह लीलया ॥३७॥ गाअन्येचू रुक्मिणी पुत्री वैदर्भी नाम रुक्मिणः । प्रद्युम्नेनोद्वाहयितुं प्रैषीद् भोजकटे नरम् ॥३८॥ सोऽवोचद रुक्मिणं नत्वा देवी त्वां वक्ति रुक्मिणी । वैदर्भीयं निजसुता प्रद्युम्नाय प्रदीयताम् ॥३९।। उचितो मम विष्णोश्च दैवाद्योगः पुरा ह्यभूत् । योगः प्रद्युम्न-वैदर्योर्भवतु त्वत्कृतोऽधुना ॥४०॥ प्राग्वैरं संस्मरन् रुक्मीत्यूचे दास्ये निजां सुताम् । चण्डालेभ्यो वरमहं न तु विष्णोः कुलेऽपि हि ॥४१॥ दूतोऽपि गत्वा रुक्मिण्यास्तदाऽऽचख्यौ यथातथम् । भ्रात्राऽपमानिता साऽस्थात् म्लाना नक्तमिवाऽब्जिनी ॥४२।। किमेवं खिद्यसेऽम्बेति प्रद्युम्नेन तु सोदिता । शशंस रुक्मिवृत्तान्तं मनःशल्यनिबन्धनम् ॥४३।। प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीन्मातर्मा ताम्य स हि मातुलः । न साहिस्तदुचितं ततस्तातोऽकरोत् तदा ॥४४॥ पतस्योचितं विधायैष तत्पुत्रीमुद्वहाम्यहम् । इत्युक्त्वा सह शाम्बेनोत्पत्य भोजकटे ययौ ॥४५॥ किन्नरस्वरचाण्डालरूपौ भूत्वा च तत्र तौ । गायन्तौ जहतुः सर्वपौराणां मृगवन्मनः ॥४६।। ज्ञात्वाऽऽहूय च तौ मायामातङ्गौ मधुरस्वरौ । अगापयद् रुक्मिनृपः स्वोत्सङ्गे तां सुतां दधत् ॥४७।। तयोर्गीतेन मुदितो रुक्मिराट् सपरिच्छदः । दत्त्वा द्रव्यमपृच्छत् तावत्राऽऽयातौ कुतो युवाम् ? ॥४८॥ तावप्याचख्यतुः स्वर्गादायातौ द्वारकां पुरीम् । विदधे स्वर्गिभिः सा हि कृते देवस्य शाङ्गिण: ॥४९।। मुदिता तौ च प्रपच्छ वैदर्भी तत्र किं युवाम् । जानीथः कृष्ण-रुक्मिण्योः प्रद्युम्नं नाम नन्दनम् ? ॥५०॥ उवाच शाम्ब: को नाम प्रद्युम्नं रूपमन्मथम् । पृथ्व्यलङ्कारतिलकं न जानाति महौजसम् ? ॥५१॥ ातच्छ्रुत्वोत्कण्ठिता जज्ञे वैदर्भी रागगर्भिता । तदा च स्तम्भमुन्मूल्य मत्तेभः कोऽप्यधावत ॥५२॥ उपद्रवन् पुरं सर्वमकाण्डकृतविड्वरः । नाऽशक्यत स केनाऽपि वशीकर्तुं निषादिना ॥५३।। वशीकरोति यः कश्चिदिमं तस्मै ददाम्यहम् । अभीप्सितमिति 'क्ष्मापः पटहं पर्यदापयत् ॥५४॥ पटहो न स केनाऽपि दधे ताभ्यां च धारितः । गीत्या प्रद्युम्न-शाम्बाभ्यां स्तम्भितश्च महागजः ॥५५।। द्वावप्यारुह्य तं नागं नीत्वाऽऽलाने बबन्धतुः । चित्रीयमाणौ पौराणां राज्ञाऽप्याह्वायितौ मुदा ॥५६॥ याचेथां रुचितं यद्वामित्युक्तौ रुक्मिणा च तौ । इमां प्रदेहि वैदर्भी नास्ति नौ धान्यैरन्धनी ॥५७॥ तच्छ्रुत्वा कुपितो रुक्मी तौ पुरान्निरवासयत् । प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीच्छाम्बं दुःखं तिष्ठति रुक्मिणी ॥५८॥ पवैदाः परिणयने विलम्बस्तन्न युज्यते । इति तत्र ब्रुवाणेऽपि रजन्यजनि निर्मला ।।५९॥ ततः सुप्तेषु लोकेषु प्रद्युम्नो निजविद्यया । प्रासादभूम्या उपरि स्थितां रुक्मिसुतां ययौ ॥६०।। रुक्मिणीस्नेहलेखं स तस्याः कृतकमार्पयत् । वाचयित्वा साऽप्यवोचद् ब्रूहि किं ते ददाम्यहम् ? ॥६१॥ सोऽप्यूचे मह्यमात्मानमेव देहि सुलोचने ! । यदर्थे याचिताऽसि त्वं प्रद्युम्नः सोऽस्मि सुन्दरि! ॥६२॥ अहो ! सुघटितं दैवाज्जातं ननु विधेरिति । ब्रुवाणा रुक्मितनया तद्वचः प्रत्यपद्यत ॥६३।। कृत्वा विद्याबलादग्निं साक्षीकृत्य च कृष्णसूः । आर्मुक्तकङ्कणां श्वेतदुकूलां तामुपायत ॥६४॥ रमयामास तां स्वैरं काणिविविधभगिभिः । निशाशेषेऽब्रवीच्चैवं याम्यहं शाम्बसन्निधौ ॥६५॥
१. नाम्ना तु भा० मु० । २. सामवचनयोग्यो न । ३. स्वरम् ला० । ४. ०दायाव: खं० २, ०दायाव खं०१, सू० । ५. द्वारिका खं०२, ला०, द्वारकावतीम् सं०। ६. तु मु० २० । ७. ङ्कारभूतं को खं० २ । ८. भयं, जनक्षोभः । ९. हस्त्यारोहकेन। १०. कश्चिदिभम् की० । ११. रुक्मिनृपः । १२.०गीतात् ता० । १३. हस्तिनम् । १४. आवयोः । १५. अन्नपाचिका । १६.०भूम्यां सप्तम्यां मु०र० । १७. कृत्रिमम् । १८. वदा० ला० । १९. आयुक्तकङ्कणां की० । आमुक्तकङ्कणः खं०१-२, ला० सू० । २०. प्रद्युम्न: कृष्णपुत्रः ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
पितृभ्यां परिवारेण पृच्छ्यमानाऽपि मा ब्रवीः । त्वद्देहोपद्रवरक्षा विहिताऽस्ति मयाऽनघे ! ॥६६॥ इत्युक्त्वा काष्णिरगमद् वैदर्भ्यप्यतिजागरात् । रतश्रमाच्च सुष्वाप जजागार प्रगेऽपि न ||६७ || तत्राऽऽययौ च तद्धात्री तद् दृष्ट्वा कङ्कणादिकम् । विवाहचिह्नं साशङ्का तामुत्थाप्याऽन्वयुक्त च ॥६८॥ नाऽऽख्यच्च किञ्चिद् वैदर्भी धात्री च स्वागसश्छिदे । शशंस रुक्मिणे गत्वा राज्यै च भयविह्वला ॥६९॥ ताभ्यामपि समागत्य साऽनुयुक्ता शशंस न । व्यक्तं विवाहसम्भोगचिह्नं ददृशतुश्च तौ ॥७०॥ दधौ मनसि रुक्म्येवं कन्येयं कुलपांसना । अदत्ताऽपि हि केनापि सह रेमे यदृच्छयां ॥७१॥ चाण्डालाभ्यां वरं ताभ्यां दत्ताऽऽसीत् कन्यकाधमा । ध्यात्वेत्याजूहवद् रोषात् तौ चाण्डालौ स्ववेत्रिणा ॥ ७२ ॥ कन्यका गृह्यतामेषा यातं तत्र न यत्र वाम् । पश्यामीति वदन् रोषाद् वैदर्भी प्रददौ तयोः ॥ ७३|| वैदर्भीमूचतुस्तौ च रार्जपुत्र्यावयोर्गृहे । जलौकश्चर्मरज्ज्वादिविक्रयं किं करिष्यसि ? ॥७४|| साऽप्यूचे परमार्थज्ञा यद्दैवं कारयिष्यति । तदवश्यं करिष्यामि दुर्लङ्घ्यं दैवशासनम् ॥७५॥ ततस्तौ तामुपादाय वीरौ जग्मतुरन्यतः । पश्चात्तापाद् रुक्मिराजोऽप्यरोदीदिति पर्षदि ॥७६॥ हा वत्से ! क्वाऽसि वैदर्भि ! सन्दर्भों नोचितों ह्यभूत् । मया गौरिव चण्डालद्वारे क्षिप्ताऽसि नन्दने ! ॥७७॥ सत्यं हि कोपश्चाण्डालश्चाण्डालाभ्यां स तन्मया । अदापयत् सुतां सर्वो ह्यात्मवर्गहितैषकः ॥७८॥ रुक्मिण्या याच्यमानाऽपि प्रद्युम्नायाऽऽत्मसूनवे । क्रोधान्धेन न दत्ताऽसि धिग् मया मन्दमेधसा ॥७९॥ रुदन्नेवं च शुश्राव गम्भीरं तूर्यनिस्वनम् । कुतोऽयमिति पृष्टाश्च ज्ञात्वाऽऽचख्युर्नियोगिनः ॥ ८० ॥ प्रद्युम्न- शाम्बौ वैदर्भ्या 'संहितौ नगराद् बहिः । विमानतुल्ये प्रासादे तिष्ठतो नाकिनाविव ॥८१॥ चारणैः स्तूयमानौ तौ वर्यतूर्यमनोहरम् । सङ्गीतकं कारयतो नादोऽयं तद्भवः प्रभो ! ||८२|| ततः प्रमुदितो रुक्मी तावानिन्ये निजे गृहे । स्वयं जामेय - जामातृस्नेहादानर्च चाऽधिकम् ॥८३॥ ततो रुक्मिणमापृच्छ्य वैदर्भी - शाम्बसंयुतः । प्रद्युम्नोऽगाद् द्वारवतीं रुक्मिणीनयनोत्सवम् (वः ? ) ॥८४॥ नवयौवनया रुक्मिपुत्र्या रत्येव नव्यया । रममाणः सुखं तस्थौ प्रद्युम्नो नवयौवनः ॥८५॥ शाम्बो हेमाङ्गदनृपपुत्र्या वेश्याप्रसूतया । सुहरिण्याख्यया रेमे रूपादैत्यप्सरः श्रिया ||८६|| जघान क्रीडयन्नित्यं शाम्बो भीरुं तथा धनम् । प्राज्यं द्यूते हारयित्वा "रोदयामास कौतुकी ॥८७॥ रुदन् गत्वा भीरुराख्यद् भामायै साऽपि विष्णवे । सोऽपि देव्यै जाम्बवत्ये तच्छाम्बस्य विचेष्टितम् ॥८८॥ जगाद जाम्बवत्येवमियत्कालं मया न हि । शाम्बदुर्विनयोऽश्रावि किमिदं विष्टरश्रवः ! ॥८९॥ ऊचे विष्णुः सुतं सिंही सौम्यं भद्रं च मन्यते । गजा एव हि जानन्ति तस्य क्रीडां शिशोरपि ॥९०॥ दर्शयाम्यद्य तच्चेष्टा इत्युक्त्वाऽऽभीररूपभृत् । चक्रे हरिस्तामाभीरीरूपां जाम्बवतीमपि ॥ ९१ ॥ विक्रीणानावुभौ तकं विशन्तौ द्वारकापुरीम् । दृष्टौ शाम्बकुमारेण सदा स्वैरविहारिणा ॥९२॥ शाम्बोऽवोचदथाऽऽभीरीमेहि क्रीणामि गोरसम् । इत्युक्ता साऽन्वगाच्छाम्बं स आभीरश्च तां पुनः ||१३|| एकं देवकुलं शाम्बः प्रविष्टस्तामथाऽऽह्वत । सोचे नाऽत्र प्रवेक्ष्यामि मूल्यमत्रैव देहि मे ॥ ९४|| अत्राऽवश्यं प्रवेष्टव्यमित्युदित्वा करेण ताम् । गृहीत्वा कष्टुमारेभे शाम्बो हस्ती लतामिव ॥९५॥ रे ! किं गृह्णासि मद्भार्यामित्याभीरः स तं द्रुतम् । जघानाऽऽविरभूतां च तौ तु जाम्बवती - हरी ॥ ९६ ॥ सम्प्रेक्ष्य पितरौ शाम्बः पिधायाऽऽस्यं पलायितः । अदर्शि सुतदुश्चेष्टेत्यूचे जाम्बवतीं हरिः ||९७|| प्रसह्याऽऽनीयमानः स द्वितीयेऽहनि शार्ङ्गिणा । कीलिकां घटयन्नागात् पृष्टश्चैवमवोचत ॥९८॥ वचनं ह्यस्तनं योऽद्य वदिष्यति तदानने । क्षेपणीया कीलिकेयमतोऽहं घटयाम्यमूम् ॥९९॥
१०४
(अष्टमं पर्व
१. तं दृष्ट्वा ला० । २ ० प्याऽन्वयुक्त मु०, अपृच्छत् । ३. निजापराधनाशाय । ४. कुलपांसुना मु० । कुलपांशुना मु० सं० छा० ला०] १. आ० पु० । ५. निजेच्छया मु० र० । ६. हे राजपुत्रि । ७. जलौक: जलो इति भाषायाम् । ८. दुर्ल २० । ९. तोऽप्यभूत ला० । १०. मन्दबुद्ध्या । ११. सेवकाः । १२. सह तौ खं० १ सू० । १३. द्वारवत्याम् पा० आ० मु० । १४. अप्सरसां श्रियमतिकान्तात्यप्सरः श्रीः तया । १५ दापयामास खं० २ विना । १६. हे गोविन्द ! |
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सप्तमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
निर्लज्जः कामविवशः स्वैरमत्र विचेष्टते । इति निर्वासितः शाम्बः स्वपुर्याः शार्ङ्गपाणिना ॥१००॥ प्रज्ञप्तिविद्यां प्रद्युम्नोऽप्यन्तः स्नेहाधिवासितः । शाम्बाय गच्छतेऽदत्त प्राग्जन्मन्यपि बन्धवे ॥ १०१ ॥ | प्रद्युम्नो भीरुकं नित्यमर्दयन् भामयौच्यत । नगर्याः किं न निर्यासि रे ! शाम्ब इव दुर्मते || १०२ ।। सोऽप्यूचे कुत्र गच्छामि स्मशान इति साऽवदत् । कदा मया समागम्यमित्युवाच स तां पुनः || १०३ || यदा हस्ते गृहीत्वाऽहं शाम्बमत्राऽऽनयाम्यरे ! । तदा त्वया समागम्यमित्यूचे साऽपि तं क्रुधा ॥ १०४॥ यदादिशति मे मातेत्युदित्वा रुक्मिणीसुतः । ययौ स्मशाने शाम्बोऽपि भ्रान्त्वा तत्र समाययौ ॥ १०५ ॥ उभौ श्मशान भूम्यां तौ दाघशुल्कं महत्तरम् । गृहीत्वा ददतुर्दग्धुं मृतकानि पुरीदाम् ॥ १०६ ॥ ||इतश्च भीरवे भामैकोनकन्याशतं शुभम् । अमेलयत् प्रयत्नाच्च कन्यामेकामियेष च ॥ १०७॥ प्रज्ञप्त्या तत्तु विज्ञाय प्रद्युम्नो व्यकरोच्चमूम् । जितशत्रुर्नाम नृपः स्वयं जज्ञे च तत्क्षणात् ॥१०८॥ शाम्बश्च जज्ञे तत्कन्या देवकन्यासहोदरा । भीरुधात्र्या च ददृशे क्रीडन्ती सा सखीवृता ॥ १०९ ॥ तां ज्ञात्वा सत्यभामायै सा सद्योऽपि व्यजिज्ञपत् । भामाऽयाचिष्ट भीर्वर्थे जितशत्रुं नरेण ताम् ॥११०॥ जितशत्रुर्बभाषे तं तदा कन्यां ददाम्यहम् । भामा हस्ते गृहीत्वाऽमूं द्वारकां प्रविशेद् यदि ॥ १११ ॥ अन्यच्चोद्वाहकालेऽस्याः करं भीरुकरोपरि । चेत् कारयति भामा तद्भीरवेऽस्तु ममाऽऽत्मजा ॥ ११२ ॥ इत्युक्तः स नरो गत्वा भामायै तद्व्यजिज्ञपत् । आमेत्युक्त्वा ययौ भामाऽर्थिनी तच्छिबिरे द्रुतम् ॥११३॥ शाम्बो बभाषे प्रज्ञप्तिं भामा तस्या जनोऽपि च । कन्यारूपं पश्यतु मां शाम्बमेवाऽपरो जनः ॥ ११४॥ तथा कृते च प्रज्ञप्त्या भामया दक्षिणे करे । गृहीतः शाम्बकुमारः प्राविशद् द्वारकां पुरीम् ॥ ११५ ॥ आनिन्ये भामया शाम्बो भीरोः पाणिग्रहोत्सवे । अहो ! चित्रमहो ! चित्रमित्यूचुर्नागरस्त्रियः ॥११६॥ भामौकसि गतः शाम्बो भीरोर्वामेतरं करम् । स्वहस्तेनोपरिस्थेनाऽऽदाय वामेन वामधीः ॥११७॥ एकोनकन्याशतस्य पाणीन् दक्षिणपाणिना । धृत्वा च युगपद् वह्निं परितो विधिनाऽभ्रमत् ॥११८॥ युग्मम् ॥ पश्यन्त्यः कन्यकाः शाम्बमूचुः पुण्योदयादसि । विधिना योजितो नस्त्वं पती रर्तिपतेः समः ॥ ११९ ॥ वृत्तोद्वाहः समं ताभिः शाम्बो वासगृहे ययौ । भीरुः शाम्बेन तत्राऽऽयान् भ्रुकुट्या भीषितो ययौ ॥१२०॥ गत्वा स आख्यद् भामायै साऽप्यश्रद्दधती स्वयम् । तत्राऽऽगत्यैक्षिष्ट शाम्बं शाम्बोऽपि प्रणनाम ताम् ॥१२१॥ सकोपा साऽप्युवाचैवं केनाऽऽनीतोऽसि धृष्ट रे ! । सोऽप्यूचेऽहं त्वयाऽऽनीतः कन्योद्वाहं च कारितः ॥ १२२ ॥ प्रमाणमत्र निःशेषो मध्यस्थो द्वारिकाजनः । इत्युक्ता साऽपि पप्रच्छ तत्राऽऽयातान् पुरीजनान् ॥१२३॥ तेऽप्यूचे देवि ! मा कुप्य त्वया शाम्बः प्रवेशितः । अस्माकं पश्यतामेव कन्योद्वाहं च कारितः ॥ १२४ ॥ मायी मायसुतो मायिकनिष्ठो मायिनीभवः । कन्यारूपोऽच्छलयन्मामित्युक्त्वा सा ययौ रुषा ॥ १२५ ॥ प्रत्यक्षं सर्वलोकानां कृष्णस्ताः कन्यकाः स्वयम् । ददौ शाम्बाय चक्रे च जाम्बवत्युत्सवं परम् ॥ १२६ ॥ वसुदेवं नमस्कर्तुं गतः शाम्बोऽब्रवीदिति । भ्रान्त्वा क्ष्मां तात ! युष्माभिश्चिरेणोढाः खलु स्त्रियः ॥१२७॥ अभ्रान्त्वाऽपि मयैकत्र युगपत्कन्यकाशतम् । परिणीतमिति व्यक्तं युष्माकं मम चान्तरम् ॥१२८॥ प्रत्यूचे वसुदेवोऽपि कूपमण्डूककल्प रे! । पित्र निःसारितोऽप्यषि धिग् धिक् त्वां मानवर्जितम् ॥१२९ ॥ भ्रात्राऽवमानितोऽहं तु वीरवृत्त्या निरीय रे! । सर्वत्राऽस्खलितोऽभ्राम्यं पर्यणैषं च कन्यकाः ॥१३०॥ यथावसरमिलितैर्बन्धुभिश्चैभिरादरात् । 'अर्थितः स्वगृहाण्यागां न पुनस्त्वमिव स्वयम् ॥१३१॥ शाम्बः पूज्यतिरस्कारमथ ज्ञात्वा स्वयंकृतम् । कृताञ्जलिः प्रणम्योच्चैरित्युवाच पितामहम् ॥१३२॥ उक्तं मयैतदज्ञानाद् बालदुर्ललितं ह्यदः । क्षन्तव्यं तातपादैस्तत्तातो लोकोत्तरो गुणैः ॥१३३॥ |इतश्च जेवनद्वीपात् तत्रेयुर्जलवर्त्मना । महाभाण्डान्युपादाय वणिजः केचिदीश्वराः ॥१३४॥
१०५
१. ताडयन् । २. दाहशुल्कम् मु० र० । ३. नगरीवासिनाम् । ४. दक्षिणम् । ५. वामा सुन्दरा धीः बुद्धिः यस्य सः । ६. कामदेवस्य । ७. कूपदर्दुरसदृशः । ८. कृष्णेन । ९. ० प्येष मु० २० । १०. भ्रात्राऽपमा० खं० १, ला० सू०, समुद्रविजयेन । ११. प्रार्थित: । १२. यवन० मु० र० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
राजगृहे ययुः ॥ १३५ ॥
व्यक्रीताऽन्यवस्तूनि न पुना रत्नकम्बलान् । विशेषलाभमिच्छन्तः वणिग्भिस्तत्र वास्तव्यैरग्रे भूत्वाऽथ निन्यिरे । मगंधाधीशदुहितुस्ते जीवयशसो गृहे ॥ १३६ ॥ अदर्शयंश्च ते जीवयशसो रत्नकम्बलान् । उष्णे शीतान् शीते चोष्णान् बहलै श्लक्ष्णरोमकान् ॥१३७।। मूल्यार्धे कम्बलानां तु कृते पूच्चक्रिरेऽथ ते । आयामो द्वारकां मुक्त्वा वयं किमधिलिप्सवः ॥ १३८॥ पप्रच्छ तान् जीवयशा: का नाम द्वारका पुरी । को नाम नृपतिस्तत्र वणिजस्तेऽप्यदोऽवदन् ॥१३९॥ दत्ते स्थाने समुद्रेण द्वारिका पूः सुरैः कृता । तत्र कृष्णो नृपः सूनुर्देवकी - वसुदेवयोः ॥१४०॥
॥ तच्च श्रुत्वा जीवयशा जगादैवं रुदत्यथ । जीवत्यद्याऽपि मद्भर्तुः संहर्ता शास्ति चाऽवनिम् ? ॥ १४१ ॥ तां च दृष्ट्वा जरासन्धोऽ ऽपृच्छद् रोदनकारणम् । साऽप्याख्यत् कृष्णवृत्तान्तमित्यूचे च कृताञ्जलिः ॥१४२॥ तात ! मां विसृजाऽद्यैव प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् । स्वसन्धां पूरयिष्यामि न जीविष्याम्यतः परम् || १४३।। जरासन्धोऽभ्यधात् पुत्रि ! मा रोदीरेष नन्वहम् । रोदयिष्यामि कंसारेर्मातृ-स्वसृ-वधूजनम् ॥१४४॥ ||अयादवं भवत्वद्येत्युदित्वा मगधेश्वरः । प्रयाणायाऽऽदिशत् सेनां वार्यमाणोऽपि मन्त्रिभिः || १४५|| महौजसस्तमन्वयुः सहदेवादयः सुताः । चेदिराज: शिशुपालो धुरीणः स च दोष्मताम् ॥१४६॥ राजा हिरण्यनाभश्च महाबलपराक्रमः । दुर्योधनश्च कौरव्य आयोधनधुरन्धरः ||१४||
१०६
(अष्टमं पर्व
अन्येऽपि बहवो भूपाः सामन्ताश्च सहस्रशः । जरासन्धं समापेतुः प्रवाहा इव सागरम् ॥१४८॥ युग्मम् ।। पपात मुकुटो मूर्ध्ना हारस्तुत्रोट चोरस: । स्खलितश्चाऽञ्चलेनांऽह्रिस्तस्याऽग्रे चाऽभवत् क्षुतम् ॥१४९॥ पस्पन्दे नयनं वामं विण्मूत्रे तद्गजोऽकरोत् । प्रतिकूलः समीरोऽवाद् गृध्राश्च थ्रेमुरम्बरे ॥१५०|| आप्तैरिवाऽनिमित्तैश्चाऽशकुनैश्चैवमादिभिः । कथ्यमानाशुभोदर्कोऽप्यस्थान्न स मनागपि ॥१५९॥ रजोभिरिव सैन्योत्थैस्तुमुलैः पूरयन् दिशः । दिशां गज इवोद्भ्रान्तः कम्पयन्नवनीतलम् ॥१५२॥ जरासन्धः क्रूरसन्धोऽध्यारूढो गन्धसिन्धुरम् । प्रति प्राचेतसीमाशां प्रचचाल महाबलः ॥ १५३ ॥ युग्मम् ॥ समयान्तं जरासन्धं नारदः कलिकौतुकी । चराश्च गत्वा त्वरितं शशंसुः शार्ङ्गपाणये ॥ १५४॥ कृष्णैवमेव कृष्णोऽपि तेजसामेकमास्पदम् । प्रयाणाय समुत्तस्थे भम्भाताडनपूर्वकम् ॥१५५॥ तन्नादेनाऽमिलन् सर्वे यँदवो भूभुजोऽपि च । सुघोषाघण्टाघोषेण सौधर्मत्रिदशा इव ॥१५६॥ समुद्रविजयस्तेषु समुद्र इव दुर्धरः । तत्राऽऽगात् सर्वसन्नाही तस्यैते तनया अपि ॥ १५७ ॥ महानेमिः सत्यनेमिर्दृढनेमि सुनेमिनौ । अरिष्टनेमिर्भगवान् जयसेनो महीजयः ॥ १५८ ॥ तेज:सेनो "जयो मेघश्चित्रको गौतमोऽपि च । श्वफल्क: शिवनन्दश्च विश्वक्सेनो महारथाः ॥१५९॥ अक्षोभ्यो द्विषदक्षोभ्यः समुद्रविजयानुजः । आययौ युधि धौरेयास्तस्याऽष्टौ च सुता इमे ॥१६०|| उद्धवश्च धवश्चैव क्षुभितोऽथ महोदधिः । अम्भोनिधिर्जलनिधिर्वामदेवो दृढव्रतः ॥१६१॥ स्तिमितोऽपि हि तत्रऽऽगात् पञ्चैते तत्सुतोत्तमाः । ऊर्मिमान् वसुमान् वीरः पातालः स्थिर एव च ॥ १६२॥ सागरः षड् च तत्पुत्रा निष्कम्पः कम्पनस्तथा । लक्ष्मीवान् केशरी श्रीमान् युगान्तश्च समाययुः || १६३|| आययौ हिमवांस्तत्र तत्तनूजास्त्रयोऽप्यमी । विद्युत्प्रभस्तथा गन्धमादनो माल्यवानपि ॥१६४॥ अचलोऽचलपुत्राश्च सप्ताऽऽजग्मुर्महौजसः । महेन्द्रो मलयः सह्यो गिरिः शैलो नगो बलः || १६५ || धरणः पञ्च तत्पुत्राः कर्कोटक- धनञ्जयौ । विश्वरूपः श्वेतमुखो वासुकिश्च समाययुः ॥१६६॥ पूरणः पूरणपुत्राश्चत्वारश्च समाययुः । दूष्पूरो दुर्मुखश्चैव दुर्दशो दुर्धरस्तथा || १६७ ||
१. व्यक्रीणन्ता० मु० । २. जरासन्धपुत्र्याः । ३. उष्णशीतान् खं० २ । ४. बहुल० ला० । ५. अधिकं लब्धुमिच्छ्वः, किमवलिप्सवः पा० । ६. निजप्रतिज्ञाम् । ७. युद्धनिपुणः । ८. ०सन्धसमीपेऽयुः खं० २ । ९. समीरोऽभूद् पा०लार, आ०मु० । १०. स्वजनैरिव । ११. अशुभफलः । १२. वारुणीम् । १३. सीमायातं खं० १, ला० । समायातं खं० २, सू० । १४. किल कौ० मु०र० । १५. अग्निरिव । १६. यादवा मु० । १७. सत्यनेमी रथनेमिसुनेमिनी की० । १८. नयो खं०१-२, सू० १९. गोतमो० खं०१, ला० सू० । २० महारथः ला० सू० । २१. माहेन्द्रो सू० ।
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सप्तमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशत्नाकापुरुषचरितम् ।
आययावभिचन्द्रोऽपि षट् तस्य च सुता इमे । चन्द्र शशाङ्कश्चन्द्राभः शशी सोमोऽमृतप्रभः ॥ १६८ ॥ वसुदेवोऽपि तत्राऽऽगाद् देवदेव इवौजसा । तत्सूनवश्च बहवो दोष्मन्तो नामतस्त्वमी || १६९|| जात विजयसेनाया अक्रूरः क्रूर इत्यपि । ज्वलनाऽशनिवेगौ च श्यामायास्तनयावुभौ || १७०॥ पुत्रा गन्धर्वसेनार्यस्त्रयोऽग्नय इवाङ्गिनः । वायुवेगोऽमितगतिर्महेन्द्रगतिरेव च ॥ १७१ ॥ पद्मावत्या मन्त्रिपुत्र्यास्त्रयः पुत्रा महौजसः । सिद्धार्थो दारुकञ्चापि सुदारुरपि विक्रमी ॥ १७२॥ उभौ च नीलयशसः पुत्रौ सिंह - मतङ्गजौ । नारदो मरुदेवश्चेत्युभौ सोमश्रियः सुतौ ॥ १७३ || मित्रश्रियः सुमित्रश्च कपिलः कपिलाभवः । पद्मावत्या अपि सुतौ पद्मः कुमुद एव च ॥ १७४॥ अश्र्श्वसेनोऽश्वसेनाजः पुण्ड्रः पुण्ड्राभवः पुनः । रत्नवत्या रत्नगर्भो वज्रबाहुच बाहुभृत् ॥१७५॥ सोमश्रियः सोमपुत्र्याश्चन्द्रकान्त - शशिप्रभौ । वेगवान् वायुवेगश्च वेगवत्याः सुतावुभौ ॥ १७६॥ पुत्रा मदनवेगायास्त्रैलोक्यप्रथितौजसः । अनाधृष्टिर्दृढमुष्टिर्हिममुष्टिरिति त्रयः ॥ १७७॥ बन्धुमत्या बन्धुषेणः सिंहसेनश्च नन्दनौ । पुत्रः प्रियङ्गुसुन्दर्या युधि धुर्यः शिलायुधः ॥ १७८॥ तनयौ तु प्रभावत्याः ख्यातौ गन्धार - पिङ्गलौ । जरत्कुमार-वाह्लीकौ जरादेव्याश्च नन्दनौ ॥ १७९॥ अवन्तिदेव्यास्तनयौ सुमुखो दुर्मुखोऽपि च । रोहिण्यास्तु सुतो रामः सारणोऽथ विदूरथः ॥ १८० ॥ नौ बालचन्द्राया वज्रदृष्टा ऽमितप्रभौ । पुत्रा रामस्य बहवो मुख्यास्त्वैते ऽभिधानतः ॥ १८९ ॥ उल्मुको निषधश्चैव प्रकृतिद्युतिरेव च । चारुदत्तो ध्रुवः शत्रुदमनः पीठ एव च ॥ १८२ ॥ श्रीध्वजो नन्दनश्चैव श्रीमान् दशरथस्तथा । देवानन्दस्तथाऽऽनन्दो विद्रथुः शान्तनुस्तथा || १८३ ॥ पृथुः शतधनुश्चैव नरदेवो महाधनुः । दृढधन्वा तथा विष्णोरप्याययुरमी सुताः ॥ १८४ ॥ भानुश्च भामरश्चैव महाभान्वनुभानकौ । बृहद्ध्वजश्चाऽग्निशिखो धृष्णुः सञ्जय एव च ॥ १८५ ।। अकम्पनो महासेनो धीरो गम्भीर एव च । उदर्धिर्गोतमश्चैव वसुधर्मा प्रसेनजित् ॥१८६॥ सूर्यश्च चन्द्रवर्मा १२ च 'चारुकृष्णक इत्यपि । सुचारुर्देवदत्तश्च भरतः शङ्ख एव च ॥१८७|| प्रद्युम्न - शाम्बप्रमुखा अपरेऽपि महौजसः । सहस्त्रशो विष्णुपुत्रास्तत्राऽऽपेतुर्युयुत्सवः ॥१८८॥ उग्रसेनस्तत्सुताश्च धरो गुणधरोऽपि च । शक्तिको दुर्धरश्चन्द्रः सागरश्चाऽऽययुर्युधि ॥ १८९॥ पितृव्यो ज्येष्ठ नृपतेः सान्त्वनस्तत्सुतास्त्वमी । महासेनो विषमित्रो "नमित्रो दर्निमित्रकः ॥ १९०॥ महासेनस्याऽपि सुतः सुषेणो नाम पार्थिवः । विषमित्रस्य हृदिकः सिनिः सत्यक एव च ॥१९१॥ हृदिकात् कृतवर्माख्यो दृढधर्मा" च पार्थिवः । सत्यकाद् युयुधानाख्यस्तत्सुतो गन्ध एव च ॥१९२॥ दशार्हाणां सुताश्चाऽन्ये राम-विष्णवोश्च भूरिशः । पितृष्वसृ स्वसृसुता अप्याजग्मुर्महीभुजाः || १९३ ।। [[ततः क्रौष्टकिनाऽऽख्याते दिने दारुकसारथिम् । तार्क्ष्याङ्कं रथमारूढः सर्वैर्यदुभिरावृतः ॥ १९४ ॥ शुभैर्निमित्तैः शकुनैः संसूचितजयोत्सवः । प्रति पूर्वोत्तरामाशां प्रचचाल जनार्दनः ॥ १९५ ॥ युग्मम् ॥ पञ्चचत्वारिंशतं तु योजनानि निजात् पुरात् । गत्वा तस्थौ सिनेपल्यां ग्रामे सङ्ग्रामकोविदः || १९६।। ||अर्वाग् जरासन्धसैन्यांच्चतुर्भिर्योजनैः स्थिते । तत्र कृष्णबले केचिदागुर्विद्याधरोत्तमाः || १९७॥ समुद्रविजयं नत्वा तेऽवोचन्नृपते ! वयम् । गुणगृह्यास्त्वदीयस्य भ्रातुरानकदुन्दुभेः ॥ १९८॥ युग्मम् ॥ येषां कुलेऽरिष्टनेमिर्जगद्रक्षा-क्षयक्षमः । एतौ च राम - गोविन्दावद्वितीयपराक्रमौ ॥ १९९ ॥ प्रद्युम्न - शाम्बप्रमुखा नप्तारोऽमी च कोटिशः । तेषां वो युधि साहाय्यमन्येभ्यः कीदृशं ननु ? ||२००॥
१. दक्षिणाग्नि: गार्हपत्याग्निः आहवनीयाग्निः एते त्रयोऽग्नयः । २. पद्मसेनो० ला० । ३. ०धृष्णि० खं० २ । ४. जरा० वा० । ५. विदूखरः खं० २ । ६. मुख्यास्त्वित्यभि० खं०१-२, सू० । ७. उल्मूको मु० २० । ८. पीत सू० । ९. विप्रथुः मु० र० । विद्रथः खं०१, सू० । १०. विष्णुः ला० । ११. ० गौतिम० मु० २० । १२. चन्द्रधर्मा ता० सं० ला० । १३. चारुः कृष्णक खं०२, ला० सू० । १४. ० नृपतिः ला० । १५. सुमित्रो की० । निमित्रो पु० । हदिकः मु० । हृदको खं० २ । १६. सत्यमित्रकः मु० खं० २ । १७. सात्यक मु० । १८. दृढवर्मा खं० २ । १९. र्महीभुजः सू० । २०. सारथिः खं०२, ला० । २१. ईशानदिशम् । २२. सित० सू०, संनि० खं०२, सेन० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तथाप्यवसरं ज्ञात्वा त्वद्भक्त्या वयमागताः । समादिश स्वसामन्तवर्गे गणय नः प्रभो! ॥२०१।। एवमस्त्विति राज्ञोक्ते ते भूयोऽप्येवमूचिरे । जरासन्धस्तृणमसौ केवलस्याऽपि शाणिः ॥२०२।। वैताढ्याद्रौ जरासन्धगृह्या ये सन्ति खेचराः । इहाऽऽयान्ति न यावत् ते तान् प्रति तावदादिश ॥२०३। सेनानीश्चाऽयमस्मासु वसुदेवोऽस्तु तेऽनुजः । प्रद्युम्न-शाम्बसहित: सत्येवं ते जिताः खलु ॥२०४।। समुद्रविजयः कृष्णानुज्ञयाऽऽनकदुन्दुभिम् । प्रेषीत् प्रद्युम्न-शाम्बौ च पौत्रौ तैः खेचरैः समम् ॥२०५।। तदा च वसुदेवाय प्रददेऽरिष्टनेमिना । जन्मस्नात्रे सुरैर्दोष्णि बद्धौषध्यस्त्रवारणी ॥२०६॥ पाइतश्च मगधाधीशं सहैत्याऽपरमन्त्रिभिः । उवाच हंसको मन्त्री मन्त्रपूर्वमिदं वचः ॥२०७॥
अमन्त्रितं पुराऽकार्षीत् कंसः सोऽप्याप तत्फलम् । मन्त्रशक्तिं विनोत्साह-प्रभशक्ती दरायती ॥२०८।। परः स्तोकः समो वाऽपि द्रष्टव्यः स्वाधिकः खलु । किं पुनर्योऽधिक: स्वस्माद् विष्णुरेष महाबलः ॥२०९॥ स्वयंवरे हि रोहिण्या दशा) दशमश्च सः । मुखान्धकारो भूपानां तदैक्षि स्वामिना स्वयम् ॥२१०।। तदाऽभूत् त्वद्वले नाऽलं वसुदेवाय कोऽपि हि । तज्ज्यायसा समुद्रेण त्वत्सैन्याः परिरक्षिताः ॥२१॥ यते कोटिजयाद् ज्ञातः स्वसुतायाश्च जीवनात् । घातितोऽपि वसदेवो न मृतः स्वप्रभावतः ॥२१२॥ जातौ चाऽस्माद् राम-कृष्णौ वृद्धि चैतावतीं गतौ । ययोः कृते वैश्रवणो द्वारकां निर्ममे पुरीम् ॥२१३।। एतावतिरथौ वीरौ शरणं यौ महारथाः। युधिष्ठिराद्या व्यसने शिश्रियुः पाण्डवा अपि ॥२१४।। प्रद्युम्न-शाम्बौ तनयौ राम-कृष्णाविवाऽपरौ । तौ च भीमा-ऽर्जुनौ भीमौ कृतान्तस्याऽपि दोर्बलात् ॥२१५।। किं चाऽन्यैाहीरैर्नेमिरेकोऽपि तत्र यत् । लीलया निजदोर्दण्डे छत्रीकर्तुमलं महीम् ॥२१६॥ सैन्ये त्वदीये धौरेयौ दमघोषज-रुक्मिणौ । रुक्मिणीहरणे दृष्टं बलं बलेरणे तयोः ॥२१७।। दुर्योधनश्च कौरव्यो गान्धारः शकुनिस्तथा । श्ववच्छलबलौ ह्येतौ न वीरगणना तयोः ॥२१८॥ अङ्गाधिराजः कर्णोऽपि सक्तुमुष्टिरिवाऽर्णवे । शङ्के कृष्णबले स्वामिन् ! कोटिर्सङ्ख्यमहारथे ॥२१९।। नेमिः कृष्णो बलश्चाऽतिरथाः परबले त्रयः । त्वमेक एव स्वबले बलयोर्महदन्तरम् ॥२२०॥ अच्युताद्याः सुरेन्द्रा यं नमस्कुर्वन्ति भक्तितः । तेन श्रीनेमिना सार्धं युद्धाय प्रोत्सहेत कः? ॥२२१॥ छलयित्वा सुरैरेव कृष्णगृह्येनिपातितः । कालस्तव सुतस्तेन विद्धि दैवं पराङ्मुखम् ।।२२२।। नेयं प्रमाणयन्तोऽमी यदवो बलिनोऽपि हि । प्रणश्य मथुरापुर्या द्वारका नगरीं ययुः ।।२२३।। बिलादिव त्वया सर्पः कष्ट आहत्य यष्टिना । आययौ सम्मुखीनस्ते कृष्णोऽसौ न पुनः स्वयम् ॥२२४।। इयत्यपि गते स्वामिन् ! न योद्धं युज्यतेऽमुना । अयुध्यमाने त्वय्येष स्वयं व्यावृत्त्य यास्यति ॥२२५॥ इति तद्वचसा क्रुद्धो जरासन्धोऽभ्यधादिति । यदुभिर्मायिभिर्नूनं भेदितोऽसि दुराशय ! ॥२२६॥ यत्तु भेषैयसि त्वं मां शत्रु शंसन् वृथैव तत् । किं बिभेति हरिः १ फेरुफेत्कारैः क्वाऽपि दुर्मते ! ॥२२७।। करोमि भस्मसादेषों गोपालानां बलं बलात् । धिक् ते मनोरथमिमं निवर्तनकरं रणात् ॥२२८॥ पाअथोचे डिम्भको मन्त्री तद्भावसदृशं वचः । प्राप्तकालो रणो ह्येष न त्याज्य: स्वामिनाऽधुना ॥२२९॥ सङ्ग्रामे सम्मुखीनानां वरं मृत्युर्यशस्करः । रणात् पराङ्मुखानां तु न जीवितमपि प्रभो ! ॥२३०।।
चक्ररत्नमिवाऽभेद्यं चक्रव्यूहं निजे बले । विरचय्य हनिष्यामः परानी कमनीकगम् ॥२३१।। प[अथ हृष्टो जरासन्धस्तमूचे साधु साध्विति । चक्रव्यूहाय चाऽऽदिक्षत् सेनानाथान् महौजसः ॥२३२॥
हंसको डिम्भकोऽमात्यौ चमूनाथास्तथाऽपरे । चक्रव्यूहं चक्रिरेऽथ शासनादर्धचक्रिणः ॥२३३।। १. मन्त्रशक्तिं विना उत्साहशक्ति - प्रभुशक्ती अशुभफले । २. शत्रुः । ३. सदृशः । ४. मुखकालिमा । ५. "एकादशसहस्राणि हस्तिनां यस्तु योधयेत् । शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च स महारथ उच्यते" इति ता० प्रतौ टि० । ६. दोर्दण्डछत्री मु० र० । ७. मुख्यौ । ८. शिशुपाल । ९. बलदेवेन सह रणे । १०. कोटिसङ्ख्यामहा० खं०२, सू० । ११. राजनीतिम् । १२. कृष्ण खं०२ । १३. भीषयसि खं०२। भीषयसे खं०१, सू० । १४. मामप्यरि शंसन् खं०१, सू० । १५. सिंहः । १६. शृगाल: तस्य फैत्कारैः शब्दैः । १७. देष खं०१, सू० विना० । १८. परसैन्यं स्वसेनायां प्रविष्टम् । ०नीकमनेकगम् ला० ।
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सप्तमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
चक्रे तत्र सहस्रारे राजैकैकोऽध्य स्थितः । तेषां च राज्ञां प्रत्येकं शतमेकं च दन्तिनाम् ॥२३४॥ स्यन्दनानां द्वे सहस्रे सहस्राः पञ्च वाजिनाम् । पदातीनां सहस्राणि षोडशाऽमिततेजसाम् ॥२३५॥ प्रधेश्च परिधौ राज्ञां सपादा षट्सहस्यभूत् । सहस्रैः पञ्चभिः साग्रैस्तुम्बान्तर्मगधेश्वरः ||२३६|| गान्धारसैन्धवबलं पृष्ठेऽभून्मगधेशितुः । धार्तराष्ट्राः शतं ते च राज्ञो दक्षिणतोऽभवन् ॥२३७॥ मध्यदेशनृपा वामे पुरो गर्णेनरेश्वराः । पञ्चाशच्छकटव्यूहाः सन्धौ सन्धौ प्रधेर्नृपाः || २३८|| अन्तरान्तरसंस्थाश्च गुल्मा गुल्मान्तराद् गणाः । व्यूँहतो बहिरप्यस्थुश्चित्रैर्व्यूहैर्महीभुजः ॥ २३९ ॥ अथ राजा जरासन्धः सत्यसन्धं महाभुजम् । नानसङ्ग्रामविख्यातकौशलं कोशलेश्वरम् ॥ २४० ॥ हिरण्यनाभनामानं चक्रव्यूहस्य तस्य च । सेनानीत्वेऽभिषिषेच ययौ चाऽस्तं दिवाकरः ॥ २४९ ॥ युग्मम् ॥ ||चक्रव्यूहप्रतिद्वन्द्वं निशायां यदवोऽपि हि । विदधुर्गरुडव्यूहं दुर्भेदमरिपार्थिवैः ॥ २४२ ॥ व्यूहस्याssस्ये कुमाराणामर्धकोटी महात्मनाम् । सीरपाणि शार्ङ्गपाणी स्थितौ तस्य तु मूर्धनि ॥२४३॥ अक्रूरः कुमुदः पद्मः सारणो विजयी जयः । जरत्कुमारः सुमुखो दृढमुष्टिर्विदूरथः ॥ २४४॥ अनाधृष्टिर्दुर्मुखश्च वसुदेवसुता इमे । रथलक्षयुताः पृष्ठारक्षाः कंसद्विषोऽभवन् ॥२४५॥ तेषां पृष्ठे चोग्रसेनो रथकोटीवृतोऽभवत् । तस्याऽपि पृष्ठरक्षत्वेऽभूवंश्चत्वार आत्मजाः || २४६ || सपुत्रं रक्षितुं भोजें पृष्ठे तस्थुर्नृपा अमी । धरः सारण- चन्द्रौ च दुर्धरः सत्यकस्तथा ॥ २४७॥ आश्रित्य दक्षिणं पक्षं समुद्रविजयः स्वयम् । भ्रातृभिर्भ्रातृपुत्रैश्च सह तस्थौ महाभुजैः ॥२४८॥ महानेमिः सत्यनेमिर्दृढनेमि - सुनेमिनौ । अरिष्टनेमिर्विजयसेनो मेघो महीजयः ॥ २४९ ॥ तेजः सेनो जयसेनस्तथा जय महाद्युती । समुद्रविजयस्यैते कुमाराः पार्श्वतोऽभवन् ॥ २५० ॥ रथानां पञ्चविंशत्या लक्षैरन्येऽपि भूभुजः । समुद्रविजयस्याऽस्थुः पुत्रवत् पारिपश्विकाः ॥२५१॥ आश्रित्य वामपक्षं तु तस्थू रामस्य सूनवः । युधिष्ठिरप्रभृतयः पाण्डवाश्चाऽमितौजसः ॥२५२॥ उल्मुको निषधः शत्रुदमनः प्रकृतिद्युतिः । सात्यकिः श्रीध्वजो देवानन्द आनन्द-शान्तनू ॥२५३॥ शतधन्वा दशरथो ध्रुवश्च पृथु - विप्रथू । महाधनुर्दृढधन्वाऽतिवीर्यो देवनन्दनः ॥ २५४ ॥ रथानां पञ्चविंशत्या लक्षैः परिवृता इमे । पृष्ठे तस्थुः पाण्डवानां धार्तराष्ट्रवधोद्यताः ॥ २५५॥ पृष्ठे तेषामभूच्चन्द्रयशाः सिंहल - बर्बरौ । काम्बोजः केरलश्चाऽपि द्रविडोऽपि च भूपतिः ॥२५६॥ षष्ट्या रथसहस्रैश्च तेषामपि च पृष्ठतः । महासेनपिता तस्थौ स्थैर्यस्थामैकपर्वतः ॥ २५७॥ पक्षिणो रक्षणायाऽस्थुर्भानु- भामर - भीरवः । असितः सज्जयो भानुर्धृष्णुः कम्पित-गौतमौ ॥२५८॥ शत्रुञ्जयो महासेनो गम्भीरश्च बृहद्भुजः । वैसुवर्मोदयश्चैव कृतवर्मा प्रसेनजित् ॥ २५९ ॥ दृढधर्मा च विक्रान्तश्चन्द्रवर्मा च पार्थिवः । इत्यभूद् गरुडव्यूहो गरुडध्वजनिर्मितः ॥२६०॥ भ्रातृस्नेहाद्युयुत्सुं च शक्रो विज्ञाय नेमिनम् । प्रैषीद् रथं मातलिना जैत्रैशस्त्राञ्चितं निजम् ॥२६१॥ सूर्योदयमिवाऽऽतन्वन् स रथो रत्नभासुरः । उपनीतो मातलिनाऽलञ्चक्रेऽरिष्टनेमिना ॥२६२॥ कृष्णाग्रजमनार्धृष्टिं समुद्रविजयः स्वयम् । अभ्यषिञ्चच्चमूपत्वे पट्टबन्धनपूर्वकम् ॥२६३॥ जज्ञे जयजयारावः सकलेऽपि हरेर्बले । जरासन्धबले चाऽभूत् प्रक्षोभः सर्वतोऽपि हि || २६४|| व्यूहयोरग्रसुभटैः प्रारेभे युद्धमुद्धतम् । अविस्फोटं प्रसर्पद्धिर्मिथो बद्धाञ्चलैरिव ॥ २६५ ॥
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१. सहस्रं अरा यस्मिन् चक्रे तत्र । २. ०ध्यरस्थितः खं०२ । ३. प्रधि चक्रनाभिः । ४ पञ्चभी राज्ञां तुम्बा० खं० १ सू० पु० । साग्रैस्तत्रान्त० ता० ला० सा० की ० खं०, मु० । ५. गणः प्रजातन्त्रं तन्नरेशाः । ६. सेनामुखं गुल्मगणौ ( अमरकोशे - क्षत्रियवर्गे) । ७. व्यूहस्य मु० । ८. कौशले० मु० र० । ९. व्यूहस्य मुखे । १०. अंकूर : ला० । ११. कोटीयुतो० खं० २ । १२. उग्रसेनम् । १३. महाभुजः खं०२, पा० मु० । १४. पार्श्वकाः मु० र० । १५. धैर्यस्थामैकपर्वतः ता० सं० ला० पु० छा० ला० खं०१, ला० सू० । १६. भीरुकाः मु० । १७. विष्णुः खं० २ । १८. शत्रुञ्जयमहासेनौ मु० र० । १९. वसुधर्मोदयश्चैव ता० की ० ला० सं० । २०. दृढवर्मा खं० २ । २१. कृष्णनिर्मितः । २२. इन्द्रस्य सारथिना सह । २३. शास्त्रार्चितं खं० २ । शस्त्राचितं खं०१, ला० सू० । २४. उपानीतो मु० र० । २५ मनाधृष्णि खं०२, ला० । २६. सेनापतित्वे ।
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११० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व चित्राण्युत्पेतुरस्त्राणि संम्फेटे व्यूहयोर्द्वयोः । युगान्तोद्भ्रान्तयोः पूर्वापराब्ध्योरिव वीचयः ।।२६६।। द्वयोरपि हि सेनान्योरुभौ व्यूही परस्परम् । प्रहेलिकावन्नितरां दुर्भेदत्वं प्रेजग्मतुः ॥२६७॥ । चिरं युद्धवा जरासन्धसैनिकैः स्वामिभसितैः । द्रढीयांसोऽप्यभज्यन्त ता_व्यूहाग्रसैनिकाः ॥२६८।। आत्मेव तायव्यूहस्य स्वयं ताप॑ध्वजस्ततः । सैनिकांस्तान् स्थिरीचक्रे पताकं[कां] करमुत्क्षिपन् ।।२६९।। पक्षाविव महानेमि-पार्थो दक्षिण-वामगौ । चञ्चूरिवाऽग्रव्यूहस्याऽनाधृष्टिश्चुकुपुस्त्रयः ॥२७०।। दध्मौ शङ्ख सिंहनादं महानेमिर्महाभुजः । बलाहकमनाधृष्टिदेवदत्तं च फाल्गुनः ॥२७१।। यदवोऽताडयंस्तूर्यकोटीस्तन्निनदैरथ । अनुजग्मे शङ्खनादः शङ्खकैः शङ्खराजवत् ॥२७२।। शङ्कत्रयनिनादेन तूर्यनादेन तेन च । भटाः परबलेऽक्षुभ्यन्नका इव महोदधौ ॥२७३।। नेम्यनाधृष्टि-पार्थास्ते सेनान्यः शरवर्षिणः । चक्रमुर्विक्रमपरा: कल्पान्त इव सागराः ॥२७४।। नेमिसन्धिषु राजानः शकटव्यूहसंस्थिताः । परे विदुद्रुवुस्तेषां दोर्वीर्यमसहिष्णवः ॥२७५॥ चक्रव्यूहः स चाऽभञ्जि त्रिषु स्थानेषु तैस्त्रिभिः । वन्यद्विपैरिव परिणतैर्गिरिनदीतटम् ।।२७६।। स्वयं विहितमार्गास्ते प्रवाहाः सरितामिव । चक्रव्यूह प्रविविशुस्तँदन्वन्येऽपि सैनिकाः ॥२७७।। दुर्योधनो रौधिरिश्च रुक्मी चेति नृपास्त्रयः । सैन्यान् संस्थापयन्तस्तानुत्थितास्ते युयुत्सवः ॥२७८॥ दुर्योधनोऽरुधत् पार्थमनाधृष्टिं तु रौधिरिः । रुक्मी पुनर्महानेमिं महारथनृपैर्वृतः ॥२७९॥ द्वन्द्वयुद्धमभूत् तेषां षण्णामपि परस्परम् । महारथानां चाऽन्येषां तद्गृह्याणां सहस्रशः ।।२८०।। वीरंमन्यं विब्रुवाणं रुक्मिणं तत्र दुर्मदम् । निरस्त्रं विरथं चके महानेमिरमर्षणः ।।२८१।। रक्षार्थं रुक्मिणस्तत्र वध्यकोटिमुपेयुषः । निपेतुरन्तरा शत्रुन्तपाद्याः सप्त पार्थिवाः ।।२८२॥ युगपद्वर्षतां तेषां सप्तानामपि सायकान् । 'चिच्छेद बाणैः शैवेयो धनूंषि च मृणालवत् ॥२८३।। शत्रुन्तपश्चिरं युवा शक्तिं चिक्षेप विद्विषे । जाज्वल्यमानां तां प्रेक्ष्य चुक्षुभुर्यदवोऽखिलाः ॥२८४।। तस्याः शक्तेर्मुखोद्भूता विविधायुधधारिणः । किङ्कराः क्रूरकर्माणोऽन्तरे पेतुः सहस्रशः ॥२८५॥ अथोवाचाऽरिष्टनेमिं मातलिस्तपसा ह्यमूम् । बलीन्द्रात् प्राप राजाऽयं धरणादिव रावणः ॥२८६।। वज्रेण भेद्या तर्दियमित्युक्त्वा नेमिशासनात् । महानेमिशरे वज्रं स साक्रमयद् द्रुतम् ॥२८७॥ तं वज्रेषु विमुच्याऽऽशु तां शक्ति भुव्यपातयत् । तं नृपं विरथं व्यस्त्रं महानेमिश्चकार चें ॥२८८।। षण्णां नृपाणामन्येषां चापान् सामुंद्रिजोऽच्छिदत । तदा रथान्तरारूढो रुक्मी भूयोऽप्यढौकत ॥२८९।। शत्रुन्तपाद्या रुक्मी च सम्भूयाऽष्टाऽपि ते नृपाः । शैवेयेने युयुधिरे धुरि मानवतां स्थिताः ॥२९०॥ यद्यद्धन्वाऽऽददे रुक्मी कुमारस्तत्तदच्छिदत् । धनूंषि विंशतिच्छिन्नान्येवं तस्य निरन्तरम् ॥२९१॥ गदां चिक्षेप कौबेरी स महानेमये ततः । आग्नेयेनेषुणा तां च भस्मीचक्रे शिवात्मजः ॥२९२।। शरलक्षाणि वर्षन्तं रुक्मी वैरोचनं शरम् । शैवेयाय प्रचिक्षेप पराक्षेपासहो युधि ।।२९३।। तं माहेन्द्रेण बाणेन महानेमिर्त्यवारयत् । रुक्मिणं ताडयामास भाले चाऽन्येन पत्रिणा ॥२९४।। घातेन विधुरं तेन वेणुदारी जहार तम् । दुद्रुवुः सप्त भूपालास्ते महानेमिनो द्रुतम् ।।२९५।। द्रुमं समुद्रविजयः स्तिमितो भद्रकं नृपम् । वसुसेनमथाऽक्षोभ्योऽजैषीदक्षोभ्यविक्रमः ॥२९६।।
अमित्रं पुरिमित्राख्यं सागरश्चाऽवधीधुधि । धृष्टद्युम्नमभाङ्क्षीच्च हिमवान् हिमवत्स्थिरः ॥२९७।। १. सम्मिलने । २. निजग्मतुः मु० । ३. स्वामिभक्तित: खं०२ विना ॥ ४. अर्जुनः । ५. चक्रधारासु । ६. परिविदुद्रुवस्तेषाम् मु० र० । ७. तिर्यग्दन्तप्रहारास्तु गजाः परिणताः तैः "तिर्यग्घाती परिणतो गजः" (अभि चिं. कां. ४ श्लो १२२१)। ८. तेषां पश्चात्तदनु । ९. ०यन्तः स्वानुत्थितास्ते ता० पु० ला० की० । १०. नृपैर्वृताः मु० । ११. चिक्षेप मु० । १२. मुखे भूता खं० २ । १३. अथोचे मातलिर्नेमिं महता तपसा खं०१, सू० । १४. शक्तिः । १५. वज्रशरानक्राम० खं०१, सू० । १६. समक्रम० खं० २। १७. स: खं० १, ला०सू०ला०पु०को०छा० । १८. समुद्रजो० खं० १, सू० विना, महानेमिः । १९. महानेमिना । २०, २१. महानेमिः । २२. महानेमये । २३. बाणेन । २४. द्रुमनामानं नृपम् । २५. शत्रुम् । २६. हिमाचलवत् स्थिरः ।
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सप्तमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । धरणेन्द्र इव स्थाम्ना धरणोऽम्बष्टकं नुपम् । अवधीदभिचन्द्रोऽपि शतधन्वानमुद्धतम् ।।२९८॥ द्रुपदं पूरणोऽभाङ्क्षीत् कुन्तिभोजं सुनेम्यपि । महापक्षं सत्यनेमिः श्रीदेवं दृढनेम्यपि ॥२९९।। एवं च यदुवीरैस्तैर्भग्नाः परनृपा ययुः । हिरण्यनाभं शरणं सेनानीत्वे प्रतिष्ठितम् ।३००॥ पाइतो भीमा-ऽर्जनौ वीरौ रामपत्राश्च दोर्भतः । व्यद्रावयन धार्तराष्टान धार्तराष्टान घना इव ॥३०॥ अन्धकारो दिशां जज्ञे पतद्भिः पार्थपत्रिभिः । घोरैर्गाण्डीवनिर्घोषैविधुरं विश्वमप्यभूत् ॥३०२।। आकर्षतः सन्दधतो मञ्चतश्च शरान रयात । नाऽलक्ष्यताऽन्तरं तस्यानिमिषैरपि खस्थितैः ॥३०३।। पाअथ दुर्योधनः काशिस्त्रिगर्तः सबलोऽपि च । कपोतो रोमराजश्च चित्रसेनो जयद्रथः ॥३०४॥ सौवीरो जयसेनश्च सूरसेनोऽथ सोमकः । सम्भूयाऽयोधयन् पार्थमपास्तक्षत्रियव्रताः ॥३०५॥ सहदेवः शकुनिना भीमो दुःशासनेन च । उलूकेन च नकुलः शल्येन च युधिष्ठिरः ॥३०६।। दुर्मर्षणादिभिः षड्भिरौपदेयाः ससत्यकाः । शैषैर्नृपैः पुना रासपुत्रा युयुधिरेतराम् ॥३०७||युग्मम् ।। राज्ञां दुर्योधनादीनां युगपद्वर्षतां शरान् । शरैः किरीटी चिच्छेद नलिनीनाललीलया ॥३०८॥ अवधीत् सारथिं रथ्यानभाङ्क्षीच्च रथं शरैः । दुर्योधनस्य गाण्डीवी वर्म चाऽपातयद् भुवि ॥३०९॥ अङ्गशेषो धार्तर्राष्ट्रो विलक्षः पत्तिमात्रवत् । वेगाद् ययौ शकुनिवदुत्पत्य शकुने रथम् ॥३१०॥ दशाऽपि काशिप्रमुखानिषुवृष्ट्या धनञ्जयः। उपदुद्राव करकवृष्ट्याऽम्बुद इव द्विपान् ॥३११।। चकर्त शल्यो बाणेन युधिष्ठिररथध्वजम् । युधिष्ठिरोऽपि शल्यस्य सशरं चापमच्छिदत् ॥३१२॥ शल्योऽन्यद् धनुरारोप्य कङ्कपत्रैर्युधिष्ठिरम् । तिरयामास मेघर्तुमेधैरिव दिवाकरम् ॥३१३।। ततो मुमोच कौन्तैयः शक्तिं शल्याय दुःसहाम् । अकालविद्युतमिव विश्वप्रक्षोभकारिणीम् ॥३१४॥ परबाणैरस्खलिता वेगाद् गोधामिवाऽशनिः । निपत्य साऽवधीच्छल्यं नेशुश्च बहवो नृपाः ॥३१५।। वृकोदरोऽपि सङ्घद्धो दुर्योधनसहोदरम् । दुरोदरच्छद्मजयं स्मारयन् लीलयाऽवधीत् ॥३१६।। मायायुद्धैरस्त्रयुद्धैर्गान्धारेणाऽतियोधितः । चिक्षेप सहदेवोऽपि जीवितान्तकरं शरम् ॥३१७।। शकुनौ तमसम्प्राप्तमेव बाणं सुयोधनः । क्षत्राचारं विमुच्यैव चिच्छेद निशितेषुणा ॥३१८।। माद्रेयस्तमवाचोच्चैदर्योधन रणेऽपि ते । छलं द्यत इव व्यक्तमशक्तानां ह्यदो बलम ॥३१९।। साधु वा युगपत्प्राप्तौ मायिनौ भूरिमायवत् । सममेव हनिष्यामि युवयोविरहोऽस्तु मा ।।३२०॥ इत्युक्त्वा पत्रिभिस्तीक्ष्णैः सहदेवः सुयोधनम् । तिरोदधे शरत्काल इव कीरैर्वनस्थलीम् ॥३२१॥ दुर्योधनोऽपि मानेयमुपदुद्राव पत्रिभिः । चिच्छेद च धनुर्दण्डं मूलं रणमहातरोः ॥३२२।। दुर्योधनो मुमोचोच्चैरमोघं मन्त्रसत्कृतम् । सहदेवविनाशाय कीनाशमिव सायकम् ॥३२३।। गारुडेनेषुणेषु तमन्तराऽपि धनञ्जयः । निवारयामास समं सुयोधनजयाशया ॥३२४॥ धनुः शकुनिरप्युच्चैरास्फाल्य शरवृष्टिभिः । माद्रेयमद्रिमम्भोद इव विष्वगुदानशे ॥३२५।। शकुनेः सहदेवोऽपि रथं रथ्यान् ससारथीन् । ममाथ तच्छिरश्चाऽथ चकर्त फलवत् तरोः ॥३२६।। उलूकं नकुलोऽप्यस्त्रैरुरिव दिवाकरः । द्रुतं विद्रावयामास विरथीकृत्य हेलया ॥३२७॥ दुर्मर्षणरथं सोऽगात् ते च दुर्मर्षणादयः । विद्राविताः षडपि हि द्रौपदेयैः ससैनिकैः ॥३२८॥ दुर्योधनं शिश्रियुस्ते सोऽपि दुर्योधनो नृपैः । सम्भूय काशिप्रमुखैर्धनञ्जयमयोधयत् ॥३२९।। १. शत्रुनृपाः । २. बलवन्तः । ३. गलद्गजिघना खं०२, हंसविशेषान् "धार्तराष्ट्राः सितेतरैः" (अभि० चि० कां० ४ श्लो. १३२६) । ४. देवैः । ५. कपोतरोमराजश्च ता० सं० ला० पु० आ० ला२० छा० । ६. द्रौपदीपुत्राः । ७. ससैन्यका खं०१, ससैनिका: मु० । ८. अर्जुनः । ९. अर्जुनः । १०. कवचम् । ११. दुर्योधनः । १२. पक्षिवत् । १३. अर्जुनः । १४. बाणैः। १५. युधिष्ठिरः । १६. वज्रम् । १७. भीमः । १८. दुरोदरे-छूते एव छद्मना जयः तम् । १९. शकुनिना । २०. सहदेवः । २१. युवाम् । २२. शृगालवत्, भूरिमायुवत् खं०२, सू० भूरिमायिवत् पा० की० मु० । २३. यममिव । २४. गरुडे० मु० र० । २५. व्याप । २६. ममन्थ मु० । २७. ०रभैरिव खं०२, किरणैः ।
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११२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व रामपुत्रैर्वृतः पार्थः सुरैरिव पुरन्दरः । 'दारयामास विशिखैश्चित्रैः 'परवरूथिनीम् ॥३३०॥ प्राणान् दुर्योधनस्येव पृथग्भूतान् जयद्रथम् । पार्थोऽवधीच्छरैरन्धीकुर्वन् सर्वानपि द्विषः ॥३३१।। कर्णोऽथाऽऽकर्णमाकृष्टकौलपृष्ठोऽधरं दशन् । वीप्रष्ठोऽभ्यधाविष्ट हन्तुकामः किरीटिनम् ॥३३२॥ चिरं चिक्रीडतर्वीरावक्षैरिव शिलीमुखैः । कर्णा-ऽर्जनौ वीक्ष्यमाणो देवैरपि कतहलात ॥३३३॥ अनेकशो भग्नरथः क्षीणाऽन्यास्त्रोऽसिमात्रभृत् । कर्णः किरीटिना जघ्ने कथञ्चिद् वीरकुञ्जरः ॥३३४।। सिंहनादं व्यधाद् भीमः शङ्ख दध्मौ च फाल्गुनः । जगर्जुः पार्थसैन्याश्च सर्वेऽपि जितकासिनः ॥३३५।। दुर्योधनोऽथ क्रोधान्धो महाँसिन्धुरसेनया । भीमसेनं हन्तुमना मानी द्रुतमधावत ॥३३६।। रथं रथेनाऽश्वमश्वेनेभं चेभेन मारुतिः । आस्फाल्याऽऽस्फाल्य नि:शेषीचक्रे दौर्योधनं बलम् ॥३३७।। तैरेवं युध्यमानस्य भुञ्जानस्येव मोदकैः । दोष्मतो भीमसेनस्य न हि श्रद्धाऽप्यपूर्यत ॥३३८।। स्वयं दुर्योधनो वीरो निजानाश्वासयन् द्रुतम् । डुढौके भीमसेनाय कुञ्जरायेव कुञ्जरः ॥३३९।। पर्जन्याविव गर्जन्तौ कुद्धौ केसरिणाविव । युयुधाते उभौ वीरौ विविधैरायुधैश्चिरम् ॥३४०॥ द्यूतवैरं स्मरन् भीम उद्यम्य महती गदाम् । दुर्योधनं निष्पिपेष सरथ्य-रथ-सारथिम् ॥३४१॥ दुर्योधने विनिहते निर्नाथास्तस्य सैनिकाः । हिरण्यनाभं शरणं सेनान्यं प्रतिपेदिरे ॥३४२॥ अनाधृष्टिं च सेनान्यं वाम-दक्षिणापक्षगाः । पाण्डवा यदवश्चाऽपि सर्वेऽपि परिवविरे ॥३४३॥ पोताग्रमिव निर्याम: सेनामुखमधिश्रितः । क्रुद्धो हिरण्यनाभोऽथ दधावे विब्रुवन् यदून् ॥३४४॥ अभिचन्द्रस्तमित्यूचे विटवद् विब्रवीषि किम् ? । क्षत्रिया हि न वाक्शूराः किन्तु शूराः पराक्रमात् ॥३४५॥ हिरण्योऽथाऽभिचन्द्राय चिक्षेप विशिखान् शितान् । तांश्चिच्छेदाऽन्तरा पार्थो मेघधारा इवाऽनिलः ॥३४६।। स चिक्षेपाऽर्जुनायाऽपि दुर्वारां शरधोरणीम् । तमापत्याऽन्तरा भीमो गदयाऽपातयद् रथात् ॥३४७॥ स हीण: पुनरारुह्य रथं दष्टाधरः क्रुधौं । यदुसैन्ये समग्रेऽपि ववर्ष विशिखान् शितान् ॥३४८।। न स सादी निषादी वा रथी पत्तिश्च यः शरैः । न तेन प्रहतस्तत्र यदुसैन्ये महत्यपि ॥३४९।। जयसेनोऽथ सङ्क्रुद्धः समुद्रविजयात्मजः । योद्धं हिरण्यनाभेनाऽढौकिष्टाऽऽकृष्टकार्मुकः ॥३५०॥ जामेय ! यमवक्त्रं किमायासीरिति विब्रुवन् । हिरण्यनाभो न्यवधीज्जयसेनस्य सारथिम् ॥३५१।। जयसेनोऽपि तस्याऽऽशु कवचं कार्मुकं ध्वजम् । चकर्त सारथिमथ निनाय यमवेश्मनि ॥३५२।। क्रुद्धो हिरण्यनाभोऽपि मर्माविद्भिः शिलीमुखैः । प्रहृत्य दशभिस्तीक्ष्णैर्जयसेनममारयत् ॥३५३॥ महीजयो जयसेनभ्रातोत्तीर्य रथादथ । खड़ग-खेटकमद्वीरो हिरण्यं प्रत्यधावत ।।३५४|| दूरादपि क्षुरप्रेण हिरण्यस्तच्छिरोऽहरत् । भ्रातृद्वयवधक्रुद्धोऽनाधृष्टिस्तमयोधयत् ॥३५५॥ अन्येऽपि हि जरासन्धनपा भीमा-ऽर्जुनादिभिः । यदुभिश्च समं द्वन्द्वेनाऽयुध्यन्त पृथक् पृथक् ।।३५६।। ज्योतिष्काणामिव पतिः प्राग्ज्योतिषमहीपतिः । भगदत्तो महानेमिमभ्यधावद् गजस्थितः ॥३५७।। सोऽवोचन्नाऽस्मि ते भ्रातृोलो रुक्मी न वाऽश्मकः । किन्त्वहं नारकिर्वैरिकृतान्तस्तदपेहि भोः ! ॥३५८।। इत्युक्त्वा प्रेरयामास स जवेन मतङ्गजम् । महानेमिरथं सूतोऽभ्रमयन्मण्डलेन च ॥३५९।। तद्गजं तलपादेषु महानेमिः शरैरहन् । गजः सभगदत्तोऽपि जर्जरांहिः पपात च ॥३६०।। नाऽसि रुक्मी हसित्वेति धनुष्कोट्या च ते स्पृशन् । वीरोऽमुञ्चन्महानेमिः प्रकृत्या करुणापरः ॥३६१।।
भूरिश्रवाः सात्यकिश्च युयुधाते इतश्च तौ । जरासन्ध-वासुदेवजयश्रीकाक्षिणावुभौ ॥३६२।। १. नाशयामास । २. शत्रुसेनाम्, कुरुवरु० खं० २ । ३. कालपृष्ठं नाम धनुः । ४. वीराग्रेसरः । ५. पाशैः । ६. बाणैः । ७. जिताहवाः "जिताहवो जितकाशी" (अभिचि, कां. ३ श्लो. ८०६) । ८. महागजसेनया । ९. भीमसेनः । १०. द्यूते वैरं खं० १-२, द्यूतं वैरं ला० । ११. सुयोधनम् मु० विना । १२. निष्पिपेषमरथ्य० ख०२ । १३. ०धृष्णि खं० २ । १४. नावग्रम् । १५. निर्यामकः । १६. विद्रुवन् खं० २, विद्रवन् ला० । १७. कम् खं०१, ला० सू० । १८. तीक्ष्णान् । १९. कुधी: सं० । २०. हे भगिनीपुत्र ! । २१. सूर्यः । २२. ०शालो खं० १-२-३ । २३. सारथिः । २४. धनुरग्रेण । २५. भूरिश्रवो युयुधानौ २० ।।
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सप्तमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
११३
तौ दिव्यैरायसैश्चाऽस्त्रैर्दन्तैरिव सुरद्विपौ । युध्यमानौ समभूतां जगत्त्रयभयङ्करौ ॥३६३।। चिरादुभौ च क्षीणास्त्रौ क्षीणतोयाविवाऽम्बुदौ । दोर्दण्डाभ्यामयुध्येतां मुष्टामुष्टिविधायिनौ ॥३६४।। तावकम्पयतां भूमिं पतनोत्पतनैर्दृढैः । भुजास्फोटरवैश्चोभौ दिशोऽस्फोटयतामिव ॥३६५।। बद्धवा च भूरिश्रवसं योक्त्रबन्धेन सात्यकिः । वालयित्वा गलं पृष्ठे जानुनाऽऽक्रम्य चाऽवधीत् ॥३६६।। पाइतो हिरण्यनाभस्याऽनाधृष्टिश्चापमच्छिदत् । सोऽप्यनाधृष्टयेऽमुञ्चत् परिघं परघातनम् ॥३६७।। तमापतन्तं विशिखैरनाधृष्टिरखण्डयत् । स्फुलिङ्गजालैरुद्यद्भिद्योतितदिगन्तरम् ॥३६८॥ अनाधृष्टरन्तचिकी रथादुत्तीर्य वेगवान् । हिरण्यनाभश्चर्माऽसिपाणि: पद्भ्यामधावत ॥३६९।। कृष्णाग्रजोऽपि चोत्तीर्य खड्ग-खेटकभृद् द्रुतम् । चरन् विचित्रचारीभिः सुचिरं तमखेदयत् ॥३७०।। अनाधृष्टिलघुहस्तश्छलं लब्ध्वाऽसिनाऽच्छिदत् । वपुर्हिरण्यनाभस्य ब्रह्मसूत्रेण दारुवत् ॥३७१।। जरासन्धमथोपेयुः शरणं तन्महीभुजः । पश्चिमाब्धावमज्जच्च तदानीमुष्णदीधितिः ॥३७२।। ययौ कृष्णमनाधृष्टिः पूजितो यदु-पाण्डवैः । कृष्णाज्ञया च सर्वेऽपि स्वं स्वं शिबिरमभ्ययुः ॥३७३॥ पअथ राजा जरासन्धो मन्त्रयित्वा तदैव हि । अभ्यषिञ्चच्चमूपत्वे शिशुपालं महाबलम् ॥३७४।। यदवो गरुडव्यूहं गरुडध्वजशासनात् । विधाय प्रातरातस्थुस्तथैव समरावनिम् ॥३७५।। तथैव शिशुपालोऽपि चक्रव्यूहं विनिर्ममे । ततो राजा जरासन्धः शिश्राय समरोवनिम् ॥३७६॥ जरासन्धेन पृष्टोऽथ हंसकः परसैनिकान् । अङ्गुल्या दर्शयन्नामग्राहमित्याख्यदुच्चकैः ॥३७७।। कृष्णाश्वेन रथेनाऽयमनाधृष्टिर्गजध्वजः । नीलाश्वेन रथैनैष पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः ॥३७८॥ धनञ्जयः पुनरयं रथेन श्वेतवाजिना । नीलोत्पलदलाभाश्वरथस्त्वेष वृकोदरः ॥३७९॥ समुद्रविजयः स्वर्णवर्णाश्वोऽयं हरिध्वजः । अयं तु शुक्रवर्णाश्वोऽरिष्टनेमिर्वृषध्वजः ॥३८०।। अयं च शबलैरश्वैरक्रूरः कदलीध्वजः । एष तित्तिरकल्माषैः सात्यकिस्तु तुरङ्गमैः ॥३८१।। महानेमिकमारोऽयं कमदाभैस्तुरङ्गमैः । उग्रसेनः पुनरयं शुकतुण्डप्रभैर्हयैः ॥३८२॥ जरत्कुमारः कनकपृष्ठाश्वोऽयं मृगध्वजः । काम्बोजैर्वाजिभिश्चाऽयं सिंहल: श्लक्ष्णरोमसूः ॥३८३।। मेरुः कपिलरक्ताश्वः शिशुमारध्वजस्त्वसौ । पद्माभैर्वाजिभिश्चैष राजा पद्मरथः पुरः ॥३८४।। पारापतप्रभाश्वोऽयं सारण: पुष्करध्वजः । पञ्चपुण्ड्रैर्हयैरेष कुम्भकेतुर्विदूरथः ॥३८५।। सैन्यान्तर्धवलैरश्वैः कृष्णोऽयं गरुडध्वजः । अन्तव्योम बलाकाभिः प्रावृषेण्य इवाऽम्बुदः ॥३८६।। अस्य दक्षिणपक्षस्थो रिष्टवणैस्तरङ्गमैः । तालध्वजो रौहिणेयः कैलास इव जङ्गमः ॥३८७॥ भूयांसो यदवोऽन्येऽपि नानाहय-रथ-ध्वजाः । महारथाः साम्प्रतं ते शक्याः कथयितुं न हि ॥३८८|| पतच्च श्रुत्वा जरासन्धः क्रोधादास्फालयद् धनुः । राम-कृष्णौ प्रति रथं प्रेरयामास वेगतः ॥३८९|| युवराजो जरासन्धतनयो यवनः क्रुधा । वसुदेवसुतान् हन्तुमक्रूरादीनधावत ॥३९०॥ शरभस्येव पञ्चास्यैः सह तैरभवद् रणः । यवनस्य महाबाहोः संहार इव भीषणः ॥३९॥ रामानुज: सारणोऽथाऽद्वैतसारो रुरोध तम् । विचित्रपत्रिभिर्वर्षन् वर्षाभव इवाऽम्बुदः ॥३९२।। मलयेनेव तुङ्गेन मलयाख्येन दन्तिना । यवनः सारणरथं सह रथ्यैरभञ्जयत् ॥३९३॥ गजे परिणते तस्मिन् यवनस्य शिरोऽसिना । चिच्छेद सारणो वातान्दोलितद्रोः फलं यथा ॥३९४।। तस्येभस्योत्तिष्ठतश्च हस्तदन्तं चकर्त सः । प्रावृषीव 'शिखिकुलं कृष्णसैन्यं ननर्त च ॥३९५।। दृष्ट्वा सुतवधं कुद्धो जरासन्धो धनुर्धरः । यदून् हन्तुं प्रववृते मृगारातिर्मूगानिव ॥३९६॥
आनन्दः शत्रुदमनो नन्दनः श्रीध्वजो ध्रुवः । देवानन्दश्चारुदत्तः पीठश्च हरिषेणकः ॥३९७॥ १. नाशं चिकीर्षुः । २. रणभूमिम् । ३. कबुरैः। ४. महानेमिः खं० र, ला० सू० । ५. आकाशमध्ये । ६. बलदेवः । ७. अद्वैतपराक्रमः । ८. मलयाचलपर्वतेन । ९. मयूरसमूह: । १०. सिंहः । ११. आनन्दशत्रुदमनौ मु० र० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
नरदेवो बलस्यैते सुता दश रणस्यगाः । अजा इव कर्तुमुखे जरासन्धेन जघ्निरे ॥ ३९८ ॥ कृष्णसेना पलायिष्ट कुमारवधदर्शनात् । निघ्नन् गोत्रमिव व्याघ्रोऽन्वयासीत् तां च मागधः ॥ ३९९॥ शिशुपालोऽपि सेनानीर्हसन् कृष्णमवोचत । न ह्येतद्गोकुलं कृष्ण ! क्षत्रियाणां रणो ह्ययम् ||४००|| कृष्णोऽप्यूचे गच्छ राजन् ! गम्यं पश्चादपि त्वया । समरे रौक्मिणेऽप्यस्था माद्रीमातः ! कियच्चिरम् ? ॥४०१|| मर्माविधा शरेणेव विद्धो हरिगिरा तया । चेदिराड् धनुरास्फाल्य नाराचानमुचच्छितान् ॥ ४०२ ॥ हरिस्तस्याऽच्छिदद्वाणैः कार्मुकं कवचं रथम् । असिमाकृष्य सोऽधावदुद्धूम इव पावकः ॥४०३|| खड्गं च मुकुटं चाऽथ मूर्धानं च हरिः क्रमात् । चिच्छेद चेदिराजस्य विब्रुवाणस्य दुर्मतेः ॥ ४०४|| शिशुपालवधकुद्धः कृतान्त इव भीषणः । जरासन्धः समं पुत्रै राजभिश्चाऽभ्यधावत ॥ ४०५ || ऊचे चैवं यदूनुच्चैर्मा म्रियध्वं मुधैव रे ! । तावर्पयत गोपालौ क्षतं नाऽद्याऽपि किञ्चन ||४०६ || यदवस्तगिरा क्रुद्ध्वा दण्डाघृष्टा इवोरगाः । पूत्कुर्वन्तोऽभ्यधावन्त विविधायुधवर्षिणः ॥ ४०७ || एकोऽप्यनेकीभूयेव जरासन्धः समन्ततः । यदुसैन्यान् शरैर्घोरैर्विव्याध व्याधवन्मृगान् ॥४०८॥ न पत्तयो न रथिनो न वा सादि-निषादि च । अशकन् पुरतः स्थातुं जरासन्धस्य योधिनः ||४०९॥ वातोद्भूतं तूलमिव यदुसैन्यमशेषतः । जरासन्धशरैर्दूनं विदुद्राव दिशो दिशि ॥४१०॥ जरासन्धः कासरवद् यदुसैन्यमहासरः । जगाहे परितस्तत्र भेकत्वं यदवो ययुः ॥४११॥ जरासन्धसुता अष्टाविंशतिर्दृग्विषा इव । विक्षिपन्तः शस्त्रविषं रामं समुपदुद्रुवुः ||४१२ ॥ एकोनसप्ततिश्चाऽन्ये जरासन्धस्य सूनवः । जनार्दनं जिघांसन्तो रुरुधुर्दानवा इव ॥४१३॥ तैः समं ववृते घोरः समरो राम-कृष्णयोः । मिथोऽस्त्रच्छेदसम्भूतस्फुलिङ्गकणवर्षणः ||४१४॥ रामोऽष्टाविंशतिमपि तान् जरासन्धनन्दनान् । सीरेणाऽऽकृष्य मुशलेनाऽपिषत् तन्दुलानिव ॥४१५॥ अद्याऽप्युपेक्षितो हन्ति गोपोऽयमिति विब्रुवन् । जरासन्धो न्यहन् रामं गदया वज्रकल्पया ॥४१६ ॥ वाम रुधिरं रामो गदाघातेन तेन तु । यदुसैन्ये समग्रे च जज्ञे हाहारवो महान् ॥४१७|| प्रजिहीर्षु पुना रामे जरासन्धमयोधयत् । अन्तराऽऽपत्य कौन्तेयः कनिष्ठः श्वेतवाहनः ॥४१८॥ प्रेक्ष्य रामस्य वैधुर्यं क्रुद्धः कृष्णो धुताधरः । पुरस्थानवधीद् जरासन्धीनेकोनसप्ततिम् ॥४१९॥ मरिष्यत्येव रामोऽयं किं हतेन किरीटिना ? । कृष्णं हन्मीति तमभिदधावे मगधाधिपः ॥४२०|| कृष्णोऽपि हत एवेति सर्वतोऽप्यभवद् ध्वनिः । अत्रान्तरेऽरिष्टनेमिमित्यवोचत मातलिः ॥४२१॥ कलभः शरभस्येव जरासन्धः कियानयम् ? । भुवनत्रयनाथस्य श्रीनेमे ! भवतः पुरः ? || ४२२ ॥ अयादवं करोत्यद्य त्वया ह्ययमुपेक्षितः । तद्दर्शय जगन्नाथ ! मनाग् लीलायितं निजम् ॥४२३॥ यद्यप्याजन्मविमुखः सावद्यात् कर्मणः प्रभुः । तथापि द्विषर्दीक्रान्तं नोपेक्ष्यं कुलमात्मनः ॥४२४॥ तेनेत्युक्तो विना कोपं नेमिरादाय पाणिना । दध्मौ पौरन्दरं शङ्खमतिपर्जन्यनिःस्वनम् ॥४२५॥ तद्ध्वानै रोदसीकुक्षिम्भरिभिक्षुक्षुभुः परे । यदुसैन्यं पुनः स्वस्थीबभूव समरक्षमम् ॥४२६॥ अलातचक्रवन्नेमेराज्ञया मातली रथम् । भ्रमयामास सङ्ग्रामसागरावर्तसन्निभम् ॥४२७|| आकृष्यऽऽखण्डलधनुर्नवाम्भोद इव प्रभुः । ववर्ष शरधाराभिः परितस्त्रासयन्नरीन् ॥४२८॥ ध्वजांश्चिच्छेद केषाञ्चित् केषाञ्चित् कार्मुकाणि च । रथानभाङ्क्षीत् केषाञ्चित् केषाञ्चिन्मुकुटान् प्रभुः ॥४२९ ॥ दूरे प्रहारवार्ता तु न वीक्षितुमपि क्षमाः । बभूवुः परसुभटाः कल्पान्तार्कप्रभं प्रभुम् ||४३०|| अभाङ्क्षीत् क्ष्माभुजां लक्षं स्वाम्येकोऽपि किरीटिनाम् । उद्भ्रान्तस्य महाम्भोधेः सानुमन्तोऽपि के पुरः ? ॥४३१॥
११४
१. रणमुखस्थिताः । २. यज्ञे । ३. गोसमूहम् । ४. जरासन्धः, मागधि० खं०२ । ५. ० पालोऽथ खं०१, सू० विना । ६. रुक्मिणीसम्बन्धिनि । ७. माद्री माता यस्य सः तत्सम्बोधनम् । ८. सादिनश्च निषादिनश्च तेषां समाहारः । ९. महिषवत् । १०. च समुपाद्रवन् खं० १ सू० | ११. हलेन । १२. वज्रसदृशया । १३. अर्जुन: । १४. जरासन्धपुत्रान् ज्जरा० खं० १-२ । १५. अर्जुनेन । १६. द्विषदाघ्रातं २० । १७. इन्द्रसम्बन्धिनम् । १८. कुलालचक्रवत् पु० । १९. संग्रामे सागरा० मु० र० । २०. आकृष्टाऽऽखण्डल० खं० । २१. पर्वताः ।
(अष्टमं पर्व
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सप्तमः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
११५ प्रतिविष्णुर्विष्णुनैव वध्य इत्यनुपालयन् । स्वामी त्रैलोक्यमल्लोऽपि जरासन्धं जघान न । ॥४३२॥ परसैन्यानि रुद्ध्वाऽस्थाच्छ्रीनेमिर्धमंयन् रथम् । लब्धोत्साहा युयुधिरे भूयोऽपि यदुसैन्यकाः ।४३३॥ अत्राऽन्तरे पाण्डुपुत्रैः सिंहैरिव कुरङ्गकाः । अवशिष्टा धार्तराष्ट्रा निजवैरान्निजघ्निरे ॥४३४।। स्वस्थीभूतो बलदेवोऽप्युदस्तायोग्रलाङ्गलः । अनेकशो योधयित्वा जघान परसैनिकान् ॥४३५।। पाइतश्च कृष्णमवदद् जरासन्ध इयच्चिरम् । जीवितो माययैवाऽसि भो गोपाल ! शृगालवत् ॥४३६।। माययैव हतः कंसो हत: कालोऽपि मायया । त्वया ह्यशिक्षितास्त्रेण समरः क्रियते न हि ॥४३७॥ तव प्राणैः सहैवाऽद्य मायां पर्यन्तयाम्यरे ! । एषोऽद्य जीवयशसः प्रतिज्ञां पूरयामि च ॥४३८॥ स्मित्वा कृष्णोऽब्रवीद् राजन्नित्थं निर्मिथ्यमात्थ भोः ! । ईदृक्षोऽस्मि परं स्वस्य दृश्यतां शिक्षितास्त्रता ॥४३९।। नाऽहं स्वश्लाघनस्त्वद्वदेकमाख्यामि किं त्विदम् । पूरिष्यते त्वदुहितुः प्रतिज्ञाऽग्निप्रवेशनात् ॥४४०॥ इति विष्णुगिरा कुद्धो जरासन्धोऽमुचच्छरान् । स्किर्तनस्तमांसीव कृष्णोऽपि विचकर्त तान् ।।४४१॥ उभावपि ससंरम्भौ शरभाविव धन्विनौ । अयुध्येतां धनुनिलनयन्तो दिशोऽखिलाः ॥४४२। तयोः समरसम्मर्दाच्चुक्षुभुर्जलराशयः । वि।सुः खेचरा व्योम्नि गिरयश्च चकम्पिरे ॥४४३।। गंतागतं तद्रथयोर्दढयोः शैलयोरिव । असहिष्णुर्मही सर्वंसहत्वममुचत् क्षणात् ॥४४४।। दैवतैर्दैवतान्यस्त्राण्यायसैरायसानि तु । प्रत्यहन्मगधेशस्य लीलयैव जनार्दनः ॥४४५।। जाते सर्वास्त्रवैफल्ये वैलक्ष्यामर्षपूरितः । चक्रं सस्मार दुर्वारमन्यास्त्रैर्मगधेश्वरः ॥४४६।। चक्रं तदागतं सद्यो भ्रमयित्वा करेण खे । कृष्णाय जयतृष्णावान् कोपान्धो मागधोऽमुचत् ॥४४७|| चके तत्राऽऽपतत्युच्चैस्त्रेसुः खे खेचरा अपि । चुक्षुभुः कृष्णसैन्यानि लब्धदैन्यानि सर्वतः ॥४४८॥ तच्च स्खलयितुं कृष्णो रामः पञ्चाऽपि पाण्डवाः । महारथाश्चाऽपरेऽपि स्वान्यस्त्राणि प्रचिक्षिपुः ॥४४९॥ तैरस्खलितमुत्पूरसिन्धुस्रोत इव द्रुमैः । एत्य तुम्बेन तच्चकं कृष्णं वक्षस्यताडयत् ॥४५०॥ भेदितं भेदनीत्येवं तच्चक्रं पार्श्वतः स्थितिम् । आददे पाणिना कृष्णः स्वं प्रतापमिवोद्यतम् ॥४५१॥ नवमो वासुदेवोऽयमुत्पन्न इति घोषिणः । गन्धाम्बु-कुसुमवृष्टिं कृष्णे व्योम्नोऽमुचन् सुराः ॥४५२॥ कृष्णोऽपि जातकारुण्यो बभाषे मगधाधिपम् । एषाऽपि मम किं माया? विद्ध्यद्याऽपि गृहे व्रज ॥४५३।। ममाऽऽज्ञां प्रतिपद्यस्व पुनरेधस्व सम्पदा । मुञ्च मानं दुर्विपाकं जीवाऽद्यापि जरन्नपि ॥४५४॥ ममैतदुल्मुकप्रायं मयैव चिरलालितम् । चक्रं मुञ्चसि तन्मुञ्चेत्युवाच मगधेश्वरः ॥४५५॥ जरासन्धाय तच्चकं ममोचाऽथ जनार्दनः । परेषामेव शस्त्राणि शस्त्राणि स्युर्महात्मनाम् ॥४५६।।
[वसन्ततिलका] तच्चक्रंकृत्तमपतन्मगधेश्वरस्य, .
___पृथ्व्यां शिरः स तु जगाम चतुर्थपृथ्व्याम् । कृष्णस्य चोपरि सुराः सुरवृक्षपुष्प
वृष्टिं व्यधुर्जय जयेति वदन्त उच्चैः ॥४५७।। . ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये अष्टमपर्वणि शाम्ब-प्रद्युम्नविवाह
जरासन्धवधकीर्तनो नाम
सप्तमः सर्गः ॥ १. वासुदेवेनैव प्रतिवासुदेवो वध्य इति कारणात् श्रीनेमिना न हतः । २. भ्रामयन् खं० २ । ३. सैनिका: खं० १, ला० सू० । ४. सुस्थी. खं० २ । ५. मुशल-हल । ६. सत्यम् । ७. ब्रवीषि । ८. सूर्यः । ९. तनो रं तक खं० २ । १०. देवतैर्दैवता० खं० २ । ११. साम-दाम-भेद-दण्डेतिनीतिषु तृतीयनीत्या भेदितं इव चक्रमभूत् । १२. वृद्धः : १३. स्वकानि खं० २, मु० र० । १४. तेन चक्रेण कृत्तं-छिन्नम् । १५. चतुर्थे नरके । १६. अष्टमे मु० र० । १७. शाम्ब इति न खं० २।
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॥ अष्टमः सर्गः ॥
अथ 'रोधान्नेमिनाथोऽमुञ्चत् कृष्णारिपार्थिवान् । तं नमस्कृत्य तेऽप्येवं रचिताञ्जलयोऽवदन् ॥१॥ तदैव ही जरासन्धो वयं च विजिता: प्रभो ! । यदैव त्वं यदुकुलेऽवातारीस्त्रिजगत्प्रभुः ॥२॥ एकोऽपि विष्णर्हन्तैव प्रतिविष्णोर्न संशयः । किं पुनर्यस्य नाथ ! त्वं सहायो बान्धवोऽपि च ॥३॥ एतन्न ज्ञातमस्माभिर्जरासन्धेन चाऽग्रतः । तदकृष्महि कर्मेदमीदृशी भवितव्यता ॥४॥ अद्य त्वा शरणं प्राप्ताः सर्वेषां शिवमस्तु नः । खलूक्त्वा यदि वाऽधित्वत्प्रणतानां स्वतः शिवम् ।।५।। इत्युक्त्वा तैः स्थितैर्भूपैः सह नेमिर्ययौ हरिम् । अवतीर्य रथाद् गाढं हरिरप्यालिलिङ्ग तम् ॥६॥ हरिर्ने मिगिरा राज्ञस्तान् स्वीचके तथा च तम् । जारासन्धिं सहदेवं समुद्रविजयाज्ञया ॥७॥ दत्त्वा मगधतुर्यांशं सहदेवं पितुः पदे । हरिरारोपयामास कीर्तिस्तम्भमिवाऽऽत्मनः ॥८॥ महानेमिं शौर्यपुरे समुद्रविजयात्मजम् । कोशलायां रुक्मनाभं हिरण्यनाभनन्दनम् ॥९॥ अनाददानस्य राज्यमुग्रसेनस्य नन्दनम् । धरसंज्ञं मथुरायां स्थापयामास केशवः ॥१०॥ युग्मम् ।। पाअथ प्रत्यक्पयोराशौ ममज्जाऽर्यममण्डलम् । विसृष्टो नेमिनाथेन मातलिश्च दिवं ययौ ॥११॥
कृष्ण: कृष्णाज्ञयाऽन्ये च स्वं स्वं शिबिरमभ्ययुः । समुद्रविजयश्चाऽस्थाद् वसुदेवागमोत्सुकः ॥१२॥ वासुदेवं द्वितीयेऽह्नि समुद्रविजयान्वितम् । खेचर्यः स्थविरास्तत्र एयुरित्यूचिरे च ताः ॥१३॥ प्रद्युम्न-शाम्बसहितो वसुदेवः सखेचरः । नचिराँदयमायाति श्रूयतां तस्य चेष्टितम् ॥१४॥ तदेत: स्थानतः सार्धं पौत्राभ्यां खेचरैश्च तैः । वैताढ्यं वसुदेवोऽगाद् युयुधे चाऽरिखेचरैः ॥१५।। नीलकण्ठा-ऽङ्गारकाद्याः खेचराः पूर्वविद्विषः । सर्वे सम्भूय सम्भूय वसुदेवमयोधयन् ॥१६॥ तद्यद्धान्तहस्तनेऽहन्यचश्चाऽऽसन्नदेवताः । व्यापादितो जरासन्धः कष्णो विष्णुरभूदिति ॥१७॥ तच्छ्रुत्वा खेचराः सर्वे रणं त्यक्त्वा व्यजिज्ञपन् । राजे मन्दरवेगाय सोऽपि तानेवमादिशत् ॥१८॥ सर्वेऽप्यायात भो ! यूयं महाप्राभृतपाणयः । द्वारेण वसुदेवस्य यास्यामः शरणं हरिम् ॥१९॥ इत्युक्त्वा वसुदेवान्ते गत्वा स भगिनी निजाम् । प्रद्युम्नाय ददौ पुत्री राजाऽपि त्रिपथर्षभः ॥२०॥ राजा देवर्षभो वायुपथश्च तनये निजे । श्रीमच्छाम्बकुमाराय ददतुः परया मुदा ॥२१॥ सहैव वसुदेवेन सर्वे विद्याधरेश्वराः । अद्याऽऽयान्ति पुरश्चैतदाख्यातुं प्रेषिता वयम् ।।२२।। एवं तासु ब्रुवाणासु वसुदेवः सखेचरः । प्रद्युम्न-शाम्बसहितस्तत्राऽऽगान्नयनोत्सवः ॥२३॥ आनर्चः खेचराः कष्णं वसधाराविडम्बिभिः । स्वर्णरत्नैर्विविधैश्च स्यन्दना-ऽश्व-गजादिभिः ॥२४॥ जयसेनप्रभृतीनां प्रेतकार्य व्यधाद्धरिः । जरासन्धप्रभृतीनां सहदेवनृपः पुनः ॥२५॥ पत्युः पितुश्च संहारं सकुलस्याऽपि वीक्ष्य सा । स्वजीवितं जीवयशा जहौ ज्वलनसाधनात् ॥२६॥ 'चुत्कू(कू)न्दिरे यदानन्दं यदवस्तज्जनार्दनः । तत्राऽऽनन्दपुरं चक्रे सिनपल्लीपदे पुरम् ॥२७॥ पाततः स्थानाच्च गोविन्दः खेचरैर्भूचरैर्वृतः । षड्भिर्मासैर्भरतार्धं संसाध्य मगधेष्वगात् ॥२८॥
तत्रैकयोजनोत्सेधां विस्तारेऽप्येकयोजनाम् । भरतार्धवासिनीभिर्देवताभिरधिष्ठिताम् ॥२९।। शिलां कोटिशिलां नाम 'दक्षिणेतरबाहुना । चतुरङ्गलमुद्दधे पृथ्वीतः कंससूदनः ॥३०॥युग्मम् ॥ पातां भुजाग्रे दधौ विष्णुराद्यो मूर्ति द्वितीयकः । कण्ठे तृतीयस्तुर्यस्तूरःस्थले पञ्चमो हृदि ॥३१॥ षष्ठः कट्यां 'षडधिकस्तूर्वोराजानु चाऽष्टमः । चतुरङ्गलमन्त्योऽवसर्पिण्यां ते पैतबलाः ॥३२॥ ततोऽगाद् द्वारकां कृष्णोऽर्धक्रित्वेऽभ्यषेचि च । भक्त्या षोडशभी राज्ञां सहौस्त्रिदशैस्तथा ॥३३॥ १. कारागारात् । २. वञ्चिताः मु० र० । ३. अत्र खलुशब्दोऽलमर्थे । ४. जरासन्धि मु० जरासन्धपुत्रम् । ५. पश्चिमसमुद्रे । ६. सूर्यमण्डलम् । ७. शीघ्रम् । ८. तदित: मु. । ९. त्वयुद्धा० खं० २ । १०. चुस्कुन्दिरे मु० । ११. असाधयद् भरतार्धं मगधेषु जगाम च खं० १, सू० । १२. वामहस्तेन । १३. सप्तमः । १४. क्षीयमाणबलाः । १५. वासुदेवत्वे ।
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अष्टमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
११७
पाण्डवान् कुरुदेशाय स्वस्वस्थानाय चाऽपरान् । भूचरान् खेचरांश्चाऽथ विससर्ज जनार्दनः ॥३४॥ दशाह दश दोष्मन्तः समुद्रविजयादयः । पञ्चसङ्ख्या महावीरा बलदेवादयस्तथा ॥३५।। राजान उग्रसेनाद्याः सहस्राणि च षोडश । प्रद्युम्नादिकुमाराणां साधु कोटित्रयं तथा ॥३६।। शाम्बादीनां दुर्दान्तानां सहस्राः षष्टिरेव च । वीरसेनादयो वीरा सहस्राण्येकविंशतिः ॥३७।। तथैव च महासेनप्रभृतीनां महौजसाम् । महतां तलवर्गाणां षट्पञ्चाशत्सहस्यपि ॥३८॥ अन्येऽपीभ्यश्रेष्ठि-सार्थपतिमुख्याः सहस्रशः । कृष्णं सिषेविरे मूनि रचिताञ्जलिसम्पुटाः ॥३९॥ भूपाः षोडश सहस्त्राः वासुदेवाय भक्तितः । रत्नानि ढोकयामासुढे द्वे च वरकन्यके ॥४०॥ ताभ्यः षोडश सहस्राः कन्याः कृष्ण उपायत । अष्टौ सहस्राणि बलोऽन्ये कुमाराश्च तावतीः ॥४१॥ कृष्णो रामः कुमाराश्च क्रीडोद्यान-नगादिषु । स्वच्छन्दं रेमिरे रम्यरमणीभिः समावृताः ॥४२॥ पातथा तान् क्रीडतः प्रेक्ष्य समुद्रविजयो नृपः । शिवादेवी चाऽभिदधे नेमि प्रेमाक्तया गिरा ॥४३॥ तात ! त्वां पश्यतां नेत्रोत्सवोऽस्माकं सदैव हि । अनुरूपवधूपाणिग्रहणेनाऽधिकोऽस्तु सः ॥४४॥ जन्मतोऽपि भवोद्विग्नो ज्ञानत्रयधरः प्रभुः । ऊचे नेमिर्नाऽनुरूपाः क्वाऽपि पश्यामि योषितः ॥४५।। भवन्त्येता हि पाताय दुःखेऽमूभिः कृतं हि नः । सम्पत्स्यन्तेऽनुरूपास्तु यदोद्वक्ष्यामि तास्तदा ॥४६॥ एवं गम्भीरया वाचा प्रकृत्या पितरावृजू । नेमिनिवारयामास विवाहोपक्रमाग्रहात् ॥४७॥ पाइतोऽपि च यशोमत्या जीवश्च्युत्वाऽपराजितात् । उग्रसेनस्य भार्याया धारिण्या उदरेऽभवत् ॥४८॥
धारिण्याः समये जज्ञे नाम्ना राजीमती सुता । अद्वैतरूपलावण्या क्रमेण ववृधे च सा ॥४९।। पाइतश्च द्वारकावासी धनसेनो ददौ सुताम् । नभःसेनाय कमलामेलाख्यामौग्रसेनये ॥५०॥ नभःसेनस्य सदने चाऽऽययौ नारदो भ्रमन् । विवाहव्यग्रचित्तेन स तेन न हि पूजितः ॥५१॥ तस्याऽनर्थेच्छया सोऽगाद् रामसू-निषधात्मजम् । नामतः सागरचन्द्रं शाम्बादीनामतिप्रियम् ॥५२॥ तमभ्युत्थाय सोऽपृच्छद् देवर्षे ! भ्रमता त्वया । किमैक्षि किञ्चिदाश्चर्यं तदालोकप्रियो ह्यसि ॥५३॥ सोऽप्यूचे प्रेक्षिताऽत्रैवाऽऽश्चर्यभूता जगत्यपि । नामतः कमलामेला धनसेनस्य कन्यका ॥५४॥ नभःसेनाय सा दत्ताऽधुनैवेत्यभिधाय सः । उत्पत्याऽगमदन्यत्र तद्रेक्तः सागरस्त्वभूत् ॥५५॥ तामेव सागरो दध्यौ तन्नामैव जगाद च । तामेव सर्वतोऽपश्यत् पीतोन्मत्तः सुवर्णवत् ।।५६।। पाजगाम कमलामेलासदने नारदोऽप्यथ । तया च पृष्ट आश्चर्यमित्यभाषिष्ट कूटधीः ॥५७।।
आश्चर्ये द्वे मया दृष्टे तत्रैकं रूपसम्पदा । कुमारः सागरचन्द्रो नभःसेनः कुरूपतः ।।५८॥ सद्यो मुक्त्वा नभःसेनमरज्यत् सागरेऽथ सा । तद्रागं नारदो गत्वा सागराय शशंस च ॥५९।। सागरं प्रेक्ष्य पतितं तस्या विरहसागरे । माताऽपरे कुमाराः
भृशम् ॥६०॥ तदा तत्राऽऽययौ शाम्बस्तथावस्थस्य पृष्ठतः । स्थित्वा सागरचन्द्रस्य पाणिभ्यां पिदधे दृशौ ॥६१॥ सागरः स्माऽऽह कमलामेला किमसि नन्विह? । एषोऽहं कैमलामेल' इति शाम्बोऽप्यभाषत ॥६२।। बभाषे नैषधिस्तर्हि त्वमेव कमलां मम । मेलयिष्यसि पर्याप्तमन्योपायविचिन्तया ॥६३॥
अप्रतीच्छंस्तद्वचनं शाम्बः सर्वैः कुमारकैः । पाययित्वा भूरिमा छलयित्वा च मानितः ॥६४॥ पाशाम्बो गतमदावस्थोऽचिन्तयत् किं मया ननु । दुष्करं प्रत्यपादीदं निर्वाह्य तत् तथापि हि ॥६५॥ ततश्च स्मृत्वा प्रज्ञप्ति कुमारैरपरैः समम् । नभःसेनोद्वाहदिने शाम्ब उद्यानमभ्यगात् ॥६६।। गृहाच्च कमलामेलां तत्राऽऽनाय्य सुरङ्गया । रक्तां सागरचन्द्रेण विधिवत् पर्यणायत ॥६७।।
गृहे च तामपश्यन्तो मार्गयन्त इतस्ततः । पितृ-श्वसुरवर्गीयास्तदुद्यानं समाययुः ॥६८॥ १. बलवर्गाणाम् की. ला०, तलारक्षकाणाम् । २. धनाढ्यः । ३. प्रवरकन्यके खं० २ । ४. परावृताः ता०सं० खं० २ । ५. प्रेमयुक्तया। ६. नः खं० २ । ७. धारण्या खं० १, सू० । ८. धारण्यां खं० १, सू० । ९. ववृधेतराम् खं०२।१०. द्वारिका खं० २, ला० । ११. उग्रसेनपुत्राय । १२. कमलामेलाया रागवान् । १३. कमलां मेलयति इति तथा । १४. सागरचन्द्रः । १५. अनङ्गीकुर्वन् ।।
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११८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
कृतखेचररूपाणां यदूनां मध्यवर्तिनीम् । आलोक्य कमलामेलां विष्णवे ते व्यजिज्ञपन् ॥६९।। क्रुद्धः कृष्णोऽपि कमलामेलाहर्तृनुपेत्य तान् । अयोधयद्धन्तुकामो दुर्नयासहनो हि सः ॥७०॥ कत्वा स्वरूपं शाम्बोऽपि कमलामेलया यतम् । गृहीत्वा सागरचन्द्रं न्यपतत् कृष्णपादयोः ॥७१।। ऊचे विलक्षः कृष्णोऽपि किमिदं रे ! त्वया कृतम् ? । आश्रितोऽयं नभ:सेनो यदेवं हन्त वञ्चितः ॥७२।। अस्य किं कियतेऽद्येति नभःसेनमबोधयत् । ददौ च कमलामेला सागरायैव केशवः ॥७३॥ अपकर्ता नभःसेनोऽप्यक्षमस्तत्प्रभुत्यपि । छिद्रं सागरचन्द्रस्य मार्गयामास सर्वदा ।।७४|| पाइतश्च पत्न्यां वैदर्थ्यां प्रद्युम्नस्य सुतोऽभवत् । अनिरुद्धोऽभिधानेन यौवनं प्रत्यपादि च ॥७५॥ तदा शुभनिवासाख्ये पुरेऽभूत् खेचरेश्वरः । बाणो नामोल्बणबलस्तस्य चोषेति कन्यका ॥७६।। सा च रूपवती स्वानुरूपवल्लभलिप्सया । विद्यामाराधयद् गौरी निश्चयेन गरीयसा ॥७७।। सा तुष्टा तामभाषिष्ट पौत्रः कृष्णस्य शाङ्गिणः । भविष्यत्यनिरुद्धस्ते वरः सुरवरोपमः ॥७८।। आराधितश्च बाणेन गौरीविद्याप्रियः सुरः । शङ्कराख्यो ददावस्याऽजय्यत्वं समराङ्गणे ॥७९।। गौरी तमूचे सर्वत्राऽजय्यत्वं यद् ददौ वरम् । तन्न युक्तं मया दत्तो ह्यस्त्युषाया वरों ननु ॥८०॥ शङ्करोऽप्यवदद् बाणं त्वमजय्यो भविष्यति । स्त्रीकार्यादन्यत इति बाणस्तेनाऽपि पिप्रिये ॥८१।। उषा रूपवतीत्वेन खैचरैर्भूचरेश्च सा । कैः कैर्ययाचे नो बाणान्न ददौ स त्वरोचकी ॥८२॥ पाविद्याधरी चित्रलेखां प्रेष्योषाऽप्यनुरागिणी । आनाययदनिरुद्धं मनसीव निजे गृहे ॥८३॥ तां गान्धर्वविवाहेनोदुह्याऽऽदाय च सोऽचलत् । उषां हृत्वाऽनिरुद्धोऽहं गच्छामीति जगाद च ॥८४॥ ततः क्रुद्धः खेचरेन्द्रो बाणो बाणासनी बलैः । व्याधः श्वभिरिव कोडमनिरुद्धं निरुद्धवान् ॥८५।। पत्युर्विद्यां तदानीं च पाठसिद्धामुषा ददौ । बृंहितौजास्तया सोऽपि बाणेन युयुधे चिरम् ॥८६।। नागपाशैः कमलवद् बद्धः प्रद्युम्ननन्दनः । बाणेनाऽथ तदाख्यायि प्रज्ञप्त्या शाङ्गपाणये ॥८७॥ तत्राऽऽययौ हरिः सीरि-शाम्ब-प्रद्युम्नसंयुतः । दुद्रुवुस्तेऽहिपाशीस्तु गरुडध्वजदर्शनात् ॥८८॥ बाणोऽपि शडरवरेणाऽऽत्मस्थाम्ना११ च गर्वितः । उचे कृष्णं मदोन्मत्तः किं त्वं वेत्सि न मद्बलम् ?||८९।। सदाऽन्यकन्याहरणं त्वमकार्षीस्ततश्च ते । पुत्रादीनां क्रमायातं तत्फलं दर्शयामि वः ॥९॥ ऊचे कृष्णोऽपि केयं ते वाचोयुक्तिर्दुराशय !? । कन्या ह्यवश्यं दातव्या दोषस्तद्वरणेऽस्तु कः? ॥९१॥ श्रुत्वेति खेचरवृतो भृकुटीभीषणाननः । कृष्टबाणासनो बाणो बाणांश्चिक्षेप शाङ्गिणे ॥९२॥ तानन्तराऽपि चिच्छेद छेदच्छेको जनार्दनः । शराशरि तयोरेवं वीरयोर्ववृते चिरम् ॥९३।। निरस्त्रीकृत्य तं कृष्णः कृष्णाहिमिव पक्षिराट् । निकृत्य खण्डशोऽनैषीत् प्रेतराजस्य सद्मनि ॥९४|| अनिरुद्धमुषासमन्वितं समुपादाय जनार्दनस्तत: । 'मुदितःस्मर-सीरि-शाम्बयुग नगरी द्वारवतीं पुनर्ययौ ॥९५||
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते
महाकाव्ये अष्टमें पर्वणि सागरचन्द्रोपाख्यान-उषाहरणबाणवधवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः ।।
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१. आयोध० सं० १. ला० सू० । २. अपहर्तुम् लं. १. ला० सू० ला० पु० ला०२ । ३. उत्कटबलः । ४. सर्वत्राजेयत्वं खं० २ । ५. वरः स नु खं० २ । ६. त्वजजेयो खं० र । ७. धनुर्धरः । ८. वराहम् । ९. तुत्रुटुस्ते पु० । १०. नागपाशाः । ११. आत्मबलेन । १२. च खं० १.२ । १३. हृष्टः प्रद्युम्नसीरि० मु.; रामप्रद्युम्नसीरि० खं० १ । १४. ०ऽष्टमपर्वणि मु० ।
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॥ नवमः सर्गः ॥ इतश्च क्रीडया नेमिः कुमारैः सह पर्यटन् । विवेश वासुदेवस्याऽऽयुधर्शालामशङ्कितम् ॥१॥ तत्र चक्रमतिभास्वद् भास्वद्विम्बमिवोच्चकैः । शार्ङ्ग-कौमोदकी-खड्गान् भोंगिराड्भोगभीषणान् ॥२॥ पाञ्चजन्यं जन्यनाट्यनान्दीतूर्यं महत्तरम् । विष्णोर्यश:कोशमिव कुमारः समुदैवत ॥३॥ युग्मम् ॥ कौतुकाच्छङ्खमादित्सुं विज्ञायाऽरिष्टनेमिनम् । प्रणम्याऽस्त्रगृहारक्षश्चारुकृष्णोऽब्रवीदिति ॥४॥ यद्यप्यसि हरेर्धाता दोष्मानसि तथाऽपि हि । नाऽऽदातुमपि शक्नोषि शङ्ख पूरयितुं कुतः ? ॥५॥ इमं हि शङ्खमादातुमाध्मातुं च विना हरिम् । न क्षमः कोऽपि मा कार्षीस्तत्प्रयासं मुधैव हि ॥६॥ स्मित्वाऽथ नेमिस्तं शङ्खमुद्दधे लीलयाऽपि हि । दध्मौ चाऽधरविश्रान्तदन्तज्योत्स्नाविडम्बकम् ॥७॥ द्वारकावप्रसंमूर्छदुद्वेलजलधिध्वनेः । सब्रह्मचारी तद्ध्वानः पूरयामास रोदसी ॥८॥ प्राकारः शैलशृङ्गाणि प्रासादाश्च चकम्पिरे । चुक्षुभुः सीरभृच्छाँी दशार्हा अपरेऽपि च ॥९॥ स्तम्भानुन्मूल्य करिणस्नेसुस्त्रोटितशृङ्खलाः । पलायाञ्चक्रिरे चाऽश्वा निरस्तमुखबन्धनाः ॥१०॥ तद्धवनेर्वजनिर्घोषादिवाऽमूर्च्छन् पुरीजनाः । अस्त्रागारारक्षकाश्च निपत्याऽस्थुम॒ता इव ॥११॥ इति दध्यौ च गोविन्दः शङ्गः केनेष वादितः ? | किं चक्री कश्चिदुत्पन्नो ? वंजी वा भुवमागतः ? ॥१२॥ मयाऽपि वादिते शङ्के क्षोभः सामान्यभूभुजाम् । अनेन शङ्के त्वाध्माते मम रामस्य चाऽभवत् ।।१३।। पाइति कृष्णं चिन्तयन्तमस्त्रारक्षा व्यजिज्ञपन् । लीलया पाञ्चजन्योऽद्य पूरितोऽरिष्टनेमिना ॥१४॥ तच्छ्रुत्वा विस्मयापन्नोऽश्रद्दधानश्च चेतसि । यावत् तस्थौ हरिस्तावत् तत्रोपेयाय नेम्यपि ॥१५॥ कृष्णः कृतावहित्थोऽथ नेमिनाथं ससम्भ्रमः । उपवेश्याऽऽसनेऽनये" सगौरवमभाषत ॥१६।। पाञ्चजन्योऽऽधुना भ्रात: ! किमयं पूरितस्त्वया? । तन्नादेन मही सर्वा क्षुभिताऽद्याऽपि वर्तते ॥१७॥ आमेति नेमिनाऽप्युक्ते तद्दोर्बलमपि स्वयम् । परीक्षितुमनाः कृष्णस्तं सगौरवमब्रवीत् ॥१८॥ पाञ्चजन्यं पूरयितुं मदृते नाऽपरः क्षमः । भवता पूरिते त्वस्मिन् भ्रातः ! प्रीतोऽस्मि सम्प्रति ॥१९॥ मां विशेषात् प्रीणयितुं स्वदो:स्थामाऽपि दर्शय । युध्यस्व बाहुयुद्धेन मयैव सह मानद ! ॥२०॥ एवमस्त्विति तेनोक्ते कुमारपरिवारितौ । अस्त्रागारं जग्मतुस्तौ भ्रातरौ वीरकुञ्जरौ ॥२१॥ पप्रकृत्या सदयो नेमिर्दध्याविति ममोरसी । दोष्णा पादेन वाऽऽक्रान्तः कथं कृष्णो भविष्यति ? ॥२२॥
यथाऽसौ याति नाऽनर्थ मद्धजस्थाम वेत्ति च । तथा कार्यमिति ध्यात्वा जनार्दनमभाषत ॥२३॥ प्राकृतानामिदं युद्धं मुहुर्भूलुठनाकुलम् । मिथो दो मनेनैव तद्भूयाद्युद्धमावयोः ॥२४॥ तत्प्रपद्य वचो विष्णुः शाक्षिशाखामिवाऽऽयताम् । दधे भुजां तां च नेमि लनाममनामयत् ॥२५।। तथैव नेमिनाथोऽपि दधे वामभुजं निजम् । तत्र सर्वोजसा विष्णुर्ललम्बे द्रौ" कपिर्यथा ॥२६।। दोःस्तम्भो विष्णुना नेमे ऽनाम्यत मनागपि । वनस्तम्बेरमेणेव दन्तभूमिर्महागिरेः ॥२७॥ मुक्त्वा नेमिभुजस्तम्भं निढुवानो विलक्षैताम् । नेमिनाथं समालिङ्गन्नित्यवोचत शार्गभृत् ॥२८॥ यथा ममौजसा रामो मन्यते तृणवज्जगत् । तथा मन्ये तृणायाऽहं विश्वं भ्रातस्तवौजसा ।।२९।। इत्यक्त्वा व्यसजन्नेमि विष्णरूचे च २०सीरिणम । दष्टं भ्रातस्त्वया भ्रातर्वीयं त्रिभवनोत्तरम ॥३०॥ यथाऽर्धचकी दोण्यस्याऽभवं पक्षीव पादपे । मन्ये तथौजसाऽमुष्य चक्री वज्री च नो समः ॥३१॥ १. ०शालामशङ्कित: मु० । २. तच्चक्रमतिभास्वच्च ला०की० ।। ३. सूर्यबिम्बवत् । ४. शेषनागवपुर्वद् भयङ्करान् । ५. जन्यं युद्धं तदेव नाट्यं तस्य नान्द्यां तूर्यं वाजिबसमानम् । ६. प्राकारशैल० खं० २, ला० विना । ७. ०च्छाद्भिर्दशार्हा मु० र० । ८. इन्द्रः। ९. कृत: अवहित्थः आकारगोपनं येन सः । १०. ०ऽनघे खं०१-२, सू० । ११. क्षोभिता० मु० र० । १२. नेम्युक्ते खं०१, ला० सू० । १३. वक्षःस्थलेन। १४. वृक्षशाखां इव दीर्घाम् । १५. नालं इव नमयित्वा इति नालनामम् । १६. वृक्षे । १७. वनगजेन। १८. गोपायन् । १९. विलक्ष्यताम् खं० २ । २०. शीरिणम् की०पु०ला०२, ला० । २१. दोष्णस्या० खं० १-२, ला० सू० ।
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१२० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व ईदृशेनौजसाऽसौ किं समग्रमपि भारतम् । न साधयति? किं तिष्ठत्येवमेवाऽनुजः स नौ ? ॥३२॥ ऊचे रामो यथा स्थाम्ना ज्ञायते चक्रितोऽधिकः । तथैव शान्तया मूर्त्या लक्ष्यते राज्यनिःस्पृहः ॥३३॥ पाइति रामोक्तेऽपि हरिं साशङ्कमनुजौजसा । प्रेक्ष्योचे देवता मा स्म ताम्यः शृणु जिनोदितम् ॥३४॥
"पुरा नमिजिनेनोक्तं नेमिरहन् भविष्यति । कुमार एव सन्नेष नाऽर्थो राज्यश्रियाऽस्य तत् ॥३५।। प्रतीक्षमाणः समयं जन्मतो ब्रह्मचार्ययम् । आदास्यते परिव्रज्यां माऽन्यथा कृष्ण ! चिन्तय" ॥३६।। पाइति देवतयाऽप्युक्तः प्रीतो रामं विसृष्टवान् । जगामाऽन्तःपुरं कृष्णो नेमिं चाऽजूहवत् तदा ॥३७।। रत्नस्नानासनासीनौ तत्रोभौ शाङ्गि-नेमिनौ । वारस्त्रीलोठ्यमानाम्भःकुम्भा सपदि सस्त्रतुः ॥३८॥ उन्मृष्टाङ्गौ देवदूष्यैर्विलिप्तौ दिव्यचन्दनैः । तत्रेव विदधाते च भोजनं हरि-नेमिनौ ॥३९।। अथोचे सौविदान् कृष्णो भ्राता नेमिरसौ मम । स्वस्मादप्यधिकस्तेन न स्खल्योऽन्तःपुरे क्वचित् ॥४०॥ समस्तानामपि भ्रातूर्जायोनां मध्यवर्त्यसौ । रमतां नेमिकमारो न दोषो वोऽस्ति कश्चन ॥४॥ पत्नीश्चोवाच भामाद्याः प्राणभूतो मम ह्ययम् । नेमिर्वो देवरो मान्यः क्रीडनीयोऽपशङ्कितम् ॥४२॥ इत्युक्ते शाङ्गिणा तत्राऽन्तःपुरे ताभिरर्चितः । निर्विकारो विजहार नेमिर्भोगपराङ्मुखः ॥४३॥
आत्मनो निर्विशेषेण सहैवाऽरिष्टनेमिना । हरिः सान्तःपुरः प्रीतो रेमे क्रीडाचलादिषु ॥४४॥ पकृष्णोऽन्यदा वसन्तौ पौरेः सर्वैश्च वृष्णिभिः । सान्तःपुरो रैवतकोद्याने नेमियुतो ययौ ॥४५॥ चिक्रीडुर्विविधं तत्र कुमारा नागरा अपि । उद्याने नन्दन इव सुराऽसुरकुमारकाः ॥४६॥ बकुलस्य तले केऽपि बकुलामोदशालिनीम् । मदिरां स्मरजीवातुं पपुरापानभूमिषु ॥४७।। कोऽप्युपावीणयन् कोऽपि वसन्तेनोच्चकैर्जगुः । ननृतुः केऽपि च क्षीवाः सस्त्रियः किन्नरा इव ॥४८॥ चम्पकाऽशोकबकुलादिषु केऽप्यवचिच्यिरे । पुष्पाणि सप्रियाः पुष्पाहरविद्याधरा इव ॥४९।। स्वयं ग्रथित्वा कुसुमाभरणानि मृगीदृशाम् । अङ्गेषु निदधुः केऽपि विदग्धा मालिको इव ॥५०॥ नव्यपल्लवतल्पेषु लतावेश्मसु केऽपि च । कान्दर्पिका इव सुरा रेमिरे रमणीजनैः ॥५१॥ केऽपि गाढरतश्रान्ता लुलन्तः सारणीतटे । भोगिनो भोगिर्न इव पपुमलयमारुतम् ॥५२॥ कैचित् कङ्केल्लिशाखावलम्बिदोलासु साङ्गनाः । अन्दोलनेन चिक्रीडू रतिस्मरविडम्बिनः ॥५३॥ प्रियायाः पादघातेन केचित् कङ्केल्लिपादपान् । मद्यगण्डूषदानेन केचिच्च बकुलदुमान् ॥५४॥ सरागदृष्टिदानेन केचित् तिलकशाखिनः । गाढालिङ्गनदानेनाऽपरे कुरुबकद्रुमान् ॥५५॥
अप्यन्यैर्दोहदैर्वृक्षानपरानपि कामिनः । विशेषपुष्पितीचक्रुः स्थिताः पुष्पेषुशासने" ॥५६॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ पकृष्णोऽपि नेमिना सार्धं भामादिस्त्रीभिरावृतः । क्रीडन्नितस्ततोऽभ्राम्यद् वने वन्य इव द्विपः ।।५७॥ पश्यन्नेमि हरिर्दध्यौ नेमेर्भोगेषु चेन्मनः । भवेत् तदा कृतार्था श्रीः सौभ्रात्रं च तदैव मे ॥५८॥ आलम्बनोद्दीपनैस्तद्विभावैरेसकृन्मया । एषोऽनुकूल्य: पूर्येत यद्येवं मे मनोरथः ॥५९।। एवं विचिन्त्य गोविन्दो ग्रथित्वा च स्वयं स्रजम् । नेमेः कण्ठे निचिक्षेप मुक्ताहारमिवाऽपरम् ॥६०॥ विदग्धा सत्यभामाद्या अपि भावविदो हरेः । कुसुमाभरणैश्चित्रैः श्रीनेमिमुपतस्थिरे ॥६१॥ पीनोन्नतकुचाग्राभ्यां स्पृशन्ती काऽपि पृष्ठतः । नेमेबंबन्ध धम्मिल्लं बन्धुरैः पुष्पदामभिः ॥६२॥ उदस्तदोर्लता प्रादुर्दोर्मूला काऽपि नेमिनः । "शिरस्युत्तंसमग्रस्था विदधे हरिवल्लभा ॥६३।। विधृत्य पाणिना कर्णे काऽपि कर्णावतंसकम् । नेमिनो रचयामास स्मरस्येव जयध्वजम् ॥६४॥ १. ताम्य खं०२, ला० । २. प्रतीक्ष्यमाण: खं० २, । ३. चिन्तया खं०१। ४. रत्नस्थाना० खं० २ । रत्नसिंहा० मु० । ५. पत्नीनाम् । ६. यदुभिः । ७.४५-४६श्लोकौ खं० २, प्रतौ न । ८. मद्यपानस्थानेषु । ९. वसन्तेन रागविशेषेण । १०. मत्ताः । ११. मालाकारिकाः भाषायां मालण इति । १२. नीककण्ठे। १३. विलासिनः । १४. सर्पाः । १५. मलयाचलपवनम् । १६. केऽपि मु० । १७. कंकिल्लि० मु० । किकिल्लि० ला० । १८. आन्दो० मु० । १९. किकिल्लि० ला० कंकिल्लि० मु० । २०. किंचित् मु० । २१. कामदेवशासने । २२. सुभ्रातृत्वं । २३. ५८ श्लोकः खं० २, प्रतौ न । २४. 'रत्याधुबोधको लोके विभावः काव्यनाट्ययोः । आलम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य भेदाविमौ स्मृतौ' (साहित्यदर्पणे)। २५. बाहुदौ० खं० २, प्रादुर्भूतं दोर्मूलं यस्याः सा । २६. शिरोभूषणम्। २७. ध्वजाम् ला० र० मु० ।
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नवमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । बाहौ पुष्पाङ्गदं काऽपि भूयो भूयो नवं नवम् । बबन्ध नेमिनः क्रीडाकालक्षेपविधित्सया ॥६५।। एवं ता विदधुर्नेमेरुपचारमृतूचितम् । तासु श्रीनेमिनाथोऽपि निर्विकारमुपाचरत् ॥६६॥ एवं विचित्रक्रीडाभिरहोरात्रं जनार्दनः । स्थित्वा पुनारिकायां जगाम सपरिच्छदः ॥६७॥ समुद्रविजयोऽप्युत्को नेमिपाणिग्रहोत्सवे । तस्थौ दशार्हा अन्येऽपि शाईपाणिश्च सर्वदा ॥६८।। पावसन्तर्तुरतीयाय सनेमेः क्रीडतो हरेः । 'घर्मर्तुश्चाययौ प्रौढीकुर्वन्नर्कमिव स्मरम् ॥६९।। बालातपोऽप्यसह्योऽभूत् प्रताप इव शाङ्गिणः । निशायामपि नाऽशाम्यद् धर्मः कर्मेव देहिनाम् ॥७०॥ वाससी श्वेतमसृणे रम्भान्तस्त्वक्सनाभिनी । मृगनाभीधूपिते च युवानस्तत्र पर्यधुः ॥७१।। तालवृन्तं कराद् दन्तिकर्णतालचलाचलम् । नेषदप्यमुचन्नार्यो मन्मथस्येव शासनम् ॥७२।। विचित्रकौसुमरसद्विगुणीकृतसौरभैः । भूयो भूयोऽभ्यषिञ्चन् स्वं युवानश्चन्दनाम्बुभिः ॥७३॥ नारीभिर्नलिनीनालान्याहितान्यभितो हृदि । मुक्ताहारेभ्योऽप्यधिकं सौभाग्यमुपलेभिरे ॥७४॥ निपीडयन्तो बाहुभ्यां गाढगाढं मुहुर्मुहुः । युवानो नोरसोऽमुञ्चन् जलाँी वल्लभामिव ॥७॥ एवं ग्रीष्मे घर्मभीष्मे कृष्णः सान्तपुरोऽपि हि । ययौ रैवतकोद्यानसरसी नेमिना सह ॥७६।। तदन्तर्मज्जनक्रीडां कर्तुं विष्णुः सनेम्यथ । सान्तःपुरः प्रविवेश हंसवन्मानसाम्भसि ॥७७।। तत्राऽऽकण्ठं निमग्नानां वदनैर्विष्णुयोषिताम् । नवोद्भिन्नाब्जिनीखण्डभ्रान्तिः सद्योऽप्य॑तन्यत ॥७८।। आचिक्षेप हरिः काञ्चित् स्वयमञ्जलिवारिणा । छेका प्रत्याक्षिपत् साऽपि गण्डूषपयसैव तम् ॥७९।। काभिश्च विलगन्तीभिर्भीरुभिर्जलभीरुभिः । दधौ सशालभञ्जीकस्तम्भशोभां जनार्दनः ॥८०॥ असकृद्वीचय इवोल्ललन्त्यो हरिणीदृशः । रभसादास्फलन्ति स्म शार्ङ्गपाणेरुरस्तटे ।।८१।। जलाघातेन ताम्रत्वं दधुर्मगदृशां दृशः । स्वभूषणाञ्जनापोहजातयेव रुषाऽधिकम् ॥८२।। विपक्षनामग्रहणेनाऽऽहता काऽपि शाहिणा । ताडयामास पोन सार्वलेनेव दन्तिनम् ॥८३।। हरिमन्यां वीक्षमाणं काचिदभ्येत्य चक्षुषोः । सरोरुहरजोमित्रैर्जघानाऽम्भोभिरुद्धतैः ॥८४॥ शाङ्गिणं परितो भ्रमुर्भूयो भूयो मृगीदृशः । स्मारयन्त्यो गोपभावलीलाहल्लीसकश्रियम् ॥८५।। निर्विकारो नेमिरपि तत्र भ्रात्रुपरोधतः । भ्रातुर्जायाभिरक्रीडद्वेष्ट्यमानः सनर्मभिः ॥८६॥ क्व यासि देवरेदानीमित्युक्त्वा हरियोषितः । नेमि युगपदाजघ्नुश्चपेटाताडितै लैः ॥८७।। पाणिभिः कृष्णपत्नीनां जलाच्छोटनपातिभिः । उत्पल्लवस्तरुरिवारिष्टनेमिरराजत ॥८८|| स्त्रीस्पर्शज्ञापनायाऽम्भ:क्रीडाव्याजेन नेमिनः । ताः कण्ठे शिश्लिषुर्वक्षस्याजघ्नुर्दोष्णि चाऽप्यधुः ॥८९।। सहस्रपत्रं श्रीनेमेरातपत्रमिवोपरि । शुद्धान्तच्छत्रधारीव क्रीडया काऽप्यधारयत् ॥९०।। काचिच्च नलिनीनालं नेमिन: कण्ठकन्दले । चिक्षेप नर्मणा स्तम्बेरमस्याऽलानदामवत् ॥९१॥ यत् किञ्चनाऽप्यपदेश्य शतपत्रेण नेमिनम् । काऽप्याजघान हृदये स्मरास्त्रैरप्यनाहते ॥९२।। अविकारः पुनर्नेमिकुमारोऽपि प्रजावतीः । क्रीडयामास ताः सर्वाः कृतप्रतिकृतैश्चिरम् ॥९३।। क्रीडन्तं भ्रातरं पश्यंस्तथाऽहष्यज्जनार्दनः । तत्राऽम्भसि चिरं तस्थौ नंदीचर इव द्विपः ॥९४॥ पासमापिताम्भःक्रीडोऽथ सरसो निर्ययौ हरिः । भामा-रुक्मिण्यादयोऽपि गत्वा तीरेऽवतस्थिरे ॥९५।।
सरसो निरगान्नेमिकुमारोऽपि मरालवत् । शिश्रिये तीरदेशं च रुक्मिण्यादिभिराश्रितम् ॥९६।। १. बाह्वोः मु० । २. उत्सुकः । ३. ग्रीष्मर्तुः । ४. नाशम्यद् खं०१ । ५. स्वेद, निदाघः भाषायां गरमी-घाम इति ख्यातम् । ६. सनाथिनी खं० २, सदृशी । ७. कस्तूरीधूपिते । ८. क्लिन्नवस्त्रम्, जलार्दा क्लिन्नवाससि (अभिचि० कां०२ श्लो० ६७९) । ९. प्यजायत मु० । ०प्यजन्यत खं० २ । १०. कान्ताभिः । ११. सपुत्तलीकस्तम्भशोभाम् । १२. सपत्नीनामग्रहणेन । १३. सर्वले खं० १-२, मु० । तोमरः, "सर्वला तोमरे"। अभि०चि० कां०३ श्लो. ७८७, भाषायां रवैया आकारनुं शस्त्र । १४. चिरमन्याम् ता० सं० विना । १५. वीक्ष्यमाणां मु० । १६. रास। मण्डलेन तु यन्नृत्तं स्त्रीणां हल्लीसकं हि तत् (अभिचिं. का. २. श्लो. २८१) । १७. नेमिनम् ला० की० पु० । १८. अन्तःपुरस्य छत्रधारीव। १९. प्रजावत: खं० १ । भ्रातृजायाः । २०. यथाम्भसि खं० २ । २१. नन्दीवर० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
उत्थाय रुक्मिणी तत्र स्वयं रत्नासनं ददौ । ममार्ज चाऽङ्गं श्रीनेमेनिजेनोत्तरवाससा ॥९७।। नर्मप्रश्रयपूर्वं च सत्याऽभाषिष्ट नेमिनम् । सदा नः सहसे तेनाऽभीता त्वां वच्मि देवर ! ॥९८।। षोडशस्त्रीसहस्राधिभर्तुर्कीताऽपि शाणिः । अप्येकामपि किं कन्यां न ह्युद्वहसि सुन्दर ! ॥९९।। त्रैलोक्ये तेऽप्रतिरूपं रूपं लावण्यपावितम् । यौवनं च नवोद्भेदं सत्येवं किमियं स्थितिः ? ॥१०॥ पितरौ भ्रातरश्चैते भ्रातुर्जाया वयं च ते । याचामहे विवाहाय कुरुष्वैषां समीहितम् ॥१०१।। वण्ठमात्र इवैकाङ्गो विना पत्नीपरिग्रहम् । कालं कियन्तं नेताऽसि विमृश स्वयमप्यहो ! ॥१०२॥ किमज्ञो नीरसो वाऽसि क्लीबो वाऽसीति शंस नः । स्त्रीभोगेन विनाऽसि त्वं कुमारोऽरण्यपुष्पवत् ॥१०३।। यथा प्रावर्तयत् तीर्थं प्रथमं वृषभध्वजः । तथा स एव वीवाहमङ्गलान्यप्यदर्शयत् ॥१०४।। समये प्रतिपद्येथा ब्रह्माऽपि हि यथारुचि । गार्हस्थ्ये नोचितं ब्रह्म मन्त्रोद्गार इवाऽशुचौ ॥१०५।। पाअथाऽवदज्जाम्बवती त्वद्वंशे मुनिसुव्रतः । कृतोद्वाहो जातसूनुर्जज्ञे तीर्थङ्करः प्रभुः ॥१०६।। ततः परस्तादर्वाक् च श्रूयन्ते जिनशासने । कृतोद्वाहाश्च मुक्ताश्च वेत्सि त्वमपि तन्ननु ॥१०७।। मुमुक्षुर्नूतनोऽसि त्वं मुक्तानामपि वर्त्म यः । विहाय जन्मतोऽप्येवं यदभूः स्त्रीपराङ्मुखः ॥१०८॥ पकृतप्रणयकोपोचे भामा सखि ! वृथैव किम् । अमुं वदसि साम्ना त्वं? सामसाध्यो न खल्वयम् ॥१०९॥ उक्तः सानुनयं पित्रा भ्रात्रा च ज्यायसाऽप्ययम् । अपरैश्च विवाहार्थे मेने न खलु तानपि ॥११०॥ अस्माभिरेष सम्भूय तत्सर्वाभिर्निरुध्यताम् । न मस्यतेऽस्मद्वचश्चेन्मोक्तव्यस्तन्न सर्वथा ॥१११।। अथोचिरे लक्ष्मणाद्या आराध्यो देवरो ह्यसौ । सकोपमेवं नो वाच्यमुपायोऽस्य प्रसादनम् ॥११२।। इत्युक्ते पादयोर्नेमे रुक्मिण्याद्या हरिस्त्रियः । निपेतुः प्रार्थयमाना विवाहाय कृताग्रहाः ॥११३॥ तथाऽर्थ्यमानं ताभिश्च प्रेक्ष्य कृष्णोऽपि नेमिनम् । उपेत्य प्रार्थनाञ्चक्रे पाणिग्रहणकर्मणे ॥११४॥
अन्येऽपि यदवो नेमिमूचुर्तुर्वचः कुरु । शिवा-समुद्रविजयौ मोदयाऽन्यानपि स्वकान् ॥११५॥ पाएवं तैः साग्रहैर्नेमिरुपरुद्धो व्यचिन्तयत् । अहो ! अज्ञत्वमेतेषां धिग् दाक्षिण्यं ममाऽप्यदः ॥११६।। न केवलं स्वयममी पतन्ति भवसागरे । आबद्धस्नेहशिलया पातयन्ति परानपि ॥११७॥ वाङ्मात्रेणाऽनुमन्तव्यममीषामधुना वचः । आत्मनीनं विधातव्यमवश्यं समये मया ॥११८।। ऋषभस्तीर्थकृद्यच्च विवाहं विदधे पुरा । तत् तथा भोग्यकर्मत्वाद् विभिन्ना कर्मणां गतिः ॥११९।। एवं विमृश्य श्रीनेमिस्तद्वचः प्रत्यपद्यत । तच्छ्रुत्वा जहषुः सर्वे समुद्रविजयादयः ॥१२०।। तत्राऽतिवाह्य ग्रीष्मा गोविन्दः सपरिच्छदः । जगाम द्वारिका नेमियोग्यकन्येक्षणोत्सुकः ॥१२।। तमूचे सत्यभामाऽथ भगिनी मे कनीयसी । अस्ति राजीमती नाम्नाऽनुरूपाऽरिष्टनेमिन: ॥१२२॥
कृष्णोऽप्युवाच तामेवं सत्ये ! सत्यं हिताऽसि मे । नेमिनाथानुरूपस्त्रीचिन्ताब्धेरुद्धृतोऽस्मि यत् ॥१२३।। पाअथोत्थाय स्वयं कृष्ण उग्रसेनगृहं ययौ । यदुभिः पुरलोकैश्च वीक्ष्यमाण: ससम्भ्रमैः ॥१२४॥ उग्रसेनोऽप्यर्घपोद्यादिना सत्कृत्य शाङ्क्षिणम् । सिंहासने चोपवेश्य पप्रच्छाऽऽगमकारणम् ॥१२५।। कृष्णोऽप्युवाच ते कन्या राजन् ! राजीमतीति या । गुणैर्मदधिकस्याऽर्हा नेमेर्मदनुजस्य सा ॥१२६॥ भोजोऽपि निजगादैवं भाग्यैनः फलितं प्रभो ! । हरिर्यद्गृहमायाति कृतार्थांश्च करोति नः ॥१२७॥ एतद्गृहमियं लक्ष्मीरेते वयमियं सुता । सर्वं चाऽन्यत् तवाऽऽयत्तं स्वायत्ते प्रार्थनाऽपि का? ॥१२८|| इत्युक्तो मुदितः कृष्णः समुद्रविजयाय तत् । गत्वाऽऽचख्याववादीच्च समुद्रविजयोऽप्यदः ॥१२९।। भक्तिः पितषु ते वत्स ! वात्सल्यं भ्रातृषूच्चकैः । भोगाभिमुख्यं यन्नेमेरकार्षीनः प्रमोदकृत् ॥१ इयत्कालं मनस्येव लीनो नोऽभून्मनोरथः । अरिष्टनेमिर्यत्कन्याविवाहमनुमंस्यते ॥१३१।। १. अद्यैका० खं० १ । २. वंडमात्र० मु० । वांढो-वंठेलो इति भाषायाम् । ३. किं मन्ये खं० १, सू० । ४. ब्रह्मचर्य-संयमः । ५. सकोपमिव मु० । ६. पाणिग्रहणकर्मणि पा० मु०, ०कर्मणा खं० १-२ । ७. अन्यत्व० खं० १, सू० । ८. ०णानुगन्तव्यम० ला० । ९. आत्महितम् । १०. पौर० खं०१-२, ला० सू० । ११. यंदानादिना खं० २ । १२. उग्रसेनः । १३. इत्युक्त्या मु०र०।
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नवमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
अथ क्रोष्टुकिमाहूय समुद्रविजयो नृपः । पप्रच्छ दिवस नेमि राजीमत्योर्विवाहने ॥ १३२ ॥ उवाच क्रोष्टुकिश्चैवं शुभारम्भास्तपात्र्त्यये । न खल्वन्येऽपि युज्यन्ते विवाहस्य तु का कथा ? ॥ १३३ ॥ समुद्रस्तं बभाषेऽथ कालक्षेपोऽत्र नाऽर्हति । नेमिः कथञ्चित् कृष्णेन विवाहाय प्रवर्तितः ॥१३४॥ मा भूद् विवाहप्रत्यूहो नेदीयस्तद्दिनं वद । गान्धर्व इव वीवाहो भूयाद् भवदनुज्ञया ॥ १३५ ॥ विमृश्य क्रोष्टुकिञ्श्चाऽऽख्यद् यद्येवं तद्यदूद्वह ! । श्रावणस्य श्वेतषष्ठ्यां कार्यमेतत् प्रयोजनम् ॥१३६॥ सत्कृत्य क्रोष्टुकिं राजा व्यस्राक्षीत् तं च वासरम् । भोजायाऽऽख्यापयामास ततो द्वावप्यसज्जताम् ॥१३७॥ कृष्णोऽपि द्वारकापुर्यां प्रत्यट्टं प्रतिगोपुरम् । प्रतिगेहं रत्नमञ्चतोरणादीनकारयत् ॥१३८॥ विवाहासन्नदिवसे दशार्हाः सीरि- शार्ङ्गिणौ । श्रीशिवा-रोहिणी-देवक्यादयश्चाऽपि मातरः ॥ १३९ ॥ रेवत्याद्या बलपत्यो भामाद्याश्च हरिप्रियाः । धात्र्यो महत्तराश्चाऽन्यास्तारमारब्धगीतयः ॥ १४० ॥ प्राङ्मुखं स्थापयामासुर्नेमिनाथं महासने । स्नापयामासतुः प्रीत्या स्वयं च बल- शार्ङ्गिणौ ॥ १४१ ॥ बेद्धप्रतिसरं नेमिं करे नाराचधारिणम् । कृत्वा जगाम गोविन्द उग्रसेननिकेतने ॥१४२॥ तत्र राजीमत बालामबालेन्दुसमाननाम् । कृष्णोऽधिवासयामास तेनैव विधिना स्वयम् ॥१४३॥ पुनर्ययौ निजगृहं व्यतिक्रम्य च शर्वरीम् । नेमिं संवाहयामास गन्तुं वैवाहिकौकसि ॥ १४४ ॥ [अथ श्वेतातपत्रेण विभान् श्वेतैश्च चामरैः । सदशश्वेतसंव्र्व्यानो मुक्ताभरणभूषितः ॥१४५॥ क्लृप्ताङ्गरागो गोशीर्षचन्दनेनाऽतिहारिणा । आरुरोहाऽरिष्टनेमिः स्यन्दनं श्वेतवाजिनम् ॥१४६॥ पुरो नेमकुमारस्य कुमाराः कोटिशोऽचलन् । तुरङ्गहेषानिर्घोषैर्बधिरीकृतदिङ्मुखाः ॥१४७|| पार्श्वतो भूभुजोऽभूवन्निभारूढाः सहस्रशः । पृष्ठे दशार्हा गोविन्दो मुशली चाऽवतस्थिरे ॥१४८॥ महार्घ्यशिबिकारूढाः सर्वाश्चाऽन्तः पुरस्त्रियः । चेलुर्मङ्गलगाँयन्योऽपरा अपि वरस्त्रियः ॥१४९॥ एवं महद्धर्ज्या श्रीनेमिः प्रतस्थे राजवर्त्मना । पठद्भिर्मङ्गलान्युच्चैः पुरो मङ्गलपाठकैः ॥ १५०॥ मार्गे गृहा-ट्ट-वेलभीस्थितानां पौरयोषिताम् । दृशो निपेतुः प्रेमार्द्रा नेमौ मङ्गललार्जवत् ॥ १५१ ॥ पौरेर्मिथो दर्श्यमानो वर्ण्यमानश्च सम्मदात् । उपोग्रसेनसदनमाससाद शिवासुतः ॥ १५२ ॥ नेम्यागमतुमुलेन स्तनितेनेव केकिनी । गाढोत्कण्ठाऽभवद् राजीमती राजीवलोचना ॥१५३॥ सख्यस्तामूचिरे भावविदो धन्याऽसि सुन्दरि ! । त्रैलोक्यसुन्दरो यस्या नेमिः पाणि ग्रहीष्यति ॥ १५४॥ नेम्यान्ता यद्यपीह तथाऽप्यत्युत्सुका वयम् । तमायान्तं गवाक्षस्थाः पश्यामः कमलेक्षणे ! || १५५ ॥ मनोगतार्थाभिधानान्मुदिता साऽपि सम्भ्रमात् । राजीमत्यभिगवाक्षं प्रचचाल सखीवृता ॥१५६॥ धम्मिल्लं मालतीगर्भं बिभ्रती सेन्दुमेघवत् । पराभवन्ती नेत्राभ्यां श्रवणोत्तंसपङ्कजे ॥१५७॥ समुक्ताकुण्डलाभ्यां च कर्णाभ्यां जितशुक्तिका । सयवकाधरदला पक्कै बिम्बेव ४ बिम्बिका ॥ १५८॥ "सैनिष्कं बिभ्रती कण्ठं" हेममेखलकम्बुवत् । हाराङ्कितौ च वक्षोजौ चक्रावात्तबिसाविव ॥१५९॥ राजैन्ती पाणिपद्मेनाऽब्जखण्डेनेव निम्नगा । मुष्टिसङ्ग्राह्यमध्य च मान्मथीव धनुर्लता ॥ १६० ॥ सौवर्णफलकेनेव नितम्बेन मनोरमा । रम्भोरुरेणिकाजङ्घा रत्नतुल्यनखावलिः ॥ १६९ ॥
सदशश्वेतवसना सगोशीर्षविलेपना । विमानगर्भे देवीव गवाक्षे निषसाद सा ॥ १६२ ॥ पञ्चभि: [ षड्भिः] कुलकम् ॥ तत्र स्थिता च साऽपश्यद् दूरादपि हि नेमिनम् । प्रत्यक्षमिव कन्दर्पं हृदि कन्दर्पदीपेनम् ॥ १६३॥ निध्यायन्ती दृशा नेमिं सा दध्याविति चेतसा । दुष्प्रापोऽयं वरोऽस्माकं मनसोऽपि न गोचरः || १६४।।
१. ग्रीष्मर्तुगमनानन्तरं, वर्षाऋतौ । २. बद्धं करसूत्रं - कङ्कणं यस्य सः तम् । ३. पूर्णेन्दुसमानमुखाम् । ४. सज्जीकृतवान् । ५. संव्यानं उत्तरीयवस्त्रम् । ६. क्षुप्ताङ्ग० खं० २, ला० सू० । कृष्णाङ्ग० मु० । ७. ०गायिन्यो मु० २० । ८. राजवर्त्मनि ला० मु० । ९. छदिराधारः, छतनो आधार । १०. लाजा: अक्षता: । ११. नेम्यागतो खं० २ । १२. यावक : अधरयो रक्तीकरणार्थं उपयुज्यमानः पदार्थः । १३. बिम्बेन ता० सं० । १४. रक्तफला 'टींडोळा' । १५. सहारम् । १६. कण्ठे मु० । १७. हेम्नो मेखलया युतः शङ्खस्तद्वत् । १८. चक्रो चात्त० खं० १, ला० सू० । बिसधारिणौ चक्रवाकपक्षिणा इव । १९. राजती मु०, खं० २ । २०. पादपद्मे० खं० १ सू० । २१. मध्यं कटिप्रदेशः । २२. ०दीपिनम् खं० २, पा० ला० र० मु० 1
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
एषोऽपि यदि मे भर्ता त्रैलोक्यस्यैकभूषणम् । सम्पद्यते तदा कि मे न पूर्णं जन्मनः फलम् ? ॥१६५॥ यद्यप्ययमिहाऽऽयात: परिणेतुमनाः स्वयम् । तथाऽपि नाऽहं प्रत्येमि कैः पुण्यैः प्राप्यते ह्यसौ ? ॥१६६।। एवं तस्याश्चिन्तयन्त्याः पस्पन्दे दक्षिणेक्षणम् । बाहश्च दक्षिणो जज्ञे सन्तापश्च मनोऽङ्गयोः ॥१६७॥ राजीमती तत्सखीनामाचख्यौ गद्गदाक्षरम् । नेत्राभ्यामश्रु वर्षन्ती धारागृहवधूरिव ॥१६८॥ सख्योऽप्यूचुः सखि ! शान्तं पापं हतममङ्गलम् । सकला: कुलदेव्यस्ते भवन्तु शिवतातयः ॥१६९।। धीरा भव वरस्तेऽसावागात् पाणिग्रहोत्सुकः । अनिष्टचिन्ता ते केयं वर्तमाने महोत्सवे ? ॥१७०।। पाशुश्राव नेमिश्चाऽऽगच्छन् प्राणिनां करुणस्वरम् । किमेतदित्यपृच्छच्च संविदानोऽपि सारथिम् ॥१७१॥
अथाऽऽख्यत् सारथिर्नाथ ! किं न जानास्यमी हि ते । विवाहे भोज्यसात् कर्तुं नाना प्राणिन आहृताः ॥१७२।। मेषादयो भूमिचरास्तित्तिर्याद्या नभश्चराः । ग्राम्या आटविकाश्चाऽमी स्वामिन् ! यास्यन्ति पञ्चताम् ॥१७३।। आरक्ष रक्ष्यमाणाश्च सन्त्यमी वाटकान्तरे । आरटन्तः प्राणभयं सर्वेषां हि महद्भयम् ॥१७४|| ततो नेमिर्दयावीरो बभाषे निजसारथिम् । यत्रैते प्राणिनः सन्ति स्यन्दनं नय तत्र मे ॥१७५।। तथैव सारथिश्चके ददर्श भगवानपि । विविधान् प्राणिनः प्राणापहारचकितात्मनः ॥१७६।। ग्रीवायां रज्जुभिर्बद्धाः केऽपि केऽपि च पादयोः । केऽपि क्षिप्ताः पञ्जरान्तः केऽपि पाशेषु पातिताः ॥१७७॥ उन्मुखा दीननयना वेपमानशरीरकाः । ते प्रेक्षाञ्चक्रिरे नेमि प्रीणकं दर्शनादपि ॥१७८।। पाहि पाहीति ते नेमिं स्वस्वभाषाभिरब्रुवन् । तांश्च सारथिमाज्ञाप्य नेमिनाथोऽप्यमोचयत् ॥१७९।। स्वं स्वं स्थानं ततस्तेषु गतेषु प्राणिषु प्रभुः । रथं निवर्तयामास पुनर्निजगृहं प्रति ॥१८०॥
वा समद्रविजयः कष्णो रामोऽपरेऽपि हि । विहाय स्वस्वयानानि नेमिनः पुरतोऽभवन् ॥१८॥ शिवा-समुद्रविजयाँवूचाते साश्रुलोचनौ । कस्मादकस्मादप्यस्माद् विनिवृत्तस्त्वमुत्सवात् ॥१८२।। नेमिरप्यब्रवीदेते प्राणिनो बन्धनैर्यथा । बद्धास्तथा वयमपि तिष्ठामः कर्मबन्धनैः ।।१८३।। यथैषां बन्धनान्मोक्षः कृतस्तद्वत्तमात्मनः । कर्तुं दीक्षामुपादास्ये सौख्याद्वैतनिबन्धनम् ॥१८४॥ तन्नेमिवचनं श्रुत्वा तौ द्वावपि मुमूर्छतुः । रुरुदुर्यदव: सर्वेऽप्यनुद्वानविलोचनाः ॥१८५।। शिवा-समद्रविजयौ समाश्वास्य जनार्दनः । रुदितं च प्रतिषिध्य बभाषेऽरिष्टनेमिनम् ॥१८६।। मम रामस्य तातानां सदा मान्योऽसि मानद ! । रूपं निरुपमं चेदं यौवनं च नवं तव ॥१८७।। किं च साऽपि स्नुषा राजीमती राजीवलोचना । तवाऽनुरूपा तद् ब्रूहि किं ते वैराग्यकारणम् ? ॥१८८॥ ११ये चैते पशवो दृष्टींस्त्वया तेऽपि हि मोचिताः । पितॄणां बान्धवानां च तत्पूरय मनोरथम् ॥१८९॥ पितरौ शोकनिर्मग्नौ न ह्युपेक्षितुमर्हसि । तत्राऽपि हि कुरु भ्रातः ! सर्वसाधारणी कृपाम् ॥१९०||
प्रीणिताः प्राणिनो दीना यथैते भवता तथा । भ्रातृन् प्रीणय रामादीनपि स्वोद्वाहदर्शनात् ॥१९॥ पाअथोचे भगवान्नेमिः पित्रोः शोकस्य कारणम् । न किञ्चिदपि पश्यामि भवतां चाऽपि बान्धर्व! ॥१९२॥
वैराग्यकारणं मे तु चतुर्गतिरयं भवः । दुःखान्येवाऽनुभूयन्ते यत्रोत्पन्नैः शरीरिभिः ।।१९३।। भवे भवे च पितरौ भ्रातरोऽन्येऽपि चाऽभवन् । न कोऽपि कर्मदायोदः स्वयं स्वं कर्म भुज्यते ॥१९४|| छिद्यते दुःखमन्यस्य यद्यन्येन हरे ! तदा । पित्रोरथे प्रदीयेरन् प्राणा अपि विवेकिना ॥१९५॥ परं जन्तुर्जरा-मृत्युप्रायदःखानि सत्स्वपि । पुत्रादिषु स्वयं भुङ्क्ते त्राता कोऽपि न कस्यचित् ॥१९६।। दृष्टेरानन्दमात्रं चेत् पुत्रास्तातस्य सन्ति तत् । विनाऽपि मां महानेमिप्रमुखाः सुखहेतवः ॥१९७।।
जरत्पान्थ इवाऽहं तु संसाराध्वगतागतैः । खिन्नोऽस्मि प्रयतिष्ये तच्छेदे तद्धेतुकर्मणाम् ॥१९८॥ १. क्षेमङ्कराः । २. सम्यग्जानन्नपि । ३. प्रीणन्तं खं० १ । ४. तं स्वसारथि० खं० २ । ५. सारथिनाज्ञाप्य ला० सू० । ६. ०प्यमोचत खं० २ । ७. १८१ श्लोकः खं० २ न । ८. विजयौ बुवाते खं०१, सू० । ९. कर्मबन्धात् तथाऽऽत्मनः मु० । तं मोक्षम् । १०. दीक्षा ग्रहीष्येऽहं खं० २।११. अनुदानानि आाणि विलोचनानि येषां ते । ०प्यनुद्धतविलो० मु. । १२. यच्चैते ता०सं०छा०पा०ला० । यथैते खं० २. । १३. बद्धा० खं० २ । १४. बान्धवाः ! खं० १. सू० । १५. कर्मसु भागग्राही । १६. यदन्येन मु० र० । १७. हेतवे ला० । १८. वृद्धप्रवासी। -
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नवमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कर्मच्छेदः परिव्रज्यां विना न खलु साध्यते । तामेवाऽहं तदादास्ये मा निर्बन्धं वृथा कृथाः ॥१९९।। समुद्रविजयोऽथोचे वत्स ! गर्भे श्वरो ह्यसि । सुकुमार शरीरश्च कथं कष्टं सहिष्यसे ? ॥२००॥ ग्रीष्मकालातपा घोराः सोढव्याः सन्तु दूरतः । विनाऽऽतपत्रमन्यर्तुतापा अपि सुदुःसहाः ।।२०१।।
क्षुत्-पिपासादयः सोढुं शक्यन्ते नेतरैरपि । किं पुनर्भवता तात ! सुरभोगार्हवर्मणा ? ।।२०२।। पाअथाऽवदन्नेमिनाथः किमिदं दुःखमुच्यते । उत्तरोत्तरदुःखौघानारकान् जानतां नृणाम् ? ॥२०३।।
आसाद्यते तपोदुःखैर्मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः । विषयप्रभवैः सौख्यैर्नरकोऽनन्तदुःखदः ॥२०४।। स्वयं विमृश्य तद् ब्रूत किं कर्तुं युज्यते नृणाम् ? । सर्वोऽपि विमृशन् वेत्ति विमृशेद् विरल: पुनः ॥२०५।। तच्छ्रुत्वा पितरौ कृष्णोऽन्येऽपि रामादयोऽविदन् । प्रव्रज्यानिश्चयं नेमे रुरुदुश्चोच्चकैःस्वरम् ॥२०६।। स्वजनस्नेहनिगडांस्त्रोटयन्नेमिकुञ्जरः । सारथिप्रेरितरथो ययावथ निकेतनम् ॥२०७।। पाज्ञात्वा च समयं तत्राऽभ्येयुलॊकान्तिकामराः । नेमिं नत्वा च ते प्रोचुर्नाथ ! तीर्थं प्रवर्तय ॥२०८।।
द्रविणैर्वासवादिष्ट-जुम्भकामरपूरितैः । प्रारेभे वार्षिकं दानं प्रदातुं भगवानपि ॥२०९।। पाव्यावृत्तं नेमिनं दृष्ट्वा श्रुत्वा च व्रतकाङ्क्षिणम् । राजीमत्यपतत् पृथ्व्यां वल्लीवाऽऽकृष्टपादपा ॥२१०।। तां सख्यः सिषिचुर्भीताः शीताम्भोभिः सुगन्धिभिः । अवीजयन् व्यजनैश्च कदलीदलनिर्मितैः ।।२११।। अवाप्तसंज्ञा चोत्थाय कपोललुलितालका । अश्रुधारातिम्यमानकञ्चुका विललाप सा ॥२१२।। नाऽऽसीन् मनोरथोऽप्येष यन्नेमिः स्याद् वरो मम । केनाऽस्यभ्यथितो दैव!? यन्नेमिमें वरः कृतः ॥२१३।। विपरीतं कुतोऽकार्षीरकाण्डे दण्डपातवत् ? । एकस्त्वमसि मायावी त्वं च विश्वासघातकः ॥२१४।। यद्वेदं प्रागपि ज्ञातं स्वभाग्यप्रत्ययान्मया । क्वाऽयं जगत्रयोत्कृष्टो वरो नेमिरहं क्व च ? ॥२१५॥ आत्मनोऽननुरूपाऽहं ज्ञाता नेमे ! त्वया यदि । तत्प्रपद्य विवाहं मे जनितः किं मनोरथः ? ॥२१६॥ जनयित्वा च किं भग्नः स्वामिन् ! मम मनोरथः ? । महतां प्रतिपन्नं हि यावज्जीवमपि स्थिरम् ॥२१७।। प्रतिपन्नाद् भवन्तोऽपि चलन्ति यदि तत्प्रभो! । मर्यादां लयिष्यन्ति निश्चितं जलराशयः ॥२१८।। यद्वा तवाऽपि नो दोषो दोषो मत्कर्मणामयम् । भवत्पाणिगृहीतीत्वं वचसैव यदासदम् ॥२१९।। चारु मातृगृहं दिव्यमण्डपो रत्नवेदिकाः । विवाहायाऽऽवयोरन्यदप्येतदभवन्मुधा ॥२२०॥ धवलैर्गीयते यत् तन्न सर्वं सत्यमीदशी । सत्योक्तिस्त्वं हि मे भर्ता गीतोऽस्यादौ न चाऽभवः ।।२२।। किं 'युग्मिनां विघटनमकार्षं पूर्वजन्मनि ? । पाणिस्पर्शसुखमपि यत् पत्यु ऽहमाप्नुवम् ॥२२२॥ विलपन्तीति सा जघ्ने हस्ताब्जाभ्यामुरःस्थलम् । हारं च त्रोटयमास स्फोटयामास कङ्कणे ॥२२३।। सख्यस्तामचिरेऽथैवं विषादं सखि ! मा कृथाः । कस्तेन तवं सम्बन्धः कार्यं वा तेन किं तव? ॥२२४।। निःस्नेहो नि:स्पृहो लोकव्यवहारपराङ्मुखः । गृहवासात् सदा भीरुर्वसतेर्वन्यजीववत् ॥२२५।। निर्दाक्षिण्यो निष्ठुरश्च स्वैरी वैरीव नन्वयम् । यातश्चेद्यातु तन्नेमिः साधु ज्ञातोऽधुनैव हि ।।२२६।। यासौ परिणीय त्वां भवेदेवं हि निर्ममः । कूपे प्रक्षिप्य ते वर्तिकर्तनं स्यात् तदा कृतम् ॥२२७।। अन्येऽपि यदुकुमारा भूयांसः सन्ति सद्गुणाः । प्रद्युम्न-शाम्बप्रमुखास्तेष्वस्तु रुचितो वरः ।।२२८॥ त्वं हि सङ्कल्पमात्रेण दत्ताऽभूः सुभ्र ! नेमये । कन्यैवाऽसि तदद्याऽपि मुग्धे ! तदपरिग्रहात् ॥२२९।। पाराजीमती सकोपोचे सख्यः ! किमिदमुच्यते । अस्मत्कुलकलङ्काय कुलटाकुलसन्निभम् ? ॥२३०॥ नेमिर्जगत्त्रयोत्कृष्टः कोऽन्यस्तत्सदृशो वरः? । सदृशो वाऽस्तु किं तेन? कन्यादानं सकृत् खलु ॥२३१।। मया वृतश्च मनसा वचसा च सह
धेनाऽप्यस्मि प्रपन्ना तेन गेहिनी ।।२३२॥ १. गर्भश्रीमान् । २. सुकुमाल० खं० । ३. शरीरेण । ४. पश्चाद्वलितम् । ५. अश्रुधारया आर्द्र कञ्चुकं यस्याः सा १ । ६. एष त्वमसि ला० पा० की० । ७. यद्येवम् ला० मु० । ८. समुद्रः । ९. भवत: नेमे: पत्नीत्वम् । १०. मांह्यरुं इति भाषायाम् । ११. गीतोऽप्यादौ ला० । १२. युगलानाम् । १३. मानवम् मु० र० । १४. कङ्कणम् खं० २ । १५. ०रे सैवं मु० । १६. सह मु० पु० । १७. गृहे खं० २ । १८. योऽसौ प्राक् ला० । १९. रज्जुकर्तनम् । २०. वृष्णिभूः खं० १ । २१. गुरूपरोधिना० मु० र० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
पर्यणैषीन्न मां सोऽद्य चेत् त्रैलोक्यवरो वरः । भोगैरपि कृतं तर्हि प्रकृत्याऽनर्थहेतुभिः ॥ २३३ ॥ न स्पृष्टा पाणिना तेन यद्यप्युद्वाहकर्मणि । पाणिः स्प्रक्ष्यति तस्यैव व्रतदानकृतेऽपि माम् ॥२३४॥ इत्थं कृतप्रतिज्ञा सा प्रतिषिध्य सखीजनम् । कालं निनाय ध्यायन्ती नेमिमेवोग्रसेनजा ॥ २३५ ॥ इतश्च भगवान्नेमिर्ददौ दानं दिने दिने । रुरुदुश्च समुद्राद्या बाला इव सवेदनाः ॥ २३६ ॥ राजीमत्याः प्रतिज्ञां तां जनात् ज्ञानत्रयादपि । विदाञ्चकार भगवान्निर्ममोऽस्थात् तथापि हि ॥ २३७॥ ददौ च वार्षिकं दानं निर्निदानं जगद्गुरोः । दीक्षाभिषेकं चकुच शक्राद्या नाकिनायकाः ॥ २३८॥ नाम्नोत्तरकुरौ रत्नशिबिकायां शिवासुतः । आरुरोहोह्यमानायां सुरैर्नरवरैरपि ॥२३९॥ चामरे तत्र दधाते शक्रेशानौ पुरः प्रभोः । छत्रं सनत्कुमारस्तु माहेन्द्रः खड्गमुत्तमम् ॥२४०|| ब्रह्मेन्द्रो दर्पणं पूर्णकुम्भं लान्तकवासवः । स्वस्तिकं च महाशुक्रः सहस्त्रार : शरासनम् ॥ २४१॥ श्रीवत्सं प्राणताधीशो नन्द्यावर्तं तथाऽच्युतः । चमराद्यास्तु शेषेन्द्रा बभूवुः शस्त्रधारिणः || २४२ || पितृभिर्मातृभी राम-कृष्णाद्यैश्च समावृतः । प्रतस्थे भगवान् राजपथेनाऽथ महामनाः ॥२४३॥ स्वगृहाभ्यर्णमायातो राजीमत्येक्षितः प्रभुः । सद्यो नवीभूतशुच साऽमूर्छच्च मुहुर्मुहुः ॥२४४|| ततश्च प्रययौ नेमिरुज्जयन्ताद्रिभूषणम् । सहस्राम्रवणं नामोपवनं नन्दनोपमम् ॥२४५॥ आविष्कृतस्मितमिव प्रोन्मीलन्नवकेतकैः । गलितैर्जम्बुभिर्नीलबद्धोर्वीकमिवाऽभितः ॥ २४६ ॥ कदम्बपुष्पपर्यङ्कशयानोन्मत्तषट्पदम् । उद्बर्हबर्हिणाऽऽरब्धकेकाव्याकुलताण्डवम् ॥२४७॥ स्मरास्त्रागारसदृशस्फुटत्कुटजकाननम् । मालतीयूथिकामोदपर्यस्तपथिकम् ॥ २४८॥ प्रविश्योद्यानमुत्तीर्य शिबिकाया: शिवात्मजः । यन्मुमोचाऽऽभरणादि प्रादात्तद्धये हरिः ॥ २४९ ॥ चतुर्भिः कलापकम् । त्रिशत्यां जन्मतोऽब्दानामतीतायां शिवात्मजः । श्रावणस्य श्वेतषष्ठ्यां पूंर्वाहणे त्वष्ट्रविधौ ॥२५०॥
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कृतषष्ठः कचोत्पाटं विदधे पञ्चमुष्टिकम् । केशान् शक्रः प्रतीयेष स्कन्धे दृष्यं न्यधाद् विभोः ॥ २५१॥ युग्मम् ॥ प्रक्षिप्य केशान् क्षीराब्धौ शक्रः पुनरुपेत्य च । न्यषेधत् तुमुलं सामायिकं च प्रभुराददे ॥२५२॥ मन:पर्ययसंज्ञं च जज्ञे ज्ञानं जगद्गुरोः । तदा सुखं समुत्पेदे नारकाणामपि क्षणम् ॥२५३॥ अनुनेमिकुमारं च सहस्रं प्राव्रजन्नृपाः । शक्रकृष्णादयो नेमिं नत्वा चाऽगुः स्वमाश्रमम् ॥२५४॥ [अर्थ गोष्ठे द्वितीयेऽह्नि वरदत्तद्विजौकसि । पारणं परमान्नेन चकार परमेश्वरः ॥२५५॥ वृष्टिं 'गन्धाम्बु-पुष्पाणां गम्भीरं दुन्दुभिध्वनिम्' । चेलोत्क्षेपं वसुधारां विदधुविबुधास्तदा ॥ २५६॥ ततो विहर्तुमन्यत्र घातिकर्मक्षयोद्यतः । नेमिनाथः प्रववृते निवृत्तः कर्मबन्धनात् ॥ २५७॥ |इतश्च नेमेरनुजो रथनेमिः स्मरातुरः । जज्ञे राजीमतीं पश्यन्निन्द्रियाणां वशंवदः ॥ २५८ ॥ सोऽपूर्वैर्वस्तुभी राजीमर्ती नित्यमुपाचरत् । तद्भावाविदुरा साऽपि मुग्धा न निषिषेध तम् ॥२५९॥ भ्रातृस्नेहादुपास्तेऽसौ नित्यं मामित्यमंस्त सा । ममोपचारं रागेण गृह्णात्येषेति सोऽपि हि ॥२६०|| ययौ च तुच्छधीर्नित्यं राजीमत्याः स वेश्मनि । भ्रातुर्जायापदेशेन तस्यां नर्म चकार च ॥ २६९ ॥ रह:स्थितामन्यदा तां रथनेमिरदोऽवदत् । मुग्धे ! परिणयामि त्वां यौवनं मा मुधा नय || २६२|| भोगानभिज्ञो मद्बन्धुस्त्यक्तवांस्त्वां मृगाक्षि ! यत् । स एव वञ्चितो भोगसुखानां किं गतं तव ? || २६३|| प्रार्थ्यमानोऽपि नाऽभूत् ते स वरो वरवर्णिनि ! । अहं प्रार्थयमानस्त्वामस्ति पश्याऽन्तरं महत् ॥२६४|| हेतुं पूर्वोपचाराणां तेन भावेन तस्य सा । तदानीमेव चाऽबोधि स्वभावसरलाशया ॥ २६५ ॥ बोधयामास सा तं च धर्मज्ञी धर्मशंसनात् । तस्मादध्यवसायात् तु न व्यरंसीत् स दुर्मतिः ॥ २६६ ॥
(अष्टमं पर्व
१. त्रैलोक्यैकवरो० मु०र० । २. जगद्गुरुः खं० २ विना । ३. देवनायकाः । ४. धनुः शरावकं वा । ५. राज्य० खं० २ । ६. पुनरुद्भूतशोकेन । ७. कृष्णाय । ८. इन्द्रः । ९. प्रथमप्रहरे । १०. चित्रानक्षत्रे गते चन्द्रे । ११. निषेध्य ला० । १२. शक्रः कृष्णा० मु० २० । १३. अथागात् स द्वि० खं० १; अथाभ्यगात् द्वि० सू०; गोष्ठं गवां स्थानम् । १४ तद्भावमजानती । १५. सुखेभ्यः ला० । १६. वृष्णिसू० खं० २ ।
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श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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अन्येधुर्दुग्धमाकण्ठं पपौ राजीमती सुधीः । तत्राऽऽयाते तु मंदनफलं जघ्रौ च वान्तिकृत् ॥२६७।। ऊचे च रथनेमिं सा स्थालमानय काञ्चनम् । सोऽप्यानिनाय सा तत्र पीतदुग्धं ववाम च ॥२६८।। रथनेमे ! पिबेदं त्वमित्युवाचोग्रसेनजा । सोऽभ्यधात् किमहं श्वाऽस्मि वान्तपानाय वक्षि यत् ।।२६९।। साऽप्यब्रवीदपातव्यमिदं त्वमपि वेत्सि किम्? । सोऽवोचत् केवलो नाऽहं बाला अपि विदन्त्यदः ॥२७०।। राजीमती जगादाऽथ यदि जानासि तर्हि रे ! । नेमिनाथेन वान्तां मामुपभोक्तुं किमिच्छसि ? ॥२७१।। तस्य भ्राताऽपि भूत्वा त्वं कथमेवं चिकीर्षति ? । माऽतः परमिदं वादीनरकायुर्निबन्धनम् ॥२७२।। एवं तयोक्तस्तुष्णीको हीणः क्षीणमनोरथः । रथनेमिनिजं धाम जगाम विमनायितः ॥२७३।। राजीमती च श्रीनेमावनुरागपरायणा । संविग्ना गमयन्त्यस्थाद् वासरान् वर्षसन्निभान् ॥२७४।। पानेमिनाथोऽपि हि चतुःपञ्चाशद्वासरी व्रतात् । विहृत्याऽऽगाद् रैवतके सहस्त्रामवणे वने ॥२७५।। वेतसस्य तले तत्र ध्यानान्तरविवर्तिनः । श्रीनेमेरष्टमस्थस्य घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥२७६।। आश्विनस्याऽमावास्यायां पूर्वाह्ने त्वाष्ट्रगे विधौ । केवलज्ञानमुत्पेदे स्वामिनोऽरिष्टनेमिनः ॥२७७।। सद्यः सुरेन्द्राश्चलितासनास्तत्र समाययः । चक्रः समवसरणं प्राकारत्रयभूषितम् ॥२७८॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण विशेधन्वशतोनतम् । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः ॥२७९।। 'तीर्थाय नमः' इत्युक्त्वा द्वाविंशः सोऽथ तीर्थकृत् । पूर्वसिंहासने पूर्वाभिमुंखं समुपाविशत् ॥२८०॥
श्रीनेमेः प्रतिरूपाणि दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । रत्नसिंहासनस्थानि विचक्रुर्व्यन्तरामराः ।।२८१।। पाअथ तस्थुर्यथास्थानं देवा देव्यश्चतुर्विधाः । दत्तेक्षणा: स्वामिमुखे चकोरा इव शीतगौ ॥२८२।। तथा च समवसृतं स्वामिनं शैलपालकाः । गत्वाऽऽचख्युः स्वनाथाय देवकीतर्नुजन्मने ॥२८३।। रूप्यस्य द्वादश कोटी: सार्धास्तेभ्यः प्रदाय सः । प्रचचाल गजारूढो नेमिनाथं विवन्दिषुः ।।२८४।। समं दशाहेर्दशभिर्मातृभिर्भ्रातृभिस्तथा । कोटिसङ्ख्यैः कुमारैश्च समग्रान्तःपुरेण च ॥२८५।। महीभुजां षोडशभिः सहस्त्रैश्च समावृतः । ऋद्ध्या महत्या समवसरणं प्रययौ हरिः ॥२८६।। दूरादप्यवरुह्येभाद् राज्यचिह्नान्यपास्य च । उदग्द्वारेण समवसरणे प्राविशद् हरिः ॥२८७।। तत्र प्रदक्षिणीकृत्य नेमिं नत्वा च शार्गभृत् । अनुशक्रं निषसाद यथास्थानमथाऽपरे ॥२८८।। इन्द्रोपेन्द्रौ पुनर्नत्वा जिनेन्द्रमथ नेमिनम् । प्रारेभाते स्तोतुमेवं गिरा भक्तिपवित्रया ॥२८९।। पा"नमस्तुभ्यं जगन्नाथ ! विश्वविश्वोपकारिणे । आजन्म ब्रह्मनिष्ठाय दयावीराय तायिने ।।२९०।। दिष्ट्या कर्माणि घातीनि स्वामिन् ! घातितवानसि । शुक्लध्यानेन दिवसैश्चतुःपञ्चाशताऽपि हि ।।२९१।। न केवलं यदुकुलं त्वया नाथ ! विभूषितम् । इदं जगत्त्रयमपि केवलालोकभास्वता ॥२९२।। अस्ताघो यस्तथा स्वामिन्नपारश्च भवाम्बुधिः । गुल्फगोष्पदमात्रं स स्यात् त्वत्पादप्रसादतः ॥२९३|| सर्वस्य भिद्यते स्वान्तं ललनाललितैः प्रभो ! । अभेद्यो वज्रहृदयस्त्वत्तो नाऽन्यो जगत्यपि ॥२९४।। त्वयि व्रतनिषेधिन्यो बन्धूनां ता गिरोऽधुना । भवन्ति पश्चात्तापाय तवद्धि पश्यतामिमाम् ॥२९५।। दंराग्रहैबन्धुवगैदिष्ट्या न स्खलितस्तदा । जगत्पुण्यैरस्खलितोत्पन्नकेवल ! पाहि नः ।।२९६।। यत्र तत्र स्थितस्याऽपि यद्वा तद्वाऽपि कर्वतः । त्वमेवं देव ! हृदये भूयाः किमपरेण मे?" ॥२९७। इति स्तुत्वा विरतयोस्तत्रेन्द्रोपेन्द्रयोः प्रभुः । सर्वभाषानुगगिरा प्रारेभे धर्मदेशनाम् ।।२९८।। "विद्युद्विलासचपलाः श्रियः सर्वशरीरिणाम् । संयोगा विप्रयोगान्ताः स्वप्नप्राप्तार्थसन्निभाः ॥२९९॥ गत्वरं यौवनमपि मेघच्छायासहोदरम् । अम्बुबुद्बुदकल्पानि वपूंष्यपि वपुष्मताम् ।।३००।।
तस्मादसारे संसारे सारमत्र न किञ्चन । सारं तु दर्शन-ज्ञान-चारित्रपरिशीलनम् ॥३०१॥ १. रथनेमौ आगते सति । २. भाषायां 'मिंढल' इतिख्यातम् । ३. वान्ति० ला० । ४. नाऽत: सू० । ५. नेमेः देहं १० धनुःप्रमाणं तद्द्वादृशगुणं १२० धनुःप्रमाणं चैत्यवृक्षस्य । ६. ०शतोन्नति खं० १, सू० । ७. पूर्वाभिमुखः खं० १, सू० विना । ८. कृष्णाय । ९. रौप्यस्य ता०सं० । १०. सः खं० १ । ११. अगाधः । १२. पुराग्रहै: ला० । १३. ०परिपालनम् मु० ।
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१२८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
तत्त्वानां श्रद्दधानत्वं सम्यग्दर्शनमुच्यते । यथावस्थिततत्त्वावबोधो ज्ञानं प्रकीर्तितम् ॥३०२।। सावद्ययोगविरतिश्चारित्रं मुक्तिकारणम् । सर्वात्मना यतीन्द्राणां देशतः स्यादगारिणाम् ॥३०३।। देशचारित्रनिरतो विरतानामुपासकः । भवस्वरूपं जानानः श्रावको जीवितोवधिः ॥३०४।। मद्यं मांसं नवनीतं मधूदुम्बरपञ्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥३०५।।
आमगोरससम्पृक्तद्विदलं पुष्पितौदनम् । दध्यहर्द्वितयातीतं कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥३०६।। पामदिरापानमात्रेण बुद्धिर्नश्यति दूरतः । वैदग्धीबन्धुरस्याऽपि दौर्भाग्येणेव कामिनी ॥३०७॥ पापाः कादम्बरीपानविवशीकृतचेतसः । जननी हा ! प्रियीयन्ति जननीयन्ति च प्रियाम् ॥३०८॥ न जानाति परं स्वं वा मद्याच्चलितचेतनः । स्वामीयति वराक: स्वं स्वामिनं किङ्करीयति ॥३०९।। मद्यपस्य शबस्येव लुठितस्य चतुष्पथे । मूत्रयन्ति मुखे श्वानो व्यात्ते विवरशङ्कया ॥३१०॥ मद्यपानरसे मग्नो नग्नः स्वपिति चत्वरे । गूढं च स्वमभिप्रायं प्रकाशयति लीलया ॥३११।। वारुणीपानतो यान्ति कान्ति-कीर्ति-मति-श्रियः । विचित्राश्चित्ररचना विलुठत्कज्जलादिव ॥३१२॥ भूतात्तवन्नरीनति रारटीति सशोकवत् । दाहज्वरातवद् भूमौ सुरापो लोलुठीति च ॥३१३॥ विदधत्यङ्गशैथिल्यं ग्लपयन्तीन्द्रियाणि च । मूर्छामतुच्छां यच्छन्ती हीला हालौहलोपमा ॥३१४॥ विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्वं तृण्या वह्निकणादिव ॥३१५।। रसोद्भवाश्च भूयांसो भवन्ति किल जन्तवः । तस्मान्मद्यं न पातव्यं हिंसापातकभीरुणा ॥३१६॥ दत्तं न दत्तमात्तं च नाऽऽत्तं कृतं च नो कृत मुंषोधराज्यादिव हा ! स्वैरं वदति मद्यपः ॥३१७|| गृहे बहिर्वा मार्गे वा परद्रव्याणि मूढधीः । वध-बन्धादिनिर्भीको गृह्णात्याच्छिद्य मद्यपः ॥३१८।। बालिकां युवतीं वृद्धां ब्राह्मणी श्वपचीमपि । भुङ्क्ते परस्त्रियं सद्यो मद्योन्मादकदर्थितः ॥३१९॥ रटन् गायन् लुठन् धावन् कुप्यंस्तुष्यन् रुदन् हसन् । स्तभ्नन्नमन् भ्रमंस्तिष्ठन् सुरापः पापण्नटः ॥३२०॥ पिबन्नपि मुहुर्मद्यं मद्यपो नैव तुष्यति । जन्तुजातं कवलयन् कृतान्त इव सर्वदा ॥३२१॥ दोषाणां कारणं मद्यं मद्यं कारणमापदाम् । रोगातुर इवाऽपथ्यं तस्मान्मद्यं विवर्जयेत् ॥३२२॥ पाचिखादिषति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसौ मूलं दयाख्यं धर्मशाखिनः ॥३२३॥
अशनीयन सदा मांसं दयां यो हि चिकीर्षति । ज्वलति ज्वलने वल्ली स रोपयितमिच्छति ॥३२४|| हन्ता पलस्य विकेता संस्कर्ता भक्षकस्तथा । केताऽनुमन्ता दाता च घातकाः सर्व एव ते ॥३२५॥ ये भक्षयन्त्यन्यपलं स्वकीयपलेपुष्टये । त एव घातका यन्न वधको भक्षकं विना ॥३२६॥ मृष्टान्नान्यपि विष्ठाँसादमृतान्यपि मूसात् । स्युर्यस्मिन्नङ्गकस्याऽस्य कृते क: पापमाचरेत् ? ॥३२७।। मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनं देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिः शाकिन्या इव दुर्धियः ॥३२८।। ये भक्षयन्ति पिशितं दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य भुञ्जते ते हलाहलम् ॥३२९॥ न धर्मो निर्दयस्याऽस्ति पलौदस्य कुतो दया । पललुब्धो न तद्वेत्ति विद्याद्वोपदिशेन्नहि ॥३३०॥ नाऽन्यस्ततो गतघृणो नरैकार्चिष्मदिन्धनम् । स्वमांसं परमांसेन यः पोषयितुमिच्छति ॥३३१॥
शुक्र-शोणितसम्भूतं विष्ठारसविवधितम् । लोहितं स्त्यानतामाप्तं कोऽश्नीयादकृमिः पलम् ? ॥३३२।। १. श्रद्दधानं च खं० २। २.०तत्त्वानां बोधो मु० २० । ३. जीवितावधि मु० । ४. ०सम्पृक्तं द्वि० खं० २, ला०सू० । ५. विदग्धस्यापि । ६. मदिरा, ७. प्रियायन्ति खं० २। प्रियामिव आचरन्ति। ८. जननीमिवाचरन्ति। ९. ३०५ तः ३१३ पर्यन्ता: श्लोकाः 'योगशास्त्रे तृतीयप्रकाशे लभ्यन्ते, ६-१४ । १०. सुरा । ११. विषोपमा । १२. तृणानां समूहः । १३. तदुद्भवा० खं. १, सू० । मदिरोत्पन्नाः । १४. असत्यकथितराज्यादिव। १५. चाण्डालीम् । १६. स्तम्भन्नमन् मु० र० । १७. पापिष्ठः । १८. तृप्यति (यो.शा.तृ.प्र.टी.) । १९. खादितुमिच्छति । २०. अशनमिवाचरन् । २१. कर्तुमिच्छति । २२. अग्नौ । २३. मांसस्य । २४.३१४त: ३२५ पर्यन्ताः श्लोकाः 'योगशास्त्रे' तृतीयप्रकाशेऽपि लभ्यन्ते। २५.०बलपुष्टये खं०२।२६. मिष्टान्नान्यपि यो.शा.तृ.प्र०] । २७. विष्ठात्वेन । २८. मूत्रत्वेन । २९. अङ्गकस्य-शरीरस्य । ३०. विषभेदम्। ३१. मांसोपजीविनः, रक्षसः । ३२. जानीयात् । ३३. नरक एव अग्निः तस्मिन् इन्धनम् । ३४. रक्तम् । ३५. कोऽश्नीयात् कृमिसंकुलम् ला० । ०दकृमिः फलम् खं० १-२ । कृमिरहितोऽन्यः को जन्तुं पलं मांसं अश्नीयात् ।
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नवमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१२९
सद्यः सम्मूछितानन्तजन्तुसन्तानदूषितम् । नरकाध्वनि पाथेयं कोऽश्नीयात् पिशितं सुधीः ? ॥३३३।। पाअन्तर्मुहूर्तात् परतः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । यत्र मूर्च्छन्ति तन्नाऽद्यं नवनीतं विवेकिभिः ।।३३४॥
एकस्याऽपि हि जीवस्य हिंसने किमघं भवेत् ? । जन्तुजातमयं तत् को नवनीतं निषेवते? ॥३३५।। प[अनेकजन्तुसङ्घातनिघातनसमुद्भवम् । जुगुप्सनीयं लालावत् कः स्वादयति माक्षिकम् ? ॥३३६।। भक्षयन्माक्षिकं क्षुद्रजन्तुलक्षक्षयोद्भवम् । स्तोकजन्तुनिहन्तृभ्यः शौनिकेभ्योऽतिरिच्यते ॥३३७॥ एकैककुसुमक्रोडाद्रसमापीय मक्षिकाः । यद् वमन्ति मधूच्छिष्टं तदश्नन्ति न धामिकाः ॥३३८।। अप्यौषधकृते जग्धं मधु श्वर्धनिबन्धनम् । भक्षितः प्राणनाशाय कालकूटकणोऽपि हि ॥३३९।। मधुनोऽपि हि माधुर्यमबोधैरहहोच्यते । आसाद्यन्ते यदास्वादाच्चिरं नरकवेदनाः ॥३४०॥ पाउदुम्बर-वट--प्लक्ष-काकोदुम्बरशाखिनाम् । पिप्पलस्य च नाऽश्नीयात् फलं कृमिकुलाकुलम् ॥३४१।।
अप्राप्नुवन्नन्यभक्ष्यमपि क्षामो बुभुक्षया । न भक्षयति पुण्यात्मा पञ्चोदुम्बरजं फलम् ॥३४२॥ आर्द्रः कन्दः समग्रोऽपि सर्वः किसलयोऽपि च । स्नुही लवणवृक्षत्वक् कुमारी गिरिकर्णिकाः ॥३४३।। शतावरी विरूढानि गुडूची कोमलाम्लिका । पल्यङ्कोऽमृतवल्ली च वल्ल: शूकरसंज्ञितः ॥३४४।। अनन्तकायाः सूत्रोक्ता अपरेऽपि कृपापरैः । मिथ्यादृशामविज्ञाता वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥३४५।। स्वयं परेण वा ज्ञातं फलमद्याद् विशारदः । निषिद्धे विषफले वा मा भूदस्य प्रवर्तनम् ॥३४६।। पाअन्नं प्रेतपिशाचाद्यैः सञ्चरद्भिनिरङ्कुशैः । उच्छिष्टं क्रियते यत्र तत्र नाऽद्याद् दिनात्यये ॥३४७॥ घोरोन्धकाररुद्धाक्षैः पतन्तो यत्र जन्तवः । नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते तत्र भुञ्जीत को निशि? ||३४८।। मेधां पिपीलिका हन्ति युका कुर्याज्जलोदरम । करुते मक्षिका वान्ति कष्ठरोगं च कोलिकः ॥३४ कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥३५०॥ विलग्नश्च गले वाल: स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥३५१।। नाऽप्रेक्ष्यसूक्ष्मजन्तूनि निश्यद्यात् प्रासुकान्यपि । अवश्यं जन्तुसम्पातः सम्भवेदशने तदा ॥३५२।। संसजज्जीवसङ्घातं भुञ्जाना निशि भोजनम् । राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते मूढात्मानः कथं न ते ? ॥३५३।। वासरे च रजन्यां च यः खादन्नेव तिष्ठति । शृङ्ग-पुच्छपरिभ्रष्टः स्पष्टं स पशुरेव हि ॥३५४॥ अह्नो मुखेऽवसानेऽपि यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥३५५।। अकत्वा नियमं दोषांभोजनाद दिनभोज्यपि । फलं भजेन्न निर्व्याजं न वद्धिर्भाषितं विना ॥३५६।। ये वासरं परित्यज्य रजन्यामेव भुञ्जते । ते परित्यज्य माणिक्यं काचमाददते जडाः ॥३५७|| वासरे सति ये श्रेयस्काम्यया निशि भुञ्जते । ते वपन्त्यूषरक्षेत्रे शालीन् सत्यपि पल्वले ॥३५८।। उलूक-काक-मार्जार-गृध्र-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥३५९॥ करोति विरतिं धन्यो यः सदा निशि भोजनात् । सोऽर्धं पुरुषायुषस्य स्यादवश्यमुपोषितः ॥३६०॥ रजनीभोजनत्यागे ये गुणाः परितोऽपि तान् । सद्गतेरेव जनकान् कः सङ्ख्यातुमलं भवेत् ? ॥३६१॥ आमगोरससम्पृक्तद्विदलादिषु जन्तवः । दृश्यन्ते बहवः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥३६२।।
जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं पत्रं चाऽन्यदपि त्यजेत् । सन्धानमपि संसक्तं दयाधर्मपरायणः ।।३६३।। १. न भक्षणीयम् । २. हिंसा न ला० । ३. किं निर्देष्टुमशक्यं पापम् । ४. मधु । ५. सौनिके० खं०१-२, सू० । खट्टिकेभ्यः अधिकीभवति । ६. ३२६तः ३३७ पर्यन्ताः श्लोकाः 'योगशास्त्रे' तृतीयप्रकाशे दृश्यन्ते । ७. भक्षितम् । ८. नरककारणम् । ९. कालकूटं विषं, तस्य कणः । १०. रात्रौ । ११. प्रबलान्धकारनिरुद्धलोचनैः । १२. मर्कटकः, ऊर्णनाभः । १३. ३३८ त: ३४९ पर्यन्ताः श्लोकाः 'योगशास्त्रे' तृतीयप्रकाशे दृश्यन्ते । १३. अप्रेक्ष्याः प्रेक्षितुमशक्याः सूक्ष्मा जन्तवो यत्र तानि । १४. अप्युद्यत्केवलज्ञानैर्नादृतं यन्निशाऽशनम् (योग. तृ०प्र० ५३) । १५. तथा खं० १, ला०सू० । १६. कथं नु र० । १७. दोषा रात्रिः । १८. निश्छद्म । १९. भाषितं 'इदं मे मूलधनं, तदुपरि एतावद् व्याज देयं त्वया' इतिरूपं निश्चयं विना न लभ्यते वृद्धिः कदापीति भावः । २०. अयं श्लोकः । खं० २, की० प्रत्योरेव प्राप्यते । २१. न सर्वज्ञादृते कश्चिदपरो वक्तुमीश्वरः (योग० तृ० प्र०७०)। २२. दृष्टाः केवलिभिः मु० योग० तृ०प्र०च०। २३. सन्धानं-आचारं (अथाणु), संसक्तं-जन्तुसंसक्तम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
एवं दयाप्रधानः सन् भोज्येष्वपि विविक्तधीः । श्रावकोऽपि क्रमयोगात् संसारात् परिमुच्यते" ॥३६४॥ देशनां तां प्रभोः श्रुत्वा वरदत्तो नरेश्वरः । परं संसारवैराग्यमाससाद व्रतोत्सुकः ॥३६५॥ नत्वाऽथ कृष्णः पप्रच्छ सर्वस्त्वय्यनुरागवान् । राजीमत्या विशेषानुरागे किं नाम कारणम् ? ॥३६६॥ ततो धन-धनवतीभवादारभ्य नेम्यपि । तया सह स्वसम्बन्धमाख्यादष्टभवावधि ॥३६७।। पाअथोत्थाय नमस्कृत्य वरदत्तमहीपतिः । कृताञ्जलिर्जगन्नाथं नेमिनाथं व्यजिज्ञपत् ।।३६८।। त्वत्तः श्रावकधर्मोऽपि प्रपन्नः स्यान्महाफलः । जन्तूनां स्वातिनक्षत्रजीमूतादिव पुष्करम् ॥३६९।। परं गुरौ त्वयि प्राप्ते नाऽहं तुष्यामि तावता । को हि कल्पद्रुमे प्राप्ते पत्रमात्रमभीप्सति ॥३७०।। तव प्रथमशिष्यत्वमभीप्सामि प्रयच्छ मे । संसारतारणी दीक्षां दयां कुरु दयानिधे ! ॥३७१।। इत्युक्तवन्तं तं भूपं स्वयं प्रावाजयत् प्रभुः । क्षत्राणां विंशतिशती तदनु प्राव्रजत् तथा ॥३७२।। धनदेव-धनदत्तौ बन्धू धनभवात् तु यौ । अमात्यो विमलबोधोऽपराजितभवात् तु यः ॥३७३।। स्वामिना ते सह भ्रान्ता भवेऽस्मिन् भूभुजस्त्रयः । तत्राऽऽयाता राजीमत्याः प्रसङ्गात् प्राग्भवैः श्रुतैः ॥३७४।। उत्पन्नजातिस्मरणा जातवैराग्यसम्पदः । अरिष्टनेमिपादान्ते तदैवाऽऽददिरे व्रतम् ॥३७५॥ त्रिभिविशेषकम् ।। तैः समं वरदत्तादीनेकादश गणाधिपान् । स्थापयामास विधिवन्नेमिनाथो जगद्गुरुः ॥३७६।। स्वाम्याख्यत्रिपदी तेभ्यो ध्रौव्योत्पाद-व्ययात्मिकाम् । तत्रिपद्यनुसारात् ते द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥३७७।। यक्षिणी राजपुत्री च भूरिकन्यासमावृता । प्राव्रजत् तां तदा स्वामी प्रत्यष्ठाच्च प्रतिनीम् ॥३७८।। दशार्हा उग्रसेनश्च वासुदेवश्च लागली । प्रद्युम्नाद्याः कुमाराश्च श्रावकत्वं प्रपेदिरे ॥३७९।। शिवा-रोहिणी-देवक्यो रुक्मिण्याद्याश्च योषितः । जगृहः श्रावकधर्ममन्याश्च स्वामिसन्निधौ ॥३८०।। एवं समवसरणे तस्मिन् सङ्घः प्रभोरभूत् । चतुर्विधो धर्म इव पृथिवीतलपावनः ॥३८१।। यातप्रथमपौरुष्यां व्यस्राक्षीद् देशनां प्रभुः । द्वितीयपौरुषीं चक्रे वरदत्तस्तु देशनाम् ॥३८२।। भगवन्तं ततो नत्वा वासवाद्या दिवौकसः । कृष्णाद्या भूभुजोऽन्येऽपि स्थानं निजनिजं ययुः ॥३८३।। पातत्तीर्थजन्मा गोमेधख्यास्यः श्यामो नुवाहनः । मातुलिङ्ग-पशु-चक्रधारिदक्षिणदोस्त्रयः ॥३८४।।
क्ति-दक्षिणेतरदोस्त्रयः । स्वामिनो नेमिनो जज्ञे तदा शासनदेवता ॥३८५।। तत्तीर्थजन्मा कूष्माण्डी स्वर्णाभा सिंहवाहना । आम्रलुम्बी-पाशधरें-वामेतरभुजद्वया ।।३८६॥ पुत्रा-ऽङ्कशधरवामकरयुग्माऽभवत् प्रभोः । अम्बिकेत्यभिधानेन भर्तुः शासनदेवता ॥३८७||
ताभ्यां सदाऽधिष्ठितसन्निधानो, व्यतीत्य वर्षाः शरदं च नेमिः । भद्रेभगामी जनभद्रकामी, विहर्तुमन्यत्र ततश्चचाल ॥३८८।।
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये अष्टमे" पर्वणि अरिष्टनेमिकुमारक्रीडादीक्षा-केवलज्ञानोत्पत्तिवर्णनो नाम
नवमः सर्गः ॥
सनकुल
-X
१. ३५० तः ३६३ पर्यन्ता: श्लोकाः ‘योगशास्त्रे' तृ.प्र.दृश्यन्ते । २. जलम् । ३. सह मु० र० । ४. प्रवर्तनीम् खं० २ । ५. दानशील-तप-भावरूप चतुर्विधो धर्मः । ६. त्रिमुखः । ७. ०शूलि० खं० १, सू० । ८. स्वर्णभा खं० २ । ९. पाशधरा ला०सू० । १०. वर्षाशरदां मु० । वर्षाशरदौ (?) । वर्षाशरदं र०स्वी०पाठः । वर्षाऋतुं शरद्ऋतुम् च । ११, ०ऽष्टमपर्वणि मु० । १२. केवलोत्पत्ति० खं० १-२, ला०सू० ।
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॥ दशमः सर्गः ॥
इतश्च पाण्डवाः कृष्णप्रसादात् स्वपुरे स्थिताः । वारकेण प्रमुदिता द्रौपद्या सह रेमिरे ॥१॥ द्रौपद्याश्चाऽन्यदा वेश्मन्याययौ नारदो भ्रमन् । तया त्वविरतोऽसावित्यवज्ञाय न सत्कृतः ॥२॥ भाविनी दुःखभागेषा कथं न्विति विचिन्तयन् । निर्ययौ तद्गृहात् क्रुद्धो विरुद्धो नारदो मुनिः ॥३॥ अत्र कृष्णभयात् तस्या अपश्यन्नप्रियावहम् । जगाम धातकीखण्डभरते नारदस्ततः ॥४॥ तत्र चम्पाजुषो विष्णोः कपिलाख्यस्य सेवकम् । पुर्यां सोऽमरकङ्कायां स्त्रीलोलं पद्ममभ्यगात् ॥५॥ स राजोत्थाय नीत्वाऽन्तःपुरे स्वाः स्त्रीः प्रदर्शयन् । ऊचे नारदमीदृश्यो दृष्टाः किं क्वाऽपि योषितः ? ॥६।। सेत्स्यत्यर्थो ममाऽनेनेत्यामृशन्नारदोऽवदत् । कूपमण्डूकवद् राजन् ! किमेताभिः प्रमोदसे ? ||७|| जम्बूद्वीपस्य भरते नगरे हस्तिनापुरे । पाण्डवानां महिष्यस्ति द्रौपदीति पदं श्रियाम ॥८॥ तस्याः पुरस्तादेता हि चेट्य एवाऽखिला अपि । इत्युदित्वा नारदर्षिरुत्पत्याऽगमदन्यतः ।।९।। पअथेप्सुौपदी पद्मनाभः पातालवासिनम् । तपसाऽऽराधयामास पूर्वसङ्गतिकं सुरम् ॥१०॥ प्रत्यक्षीभूतममरं किं करोमीति वादिनम् । पद्मस्तमूचेऽत्राऽऽनीय द्रौपदी मे समर्पय ॥११॥ सोऽप्याख्यत् पाण्डवान् मुक्त्वा द्रौपदी नान्यमिच्छति । त्वनिर्बन्धादानयामीत्युक्त्वा गजपुरे ययौ ॥१२॥ ततोऽवस्वापनी दत्त्वा प्रसुप्तां द्रौपदी निशि । अपहृत्य समानीयाऽऽर्पयत् पद्माय सोऽमरः ॥१३॥ प्रबुद्धा द्रौपदी तत्राऽप्रेक्षमाणा निजां स्थिंतिम् । किं स्वप्नो वेन्द्रजालं वेत्यामृशद् विधुरा हृदि ॥१४॥ बभाषे पद्मनाभस्तां मा भैषीमंगलोचने ! । आनायिता मयाऽसि त्वं भुझ्व भोगान् मया सह ॥१५॥ द्वीपोऽयं धातकीखण्डोऽमरकङ्का पुरी त्वसौ । राजाऽहं पद्मनाभोऽत्र बुर्भूषुस्तेऽधुना पतिः ॥१६॥ प्रत्युत्पन्नमतिौपद्यूचे मासान्तरे यदि । कोऽपि नैष्यति मदीयः करिष्ये त्वद्वचस्तदा ॥१७॥ अशक्याऽत्राऽऽगतिर्नृणां जम्बूद्वीपजुषामिति । विमृशंस्तद्वचो मेने पद्मश्छद्मपरोऽपि हि ॥१८॥ न भोक्ष्ये मासपर्यन्तेऽप्यहं पतिविनाकृता । द्रौपदीत्यभिजग्राह सतीव्रतमहाधना ॥१९॥ पाण्डवा अप्यपश्यन्तः प्रभाते द्रौपदीं गृहे । भशमन्वेषयामासर्जल-स्थल-वनादिषु ।।२०।। तद्वार्तामपि ते नाऽऽपुस्तन्माताऽऽख्यच्च शागिणे । स एव शरणं तेषां बन्धुश्च "विधुरेषु सः ॥२१॥ कृष्णोऽपि कृत्यमूढोऽस्थाद् यावत् तावत् समाययौ । स नारदमुनिर्द्रष्टुं तमनर्थं स्वयं कृतम् ।।२२।। किं दृष्टा द्रौपदी क्वाऽपीत्यनुयुक्तः स विष्णुना । ऊचेऽगां धातकीखण्डेऽमरकां पुरीमहम् ॥२३॥ तत्र भूपस्य पद्मस्य सद्मनि द्रुपदात्मजाम् । अद्राक्षमहमित्युक्त्वा जगामोत्पत्य सोऽन्यतः ॥२४॥ पबभाषे पाण्डवान् कृष्णः पद्मन द्रौपदी हृता । एष तामाहरिष्यामि मा खिद्यध्वं मनागपि ॥२५।। ततः सपाण्डवो विष्णुर्महानीकसमावृतः । जगाम मागधाभिख्यप्राचीनौम्भोधिरोधसि ॥२६॥ ऊचुश्च पाण्डवाः कृष्णं स्वामिन्नत्यन्तभीषणः । संसार इव चाऽपारः पारावारोऽयमद्धतः ॥२७॥ मग्नास्तिष्ठन्ति कुत्रापि लोष्टुंवत् पर्वता इह । तिष्ठन्ति पर्वतप्रायाण्यत्र यादांसि कुत्रचित् ॥२८॥ कृतशोषप्रतिज्ञश्च वोडवोऽत्रास्ति कुत्रचित् । वेलन्धरसुराश्चात्र कैर्वर्ता इव कुत्रचित् ।।२९।।
उद्वर्त्यन्तेऽत्रोमिभिश्च कमण्डलुनिभा घनाः । अलयो मनसाऽप्येष लकनीयः कथं ततः ? ॥३०॥ १. अप्रियं अपश्यन् । २. वासुदेवस्य । ३. श्रियाः मु० । ४. तपसा साधया० मु० । ५. पूर्वमित्रम् । ६. हस्तिनापुरम् । ७. निद्राम्, अपस्वापनीम् ता० सं० छा० की० ला० आ० । ८. स्थानम् । ९. स्वप्नमिन्द्र० मु० । १०. सती मु० । ११. भवितुं इच्छुः । १२. पतिं विना कृता ला०सू० विना । १३. पाण्डवमाता । १४. विधुरेष्वपि खं.१, ला०सू० की० ला० पु० छा० ला२० । १५. कङ्कापुरी० मु० । १६. पूर्वसमुद्रतटे । १७. समुद्रः । १८. लोष्टवत् पा० की० ला १. । १९. जलजन्तवः । २०. कृता शोषेशोषणे प्रतिज्ञा येन सः। २१. वडवानलः । २२. धीवराः ।
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१३२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व का वश्चिन्तेति तानुक्त्वा कृष्णः कृष्णेतराशयः । तीरे निषद्य तपसाऽऽराधयामास सुस्थितम् ॥३१॥ आविर्भूय सुरः सोऽपि किं करोमीत्यभाषत । कृष्णोऽप्यूचे पाथिवेन पद्मेन द्रौपदी हृता ॥३२॥ सा यथा धातकीखण्डद्वीपादानीयते द्रुतम् । तथा कुरु सुर श्रेष्ठ ! लवणोदधिदैवत ! ॥३३॥ देवोऽप्युवाच पद्मस्य पूर्वसङ्गतनाकिना । हृत्वा समर्पिता कृष्ण ! तद्वत् तामर्पयामि वः ॥३४।। यद्वा नेदं रोचते वस्ततः सबलवाहनम् । क्षिपाम्यम्भोनिधौ पद्मं द्रौपदीमर्पयामि वः ॥३५।। कृष्णोऽप्यूचे मेति कार्षीः पाण्डवानां ममापि च । षण्णां रथानां तोयान्तर्देहि मार्गमनाहतम् ॥३६।। यथा तत्र स्वयं गत्वा तं वराकं विजित्य च । आनयामो वयं कृष्णां पन्था ह्येष यशस्करः ॥३७॥ सुस्थितोऽपि तथा चक्रे कृष्णोऽपि हि सपाण्डवः । अब्धि स्थलमिवोल्लघ्याऽमरकां ययौ पुरीम् ॥३८॥ स्थित्वा तद्वहिरुद्यानेऽनुशिष्य हरिणां स्वयम् । दारुकः प्रेषितो दौत्ये ययौ पद्मनृपान्तिके ॥३९॥ तत्पादपीठं पादेनाऽऽक्रामन् भृकुटिभीषणः । कुन्ताग्रेणाऽर्पयन् लेखं दारुकः पद्ममब्रवीत् ॥४०॥ पाण्डवानां वासुदेवसहायानां प्रिया त्वया । जम्बूद्वीपस्य भरतादानीता द्रुपदात्मजा ॥४१॥ दत्तमार्गोउँम्भोधिनाऽपि कृष्ण: पाण्डुसुतैः सह । आगतोऽस्त्यर्प्यतां कृष्णा जिजीविषसि यद्यरे ! ॥४२॥ पद्मोऽप्यूचे स तत्रैव वासुदेव इह त्वहो ! । 'आत्मषष्ठो मम कियान् गच्छ सज्जय तं युधि ॥४३॥ अभ्येत्य तद्वचः कृष्णायाऽऽचख्यौ दारुकोऽपि हि । आगाद् युयुत्सुः पद्मोऽपि सन्नह्य सह सेनया ॥४४॥ तस्याऽऽपतत्सु सैन्येषु वारिधेरिव वीचिषु । स्मेराक्षः पुण्डरीकाक्षः पाण्डवानित्यभाषत ॥४५॥ योत्स्यन्ते किं भवन्तोऽत्र सह पोन भूभजा ? । अथवा युध्यमानं मां प्रेक्षिष्यन्ते रथस्थिताः ॥४६॥ तेऽप्यचः सह पदोन वयं योत्स्यामहे प्रभो ।। राजाऽद्य पद्मनाभो वा वयं वेति का श्रवाः ॥४७॥ ततश्च ते युयुधिरे पद्मेन पृथिवीभुजा । जिताश्च पुनरप्येत्य वासुदेवमदोऽवदन् ॥४८॥ स्वामिन् ! बलीयान् पद्मोऽयं बलवत्सैनिकावृतः । त्वयैव जय्यो नाऽस्माभिः कुरुष्वेह यथोचितम् ॥४९।। कृष्णोऽप्यूचे जिता यूयं तदैव ननु पाण्डवाः !। राजा पद्मो वयं वेति गदितं वचनं यदा ॥५०॥ राजाऽहमेव नो पद्म इत्युदित्वा जनार्दनः । युधे चचाल दध्मौ च पाञ्चजन्यं महास्वनम् ॥५१॥ बलत्रिभागः पद्मस्य तच्छतध्वनिनाऽत्रुटत् । गतिमंगकुलस्येव सिंहनादेन सर्पता ॥५२॥ शार्गं चाऽस्फालयच्छार्गी तस्यापि ध्वनिना पुनः । बलत्रिभागः पद्मस्याऽत्रुटद् दुर्बलरज्जुवत् ॥५३।। अवशिष्टतृतीयांशबल: पद्मो रणाङ्गणात् । प्रणश्याऽमरकङ्काया प्रविवेश झगित्यपि ॥५४॥ लोहार्गलासनाथानि पिदधे गोपराणि सः । कष्णोऽपि प्रज्वलन् क्रोधादुत्ततार रथादथ ॥५५॥
रिः । क्रुद्धोऽन्तक इव व्यात्ताननदंष्ट्राभयङ्करः ॥५६॥ नर्दन्नत्यूजितं सोऽथ विदधे पादैदर्दरम् । चकम्पे वसुधा तेन हृदयेन सह द्विषाम् ॥५७।। प्राकाराग्राणि बभ्रंशः पेतर्देवकलान्यपि । कट्रिमानि व्यशीर्यन्त शागिणः पादददरैः ।।५८॥ गर्तेषु लिल्यिरे केऽपि केऽपि तोयेषु चाऽविशन् । निपेतुर्मच्छिताः केऽपि तत्पुर्यां नहरेर्भयात् ॥५९॥ क्षम्यतां देवि ! रक्षाऽस्मादन्तकादिव शागिणः । इति जल्पन् ययौ पद्मः शरणं द्रुपदात्मजाम् ॥६०।। साऽप्यूचे मां पुरस्कृत्य स्त्रीवेषं विरचय्य च । प्रयाहि शरणं कृष्णं तथा जीवसि नान्यथा ॥६१॥ इत्यक्तः स तथा चके नमश्चके च शार्डिगणम । शरण्यो वासुदेवोऽपि मा भैषीरित्युवाच तम् ॥१२॥ द्रौपदी चाऽर्पयामास पाण्डवानां जनार्दनः । ववले च रथारूढः सह तैस्तेन वर्त्मना ॥६३।। पतदा च तत्र चम्पायामुद्याने पूर्णभद्रके । भगवान् समवासार्षीन्मुनिसुव्रततीर्थकृत् ॥६४॥
कपिलस्तत्सभासीनो विष्णुं प्रपच्छ तं प्रभुम् । स्वामिन् ! ममेव कस्यायं शङ्खनादः अवोऽतिथिः ? ॥६५॥ १. शुद्धाशयः । २. नैवं खं. २ । ३. जलमध्ये । ४. अक्षुण्णम्, अनभ्यस्तम् । ५. द्रौपदीम् । ६. कृष्णेन । ७. दूतकर्मणि । ८. ०म्बुधिनापि मु० । ९. त्वसौ ता०स०की०पा०पु० । १०. आत्मना षष्ठः कृष्णः । ११. युधे खं. १ । १२. कृष्णः । १३. कृतप्रतिज्ञाः । १४. युधि मु० र० । १५. वैक्रियसमुद्धातेन । १६. पादघातम् । १७. नरसिंहस्य-कृष्णस्य । १८. यमादिव । १९. श्रवणस्य कर्णस्य अतिथिः, श्रूयते इत्यर्थः ।
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दशमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
शङ्खध्वनिः कृष्णविष्णोरेष इत्यर्हतोदिते । एकत्र किं हरी स्यातामित्यपृच्छत् स केशवः ॥६६॥ द्रौपदी-कृष्ण-पद्मानां वृत्तान्तं भगवानपि । समाचख्यौ कपिलाय कपिलोऽप्येवमब्रवीत् ॥६७।। जम्बूद्वीपार्धभरतेशस्य कृष्णस्य नाथ ! किम् ? । भवाम्यहं स्वागतिकोऽभ्यागतस्याऽतिथेरिह ? ॥६८।। स्वाम्यूचे न यथैकत्र द्वितीयोऽर्हन्न चक्रभृत् । न च विष्णुस्तथाऽन्येन न मिलेत् कारणागतः ॥६९।। श्रुत्वाऽपीत्यर्हतो वाचं कपिलः कृष्णमीक्षितुम् । ययावब्धेस्तटे कृष्णरथसीमन्तिताध्वनि ॥७०॥ ईक्षाञ्चक्रे च कृष्णस्य मध्येऽम्भोनिधि गच्छतः । रजत-स्वर्णपत्राभान् श्वेत-पीतान् रथध्वजान् ॥७१।। 'कपिलो विष्णुरेषोऽहमुत्कस्त्वां द्रष्टुमागतः । तद्वलस्वे'त्यक्षराढ्यं शङ्ख दध्मौ स शार्गभृत् ॥७२॥ 'आर्गमाम वयं दूरे त्वया वाच्यं न किञ्चन' । इति व्यक्ताक्षरध्वानं शङ्ख कृष्णोऽप्यपूरयत् ॥७३॥ गतच्छतध्वनिमाकर्ण्य ववले कपिलो हरिः । गत्वा कङ्कापुरी पद्मं किमेतदिति चाऽवदत् ।।७४।। पद्मोऽप्यकथयत् स्वागोऽवोचद् यत् स्वामिनि त्वयि । कृष्णेनाऽहं पराभूतो जम्बूभरतविष्णुना ॥७५।। रे ! दुरात्मन्नसमानविग्रहेति वदन् हरिः । पद्मं निसियामास तद्राज्ये तत्सुतं न्यधात् ॥७६॥ कृष्णोऽप्यम्भोधिमुत्तीर्य पाण्डवानेवमब्रवीत् । आच्छे सुस्थितं यावत् तावद् गङ्गामतीत भोः ! ॥७७।। ततस्ते नावमारुह्य गङ्गास्रोतोऽतिभीषणम् । द्वाषष्टियोजनपृथूत्तीर्याऽन्योऽन्यमदोऽवदन् ||७८।। द्रक्ष्यामोऽद्य बलं विष्णोनौरत्रैव विधार्यताम । विना नावं कथं गङ्गास्रोतोऽसावत्तरिष्यति ? ||७९।। पाएवं ते कृतसङ्केता निलीयाऽस्थुर्नदीतटे । इतश्च कृतकृत्यः सन् कृष्णोऽप्यागात् सरिद्वराम् ॥८॥ तत्राऽपश्यन् हरिर्नावं दोष्ण्येकस्मिन् सवाजिनम् । रथं न्यस्याऽन्यदोष्णाऽम्भस्तरीतुमुपचक्रमे ॥८१॥ गङ्गामध्ये गतः श्रान्तः कृष्णश्चैवमचिन्तयत् । अहो ! पाण्डुसुताः शक्ता गङ्गां तेरुस्तरी विना ॥८२।। गङ्गा तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ददौ स्ताघं क्षणादपि । उत्ततार ततस्तां च सुखेनैव जनार्दनः ॥८३।। युष्माभिः कथमुत्तीर्णा गछ्रेत्यूचे स पाण्डवान् । नावोत्तीर्णाऽस्माभिरिति प्रत्यूचुस्तेऽपि शार्डिगणम् ॥८४|| वालयित्वा न किं प्रैषि नौरित्युक्तास्तु शाङ्गिणा । तेऽवोचन् प्रेषिता नौर्न युष्मदोजः परीक्षितुम् ॥८५।। कृष्णोऽप्युवाच कुपितो मदोजो ज्ञास्यथाऽधुना । न ज्ञातमब्धितरणेऽमरकङ्काजयेऽपि च ॥८६॥ इत्युक्त्वा लोहदण्डेन रथांस्तेषां ममर्द सः । अभूच्च पत्तनं तत्र नामतो रथमर्दनम् ॥८७॥ ततो निविषयांश्चके पाण्डवान् कंससूदनः । सम्भूय शिबिरेणाऽथ द्वारका नगरी ययौ ॥८८॥ पाण्डवाः स्वपुरं गत्वा तत् कुन्त्या आचचक्षिरे । कुन्त्यपि द्वारकां गत्वा वासुदेवमभाषत ॥८९।। त्वया निर्वासिताः कुत्र तिष्ठन्तु मम सूनवः ? । अस्मिन् भरतवर्षा॰ न सा भूर्भवतो न या ॥१०॥ कृष्णोऽप्यूचे दक्षिणाब्धे रोधस्यभिनवां पुरीम् । निवेश्य पाण्डुमथुरां वसन्तु तव सूनवः ॥९१॥ कुन्ती गत्वा तदाचख्यौ सुतेभ्यः कृष्णशासनम् । तेऽपीयुः पाण्डुविषयं वाधिवेलापवित्रितम् ॥९२॥ कृष्णोऽपि हास्तिनपुरेऽभिषिषेच परीक्षितम् । पौत्रं जामे: सुभद्राया अभिमन्युतनूद्भवम् ॥९३।। पाइतश्च भगवान्नेमिः पावयन् पृथिवीतलम् । क्रमेण "भद्दिलपुरं पुरप्रवरमीयिवान् ॥९४॥ आसंश्च तस्मिन्नगरे सुलसा-नागयोः सुताः
षट् ते ये दत्ता नैगमेषिणा ॥१५॥ तेऽथ द्वात्रिंशतं कन्यां प्रत्येकं परिणिन्यिरे । श्रीनेमिना बोधितास्तु तत्पावें जगृहुव्रतम् ॥१६॥ सर्वे चरमदेहास्ते द्वादशाङ्गधराः क्रमात् । विजहुः स्वामिना सार्धं तपस्यन्तस्तपो महत् ॥९७॥ गइतश्च भगवान्नेमिविहरन द्वारकां ययौ । सहस्राम्रवणे तत्रोपवने समवासरत् ॥९८॥ षट् च ते देवकीपुत्राः षष्ठान्ते पारणार्थिनः । त्रिधा युगैलिनो भूत्वा प्राविशन् द्वारिकां पुरीम् ॥९९॥
तेभ्योऽनीकयशोऽनन्तसेनौ द्वौ देवकीगृहम् । गतौ तौ वीक्ष्य कृष्णाभावि(व?)त्यमोदत देवकी ॥१००।। १. द्वौ वासुदेवौ । २. द्रौपदीपद्मकृष्णानां मु० । ३. श्वेतपीतरथध्वजान् र. विना सर्वत्र । ४. उत्सुकः । ५. अगमाम ता० सं० की० ला० २ ला०सू० । ६. स्वापराधम् । ७. आपृच्छं ला० । ८. तलम् । ९. देशबाह्यान् । १०. पाण्डुदेशम् । ११. भगिन्याः । १२. भद्रिल० खं.१-२, सू० । १४. देवकीपुत्राः । १५. युगलिनौ मु०र० । १६. गृहे ला० । १७. कृष्णसदृशौ ।
मा
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
सा प्रत्यलाभयत् सिंहकेसरैर्मोदकोत्तमैः । तौ जग्मतुस्ततश्चाऽन्यौ तत्सोदर्यावुपेयतुः ॥१०१॥ अजितसेन निहतशत्रू नाम्ना महामुनी । सा प्रत्यलाभयत् तावप्यथाऽन्यौ समुपेयतुः ॥ १०२ ॥ नाम्ना देवयश:- शत्रुसेनौ श्रमणपुङ्गवौ । तौ च नत्वा देवकीत्थमपृच्छद् रचिताञ्जलिः ॥ १०३॥ भूयो भूयोऽपि दिङ्मोहात् किं नु यूयमिहाऽऽगता: ? । किं वा मे मतिमोहोऽयं यूयं न हि त एव हि ? ॥ १०४ ॥ अथवा स्वर्गकल्पायामप्यस्यां पुरि सम्पदा । नोचितं भक्तपानादि प्राप्नुवन्ति महर्षयः ? ॥ १०५ ॥ तावूचतुर्न दिग्मोहोऽस्माकं षट् सोदरा वयम् । भद्दिलपुरवास्तव्यंसुलसा-नागयोः सुताः ॥१०६॥ धर्मं श्रुत्वा नेमिपार्श्वे प्राव्रजाम वयं हि षट् । भूत्वा च त्रीणि युग्मानि क्रमात् ते गृहमागताः ॥ १०७॥ ततश्च देवकी दध्यौ कथं नाम षडप्यमी । कृष्णस्य सदृशाः, एवं तिलौ अपि तिलस्य न ? ॥१०८॥ जीवेदष्टसुता चाऽहमतिमुक्तकसाधुना । पुराऽऽख्याताऽस्मि तेनैते किं स्युर्मम तनूरुहाः ? ॥१०९॥ विमृश्यैवं द्वितीयेऽह्नि तत्प्रष्टुं नेमिनोऽन्तिके । ययौ समवसरणे देवकी देवनिर्मिते ॥११०॥ ज्ञात्वा स्वाम्यपि तद्भावमूचे तेऽमी सुताः खलु । समर्पिताः सुलसाया जीवन्तो नैगमेषिणा ॥ १११॥ सौऽथ तांस्तत्र षट् साधून् पश्यन्त्युत्प्रस्नवस्तनी । ववन्दे च बभाषे च साधु दृष्टाः स्थं हे सुता: ! ||११२|| राज्यं प्रकृष्टमथवा दीक्षा मत्कुक्षिजन्मनाम् । किन्त्वेतन्मम खेदाय स्वयं नैकोऽपि लालितः ॥ ११३ ॥ भगवानप्यथोवाच मुधा मा ताम्य देवकि ! । पूर्वकर्मफलं ह्येतदिह जन्मन्युपस्थितम् ॥ ११४॥ सपत्न्याः सप्त रत्नानि त्वमाहार्षीः पुरा भवे । रुदत्याश्चार्पितं तस्या रत्नमेकं पुनस्त्वया ॥ ११५ ॥ तच्छ्रुत्वा देवकी निन्दन्त्यात्मप्राग्जन्मदुष्कृतम् । ययौ स्वगृहमस्थाच्च पुत्रजन्माभिकाङ्क्षिणी ॥११६॥ किमेवं विमना मातरित्युक्ता शार्ङ्गपाणिना । सा बभाषे निष्फलेन जीवितव्येन किं मम ? ॥११७॥ त्वं वर्धितो नन्दगृहे नागधाम्नि च तेऽग्रजा: । कैलकण्ठ्येव नाऽपत्यं मया किमपि लालितम् ॥११८॥ इच्छामि तत्सुतं वत्स ! बाललालनकौतुकात् । पशवोऽपि हि धन्यास्ते स्वयं स्वापत्यलालकाः ॥ ११९॥ एष ते पूरयाम्यर्थमित्युक्त्वा प्रययौ हरिः । आराधयामास शक्रसेनान्यं नैगमेषिणम् ॥१२०॥ देवोऽप्युवाच ते मातुर्भविष्यत्यष्टमः सुतः । उद्भिन्नयौवनो धीमान् स परं प्रव्रजिष्यति ॥ १२१ ॥ अनु 'तेद्वचनं स्वर्गाच्च्युत्वा देवो महर्द्धिकः । देवक्याः कुक्षिमायासीज्जज्ञे च समये सुतः ॥१२२॥ नाम्ना गजसुकुमालं रूपात् कृष्णमिवाऽपरम् । तं स्वयं लालयामास देवकी देवसन्निभम् ॥ १२३॥ सोऽत्यन्तवल्लभो मातुर्भ्रातुश्च प्राणसन्निभः । द्वयोर्नेत्रेन्दीवरेन्दुः क्रमेण प्राप यौवनम् ॥१२४|| प्रभावतीमभिधया द्रुमस्य पृथिवीपतेः । कन्यां गजसुकुमालः पित्रादेशादुपायत ॥ १२५ ॥ सोमशर्मद्विजसुतां सोमाख्यां क्षत्रियाभवाम् । सोऽनिच्छन्नप्युपयेमे मातृ-भ्रात्रोर्निदेशतः ॥१२६॥ तदैव तत्र समवासार्षीन्ने मिस्तदन्तिके । धर्मं गजसुकुमालः सभार्योऽवहितोऽशृणोत् ॥१२७॥ ततश्चोत्पन्नवैराग्यः पत्नीभ्यां सहितो गजः । पितरौ समनुज्ञाप्य स्वामिपार्श्वेऽग्रहीद् व्रतम् ॥१२८॥ गजे प्रव्रजिते चाथ तद्वियोगासहिष्णवः । पितरौ कृष्णमुख्याश्च भ्रातरो रुरुदुस्तराम् ॥ १२९ ॥ सायं स स्वामिनं" पृष्ट्वा श्मशाने प्रतिमां व्यधात् । बहिर्गतेन दृष्टश्च ब्रह्मणा सोमशर्मणा ॥ १३०॥ सोमशर्माऽचिन्तयच्च यत्पाखण्डचिकीरयम् । विडम्बनाय मत्पुत्रीमुपयेमे दुराशयः ॥१३१॥ इति कुधस्तच्छिसि सोमशर्मा विरुद्धधीः । ज्वलच्चिताङ्गारपूर्णं घटीकण्ठमतिष्ठिपत् ॥१३२॥ तेनऽतिदह्यमानोऽपि सोऽधिसेहे समाहितः । दग्धकर्मेन्धनो जातकेवलश्च ययौ शिवम् ॥१३३॥
१. भद्रिल० खं. १ - २, ला०सू० । २ ० वास्तव्याः सु० मु० र० । ३. तिलाऽपि हि ला० । ते कथं कृष्णस्य सदृशा: ? एवं तु तिलाः अपि तिलस्य सदृशाः न भवन्ति । ४. जीवन्तोऽष्टौ सुता यस्याः साऽहम् । ५. सुताः । ६. सा तथा तत्र मु०, खं. १२, ला० । ७. ०त्प्रस्स्रव० मु० २० । ८. दृष्टाश्च मु० २० । ९. ११५ श्लोकः खं० २ प्रतौ न । १०. ज्येष्ठभ्रातरः । ११. कलविंक्येव सू० । कोकिला, तदपत्यानि काक्या लाल्यन्त इति लोकोक्तिः । १२. नैगमेषिणः वचनात् पश्चात् । १३. आज्ञायाः । १४. स्वामिनं दृष्ट्वा खं. १ । स्वामिनिर्दिष्टः खं. २ । १५. स्फुटितघटकण्ठम् ०मतिष्ठपत् मु० । १६. तेनाथ दा० ता०सं०विना ।
(अष्टमं पर्व
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दशमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१३५
प्रातश्चचाल कृष्णोऽपि रथस्थः सपरिच्छदः । द्रष्टुं गजसुकुमालमुत्कण्ठापूर्णमानसः ॥१३४॥ निर्गच्छन् द्वारकायाश्च बहिरैक्षिष्ट स द्विजम् । वहन्तमिष्टकां मूर्जा वृद्धं देवालयं प्रति ॥१३५।। तस्याऽनुकम्पया कृष्ण 'आपाकात् स्वयमिष्टकाम् । निन्ये देवकले तस्मिन लोकोऽनैषीच्च कोटिशः ।।१३६।। कृतार्थं तं द्विजं कृत्वा ययौ नेमि जनार्दनः । न चाऽपश्यद् गजं तत्र मुक्तं निधिमिवाऽऽत्मना ।।१३७।। क्व मे भ्राता गज इति पप्रच्छ स्वामिनं हरिः ? । सोमद्विजाद् गजमोक्षमाचख्यौ भगवानपि ॥१३८।। ततो मुमूर्छ गोविन्दो लब्धसंज्ञः पुनः प्रभुम् । पप्रच्छ भ्रातृवधको ज्ञातव्यः स कथं मया ? ||१३९।। भगवानप्यभाषिष्ट मा कुपः सोमशर्मणे । त्वद्भातुः स हि सोयः सद्यो मोक्षस्य साधने ॥१४०।। सिद्धिः स्याच्चिरसाध्यापि सहायवशतः क्षणात् । यथा त्वयाऽद्य वृद्धस्य ब्राह्मणस्येष्टकार्पणात् ॥१४१॥ सोमशर्मा न कुर्याच्चेत् कर्म त्वद्भातुरीदृशम् । तत्कथं तस्य सिद्धिः स्यात् कालक्षेपं विनैव हि ? ||१४२।। स्वमुद्वन्द्धं व्रजंस्त्वां च विशन्तं पुरि वीक्ष्य यः । भिन्नमूर्धा म्रियते तं जानीथा भ्रातृघातकम् ॥१४३।। ततः कृष्णो रुदन भ्रातः संस्काराद्यकरोत् स्वयम् । प्राविशच्च पुरी सोममैक्षिष्ट च तथा मतम ॥१४४॥ बन्धयित्वा पादयोस्तं पुर्यामभ्रमयन्नरैः । बहिश्च क्षेपयामास गृध्रादीनां नवं बलिम् ॥१४५॥ गतेन शोकेन यदवो बहवो नेमिसन्निधौ । प्रवव्रजुर्दशाश्चि वसुदेवं विना नव ॥१४६॥ शिवा च स्वामिनो माता सप्त चापि सहोदराः । अन्येऽपि हरिकुमाराः प्राव्रजन्नन्तिके प्रभोः ॥१४७॥ राजीमत्यपि संविग्ना प्रावाजीत् स्वामिनोऽन्तिके । नन्दकन्यैकनाशा च बढ्यश्चाऽन्या यदुस्त्रियः ॥१४८।। कन्योद्वाहप्रत्याख्यानाभिग्रहं हरिराददे । सर्वा दुहितरस्तस्य प्राव्रजन् स्वामिनोऽन्तिके ॥१४९।। विना च कनकवती रोहिणी देवकी तथा । वसुदेवस्य पत्न्योऽपि प्राव्रजन्नेमिसन्निधौ ॥१५०।। पगृहेऽपि कनकवत्याश्चिन्तयन्त्या भवस्थितिम् । उत्पेदे केवलज्ञानं सद्यस्त्रुटितकर्मणः ॥१५१।। नेमिना ज्ञापितैर्देवैः सा क्लुप्तमहिमा ततः । प्रव्रज्यां स्वयमादत्त ययौ च स्वामिनोऽन्तिके ॥१५२।। दृष्ट्वा नेमि वनेऽगच्छद् दिनानि त्रिंशतं ततः । विहितानशना मृत्वा मोक्षं कनकवत्यगात् ॥१५३।। पनैषधिः सागरचन्द्रो रामपौत्रो विरक्तधीः । अणुव्रतधरोऽग्रेऽपि तदाऽभूत् प्रतिमाधरः ॥१५४॥ बहिर्गत्वोपश्मशानं कायोत्सर्गं ददौ च सः । नभःसेनेन दृष्टश्च तच्छिद्रान्वेषिणा सदा ॥१५५॥ तमूचे च नभःसेनः पाखण्डिन् ! किं करोष्यदः ? । लभस्व कमलामेलाहरणच्छेद्मनः फलम् ॥१५६।। इत्युक्त्वा तस्य शिरसि निधाय घटकण्ठकम् । अपूरयच्चिताङ्गारैर्नभःसेनो दुराशयः ॥१५७।। तत्सम्यगधिसह्याऽऽशु विपन्नः सागरः सुधीः । स्मृतपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारो दिवं ययौ ॥१५८॥ सदस्यूचेऽन्यदा शक्रो यत् कृष्णो गुणकीर्तनम् । दोषान् विहाय कुरुते नीचयुद्धैर्न युध्यते ॥१५९।। तद्वचोऽश्रद्दधत् कश्चिदागाद् द्वारवती सुरः । तदा च स्वेच्छया रन्तुं रथस्थः प्राचलद्धरिः ॥१६॥ विचके तेन देवेन कृष्णाङ्गः श्वा मृतः पथि । दुर्गन्धेनाऽखिलं लोकं बाधमानोऽतिदूरतः ॥१६१।। तं प्रेक्ष्य केशवोऽवोचदहो ! कृष्णतनोः शुनः । अस्याऽऽस्ये पाण्डुरा दन्ताः शोभन्ते सुतराममी ॥१६२॥ देवोऽथाऽश्वहरीभूयाऽश्वरत्नं शागिणोऽहरत् । प्रधाविताननुपदं कृष्णसैन्यान् जिगाय च ॥१६३।। ततोऽधावत् स्वयं कृष्णो नेदी यानब्रवीच्च तम् । किं हरस्यश्वरत्नं मे? मुञ्चेदानी क्व यासि भोः !? ॥१६४।। देवोऽप्युवाच मां युद्धे विजित्याऽश्वं गृहाण भोः !। कृष्णोऽप्यूचे रथं तहि त्वमादत्स्व रथी ह्यहम् ॥१६५। देवोऽप्युवाच पर्याप्तं रथेनेभादिना च मे । युद्धैश्च बाहयुद्धाद्यैः कुरु किन्तु पाहवम् ॥१६६।।
प्रत्यभाषत गोविन्दो जितोऽस्मि नय वाजिनम् । न जातु नीचयुद्धेन युध्ये सर्वात्ययेऽपि हि ॥१६७॥ १. यत्र इष्टकाः पच्यन्ते तत् स्थानं आपाकमिति कथ्यते तस्माद् (नीभाडो); आदाय ला२० खं० १, सू० । २. सहायी खं० १। ३. समु० खं. १ । ४. निषधपुत्रः । ५. कपटस्य । ६. स्मृत्वा पञ्च० खं० २ । ७. अश्वापहारकः । ८. समीपम् । ९. युतावहम् ला.१, खं.१, ला०सू० विना, कटिप्रोथौ, "पुतौ स्फिजौ कटिप्रोथौ" [अभिचि० कां० ३ श्लो० ६०९]भाषायां 'धगडा कुला' इति ख्यातम् । १०. सर्वनाशेऽपि ।
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१३६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व तुष्टोऽथ सोऽमरः शक्रवृत्तान्ताख्यानपूर्वकम् । वरं वृणु महाभागेत्यवोचत जनार्दनम् ॥१६८॥ देवं कृष्णोऽप्यभाषिष्ट सम्प्रति द्वारिका पुरी । रोगोपसर्गर्बहुला तच्छान्त्यै किञ्चिदर्पय ॥१६९।। कृष्णायाऽदात् सुरो भेरीमाख्यच्च यदियं त्वया । षण्मास्यन्ते षण्मास्य॑न्ते वादनीयाऽऽत्मनः पुरि ॥१७०।। अस्याः श्रुतेन शब्देनोपसर्गाः प्राक्तना हरे ! । क्षयं यास्यन्त्यथ नवा षण्मासीं नैव भाविनः ॥१७१।। इत्युक्त्वा स ययौ देवस्तां भेरी केशवोऽपि हि । तथैव वादयामास रुक्शान्तिश्चाऽभवत् पुरि ॥१७२।। भेरीख्यातिमथ श्रुत्वा कोऽपि दाहज्वरादितः । आगाद् देशान्तरादाढ्यो भेरीपालमुवाच च ॥१७३।। द्रव्यलक्षं गृहाणेदमुपकाराय मेऽनघ ! । भेरीखण्डं पलमात्रं विश्राणय कृपां कुरु ॥१७४॥ भेरीपालोऽप्यर्थलुब्धस्तत्खण्डं तस्य दत्तवान् । भेरी चन्दनखण्डेनाऽपूरिष्टं श्लिष्टसन्धिना ॥१७५॥ सोऽन्येभ्योऽपि ददावेवमर्थलुब्धस्तथा यथा । चन्दनच्छेदकन्थाऽभूत् सा भेरी मूलतोऽपि हि ॥१७६।। अन्यदा त्वशिवे जाते शार्गभृत् तामवादयत् । सभामपि न तन्नादोऽभ्यगान्मशकनादवत् ॥१७७।। किमेतदिति कृष्णेन पृष्टाः प्रत्ययिता नराः । कन्थीकृतां रक्षकेण तां भेरीमाचचक्षिरे ॥१७८॥ तमारक्षमहन् कृष्णो भेरीमन्यां ततोऽमरात् । लेभे चाष्टमभक्तेन महद्भिः किं दुरासदम् ? ||१७९।। बतां भेरी वादयामास रोगशान्त्यै जनार्दनः । वैद्यावप्यादिशद् धन्वन्तरि वैतरणिं तथा ॥१८०॥ तत्र वैतरणिर्भव्यश्चिकित्सा यस्य योचिता । तामाख्यायाऽकरोत् तस्य ददौ स्वमपि भेषजम् ॥१८१।। धन्वन्तरिस्तु विदधे चिकित्सां पापसंयुताम् । अस्माकं विहितं नेदमिति तं साधवोऽभ्यधुः ॥१८२।। सोऽपि प्रतिबभाषे तान् साधुयोग्यो मया न हि । आयुर्वेदः कोऽप्यपाठि मा स्म कृध्वं वचो मम ॥१८३॥ एवं द्वावपि तौ वैद्यौ पुर्यां तत्राऽचिकित्सताम् । श्रीनेमि चान्यदाऽपृच्छत् कृष्णः क्व गतिरेतयोः? ॥१८४।। अथाऽऽचचक्षे भगवान् सप्तम्यां नरकावनौ । अप्रतिष्ठानमावासं वैद्यो धन्वन्तरिर्गमी ॥१८५।। वैद्यो वैतरंणिविन्ध्यवने भावी प्लवङ्गमः । उद्यौवनो यूथपतिस्तत्रैव च भविष्यति ॥१८६॥ वने तत्रैकदा सार्थेनाऽऽगमिष्यन्ति साधवः । तेष्वेकः श्रमणः पादे भैग्नशल्यो भविष्यति ॥१८७॥ प्रतीक्षमाणान् सोऽन्यर्षीन् वक्ष्यत्येवं यदत्र माम् । मुक्त्वा याताऽन्यथा सर्वे सार्थभ्रष्टा मरिष्यथ ॥१८८।। तं छायास्थण्डिले मुक्त्वा ते प्रयास्यन्ति साधवः । तत्पादशल्यमाक्रष्टुमक्षमा दीनचेतसः ॥१८९।। कपियूथपतिः सोऽपि तत्रैष्यत्यथ तं मुनिम् । दृष्ट्वा किलकिलारावं करिष्यन्त्यग्रवानराः ॥१९०।। तन्नादरुष्टो यूथेशः सोऽग्रे स्थास्यति तमृषिम् । प्रेक्ष्य ध्यास्यति कुत्रेदृग्जनं वीक्षितपूर्व्यहम् ॥१९॥ स्मरिष्यति ततः पूर्वजाति स्वां तच्च वैद्यकम् । गिरेविशल्या-रोहिण्यावानेष्यत्यौषधी ततः ॥१९२।। विशल्यां दशनैः पिष्ट्वा पादे तस्य निधास्यति । सद्यो विशल्यं तत्पादं रोहिण्या रोहयिष्यति ॥१९३।। द्वारवत्यां वैतरणिर्वेद्योऽभूवं पुरा ह्यहम् । लिखिंष्यत्यक्षराण्येवं मुनेस्तस्य पुरश्च सः ॥१९४॥ तच्चरित्रं श्रुतपूर्वी मुनिर्धर्मं गदिष्यति । त्र्यहं कृत्वा कपिः प्रायं सहस्रारे गमिष्यति ॥१९५॥ स द्रक्ष्यत्यवधिज्ञानात् प्रायस्थस्याऽऽत्मनः शबम् । नमस्कारान् प्रयच्छन्तमभ्यर्णस्थं मुनिं च तम् ॥१९६।। भक्तिमानमरस्तं च मुनि नत्वा वदिष्यति । त्वत्प्रसादेन देवद्धिर्महतीयं ममाऽभवत् ॥१९७।। स्वसाधुभिस्तं च साधुं स नीत्वा योजयिष्यति । स साधुस्तां कपिकथां साधूनां कथयिष्यति ॥१९८।।
तच्छ्रुत्वा श्रद्दधद्धर्मं नेमि नत्वा ययौ हरिः । विहर्तुमन्यतोऽगच्छत् ततश्च भगवानपि ॥१९९।। १. वादनीया, रोगहार्यात्मनः पुरि खं. २ । २. नवीनोपसर्गाः । ३. रोगशान्त्यै जनार्दनः ला० । ४. भेरी खं० १, ला.सू. विना। ५. ०पूरिष्टाऽऽश्लिष्ट० खं० २ । ६. ०त्यगा० खं० २ विना । ७. धन्वन्तरिवैतरणी मु० । वैतरणी खं० १, ला०सू० । ०वैतरिणी खं० २ । ८. भैषजम् ला० । ९. वैतरणी विन्ध्य० खं० २ । १०. वानरः ॥ ११. भग्नकण्टकः । १२. प्रतीक्ष्यमाणान् खं०१-- २, ला०सू० मु०। १३. तत्रैष्यति परिभ्रमन् । करिष्यति किलकिलां मुनिं दृष्ट्वाग्रवानराः ला० १ । १४. कलकला० ला० । १५. लेखि० खं० १, ला०सू० । १६. अनशनम् । १७. भविष्यति ला० । १८. ०महती मम चाऽभवत् खं० २।
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दशमः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१३७ अन्यदा प्रावृडारम्भे जगदाोयकोऽब्दवत् । द्वारिकायां नेमिनाथ उपेत्य समवासरत् ।।२००। शुश्रूषमाणस्तं कृष्णो बभाषे भगवन् ! कथम् । विहरध्वे न वर्षास् ययमन्येऽपि साधवः ? ||२०१॥ स्वामी बभाषे वर्षासु नानाजीवाकुला मही । जीवाभयप्रदास्तत्र सञ्चरन्ति न साधवः ॥२०२॥ कृष्णोऽप्युवाच यद्येवं गच्छदागच्छता मया । भूयान् जीवक्षयो भूयःपरिवारेण जायते ॥२०३॥ तद्वर्षासु बहिर्गेहान्निःसरिष्यामि न ह्यहम् । अभिगृह्येति गत्वा च कृष्णो वेश्माऽविशन्निजम् ॥२०४।। कस्यापि प्रावृषं यावत् प्रवेशो मम वेश्मनि । न प्रदेय इति द्वा:स्थानादिदेश च शार्गभृत् ॥२०५।। वीरो नाम कुविन्दोऽभूत् पुर्यां तत्रातिवैष्णवः । कृष्णं विलोक्याऽचित्वा च बुभुजे नान्यथा तु सः ॥२०६।। प्रवेशं सोऽलभमानस्तदा च हरिसद्मनि । द्वारस्थो हरिमुद्दिश्य पूजां चके दिने दिने ॥२०७।। कदापि न च सोऽभुक्त विष्णोरनवलोकनात् । व्यतीतासु च वर्षासु निर्ययौ वेश्मतो हरिः ॥२०८॥ उपातिष्ठन्त सर्वे तं राजानो वीरकश्च सः । किं कृशोऽसीति पप्रच्छ वासुदेवोऽपि वीरकम् ? ॥२०९॥ द्वा:स्थास्तस्य यथावस्थां शशंसुः कार्यकारणम् । कृष्णोऽप्यस्खलितं चक्रे सकृपस्तं स्ववेश्मनि ॥२१०॥ ततश्च वन्दितुं नेमिं कृष्णोऽगात् सपरिच्छदः । यतिधर्मं च शुश्राव स्वामिनं चेत्यभाषत ।।२११॥ न श्रामण्यक्षमोऽस्मीश ! तथापि नियमोऽस्तु मे । अन्यैाहयितुं दीक्षां तथा ताननुमोदितुम् ॥२१२॥ प्रव्रजिष्यति यः कश्चिद्वारयिष्याम्यहं न तम् । पुत्रस्येव करिष्ये च तस्य निष्कमणोत्सवम् ।।२१३|| अभिगृह्येत्यगाद्
ह्या नन्तुमागताः । ऊचे स्वकन्याः स्वामिन्यो दास्यः किं वा भविष्यथ? ॥२१४|| ता अप्यूचुर्भविष्यामः स्वामिन्य इति शाङ्गिणम् । शा_प्यूचे नेमिपार्वे तर्हि प्रव्रजताऽनघाः ! ॥२१५|| इति प्रावाजयत् कन्या विवाहार्हाः क्रमेण सः । राज्यका चान्यदा प्रोचे स्वां सुतां केतुमञ्जरीम् ॥२१६।। पृष्टा तातेन वत्से ! त्वं भाषेथा अविशङ्कितम् । अहं दासीभविष्यामि न पुनः स्वामिनी प्रभो ! ॥२१७|| विवाहयोग्या सा मात्रा प्रेषिता पितुरन्तिके । ययौ तथोचे पित्रा च साऽप्यूचे मातृशिक्षितम् ॥२१८।। कृष्णोऽपि दध्यौ मत्पुत्र्योऽप्यटिष्यन्ति भवाटवीम् । विमाननां च प्राप्स्यन्ति सर्वथा तन्न साम्प्रतम् ॥२१९।। यथा नैवं वदन्त्यन्यास्तथाऽस्त्विति धिया हरिः । वीर कुविन्दमवदत् प्रकृष्टं कि कृतं त्वया ? ॥२२०॥ प्रकृष्टं न माँ चक्रे किञ्चित् तमिति वादिनम् । ऊचे हरिस्तथापि त्वं विचिन्त्याऽऽख्याहि किञ्चन ॥२२१।। बभाषे वीरकोऽप्येवं बदरीस्थो मया पुरा । केकलासोऽश्मनों हत्वा पतितश्च मृतश्च सः ॥२२२॥ राङ्गकृतरेखायां मार्गे तोयं वहन्मया । धृतं वामांहिणाऽऽक्रम्य तच्च दूरमपासरत् ॥२२३॥ वस्त्रपानघटस्याऽन्तः प्रविष्टा मक्षिका मया । द्वारे वामकरं दत्त्वा रणन्त्यो विधृताश्चिरम् ॥२२४|| आस्थानस्थो द्वितीयेऽह्नि कृष्णो राज्ञां पुरोऽवदत् । स्वकुलस्याऽननुरूपं चरितं वीरकस्य भोः ! ॥२२५।। सावधानास्ततस्तेऽपि कृष्ण जीवेति भाषिणः । श्रोतुमारेभिरे भूयः कृष्णोऽप्येवमभाषत ॥२२६।। येन रक्तस्फटो 'नागो निवसन् बदरीवणे । निजघ्ने भूमिशस्त्रेण वेमॅतिः क्षत्रियो ह्ययम् ॥२२७॥ चक्रोत्खाता येन गङ्गा वहन्ती कलुषोदकम् । धारिता वामपादेन वेमतिः क्षत्रियो ह्ययम् ॥२२८॥ येन घोषवती सेना वसन्ती कालसीपुरे । निरुद्धा वामहस्तेन वेमतिः क्षत्रियो ह्ययम् ॥२२९।। योग्यो ममाऽयं जामाता सुव्यक्तपुरुषव्रतः । इत्युक्त्वा वीरकं स्माऽऽह गृह्यतां केतुमञ्जरी ॥२३०॥ सोऽनिच्छन् भृकुटि कृत्वा कृष्णेनोक्तस्तु तत्सुताम् । परिणीय गृहे निन्ये वीरकः केतुमञ्जरीम् ॥२३१।। शय्याधिरूढा तस्थौ च तद्गृहे केतुमञ्जरी । तदादेशकरश्चाऽऽसीद्वीरकोऽपि दिवानिशम् ॥२३२॥
किं केतुमञ्जर्याज्ञां ते करोतीति च शाङ्गिणा । पृष्टोऽन्यदाऽवदद् वीरस्तदाज्ञाकारको ह्यहम् ॥२३३॥ १. जगत्तृप्तिकरः । २. मेघवत् । ३. विहरध्वं ला० । ४. भूरिपरिवारेण ला० । ५. कृष्णभक्तः । ६. दीक्षामहोत्सवम् । ७. परिणयाय योग्याः । ८. अपमानम् । ९. युक्तम् । १०. मयाऽकारि खं.२, ला० । ११. सरटः 'भाषायां 'काचंडो' इति ख्यातम् । १२. पाषाणेन । १३. रथचक्रेण कृतायां रेखायाम् । १४. रक्ता स्फटा फणा यस्य सः । १५. सरट: भाषायां 'सरडो' । १६. बदरीवने ला० पा० मु० । १७. पाषाणेन । १८. तन्तुवायः ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
कृष्णोऽपि हि बभाषे तं कर्म सर्वं न चेन्निजम् । प्रसह्य' तां कारयसि तत्त्वं गुप्तौ प्रवेक्ष्यसि ||२३४|| कृष्णाशयज्ञो वीरोऽपि गत्वाचे केतुमञ्जरीम् । पानं कुरुष्व वस्त्रार्थे किमासीनैव तिष्ठसि ? ॥ २३५॥ कोकिस्त्वं न वेत्सीति विब्रुवाणां च तां कुधा । वीरकस्ताडयामास निःशङ्कं तुरिरज्जुभिः ॥२३६॥ रुदती सा पितुर्गत्वा तर्मौख्यत् स्वं पराभवम् । कृष्णोऽप्यूचे त्वया स्वाम्यं त्यक्त्वा दास्यं हि याचितम् ॥ २३७॥ साऽवदत् तर्हि मे स्वाम्यमधुनाऽपि प्रयच्छत । कृष्णोऽवदद् वीरकस्य वशेऽसि न ममाऽधुना ॥ २३८ ॥ सनिर्बन्धं तयॊऽथोक्तः कृष्णो वारितवीरकः । नीत्वा प्रव्राजयामास तां नेमिस्वामिसन्निधौ ॥२३९॥ ॥ अन्यदा सर्वसाधूनां द्वादशावर्तवन्दनम् । कृष्णो ददौ नृपास्त्वन्ये निर्विण्णास्त्ववतस्थिरे ॥ २४० ॥ सर्वेषामपि साधूनां वासुदेवानुवर्तनात् । तत्पृष्ठतो वीरकोऽदाद् द्वादशावर्तवन्दनम् ॥२४१॥ बभाषे स्वामिनं कृष्णः षष्ट्यग्रत्रिशताहवैः । न तथाऽहं परिश्रान्तो वन्दनेनाऽमुना यथा ॥२४२|| सर्वज्ञोऽप्यवदत् कृष्ण ! बह्वद्य भवताऽर्जितम् । पुण्यं क्षायिकसम्यक्त्वं तीर्थकृन्नामकर्म च ॥ २४३॥ उद्धृत्य सप्तमावन्यास्तृतीयनरकोचितम् । आयुर्बद्धं त्वया प्रान्ते करिष्यसि निकाचितम् ॥ २४४ ॥ कृष्णोऽप्युवाच भगवन् ! पुनर्यच्छामि वन्दनम् । नरकायुर्यथा प्राग्वन्मम त्रुटति मूलतः ॥२४५॥ स्वाम्यूचे धर्मशीलऽतो भवेत् ते द्रव्यवन्दनम् । फलं तु प्राप्यते भाववन्दनादन्यथा न तु ॥२४६॥ वीरकस्य फलं कृष्णेनाऽनुयुक्तोऽवदत् प्रभुः । फलमस्य वपुः क्लेशस्त्वच्र्च्छन्दाद् वन्दते सौ ॥२४७॥ भगवन्तं नमस्कृत्य भावयन् भगवद्वचः । जगाम द्वारकापुर्यां कृष्णोऽथ सपरिच्छदः ॥ २४८ ॥ "कृष्णस्य ढण्ढणापत्न्यां कुमारो ढण्ढणाभिधः । उद्यौवनः पर्यणैषीद् बह्वीर्नृपकुमारिकाः ॥२४९॥ सोऽन्यदा स्वामिनः पार्श्वे श्रुत्वा धर्मं विरक्तधीः । दीक्षामुपाददे पित्रा कृतनिष्क्रमणोत्सवः ॥ २५० ॥ विजहे स्वामिना सार्धं 'साधूनां च मतोऽभवत् । एवं च तिष्ठतस्तस्योदगात् कर्माऽन्तरायकम् ॥२५१॥ यत्र यत्र ययौ तत्र तत्राऽऽप न स किञ्चन । समं तेन ययुर्ये च मुनयोऽपि तथैव ते ॥ २५२॥ ततस्ते साधवो नेमिनाथायेदं व्यजिज्ञपन् । शिष्यस्त्रैलोक्यनाथस्य पुत्रः कृष्णस्य ढण्ढणः || २५३॥ महेभ्यधार्मिकोदारजनायामपि पुर्यसौ । भिक्षामपि न लभते स्वामिन् ! किं तत्र कारणम् ? ॥२५४॥ स्वाम्याख्यन् मगधेष्वासीद् धान्यपूरकनामनि । ग्रामे पुरा नृपायुक्तो नाम्ना विप्रः पराशरः ॥ २५५ ॥ राजक्षेत्राणि स ग्रम्यैरवापयदथाऽन्यदा । प्राप्तेऽपि भोजने ग्राम्यान् भोजनायाऽमुचन्नहि ॥२५६॥ क्षुधितैस्तृषितैः श्रान्तैर्वृषभैर्होलिकैश्च सः । अकर्षयद् 'हैलान् क्षेत्रे 'सीतामेकां पृथक् पृथक् ॥२५७॥ कर्माऽन्तरायमर्जित्वा मृत्वा भ्रान्त्वा भवं च सः । ढण्ढणोऽयमभूत् तच्च कर्मैतस्याऽधुनोदितम् ॥२५८॥ तच्छ्रुत्वा जातसंवेगो ढण्ढणः स्वामिनोऽन्तिके । परलब्ध्या न भोक्ष्येऽहमित्यभिग्रहमग्रहीत् ॥२५९॥ सहमानो ढण्ढणर्षिस्तमलाभपरीषहम् । अभुञ्जानः परलब्ध्या कालं कमपि सोऽनयत् ॥ २६० ॥ 'वासुदेवोऽन्यदाऽपृच्छन्नेमिनाथं सभास्थितम् । मध्येऽमीषां महर्षीणां को हि दुष्करकारकः ? ॥२६१॥ स्वाम्याख्यद् दुष्करकराः सर्वेऽमी ढण्ढणस्त्वति । इयन्तं योऽत्यगात् कालं सोढाऽलाभपरीषहम् ॥२६२॥ ततो नत्वा प्रभुं कृष्णः प्रविशन् द्वारकपुरीम् । अपश्यड्डण्ढणं साधुं यान्तं गोचरचर्यया ॥२६३॥ गजादुत्तीर्य कृष्णस्तं नमश्चक्रेऽतिभक्तितः । दृष्ट्वैक श्रेष्ठिनाऽचिन्ति धन्यः कृष्णेन यो नतः ॥ २६४॥ विहरन् ढण्ढणोऽप्यागात् तस्यैव श्रेष्ठिनो गृहे । मोदकैर्बहुमानेन स तु तं प्रत्यलाभयत् ॥२६५॥ ढढणोऽप्येत्य सर्वज्ञं नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् । कर्माऽन्तरायकं किं मे क्षीणं भिक्षां यदप्नवम् ? ॥२६६ ॥
१. हठात् । २. कारागारे । ३. तन्तुवायः । ४. तमाख्यच्च खं० १ सू० । तमाख्यात् स्वं परा० ला० । ५. तया प्रोक्तः मु० र० । ६. निर्वीर्यास्त्वव० खं० २, की० मु० । ७. ३६० युद्धैः । ८. निकाचनम् खं० २ । ९. हे धर्मशील ! अतः परम् । १०. पृष्टः । ११. त्वदनुसरणात् । १२. बहूनां मु० । १३. मान्यः । १४. ग्रामे भवा ग्राम्याः तैः । १५. कृषीवलैः । १६. बलात् खं० १-२ विना । १७. क्षेत्रे हलकृता रेखा सीता कथ्यते भाषायां 'चास' इति । १८. द्वारकां खं० १, ला. सू० । १९. स च खं० १ सू० । २० यदाप्नुवम् खं० १ २, ला० सू० ।
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दशमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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स्वाम्यूचे नाऽन्तरायं ते क्षीणं लब्धिस्त्वियं हरेः । हरिणा वन्दितोऽसीति श्रेष्ठी त्वां प्रत्यलाभयत् ॥२६७॥ रागादिरहितः सोऽथ परलब्धिरसाविति । परिष्ठापयितुं भिक्षां प्रारेभे स्थण्डिलावनौ ॥२६८|| पूर्वार्जितानि कर्माणि जीवानां दुःक्षयाण्यहो ! । इति स्थिरध्यानजुष उत्पेदे तस्य केवलम् ॥ २६९॥ नेमिं प्रदक्षिणीकृत्य ततः केवलिपर्षदि । ढण्ढणर्षिरुपाविक्षत् पूजितस्त्रिदशैरपि ॥ २७० ॥ विज भगवान्नेमिग्रामा - ऽऽकर- पुरादिषु । भूयो भूयो द्वारकायां पुर्यां च समवासरत् ॥ २७१ ॥ तत्रैकदा स्थिते नाथेऽकस्माद् वृष्टिरजायत । भिक्षां भ्रान्त्वा रथनेमिः प्रतिस्वामिं चचाल च ॥ २७२॥ प्रविवेश गुहां चैकां तया वृष्ट्या स विद्रुतः । वन्दित्वा स्वामिनं राजीमती चापि न्यवर्तत ॥ २७३ ॥ साध्व्यस्तत्सहचर्योऽथ वृष्टिभीताः प्रदुद्रुवुः । राजीमती गुहां तां तु विवेशाऽजानती सती ॥२७४॥ प्राक्प्रविष्टमपश्यन्ती रथनेमिं तमोवशात् । उद्वापयितुममुचद् वस्त्राण्यूर्ध्वस्थिता तु सा ॥२७५॥ रथनेमिर्विवस्त्रां तां प्रेक्ष्य कामार्दितोऽवदन् । पुराऽपि प्रार्थिताऽभूस्त्वं सम्भोगावसरोऽधुना ॥२७६॥ रथनेमिं स्वराज्ज्ञात्वा गोपिताङ्गा झगित्यपि । बभाषे “युज्यते नेदृक् कदाचित् कुलजन्मनाम् ॥ २७७॥ सर्वज्ञस्याऽनुजोऽसि त्वं शिष्यस्तस्यैव तत् तव । अद्यापि केयं बुद्धिर्भो ! लोकद्वयविरोधिनी ? ॥२७८॥ सर्वज्ञशिष्या भूत्वा ते पूरयिष्ये न वाञ्छितम् । वाञ्छयाऽप्यनया तु त्वं पतिष्यसि भवार्णवे ॥ २७९ ॥ ‘चैत्यद्रव्यद्रुतिः साध्वीशीलभङ्गर्षिघातने । तथा प्रवचनोड्डाहे मूलाग्निर्बोधिशाखिनः' ॥२८०॥ प्रविशन्ति वरं घोरे ज्वलितेऽपि हुताशने । वान्तं भोक्तुं न इच्छन्ति कुले जाता अगन्धने ॥ २८२१|| धिगस्तु ते यशस्कामिन् ! यस्त्वं जीवितकारणात् । पातुं समीर्हसे वान्तं श्रेयस्ते मरणं खलु ॥ २८२॥ सुताऽहं भोजराजस्याऽन्धकवृष्णेर्भवान् सुतैः । मा कुले गन्धनौ भूँव संयमं निभृतश्चर ||२८३|| नारीदर्शं स्पृहयसि यदि त्वं मदनातुरः । वाताहतो हेड इवाऽस्थितात्मा तद्भविष्यसि ॥२८४॥ तयैवं बोधितः सोऽपि पश्चात्तापपरो मुहुः । सर्वां विमुच्य भोगेच्छां तीव्रं व्रतमपालयत् ॥२८५॥ प्रभोरग्रे दुश्चरितं तदालोच्य स शुद्धधीः । छद्मस्थो वत्सरं स्थित्वा केवलज्ञानमासदत् ॥२८६॥ विहृत्याऽन्यत्र चान्येद्युर्भूयो रैवतकाचले । श्रीनेमिः समवासार्षीद् भव्याम्भोरुहभास्करः ||२८७।। कृष्ण: पालक - शाम्बादि पुत्रानूचे यथा प्रगे । यः पूर्वं वन्दिता नाथं तस्मै दास्येऽश्वमीप्सितम् ॥२८८॥ तच्छ्रुत्वा शाम्बकुमारः प्रातरुत्थाय तल्पतः । गृहेऽपि तिष्ठन् भावेन नेमिनाथमवन्दत ॥ २८९ ॥ महत्यां पालको रात्रावुत्थाय वरवाजिना । गत्वा प्रभुमभव्यत्वाद् हैंद्याक्रोशन्नवन्दत ॥२९०॥
का पालन याचितो हरिरब्रवीत् । दास्ये तस्याऽश्वमाख्याता यं स्वामी पूर्ववन्दकम् ॥२९१|| गत्वा च विष्णुना पृष्ट: स्वाम्यादौ केन वन्दिते?? । स्वाम्याख्यत् पालकेनाऽऽदौ द्रव्याद् शाम्बेन भावतः ||२९२॥ किमेतदिति कृष्णेन पृष्ट भूयोऽभ्यधात् प्रभुः । अभव्यः पालको ह्येष भव्यो जाम्बवतीसुतः ॥ २९३॥ रैथाङ्गपाणिः कुपितोऽथ पालकं,
तं भावहीनं निरवासयद् द्रुतम् ।
दत्त्वा यथायाचितमश्वपुङ्गवं,
शाम्बं महामण्डलिकं व्यधात् पुनः ॥२९४॥
॥ इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये 'अष्टमे पर्वणि द्रौपदीप्रत्याहरण- गजसुकुर्मीलादिचरितवर्णनो नाम दशमः सर्गः ॥
।
६-९ गाथाभिः करणार्हा । ५. समीहते खं० २ २ । ९. हठ मु० । हड: वनस्पतिविशेषः । १०. वन्दिताः खं० १, ला०सू० । १४. कृष्णः । १५.
१. प्रतिनाथं ला० । २. विदुद्रुवुः खं० १ । ३. स भोगा० खं० २ । ४. २८१ - २८४ श्लोकानां तुलना दशवैकालिकसूत्रे द्वितीयाध्य ६. पुनः खं० २ । ७. गन्धिनौ मु० । गन्धने खं० १ सू० । ८. ०भूवं खं० ०स्थिरात्मा खं० २ । ११. हृदि आक्रोशं कुर्वन् । १२. अर्पकाचं ला० । १३. ०ष्टमपर्वणि खं- १-२, ला० सू० । १६. ०सुकुमारादि० खं० १-२, सू० ।
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॥ एकादशः सर्गः ॥
श्रीनेमिनाथमन्येधुर्देशनान्ते जनार्दनः । नमस्कृत्य विनीतात्मा पप्रच्छेति कृताञ्जलिः ॥१॥ द्वारकाया यदूनां च मम च स्यात् क्षयः कथम् ? | हेतोः कुतोऽप्यन्यकृतः? स्वयं कालवशेन वा? ॥२॥ अथाऽऽख्यद् भगवान् शौर्य पुरस्य बहिराश्रमे । पराशर इति नाम्ना प्रथितस्तापसाग्रणीः ॥३॥ कन्यां नीचकुलां काञ्चिद् यमुनाद्वीपके गतः । स सिषेवे सुतश्चाऽभूत् तयोपायनाह्वयः ॥४।। परिव्राट् ब्रह्मचारी च दान्तश्च यदुसौहृदात् । निवसंस्तत्र शाम्बाद्यैर्मद्यान्धैर्निहनिष्यते ॥५॥ स क्रुद्धो धक्ष्यति पुरी द्वारकां यदुभिः सह । जरत्कुमारात् स्वभ्रातुस्तव चाऽन्तो भविष्यति ।।६।। अरे ! कुलाङ्गारकोऽयमित्यन्तःकलुषाशयैः । जराकुमारो ददृशे यदुभिः सकलैरपि ॥७॥ भूत्वाऽपि वसुदेवस्य सूनुः किं भ्रातृघात्यहम् ? । तत्सर्वथाऽन्यथा कर्तुं यतेऽहमिति चिन्तयन् ।।८।। उत्थाय नेमिं नत्वा च जारेयस्तूणयुग्मभृत् । कोदण्डी कृष्णरक्षार्थं वनवासमशिश्रियत् ॥९॥ द्वैपायनोऽपि तच्छ्रुत्वा लोकश्रुत्या प्रभोर्वचः । द्वारकाया यदूनां च रक्षार्थं वनवास्यभूत् ॥१०॥ कृष्णोऽपि स्वामिनं नत्वा विवेश द्वारकां पुरीम् । मद्यमूलो ह्यनर्थः स्यादिति मद्यं न्यवारयत् ॥११॥ कृष्णाज्ञया समीपाद्रौ कदम्बवनमध्यतः । कादम्बर्याः कन्दरायां शिलाकुण्डेषु भूरिशः ॥१२॥ पुराकृतानि मद्यानि सर्वे द्वारवतीजनाः । गृहस्रोतोजलमिव नीत्वा नीत्वा प्रतंत्यजुः ॥१३॥ सिद्धार्थः सारथिर्धाता बलदेवमथाऽवदत् । पुर्याः कुलस्य चेदृक्षां कथं द्रक्ष्यामि दुर्दशाम् ? ॥१४॥ तस्मान्मां विसृज स्वामिपादान्तेऽहं यथा व्रतम् । अधुनैव हि गृह्णामि कालक्षेपं सहे न हि ॥१५।। उदश्रुस्तं बलोऽप्यूचे भ्रातर्युक्तं वदस्यदः । विस्रष्टुमक्षमेणापि विसृष्टोऽसि मयाऽनघ ! ॥१६॥ तपस्तप्त्वा विपन्नस्त्वं देवीभतो विपद्गतम् । सम्बोधयेः समये मां भ्रातृस्नेहमिमं स्मरन् ॥१७॥ आमेत्युदीर्य सिद्धार्थः प्राव्राजीत् स्वामिनोऽन्तिके । षण्मासी च तपस्तीवं तप्त्वा मृत्वा दिवं ययौ ॥१८॥ गइतश्च या शिलाकुण्डेष्वासीत् क्षिप्ता सुरा जनैः । नानाद्रुपुष्पसम्पातात् तदा स्वाद्वी बभूव सा ॥१९॥ तदा च मासे वैशाखे कोऽपि शाम्बस्य पूरुषः । अटन् ययौ तत्र तृषा तां च दृष्ट्वा सुरां पपौ ॥२०॥ ततः से मुदितस्तेन दृतिमापूर्य सीधुनाँ । ययौ वेश्मनि शाम्बस्य तच्चोपायनमार्पयत् ॥२१॥ तत्सीधु दृष्ट्वा सामोदं सप्रमोदो हरेः सुतः । पायं पायं जगादैवं कुत्र लब्धमिदं त्वया ? ॥२२।। सोऽप्याख्यत् सीधु तत्रस्थं शाम्बोऽप्यह्नि द्वितीयके । समं कुमारैर्दुर्दान्तैर्ययौ कादम्बरी गुहाम् ॥२३।। कादम्बरीगुहायोगान्नाम्ना 'कादम्बरी' सुराम् । तां प्रेक्ष्य शाम्बो मुमुदे तृषितो निम्नगामिव ॥२४॥ भूत्यैरानाय्य तां शाम्बः पुष्पितद्वनान्तरे । बद्धोपानः पपौ मित्र-भ्रातृ-भ्रातृव्यसंयुतः ॥२५॥ चिरात् प्राप्तेति जीर्णेति सद्रव्यैः संस्कृतेति च । पिबन्तस्तां सुरां ते तु न तृप्तिमुपलेभिरे ॥२६॥ द्वैपायनर्षि ध्यानस्थमग्रे तं गिरिमाश्रितम् । ददृशुर्मद्यपानान्धाः क्रीडन्तस्ते कुमारकाः ॥२७॥ शाम्बो बभाषे स्वानित्थमयं मे नगरी कुलम् । हन्ता तद्धन्यतामेष हनिष्यति हतः कथम् ? ॥२८।। ततस्ते कुपिताः सर्वे लेष्टुभिः पादताडनैः । चपेटाभिर्मुष्टिभिश्च तमाजघ्नुर्मुहुर्मुहुः ॥२९।। पातितं तं महीपृष्ठे मृतप्रायं विधाय ते । ययुः पुरी द्वारवती विविशुः स्वस्ववेश्मसु ॥३०॥
१. जराकुमारः । २. धनुर्धरः । ३. कादम्बर्यां मु० र० । ४. नीत्वाऽथ तत्यजुः खं० २ । ५. प्रमुदित० मु० २ । ६. जलपात्रम् 'मसक' इति भाषायाम् । ७. मदिरया । ८. कादम्बरीसुराम खं० २ । ९. बद्धं आपानं मद्यपानगृहं येन सः । १०. स्वकीयान्
यदून् ।
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एकादशः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१४१
|तच्चाऽज्ञासीच्चरैः कृष्णो दध्यौ चैवं विषादभाक् । अहो ! दुर्दान्तताऽमीषां कुमाराणां कुलान्तकृत् ॥३१॥ ततः कृष्णः सरामोऽगात् तत्र द्वैपायनं मुनिम् । अपश्यत् कोपरक्ताक्षं महाहिमिव दृग्विषम् ||३२|| महमात्र इव व्यलमतिमात्रभयङ्करम् । त्रिदण्डिनं सान्त्वयितुं तमारेभे जनार्दनः |३३|| 'क्रोध एव महाशत्रुर्यो दुःखं नेह केवलम् । प्रदत्ते किन्तु सततं जन्मलक्षेषु जन्मिनः ||३४|| अज्ञानैर्मद्यपानान्धैरपराद्धं ममाऽऽत्मजैः । तत्सहस्व महर्षे ! त्वममर्षो युज्यते न ते ' ॥ ३५ ॥ कृष्णेनेत्युच्यमानोऽपि नाऽशाम्यत् स त्रिदण्डिकः । इत्यूचे च कृतं कृष्ण ! भवतः सौन्त्वभाषितैः || ३६ || त्वत्पुत्रैस्ताड्यमानेन निदानं विहितं मया । सलोकां द्वारकां दग्धुं न मोक्षोऽत्र युवां विना ||३७|| कृष्णं न्यषेधद् रामोऽपि मा बान्धव ! मुधैव हि । परिव्राजमनुनयाऽमुकं वारितैवामकम् ॥३८॥ वक्रांऽह्नि-नासिका-हस्ताः स्थूलोष्ठ-रद- नासिकाः । विलक्षणाक्षा हीनाङ्गाः शान्तिं यान्ति न जातुचित् ||३९|| अस्मिन् खलूँक्त्वा तद् भ्रातर्न नाशो भाविवस्तुनः । सर्वज्ञभाषितं चापि सर्वथा नाऽन्यथा भवेत् ||४०|| ततश्च शोकसन्तप्तः कृष्णः स्वसदनं ययौ । द्वैपायननिदानं च द्वारिकायां प्रकट्यभूत् ॥४१॥ अघोषयद् द्वितीयेऽह्नि नगर्यामिति शार्ङ्गभृत् । विशेषाद् धर्मनिरतास्तिष्ठताऽतः परं जनाः ॥४२॥ तथाऽऽरेभे जनः सर्वोऽप्युपेत्य भगवानपि । श्रीनेमिः समवासार्षीत् तत्र रैवतकाचले ||४३|| तत्र गत्वा च नन्त्वा च कृष्णः शुश्राव देशनाम् । जगन्मोहमहानिद्राविद्रावणरविप्रभाम् ॥४४॥ प्रद्युम्न - शाम्ब निषध उल्मुकः सारणादयः । कुमाराः प्राव्रजन् केऽपि श्रुत्वा तां धर्मदेशनाम् ॥४५॥ रुक्मिणी- जाम्बवत्याद्या बह्व्यश्च यदुयोषितः । स्वामिनः पादपद्मान्ते भवोद्विग्नाः प्रवव्रजुः ॥४६॥ आचख्यौ कृष्णपृष्टश्च सर्वज्ञो भगवानिदम् । द्वैपायनो द्वादशेऽब्दे धक्ष्यति द्वारिकोंमिमाम् ॥४७॥ बादध्यौ च कृष्णो धन्यास्ते समुद्रविजयादयः । येऽग्रेऽपि प्राव्रजन् धिग् मां राज्यलुब्धमदीक्षितम् ॥४८॥ ज्ञात्वा तदाशयं स्वामी प्रोचे कृष्ण ! कदापि हि । न शाङ्गिणः प्रव्रजन्ति निदानेन कृतार्गलाः ॥४९॥ गच्छन्त्यवश्यं तेऽधस्तात् त्वं गामी वालुकाप्रभाम् । श्रुत्वेति कृष्णः सद्योऽपि नितान्तैविधुरोऽभवत् ॥५०॥ भूयोऽभ्यधत्त सर्वज्ञो मा विषीद जनार्दन ! । तत उद्वृत्त्य मर्त्यस्त्वं भावी वैमनिकस्ततः ॥ ५१ ॥ च्युत्वा भाव्यत्र भरते शैतद्वारपुरेशितुः । जितशत्रोः सुतोऽर्हस्त्वं द्वादशो नामतो ममः ॥ ५२ ॥ ब्रह्मलोकं बलो गामी मर्त्यो भावी ततश्च्युतः । ततोऽपि देवश्च्युत्वा स भाव्यत्र भरते पुमान् ॥५३॥ उत्सर्पिण्यां 'प्रसर्पन्त्यां पृथिवीश ! जनार्दन ! । तीर्थनाथस्य ते" तीर्थे स मोक्षमुपयास्यति ॥५४॥ इत्युदित्वा जगन्नाथो विहरन्नन्यतो ययौ । नत्वा वासुदेवोऽपि जगाम द्वारिकां पुरीम् ॥५५॥ “तथैवं घोषणां कृष्णः पुनः पुर्यामकारयत् । विशेषतो धर्मनिष्ठो लोकः सर्वो बभूव च ॥५६॥ मृत्वा द्वैपायनोऽप्यग्निकुमारेषूदपद्यत । सस्मार पूर्ववैरं च द्वारकामाजगाम च ॥५७॥ चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमादिरतं तत्राऽखिलं जनम् । देवपूजाप्रसक्तं चाऽपश्यद् द्वैपायनासुरः ॥५८॥ धर्मप्रभावतस्तत्रोपसर्गं कर्तुमक्षमः । छिद्राण्यन्वेषयन् सोऽस्थाद् वर्षाण्येकादशोग्रधीः ॥५९॥ "प्रीतेऽब्दे द्वादशे लोको दध्यौ यत् तपसऽमुना । भ्रष्टो द्वैपायनो नष्टो जितश्चेति रमामहे ॥६०॥
१६
रन्तुं प्रवृत्तास्ते स्वैरं मद्यपा मांसखादिनः । लेभेऽवकाशं छिद्रज्ञस्तदा द्वैपायनोऽपि हि ॥ ६१ ॥
१. गजारोहकः । २. दुष्टगजम् । ३. शान्तभाषितैः ला० । ४. राम कृष्णौ । ५. वृथैव ला० । ६. ० मनुनयामुत्कण्ठारितवामकम् खं० २ । वारितः निवारितः सन् वाम एव वामक: कुटिलः इति यावत् प्रतिकूलम् । ७. विलक्षणानि अक्षाणि इन्द्रियाणि येषां ते । ८. खलुशब्दो निषेधार्थे । ९. प्रद्युम्नः शाम्बो खं. २, सू० । १०. द्वारकां पुरीम् ला० । ११. कृता अर्गला यैस्ते । १२. अत्यन्तदुःखी । १३. भावी त्वमर्हन्नत्रैव भारते खं० २, ला०ता० सं० की ० । १४. वैमानिकः सुरः ला० १ । १५. गङ्गाद्वारपुरेशितुः मु० । १६. खं०२, ला० प्रत्योर्नाऽयं श्लोकः । १७. प्रसर्पन्त्यामममाख्यस्य केशवः खं० १ सू० पा० ला०१ छा० पु० । ० प्रसर्पिण्यां ला० । १८. तव कृष्णजीव-अममतीर्थङ्करस्य तीर्थे सः बलदेवजीवः मोक्षं गमिष्यति । १९. द्वैपायनोऽसुरः मु० र० । २० गते द्वे खं० २ । प्राप्ते च खं० १ । २१. तपसाऽधुना ला० पु० ला० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
उत्पाता विविधाश्चैवं कल्पान्तोत्पातसन्निभाः । प्रादुरासन् द्वारकायामन्तकद्वारदर्शिनः ॥६२।। निपेतुरुल्का निर्घाताश्चाऽभवन् भूरकम्पत । गृहाश्च मुमुचुधूमं धूमकेतुविडम्बकम् ॥६३॥ अङ्गारवृष्टिं विदधे सच्छिद्रं रविमण्डलम् । अकस्मादुपरांगश्च चन्द्र-मार्तण्डयोरभूत् ॥६४॥ अट्टहासं लेप्यमयाश्चकुर्वेश्मसु पुत्रिकाः । उद्भूका जहसुश्चापि चित्रालिखितदेवताः ॥६५।। पुर्यन्त: श्वापदाश्चेरुः स च द्वैपायनासुरः । शाकिनी-भूत-वेतालादिभिः परिवृतोऽभ्रमत् ॥६६।। स्वप्नेष्वपश्यन् पौराः स्वं रक्ताम्बरविलेपनम् । पङ्कमग्नं कृष्यमाणं दक्षिणाभिमुखं तथा ॥६७|| प्रणेशुः सीर-चक्रादिरत्नानि बल-कृष्णयोः । ततो विचक्रे संवर्तं वातं द्वैपायनासुरः ॥६८।। स सर्वतोऽप्याजहार पुर्यां काष्ठ-तृणादिकम् । जनान् प्रणश्यतो दिग्भ्योऽप्यानीय न्यक्षिपत् पुरि ॥६९॥ दिग्भ्योऽष्टाभ्योऽपि वातेन तेनोन्मूलितशाखिना । अपूर्यत समग्राऽपि दारुभिारका पुरी ॥७०॥ षष्टिं बाह्याः कुलकोटी सप्ततिं तु मध्यगाः । सम्पिण्ड्य द्वारकापुर्यां सोऽसुरोऽग्निमदीपयत् ॥७१॥ धगद्धगिति जज्वाल क्षयानल इवाऽनलः । नीरन्धैधूमसन्तानविश्वमप्यन्धकारयन् ॥७२।। पदमप्यक्षमा गन्तुं मिथो निगडिता इव । सबाल-वृद्धास्ते पौराः पिण्डीभूयाऽवतस्थिरे ॥७३॥ पवसदेवं देवकी च रोहिणी च रथे हरिः । आरोपयत् सरामोऽथ तानाक्रष्टं प्रेदीपनात् ॥७४॥ न चेलुस्तुरगास्तत्र न चेलुर्वृषभा अपि । सुरेण स्तम्भितास्तेन वार्तिकेणेव पन्नगाः ॥७५।। ततः स्वयं बलोपेन्द्रौ तमाचकृषतू रथम् । भग्नमक्षयुगं सद्यस्तडत्तडिति काण्डवत् ॥७६।। तथापि तौ स्वसामर्थ्यात् तं द्वारे निन्यतू रथम् । पाहि हा राम ! हा कृष्णेत्याक्रन्दैर्दीनमानसौ ॥७७|| अथ द्वारं कपाटाभ्यां झटित्येवाऽसुरः प्यधात् । रामः पाणिप्रहारेणाऽभाङ्क्षीत् तौ मृत्कपालवत् ॥७८॥ भुंवा ग्रस्त इव रथस्तथापि निरगान्न हि । सोऽपि देवोऽवदद् राम-कृष्णौ ! किंमोह एष वाम् ? ||७९।। अहो ! पुराऽपि यवयोराख्यातं यद यवां विना । न मोक्षः कस्यचिदिह विक्रीतं हि तपो मया ॥८॥ ततस्तौ पितरोऽवोचन हे वत्सौ ! गच्छतं युवाम् । युवाभ्यां ननु जीवद्भयां जीवन्ति यदवोऽखिलाः ॥८१।। कृते नः पौरुषायत्तं युवाभ्यां कृतमेव हि । बलीयसी पुनरियं दुर्ला भवितव्यता ॥८२॥ दीक्षा श्रीनेमिपादान्तेऽस्मकाभिर्भाग्यवजितैः । नोपात्ताऽनुभविष्यामः फलमद्य स्वकर्मणाम् ॥८३|| इत्युक्तेऽपि यदा राम-कृष्णौ नाऽगच्छतां तदा । वसुदेवो देवकी च रोहिणी चैवमूचिरे ॥८४।। अतः परं नः शरणं श्रीनेमिस्त्रिजगद्गुरुः । वयं चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानमकृष्महि ॥८५।। अर्हतः सिद्ध-साधूंश्च धर्मं चाऽर्हदुदीरितम् । अतः परं प्रपन्नाः स्मः शरणं शरणेच्छवः ॥८६।। न वयं कस्यचित् कोऽपि नाऽस्मदीय इति स्वयम् । विहिताराधनास्तस्थुनमस्कारपरायणाः ॥८७॥ तेषु द्वैपायनोऽथाऽग्नि ववर्षाऽनलमेघवत् । विपद्य च ययुः स्वर्गं वसुदेवादयस्त्रयः ।।८८|| बराम-कृष्णौ बहिः पुर्या जीर्णोद्यानेऽथ जग्मतुः । दह्यमानां पुरीं तत्र स्थितौ द्वावप्यपश्यताम् ।।८९।। माणिक्यभित्तयोऽभूवंचूर्णसादश्मखण्डवत् । गोशीर्षचन्दनस्तम्भा भस्मसाच्च पलोलवत् ॥९०॥ प्राकारकपिशीर्षाणि तडत्तडिति तुत्रुटुः । तलान्यपि निकेतानां फडप्फडिति पुस्फुटुः ॥९॥ ज्वालानां नान्तरं तत्राऽभूद् जलानामिवाऽर्णवे । एकानलमभूत् सर्वमेकार्णवमिव क्षये ॥९२॥ ज्वालाहस्तैननर्तेव जगर्जेवाऽनलः स्वनैः । धूमव्याजात् पौरमत्स्येष्वानीयमिव चानयत् ॥९३।। पअथोचे सीरिणं कृष्णो धिग् धिग् क्लीब इवाऽधुना । अहं तटस्थः पश्यामि दह्यमानां निजां पुरीम् ।।९४|| यथा नाऽलं पुरीं त्रातुं तथा न द्रष्टमुत्सहे । आर्य ! ब्रूहि क्व गच्छावो? विरुद्धं सर्वमावयोः ॥९५।।
१. ग्रहाश्च खं० १-२, सू० विना । २. ग्रहणम् । ३. उगता भ्रूः भ्रूकुटिर्येषां ताः । ४. रक्तवस्त्रविलेपनम् । ५. पावकात् । ६. गारुडिकेन । ७. धनुर्वत्; भाण्डवत् खं० २ । ८. रुजा खं० २ । ९. सोऽमरोऽबोधयद् ला०२ । स देवोऽथाऽवदद् ला० । १०. ततस्ते मु० । ११. कृतेन मु० र० । न: अस्माकं कृते । १२. दुर्लङ्घा खं०२ ला० पा० ता० सं० ला०२ । १३. मरणे० खं० २। १४. चूर्णाधीनाचूर्णसात् । १५. तृणवत् । १६. जालम् ।
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एकादशः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
बभाषे बलभद्रोऽपि सुहृत्-सम्बन्धि - बान्धवाः । अस्माकं पाण्डुतनयास्तद्यावस्तन्निकेतनम् ॥९६॥ कृष्णोऽप्यूचे तदानीं ते मया 'निर्विषयाः कृताः । कथं तद्धाम्नि यास्यावः स्वापकारेण लज्जितौ ? || ९७|| ऊचे रामोऽप्युपकारं सन्तो दधति चेतसि । कदापि कुस्वप्नमिव नाऽपकारं स्मरन्ति तु ॥ ९८ ॥
अनेकधा सत्कृतास्ते कृतज्ञाः पाण्डुसूनवः । पूजामेव करिष्यन्ति भ्रातः ! विमृश नौऽन्यथा ॥९९॥ इत्युक्तः सीरिणा शाङ्ग प्राचलत् पूर्वदक्षिणाम् । उद्दिश्य पाण्डवपुरीं तां पाण्डुमथुराभिधाम् ॥१००॥ |इतश्च पुर्यां ज्वलन्त्यां रामसूः कुब्जवारकः । चरमाङ्गोऽधिसौधाग्रमूर्ध्वबाहुरदोऽवदत् ॥ १०१ ॥ शिष्यः श्रीनेमिनाथस्याऽधुना व्रतधरोऽस्म्यहम् । आख्यातः स्वामिना चाऽहं चरमाङ्गः शिवं गमी ॥१०२॥ प्रमाणमर्हदाज्ञा चेत् तद् दह्येऽहं किमग्निना ? । इत्युक्ते जृम्भका देवास्तं निन्युः स्वामिनोऽन्तिके ॥१०३॥ श्रीनेमिः पल्हवे' देशे तदा हि समवासरत् । तत्र च प्राव्रजत् कुब्जवारकः स महामनाः ॥ १०४ ॥ प्रागप्रव्रजिता यास्तु राम - कृष्णादियोषितः । नेमिं स्मरन्त्यो विहितानशनास्ता विपेदिरे ॥ १०५ ॥ षष्टिर्द्वासप्ततिश्चापि निर्दग्धाः कुलकोटयः । षण्मास्यैवं पुरी दग्धा प्लाविता चाऽब्धिना ततः ॥१०६॥ १इतश्च गच्छन् कृष्णोऽपि हस्तिकल्पं पुरं पथि । प्राप्तः सन् क्षुद्भवां पीडां शशंस हलधारिणे ॥ १०७|| बभाषे बलभद्रस्तं त्वत्कृते भक्तहेतवे । यास्याम्यत्र पुरे तिष्ठेरप्रमत्तोऽत्र बान्धव ! ॥१०८॥ विधुरं यदि मे किञ्चित् कुतोऽप्यत्र भविष्यति । करिष्यामि तदा क्ष्वेडां तामाकर्ण्य त्वमापतेः ॥ १०९ ॥ इत्युक्त्वा प्राविशद् रामस्तत्पुरं पुरवासिभिः । देवताकारभृत् कोऽयमित्याश्चर्यान्निरीक्षितः ॥ ११०॥ अग्निना द्वारका दग्धा तस्या निर्गत्य सीर्ययम् । आयात इति लोकेऽभूत् किंवदन्ती 'विमर्शजा ॥ १११ ॥ अङ्गुलीयेन रामोऽपि कान्दुकाद्विविधं स्वयम् | जग्राह भोज्यं मदिरां कटकेन च शौडिँकात् ॥११२॥ तदादाय बलोऽगच्छद् यावद् गोपुरसन्निधौ । तं दृष्ट्वा तावदारक्षा विस्मिता नृपतिं ययुः ॥ ११३॥ धृतराष्ट्रसुतस्तस्मिन्नच्छदन्तोऽभवन्नृपः । कृष्णगृह्यैः पाण्डुपुत्रैर्हतशेषीकृतः पुरा ॥११४॥ आरक्षास्तं तदेत्यूचुर्महार्घ्य" कटकोर्मिके । दत्त्वा दस्युवदादत्त त्वत्पुरे मद्य - भोजने ॥ ११५ ॥ मूर्त्या च सीरिणस्तुल्यो गच्छन्नस्त्यधुना बहिः । स दस्युर्वा बलो वाऽस्तु नास्त्यागोऽस्मास्वतः परम् ॥ ११६ ॥ अच्छदन्तो बलं हन्तुं सबलस्तत्र चाऽऽययौ । गोपुरस्य कपाटौ चाऽकारयत् पातितार्गलौ ॥११७॥ भैक्ष्य-पाने बलो मुक्त्वा स्तम्भमुन्मूल्य दन्तिनः । कृतक्ष्वेडोऽथाऽरिबलं निहन्तुमुपचक्रमे ॥११८॥ क्ष्वेडामाकर्ण्य कृष्णोऽपि धावितः पाणिघाततः । भङ्क्त्वा कपाटौ प्राविक्षत् पुरमर्वै इवाऽर्णवम् ॥११९॥ कृष्णस्तत्परिघं गृह्णन् परसैन्यान् जघान तान् । इत्युवाच च राजानमच्छदन्तं वशंवदम् ॥१२०॥ नाऽगाद् दो: स्थाम नौ क्वापि किमरे! भवता कृतम् ? । स्वैराज्यं निभृतो भुङ्क्ष्व मुक्तोऽस्मादागसो ह्यसि ॥१२१॥ इत्युक्त्वा बुभुजाते तौ गत्वोद्याने पुराद् बहिः । प्रत्यैपाचि प्रस्थितौ च कौशाम्बवनमीयतुः ॥१२२॥ मद्यपानात् सलवणाशनाद् ग्रीष्मवशात् श्रमात् । शोकात् पुण्यक्षयाच्चाऽऽप तत्र कृष्णो भृशं तृषम् ॥१२३॥ अथाऽवदद् बलं कृष्णैस्तृष्णया तालु शुष्यति । वृक्षच्छायाकुलेऽप्यस्मिन्न वने गन्तुमीश्वरः ॥१२४॥ बभाषे बलभद्रोऽपि यास्यामि भ्रातरम्भसे । विश्राम्यन्नत्र तिष्ठ त्वमप्रमत्तस्तरोस्तले ॥ १२५॥ पादं जानूपरि न्यस्य स्वं च पीतेन वाससा । प्रच्छाद्याऽध्वतरोर्मूले सुप्तो निद्रां ययौ हरिः ॥ १२६॥ पुनरप्यवदद् रामो हे भ्रातः ! प्राणवल्लभ ! । यावदायाम्यहं तावदप्रमत्तो भवेः क्षणम् ॥१२७॥ उन्मुखीभूय चाऽवोचद् वनदेव्यो ममाऽनुजः । युष्माकं शरणेऽस्त्येष त्रातव्यो विश्ववल्लभः ॥१२८॥ "इत्युक्त्वा सोऽम्भसेऽगच्छत् तत्राऽऽगच्छच्च धन्वभृत् । व्याघ्रत्वग्वसनो लम्बैकूर्ची व्याधो जरासुतः ॥ १२९ ॥
१४३
१. निर्विषयीकृताः मु० । २. दुःस्वप्नमिव ता० सं० । ३. माऽन्यथा मु० र० । ४. चरमशरीरी । ५. पल्लवे मु० । ६. हस्तकल्पं खं० १-२, ला० । ७. सिंहनादम् । ८. विचाराज्जनिता । ९. कान्दुकात् कान्दविकात् । १०. सुराजीविनः कलाल' इति भाषायाम् । ११. महार्घे आ० मु० । १२. भक्तपाने मु० । १३. वडनावल: । १४. सुराज्यम् ला० । १५. दक्षिणदिशं प्रति । १६. तृषाम् मु० । १७. कृष्णस्तृषया मु० । १८. दीर्घश्मश्रुः ।
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१४४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
मृगव्येन भ्रमंस्तत्राऽपश्यत् कृष्णं तथास्थितम् । मृगबुद्ध्या तले चाऽहन् जारेयस्तीक्ष्णपत्रिणा ॥१३०॥ वेगादुत्थाय गोविन्दो जगादाऽहं विनाऽऽगसा । छलात् पादतले विद्धः केनाऽनाभाष्य पत्रिणा ? ॥१३१।। हतपूर्वी क्वचिन्नाऽहमज्ञातज्ञातिनामकम् । भवानपि तदाख्यातु निजं गोत्रं च नाम च ॥१३२॥ दुमान्तरस्थः सोऽप्यूचे हरिवंशाब्धिशीतगोः । वसुदेवदशार्हस्य जराकुक्षिभवः सुतः ॥१३३।। जराकुमारो नाम्नाऽहमग्रजो राम-कृष्णयोः । कृष्णरक्षार्थमत्राऽऽगां श्रुत्वा श्रीनेमिनो वचः ॥१३४॥ अब्दानि द्वादशाऽभूवन्नद्येह वसतो मम । मानुषं चेह नाऽद्राक्षं कस्त्वमेवं ब्रवीषि भोः !? ॥१३५।। कृष्णोऽथाऽवोचदेह्येहि पुंव्याघ्र ! हरिरस्म्यहम् । तव भ्राता स एवैष यस्याऽर्थे वनवास्यभूः ॥१३६।। वृथा प्रयासस्ते जज्ञे द्वादशाब्दानि बान्धव ! । दिग्मोहेनेव पान्थस्य सुदूरोल्लङ्घिताध्वनः ॥१३७॥ श्रुत्वेति किमयं कृष्ण इति तत्रैव सत्वरम् । जरत्कुमार आयासीद् दृष्ट्वा कृष्णं मुमूर्छ च ॥१३८।। कथमप्याप्तसंज्ञः सन् जारेयः करुणं रुदन् । पप्रच्छ कृष्णं हा भ्रातः ! किमेतत् ? किमिहाऽऽगमः ? ॥१३९॥ किं द्वारका पुरी दग्धा ? किं यदूनां क्षयोऽभवत् ? । सा नूनं नेमिवाक् सर्वा सत्या तेऽवस्थयाऽनया ॥१४०॥ कृष्णोऽपि सर्वमाचख्यौ जारेयोऽपि रुदन् पुनः । इत्यूचे हा ! मया भ्रातुरागतस्योचितं कृतम् ॥१४१॥ कनिष्ठं दुर्दशामैग्नं भ्रातरं भ्रातृवत्सलम् । त्वां निहन्तुर्मम स्थानं क्व नाम नरकावनौ ? ॥१४२।। वनवासं तव त्राणबुद्धयाऽकार्षमहं किल । न जाने विधिना यत्ते स्थापितः पुरतोऽन्तकः ॥१४३॥ हे पृथ्वि ! देहि विवरं वरमद्यैव येन ताम् । अनेनैव शरीरेण प्रयामि नरकावनिम् ॥१४४।। अतः परमिह स्थानमधिकं नरकादपि । सर्वदुःखाधिके भ्रातृहत्यादुःख उपस्थिते ॥१४५।। वसुदेवस्य पुत्रोऽहं किं भ्राता तव चाऽभवम् ? । किं वाऽभूवं मनुष्योऽपि ? यः कर्माऽकार्षमीदृशम् ॥१४६।। सर्वज्ञवचनं श्रुत्वा तदैव न मृतोऽस्मि किम् ? । जनमात्रे मयि मृते किं न्यूनं स्यात् सति त्वयि ? ॥१४७।। ततो बभाषे कृष्णस्तं कृतं भ्रातः ! शु! तव । न त्वया न मया वापि लध्यते भवितव्यता ॥१४८॥ अवशिष्टस्त्वमेवैको यदुभ्यो जीव तच्चिरम् । याहि याह्यन्यथा रामस्त्वां हन्यान्मद्वधक्रुधा ॥१४९॥ अभिज्ञानं कौस्तुभं मे गृहाण व्रज पाण्डवान् । वृत्तान्तं कथयेः सर्वं सहायाः सन्तु ते तव ।।१५०॥ अपसार्यं त्वया किञ्चिद विपरीतैः पदैरितः । पदानुसारी रामस्त्वां यथा प्राप्नोति न द्रुतम् ॥१५१॥ मद्वाचा क्षमयेः सर्वान् पाण्डवानपरानपि । मयैश्वर्यजुषा पूर्व क्लेशितान् प्रेषणादिभिः ॥१५२॥ एवं पुनः पुनः कृष्णेनोक्तः सोऽपि तथैव हि । कृष्णपादाच्छरं कृष्ट्वा जगामोपात्तकौस्तुभः ॥१५३॥ गजारेये च गते पादवेदनातॊ जनार्दनः । उदङ्मुखः प्राञ्जलिश्च वक्तुमेवं प्रचक्रमे ॥१५४॥ 'नमोऽर्हद्भयो भगवद्भयः सिद्धेभ्यश्च नमो नमः । आचार्येभ्य उपाध्याय-साधुभ्यश्च नमस्त्रिधा ॥१५५॥ नमो भगवते विश्वस्वामिनेऽरिष्टनेमिने । त्यक्त्वाऽस्मदादीन् यः पापांस्तीर्थं प्रावर्तयद् भुवि ॥१५६।। इत्युक्त्वा संस्तरे तोर्णे स्थित्वा जानूपरि क्रमम् । न्यस्य प्रावृत्य वस्त्रेण कृष्णः पुनरचिन्तयत् ॥१५७।। धन्यः स भगवान्नेमिर्वरदत्तादयश्च ते । प्रद्युम्नाद्याः कुमाराश्च रुक्मिण्याद्याश्च मत्स्त्रियः ॥१५८॥ गृहवासं परित्यज्य भववासनिबन्धनम् । ये प्रव्रजुरेतं तु धिग् मां प्राप्तविडम्बनम् ॥१५९।। एवं भावयतस्तस्याऽभञ्जन्नङ्गानि सर्वतः । चुकोप प्रबलो वायुः कृतान्तस्येव सोदरः ॥१६०॥ तृष्णा-शुग्-घात-वातैस्तैरर्दितोऽथ जनार्दनः । भ्रश्यद्विवेकः सद्योऽपि पुनरेवमचिन्तयत् ॥१६१॥ पराभूतो न केनापि जन्मतो नृ-सुरैरपि । द्वैपायनेन प्रथमं नीतोऽहं कीदृशी दशाम् ॥१६२॥
इयत्यपि गते तं चेत् पश्याम्युत्थाय तत्स्वयम् । अन्तं नयामि स कियान् ? क: स्यात् तं रक्षितुं क्षमः? ॥१६३।। १. आखेटेन । २. जराया अपत्यं जारेय:-जराकुमारः । ३. कृष्णोऽपि मु० । ४. जराकुमार० खं० २ । ५. दुर्दशाप्राप्तं खं० २। ६. शोकेन । ७. अभिसार्यं ला० । ८. त्रिधा नमः मु० । नमोऽस्तु मे ला० । ९. तृणनिर्मिते । १०. योषितः ला० । ११. प्रवव्रजिरे
तं म्०र० ।
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एकादशः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१४५
इति क्षणं ध्यानमवाप्य रौद्रं, सर्मासहस्रं परिपूरितायुः । निकाचितैः कर्मभिरजितां प्राक्, कृष्णस्तृतीयामवनीमवाप॥१६४॥
कौमारान्तः षोडशाब्दानि विष्णोः,
षट्पञ्चाशन्मण्डलित्वे जये तु । वर्षाण्यष्टाऽथो नवाऽगुः शतानि,
विशान्युच्चैरर्धचक्रित्वकाले ॥१६५।।
॥इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये अष्टमे पर्वणि द्वारकाङ्क्षय-कृष्णावसानकीर्तनो
नाम एकादशः सर्गः ।
१. वर्षसहस्रम् । २. वालुकाप्रभाम् । ३. कौमारे १६ वर्षाणि । ४. मण्डलिके ५६ वर्षाणि । ५. जये ८ वर्षाणि । ६. वासुदेवत्वे ९२० वर्षाणि, आयु: वर्षसहस्रम् । ७. अष्टमपर्वणि खं. १-२, ला० सू० मु० । ८. ०दाह० खं. १, सू० । ९. नामैकादशमः ला०।
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॥ द्वादशः सर्गः ॥ पद्मपत्रपुटेनाऽम्भो रामोऽथाऽऽदाय सत्वरः । स्खल्यमानोऽपशकुनैः कृष्णाभ्यर्णमुपाययौ ॥१॥ सुप्तोऽसौ सुखमस्तीति बुद्ध्या तस्थौ क्षणं बलः । दृष्ट्वा च मक्षिकाः कृष्णाः कृष्णास्याद् वस्त्रमाक्षिपत् ।।२।। ततोऽज्ञासीन् मृतं बन्धुं बल: सद्योऽथ मूर्च्छया । पपात जगतीपृष्ठे कृत्तबुध्न इव द्रुमः ॥३॥ कथञ्चिल्लब्धसंज्ञः सन् सिंहनादं बलोऽकरोत् । वि।सुः श्वापदास्तेन चकम्पे चाऽखिलं वनम् ॥४।। इत्युवाच च येनेह सुखसुप्तो ममाऽनुजः । विश्वैकवीरः पापेन निजघ्ने स्वं स शंसतु ।।५।। स मे समक्षीभवतु सत्यं हि सुभटो यदि । सुप्त-प्रमत्त-भ्रूणर्षि-स्त्रीषु हि प्रहरेत कः ? ॥६॥ इत्युच्चैः शब्दमाकोशन् रामो बभ्राम तद्वनम् । भूयः कृष्णमुपेयाय तमालिङ्ग्य रुरोद च ॥७॥ हा भ्रातः ! अवनीवीर ! हा मदुत्सङ्गलालित ! । हा कनिष्ठ ! गुणज्येष्ठ ! विश्वश्रेष्ठ ! क्व तिष्ठसि ? ॥८॥ विना भवन्तं न स्थातुमीशोऽस्मीति पुराऽवदः । वचोऽपि नाऽधुना दत्से क्व सा प्रीतिर्जनार्दन ! ? ॥९॥ नाऽपराधं स्मरामि स्वं रुषितश्च निरीक्ष्यसे । किं वा यो मे विलम्बोऽभूत् स ते रोषस्य कारणम् ? ॥१०॥ स्थानेऽसि रुषितो भ्रातः । तथाप्युत्तिष्ठ सम्प्रति । गच्छत्यस्तं रविः स्वप्नकालो नैष महात्मनाम् ॥११॥ एवं च प्रलपन् रामस्तामतीयाय यामिनीम् । उत्तिष्ठोत्तिष्ठ हे भ्रातः ! प्रातरप्येवमब्रवीत् ॥१२॥ अनुत्तिष्ठन्तमुत्थाय तमथ स्नेहमोहितः । रामः स्कन्धे समारोप्याऽभ्राम्यद् गिरि-वनादिषु ॥१३॥ कृष्णकायं वहन्नर्चन् पुष्पाद्यैरन्वहं बलः । षण्मासानतिचक्राम भ्रातृस्नेहविमोहितः ।।१४।। पतत्रैव पर्यटत्येवं वर्षाकालः समाययौ । सिद्धार्थः सोऽमरीभूतो ददर्शाऽवधिना च तम् ॥१५॥ सोऽचिन्तयच्च यदहो ! भ्राता मे भ्रातृवत्सलः । मृतं कृष्णं वहन्नस्ति तदेनं बोधयाम्यहम् ॥१६॥ मामेषोऽथितपर्वी च यन्मां विपदि बोधयेः । ध्यात्वेत्यनेरुत्तरन्तं चक्रे सोऽश्ममयं रथम् ॥१७॥ उत्तीर्य विषमाच्छैलात् सोऽभज्यत रथः समे । कुटुम्बिरूपस्तं देवः सन्धातुमुपचक्रमे ॥१८॥ बलस्तमू मुग्ध ! रथं सन्धातुमिच्छसि? | उत्तीर्य विषमादद्रेर्यः समे खण्डशोऽभवत् ।।१९।। देवोऽप्यूचे युत्संहस्रेष्वहतो यो युधं विना । मृतो जीवेद् यदा ह्येष स्यात् सज्जो मे रथस्तदा ॥२०॥ आरोपयितुमारेभे देवोऽथाऽश्मनि पद्मिनीः । बलोऽप्युवाच किं ग्राणिं प्ररोहत्यब्जिनीवनम् ? ॥२१॥ प्रत्युवाचाऽमरोऽप्येवमयं तव यदाऽनुजः । जीविष्यति सरोजिन्यस्तदाऽऽरोक्ष्यन्त्यमूरपि ॥२२॥ किञ्चिदग्रे पुनर्भूत्वाऽसिञ्चद् दग्धद्रुमं सुरः । बलोऽप्यूचे दग्धतरुः किं सिक्तोऽपि प्ररोहति? |२३|| तं प्रत्युवाच देवोऽपि यदा स्कन्धस्थितं तव । जीविष्यति शवं वृक्षः प्ररोक्ष्यति तदा ह्ययम् ॥२४॥ गोपीभूयाऽमरः सोऽग्रे गोशेबास्येषु नूतनाः । दूर्वाः प्रक्षेप्तुमारेभे जीवद्गव्याननेष्विव ॥२५॥ बलभद्रो बभाषे तमस्थिभूता इमाः कदा । गावो दूर्वाश्चरिष्यन्ति त्वद्दत्ता मूढमानस !? ॥२६॥ देवोऽभ्यधाद् यदा ह्येष जीविष्यति तवाऽनुजः । इमा अपि तदा गावश्चरिष्यन्ति तृणान्यहो ! ॥२७।। गरामोऽपि विमम®वं किं सत्यं मे मुतोऽनुजः ? । एकवाक्यतयाऽमी यद् वदन्त्येवं पृथक् पृथक् ॥२८॥ देवस्तच्चिन्तितं ज्ञात्वा सद्यः सिद्धार्थरूपभृत् । पुरो भूत्वाऽब्रवीदेष सिद्धार्थः सारथिस्तव ॥२९॥ तदा प्रव्रजितो मृत्वा देवभूयमगामहम् । त्वां बोधयितुमत्राऽऽगामथितोऽस्मि पुरा त्वया ॥३०॥
जराँकुमारात् कृष्णस्य वधः प्रोक्तो हि नेमिना । जज्ञे च स तथा नैवाऽन्यथा सर्वज्ञभाषितम् ॥३१॥ १. कृन्तमूल मु० । २. समाने भूभागे । ३. युद्धसहस्रेषु । ४. पाषाणे । ५. गवां मृतकानि, तद्वदनेषु । ६. दूर्वां चरि० खं० १, ला० सू० । ७. त्वद्दत्तां खं. १, ला० सू० । ८. जरत्कुमारात् खं० १, सू० ।
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द्वादशः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१४७ जराकुमारः कृष्णेनाऽभिज्ञाने निजकौस्तुभम् । अर्पयित्वा प्रेषितोऽगात् पाण्डवानां निकेतने ॥३२।। बलोऽप्युवाच सिद्धार्थ ! साध्वहं बोधितस्त्वया । किं करोम्यधुना भ्रातव्ययव्यसनपीडितः ? ॥३३॥ सिद्धार्थोऽप्यभ्यधाद् श्रीमन्नेमिभ्रातुर्विवेकिनः । परिव्रज्यां विना नाऽन्यद् युज्यतेऽतः परं तव ॥३४॥ आमेत्युक्त्वा बलस्तेन देवेन सहितस्ततः । कृष्णकायस्य संस्कारमकरोत् सिन्धुसङ्गमे ॥३५॥ दीक्षां जिघृक्षु रामं च ज्ञात्वा श्रीनेम्यपि द्रुतम् । विद्याधरमृर्षि प्रैषीदेकमेकः कृपालुषु ॥३६॥ तत्पार्वे प्राव्रजद् रामस्तपस्तीनं चचार च । तुङ्गिकाशिखरे गत्वा सिद्धार्थोऽस्थाच्च रक्षकः ॥३७॥ मासपारणकेऽन्येधुर्बल: क्वापि पुरेऽविशन् । कयाऽपि सार्भया पौर्या कूपकण्ठस्थयैक्ष्यत ॥३८।। रामस्य रूपातिशयालोकनव्यग्रचित्तया । कुम्भस्थाने पुत्रकण्ठे तया रज्जुरबध्यत ॥३९॥ कूपे तं क्षेप्तुमारेभे सा यावत्तावदैक्ष्यत । बलेन चिन्तितं चेदं धिग् मे रूपमनर्थकृत् ॥४०॥ नातः परं पुर-ग्रामादिषु वेक्ष्यामि किन्त्वहम् । वने काष्ठादिहारिभ्यः पारयिष्यामि भिक्षया ॥४१॥ तां नारी बोधयित्वाऽथ तदैव हि वनं बलः । जगाम तेपे च तपो दुस्तपं मासिकादिकम् ॥४२॥ आनीतं भक्त-पानादि तृण-काष्ठादिहारिभिः । दत्तं च तैः प्रासुकं च गृहीत्वाऽपारयन्मुनिः ॥४३॥ काष्ठादिहारकास्ते च गत्वाऽऽचख्युः स्वभूभुजाम् । देवरूपः पुमान् कोऽपि चरन्नस्ति वने तपः ॥४४।। इत्याशशङ्किरे ते च किमस्मद्राज्यकाङ्क्षया । करोति तप ईदृक्षं मन्त्रं वा साधयत्यसौ ॥४५।। इमं हन्मस्ततो गत्वेत्यालोच्य युगपच्च ते । ईयुः सर्वाभिसारेण मुने रामस्य सन्निधौ ॥४६॥ ततश्च देवः सिद्धार्थस्तस्य सन्निहितः सदा.। विचक्रेनेकशः सिंहान् जगतोऽपि भयङ्करान् ॥४७|| राजानश्चकितास्ते च नमस्कृत्य बलं ययुः । नरसिंह इति ख्यातो बलभद्रस्तदाद्यभूत् ॥४८॥ गवने तपस्यतस्तस्य धर्मदेशनयाऽग्यया । वासिता व्याघ्र-सिंहाद्या बहवः प्रशमं ययुः ॥४९॥ केऽपि श्रावकतां भेजुः केऽपि भद्रकतां पुनः । कायोत्सर्ग व्यधुः केऽपि केऽपि चाऽनशनं तदा ॥५०॥ मांसाहारान्निवृत्तास्ते बभूवुः पारिपाश्विकाः । तिर्यग्रूपधराः शिष्याः इव राममहामुनेः ॥५१॥ रामप्राग्भवसम्बद्धः कोऽपि जातिस्मरो मृगः । अतिसंवेगमापन्नः सदा सहचरोऽभवत् ॥५२॥ उपास्योपास्य रामर्षि स मृगो वनमभ्रमत् । अगवेषयदायातान् सौन्नान् काष्ठादिहारिणः ॥५३॥ यदाऽपश्यत् तदैवैत्य रामर्षि ध्यानमास्थितम् । पर्यस्यन् शिरसा पादे भि दातृनजिज्ञपत् ॥५४॥ रामस्तदुपरोधेन ध्यानं मुक्त्वा क्षणादपि । भिक्षायै निरगात् तेन हरिणेनाऽग्रगामिना ॥५५।। तत्राऽन्येधुर्वने भव्यदारुभ्यो रथकारकाः । आययुश्चिच्छिदुश्चापि वृक्षान् सारानृजून् बहून् ॥५६।। तान् प्रेक्ष्य स भ्रमन्नेणः सद्यो राममजिज्ञपत् । ध्यानं चाऽपारयत् तस्योपरोधात् स महामुनिः ॥५७॥ तेषु भोक्तुं निषण्णेषु भिक्षार्थं मांसपारणे । रामर्षिराययौ तत्र हरिणेनाऽग्रगामिनो ॥५८॥ रथकाराग्रणी रामं प्रेक्ष्य प्रीतो व्यचिन्तयत् । अहो ! अत्राप्यरण्येऽसौ कल्पद्रुरिव कोऽप्यषिः ॥५९॥ अहो ! रूपमहो ! तेजः प्रशमः कोऽप्यहो ! महान् । कृतार्थः सर्वथाऽप्यस्मि मुनिनाऽतिथिनाऽमुना ॥६०॥ रथकारो विचिन्त्यैवं पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः । बलर्षये नमस्कृत्य भोज्यपानान्युपानयत् ॥६१।। अथ दध्यौ बलमुनिः श्राद्धः कोऽप्येष शुद्धधीः । कर्माऽजितुं स्वर्गफैलं भिक्षां मे दातुमुद्यतः ॥६२।। न चेद् गृह्णाम्य{ भिक्षां तदेतस्य हि सद्गतेः । कृतो मयाऽन्तरायः स्याद् गृह्णाम्येतेन हेतुना ॥६३।। एवं विचिन्त्य भगवान् कारुण्यक्षीरसागरः । स्वकायनिरपेक्षोऽपि भिक्षां तस्मादुपाददे ॥६४||
पऊर्ध्वाननो मृगः सोऽपि बाष्पाम्भःप्लावितेक्षणः । मुनि वनच्छिदं चापि पश्यन्निदमचिन्तयत् ॥६५।। १. कृपालुषु एक: अद्वितीयः । २. कृपापरः ला० । ३. अर्भेण बालकेन सहितया । ४. नार्या ला० । ५. गतः ला० । ६. बलभद्रस्तदाऽभवत् ला० । ७. धर्मदेशनयाऽग्रया ला २. पु० आ० मु०, ०देशनया तया ला० । अग्यया श्रेष्ठया । ८. सेवकाः । ९. ०सम्बन्धः मु० र० । १०. अतिसंवेगसम्पन्नः ला० । ११. अन्नसहितान् । १२. भिक्षादातृन् व्यजिज्ञपत् ला० मु० । १३. रथकारुका: मु० । १४. ०गामिणा खं० २, सू० । १५. सन्मुनिः ला० । १६. काजितं खं० । १७. शुद्धफलम् ला० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
अहो ! कृपानिधिः स्वामी निरपेक्षो वपुष्यपि । अन्वग्रहीद् रथकारं तपसामेक आश्रयः ॥६६॥ अहो ! वेनच्छिद् धन्योऽयं जन्म चाऽस्य महाफलम् । येनाऽयं भगवानेवं पानान्नैः प्रतिलम्भितः ॥६७।। अहं पुनर्मन्दभाग्यो न तपः कर्तुमीश्वरः । प्रतिलम्भयितुं नापि धिग् मां तिर्यक्त्वदूषितम् ॥६८॥ एवं त्रयोऽपि ते यावद् धर्मध्यानपराः स्थिताः । महावाताहतस्तावदर्धच्छिन्नोऽपतत् तरुः ॥६९॥ ते त्रयस्तरुणा तेन पतितेन हता मृताः । पद्मोत्तरविमानान्तब्रह्मलोकेऽभवन् सुराः ॥७॥ पव्रतमब्दशतं रामः पालयित्वा गतो दिवम् । ददर्शाऽवधिना कृष्णं तृतीयनरके गतम् ॥७१।। शरीरं वैक्रियं कृत्वा भ्रातृस्नेहेन मोहितः । उपकृष्णं ययौ रामः कृष्णमालिङ्ग्य चाऽवदत् ॥७२।। रामोऽहं भवतो भ्राता त्वां त्रातुं ब्रह्मलोकतः । अत्राऽऽयातोऽस्मि किं तुभ्यं करोमि प्रीतये वद ? ||७३।। स इत्युक्त्वोद्दधे कृष्णं पाणिना सोऽपि पाणितः । शीर्वा पारदवद् भूमौ पपात च मिमेल च ॥७४।। आदावालिङ्गनाज्ज्ञात आख्यायोद्धरणात् ततः । रामः कृष्णेनाऽभ्युत्थाय नमश्चक्रे तिसम्भ्रमात् ॥७५।। तं जगाद बलो भ्रातरुक्तं श्रीनेमिना तदा । दुःखान्तं विषयसुखं प्रत्यक्षं तत् तवाऽधुना ॥७६।। त्वां कर्मयन्त्रितं स्वर्गे न नेतुमहमीश्वरः । तिष्ठामि सन्निधौ तत्ते मनःप्रीतिकृते हरे ! ॥७७॥ कृष्णोऽप्युवाच हे भ्रातस्तिष्ठताऽपि त्वयाऽत्र किम् ? । त्वयि सत्यपि भोक्तव्यं नरकायुरुपार्जितम् ॥७८।। नरकादपि दःखाय यन्ममाऽवस्थया तयाँ । बभूवाऽसहृदां हर्षो म्लानिश्च सहृदां तदा ॥७९॥ तद्गच्छ भरते चक-शार्ग-शङ्क-गदाधरम् । पीतवस्त्रं तार्क्ष्यकेतुं दर्शये विमानगम् ॥८॥ नीलाम्बरं तालकेतुं लाङ्गला-ऽयोग्रधारकम् । दर्शयेः स्वं च सर्वत्र विमानस्थं पदे पदे ॥८१।। यथा ह्यनश्वरौ राम-कृष्णौ स्वेच्छाविहारिणौ । इति लोके प्रघोषः स्यात् पूर्वन्यत्कारबाधकः ॥८२॥ प्रतिपद्य तथा रामो जगाम भरतावनौ । तथैव कृत्वा ते रूपे दर्शयामास सर्वतः ॥८३।। एवमूचे च भो लोकाः ! कृत्वा नौ प्रतिमाः शुभाः । प्रकृष्टदेवताबुद्ध्या यूयं पूजयताऽऽदरात् ॥८४।। वयमेव यतः सृष्टि-स्थिति-संहारकारिणः । वयं दिव इहाऽऽयामो यामश्च स्वेच्छया दिवम् ।।८५।। निर्मिता द्वारकाऽस्माभिः संहृता च यियासुभिः । कर्ता हर्ता च नान्योऽस्ति स्वर्गदा वयमेव च ॥८६॥ एवं तस्य गिरा लोकः सर्वो ग्राम-पुरादिषु । प्रतिमाः कृष्ण-हलिनोः कारं कारमपूजयत् ॥८७॥ प्रतिमार्चक-कर्तृणां महान्तमुदयं ददौ । स सुरस्तेन सर्वत्र तद्भक्तोऽभूज्जनोऽखिलः ॥८८॥ इति भ्रातृवचो रामसुरोऽनुष्ठीय भारते । ब्रह्मलोकं पुनरगाद् दुर्मना भ्रातृदुःखतः ॥८९॥ पाइतश्च स जरासनः पाण्डवान् समुपास्थितः । आख्यच्च द्वारकादाहादिकं कौस्तुभमर्पयन् ॥९०॥ सद्योऽपि शोकमग्नास्ते रुदन्तो वत्सरावधि । प्रेतकार्याणि कृष्णस्य विदधुः सोदरा इव ॥९१॥ तान् प्रविव्रजिषून् ज्ञात्वा श्रीनेमिः प्राहिणोन्मुनिम् । धर्मघोषं चतुर्ज्ञानं मुनिपञ्चशतीयुतम् ॥१२॥ जारेयं न्यस्य ते राज्ये द्रौपद्यादिसमन्विताः । तस्यर्षेः प्राव्रजन पार्वे चक्रः साभिग्रहं तपः ॥९३॥ 'कुन्ताग्रेण प्रदत्तोञ्च्छं ग्रहीष्यामीत्यभिग्रहम् । जग्राह भीमः से त्वस्य षड्भिर्मासैरपूर्यत ॥१४॥ द्वादशाङ्गधरास्ते तु विहरन्तो महीं क्रमात् । प्रचेलुर्नेमिनं नन्तुमुत्काः पञ्चापि पाण्डवाः ॥९५।। पाइतश्च मध्यदेशादौ विहृत्य परमेश्वरः । उदीच्या राजपुरादिपुरेषु व्यहरत् प्रभुः ॥९६।। शैले हीमति गत्वा च म्लेच्छदेशेष्वनकशः । विहरन् पार्थिवा-ऽमात्यप्रभृतीन् प्रत्यबोधयत् ॥९७॥ आर्या-ऽनार्येषु विहृत्य भूयो हीमत्यगाद् विभुः । ततः किरातदेशेषु व्यहार्षीद् विश्वमोहहृत् ॥९८॥ उत्तीर्य हीमतः शैलाद् विजहे दक्षिणापथे। भव्यारविन्दखण्डानि बोधयन्नंशुमानिव ॥९९।।
पआरभ्य केवलादेवं भर्तुविहरतोऽभवन् । अष्टादश सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् ॥१०॥ १. रथकारः । २. शुभध्यानपराः ला० र० । ३. यन्ममावस्थयाऽनया पा० मु० । ४, द्वारिकादाहसमये जातया । ५. शत्रूणाम् । ६. गरुडध्वजम् । ७. कृष्णम् । ८. तालध्वजम् । ९. बलदेवम् । १०. पराभवः । ११. आवयोः राम-कृष्णयोः । १२. कृत्वा कृत्वा । १३. पालयित्वा । १४. ०मार्पयत् खं० २, ला० । १५. भक्तम् । १६. अभिग्रहः । १७. उत्तरदिशि । १८. श्रमणाः १८००० ।
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द्वादशः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । चत्वारिंशत् सहस्राणि व्रतिनीनां सुमेधसाम् । चतुर्दशपूर्वभृतां तथा शतचतुष्टयी ॥१०१॥ अवधिज्ञानभाजां च शतानि दश पञ्च च । तानि वैयिलब्धीनां तानि केलिनामपि ॥१०२।। सहस्रमेकं साधूनां मनःपर्यायशालिनाम् । श्रमणानां शतान्यष्टौ वादलब्धिमतां पुनः ॥१०३।। श्राव॑काणां लक्षमेकं नवषष्टिसहस्रयुक् । श्रॉविकास्त्रिलक्ष्येकोनचत्वारिंशत्सहस्रयुक् ॥१०४।। एवं परीवारवृतः सुरा-ऽसुर-नृपान्वितः । निर्वाणसमयं ज्ञात्वा ययौ रैवतके प्रभुः ॥१०५।। सुरेन्द्रैस्तत्र समवसरणे रचिते व्यधात् । पर्यन्तदेशनां स्वामी विश्वानुग्रहकाम्यया ॥१०६॥ तया देशनया बुद्धास्तत्र केऽपि प्रवव्रजुः । केचिद् भेजुः श्रावकत्वं भद्रकत्वमथाऽपरे ॥१०७।। ततः प्रपेदेऽनशनं पादपोपगमं प्रभुः । मासिकं सह साधूनां षट्त्रिंशः पञ्चभिः शतैः ॥१०८॥ त्वाष्ट्र शुचिसिताष्टम्यां शैलेशीध्यानमास्थितः । सायं तैर्मुनिभिः सार्धं नेमिनिर्वाणमासदत् ॥१०९॥ अथ प्रद्युम्न-शाम्बाद्याः कुमाराः प्रययुः शिवम् । महिष्योऽष्टौ च कृष्णस्य भगवद्वन्धवोऽपि च ॥११०॥ भूयांसो व्रतिनोऽन्येऽपि वतिन्यश्चाऽपरा अपि । राजीमतीप्रभृतयः प्रययुः पदमव्ययम् ॥१११।। चतुरब्दशतीं गेहे छद्मस्थो वत्सरं पुनः । केवली पञ्चाब्दशतीमित्यायू रथनेमिनः ॥११२॥ ईदृगायुःस्थिती राजीमत्यासीच्च तपोधनों । कौमार-च्छद्मवासित्व-केवलित्वविभागतः ॥११३।। शिवा-समुद्रविजयौ माहेन्द्रं कल्पमीयतुः । दशार्हा अपरेऽपीयुर्देवभूयं महर्द्धिकम् ॥११४।। कौमारे त्रिवर्षशती छद्म-केवलयोः पुनः । सप्तवर्षशतीत्यब्दसहस्रायुः शिवासुतः ॥११५॥ श्रीनमिस्वामिनिर्वाणाच्छ्रीनेमिस्वामिनिर्वृतिः । अतिक्रान्तेषु वर्षाणामभूल्लक्षेषु पञ्चसु ॥११६।। शक्राज्ञया वैश्रवणो विचक्रे शिबिकां प्रभोः । अङ्गं विधिवदर्चित्वा शक्रस्तत्र स्वयं न्यधात् ॥११७॥ चक्रुश्चितां च नैर्ऋत्यामधिरत्नशिलातलम् । गोशीर्षचन्दनप्रायैरिन्धनैरथ नाकिनः ॥११८॥ उत्पाट्य स्वामिशिबिकां तत्राऽऽनिन्ये पुरन्दरः । चितायामथ चिक्षेप श्रीनेमिस्वामिनो वपुः ॥११९।। शक्राज्ञयाऽग्निकुमाराश्चितायामग्निमादधुः । तमथ ज्वालयामासुद्भुतं वायुकुमारकाः ॥१२०।। क्षीरोदाम्भोभिरब्दांश्च कालेऽग्नि निरवापयत् । जगृहुश्च प्रभोद॑ष्ट्रां शक्रेशानादिवासवाः ॥१२१।। शेषाण्यस्थीन्यन्यदेवास्तद्देव्यः कुसुमानि च । भूपा वस्त्राणि लोकाश्च जगृहुर्भस्म नेमिनः ॥१२२।। स्वामिसंस्कारवैडूर्यशिलायां तत्र वज्रभृत् । वज्रेण स्वामिनोऽलेखील्लक्षणानि च नाम च ॥१२३॥ तस्यां शिलायां मर्धेवा रचयामास पावनम् । श्रीनेमिनाथप्रतिमासनाथं चैत्यमुच्चकैः ॥१२४॥ एवं कृत्वा च शकाद्याः स्वं स्वं स्थानं ययुः सुराः । इतश्च पाण्डवाः प्रापुर्हस्तकल्पे पुरे तदा ॥१२५॥
॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥ अस्माद् द्वादश योजनानि स गिरिर्नेमि प्रगे वीक्ष्य तत्,
कर्मो मासिकपारणं वयमिति प्रीत्या वदन्तो मिथः । तस्मिन् हस्तिपुरे जनादिति तदा ते शुश्रुवुर्यत् प्रभुः,
नेमिनिर्वृतिमाससाद भगवांस्तैस्तैर्वृतः साधुभिः ॥१२६।। १. श्रमण्यः ४०००० । २. चदुर्दशपूविणः ४०० । ३. अवधिज्ञानिनः १५०० । ४. वैक्रियलब्धयः १५०० । ५. केवलिनः १५०० । ६. मनःपर्यायज्ञानिनः १००० । ७. वादलब्धिमन्त: ८०० । ८. श्रावकाः १६९००० । ९. श्राविकाः ३३९००० । १०.
नृपार्चितः खं० २ । ११. आषाढशुक्लाष्टम्याम् । १२. तपोधनी खं० २ । १३. श्रीनमिजिन० मु० र० । १४. विभोः खं० २। १५. इन्द्रः ॥ १६. स्वस्वस्थानं खं० २ ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(अष्टमं पर्व
॥ वसन्ततिलका ।। आकर्ण्य तद्गुरुशुचो विमलाद्रिमीयुः, पाण्डोः सुता विदधिरेऽनशनं च तत्र । उत्केवला: शिवमगुर्दुपदात्मजा तु, सा ब्रह्मलोकमगमत् परमद्धिधाम ॥१२७॥
॥ मन्दाक्रान्ता ॥ द्वाविंशोऽर्हन्नथ च नवम: शाळ्भृत् सीरपाणिः,
तद्वैरी चेत्यतुलमहसः कीर्तिताः पर्वणीह । चत्वारोऽपि प्रवचनदिशं सम्यगुद्वीक्ष्य येषा
मेकैकोऽपि श्रुतिपथगतो विस्मयाय त्रिलोक्याम् ॥१२८।।
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये
अष्टमें पर्वणि बलदेवस्वर्गगमननेमिनिर्वाण-पाण्डवनिर्वाणवर्णनो नाम
द्वादशः सर्गः समाप्तमिदमष्टमं पर्व ॥
१. सिद्धाचलतीर्थम् । २. नेमिनाथ: । ३. कृष्णः । ४. बलभद्रः । ५. तद्वैरी कृष्णवैरी जरासन्धः । ६. अत्यन्ततेजस्विनः । ७. सिद्धान्तदिशम्, प्रवचनमिदम् ता० सं० । ८. ०ऽष्टमपर्वणि मु० । ९. नेमिनाथनिर्वाण० खं० २ । १०. पाण्डवनिर्वाण० इति न खं० २, ला० । ११. द्वादशम: खं० २, ला० । १२. समाप्तं चेद० खं० २ ।
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अहम् ॥ श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।।
नमो नमः श्रीगुरुनेमिसूरये ।। कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यभगवद्विरचितं श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित-महाकाव्यम् ॥
॥ अथ नवमं पर्व ॥
॥ प्रथमः सर्गः ॥
॥ ब्रह्मदत्तचक्रिचरितम् ॥ श्रीनेमिनार्थमानम्य तत्तीर्थे लब्धजन्मनः । प्रवक्ष्ये ब्रह्मदत्तस्य चरितं चक्रवर्तिनः ॥१॥ साकेतनगरे चन्द्रावतंसस्य सुतः पुरा । नामतो मुनिचन्द्रोऽभूदै जम्बूद्वीपेऽत्र भारते ॥२॥ निविण्णः कामभोगेभ्यो भारेभ्य इव भारिकः । मुनेः सागरचन्द्रस्य पार्वे जग्राह स व्रतम् ॥३॥ प्रव्रज्यां जगतः पूज्यां पालयन्नयमन्यदा । देशान्तरे विहाराय चाल गुरुणा सह ॥४॥ स तु भिक्षानिमित्तेन पथि ग्रामं प्रविष्टवान् । सार्थाद् भ्रष्टोऽटवीमाट यूथच्युत इवैणकः ।।५।। स तत्र क्षुत्पिपासाभ्यामाकान्तो ग्लानिमागतः । चतुर्भिः प्रतिचरितो वल्लवैर्बान्धवैरिव ॥६॥ स तेषामुपकाराय निर्ममे धर्मदेशनाम् । अपकारिष्वपि कृपा सतां किं नोपकारिषु ? ॥७॥ प्रवव्रजुस्ते तत्पार्वे चत्वारः शमशालिनः । चतुर्विधस्य धर्मस्य चतस्र इव मूर्तयः ॥८॥ व्रतं तेऽपालयन् सम्यक् किं तु द्वौ तत्र चक्रतुः । धर्मे जुगुप्सां चित्रा हि चित्तवृत्तिः शरीरिणाम् ॥९॥ जग्मतुस्तपसा तौ द्यां जुगुप्साकारिणावपि । स्वर्गाय जायतेऽवश्यमप्येकाहकृतं तपः ॥१०॥ च्युत्वा ततो दशपुरे संण्डिलिब्राह्मणावुभौ । युग्मरूपौ सुतौ दास्यां जयवत्यां बभूवतुः ॥११॥ तौ क्रमाद्यौवनं प्राप्तौ पित्रादिष्टौ च जग्मतुः । रक्षितुं क्षेत्रमीदृग् हि दासेरीणां नियोजनम् ॥१२॥ तयोः शयितयोर्नक्तं निःसत्य वटकोटरात् । एकः कृष्णाहिना दष्टः कृतान्तस्येव बन्धुना ॥१३॥ ततः सर्पोपलम्भाय द्वितीयोऽपि परिभ्रमन् । वैरादिवाऽऽशु तेनैव दष्टो दुष्टेन भोगिना ॥१४॥ तावनाप्तप्रतीकारौ वराको मृत्युमापतुः । यर्था जातौ तथा यातौ निष्फलं जन्म धिक् तयोः ॥१५॥ कालिञ्जरगिरिप्रस्थे मृग्या यमलरूपिणौ । मृगावजनिषातां तौ ववृधाते सहैव च ॥१६।। प्रीत्या सह चरन्तौ तौ मृगौ 'मृगयुणा हतौ । बाणेनैकेनैककालं कालधर्ममुपेयतुः ॥१७॥ ततोऽपि मृतगङ्गायां राजहंस्या उभावपि । अजायेतां सुतौ युग्मरूपिणौ पूर्वजन्मवत् ॥१८॥ क्रीडन्तावेकदैकस्तो धृत्वा जालेन जालिकः । ग्रीवां भक्त्वाऽवधीद्धर्महीनानां हीदृशी गतिः ।।१९।। वाराणस्यां ततोऽभूतां भूतदत्ताभिधस्य तौ । महाधनसमद्धस्य मातङ्गाधिपतेः सुतौ ॥२०॥ चित्र-सम्भूतनामानौ तौ मिथः स्नेहशालिनौ । न कदापि व्ययुज्येतां सम्बद्धौ नख-मांसवत् ॥२१॥ वाराणस्यां तदा चाऽभूच्छत इत्यवनीपतिः । आसीच्च सचिवस्तस्य नमुचिर्नाम विश्रुतः ॥२२॥ अपरेधुः सोऽपराधे महीयसि महीभुजा । अर्पितो भूतदत्तस्य 'प्रच्छन्नवधहेतवे ॥२३॥
तेनोचे नमुचिश्छन्नं त्वां रक्षामि निजात्मवत् । पाठयस्यात्मजौ मे त्वं यदि भूमिगृहस्थितः ॥२४॥ १. नमः श्रीसर्वज्ञाय सं० । २. जिनमानम्य सं० । ३. ०भूच्चन्द्रवन्मधुराकृतिः सं० । ४. पालयन्नन्यदा तु सः मु० । ०नन्यदाऽथ सः हे० । ५. चचार मु० । ६. हरिणः । ७. गोपैः । ८. धर्मजुगुप्सां हे० मु० । ९. शाण्डिल्य० मु० । १०. ०वुभौ सं० । ११. प्राप सं०हे० । १२. दासीपुत्राणाम् । १३. यथाऽऽयातौ हे० मु० । १४. शिखरे । १५. व्याधेन । १६. मृत्वा मु० । १७. दैकस्थौ हे० मु० । १८. वियुज्येतां सं० ।१९। प्रच्छन्नं मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
प्रतिपन्नं नमुचिना तन्मातङ्गपतेर्वचः । जनो हि जीवितव्यार्थी तन्नास्ति न करोति यत् ॥२५॥ विचित्राश्चित्र-सम्भूतौ स तथाऽध्यापर्यंन् कलाः । रेमेऽनुरक्तया सार्धं मातङ्गपतिभार्यया ॥२६॥ ज्ञात्वा तद्भूतदत्तेनाऽऽरेभे मारयितुं तु सः । सहेते कः स्वदारेषु पारदारिकविप्लवम् ? ॥२७॥ ज्ञात्वा मातङ्गपुत्राभ्यां स दूरेणाऽपसारितः । सैवाऽस्मै दक्षिणा दत्ता प्राणरक्षणलक्षणा ||२८|| ततो निःसृत्य नमुचिर्गतवान् हस्तिनापुरे । चक्रे सनत्कुमारेण सचिवश्चक्रिणा निजः ॥२९॥ |इतश्च चित्र-सम्भूतौ बभतुर्नवयौवनौ । कुतोऽपि हेतोरायातौ पृथिव्यामाश्विनाविव ||३०|| तौ स्वादु जगतुर्गीतं हाहा - हूहूपहासिनौ वादयामासतुर्वीणामर्तितुम्बुरु - नारदौ ||३१|| गीतप्रबन्धानुगतैः सुव्यक्तैः सप्तभिः स्वरैः । तयोर्वादयतोर्वीणां किङ्करन्ति स्म किन्नराः ॥३२॥ मुरजं धीरघोषं तौ वादयन्तौ च चक्रतुः । गृहीतैमुरकङ्कालातोद्यकृष्णविडम्बनाम् ||३३|| शिवः शिवोर्वशी - रम्भा - ऽञ्जनकेंशी-तिलोत्तमाः । यन्नाट्यं न विदाञ्चकुस्तौ तदप्यभिनिन्यतुः ||३४|| सर्वगान्धर्वसर्वस्वमपूर्वं विश्वकार्मणम् । प्रकाशयद्भ्यमेताभ्यां न जहे कस्य मानसम् ? ||३५|| बृतस्यां पुरि प्रववृते कदाचिन्मदनोत्सवः । निरीयुः पौरचच्चर्यस्तत्र सङ्गीतपेशलाः ॥३६॥ चच्चरी निर्ययौ तत्र चित्र - सम्भूतयोरपि । जग्मुस्तत्रैव सङ्गीताकृष्टाः पौरा मृगा इव ||३७|| राज्ञो व्यैज्ञपि केनापि मातङ्गाभ्यां पुरीजनः । गीतेनाऽऽकृष्य सर्वोऽयमात्मवन्मलिनः कृतः ||३८|| क्ष्मापेनाऽपि पुराध्यक्षः साक्षेपमिदमाज्ञपि । न प्रवेशः प्रदातव्यो नगर्यामनयोः क्वचित् ॥३९॥ ततः प्रभृति तौ वाराणस्या दूरेण तस्थतुः । प्रवृत्तश्चैकदा तत्र कौमुदीपरमोत्सवः ||४०|| राजशासनमुल्लङ्घ्य लोलेन्द्रियतया च तौ । प्रविष्टौ नगरीं भृङ्गौ गजगण्डतटीमिव ॥४१॥ उत्सवं प्रेक्षमाणौ तौ सर्वाङ्गीणावगुण्ठनौ । दस्युवन्नगरीमध्ये छन्नच्छेन्नं विचेरतुः ॥४२॥ क्रोष्टुंवत् क्रोष्टुशब्देन पौरगीतेन तौ ततः । अगायतां तारतारमलङ्घ्या भवितव्यता ॥ ४३|| आकर्ण्य कर्णमधुरं सङ्गीतं युवनागरैः । मधुवन्मक्षिकाभिस्तौ मातङ्गौ परिवारितौ ||४४|| काँवेताविति विज्ञातुं लोकैः कृष्टावगुण्ठनौ । अरे ! तावेव मातङ्गावित्याक्षेपेण भाषितौ ॥ ४५॥ नागरैः कुट्यमानौ तौ यष्टिभिर्लोष्टुभिस्ततः । श्वानाविव गृहात् पुर्या नतग्रीवौ निरीयतुः ॥४६॥ तौ सैन्य शवल्लोकैर्हन्यमानौ पदे पदे । स्खलत्पादौ कथमपि गभीरोद्यानमीयतुः || ४७|| तावचिन्तयतामेवं धिङ् नौ” दुर्ज्ञातिदूषितम् । कलाकौशलरूपादि पयो घ्रातमिवाऽहिना ॥४८॥ उपकारो गुणैरास्तामपकारोऽयमावयोः । तदिदं क्रियमाणायाः शान्तेर्वेताल उत्थितः || ४९|| कलालावण्यरूपाणि स्यूतानि वपुषा सह । तदेवाऽनर्थसदनं तृणवत् त्यजतां क्वचित् ॥५०॥ इति निश्चित्य तौ प्राणपरिहाणपरायणौ । मृत्युं साक्षादिव द्रष्टुं चेलतुर्दक्षिणामभि ॥ ५१ ॥ ततो दूरं प्रयातौ तौ गिरिमेकमपश्यताम् । यत्राऽऽरूढैर्भुवीक्ष्यन्ते करिण: किरिपर्तवत् ॥५१॥ भृगुपातेच्छया ताभ्यामारोहद्भ्यां महामुनिः । ददृशे पर्वते तस्मिञ्जङ्गमो गुणपर्वतः ॥ ५३ ॥ प्रावृषेण्यमिवाऽम्भोदं मुनिं गिरिशिरः स्थितम् । दृष्ट्वा प्रणष्टसन्तापप्रसरौ तौ बभूवतुः ॥५४॥ तौ प्राग्दुःखमिवोज्झन्तावानन्दाश्रुजलच्छलात् । तत्पादपद्मयोर्भृङ्गाविव सद्यो निपेतुः ॥५५॥ समाप्य मुनिना ध्यानं कौ युवां किमहाऽऽगतौ ? । इति पृष्टौ स्ववृत्तान्तं तावशेषमशंसताम् ॥५६॥
१. ०ध्यापयत् मु० । २. सहते सं०हे० । ३. ततश्च सं० । ४ ०मतितुम्बर० सं० । ०मतितुम्बरु० रे० । ५. र्वेणुं सं० । ६. किङ्करा इवाऽऽचरन्ति । ७. गृहीतं 'मुर' दैत्यस्य कङ्कालं अस्थिपिञ्जरं तदेवाऽऽतोद्यं येन तस्य कृष्णस्य विडम्बनां - शोभाम् । ८. ० युंजकेशी मु० । ९. ०यद्भ्यां च ता० मु० । ०यद्भ्यां तु ता० । १०. पौरचर्चर्य० मु० । चच्चरी - चाचर - गरबा इति लोकव्यवहारे । ११. चर्चरी मु० । १२. विज्ञपि सं० । १३. भृङ्गैर्गज० सं० । १४. सर्वाङ्गीणं अवगुण्ठनं आच्छादनं ययोस्तौ । १५. छन्नं छन्नं मु० । १६. शृगालवत् । १७. तावेता० सं० १८. सैन्यमध्ये प्रविष्टशशकवत् । १९. आवयोः । २० ०परिहार० सं० । २१. सूकरशिशुवत् । २२ प्रनष्ट० सं. हे० ।
( नवमं पर्व
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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स ऊचे भृगुपातेन वपुरेव हि शीर्यते । शीर्यते नाऽशुभं कर्म जन्मान्तरशताजितम् ॥५७॥ त्याज्यं वपुरिदं वां चेगृहीतं वपुषः फलम् । तच्चाऽपवर्गस्वर्गादिकारणं परमं तपः ॥५८।। इत्यादिदेशनावाक्यसुधानिधौतमानसौ । तस्य पार्वे जगृहतुर्यतिधर्ममुभावपि ॥५९।। पअधीयानौ क्रमेणाऽथ तौ गीतार्थों बभूवतुः । आदरेण गृहीतं हि किं वा न स्यान्मनस्विनाम् ? ॥६०॥ षष्ठाष्टमप्रभृतिभिस्तौ तपोभिः सुप्तस्तपैः । क्रशयामासतुर्दे प्राक्तनैः कर्मभिः सह ॥६१।। ततो विहरमाणौ तौ ग्रामाद् ग्रामं पुरात् पुरम् । कदाचित् प्रतिपेदाते नगरं हस्तिनापुरम् ॥६२|| तौ तत्र बहिरुद्याने चेरतुर्दुश्चरं तपः । सम्भोगभूमयोऽपि स्युस्तपसे शान्तचेतसाम् ॥६३।। 'सम्भूतमुनिरन्येधुर्मासक्षपणपारणे । पुरे प्रविष्टो भिक्षार्थं यतिधर्मोऽङ्गवानिव ॥६४॥ गेहाद्नेहं परिभ्राम्यन्नीर्यासमितिपूर्वकम् । स राजमार्गापतितो दृष्टो नमुचिमन्त्रिणा ॥६५।। मातङ्गदारक: सोऽयं मद्वृत्तं ख्यापयिष्यति । मन्त्रीति चिन्तयामास पापा: सर्वत्र शङ्किताः ॥६६।। यावन्मन्मर्म कस्यापि प्रकाशयति न ह्यसौ । तावन्निसियाम्येनमिति पत्तीन न्ययुक्त सः ॥६७॥ स ताडयितुमारेभे तेन पूर्वोपकार्यपि । क्षीरपाणमिवाऽहीनामुपकारोऽसतां यतः ॥६८॥ लकुटैः कुट्यमानः स सस्यबीजमिवोत्कटैः । स्थानात्ततोऽपचकाम त्वरितत्वरितं मुनिः ॥६९|| अमुच्यमानः कुट्टाकैनिर्यनपि मुनिस्तदा । शान्तोऽप्यकुप्यदापोऽपि तप्यन्ते वह्नितापतः ॥७०।। निर्जगाम मुखात् तस्य बौष्पोत्पीलः समन्ततः । अकालोपस्थिताम्भोदविभ्रमं बिभ्रदम्बरे ॥७॥ तेजोलेश्योल्ललासाऽथ ज्वालापटलमालिनी । तर्डिंन्मण्डलसङ्कीर्णामिव द्यामभितन्वती ॥७२॥ अतिविष्णुकुमारंतं तेजोलेश्याधरं ततः । प्रसादयितुमाजग्मुः पौराः सभय-कौतुकाः ॥७३|| राजा सनत्कुमारोऽपि ज्ञात्वा तत्र समाययौ । उत्तिष्ठति यतो वहिस्तद्धि विध्यापयेत् सुधीः ॥७४।। नत्वोचे तं नृपः किं वो युज्यते भगवन्निदम् ? । चन्द्राँश्माऽकांशुतप्तोऽपि नाऽचिर्मुञ्चति जातुचित् ॥७५॥ एभिरत्यपराद्धं यत्कोपोऽयं भवतामतः । क्षीराब्धेर्मथ्यमानस्य कालकूटमभून्न किम् ? ॥७६।। न स्यात् स्याच्चेच्चिरं न स्याच्चिरं चेत् तत्फलेऽन्यथा। खलस्नेह इव क्रोधः सतां तद् ब्रूमहेऽत्र किम्? ||७७|| तथापि नाथ ! नाथामि कोपं मुञ्चेतरोचितम् । भवादृशाः समदृशो ह्यपकार्युपकारिषु ॥७८॥ चित्रोऽप्यत्राऽन्तरे ज्ञात्वा संम्भूतमुनिमभ्यगात् । मधुरैर्वचनैः सान्त्वयितुं भद्रमिव द्विपम् ॥७९॥ तस्य कोप उपोशाम्यच्चित्रवाक्यैः श्रुतानुगैः । पयोवाहपयःपूरैर्गिरेरिव दवानलः ॥८०॥ तीव्रकोपतमोमुक्तः शशाङ्क इव पार्वणः । क्षणादासादयामास प्रसादं स महामुनिः ।।८१॥ वन्दित्वा क्षमयित्वा च लोकस्तस्मान्यवर्तत । सम्भूतश्चित्रमुनिना तदुधानमनीयत ॥८२।। पश्चात्तापं चक्रतुस्तौ पर्यटद्भिर्गहे गृहे । आहारमात्रककृते प्राप्यते व्यसनं महत् ॥८३॥ शरीरं गत्वरमिदं ह्याहारेणापि पोषितम् । किमनेन शरीरेण किं वाऽऽहारेण योगिनाम् ? ॥८४||
चेतसेति विनश्चित्य कृतसंलेखनौ पुरा । उभौ चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं प्रचक्रतुः ॥८५॥ पाकः पराभूतवान् साधुं वसुधां पाति मय्यपि । इति जिज्ञासतो राज्ञो मन्त्री व्यज्ञपि केनचित ।।८।। अान्नाऽर्चति यः सोऽपि पाप: किमुत हन्ति यः । इत्यानाययदुर्वीशो दस्युवत् संयमैय्य तम् ॥८७॥ अन्योऽपि साधविध्वंसं मा विधादिति शद्धधीः । तं बद्धं परमध्येन सोऽनैषीत साधसन्निधौ ॥८८॥
नमन्त्रपशिरोरत्नभाँभिरम्भोमयीमिव । कुर्वन्नुर्वी स उर्वीशपुङ्गवस्ताववन्दत ॥८९॥ १. गृह्णीत सं० । २. ०मपकारो० मु० । ३. बाष्पोत्पीडं मु० ऊष्मसमूह: । ४. तडित्पटल० सं० । ५. अतिप्रकुपितं तं च हे० मु०। ६. वह्निस्तत्र मु० । ७. चन्द्राश्मा-चन्द्रकान्तमणिः, सूर्यकिरणैस्तप्तोऽपि । ८. सतां क्रोधो न स्यात्, कदापि स्याच्चेतर्हि स चिरं न स्यात् न तिष्ठेत्, यदि चिरं स्यात्तथापि तत्फलेऽन्यथा स्यादित्यर्थः । ९. इतरोचितं-सामान्यजनोचितम् । १०. सम्भूति० सं०० । ११. सान्त्वयितुं भद्रमिव द्विपं मधुरभाषितैः हे० मु० । १२. उपशा० सं० । १३. महाकोप० सं० । १४. नश्वरम् । १५. चौरवद् बद्ध्वा । १६. न व्यधात् । १७. नमनुप० हे. मु० । १८. ०भानिरम्भो० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
संव्यपाणिगृहीतास्यवस्त्रिकापिहिताननौ । उद्दक्षिणकरौ तौ तमाशशंसतुराशिषा ॥ ९० ॥ यो वोऽपराद्धवान् सोऽस्तु स्वकर्मफलभोजनम् । राज्ञा सनत्कुमारेणेत्यदर्शि नमुचिस्तयोः ॥ ९१ ॥ अमोचि नमुचिः प्राप्तः पञ्चत्वोचितभूमिकाम् । सनत्कुमारतस्ताभ्यामुरगो गरुडादिव ॥ ९२ ॥ निर्वास्य कर्मचण्डालश्चण्डाल इव पत्तनात् । वध्योऽप्यमोचि राज्ञा स मान्यं हि गुरुशासनम् ||१३|| [सपत्नीभिश्चतुःषष्टिसहस्रैः परिवारिता । वन्दितुं तौ सुनन्दाऽऽगात् स्त्रीरत्नमथ चक्रिणः ||९४|| सा सम्भूतमुनेः पादपद्मयोर्लुलितालका । पपाताऽऽस्येन कुर्वाणा भुवमिन्दुमतीमिव ॥९५॥ तस्याश्चाऽलकसंस्पर्शं सम्भूतैमुनिरन्वभूत् । रोमाञ्चितञ्च सद्योऽभूच्छलान्वेषी हि मन्मथः ||९६|| अथ सान्तःपुरे राज्ञि तावनुज्ञाप्य जग्मुषि । रागाभिभूतः सम्भूतो निदानमिति निर्ममे ||९७|| दुष्करस्य मदीयस्य यद्यस्ति तपसः फलम् । तत् स्त्रीरत्नपतिर्भूयामहमेष्यति जन्मनि ॥ ९८ ॥ चित्रोऽप्यूचे कांक्षसीदं मोक्षदात् तपसः फलम् । मौलियोग्येन रत्नेन पादपीठं करोषि किम् ? ॥९९॥ मोहात् कृतं तन्निदानमिदानीमपि मुच्यताम् । मिथ्यादुष्कृतमस्याऽस्तु मुह्यन्ति न भवादृशाः ॥ १०० ॥ एवं निवार्यमाणोऽपि सम्भूतश्चित्रसाधुना । निदानं नाऽमुचदहो ! विषयेच्छा बलीयसी ॥१०१॥ निर्व्यूढानशनौ तौ तु प्राप्तायुः कर्मसंक्षयौ । सौधर्मे समजायेतां विमाने सुन्दरे सुरौ ॥ १०२ ॥ |च्युत्वा जीवोऽथ चित्रस्य प्रथमस्वर्गलोकतः । पुरे पुरिमतालाख्ये महेभ्यतनयोऽभवत् ॥१०३|| च्युत्वा सम्भूतजीवोऽपि काम्पिल्ये ब्रह्मभूपतेः । भार्यायाश्चलनीदेव्याः कुक्षौ समवतीर्णवान् ॥१०४॥ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितागामिवैभवः । स्वर्णवर्णोऽभवत् सूनुस्तस्याः सप्तधनूच्छ्रितः ॥१०५॥ ब्रह्ममग्न इवानन्दाद् ब्रह्मभूपतिरस्य च । ब्रह्माण्डविश्रुतां ब्रह्मदत्त इत्यभिधां व्यधात् ॥ १०६॥ ववृधे स जगन्नेत्रकुमुदानां मुदं दिशन् । पुष्यन् कलाकलापेन कर्लांनिधिरिवाऽमलः ॥१०७॥ ||वक्त्राणि ब्रह्मण इव चत्वारि ब्रह्मणोऽभवन् । प्रियमित्राणि तत्रैकः कटकः काशिभूपतिः ॥१०८॥ कणेरुदत्तसंज्ञोऽन्यो हस्तिनापुरनायकः । दीर्घश्च कोशलाधीशश्चम्पेशः पुष्पचूलकः ॥ १०९ ॥ ते स्नेहाद्वर्षमेकैकमेकैकस्य पुरं युताः । पञ्चाऽप्यधिवसन्ति स्म स्वर्दुमा इव नन्दनम् ॥ ११०॥ ब्रह्मणो नगरेऽन्येद्युस्ते यथायोगमाययुः । तत्र च क्रीडतां तेषां ययौ कालः कियानपि ॥ १११ ॥ ब्रह्मदत्तस्य पूर्णेषु वर्षेषु द्वादशस्वथ । परलोकगतिं भेजे ब्रह्मराजः शिरोरुजा ॥ ११२ ॥ कृत्वौर्ध्वदेहिकं ब्रह्मभूपतेः कटकादयः । उपाया इव मूर्त्तास्ते चत्वारोऽमन्त्रयन्निति ॥११३॥ ब्रह्मदत्तः शिशुर्यावदेकैकस्तावदत्र नः । तस्य प्राहरिक इव वर्षे वर्षेऽस्तु रक्षः ||११४ || दीर्घस्त्रातुं सुहृद्राज्यं तैः संयुज्य न्ययुज्यत । ततः स्थानाद् यथास्थानमथ जग्मुस्त्रयोऽपि ते ॥११५॥ ||अदीर्घबुद्धिर्दीर्घोऽपि ब्रह्मणो राज्यसम्पदम् । उक्षेवाऽरक्षकं क्षेत्रं स्वच्छन्दं बुभुजे ततः ॥११६॥ निरङ्कुशतया कोशे चिंर्रगूढं स मूढधीः । सर्वमन्वेषयामास परमर्मेव दुर्जनः ॥११७॥
स प्राक्पपरिचयादन्तरन्तः पुरमनर्गलः । सञ्चचाराऽऽधिपत्यं हि प्रायोऽन्धङ्करणं नृणाम् ॥११८॥ एकान्ते चुलनीय सोऽतिमात्रममन्त्रयत् । वचोभिर्नर्मनिपुणैर्नुदन् स्मरशरैरिव ॥ ११९॥ आचारं ब्रह्मसुकृतं लोकं चाऽवगणय्य सः । सम्प्रक्तश्चलन्याऽभूद्दुर्वाराणीन्द्रियाणि हि ॥१२०॥ ब्रह्मराजे पतिप्रेम मित्रस्नेहं च तावुभौ । जहतुश्चलनी - दीर्घावहो ! सर्वङ्कषः स्मरः ॥ १२१ ॥
१. वामहस्तगृहीतमुखवस्त्रिकया पिहितमुखौ । २. ०फलभागसौ सं० । ३. सम्भूति० सं० । ४. ततः स्त्रीरत्नपतिरहं भूयासं भाविजन्मनि हे० मु० । ५. काम्पील्ये हे० । ६. अथ जज्ञे सुतस्तस्याः प्राच्या इव दिवाकरः सं० । ७. पुष्यन् सं० । पुष्पत् हे० । ८. चन्द्रः । ९. कासि० सं० । १०. वृषभ इव । ११. चिरकालाद् गोपितम् । १२. ०देवीं सं० । १३. ० स्तुन्दन् मु० । १४. स प्रसक्त० सं० । १५. ० राजपति० सं० ।
( नवमं पर्व
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सुखं विलसतोरेवं याकामीनयोस्तयोः । बहवो व्यतियान्ति स्म मुहूर्तमिव वासराः ।।१२२।। ब्रह्मराजस्य हृदयं द्वैतीयीकमिव स्थितम् । मन्त्र्यज्ञासीद्धनुरिदं स्पष्टं दुश्चेष्टितं तयोः ।।१२३।। सचिवोऽचिन्तयच्चेदं चुलनी स्त्रीस्वभावतः । अकार्यमाचरत्वेषा सत्यो हि विरलाः स्त्रियः ॥१२४।। सकोशान्तःपुरं राज्यं न्यासे विश्वासतोऽर्पितम् । यद्विद्रवति दीर्घस्तदकार्यं नास्य किञ्चन ॥१२५।। तदसावाचरेत् किञ्चित् कुमारस्यापि विप्रियम् । पोषकस्यापि नाऽऽत्मीयो मार्जार इव दुर्जनः ॥१२६।। विमृश्येति वरधनुःसंज्ञं स्वसुतमादिशत् । तत्तज्ज्ञापयितुं नित्यं ब्रह्मदत्तं च सेवितुम् ॥१२७॥ विज्ञप्ते मन्त्रिपुत्रेण वृत्तान्ते ब्रह्मनन्दनः । शनैः प्राकाशयत् कोपं नवोद्भिन्न इव द्विपः ॥१२८॥ ब्रह्मदत्तोऽसहिष्णुस्तन्मातृदुश्चरितं ततः । मध्येशुद्धान्तमगमद् गृहीत्वा काक-कोकिले ॥१२९।। वर्णसङ्करतो वध्यावेतावन्य॑मपीदृशम् । निश्चितं निग्रॅहीष्यामि तत्रेत्युच्चैरुवाच सः ॥१३०॥ काकोऽहं त्वं पिकीत्यावां निजिघृक्षत्यसाविति । दीर्घेणोक्तेऽवदद् देवी मा भैषीर्बालभाषितात् ॥१३१।। एकदा भर्रेवशया सह नीत्वा मृगद्विषम् । साक्षेपं तद्वदेवोचे कुमारो मोरसूचकम् ॥१३२॥ इति श्रुत्वाऽवदद्दीर्घः साकूतं बालभाषितम् । ततश्चलन्युवाचेति यद्यस्त्येवं ततोऽपि किम् ? ॥१३३।। हंस्याऽन्येधुर्बकं बद्धवाऽभ्यधत्त ब्रह्मसूरिति । अनया रमते ह्येष सहे कस्यापि नेदृशम् ॥१३४।। दीर्घोऽवादीदिदं देवि ! स्वपुत्रस्य शिशोः शृणु । अन्तरुद्भिन्नरोषाग्निधूमोद्गारोपमा गिरः ।।१३५।। वर्धमानः कुमारोऽयं तदवश्यं भविष्यति । आवयोरतिविघ्नाय करे वोरिव केसरी ॥१३६।। न यावत् कवचहरः कुमारो हन्त जायते । तावद्विषद्रुम इव बालोऽप्युन्मूल्यतामसौ ॥१३७॥ चुलन्यूचे कथं राज्यधरः पुत्रो विहन्यते । तिरश्च्योऽपि हि रक्षन्ति पुत्रान् प्राणानिवाऽऽत्मनः ॥१३८।। दीर्घोऽब्रवीत् पुत्रमूर्त्या तव कालोऽयमागतः । मा मुहस्त्वं मयि सति सुतास्तव न दुर्लभाः ॥१३९॥ विमुच्याऽपत्यवात्सल्यं शाकिनीव चुलन्यथ । रतस्नेहपरवशा प्रतिशुश्राव तत्तथा ॥१४०।। साऽमन्त्रयविनाश्योऽयं रक्ष्या च वचनीयता । यद्वदाम्रवणं सेक्यं कार्यं च पितृतर्पणम् ॥१४१॥ क उपायोऽथवाऽस्त्येष विवाह्यो ब्रह्मसूरसौ । वासागारमिषात् तस्य कार्य जतुगृहं ततः ॥१४२।। गूढप्रवेश-नि:सारे तत्रोद्वाहादनन्तरम् । सुषुप्ते सस्नुषेऽप्यस्मिन् ज्वाल्यो निशि हुताशनः ॥१४३।। उभाभ्यां मन्त्रयित्वैवं पुष्पचूलस्य कन्यका । वृता वैवाहिकी सर्वसामग्री चोपचक्रमे ॥१४४॥ पतयोश्च क्रूरमाकूतं विज्ञाय सचिवो धनुः । इति विज्ञापयामास दीर्घराजं कृताञ्जलिः ॥१४५।। कलाविन्नीतिकुशलः सूनुर्वरधनुर्मम । वहंलिहयुवेवाऽस्तु त्वदाज्ञारथधूर्वहः ॥१४६।। जरद्गव इवाऽहं तु यातायातेषु निःस्पृहः । गत्वा क्वचिदनुष्ठानं करोमि त्वदनुज्ञया ॥१४७।। कमप्यनर्थं कुर्वीत मायाव्येष गतोऽन्यतः । आशङ्कतेति तं दी? धीमद्भयः को न शङ्कते ? ॥१४८।। मायाकृतोवहित्थोऽथ दीर्घः सचिवमूचिवान् । राज्येन त्वां विना नः किं यामिन्येव विना विधुम् ॥१४९।। धर्मं सत्रीदिनाऽत्रैव कुरु मा गास्त्वमन्यतः । राज्यं भवादृशै ति सदृक्षैरिव काननम् ॥१५०॥ ततो भागीरथीतीरे सद्बुद्धिर्विदधे धनुः । धर्मस्येव महाच्छत्रं पवित्रं सत्रमण्डपम् ॥१५१॥ सत्रं च पान्थसार्थानामन्नपानादिना ततः । प्रवाहमिव गाङ्गं सोऽनवच्छिन्नमवाहयत् ॥१५२।।
दान-मानोपकारात्तैः स प्रत्ययितपूरुषैः । चक्रे सुरङ्गां द्विकोशां ततो जतुगृहावधि ॥१५३॥ १. स्वच्छन्दयोः । २. द्वितीयीक० सं० । ३. वरधनुसंज्ञं हे० मु० । ४. नवीनमदयुक्तः । ५. अन्तःपुरमध्ये । ६. ०वन्यदपी० सं० । ७. निगृही० सं० । ८. भद्रजातीया वशा-हस्तिनी, तया । ९. सिंहम् । १०. वधसूचकम् । ११. करि-करिण्योः । १२. केशरी सं० । १३. तिरश्चो० मु० । १४. रति० मु० । १५. ० प्रतिवशा मु० । १६. अङ्गीचकार । १७. रक्षा मु० सं० हे० । १८.लाक्षागृहम् । १९. ०माक्रूरं मु० । २०. वहलिहो वृषभः । २१. मायया आकारं गोपयित्वा । २२. दानशालादिना । २३. विश्वस्तजनैः ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
पइतः प्रच्छन्नलेखेन सौहार्दद्रुमवारिणा । इमं व्यतिकरं पुष्पचूलमज्ञापयद्धनुः ॥१५४॥ ज्ञात्वा तत् पुष्पचूलोऽपि सुधीः स्वदुहितुः पदे । प्रेषयामास दासेरी हंसीस्थाने बकीमिव ॥१५५।। पित्तलेव स्वर्णमितिः पौष्पचूलीति सा जनैः । लक्षिता भूषणमणिद्योतिताशाऽविशत् पुरीम् ॥१५६।। मूर्च्छद्गीति-ध्वनत्तूर्यपूर्यमाणे नभस्तले । मुदा तां चुलनी ब्रह्मसूनुना पर्यणाययत् ॥१५७॥ गचुलन्यप्यखिलं लोकं विसृज्य रजनीमुखे । कुमारं सस्नुषं प्रैषीज्जातुर्षे वासवेश्मनि ॥१५८॥
सह वध्वा कुमारोऽपि विसृष्टान्यपरिच्छदः । तत्राऽगाद्वरधनुना छाययेव स्वया सह ॥१५९|| वार्ताभिर्मन्त्रिपुत्रेण ब्रह्मदत्तस्य जाग्रतः । निशार्धं व्यतिचक्राम कुतो निद्रा महात्मनाम् ? ॥१६०॥ चुलन्यादिष्टपुरुषैः फूत्कर्तुं नमिताननैः । ज्वलेति प्रेरित इव वासगेहेऽज्वलच्छिखी ॥१६१॥ धूमस्तोमस्ततो विष्वक् पूरयामास रोद॑सी । चुलनी-दीर्घदुःकृत्यदुःकीर्तिप्रसरोपमः ।।१६२।। सप्तजिह्वोऽप्यभूत् कोटिजिह्वो ज्वालाकदम्बकैः । तत् सर्वं कवलीकर्तुं बुभुक्षित इवाऽनलः ॥१६३।। किमेतदिति संपृष्टो ब्रह्मदत्तेन मन्त्रिसूः । संक्षेपादाचचक्षेऽदश्चलनीदुष्टचेष्टितम् ॥१६४॥ आकष्टुं त्वामितः स्नाद्भूपं करिकरादिव । तातेन दापिताऽस्तीह सुरङ्गा सत्रगामिनी ॥१६५।। अत्र पाष्णिप्रहारेण प्रकाशीकृत्य तत्क्षणात् । योगीव विवरद्वारं तदवारं प्रविशाऽधुना ॥१६६।। आतोद्यपुटवत् सोऽथ पाणिनाऽऽस्फोट्य भूपुटम् । सुरङ्गया समित्रोऽगाद्रत्नरन्ध्रेण सूत्रवत् ॥१६७।। सुरङ्गान्ते धनुधृतौ तुरङ्गावध्यरोहताम् । राज-मन्त्रिकुमारौ तौ रेवन्तश्रीविडम्बकौ ॥१६८|| पञ्चाशद्योजनी क्रोशमिव पञ्चमधारया । अश्वौ जग्मतुरुच्चासौ तत: पञ्चत्वमापतुः ॥१६९।। ततस्तौ पादचारेण प्राणत्राणपरायणौ । जग्मतुर्निकर्षां ग्रामं कृच्छ्रात् कोष्ठकनामकम् ॥१७०।। प्रोवाच ब्रह्मदत्तोऽथ सखे ! वरधनोऽधुना । स्पर्धमाने इवाऽन्योऽन्यं बाधते क्षुत् तृषा च माम् ।।१७१॥ क्षणमत्र प्रतीक्षस्वेत्युक्त्वा तं मन्त्रिनन्दनः । ग्रामादाकारयामास नापितं वपनेच्छया ॥१७२॥ मन्त्रिपुत्रस्य मन्त्रेण तत्रैव ब्रह्मनन्दनः । वपनं कारयामास 'चूलामात्रमधारयत् ॥१७३।। ततः काषायवस्त्राणि पवित्राणि स धारयन् । सन्ध्याभ्रच्छन्नबालांशुमालिलीलामधारयत् ॥१७४|| कण्ठे वरधनुन्यस्तं ब्रह्मसूत्रमधत्त च । ब्रह्मपुत्रो ब्रह्मपुत्रसादृश्यमुर्दैवाह च ॥१७५॥ मन्त्रिसूर्बह्मदत्तस्य वक्षः श्रीवत्सलाञ्छनम् । पट्टेन पिदधे प्रावृट्पयोदेनेव भास्करम् ।।१७६।। एवं वेषपरावर्तं ब्रह्मसूः सूत्रधारवत् । पारिपाश्विकवन्मन्त्रिपुत्रोऽपि विदधे तथा ॥१७७।। ततः प्रविष्टौ ग्रामे तौ पार्वणाविन्दु-भास्करौ । केनापि द्विजवर्येण भोजनाय निमन्त्रितौ ॥१७८।। सोऽथ तौ भोजयामास भक्त्या राजानुरूपया । प्रायस्तेजोऽनुमानेन जायन्ते प्रतिपत्तयः ॥१७९॥ कुमारस्याऽक्षतान् मूनि क्षिपन्ती विप्रगेहिनी । श्वेतवस्त्रयुगं कन्यां चोपनिन्येऽप्सरःसमाम् ॥१८०।। ऊचे ततो वरधनुर्बटोरस्याऽकलापटोः । कण्ठे बध्नासि किमिमां मूढे ! शण्ढस्य गामिव ? ॥१८१।। ततो द्विजवरेणोचे ममेयं गुणबन्धुरा । कन्या बन्धुमती नाऽस्या विनाऽमुमपरो वरः ॥१८२॥ षट्खण्डपृथिवीपाता पतिरस्या भविष्यति । इत्याख्यायि निमित्तनिश्चितं चाऽयमेव सः ॥१८३॥ तैरेवाख्यायि मे पट्टच्छन्न श्रीवत्सलाञ्छनः । भोक्ष्यते यस्तव गृहे तस्मै देया स्वकन्यका ॥१८४।।
जज्ञे च ब्रह्मदत्तस्योद्वाहः सह तया तदा । भोगिनामुपतिष्ठन्ते भोगाः काममचिन्तिताः ॥१८५।। १. दासीपुत्रीम् । २. स्वर्णतुल्या । ३. पुष्पचूली० सं० । ४. जतुविकारे जतुनिर्मित इति यावत् । ५. पूत्कर्तुं सं० । ६. ज्वालेति मु० । ७. रोदसीम् मु० । ८. स्थानाद्रूपं मु० सं० हे० । ९. सुरुङ्गा सं० । १०. अश्वानां पञ्च गतयः धारा उच्यन्ते, तत्र पञ्चम्या 'प्लुत' धारया । ११. समीपे । १२. शिखामात्रम् । १३. ०धनुर्व्यस्तं सं० । १४. ब्राह्मणपुत्र । १५. ०मुदवाह मु० सं० । १६. शण्डस्य मु० हे० ।
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प्रथमः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१५७ तामुषित्वा निशां बन्धुमतीमाश्वास्य चान्यतः । ययौ कुमार एकत्राऽवस्थानं सद्विषां कुतः ॥१८६।। प्रान्तग्रामं प्रापतुस्तौ तत्र चाऽशृणुतामिदम् । पन्थानोऽधिब्रह्मदत्तं सर्वे दीर्पण रोधिताः ॥१८७।। प्रस्थितावुत्पथेनाऽथ पेततुस्तौ महाटवीम् । निरुद्धां श्वापदैर्दीर्घपुरुषैरिव दारुणैः ॥१८८।। ततः कुमारं तृषितं मुक्त्वा वटतरोरधः । वारिणेऽगाद्वरधनुर्मनस्तुल्येन रंहसा ॥१८९।। ततो वरधनुः सोऽयमुपलक्ष्य न्यरुध्यत । रुषितैर्दीर्घपुरुषैः पोत्रिपोत इव श्वभिः ॥१९०॥ गृह्यतां गृह्यतामेष बध्यतां बध्यतामिति । भीषणं भाषमाणैस्तैर्जगहे बबधे च सः ॥१९१|| संज्ञामधिब्रह्मदत्तं पलायस्वेति सोऽकृत । पलायिष्ट कुमारोऽपि समये खलु पौरुषम् ।।१९२।। पततस्तस्या महाटव्या महाटव्य॑न्तरं जवात् । ब्रह्मसूराश्रमीवाऽगादाश्रमादाश्रमान्तरम् ॥१९३॥ स तु तत्र कृताहारो विरसैररसैः फलैः । तृतीये दिवसेऽपश्यदेकं तापसमग्रतः ॥१९४।। कुत्राऽऽश्रमो वो भगवन्निति पृच्छंस्तपस्विना । स स्वाश्रमपदं निन्ये तापसा ह्यतिथिप्रियाः ॥१९५॥ सोऽथाऽपश्यत् कुलपति ववन्दे पितृवन्मुदा । प्रमाणमन्तःकरणमविज्ञातेऽपि वस्तुनि ॥१९६॥ ऊचे कुलपतिर्वत्स ! तवाऽतिमधुराकृतेः । को हेतुरत्राऽऽगमने मरौं सुरतरोरिव ॥१९७॥ ततो महात्मनस्तस्य विश्वस्तो ब्रह्मसूर्निजम् । वृत्तान्तमाख्यत् प्रायेण गोप्यं न खलु तादृशाम् ॥१९८॥ हृष्टस्ततः कुलपतिाहरगद्गदाक्षरम् । द्विधास्थित इवात्मैको भ्राताऽहं त्वत्पितुर्लघुः ॥१९९॥ ततो निजगृहं प्राप्तस्तिष्ठ वत्स ! यथासुखम् । अस्मत्तपोभिर्वर्धस्व सहैवाऽस्मन्मनोरथैः ॥२०॥ कुर्वन् जनदृगानन्दममन्दं विश्ववल्लभः । स तस्मिन्नाश्रमे तस्थौ प्रावृट्कालोऽप्युपस्थितः ॥२०१॥
स तत्र निवसंस्तेन बलेनेव जनार्दनः । शास्त्राणि शस्त्राण्यस्त्राणि सर्वाण्यध्याप्यते स्म च ॥२०२॥ पवर्षात्यये समायाते सारसालापबन्धुरे । बन्धाविव फलाद्यर्थं प्रचेलुस्तापसा वनम् ॥२०३॥ सादरं कुलपतिना वार्यमाणोऽप्यगाद्वनम् । तैः सह ब्रह्मदत्तोऽपि कलभः कलभैरिव ॥२०४।। भ्रमन्नितस्ततोऽपश्यद् विण्मूत्रं तत्र दन्तिनः । प्रत्यग्रमिति सोऽमस्त हस्ती कोऽप्यस्त्यदूरतः ॥२०५॥ तापसैर्वार्यमाणोऽपि ततः सोऽनुपदं व्रजन् । योजनपञ्चकस्याऽन्ते नागं नगमिवैक्षत ॥२०६॥ निःशङ्कं बद्धपर्यङ्कः कुर्वन् गर्जितमूर्जितम् । मल्लो मल्लमिवाऽऽह्वास्त नृहस्ती मत्तहस्तिनम् ॥२०७।। क्रुधोद्धूषितसर्वाङ्गो व्याकुञ्चितकरः करी । निष्कम्पकर्णस्ताम्रास्यः कुमारं प्रत्यधावत ॥२०८॥ इभोऽभ्यर्णेऽभ्यगाद् यावत् कुमारस्तावदन्तरे । उत्तरीयं प्रचिक्षेप तं वञ्चयितुमर्भवत् ॥२०९॥ अभ्रखण्डमिव भ्रश्यदन्तरिक्षात् तदंशुकम् । दशनाभ्यां प्रतीयेष क्षणात् सोऽप्यत्य॑मर्षणः ॥२१०॥ एवंविधाभिश्चेष्टाभिः कुमारस्तं मतङ्गजम् । लीलया खेलयामासाऽहितुण्डिक इवोरगम् ॥२११॥ सखेव ब्रह्मदत्तस्याऽत्राऽन्तरे कृतडम्बरः । धाराधरोऽम्बुधाराभिरुपदुद्राव तं गजम् ॥२१२॥ ततो रसित्वा विरसं मृघ्नाशं ननाश सः । कुमारोऽपि भ्रमन्नद्भिर्दिङ्मूढः प्राप निम्नगाम् ॥२१३।। उत्ततार कुमारस्तां नदी मूर्त्तामिवाऽऽपदम् । ददर्श च तटे तस्याः पुराणं पुरंमुद्वसम् ॥२१४।। कुमारः प्रविशंस्तस्मिन्नपश्यद्वंशजालिकाम् । तत्राऽर्सि-वसुनन्दौ चोत्पातकेतु-विधू इव ॥२१५।। तौ गृहीत्वा कृपाणेन कुमारः शस्त्रकौतुकी । चिच्छेद कदलीच्छेदं तां महावंशजालिकाम् ॥२१६।। वंशजालान्तरे सोऽथ स्फुदोष्ठदलं शिरः । ददर्श पतितं पृथ्व्यां स्थलपद्ममिवाऽग्रतः ॥२१७||
१. वराहपोतः । पोतृ० सं० । २. महाटव्यान्तरां मु० । ३. मेरौ मु० । ४. प्रत्यग्रमतिः सो० मु० । प्रत्यग्रं अभिनवम् । ५. क्रुधोद्धषित० सं० । ६. सोऽप्यतिमर्षणः सं० । ७. सर्पग्राहकः । ८. मृगवत् नंष्ट्वा । ९. दिग्भ्रान्तः । १०. निर्जनम्, 'उज्जड' इति भाषायाम् । ११. असि: खड्गः, वसुनन्द: कृपाणी । १२. उत्पातसूचकौ केतु-चन्द्रग्रहौ ।
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१५८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
सम्यक् पश्यन्नपश्यच्च ब्रह्मसूस्तत्र कस्यचित् । 'वल्गुलीकरणस्थस्य कबन्धं धूमपायिनः ॥२१८॥ हा विद्यासाधनधनो निधनं प्रापितो मया । कोऽप्येषोऽनपराधो धिङ् मामिति स्वं निनिन्द सः ॥२१९।। अग्रतः स ययौ यावत् तावदुद्यानमैक्षत । सुरलोकादवतीर्णमवन्यामिव नन्दनम् ।। २२०॥ स तत्र प्रविशन्नग्रे प्रासादं सप्तभूमिकम् । अपश्यत् सप्तलोकश्रीरहस्यमिव म् ॥२२१॥ आरूढोऽभ्रंलिहे तस्मिन्निषण्णां खेचरीमिव । हस्तविन्यस्तवदनां नारीमेकां स ऐक्षत ॥२२२॥ उपसृत्य कुमारस्तां पप्रच्छ स्वच्छया गिरा । का त्वमेकाकिनी किं वा? किं वा शोकस्य कारणम्? ॥२२३।। गअथ सा सौध्वसाकान्ता जगादेति सगद्गदम् । महान् व्यतिकरो मेऽस्ति ब्रूहि कस्त्वं? किमागतः? ||२२४।। ब्रह्मदत्तोऽस्मि पञ्चालभूपतेर्ब्रह्मणः सुतः । इति सोऽचीकथद्यावन्मुदा सा तावदुत्थिता ॥ २२५।। आनन्दबाष्पसलिलैर्लोचनाञ्जलिविच्युतैः । सा कुर्वती पाद्यमिव न्यपतत्तस्य पादयोः ॥२२६।। कुमाराऽशरणाया मे शरणं त्वमुपागतः । मज्जातो नौरिवाऽम्भोधौ वदन्तीति रुरोद सा ॥२२७।। तेन पृष्टा च साऽप्यूचे त्वन्मातृभ्रातुरस्म्यहम् । नाम्ना पुष्पव॑ती पुष्पचूलस्याऽङ्गपतेः सुता ॥२२८॥ कन्याऽस्मि भवते दत्ता विवाहदिवसोन्मुखी । हंसीव रन्तुमुद्याने दीर्घिकापुलिनेऽगमम् ॥२२९।। दुष्टविद्याधरेणाऽहं नाट्योन्मत्ताभिधेन तु । अत्राऽपहत्याऽऽनीताऽस्मि रावणेनेव जानकी ॥२३०॥ दृष्टिं सोऽसहमानो मे विद्यासाधनहेतवे । शूर्पणखासूनुरिव प्राविशद्वंशजालिकाम् ॥२३१॥ धूमपस्योर्ध्वपादस्य तस्य विद्याऽद्य सेत्स्यति । शक्तिमान् सिद्धविद्यः स किल मां परिणेष्यति ॥ तस्यास्तद्वधवृत्तान्तं कुमारोऽपि न्यवेदयत् । हर्षस्योपरि हर्षोऽभूत् प्रियाप्त्या विप्रियच्छिदा ॥२३३॥ तयोरथ विवाहोऽभूगान्धर्वोऽन्योऽन्यरक्तयोः । श्रेष्ठो हि क्षत्रियेष्वेष निर्मन्त्रोऽपि सकामयोः ।।२३४|| रममाणस्तया सार्धं विचित्रालापपेशलम् । स एकयामामिव तां त्रियामामत्यवाहयत् ॥२३५।। पततः प्रभातसमये ब्रह्मदत्तेन शुश्रुवे । आकाशे खेचरस्त्रीणां कुररीणामिव ध्वनिः ॥२३६।। अकस्माज्जायते कोऽयं खे शब्दोऽनँब्दवृष्टिवत् । तेनेति पृष्टा संभ्रान्ता पुंष्पवत्येवमब्रवीत् ॥२३७॥ भगिन्यौ त्वद्विषो नाट्योन्मत्तस्येमे समागते । नाम्ना खण्डा विशाखा च विद्याधरकुमारिके ॥२३८|| तन्निमित्तं विवाहोपस्करपाणी इमे मुधा । अन्यथा चिन्तितं कार्यं दैवं घटयतेऽन्यथा ॥२३९॥ अपसर्प क्षणं तावद् यावत्त्वद्गुणकीर्तनैः । लभेऽहमनयोर्भावं त्वयि राग-विरागयोः ॥२४०॥ रागे रक्तां प्रेरयिष्ये पताकां तत् त्वमापतेः । विरागे चलयिष्यामि श्वेतां गच्छेस्तदाऽन्यतः ॥२४१॥ ब्रह्मदत्तस्ततोऽवादीन्मा भैषीर्भीरु ! नन्वहम् । ब्रह्मसूनुः किमेते मे तुष्टे रुष्टे करिष्यत: ? ॥२४२॥ उवाच पुष्पवत्येवं नैताभ्यां वच्मि ते भयम् । एतत्सम्बन्धिनः किं तु मा विरौत्सुर्नभश्चराः ॥२४३।। तस्याश्चित्तानुवृत्त्या तु तत्रैवाऽस्थात् स एकतः । अथ पुष्पवती श्वेतां पताकां पर्यचीचलत् ॥२४४॥ तत: कुमारस्तां दृष्ट्वा तत्प्रदेशाच्छनैः शनैः । प्रियानुरोधादगमन्न हि भीस्तादृशां नृणाम् ॥२४५॥ आकाशमिव दुर्गाहमरण्यमवगाह्य सः । दिनान्तेऽर्क इवाऽम्भोधि प्रापदेकं महासरः ॥२४६।। स तु प्रविश्य तत्राऽऽशु सुरेभ इव मानसे । स्नात्वा स्वच्छन्दमत्यच्छाः सुधा इव पपावपः ॥२४७।। निःसृत्य ब्रह्मसूर्नीरात् तीरमुत्तरपश्चिमम् । 'लताक्वणदलिस्वानैः सौनातिमिवाऽभ्यगात् ॥२४८॥
गतत्र तेन द्रुमलताकुओ पुष्पाणि चिन्वती । वनाधिदेवता साक्षादिव काऽप्यैक्षि सुन्दरी ॥२४९॥ १. 'वडवागोळ' इति भाषायां, तन्मुद्रायां स्थितस्य, ऊर्ध्वपादाऽधोमुखमुद्रास्थितस्येत्यर्थः । २. धूम्र एव तदा तस्याऽऽहार आसीत् । ३. भयाक्रान्ता । ४. पुष्यवती पुष्य० सं० । ५. सूर्पनखा० सं० । ६. गान्धर्वविवाहे मन्त्रोच्चारादिविधिर्न । ७. टिट्टिभी (टींटोडी)। ८. अभ्राणि विनैव वृष्टिवत् । ९.१०.११. पुष्यवत्ये० सं० । १२. ऐरावण इव । १३. स्वच्छन्दमन्तःस्था: मु० । १४. लतासु क्वणन्तो येऽलयो भ्रमरास्तेषां स्वनैः । १५. सुस्नातं पृच्छतीति सौनातिकम् ।
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प्रथमः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
दध्याविति कुमारोऽपि जन्मप्रभृति वेधसः । रूपाण्यभ्यस्यतोऽमुष्यां सञ्जातं रूपकौशलम् ॥२५०॥ सा दास्या सह जल्पन्ती कटाक्षैः कुन्दसोदरैः । कण्ठे मालामिवाऽस्य॑न्ती तं पश्यन्त्यन्यतो ययौ ॥ २५१॥ पश्यन् कुमारस्तामेव प्रस्थितो यावदन्यतः । वस्त्र - भूषण- ताम्बूलभृद् दासी तावदाययौ ॥ २५२॥ सा वस्त्राद्यर्पयित्वोचे या त्वया वीक्षिताऽत्र सा । सत्यङ्कारमिव स्वार्थसिद्धेः प्रैषीदिदं त्वयि ॥ २५३॥ आदिष्टा चाऽस्मि यदमुं मन्दिरे तातमन्त्रिणः । नेयाऽऽतिथ्याय तथ्याय स हि वेत्ति यथोचितम् ॥२५४॥ सोऽगात् तया सह वेश्म नागदेवस्य मन्त्रिणः । अमात्योऽप्यभ्युदस्थात् तमाकृष्ट इव तगुणैः ॥ २५५ ॥ श्रीकान्तया राजपुत्र्या वासाय तव वेश्मनि । प्रेषितोऽसौ महाभागः सन्दिश्येति जगाम सा ॥ २५६॥ उपास्यमानः स्वामीव विविधं तेन मन्त्रिणा । क्षणदां क्षपयामास क्षणमेकमिवाऽथ सः ॥ २५७॥ मन्त्री राजकुलेऽनैषीत् कुमारं क्षणदात्यये । अर्ध्यादिनोपतस्थे तं बालार्कमिव भूपतिः ॥२५८॥ वंशाद्यपृष्ट्वाऽपि नृपः कुमाराय सुतां ददौ । आकृत्यैव हि तत्सर्वं विदन्ति ननु तद्विदः || २५९॥ उपायंस्त कुमारस्तां हस्तं हस्तेन पीडयन् । अन्योऽन्यं संक्रमयितुमनुरागमिवाऽभितः ॥२६०॥ ब्रह्मदत्तोऽन्यदा क्रीडन् रहः पप्रच्छ तामिति । एकस्याऽज्ञातवंशादेः पित्रा दत्ताऽसि मे कथम् ? ॥२६१ ॥ श्रीकान्ता कान्तदन्तांशुधौताधरदलाऽब्रवीत् । राजा शबॅरसेनोऽभूद् वसन्तपुरपत्तने ॥२६२॥ तत्सूनुर्मे पिता राज्ये निषण्णः कूरगोत्रिभिः । पर्यस्तोऽशिश्रियदिमां पल्लीं सबल-वाहनः ॥२६३॥ भिल्लानुपनमय्याऽत्र "वार्वेग इव वेतसान् । ग्रामघातादिना तातः पुष्णाति स्वं परिग्रहम् ॥२६४॥ जाताऽस्मि चाऽहं तनया तातस्याऽत्यन्तवल्लभा । श्रीवत्पश्चादुपायानां चतुर्णां तनुजन्मनाम् ॥२६५॥ स मामुद्यौवनां स्माऽऽह सर्वे मेऽपेक्षिणो नृपाः । त्वयेह स्थितया वीक्ष्य शंस्यो यस्ते मतो वरः || २६६|| तस्थुषी चक्रवाकीव सरस्तीरे निरन्तरम् । ततः प्रभृति पश्यामि सर्वानेकैकशोऽध्वगान् ॥२६७॥ मनोरथानामगतिः स्वप्नेऽप्यत्यन्तदुर्लभः । आर्यपुत्राऽऽगतोऽसि त्वं मद्भाग्योपचयादिह ॥२६८|| १स पल्लीपतिरन्येद्युर्ग्रामघातकृते ययौ । कुमारोऽपि समं तेन क्षत्रियाणां क्रमो ह्यसौ ॥ २६९ ॥ लुण्ट्यमाने ततो ग्रामे कुमारस्य सरस्तटे । पादाब्जयोर्वरधनुरेत्य हंस इवाऽपतत् ॥ २७०|| कुमारकण्ठमालम्ब्य मुक्तकण्ठं रुरोद सः । नवीभवन्ति दुःखानि सञ्जाते हीष्टदर्शने ॥ २७९ ॥ ततः पीयूषगण्डूषैरिवाऽऽलापैः सुपेशलैः । आश्वास्य पृष्टस्तेनोचे स्ववृत्तमिति मन्त्रिसूः ॥२७२॥ वटेऽधस्त्वां तदा मुक्त्वा गतोऽहं नाथ ! पार्थसे । सुधाकुण्डमिवाऽपश्यं किञ्चिदग्रे महासरः || २७३ ॥ तुभ्यमम्भोजिनीपत्रपुटेनाऽऽदाय वार्यहम् । यमदूतैरिवाऽऽगच्छन् रुद्धः संवर्मितैर्भटैः ॥२७४॥
अरे वरधनो ! ब्रूहि ब्रह्मदत्तः क्व विद्यते ? । इति तैः पृच्छ्यमानः सन् न वेद्मीत्यहमब्रवम् ॥२७५॥ तस्करैरिव निःशङ्कं ताड्यमानोऽथ तैरहम् । इत्यवोचं यथा ब्रह्मदत्तो व्याघ्रेण भक्षितः || २७६ ॥ तं देशं दर्शयेत्युक्तो माययेतस्ततो भ्रमन् । त्वद्दर्शनपथेऽभ्येत्याऽकार्षं संज्ञां पलायने ॥ २७७॥৷ "परिव्राड्दत्तगुटिकां मुखेऽहं क्षिप्तवांस्तथा । तत्प्रभावेण निःसंज्ञो मृत इत्युज्झितोऽस्मि तैः ॥२७८॥ चिरं गतेषु तेष्वास्यादाकृष्य गुटिकामहम् । त्वां नष्टार्थमिवाऽन्वेष्टुं भ्रमन् ग्रामं कमप्यगाम् ॥२७९॥ तत्रैकः कश्चिदप्यैक्षि परिव्राजकपुङ्गवः । साक्षादिव तपोराशिरनम्यत मया ततः ॥ २८० ॥
१५९
सोऽवदन्मां वरधनो ! मित्रमस्मि धनोरहम् । वसुभागो महाभाग ! ब्रह्मदत्तः क्व वर्तते ? ॥२८१॥ अथाऽऽख्यायि मयाप्यस्य विश्व विश्वस्य सूनृतम् । स च मे दुष्कथाधूमैर्लानास्यः पुनरभ्यधात् ॥२८२॥
१. क्षिपन्ती । २. नव्याति० सं० मु० विना । ३. सन्दे० मु० । ४. रात्रिम् । ५. सवर० सं० । ६. वारां जलानां वेगः । ७. परिवारम् । ८. मे द्वेषिणो मु० । ९. जलाय । १०. परिप्रावृत्तगुटिकां मु० । ११. कुटिका० मु० । १२. सर्वं विश्वासं कृत्वा, सत्यम् । १३. दुःकथा० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
तदा जतुगृहे दग्धे दीर्घः प्रातरुदैक्षत | करङ्कमेकं निर्दग्धं करङ्कत्रितयं न हि ॥२८३॥ सुरङ्गां तत्र चाऽपश्यत् तदन्तेऽश्वपदानि च । धनोर्बुद्ध्या प्रेनष्टौ वां ज्ञात्वा तस्मै चुकोप सः ॥२८४|| बद्ध्वा युवां समानेतुं प्रत्याशं सांधनानि सः । अस्खलद्गमनान्यर्कमहांसीवाऽऽदिदेश च ॥२८५॥ पलायितो धनुर्मन्त्री जनयित्री तु सा तव । दीर्घेण नरक इव क्षिप्ता मातङ्गपाटके ॥२८६।। गण्डोपरिष्टात् पिटकेनेवाऽऽत्तॊ वार्तयाऽनया । दुःखोपर्युद्भवदुःख: काम्पील्यं गतवानहम् ॥२८७।। छद्मकापालिकीभूय तत्र मातङ्गपाटके । वेश्म वेश्माऽनुप्रवेशमस्थां स्पर्श इवाऽनिशम् ।।२८८।। पृच्छ्यमानश्च लोकेन तत्र भ्रमणकारणम् । अवोचमिति मातङ्ग्या विद्यायाः कल्प एष मे ॥२८९।। तत्रैवं भ्राम्यता मैत्री मया विश्वासभाजनम् । अजायताऽऽरक्षकस्य मायया किं न साध्यते ? ॥२९०।। पअन्येद्युस्तन्मुखेनाऽम्बामवोचं यत्करोत्यसौ । त्वत्पुत्रमित्रं कौण्डिन्यो महाव्रत्यभिवादनम् ॥२९१॥ द्वितीयेऽह्नि स्वयं गत्वा जनन्या बीजपूरकम् । अदां सगुटिकां 'जग्धेनाऽसंज्ञा तेन साऽभवत् ॥२९२॥ मृतेति तां पुराध्यक्षो गत्वा राज्ञे व्यजिज्ञपत् । राज्ञाऽऽदिष्टाः स्वपुरुषास्तस्याः संस्कारहेतवे ॥२९३॥ तत्राऽऽयाता मयोक्तास्ते संस्कारोऽस्याः क्षणेऽत्र चेत् । महाननर्थो वो राज्ञश्चेति याताः स्वधाम ते ॥२९४॥ आरक्षं चाऽवदं त्वं चेत् सहायः साधयाम्यहम् । सर्वलक्षणभाजोऽस्या मन्त्रमेकं "शवेन तत् ॥२९५।। आरक्षेण प्रपन्नं तत् तेनैव सहितस्ततः । सायमादाय जननी स्मशानेऽगां दवीयर्स ॥२९६।। स्थण्डिले मण्डलादीनि मया निर्माय मायया । पूर्देवीनां बलिं दातुमारक्षः प्रेषितस्ततः ॥२९७।। गते तस्मिन्नहं मातुरपरां गुटिकामदाम् । निद्राच्छेद इवोज्जृम् ' सोदस्थाज्जातचेतना ।।२९८।। स्वं ज्ञापयित्वा रुदती निवार्य स्म नयामि ताम् । कच्छग्रामे गृहे तातसुहृदो देवशर्मणः ॥२९९ ।। इतस्ततो भ्रमन्नेषोऽन्वेषयंस्त्वामिहाऽऽगमम् । दिष्ट्या दृष्टोऽधुना साक्षात् पुण्यराशिरिवाऽसि मे ॥३००॥ ततः परं कथं नाथ ! प्रस्थितोऽसि स्थितोऽसि च ? । तेनेति पुष्टः स्वं वृत्तं कुमारोऽपि न्यवेदयत् ॥३०१॥ पाअथ कोऽप्येत्य तावूचे ग्रामे दीर्घभटा: पैटम् । युष्मत्तुल्यद्विरूपाक्षं दर्शयन्तो वदन्त्यदः ॥३०२।। ईदृग्नरौ किमायातावत्रेत्याकर्ण्य गां मया । दृष्टाविह युवां यहां रुचितं कुरुतं हि तत् ॥३०३॥ ततस्तस्मिन् गतेऽरण्यमध्येन कलभाविव । पलायमानौ कोशाम्बी प्रापतुस्तौ पुरीं क्रमात् ॥३०४॥ तत्र सागरदत्तस्य श्रेष्ठिनो बुद्धिलस्य च । उद्यानेऽपश्यतां लक्षपणं तौ कुकुटाहवम् ॥३०५।। उत्पत्योत्पत्य नखरैः प्राणाकर्षाङ्कटैरिव । युयुधाते ताम्रचूडौ चञ्चोंचञ्चवि चोच्चकैः ॥३०६।। तत्र सागरदत्तस्य जात्यं शक्तं च कुक्कुटम् । भद्रेभमिव मिश्रेभोऽभाङ्क्षीद्बुद्धिलकुक्कुटः ॥३०७॥ ततो वरधनुः स्माऽऽह कथं जात्योऽपि कुक्कुटः । भग्नस्ते सागराऽनेन पश्याम्येनं यदीच्छसि ॥३०८।। सागरानुज्ञया सोऽथ पश्यन् बुद्धिलकुक्कुटम् । तत्पादयोरय:सूचीर्यमदूतीरिवैक्षत ॥३०९।। लक्षयन् बुद्धिलस्तस्य लक्षार्धं छनमिष्टवान् । सोऽप्याख्यत्तं व्यतिकरं कुमारस्य जनान्तिके ॥३१०॥ ब्रह्मदत्तोऽप्ययःसूची: कृष्ट्वा बुद्धिलकुक्कुटम् । भूयोऽपि सागर श्रेष्ठिकुक्कुटेनाऽभ्ययोधयत् ॥३११।।
असूचिकः कुक्कुटेन तेन बुद्धिलकुक्कुटः । क्षणादभञ्जि निम्नानां छाबाह्यं कुतो जयः ? ॥३१२॥ १. शीर्षकपालम् (खोपरी) । २. प्रणष्टौ मु० । ३. प्रतिदिशम् । ४. रथादिवाहनानि । ५. कपोलोपरि स्फोटकेनेव । ६. काम्पिल्ये मु० । ७. गुप्तचरः । ८. पृच्छ्य मानः स० सं.हे. । ९. संन्यासी । १०. भुक्तेन तेन सा निश्चेष्टाऽभवत् । ११. शबेन मु० । १२. अतिदूरे। १३. जृम्भणपूर्वकं 'बगासु खाईने' इति भाषायाम् । १४. ०ऽन्विष्यंश्च त्वा० मु० । १५. पदम् मु० । १६. युष्मत्तुल्यं रूपद्वयं अङ्के यत्र, अर्थात् यत्र चित्रपटे ब्रह्मदत्त-वरधनू आलिखितौ स्तः । १७. कुर्कुटा० हे० । कुक्कुटयुद्धम् । १८. तीक्ष्णैः । १९. अङ्कट: कुञ्चिका। २०. चक्षुभिश्चञ्चुभिरिदं युद्ध प्रवर्तत इति चञ्चाचञ्चवि । २१-२२-२३. कुर्कुट हे० । २४. सागर ! तेन मु० । २५. ०कुर्कुटम् हे० । २६. सोऽथा० मु० । २७. विजने-एकान्ते । २८. नीचानाम् ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६१
हृष्टः सागरदत्तस्तावारोप्य स्यन्दनं स्वकम् । जयदानैकसुहृदौ निनाय निलये निजे ॥३१३।। पस्वधामनीव तद्धाम्नि तयोर्निवसतोरथ । किमप्याख्यद्वरधनोरेत्य बुद्धिलकिङ्करः ॥३१४॥ तस्मिन् गते वरधनुः कुमारमिदमभ्यधात् । यद्बुद्धिलेन लक्षार्धं दित्सितं मेऽद्य पश्य तत् ॥३१५॥ सोऽदर्शयत्ततो हारं निर्मलस्थूलवर्तुलैः । कुर्वाणं मौक्तिकै: शुक्रमण्डलस्य विडम्बनाम् ॥३१६॥ हारे बद्धं स्वनामा
क्षत । आगाच्च वाचिकमिव मूर्तं वत्साख्यतापसी ॥३१७।। अक्षतानि तयोर्मूनि क्षिप्त्वाऽऽशीर्वादपूर्वकम् । नीत्वाऽन्यतो वरधनुं किञ्चिदाख्याय सा ययौ ॥३१८॥ तच्चाऽऽख्यातुं समारेभे मन्त्रिसूर्बह्मसूनवे । प्रतिलेखं हारबद्धलेखस्येयमयाचत ॥३१९॥ श्रीब्रह्मदत्तनामाङ्को लेखोऽयं प्रथयस्व तत् । को ब्रह्मदत्त इति सा मया पृष्टेदमब्रवीत् ॥३२०॥ अस्ति श्रेष्ठिसुता रत्नवती नामेह पत्तने । रूपान्तरेण कन्यात्वं प्रपन्नेव रतिर्भुवि ॥३२१॥ भ्रातुः सागरदत्तस्य बुद्धिलस्य च तद्दिने । कुक्कुटायोधनेऽपश्यद् ब्रह्मदत्तमिमं हि सा ॥३२२।। ततः प्रभृति ताम्यन्ती कामार्ता सा न शाम्यति । शरणं ब्रह्मदत्तो मे स एवेत्याह चाऽनिशम् ॥३२३।। स्वयं लिखित्वा चाऽन्येधुर्लेखं हारेण संयुतम् । अर्ग्यतां ब्रह्मदत्तस्येत्युदित्वा सा ममाऽऽर्पयत् ॥३२४॥ दासहस्ते मया लेख: प्रैषीत्युक्त्वा स्थिता सती । मयाऽपि प्रतिलेखं तेऽर्पयित्वा सा व्यसृज्यत ॥३२५॥ दुर्वारमारसन्ताप: कुमारोऽपि ततो दिनात् । मध्याह्नार्ककरोत्तप्तः करीव न सुखं स्थितः ॥३२६॥ कौशाम्बीस्वामिनोऽन्येद्युर्दीLण प्रहिता नराः । नष्टशल्यवदङ्गे तो तत्राऽन्वेष्टुं समाययुः ॥३२७॥ राजादेशेन कौशाम्ब्यां प्रवृत्तेऽन्वेषणे तयोः । सागरो भूगृहे क्षिप्त्वा तौ जुगोप निधानवत् ॥३२८।। निशि तौ निर्यियासन्तौ रथमारोप्य सागरः । कियन्तमपि पन्थानं निनाय ववले ततः ॥३२९॥ तौ गच्छन्तौ पुरो नारीमुद्याने समपश्यताम् । अस्त्रपूर्णरथारूढाममरीमिव नन्दने ॥३३०॥ लग्ना किमियती वेला युवयोरिति सादरम् । तयोक्तौ तौ बभाषाते कावावां ? वेत्सि वां कथम् ? ॥३३१॥ अथाऽभाषत सा पुर्यामस्यां श्रेष्ठी महाधनः । धनप्रभव इत्यासीद्धनदस्येव सोदरः ॥३३२॥ श्रेष्ठिश्रेष्ठस्य तस्याऽहमष्टानां तनुजन्मनाम् । उपरिष्टाद् विवेकश्री/गुणानामिवाऽभवम् ॥३३३॥ उद्यौवनाऽस्मिन्नुद्याने यक्षमाराधयं बहु । अत्युत्तमवरप्राप्त्यै स्त्रीणां नाऽन्यो मनोरथः ॥३३४।। तुष्टो भक्त्यैव मे यक्षवरो वरमिमं ददौ । ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्ती तव भर्ता भविष्यति ॥३३५॥ सागर-बुद्धिलश्रेष्ठिकुक्कुटोजौ य एष्यति । श्रीवत्सी ससखाऽतुल्यरूपो ज्ञेयः स तु त्वया ॥३३६॥ महायतनवर्तिन्यां प्रथमस्ते भविष्यति । मेलको ब्रह्मदत्तेन तज्जाने सोऽसि सुन्दर ! ॥३३७॥ एह्येहि तन्मां विरहदहनार्ती चिरादिह । विध्यापय पयःपूरेणेव सङ्गेन सम्प्रति ॥३३८|| तथेति प्रतिपद्याऽस्या अनुरागमिवाऽलघुम् । सोऽधितस्थौ रथं तां च गन्तव्यं क्वेति पृष्टवान् ॥३३९।। सेत्यूचे मगधपुरे मत्पितृव्यो धनावहः । अस्ति श्रेष्ठ्यावयोर्बह्वीं प्रतिपतिं स दास्यति ॥३४०॥ तदितस्तत्र गन्तव्यमिति रत्नवतीगिरा । ब्रह्मसूर्मन्त्रिपुत्रेण सूतेनाऽश्वानंतोदयत् ॥३४१।। कौशाम्बीदेशमुल्लङ्घ्य क्षणेन ब्रह्मनन्दनः । क्रीडास्थानं यमस्येव प्राप भीमां महाटवीम् ॥३४२।। सुकण्टकः कण्टकश्च तत्र चौरचमूपती । ब्रह्मदत्तं रुरुधतुः श्वानाविव महाकिरिम् ॥३४३॥ ससैन्यौ युगपत्कालरात्रिपुत्राविवोत्कटौ । शरैर्नभोमण्डप इव च्छादयामासतुश्च तौ ॥३४४|| आत्तधन्वा कुमारोऽपि गर्भाश्चौरवरूथिनीम् । निषिषेधेषुभिर्धारासारैर्दवमिवाऽम्बुदः ॥३४५॥
कुमारे वर्षति शरान् ससैन्यौ तौ प्रणेशतुः । हन्त प्रहारिणि हरौ हरिणानां कुतः स्थितिः ? ॥३४६|| १. सन्देशमिव । २. अङ्गे गाढनिमग्नकण्टकवत् । ३. धनप्रवर० पासं० । ४. प्राप्तौ हे० । ५. कुक्कुटौ योजयिष्यति हे० । कुक्कुटाजौ यं पश्यसि मु० । ०जौ य एष्यसि मु० । ६. ०तष्टौ सं० विना । ७. ०ननोदयत् मु० । ८. महान्तं सूकरम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
कुमारं मन्त्रिसूरेवमूचे श्रान्तोऽसि सङ्गरात् । मुहूर्त स्वपिहि स्वामिस्तदिहैव रथे स्थितः ॥३४७|| स्यन्दने ब्रह्मदत्तोऽपि रत्नवत्या समन्वितः । सुष्वाप गिरिनितम्बे करिण्येव करी युवा ॥३४८|| पविभातायां विभावर्यां प्राप्यैकामथ निम्नगाम् । तस्थुः श्रान्तास्तुरङ्गाश्च कुमारश्च व्यबुध्यत ॥३४९।। विबुद्धस्तु स नाऽपश्यत् स्यन्दने मन्त्रिनन्दनम् । पयसे किं गतः स्यादित्यसकृद् व्याजहार तम् ॥३५०॥ सोऽलब्धप्रतिवाग् दृष्ट्वा रथाग्रं रक्तपङ्किलम् । विलपन् हा हतोऽस्मीति को न्यपतद् रथे ॥३५१॥ उत्थितो लब्धसंज्ञः सन् हा हा वरधनो ! सखे ! क्वासीति लोकवत् क्रन्दन् रत्नवत्येत्यबोधि सः ॥३५२।। विपन्नो ज्ञायते नैव स तावद्भवतः सखा । तस्य वाचाऽप्यमङ्गल्यं नाथ ! कर्तुं न युज्यते ॥३५३।। त्वत्कार्याय गतः क्वापि स भविष्यत्यसंशयम् । यान्ति नाथमपृष्ट्वापि नाथकार्याय मन्त्रिणः ॥३५४॥ स तवोपरि भक्त्यैव रक्षितो नूनमेष्यति । स्वामिभक्तिप्रभावो हि भृत्यानां कवचायते ॥३५५।। स्थाने प्राप्ताः करिष्यामो नरैस्तस्य गवेषणम् । युज्यते नेह तु स्थातुमन्तकोपवने वने ॥३५६।। तद्वाचा सोऽनुदद् रथ्यान् प्रपेदे मगधक्षितेः । सीमग्रामं दविष्ठं हि वाजिनां मरुतां चं किम् ? ॥३५७।। ग्रामेशेन सदःस्थेन दृष्ट्वा निन्ये स्ववेश्म सः । अज्ञाता अपि पूज्यन्ते महान्तो मूर्तिदर्शनात् ॥३५८|| शोकाक्रान्त इवाऽसीति पृष्टो ग्रामाधिपेन सः । इत्यूचे मत्सखश्चौरैयुध्यमानो गतः क्वचित् ॥३५९।। तस्य प्रवृत्तिमानेष्ये सीताया इव मारुतिः । इत्युक्त्वा ग्रामणीः सर्वां तां जगाहे महाटवीम् ॥३६० अथैत्य ग्रामणीरूचे दृष्टः कोऽपि वने न हि । प्रहारपतितः किं तु प्राप्त एष शरो मया ॥३६१॥ हतो वरधनुर्नूनमिति चिन्तयतस्ततः । ब्रह्मसूनोः शोक इव तमोभूरभवन्निशा ॥३६२॥ यामे तुरीये यामिन्यास्तत्र चौराः समापतन् । ते तु भग्नाः कुमारेण मारेणेवे प्रवासिनः ॥३६३॥ ततोऽनुयातो ग्रामण्या ययौ राजगृहं क्रमात् । स चाऽमुचद् रत्नवती तबहिस्तापसाश्रमे ॥३६४।। पविशन् पुरे स ऐक्षिष्ट हर्म्यवातायने स्थिते । साक्षादिव रति-प्रीती कामिन्यौ नवयौवने ॥३६५॥ ताभ्यां सोऽभिदधे प्रेमभाजं त्यक्त्वा जनं ननु । यत्तदा गतवान् युक्तं तत् किं ते प्रत्यभासत ? ॥३६६।। व्याजहार कुमारोऽपि प्रेमभाग् बत को जनः? । स कदा च मया त्यक्तः? कोऽहं? के वा युवामिति? ॥३६७।। प्रसीदाऽऽगच्छ विश्राम्य नाथेत्यालापनिष्ठयोः । प्राविशद् ब्रह्मदत्तोऽपि मनसीव तयोर्गृहे ॥३६८॥ तिष्ठमाने कृतस्नानाशनाय ब्रह्मसूनवे । कथयामासतुस्ते स्वां कथामवितथामिति ॥३६९॥ अस्ति विद्याधरावास: कलधौतशिलामयः । मेदिन्यास्तिलक इव वैताढ्यो नाम पर्वतः ॥३७०|| अमुष्य दक्षिणश्रेण्यां नगरे शिवमन्दिरे । राजाऽस्ति ज्वलनशिखोऽलकायामिव गुह्यंकः ॥३७१।। विद्याधरपतेस्तस्य द्युतिद्योतितदिङ्मुखा । प्रिया विद्युच्छिखेत्यस्ति विद्युदम्भोमुँचो यथा ॥३७२।। तयोः प्राणप्रिये नाट्योन्मत्ताभिधसुतानुजे । नाम्ना खण्डा विशाखा च पुत्र्यावावां बभूविव ॥३७३॥ तातः सौधेऽन्यदा सख्याऽग्निशिखेन सहाऽऽलपन् । गच्छतोऽष्टापदगिरि गीर्वाणान् खे निरैक्षत ॥३७४।। ततः स तीर्थयात्रार्थं चलितोऽचालयच्च नौ । सुहृदं चाऽग्निशिखं तं धर्मेणेष्टं हि योजयेत् ॥३७५।। प्राप्ताश्चाष्टापदं तत्राऽपश्याम मणिनिर्मिताः । प्रतिमास्तीर्थनाथानां मान-वर्णसमन्विताः ॥३७६।। स्नानं विलेपनं पूजां विरचय्य यथाविधि । तास्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्याऽवन्दामहि समाहिताः ॥३७७।। प्रासादान्निःसृतैर्दृष्टौ रक्ताशोकतरोरधः । चारणश्रमणौ मूर्तिमन्ताविव तप:-शमौ ॥३७८।। तौ प्रणम्योपविश्याऽग्रे शुश्रुम श्रद्धया वयम् । अज्ञानतिमिरच्छेदकौमुदी धर्मदेशनाम् ॥३७९।।
१. पूच्चकार । २. न सं. । ३. मूनि द० हे. । ४. तमसां स्थानं निशा (तदा) अभवदित्यर्थः । ५. प्रवासिनो वियोगिनो मारेण कामेन भग्ना भवन्ति तद्वत् । ६. सुवर्णशिलामयः । ७. कुबेरः । ८. मेघस्य । ९. कौमुदी चन्द्रज्योत्स्ना ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६३
ब्रूते स्माऽग्निशिखः कः स्यात् कन्ययोरनयोः पतिः । तावाख्यातां यो ह्यनयोर्भ्रातरं मारयिष्यति ॥ ३८० ॥ हिमेनेव शशी म्लानो जातस्तातस्तया गिरा । आवामपीत्यवोचाव वाचा वैराग्यगर्भया ||३८१ || संसारासारतासारा देशनाऽद्यैव शुश्रुवे । तद्विषादनिषादेनं किं तात ! परिभूयसे ? || ३८२ ॥ अलमस्माकमप्येवंविधैर्विषयजैः सुखैः । प्रवृत्ते तत्प्रभृत्यावां त्रातुं निजसहोदरम् ||३८३|| भ्राम्यन्नपश्यन्मे भ्राताऽन्यदा पुष्पवतीमसौ । मातुलस्य त्वदीयस्य पुष्पचूलस्य कन्यकाम् ||३८४॥ रूपेणाऽद्भुतलावण्यपुण्येन हृतमानसः । तां जहार स दुर्बुद्धिर्बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥ ३८५ ॥ सोऽसहिष्णुर्दृशं तस्या विद्यां साधयितुं ययौ । स्वयं संविद्रते सम्यग्भवन्तस्तु ततः परम् ॥ ३८६॥ तदा च पुष्पवत्याख्यदावयोर्भ्रातृसंक्षयम् । शोकं धर्माक्षरैः शोकापनोद इव चाऽनुदत् ॥३८७॥ अन्यच्च पुष्पवत्याख्यदभिंगम्योऽयमागतः । ब्रह्मदत्तोऽस्तु वां भर्ता नान्यथा हि मुनेर्गिरः || ३८८|| स्वीकृतं च तदाऽऽवाभ्यां तया च रभसावशात् । पताकाऽचालि धवला त्यक्त्वाऽऽवां त्वं गतस्ततः ॥ ३८९ ॥ यदाऽस्मद्भाग्यवैगुण्यान्नाऽऽगतोऽसि न वेक्षितः । भ्रान्त्वा सर्वत्र निर्विण्णे आवामिह तदागते || ३९०|| पुण्यैरसि समायातः पुरा पुष्पवतीगिरा । वृतोऽसि वरयाऽऽवां तद्गतिरेकस्त्वमावयोः ॥३९१॥ बागान्धर्वेण विवाहेन स उपायंस्त ते अपि । भोगी हि भाजनं स्त्रीणां सरितामिव सागरः || ३९२ ॥ रममाणः समं ताभ्यां गङ्गोमाभ्यामिवेश्वरः । तत्राऽतिवाहयामास तां निशां ब्रह्मनन्दनः || ३९३ ॥ यावन्मे राज्यलाभः स्यात् पुष्पवत्याः समीपतः । तावद् युवाभ्यां स्थातव्यमित्युक्त्वा व्यसृजच्च ते ॥ ३९४ ॥ तथेत्यादृतवत्यौ ते स लोकस्तच्च मन्दिरम् । गन्धर्वनगरमिव ततः सर्वं तिरोदधे ॥ ३९५ ॥ अथाऽऽश्रमे रत्नवतीमन्वेष्टुं ब्रह्मसूरगात् । अपश्यंस्तत्र प्रपच्छ नरमेकं शुभाकृतिम् ॥ ३९६ ॥ दिव्याम्बरधरा नारी रत्नाभरणभूषिता । काऽपि दृष्टा महाभाग ! त्वयाऽतीते' दिनेऽथ (द्य ?) वा ? ||३९७|| स ऊचे नाथ नाथेति रुदती ह्यो मयेक्षिता । प्रत्यभिज्ञाय नप्त्रीति तत्पितृव्याय चाऽऽर्पिता ॥ ३९८ ॥ तद्वरोऽसीति तेनोक्तस्तथेति ब्रह्मसूर्वदन् । निन्ये तेन प्रहृष्टेन तत्पितृव्यनिकेतनम् ॥३९९॥ रत्नवत्याः पितृव्योऽपि ब्रह्मदत्तं व्यवाहयत् । ऋद्ध्या महत्या धनिनां सर्वमीषत्करं यतः ॥४०० || तया विषयसौख्यानि समं सोऽनुभवन्नथ । मृतकार्यं वरधनोरपरेद्युः प्रचक्रमे ||४०१ || साक्षादिव परेतेषु भुञ्जानेषु द्विजन्मसु । विप्रवेषो वरधनुस्तत्राऽऽगत्याऽब्रवीदिति ॥ ४०२ ॥ मम चेद्भोजनं दत्थ साक्षाद्वरधनोहि तत् । इति श्रुतिसुधेवाऽस्य श्रुत्वा वाग् ब्रह्मसूनुना ||४०३|| स तं दृष्ट्वा परिष्वङ्गादेकीकुर्वन्निवाऽऽत्मना । त्रपयन्निव हँर्षास्त्रैर्निनायाऽन्तर्गृहं ततः ॥४०४|| ऊचे पृष्टः कुमारेण स्ववृत्तं सोऽकर्थत्तदा । सुते त्वयि निरुद्धोऽहं चौरैर्दीर्घभटैर्यथा ॥४०५॥ वृक्षान्तरस्थितेनैकदस्युनैकेन पत्रिणां । हतोऽहं पतितः पृथ्व्यां तिरोऽधां च लतान्तरे ||४०६|| गतेषु तेषु चौरेषु मध्येवृक्षं तिरोभवन् । आँडिरन्तर्जलमिव क्रमेण ग्राममाप्नवम् ||४०७|| भवत्प्रवृत्ति ग्रामेशाद्विज्ञायाऽहमिहाऽऽगमम् । दिष्ट्याऽपश्यं भवन्तं च कलापीव पयोमुचम् ||४०८|| अथोचे ब्रह्मदत्तस्तमस्माभिः स्थास्यते ननु । विना पुरुषकारेण क्लीबैरिव कियच्चिरम् ? || ४०९ || "अत्रान्तरे च सम्प्राप्तः साम्राज्यमकरध्वजः । मधु॑वन्मदिँको यूनां प्रादुरासीन्मधूत्सवः ||४१०||
तदा च राज्ञो मत्तेभ: स्तम्भं भङ्क्त्वाऽपशृङ्खलः । निर्ययौ त्रासिताशेषमर्त्यो मृत्योरिवाऽनुजः ||४११ || ततो नितम्बभारार्त्ती काञ्चित्कन्यां स्खलद्गतिम् । करी करेण जग्राहाऽऽकृष्य पुष्करिणीमिव ॥ ४९२ ॥
१. विषाद एव निषादः किरातः तेन । २. संविदते मु० । ३. स्वागतयोग्यः । ४. ०तीतदिने० मु० । ५. नः स्त्रीभिस्तत्पि० मु० । ६. परेताः प्रेतभूताः पितरः । ७. हर्षाश्रुभिः । ८ सोऽथ यत्तदा मु० । 'वृत्तं सोऽकथयत् तदा' इति पाठ: सम्भाव्यते । 'अनित्यो णिच् चुरादीनां' इतिन्यायेन णिजभाव: समर्थनीयः । ९. बाणेन । १०. आडि : बलाका - जलचरपक्षिविशेष: । आति० सं०हे० । ११. संप्राप हे । १२. मधु मद्यम् । १३. मदको सं०हे० ।
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१६४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
तस्यां च शरणाथिन्यां क्रन्दन्त्यां दीनचक्षुषि । जज्ञे हाहारवो विश्वदुःखबीजाक्षरोपमः ॥४१३।। रे मातङ्गाऽसि मातङ्गः स्त्रियं गृह्णन्न लज्जसे ! । इत्युक्तः स कुमारेण तां विमुच्य तमभ्यगात् ॥४१४।। उत्प्लुत्य दन्तसोपाने पादं विन्यस्य हेलया । आरुरोह कुमारस्तमशिश्रियदथाऽऽसनम् ॥४१५।। वाक्-पादा-कशयोगेन स्वं योगेनेव योगिवत् । वशीचकार तं नागं कुमारस्तरसौं ततः ॥४१६॥
साधु साध्वित्युच्यमानो जनैर्जय जयेति च । कुमारः करिणं स्तम्भे नीत्वाऽबध्नाद्वैशामिव ॥४१७॥ पततो नरेन्द्रस्तत्राऽऽगात्तं च दृष्ट्वा विसिष्मिये । आकृतिविक्रमश्चास्य कस्य॑ चित्रीयते न च? ॥४१८॥ कोऽयं ? कुतो वा छत्रात्मा? किं सूर्यो वासवोऽथवा ? । राज्ञेत्युक्ते रत्नवत्याः पितृव्यस्तमचीकथत् ॥४१९।। ततो विंशांपतिः कन्याः पुण्यमानी कृतोत्सवः । दक्षः क्षपाकरायेव ब्रह्मदत्ताय दत्तवान् ॥४२०॥ परिणीय स तास्तत्र सुखं तिष्ठन्नथाऽन्यदा । जरत्यैत्यैकयेत्यूचे भ्रमयित्वांऽशुकाञ्चलम् ॥४२१॥ इह वैश्रवणोऽस्त्याढ्यः श्रिया वैश्रवणोऽपरः । तस्य च श्रीमति म सुता श्रीरिव वारिधेः ॥४२२॥ मोचिता भवता व्यालाद् राहोरिन्दुकलेव या । सा त्वामेवाऽभिलष्यन्ती ततः प्रभृति ताम्यति ॥४२३॥ यथा गजात् त्वया त्राता तथा त्रायस्व तां स्मरात् । गृहाण पाणि त्वं तस्या यथा हृदयमग्रहीः ॥४२४॥ उपमेये कुमारस्तां विविधोद्वाहमङ्गलैः । सुबुद्धिमन्त्रिण: कन्यां नन्दां वरधनुः पुनः ॥४२५।। पप्रथाते पृथिव्यां तौ तिष्ठन्तौ तत्र शक्तितः । साभियोगौ प्रतस्थाते ततो वाराणसी प्रति ॥४२६।। श्रुत्वाऽऽयान्तं ब्रह्मदत्तं ब्रह्माणमिव गौरवात् । अभ्येत्य सन्मुखं वाराणसीशः स्वगृहेऽनयत् ॥४२७।। कटकः कटकवती नाम पुत्रीं निजां ददौ । चतुरङ्गचमूं चाऽस्मै मूर्तामिव जयश्रियम् ॥४२८॥ करेणुदत्तश्चम्पेशो धनुर्मन्त्री तथाऽपरे । भगदत्तादयोऽप्येयुर्नृपाः श्रुत्वा तदागमम् ॥४२९।। कृत्वा वरधनुं सेनान्यं सुषेणमिवाऽऽर्षभिः । दीर्घ दीर्घपैथे नेतुं प्रतस्थे ब्रह्मनन्दनः ॥४३०॥ दीर्घस्य दूतः कटकराजमेत्यैवमूचिवान् । दीर्घेण सममाबाल्यमैत्री त्यक्तुं न युज्यते ॥४३१।। तत: कटक इत्यूचे ब्रह्मणा सहिताः पुरा । सोदर्या इव पञ्चाऽपि सञ्जाताः सुहृदो वयम् ॥४३२।। स्वर्जुषो ब्रह्मणः पुत्रे राज्ये च त्रातुमर्पिते । दीर्पण धिकृतं, नाऽत्ति शाकिन्यपि समर्पितम् ॥४३३।। ब्रह्मणः पुत्रभाण्डे यद्दी| दीर्घमचिन्तयन् । आचचाराऽतिपापं तच्छ्वपचोऽपि किमाचरेत् ? ॥४३४।। तद् गच्छ शंस दीर्घाय ब्रह्मदत्तोऽभ्युपैत्यसौ । युध्यस्व यदि वा नश्येत्युक्त्वा दूतं व्यसर्जयत् ॥४३५।। ततः प्रयाणैरच्छिनः काम्पील्यं ब्रह्मसूर्ययौ । सदीर्घमप्यरौत्सीत्तन्नभः सार्कमिवाऽम्बुदः ॥४३६।। पदीर्घः सर्वाभिसारेण रणसारेण पत्तनात् । दण्डाक्रान्तो निरसरद्विलादिव महोरगः ॥४३७|| चुलन्यपि तदाऽत्यन्तवैराग्यादाददे व्रतम् । पार्श्वे पूर्णाप्रवर्तिन्याः क्रमानिर्वृतिमाप च ॥४३८॥ पुरोगों दीर्घराजस्य पुरोगैब्रह्मजन्मनः । नदीयोदांस्यकूपारयादोभिरिव जघ्निरे ॥४३९॥ दीर्घोऽप्यमर्षादुन्नामिदंष्ट्रिर्कोविकटाननः । वराह इव धावित्वा हन्तुं प्रववृते परान् ॥४४०॥ ब्रह्मदत्तस्य पादात-रथ-साद्यादिकं बलम् । पर्यस्यत नदीपूरेणेव दीर्घेण वेगिना ॥४४१॥ ब्रह्मदत्तस्ततः क्रोधारुणाक्षो युयुधे स्वयम् । गर्जता दीर्घराजेन गर्जन् दन्तीव दन्तिना ॥४४२॥
उभावपि बलिष्ठौ तावस्राण्यनिरासतुः । कल्लोलैरिव कल्लोलान् युगान्तोद्भ्रान्तवारिधी ॥४४३।। १. चाण्डालः । २. हस्तिदन्तावेव सोपानम् । ३. सुयोगेन मु० । योगी योगेन यथा स्वं-आत्मानं वशीचकार तथेत्यर्थः । ४. बलेनवेगेन । ५. करिणीम् । ६. कस्याचित्री० मु० । ७. ततोऽष्टौ नृपतिः कन्याः पुण्य० सं० । ८. नृपतिः । ९. युद्धोद्यमसहितौ । १०. श्रुत्वाऽऽयातं सं० विना । ११. ऋषभापत्यं भरतः । १२. मृत्युपथे । १३. पुत्रो राज्यं मु० । १४. दीर्घेणाधिकृते मु० । १५. पुत्र एव भाण्ड, तद्विषये । १६. दीर्घोऽदीर्घ० सं० । १७. ०मचिन्तयत् सं० हे० । १८. श्वपच: चाण्डालः । १९. प्रवर्तिनी जैनसाध्वी, महत्तरा । २०. अग्रेसराः सुभटाः । २१. नदीस्थितान् जलचरान् समुद्रस्थितजलचराः हन्युस्तद्वत् । २२. ०दंष्ट्रिको० मु०। २३. ०वारिधिः मु० ।
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प्रथमः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६५ ज्ञात्वाऽथ सेवक इवाऽवसरं
डुढौके ब्रह्मदत्तस्य चक्रं दिक्चक्रजित्वरम् ॥४४४।। ततो जहार दीर्घस्य तेनाऽशु ब्रह्मसूरतूंन् । विमर्दो विद्युतः को वा गोधानिधनसाधने ? ॥४४५।। जयतादेष चक्रीति भाषिणो मागधा इव । ब्रह्मदत्तोपरि सुराः पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥४४६॥ पौरैः पितेव मातेव देवतेव स वीक्षितः । पुरं विवेश काम्पील्यं सुत्रोमेवाऽमरावतीम् ॥४४७॥ पूर्वोदूढाः सर्वतोऽपि पत्नीरानाययन्नृपः । कुरुमत्यभिधानां च स्त्रीरत्नं प्रत्यतिष्ठपत् ॥४४८॥ पअन्येधुर्भरतक्षेत्रसाधनाय समुद्यतः । अनुचक्र चक्रवर्ती प्रचचालाऽमितैर्बलैः ॥४४९॥
आसीत् पूर्वं नृपश्रेष्ठः श्रीमान् वृषभलाञ्छनः । सुतज्येष्ठाय भरतनाम्ने राज्यमदत्त सः ॥४५०॥ विभज्याऽपरपुत्राणां नवाग्रनवतेः पुनः । ददौ देशान् स्वयं स्वामी तपस्तप्त्वा शिवं ययौ ॥४५१॥ देशास्तन्नामभिस्तेऽमी प्राच्यां प्रगम-मस्तकौ । पुत्राङ्गारक-मल्लाङ्गार्मलेयो भार्गवोऽपि च ॥४५२॥ प्राग्ज्योतितिषवंशौ च मगधो मासवर्तिकः । दक्षिणायां बाणमुक्त-वैदर्भवनवासिकोः।।४५३॥ महीषको वनराष्ट्रस्तायिका-ऽश्मक-दण्डकाः । कलिङ्गेर्षिक-पुरुषा मूलको भोगवर्धकः ॥४५४।। कुन्तलश्च प्रतीच्यां तु दुर्ग-सूर्पारका-ऽर्बुदाः । आर्य-कल्लीवना-ऽयस्ताः काक्षिकी-ऽनर्त-सारिकाः ॥४५५॥ माहेक-रुरु-कच्छाश्च सुराष्ट्रो नर्मदस्तथा । सारस्वतस्तापसश्चोत्तरस्यां तु ककुभ्यथ ॥४५६॥ कुरु-जाङ्गल-पञ्चाल-सूरसेन-पटच्चराः । कलिङ्ग-काशि-कौशल्य-भद्रकार-वृकार्थकाः ॥४५७।। त्रिगर्त-कौशला-ऽम्बष्ठाः साल्व-मत्स्य-कुनीयकाः । मौक-बाल्हीक-काम्बोजा मधुदेशश्च मद्रकः ॥४५८|| आत्रेय-यवना-भीर-वान-वानस-कैकयाः । सिन्धु-सौवीर-गान्धार-काथतोष-दसेरकाः ॥४५९।। भारद्वाज-श्चमूरैश्च प्रस्थालस्तार्णकर्णकः । अथैते त्रिपुरा-वन्ति-चेदि-किष्किन्ध-नैषधाः ॥४६०।। दशार्ण-कुसुमर्गौ च नौप-लान्तप-कौसलाः । पदाम-विनिहोत्रौ च वैदिशो विन्ध्यपृष्ठगाः ॥४६१।। विदेह-वत्स-भद्रास्तु वज्र-सिण्डिम्भ-सैतवाः । कुत्स-भङ्गावमी मध्यदेशमध्यनिवासिनः ॥४६२॥ साधयन्मागधाधीशं वरदामाधिपामरम् । प्रभासं कृतमालं चाऽपरानपि यथाक्रमम् ॥४६३॥ नृपचक्रशिरश्चुम्बिशासनो ब्रह्मनन्दनः । शतमेकोनमेतांश्च स्वयं देशानसाधयत् ॥४६४॥ युग्मम् ।। विभिन्नस्वामितोद्भूतसीमनिर्मूलनादिति । षट्खण्डां नृपतिः पृथ्वीमेकखण्डां विनिर्ममे ॥४६५॥ ततश्चचाल भूपालमौलिलालितशासनः । नृपतिः प्रति काम्पील्यं निपील्य प्रतिपन्थिनः ॥४६६॥ छादयन्मेदिनीं सैन्यैः खं तदुत्खातपांशुभिः । प्रदर्शिताध्वा चक्रेण वेत्रिणेवाऽग्रयायिना ॥४६७॥ चतुर्दशानां रत्नानामीशो नवनिधीश्वरः । गच्छन् प्रयाणैरच्छिनैस्तत्पुरं प्राप भूपतिः ॥४६८॥ युग्मम् ॥ मुदा प्रकान्तसंगीतमिव तूर्यध्वनिच्छलात् । पुरं विवेश काम्पील्यं ब्रह्मदत्तनृपस्ततः ॥४६९॥ सर्वतोऽपि तदोपेत्योपेत्य द्वादशवार्षिकः । तस्याऽभिषेक: प्रारेभे भरतस्येव राजभिः ॥४७०॥ पूर्वमेकाकिनस्तस्य भ्राम्यतो ब्रह्मजन्मनः । द्विजः कोऽपि सहायोऽभूद्विभागी सुख-दुःखयोः ॥४७१॥ प्राप्तराज्यं च मां श्रुत्वा भट्ट ! शीघ्रं त्वमापतेः । इति सङ्केतितः सोऽपि तदभ्यर्णे तदाऽऽययौ ॥४७२॥
राज्याभिषेकव्याक्षेपात् स प्रवेशमनाप्नुवन् । प्रारेभे सेवितुं द्वारस्थित एव महीपतिम् ॥४७३।। १. प्राणान् । २. गोधायाः घातकरणे विद्युतः को विमर्दः स्यात् ? इत्यर्थः । ३. इन्द्रः । ४. पूर्वादूढाः मु० । ५. प्रत्यतिष्ठिपत् मु० । ६. ०मलया मु० । ७. प्राग्ज्योतिष० हे० विना । ८. मान० सं० । ९. ०वासकाः सं० । १०. महीयको सं० । ११. कलिङ्गेपिक० हे० । १२. दुर्गसूपरिका० मु० । १३. काक्षिका० मु० । १४. माहेष० सं० । १५. सुराष्ट्रा मु० । १६. ०कौशिल्य० मु० । १७. विगतकौसला० मु० । १८. ०श्चमुरश्व० मु० । १९. ४५४ तः ४६४ पर्यन्ताः श्लोकाः सं० प्रतौ न दृश्यन्ते । २०. ०स्वामिनो० मु०। २१. काम्पिल्यं मु० । २२. शत्रून् । २३. ०पांसु० मु०। २४. महीपतेः हे० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
राज्याभिषेकपर्यन्ते बहिर्निरगमन्नृपः । जीर्णोपानद्ध्वजं चक्रे स स्वं ज्ञापयितुं द्विजः ॥४७४॥ नृपस्तं च ध्वजं पश्यन्नन्यध्वजविलक्षणम् । अपृच्छद्वेत्रिणं कोऽयमपूर्वध्वजारक: ? ॥४७५।। सोऽवोचद् द्वादशाब्दानि सेवां देवाऽस्य कुर्वतः । आहूयाऽथ क्षमानाथः किमेतदिति तं जगौ ।।४७६।। सोऽप्यूचे भवता सार्धं भ्राम्यतो मे उपानहः । घृष्टा इयत्यस्तदपि प्रसादं नाथ ! नाऽकृथाः ॥४७७।। ततस्तं प्रत्यभिज्ञाय हसित्वा च समादिशत् । सेवायै द्वारपालैश्चाऽप्रतिषिद्धं चकार च ॥४७८॥ आस्थानमास्थितो राजा तमाहूयाऽब्रवीदिदम् । भट्ट ! किं दीयतां तुभ्यं ? सोऽप्यूचे देहि भोजनम् ॥४७९॥ राजाऽप्यूचे स्वल्पमेतद् याचस्व मण्डलादिकम् । स जिह्वालम्पट: प्राह फलं राज्येऽपि भोजनम् ॥४८०॥ तन्मे सर्वत्र भरतक्षेत्रे दापय भोजनम् । दक्षिणायां च दीनारमारभ्य स्वनिकेतनात् ॥४८१॥ ततो ध्यात्वा नृपोऽप्येतदियत्येवास्य योग्यता । तस्मै स वसुदीनारं भोजनं स्वगृहे ददौ ॥४८२।। भरतेऽथ नृपादेशाद्भोक्तुमारभत द्विजः । इति दध्यौ च सर्वत्र भुक्त्वा भोक्ष्ये नृपौकसि ॥४८३।। परं भट्टश्चिरेणापि नाऽवाप नृपभोजनम् । मुधैव गमयन् कालं कदाचित् प्राप पञ्चताम् ॥४८४॥ गअन्येचुर्नाट्यसङ्गीते तस्य दास्या समर्पितः । स्वर्वधूगुम्फित इव विचित्रः पुष्पगेन्दुकः ॥४८५।। ब्रह्मदत्तस्तु तं दृष्ट्वा दृष्टपूर्वो मयेदृशः । कुत्रापीति व्यधादन्तरूहापोहं मुहुर्मुहुः ॥४८६॥ प्राक्पञ्चजन्मस्मरणोत्पत्तेस्तत्कालमेव च । मूच्छित्वाऽबुधदीदृक्षं सौधर्मे दृष्टवानिति ॥४८७।। संसिक्तश्चन्दनाम्भोभिः स्वस्थीभूयेत्यचिन्तयत् । कथं मिलिष्यति स मे पूर्वजन्मसहोदरः ? ॥४८८॥ तं ज्ञातुकाम: श्लोकार्धसमस्यामेवमार्पयत् । “आस्व दासौ मृगौ हंसौ मातङ्गावमरौ तथा'' ॥४८९।। अधश्लोकसमस्यां मे य इमां पूरयिष्यति । राज्यार्धं तस्य दास्यामीत्यसावाघोषयत् पुरे ॥४९०॥ श्लोकार्धं तत्तु सर्वोऽपि कण्ठस्थं निजनामवत् । पठन्नकार्षीत् पश्चार्धं न चाऽपूरिष्ट कश्चन ॥४९१।। तदा च पुरिमतालाच्चित्रजीवो महेभ्यसूः । जातिस्मृतेः प्रव्रजितो विहरनेक आययौ ॥४९२॥ ततो मनोरमोद्याने प्रासुकस्थण्डिर्लस्थितः । श्लोकार्धं तत्तु पठतः सोऽश्रौषीदार घट्टिकात् ॥४९३।। "एषा नौ षष्ठिका जातिरन्योऽन्याभ्यां वियक्तयोः" । श्लोकापरार्धमेवं स सम्पूर्य तमपाठयत् ॥४९४॥ श्लोकापरार्धं तद्राज्ञः पुरस्तादारघट्टिकः । पपाठ कः कविरिति तत्पृष्टस्तं मुनि जगौ ॥४९५।। स पारितोषिकं तस्मै वितीर्योत्कण्ठया ययौ । तत्रोद्याने मुनि द्रष्टुं धर्मद्रुममिवोद्गतम् ॥४९६।। वन्दित्वा तं मुनि तत्र बाष्पपूर्णविलोचनः । निषसादाऽन्तिके राजा सस्नेह: पूर्वजन्मवत् ॥४९७।। आशीर्वादं मुनिर्दत्त्वा कृपारसमहोदधिः । अनुग्रहार्थं भूपस्य प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥४९८॥ "राजन्नसारे संसारे सारमन्यन्न किञ्चन । सारोऽस्ति धर्म एवैकः सरोजमिव कर्दमे ॥४९९।। शरीरं यौवनं लक्ष्मीः स्वाम्यं मित्राणि बान्धवाः । सर्वमप्यनिलोद्भूतपताकाञ्चलचञ्चलम् ॥५००॥ बहिरङ्गान् द्विषोऽजैषीर्यथा साधयितुं महीम् । अन्तरङ्गान् जय तथा मोक्षसाधनहेतवे ॥५०१।। गृहाण यतिधर्म तत् पृथक्कृत्य त्यजाऽपरम् । राजहंसो हि गृह्णाति विभज्य क्षीरमम्भसः" ॥५०२।। ब्रह्मदत्तस्ततोऽवादीद् दिष्ट्या दृष्टोऽसि बान्धव ! । इयं तवैव राज्य श्री क्ष्व भोगान् यथारुचि ॥५०३|| तपसो हि फलं भोगाः, सन्ति ते, किं तपस्यसि? । उपक्रमेत को नाम स्वतः सिद्धे प्रयोजने ? ॥५०४।। मुनिरूचे ममाऽप्यासन् धनदस्येव सम्पदः । मया तास्तुणवत्त्यक्ता भवभ्रमणभीरुणा ।।५०५॥ सौधर्मात् क्षीणपुण्योऽस्मिन्नागतोऽसि महीतले । इतोऽपि क्षीणपुण्यः सन् राजन्मा गा अधोगतिम् ॥५०६।।
आर्ये देशे कुले श्रेष्ठे मानुष्यं प्राप्य मोक्षदम् । साधयस्यमुना भोगान् सुधया पोयुशौचवत् ॥५०७|| १. ०कारकः हे० । २. ०स्थण्डिले स्थितः सं० । ३. अरघट्ट (रेंट, कोश इति भाषायाम्) वहतीत्यारघट्टिकः । ४. बन्धवः सं०। ५. पाद० मु० ।
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प्रथमः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६७ स्वर्गाच्च्युत्वा क्षीणपुण्यौ भ्रान्तावावां कुयोनिषु । यथा तथा स्मरन् राजन् ! कि बाल इव मुह्यसि ? ॥५०८।। तेनैवं बोध्यमानोऽपि नाऽबुद्ध वसुधाधवः । कुतः कृतनिदानानां बोधिबीजसमागमः ? ॥५०९।। तमबोध्यतमं बुद्ध्वा जगाम मुनिरन्यतः । काले दिष्टाहिना दष्टे कियत्तिष्ठन्ति मान्त्रिकाः ? ॥५१०।। घातिकर्मक्षयात् प्राप्य मुनिः केवलमुज्ज्वलम् । भवोपग्राहिकर्माणि हत्वा प्राप परं पदम् ॥५११।। ब्रह्मदत्तोऽपि चक्रित्वश्रिया शक्र इवाऽवनौ । सेव्यमानो नृपैरस्थाद्वासरानतिवाहयन् ॥५१२।। गएकदा यवनेशेन प्रेष्येकोऽश्व उपायने । एकतमः सप्तसप्तिसप्तीनामिव लक्षणैः ॥५१३॥ यथाऽस्य रूपमद्वैतं तथा वेगोऽस्ति वा न वा । परीक्षितुमिति ब्रह्मदत्तोऽध्यारोहदाशु तम् ॥५१४।।
राजकुञ्जरः । नगरान्निरगात् सादि-निषादि-रथि-पत्तियुक् ॥५१५।। पार्श्वयोरश्वमाक्रामन्नुरुभ्यामुरुपौरुषः । जघान कशया चक्री तद्वेगेक्षणकौतुकी ॥५१६। पोतः पृष्ठानिलेनेव प्रेरितः कशया तया । अतीव वेगेन ययावदृश्यश्च क्षणादभूत् ॥५१७।। वेल्गयाऽऽकृष्यमाणोऽपि राज्ञा तस्थौ हयो न सः । असंयतस्येव मनोऽनर्गलोऽगान्महाटवीम् ॥५१८॥ क्रूरश्वापदभीमायामटव्यां तत्र च श्रमात् । स्वयं तस्थौ स तुरगोऽब्ध्यन्तरुड्डीनपक्षिवत् ॥५१९।। चक्री तृषार्त्तः पर्याटाऽन्वेष्टुं जलमितस्ततः । निरैक्षिष्ट सरश्चैकं नृत्यत् कल्लोलमालया ॥५२०॥ उत्पर्याणीकृत्य चाऽश्वं तं राजाऽपाययत् पयः । तटे नीत्वा वृक्षमूले मुखरज्ज्वा बबन्ध च ॥५२१।। ततः स्वयं ब्रह्मदत्तः सस्नौ वन्य इव द्विपः । पङ्कजामोदसुरभि स्वच्छन्दं च पयः पपौ ॥५२२॥ उत्तीर्य सरसस्तीरे गच्छन्नक्षिष्ट चक्रभृत् । अद्वैतरूपलावण्यसम्पदं नागकन्यकाम् ॥५२३।। तद्रूपविस्मितः सोऽस्थाद् यावत्तावद्वद्रुमात् । उत्तीर्णो गोनसो नागस्तत्पाद इव जङ्गमः ॥५२४॥ विकृत्य नागिनीरूपं नागकन्याऽपि तत्क्षणम् । गोनसेन समं तेन संवासं प्रत्यपद्यत ॥५२५।। राजाऽप्यचिन्तयदहो ! अमुना हीनभोगिना । इयं प्रसक्ता नितरामापो नार्यश्च नीचगाः ॥५२६।। तद्वर्णसङ्करो नाऽयं ममोपेक्षितुमर्हति । पृथ्व्यां पृथ्वीभुजा सर्वः स्थापनीयो यतः पथि ॥५२७॥ विमृश्येति विधृत्योभौ कशयाऽताडयन्नृपः । मुमोच शान्तरोषश्च तौ च क्वापि प्रजग्मतुः ॥५२८॥ भयोऽपि भपतिर्दध्यौ कोऽपि गोनसवेषभुत । व्यन्तरो रन्तुमनया नाग्या वसति निश्चितम् ॥५२९।। राज्येवं विमृशत्यश्वपदपङ्क्त्यनुसारतः । आययौ सकलं सैन्यं मुदितं स्वामिदर्शनात् ॥५३०॥ सैन्येन च वृतश्चक्री ययौ निजपुरं ततः । नागकन्या च गत्वाऽऽख्यद्रुदती पत्युरीदृशम् ॥५३१।। स्त्रीलोलो ब्रह्मदत्तोऽस्ति मर्त्यलोके महेश्वरः । पर्यटन् भूतरमणामटवीं सोऽधुनाऽऽययौ ॥५३२।। अहं च यक्षिणीपार्वे यान्ती प्रियसखीवृता । तत्राऽब्जसरसि स्नातोत्तीर्णा तेनाऽस्मि वीक्षिता ॥५३३॥ मद्दर्शनादनङ्गार्तो रिरंसुर्मामयाचत । अनिच्छन्तीं रुदती च कशाभिः पर्यताडयत् ॥५३४।। आख्यान्त्यपि भवन्नाम तेनैश्वर्योन्मदिष्णुना । इयच्चिरं ताडिताऽस्मि मृतेति प्रोज्झिताऽस्मि च ॥५३५।। तच्छ्रुत्वा कुपितो नागकुमारो ब्रह्मनन्दनम् । उपतस्थे मारयितुं निशायां वासवेश्मगम् ।।५३६॥ गब्रह्मदत्तं तदानीं च महिष्येवमवोचत । अश्वेनाऽपहृतैर्नाथ ! युष्माभिः किञ्चिदैक्षि किम् ? ॥५३७।। राजाऽप्याख्यत्तयोः पापां नागी-गोनसयोः कथाम् । स्वयं कृतं शासनं च तदुराचारवारणम् ।।५३८।। नागस्तिरोहितस्तच्च सर्वं शुश्राव चात्मना । विज्ञाय स्वप्रियादोषं शान्तकोपोऽभवत् क्षणात् ।।५३९॥ तदा शरीरचिन्तायै ययौ वासगृहान्नपः । ईक्षाञ्चके च तं नागं स्वप्रभाद्योतिताम्बरम् ॥५४०॥
नागोऽप्युवाच जयतु ब्रह्मदत्तो नरेश्वरः । शासिता दुविनीतानां य एवमवनीतले ॥५४१।। १. सर्वथाऽप्रतिबोध्यम् । २. कालदृष्टा० मु० । ३. सप्तसप्तिः सूर्यः, तस्य सप्तयोऽश्वाः, तेषामेकतमः । ४. मुरुपूरुषः सं० । ५. वलाय मु० । ६. गोनशो सं० । सर्पविशेषः । ७. वटपादः 'वडवाई' इत्यर्थः । ८. सम्भोगम् । ९. स्नानो० सं०। १०. गोनश० सं० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
या त्वया ताडिता नागी सा मे पत्नी तया तु मे । मल्लुब्धो मां जघानेति कथितः शासिताऽप्यसि ।।५४२।। तद्वाचा दग्धुकामस्त्वामिहाऽऽयातोऽस्मि पार्थिव ! । श्रुतं च तद्गिलितमधुना त्वन्मुखाद् रहः ॥५४३।। सा त्वया शिक्षिता साधु न्यायनिष्ठेन पुंश्चली । सहस्व तद्गिरा यत् त्वय्यचिन्तयममङ्गलम् ॥५४४।। राजाऽप्यूचे न ते दोषो योषितः खलु मायया । अपरं दूषयित्वाऽपि स्वदोषं छादयन्ति हि ॥५४५॥ नागोऽप्यूचे सत्यमेवं मायिन्यः खलु योषितः । न्यायेन तव तुष्टोऽस्मि ब्रूहि कि करवाणि भोः !? ॥५४६।। राजापि व्याजहारैवं राज्ये मे मा स्म भूत् क्वचित् । पारदारिकता चौर्यमपमृत्युश्च जातुचित् ।।५४७।। नागोऽप्यूचे भवत्वेवं भूयस्तुष्टोऽस्मि तेऽनया । परार्थया याच्यापि स्वार्थं याचस्व सम्प्रति ॥५४८।। विचिन्त्य राजाऽयाचिष्ट सर्वेषां प्राणिनां गिरम् । यथा जानाम्यहं सम्यङ् नागराज ! तथा कुरु ॥५४९।। नागोऽप्युवाच दुर्देयमेतद् दत्तं तु ते मया । परं ते शंसतोऽन्यस्मै सप्तधा भेत्स्यते शिरः ॥५५०॥ इत्युक्त्वा स ययौ नागराजो राजाऽपि चाऽन्यदा । ययौ प्रसाधनगृहं समं वल्लभया स्वया ॥५५१|| गर्गहगोलं गृहगोला तत्रोवाचाऽऽनय प्रिय ! । राज्ञोऽङ्गरागमेतं मे पूर्यते येन दोहदः ॥५५२।। प्रत्यूचे गृहगोलोऽपि कार्यं किं मम नाऽऽत्मनों ? । भाषां ज्ञात्वा तयोरेवं जहास वसुधाधवः ॥५५३|| देवी पप्रच्छ राजानमकस्मादहसः कथम्? । एवमेवेति राज्ञोचे तदाख्याने विपद्भिया ।।५५४॥ साऽप्यूचेऽवश्यमाख्येयं त्वया मे हासकारणम् । अन्यथाऽहं मरिष्यामि गोपनीयं ममापि किम् ? ॥५५५।। राजाऽप्युवाचाऽकथिते त्वं मरिष्यसि वा न वा । अहं तु कथिते सद्यो मरिष्यामि न संशयः ॥५५६।। तदश्रद्दधती साऽपि भूयोऽभाषत शंस मे । उभावपि मरिष्याव: समाऽस्तु गतिरावयोः ।।५५७।। स्त्रीग्रहे पतितो राजा स्मशानेऽकारयच्चिताम् । ऊचे च गत्वा 'चित्या ते मृत्युसज्जो ब्रवीमि तत् ॥५५८।। ततः स्नात्वा गजारूढस्तया सह महीपतिः । चितोपान्ते ययौ पौरैर्वीक्षितः साश्रलोचनैः ।।५५९।। चक्रिणोऽथ प्रबोधाय काचित् तत्कुलदेवता । छार्गस्य रूपं गुर्विण्याश्छोग्याश्च व्यकरोत्तदा ॥५६०॥ राजैष सर्वभाषाविदिति छागगिरैव हि । गुर्विणी छागिका सा तु तं छागमिदमब्रवीत् ॥५६१॥ यवराशेरमुष्मात् त्वं यवपूलमिहाऽऽनय । दोहदो येन जग्धेने पूर्यते मम वल्लभ ! ॥५६२॥ छागोऽवदद् यवा ह्येते ब्रह्मदत्तस्य चक्रिणः । अश्वार्थं परिरक्ष्यन्ते मृत्युस्तद्ग्रहणे मम ॥५६३।। छाग्यब्रवीन्मरिष्यामि नाऽऽनेष्यसि यवान् यदि । छागोऽवदन्मृता चेत्त्वं भार्या मेन्या भविष्यति ॥५६४॥ पुनः सोचे पश्य चक्री भौर्याच्छन्देन जीवितम् । जहात्येष स्नेहसारो निःस्नेहस्त्वं तु मय्यहो ! ॥५६५॥ छागोऽवोचदनेकस्त्रीपतिरेकस्त्रिया गिरा । मुमूर्षत्येष तन्मौयं मूर्योऽसाविव न ह्यहम् ॥५६६।। म्रियते सह चेद राज्ञी न हि योगो भवान्तरे । गतयो भिन्नमार्गा हि कर्माधीनाः शरीरिणाम् ॥५६७॥ . श्रुत्वा चक्यपि तद्वाचं विमम©त्यहो छगः । साधूचे तद्विपद्येऽहं किं स्त्रीमात्रेण मोहितः ? ५६८।।
तुष्टोऽथ भूपः कनकमाला-कुसुममालिके । छागस्य कण्ठे निदधे जगाम च निकेतनम् ॥५६९।। विपत्स्ये त्वगिरा नाऽहमिति राजी निवार्य सः । अखण्डचक्रवर्तिश्रीः पुना राज्यमपालयत् ॥५७०।। पएवं च जन्मतो ब्रह्मदत्तः क्रीडन्ननेकधा । षोडशोनां सप्तशतीं शरदामत्यवाहयत् ॥५७१॥ कदाचित् प्राक् परिचितो द्विजः कश्चिज्जगाद तम् । चक्रवर्तिन् ! स्वयं भुक्षे यत् तन्मे देहि भोजनम् ।।५७२।। ब्रह्मदत्तोऽप्यवोचत् तं मदन्नं द्विज ! दुर्जरम् । चिरेण जीर्यमाणं तु महोन्मादाय जायते ॥५७३।। कदर्योऽस्यन्नदानेऽपि धिक् त्वामिति वदन् द्विजः । अभोजि सकुटुम्बोऽपि भूभुजा भोजनं निजम् ॥५७४।। निशायामथ विप्रस्य बीजादिव तदोदनात् । शतशाखः स्मरोन्मादतरुः प्रादुरभूद् भृशम् ॥५७५।।
अज्ञातजननी-जामि-स्नुषाव्यतिकरं मिथः । पशुवत् सहपुत्रोऽपि विप्रः प्रववृते रते ।।५७६।। १. भाषायां "घरोली" | २. मम आत्मना-जीवितेन कार्य-प्रयोजनं न-नास्ति किम् ? इत्यर्थः । ३. चितायाम्। ४. छगस्य सं०हे । ५. ०श्छायाश्च सं०हे० । ६. भक्षितेन । ७. ०ऽन्या मे सं० । ८. भार्यानुसरणेन। ९. ०ऽवदद० सं० । १०. साध्वाख्यत् सं० । ११. मैथुने ।
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प्रथमः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६९
ततो विरामे यामिन्या द्विजो गृहजनश्च सः । हिया दर्शयितुं स्वास्यमन्योऽन्यमपि नाऽशकत् ।।५७७।। करेणाऽनेन राज्ञाऽस्मि सकुटुम्बो विडम्बितः । चिन्तयन्नित्यमर्षेण नगरान्निरगाद् द्विजः ॥५७८|| दूरादश्वत्थपत्राणि काणर्यन् शर्कराकणैः । ते कश्चिदजापालो ददृशे भ्रमता बहिः ॥५७९।। मद्वैरसाधनायाऽलमसाविति विमृश्य सः । तं मूल्येनेव सत्कारेणाऽऽदायैवमवोचत ।।५८०॥ राजमार्गे गजारूढो यः श्वेतच्छत्र-चामरः । याति कृष्ये दृशौ तस्य त्वया प्रक्षिप्य गोलिके ॥५८१।। विप्रवाचमजापाल: प्रतिपेदे तथैव ताम् । पशुवत् पशुपाला हि नविमृश्यविधायिनः ।।५८२।। सोऽथ कुड्यान्तरे स्थित्वा समं प्रक्षिप्य 'गोलिके। अस्फोटयद् दृशौ राज्ञो नाऽऽज्ञा लळया विधेः खलु ॥५८३॥ सोऽङ्गरक्षैरजापालः प्राप्तः श्येनैरिव द्विकः । हन्यमानस्तमेवाऽऽख्यद्विप्रं विप्रियकारकम् ॥५८४।। तच्छ्रुत्वा पार्थिवोऽवोचद्धिग्धिग्जातिद्विजन्मनाम् । यत्रैते भुञ्जते पापास्तत्र भञ्जन्ति भाजनम् ॥५८५।। यः स्वामीयति दातारं दत्तं तस्मै वरं शुने । न जातु दातुमुचितं कृतघ्नानां द्विजन्मनाम् ।।५८६॥ वञ्चकानां नृशंसानां श्वापदानां पलादिनाम् । सृष्टिं द्विजानां योऽकार्षीनिंग्राह्यः प्रथमं हि सः ॥५८७।। इति जल्पन्ननल्पक्रुत् पृथ्वीपतिरघातयत् । सपुत्र-बन्धु-मित्रं तं विप्रं मशकमुष्टिवत् ॥५८८॥ दृशोरन्धीकृतस्तेन हृदयेऽन्धीकृतः क्रुधा । विप्रान् सोऽघातयत् सर्वान् पुरोधःप्रभृतीनपि ॥५८९॥ सोऽमात्यमादिदेशैवं नेत्रैरेषां द्विजन्मनाम् । विशालं स्थालमापूर्य निधेहि पुरतो मम ॥५९०॥ रौद्रमध्यवसायं तं राज्ञो विज्ञाय मन्त्र्यपि । श्लेष्मातकफलैः स्थालं पूरयित्वा पुरो न्यधात् ॥५९१॥ मुमुदे ब्रह्मदत्तोऽपि पाणिना संस्पृशन् मुहुः । विप्राणां लोचनैः स्थालं साधु पूर्णमिति ब्रुवन् ॥५९२।। स्पर्श स्त्रीरत्नरूपायाः पुष्पवत्यास्तथा न हि । यथाऽऽसीद् ब्रह्मदत्तस्य तत्स्थालस्पर्शने रतिः ।।५९३।। न कदाचन स स्थालमपासारयदग्रतः । दुर्मदी मदिरापात्रमिव दुर्गतिकारणम् ॥५९४।। विप्रनेत्रधियाऽमृद्नात् श्लेष्मातकफलानि सः । फलाभिमुखपापद्रोः सज्जयन्निव दोहदम् ॥५९५॥ तस्याऽनिवर्तको रौद्राध्यवसायोऽत्यंवर्धत । अशुभं वा शुभं वापि सर्वं हि महतां महत् ।।५९६।। तस्यैवं वसधेशस्य रौद्रध्यानानबन्धिनः । पापपवराहस्य ययर्वर्षाणि षोडश ॥५९७॥ 'ब्रह्मदत्तस्य कौमारेऽगुरष्टाविंशतिः समाः । मण्डलित्वे तु वर्षाणां पञ्चाशत् षट्समन्विता ।।५९८॥ वर्षाणि षोडश पुनर्भरतक्षेत्रसाधने । षट् शतानि तु वर्षाणां चक्रवर्तित्वपालने ॥५९९॥ यातेषु जन्मदिनतोऽथ समाशतेष सप्तस्वसौ करुमतीत्यसकद ब्रवाणः । हिंसानुबन्धिपरिणामफलानुरूपां तां सप्तमी नरकलोकभुवं जगाम ॥६००।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये
नवमे पर्वणि ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरितवर्णनो
नाम प्रथमः सर्गः ॥१३
१. काणीकुर्वन्-विध्यन् । २-३. गोलके सं० । ४. काकः । ५. स्वामिनमिवाऽऽचरति । ६. मांसभक्षकाणाम् । ७. निर्ग्राह्यः सं० । ८. ०ऽङ्गीकृत: मु० । ९. ०धिया मृद्नन् मु० । १०. ०यो न्यवर्धत मु० । ११. नवमपर्वण सं० । १२.० दत्तचरित० हे० । ०दत्तचक्रवर्तिवर्णनो सं० । १३. इति ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरितं समाप्तम् हे० ॥
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॥ अथ द्वितीयः सर्गः ॥
। श्रीपार्श्वनाथचरितम् । नमः श्रीपार्श्वनाथाय जगन्नाथायें तायिने । अशेषकल्याणलतासमालम्बनशाखिने ॥१॥ विश्वविश्वोपकाराय स्वोपकाराय चाधुना । कीर्त्यते पार्श्वनाथस्य चरित्रमतिपावनम् ॥२॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रेऽस्ति भरताभिधे । नगरं पोतनपुरं स्वःखण्डमिव नूतनम् ॥३॥ निषेवितं राजहंसैः श्रीसङ्केतनिकेतनम् । आपगायाः पखण्डमिव तन्मण्डनं भुवः ॥४॥ इभ्या बभासिरे तत्र श्रिया श्री दानजा इव । कल्पद्रमस्य सोदर्या इवौदार्येण भयसा ॥५॥ तदभुदमरावत्यास्तस्यै वाऽप्यमरावती । प्रतिच्छन्दतया वाचामगोचरमहर्टिकम् ॥६॥ पाअर्हत्पादारविन्दालिररविन्दोऽभिधानतः । तत्राऽभद्भपतिः स्थानं श्रियः पतिरिवाऽर्णसांम ॥७॥ स दोष्मसु यथैवैकस्तथैवाऽभूद्विवेकिषु । यथा लक्ष्मीवतां धुर्यस्तथैव हि यशस्विनाम् ॥८॥ यथा हि द्रविणं दीनानाथ-दःस्थितजन्तष । अहोरात्रं संविभेजे पर्थेष तथैव सः ॥९॥ राज्ञस्तस्यानुरूपोऽभूज्जीवाजीवादितत्त्ववित् । परमश्रावको विश्वमूर्तिविप्रः पुरोहितः ॥१०॥ कमठो मरुभूतिश्चाऽनुद्धराकुक्षिसम्भवौ । उभौ ज्याय:-कनीयांसावभूतां तस्य चाऽऽत्मजौ ॥११॥ बभूव वरुणा नाम कमठस्य सर्मिणी । वसुन्धरा मरुभूते रूपलावण्यशालिनी ॥१२॥ द्वावधीतकलौ तौ च द्वावप्यर्थार्जन क्षमौ । बभूवतुर्मिथः स्निग्धौ पित्रोरानन्दकारणम् ॥१३।। गेंहभारं तयोर्यस्य रथभारं गवोरिव । विश्वभूतिरनशनं जग्राह गुरुसन्निधौ ॥१४॥ स्मरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं समाहितः । विश्वभूतिविपद्याऽभूत् सौधर्मे प्रवरः सूरः ॥१५ तद्वियोगज्वराक्रान्ता तस्य पत्न्यप्यनुद्धरा । 'शुक्-तपोभ्यां शोषिताङ्गी नमस्कारपरा मृता ॥१६॥ पित्रोः परेतकार्याणि चक्राते भ्रातरौ च तौ । क्रमादभूतां चाऽशोकौ हरिश्चन्द्रर्षिबोधितौ ॥१७॥ पगृहकार्येषु तत्राऽस्थात्कर्मठः कमठः सदा । विपन्ने पितरि प्रायो ज्यायान् पुत्रो धुरन्धरः ॥१८॥ मरुभूतिस्तु संसारासारत्वविदुरः सदा । विमुखो विषयेभ्योऽभूत् संन्यस्त इव भोजनात् ॥१९॥ स्वाध्याय-पोषधादानविधिनिष्ठः समाहितः । तस्थिवान् पोषं धागारेऽहोरात्रानतिवाहयन् ॥२०॥ युग्मम् ॥ प्रपद्य सर्वसावद्यविरतिं गुरुसन्निधौ । विहरिष्यामीति मतिर्मरुभूतेः सदाऽभवत् ॥२१॥ प्रमादमदिरोन्मादी सदा मिथ्यात्वमोहितः । परस्त्री-छूतसंसक्तः स्वच्छन्दः कमठस्त्वभूत् ॥२२॥ वसुन्धरा मरुभूतेर्भार्या सा नवयौवना । अभूज्जगन्मोहकरी विषवल्लीव जङ्गमा ॥२३।। सा पुनर्भावयतिना स्वप्नेऽपि मरुभूतिना । पयसा मरुवल्लीव नाऽस्पृश्यत कदाचन ॥२४॥ विषयेच्छुस्ततः सा चाऽसम्प्राप्तपतिसङ्गमा । अरण्यमालतीप्रायं मन्यते स्म स्वयौवनम् ॥२५॥ स्त्रीलम्पट: प्रकृत्याऽपि कमठो वीक्ष्य वीक्ष्य ताम् । आललापाऽनुरागेण निर्विवेकः स्व॒र्षांमपि ॥२६।।
तां रह:स्थां च कमठो दृष्ट्वाऽन्येधुरदोऽवदत् । कृष्णपक्षेन्दुलेखेव किं सुभ्र ! क्षीयतेऽन्वहम् ? ॥२७॥ १. अर्ह हे० । २. तायिने परमात्मने मु० । ३. स्वर्गखण्डमिव । ४. पद्यखण्ड० मु० । ५. श्रीदः-कुबेरः, तस्य अनुजाः । ६. स्तस्या सं० । ७. प्रतिकृतितया । ८. जलानाम् । ९. पुरुषार्थेषु-धर्मार्थकाममोक्षेषु । १०. ०र्जनाक्षमौ ता० । ११. पद्यमिदं मुद्रिते न। १२. शोकेन तपसा च । १३. हरिचन्द्र० हे० | १४. कमठः कर्मठः ता० विना । १५. संन्यासी । १६-१७. पौषधा० मु० । १८. भ्रातृपत्नीमपि। १९. क्षीयसे मु० विना ।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७१
हिया न चेत् कथयसि ज्ञातं दुःखं तथापि ते । मुग्धो मदनुजो मन्ये क्लीबर्मानोऽत्र कारणम् ॥२७॥ श्रुत्वेति वचनं तस्याऽमर्यादं जातवेपथुः । पलायितुं प्रववृते भ्रश्यत्संव्यान-कुन्तला ॥२८॥ कमठोऽपि हि धावित्वा पाणिना तामधारयत् । ऊचे च मुग्धे ! किमियमस्थाने तव भीरुता ? ॥२९॥ श्लथं बधान धम्मिल्लं स्रस्तं संस्थापयांऽशुकम् । इत्युक्त्वा स तथा चक्रेऽनिच्छन्त्या अपि हि स्वयम् ॥३०॥ साऽप्यूचे ज्येष्ठ ! किमिदं पूज्यस्त्वं विश्वभूतिवत् । कुलद्वयकलङ्काय न ते न मम साध्विदम् ॥३१॥ स्मित्वा च कमठः स्माऽऽह मौग्ध्यान्मा स्म ब्रवीरिदम् । मा निजं यौवनं मोघीकुरु भोगविवर्जितम् ॥३२॥ मयाऽपि सह मुग्धाक्षि ! भुक्ष्व वैषयिकं सुखम् । क्लीबेन किं तेन मरुभूतिनाऽद्यापि यत् स्मृतिः ॥३३॥ "गते मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते" ||३४|| भृशं भोगेच्छुरग्रेऽपि तेनेत्युक्ता तु साऽग्रतः । स्वाङ्के निवेशिताऽत्याक्षील्लज्जां मर्यादया सह ॥३५॥ पअथ तां रमयामास कमठो मन्मथातुरः । नित्यमेवं तयोरासीदुप्तगुप्तो रह:क्षणः ॥३६।। तं ज्ञात्वा वरुणा त्यक्तकरुणाऽरुणलोचना । ईर्ष्यापरवशाऽऽचख्यावशेष मरुभूतये ॥३७॥ उवाच मरुभूतिस्तामार्ये ! नाऽऽर्थे भवत्यदः । अनार्यचरितं जातु सन्ताप इव शीतगौ ॥३८॥ एवं तेन निषिद्धापि साऽऽख्यत् तच्च दिने दिने । कः परप्रत्ययात् प्रत्येत्विति सोऽपि व्यचिन्तयत् ।।३९।। साक्षात्कर्तुं स्वयमथ सम्भोगविमुखोऽपि सन् । गत्वोचे कमळं यास्याम्यहं ग्रामाय सम्प्रति ॥४०॥ इत्युक्त्वाऽगान्मरुभूतिर्नक्तं च पुनराययौ । श्रान्तक(का)पटिकीभूय वेष-भाषाविपर्ययात् ॥४१॥ ययाचे कमळं दूराध्वगस्य मम देहि भोः ! । आश्रयं स्वाश्रय इति ददौ सोऽप्यविशङ्कितः ॥४२॥ तद्दर्शितगवाक्षेऽस्थाद् व्योजनिद्रामुपेत्य सः । दुश्चेष्टितं तयोर्द्रष्टुकामः कामान्धयोः संतोः ॥४३॥ मरुभूतिर्गतो ग्राममिति तावप्यशङ्कितौ । वसुन्धरा कमठश्च रेमाते दुर्मती चिरम् ॥४४।। ददर्शाऽदर्शनीयं तन्मरुभूतिस्तथास्थितः । लोकापवादभीरुस्तु विरुद्धं न समाचरत् ॥४५।। गत्वा तदाख्यदखिलं सोऽरविन्दाय भूभुजे । दुर्नयानसहिष्णुः सोऽप्यारक्षानेवमादिशत् ॥४६।। पुरोहितसुतत्वेनाऽवध्योऽयं दुश्चरित्रकृत् । निर्वास्यः खरमारोप्य कमठः सविडम्बनम् ॥४७॥ तेऽपि रासभमारोप्य रसद्विरसडिण्डिमम् । चित्रिताङ्गं धातुरसैः कमळं निरवासयन् ॥४८॥ पौरलोकैर्वीक्ष्यमाणोऽधोमुखः कमठोऽपि हि । अशक्नुवन् प्रतिकर्तुं ससंवेगो वनं ययौ ॥४९।। अथाऽभवत्तपस्वी स शिवतापससन्निधौ । आरेभे च तपो बालं कमठस्तत्र कानने ॥५०॥ मरुभूतिश्चाऽनुशिष्ये धिङ् मया किमिदं कृतम् । नरेन्द्राय यदाख्यायि भ्रातुः स्खलितचेष्टितम् ? इदं मदीयं स्खलितं महत् तत्स्खलितादपि । तद्गत्वा क्षमयाम्यद्य ज्यायांसं भ्रातरं निजम् ॥५२॥ ध्यात्वेति भूभूजं पृष्ट्वा वार्यमाणोऽपि तेन सः । जगाम कमठं तस्य पादयोनिपपात च ॥५३॥ स्मरन् विडम्बना पूर्वां तत्कालं कमठः क्रुधा । शिलामुत्क्षिप्य चिक्षेप नमतस्तस्य मूर्धनि ॥५४॥ प्रहारातस्य तस्योपर्यादाय पुनरेव ताम् । शिलां चिक्षेप कमठो नरके स्वमिवाऽभितः ॥५५॥ तत्प्रहाररुजा सार्त्तध्यानो मृत्वाऽभवत् करी । स विन्ध्यपर्वते यूथनाथो विन्ध्य इवोच्चकैः ॥५६॥ कोपान्धा वरुणा साऽपि कालधर्ममुपेयुषी । तस्यैव यूथनाथस्य वल्लभाऽभूत् करेणुका ॥५७||
गिरिनँद्यादिषु स्वैरं तया सह विशेषतः । अखण्डसम्भोगसुख: क्रीडति स्म स यूथराट् ॥५८॥ १. नपुंसकवदाचरन् । २. कम्पमाना । ३. उत्तरीयवस्त्रं केशपाशश्च एतदुभयमपि भ्रश्यत् यस्याः सा । ४. व्यर्थीकुरु । ५. स्मृतिः - मनुस्मृतिः । ६. नष्टे मु० । ७. भोगेप्सु० मु० । ८. हे आर्ये ! आर्ये (कमठे) अदः अनार्यचरितं न भवति इत्यर्थः । ९. चन्द्रे। १०. कार्पटिक: - 'कापडियो' भाषायाम् । ११. कपटनिद्रां । १२. ०योस्तयोः मु० । १३. निष्कासनीयः । १४. परितापं कृतवान् । १५. ०मिवाभिनत् मु० । १६. अस्यैव सं० । १७. गिरिणद्या० सं० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
इतश्च पोतनपतिः सोऽरविन्दः शरत्क्षणे । सममन्तः पुरस्त्री भी रेमे हर्योपरि स्थितः ॥५९॥ रममाणश्च सोऽपश्यद् गगनव्यापिनं क्षणात् । नवोदयं वारिधरं शर्कचापतडिर्द्वरम् ॥६०॥ अहो रम्यत्वमस्येति तस्मिन् वदति राजनि । महावाताहतः सोऽब्दो विदद्रे तूलपूलवत् ॥ ६१॥ तं दृष्ट्वाऽचिन्तयद्भूपः संसारेऽन्यदपीदृशम् । दृष्टनष्टं शरीरादि तत्राऽऽस्था का विवेकिनः ? ॥६२॥ इत्यादि ध्यायतो बाढं क्षयोपशममीयतुः । ज्ञानावरण चारित्रमोहनीये महीपतेः ॥ ६३ ॥ सद्यो जातावधिर्न्यस्य महेन्द्रं स्वपदे सुतम् । समन्तभद्राचार्यस्य पादान्ते प्राव्रजन्नृपः ||६४|| गुरोरनुज्ञयैकाकिविहारप्रतिमाधरः । छेत्तुं भवाध्वानमिवाऽरविन्दो व्यहरन्मुनिः ॥६५॥ उसे वसतौ ग्रामे पुरे वाऽऽस्था न जातुचित् । अभूद्विहरतस्तस्य निर्ममस्य वपुष्यपि ॥ ६६ ॥ तपःकृशाङ्गो विविधाभिग्रही सोऽन्यदाऽचलत् । सागरदत्तसार्थेशसार्थेनाऽष्टापदं प्रति ॥ ६७ ॥ मुनिं सागरदत्तस्तं पप्रच्छ क्व नु यास्यथ ? । सोऽप्याख्यद्वन्दितुं देवान् यास्यामोऽष्टापदाचले ॥६८॥ भूयोऽपृच्छत् सार्थवाहः के देवास्तत्र पर्वते ? । कारिताः केन ? कति ते ? फलं तद्वन्दने च किम् ? ॥६९॥ आसन्नभव्यं तं ज्ञात्वाऽरविन्दर्षिरभाषत । नाऽन्ये भवितुमर्हन्ति भद्र ! देवा विनाऽर्हतः ॥७०॥ केऽर्हन्तस्ते ? वीतरागाः सर्वज्ञाः शक्रपूजिताः । धर्मदेशनया विश्वविश्वस्योत्तारकाश्च ये ॥७१॥ आर्षभिर्भरतश्चक्री तत्र रत्नैरकारयत् । प्रतिमा ऋषभादीनां चतुर्विंशतिमर्हताम् ॥७२॥ तद्वन्दनफलं मुख्यं मोक्षोऽन्यत्त्वानुषङ्गिकम् । नरेन्द्रेन्द्राहमिन्द्रादिपदप्राप्त्यादि यत्किल ॥७३॥ स्वयं हिंसापरास्त्वन्ये दुर्गत्यभिमुखाः कथम् । देवीभवन्ति भैद्रात्मन् ! विश्वव्यामोहकारिणः ॥७४॥ इत्यादि बोधितस्तेन मुक्त्वा मिथ्यात्वमाशु सः । तदन्तिके श्रावकत्वं सार्थेशः प्रत्यपद्यत ॥७५॥ तस्य धर्मकथामाख्यानरविन्दर्षिरन्वहम् । तां क्रमादटवीमाप मरुभूतीभसेविताम् ॥७६॥ तत्रैकसरसस्तीरे नीरक्षीरोदनीरधेः । सार्थवाहः ससार्थोऽपि सोऽवात्सीद्भोजनक्षणे ॥७७॥ asures केपि तृणेभ्यः केऽपि चाऽभ्ययुः । केऽप्यन्नपाकादिव्यग्राः सार्थ एवाऽवतस्थिरे ||७८|| तदा च मरुभूतीभः करिणीभिः समावृतः । एत्य तत्र सरस्यम्भ पपावब्द इवोऽर्णवे ॥७९॥ पयःपूर्णकरोत्क्षेपं करिणीभिः समं चिरम् । तत्र रन्त्वा स निरगात् पॉलिमध्यारुरोह च ॥८०॥ दिशोऽवलोकयंस्तत्राऽपश्यत्तं सार्थमोषितम् । कृतान्त इव चाऽधावत् क्रोधात् ताम्रमुखेक्षणः ॥ ८१ ॥ कुण्डलीकृतशुण्डाको निष्कम्पश्रवणद्वयः । पूरिताशः स गर्जाभिर्नाशयामास सार्थिकान् ॥८२॥ नरा नार्यो वाहनानि करभादीनि चाऽभितः । पलायाञ्चकिरे जीवग्राहे सर्वो जिजीविषुः ॥ ८३॥ ज्ञात्वाऽवधेर्बोधकालं करिणस्तस्य सम्मुखम् । भगवानरविन्दोऽपि कायोत्सर्गं ददौ स्थिरः ||८४|| दूरतो धावितः क्रोधात् पश्यन् पार्श्वे गतश्च तम् । प्रशान्तमत्सरः सोऽभूत् तत्तपः श्रीप्रभावतः ॥ ८५ ॥ सद्यश्च जातसंवेगानुकैम्पाकम्पवर्ष्मकः । तस्थौ मुनेः पुरस्तस्य स शैर्क्ष इव नूतनः ॥८६॥ "मुनिस्तस्योपकाराय कायोत्सर्गमपारयत् । शान्तगम्भीरया वाचा तं बोधयितुमब्रवीत् ॥८७॥
भो भो ! न संस्मरसि किं मरुभूतिभवं निजम् ? । किं न प्रत्यभिजानासि मामरविन्दभूपतिम् ? ॥८८॥ तद्भवे प्रतिपन्नं किं व्यस्मार्षीर्धर्ममार्हतम् ? । स्मर सर्वं विसृज च मोहं श्वापदजातिजम् ॥८९॥ तया मुनिगिरा जातिस्मरणं प्राप तत्क्षणात् । शिरसा च नमश्चके मुनिं स च महागजः ॥९०॥
भूयोऽपि तं मुनिः स्माऽऽह भवेऽस्मिन्नाटकोपमे । प्राणी नट इवाऽऽप्नोति रूपान्यत्वं क्षणे क्षणे ॥९१॥ १. ० तडिद्धनम् मु० । २. चास्था सं०ता० । ३. भो भद्र ! ता० । ४. इन्धनार्थम् । ५. मेघो यथा समुद्रेऽम्भः पिबति तथेत्यर्थः । ६. कृत्वा मु० । ७. पालि: तट: 'पाळ, किनारो' । ८. पूरितदिक् । ९. पार्श्वगत० ता० । १०. उत्पन्नाभ्यां संवेगाऽनुकम्पाभ्यां अकम्प (निश्चल) शरीर: । ११. शिष्यः । १२. त्वं स्मरसि सं० ।
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( नवमं पर्व
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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तथा हि क्व तदा धीमांस्तत्त्वज्ञः श्रावको द्विजः? । जातिस्वभावमूढात्मा क्वेदानीं त्वमसि द्विपः ? ॥९२॥ भूयः श्रावकधर्मस्ते प्राग्जन्माङ्गीकृतोऽस्त्विति । उदितं मुनिना सोऽनुमेने हस्तादिसंज्ञया ॥९३।। वरुणा करिणीभूता साऽपि तत्रैव तस्थुषी । तदैव जातिस्मरणमुपलेभे गजेन्द्रवत् ॥१४॥ भूयोऽप्याख्यद् गृहिधर्मं तस्यर्षिः स्थैर्यहेतवे । ययौ च श्रावकीभूय मुनि नत्वा स कुञ्जरः ॥९५।। गजबोधेन साश्चर्यस्तत्र भूयान् जनस्तदा । परिव्रज्यामुपादत्त भूयांश्च श्रावकोऽभवत् ॥९६।। तदा सागरदत्तोऽपि जिनधर्मे दृढाशयः । विशिष्ट श्रावको जज्ञे सुरैरप्यविकम्पितः ॥९७|| अष्टापदाद्रौ गत्वा च सोऽरविन्दमहामुनिः । अवन्दताऽर्हतः सर्वान् विहरंश्चाऽन्यतो ययौ ॥९८॥ कुञ्जरः श्रावक: सोऽपि भूत्वा भावयतिः स्वयम् । ईर्यादिनिरतोऽचारीत् कुर्वन् षष्ठादिकं तपः ॥९९॥ सूर्यतप्ताम्भस: पाता शुष्कपत्रादिपारणः । स करी करिणीकेलिविमुखोऽस्थाद्विरक्तधीः ॥१०॥ स दध्यौ चेति धन्यास्ते मर्त्यत्वे प्रव्रजन्ति ये । पात्रे दानमिवाऽर्थस्य मर्त्यत्वस्य फलं व्रतम् ।।१०१।। द्रविणं धनिकेनेव मर्त्यत्वं धिङ् मया तदा । अहार्यनात्तदीक्षेण किं करोम्यधुना पशुः ? ||१०२।। भावयन् भावनामेवं गुर्वाज्ञास्थिरमानसः । स कालं गमयन्नस्थात् सुस्थितः सुख-दुःखयोः ॥१०३॥ गईतश्च कमठोऽशान्तो मरुभूतिवधादपि । अभाष्यमाणो गुरुणा गङ्खमाणोऽन्यतापसैः ॥१०४|| विशेषेणाऽऽर्त्तध्यानस्थो मृत्वाऽभूत् कुक्कुटोरगः । जातपक्षो यम इव संहरन् प्राणिनोऽचरन् ॥१०५॥ सरस्युष्णांशुसन्तप्तं स पिबन् प्रासुकं पयः । ददृशे मरुभूतीभस्तेन च भ्रमताऽन्यदा ॥१०६।। पङ्के मग्नस्तदा दैवात्तपःक्षमवंपुष्टया । निर्गन्तुमक्षमः कुम्भे स दष्टः कुक्कुटाहिना ॥१०७।। तद्विषप्रसरैत्विाऽवसानं स्वं मतङ्गजः । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं समाहितः ॥१०८।। स्मृतपञ्चनमस्कारो धर्मध्यानी विपद्य सः । सहारे सप्तदशसागरायुः सुरोऽभवत् ॥१०९।। वरुणा करिणी साऽपि तपस्तेपे सदस्तपम् । तथा यथा विपद्याऽभूद्देवी कल्पे द्वितीयके ॥११०।। स कोऽपि देवो नैवाऽभूदैशानो यन्मनस्तया । न ह्यहारि मनोहारिरूप-लावण्यसम्पदा ॥१११॥ देवे क्वापि मनश्चके न मनागति सा पुनः । गजेन्द्रजीवदेवस्य सङ्गमध्यानतत्परा ॥११२॥ गजेन्द्रजीवदेवोऽपि तस्यामत्यनुरागवान् । रक्तां तां चाऽवधेर्ज्ञात्वा सहस्त्रारमुपानयत् ॥११३।। चक्रे स देवो देवी तामन्तःपुरशिरोमणिम् । पूर्वजन्माभिसम्बद्धः स्नेहो हि बलवत्तरः ॥११४।। सहस्त्रारसुरलोकोचितं वैषयिकं सुखम् । भुञ्जानोऽगमयत् कालमदृष्टविरहस्तया ॥११५॥ कालेन कियता सोऽपि कुक्कुटाहिविपन्नवान् । नारकोऽभूत् सप्तदशार्णवायुः पञ्चमावनौ ॥११६॥ पञ्चमावनियोग्याश्च वेदना विविधाः सदा । सोऽन्वभूत् कमठजीवो विश्रान्ति नाऽऽप जातुचित् ॥११७|| माइतश्च प्राग्विदेहेषु सुकच्छे विजये गिरौ । वैताढ्येऽस्ति धनैराढ्या तिलका नामतः पुरी ॥११८॥ तत्र विद्युद्गति म नामिताशेषखेचरः । बभूव खेचरपतिर्दिवंस्पतिरिवाऽपरः ॥११९॥ महिषी तस्य कनकतिलका नामतोऽभवत् । अन्तःपुरस्य तिलकायमाना रूपसम्पदा ॥१२०॥ भुञ्जानस्य तया सार्धं तस्य वैषयिकं सुखम् । कियानपि ययौ कालो विद्युद्गतिमहीपतेः ॥१२१।। पाइतेश्च सोऽष्टमात् कल्पाद् गजजीवः परिच्युतः । कनकतिलकादेव्या उदरे समवातरत् ।।१२२।। सा काले सुषुवे सूनुमनूननरलक्षणम् । पित्रा च किरणवेग इत्याख्या तस्य निर्ममे ॥१२३।।
धात्रीभिर्लाल्यमानः स व्यवर्धिष्ट क्रमेण च । विद्याकलानिधिश्चाऽभूत् क्रमेणाऽऽप च यौवनम् ॥१२४॥ १. ततश्च सं० । २. पक्षिसर्पः । ३. प्राशुकं सं० ता० । ४. वपुषो भाव: वपुष्टा (वपुष्-तल्), तया । ५.६.८. सहश्रारे सं० । ७. ०सम्बद्धस्नेहो मु० । ९. सुकच्छविजये मु० । १०. इन्द्रः । ११. ततश्च सं० । १२. न्यव० मु० । १३. सः मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
विद्युद्गतिस्तमभ्यर्थ्याऽग्राहयद्राज्यमात्मनः । श्रुतसागरगुर्वन्ते स्वयं तु व्रतमाददे ॥ १२५ ॥ अंगृध्नुः पालयामास पैतृक राज्यसम्पदम् । सोऽनासक्तः सिषेवे च सुखं वैषयिकं सुधीः ॥१२६॥ नामतः किरणतेजास्तेजसामेकमास्पदम् । पद्मावतीकुक्षिभवस्तस्यापि तनयोऽभवत् ॥१२७॥ क्रमाच्च कवचहरः सिद्धविद्यश्च सोऽभवत् । मूर्तिः किरणवेगस्य द्वितीयेव महामनाः ॥ १२८॥ मुनिः सुरगुरुर्नाम तत्रैत्य समवासरत् । गत्वा किरणवेगस्तं नमश्चक्रेऽतिभक्तितः ॥ १२९ ॥ ततः किरणवेगस्य पादोपान्ते निषेदुषः । अनुग्रहाय विदधे स साधुर्धर्मदेशनाम् ॥१३०॥ दुर्लभं खलु मानुष्यममुष्मिन् भवकानने । चतुर्थपुरुषार्थस्य यदलम्भूष्णुं साधने ॥ १३१ ॥ तत्प्राप्याऽप्यविविक्तात्मा मूढो विषयसेवया । गमयत्यल्पमूल्येन सुरत्नमिव पामरः ॥ १३२ ॥ नरके पातनायैव विषयाः सेविताश्चिरम् । सेव्यो मोक्षफलस्तस्माद्धर्मः सर्वज्ञभाषितः ॥ १३३॥ आकर्ण्य कर्णपीयूषदेशीयामिति देशनाम् । स विरक्तो न्यधाद्राज्ये सुतं किरणतेजसम् ॥१३४॥ स्वयं सुरगुरोः पार्श्वे परिव्रज्यामुपाददे । गीतार्थश्च क्रमाज्जज्ञे श्रुतस्कन्ध इवाऽङ्गवान् ॥१३५॥ |गुरोरनुज्ञयैकाकिविहारं प्रतिपद्य सः । आकाशगमनेनाऽगात् पुष्करद्वीपमन्यदा ॥ १३६ ॥
शाश्वतानर्हतस्तत्र नत्वा वैताढ्यसन्निधौ । प्रदेशे हैमशैलस्य स तस्थौ प्रतिमाधरः ॥१३७॥ तप्यमानस्तपस्तीव्रं सहमान: परीषहान् । अवतस्थे साम्यमग्नः स कालं गमयन् मुनिः ॥१३८॥ सोऽपि जीवः कुक्कुटाहेरुद्वृत्त्य नरकात्ततः । हेमाद्रेर्गह्वरे तस्य महाहिरुदपद्यत ॥१३९॥ दोर्दण्ड इव कालस्य जन्तून् कवलयन् बहून् । आहारार्थं स बभ्राम वने तस्मिन्नहर्निशम् ॥१४०॥ अन्यदा पर्यटन् सोऽहिर्निकुञ्जस्थमुदैक्षत । ध्यानैकतानं किरणवेगर्षिं स्थाणुवत् स्थिरम् ॥१४१॥ सद्यः प्राग्जन्मवैरेण सोऽहिः कोपारुणेक्षणः । भोगेनाऽवेष्टयत् साधुं चन्दनद्रुमिवाऽथ तम् ॥१४२॥ दंष्ट्राभिर्विषभीष्माभिर्दन्दशूको ददंश सः । मुनिं स्थानेषु भूयस्सु दंशेषु प्रक्षरन् विषम् ॥१४३॥ दध्यौ च स मुनिर्बाढमयं कर्मक्षयाय मे । सुष्टुपकारी तेनाऽहिर्नाऽपकारी मनागपि ॥१४४|| जीवित्वाऽपि चिरं कर्मक्षयः कार्यो मया खलु । सोऽद्यैव विहितोऽनेन कृतकृत्योऽस्मि सर्वथा ॥ १४५ ॥ ध्यात्वेत्यालोचनां कृत्वा क्षमयित्वाऽखिलं जगत् । नमस्कारं स्मरन् धर्मध्यानस्थोऽनशनं व्यधात् ॥१४६॥ मृत्वा स द्वादशे कल्पे द्वाविंशत्यर्णवस्थिति: । अभूज्जम्बूद्रुमावर्त्ते विमाने प्रवरः सुरः ॥१४७|| सुखमग्नः सदा तत्र विलसन् विविधर्द्धिभिः । सेव्यमानः सुरैरस्थात् स कालमतिवाहयन् ॥१४८॥ "हेमाद्रिकटके भ्राम्यन् सोऽप्यहिर्दववह्निना । दग्धस्तमःप्रभां प्राप द्वाविंशत्यर्णवस्थितिः ॥ १४९॥ सार्धद्विशर्तधन्वाङ्गस्तीव्रा नरकवेदनाः । स तत्राऽनुभवंस्तस्थौ सुखांशेनाऽप्यचुम्बितः ||१५०|| |इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्रत्यग्विदेहभूषणे । सुगन्धिविजयेऽस्त्युच्चैः पुरी नाम्ना शुभङ्करा ॥ १५१ ॥ राजा तत्राऽवार्यवीर्यो वज्रवीर्योऽभिधानतः । वज्रीव साक्षीद्भूमिष्ठः प्रष्ठोऽभूद्भूमिशासिनाम् ॥१५२॥ तस्य लक्ष्मीवती नाम मूर्त्या लक्ष्मीरिवाऽपरा । समभूदग्रमहिषी महीमण्डनतां गता ॥ १५३॥ जीव: किरणवेगस्य च्युत्वा पूर्णायुरच्युतात् । कुक्षाववातरल्लक्ष्मीवत्याः सरसि हंसवत् ॥ १५४॥ सासूत समये पुत्रं पवित्राकारधारिणम् । धरणीभूषणं वज्रनाभ इत्यभिधानतः ॥ १५५॥ आनन्देन समं पित्रोर्जगत्कुमुदचन्द्रमाः । धात्रीजनैर्लाल्यमानः स क्रमेण व्यवर्धत ॥ १५६ ॥
यौवनं स क्रमात् प्राप शस्त्र - शास्त्रविचक्षणः । राज्येऽभ्यषेचि पित्रा च पवित्रे दिवसे स्वयम् ॥१५७॥
( नवमं पर्व
१. अलुब्धः । २. समर्थम् । ३. अविवेकात्मा । ४. कर्णयोः पीयूषतुल्याम् । ५. हेम० सं० हे० । ६. ०रुद्धृत्य मु० । ७. अहे शरीरं भोगः । ८. दग्धः सप्तदशाब्ध्यायुरभूद् धूमप्रभाभुवि मु० । ९. सपादशत० मु० । १०. ०शेनाप्यनुज्झितः मु० | ११. सुगन्धे मु० । सुगन्ध० हे० । १२. साक्षाद्धर्मिष्ठः मु० । १३. अग्रगामी |
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७५
वज्रवीर्यस्तया पत्न्या समं व्रतमुपाददे । तद्दत्तं वज्रनाभस्तु सम्यग् राज्यमपालयत् ॥१५८॥ पकालेन वज्रनाभस्य मूर्त्यन्तरमिवाऽऽत्मजः । अभूच्चक्रायुधो नाम चक्रायुध इवौजसा ॥१५९।। पितुः संसारभीतस्य परिव्रज्येच्छया समम् । चक्रायुधो व्यवर्धिष्ट धात्रीहस्ताब्जषट्पदः ॥१६०॥ स शशीव कलापूर्णः कुमारः प्राप यौवनम् । पित्रा च प्रार्थयाञ्चके राज्यमादीयतामिदम् ॥१६॥ अहं तु भवनिविण्ण आत्तभारस्त्वयाऽधुना । उपादास्ये परिव्रज्यामेकं निर्वाणसाधनम् ॥१६२।। ऊचे चक्रायुधोऽप्येवमप्रसादो मयीदृशः । किं बोलचापलकृतेनाऽपराधेन केनचित् ? ॥१६३॥ तत्सहस्व प्रभो ! राज्यं चिरं मामिव पालय । इयच्चिरं पालयित्वा मा तात ! विजहीहि माम् ॥१६४॥ बभाषे वज्रनाभस्तं नाऽपराद्धं त्वयाऽनघ । भारोद्धाराय पाल्यन्ते रथ्या इव सुताः परम् ॥१६५।। जातस्त्वं कवचहरस्तत् पूरय मनोरथम् । प्रव्रज्याविषयं मेऽद्य ज्ञातं त्वज्जन्मतोऽपि हि ॥१६६।। यद्यहं त्वयि जातेऽपि भाराक्रान्तो भवाम्बुधौ । पतिष्यामि सुपुत्रेभ्यस्तदा कः स्पृहयिष्यति ? ॥१६७॥ इत्युक्तेऽपि ह्यनिच्छन्तं तं राज्ये स्वाज्ञया नृपः । न्यवेशयत् कुलीनानां गुर्वाज्ञा हि बलीयसी ॥१६८॥ मतदा च भगवान् क्षेमङ्करो नाम जिनेश्वरः । उपेत्य बहिरुद्याने तत्पुर्याः समवासरत् ॥१६९।। तं च श्रुत्वा वज्रनाभो व्यचिन्तयदहो ! मम । मनोरथस्याऽनुकूलः पुण्यैरर्हत्समागमः ॥१७०।। ऋद्ध्या महत्या सद्योऽपि स प्रवव्रजिषुर्जिनम् । गत्वा ववन्देऽ श्रौषीच्च तत्कृतां धर्मदेशनाम् ॥१७१।। देशनान्ते भगवन्तं स इत्यूचे कृताञ्जलिः । चिरेष्टव्रतदानेन स्वामिन्ननुगृहाण माम् ॥१७२॥ गुरुः सुसाधुरन्योऽपि पुण्यैस्तावदवाप्यते । विशिष्टपुण्योऽस्मि यूयं गुरवो यदिहाऽऽगताः ॥१७३।। गमया दीक्षेच्छुना राज्येऽभिषिक्तस्तनयोऽधुना । सज्जोऽस्मि त्वत्प्रसादेऽस्मिन् प्रव्रज्यादानलक्षणे ॥१७४।।
इत्युक्तवन्तं तं स्वामी सद्यः प्रावाजयत् स्वयम् । सोऽध्यैष्ट च श्रुतस्कन्धं तप्यमानस्तपः परम् ॥१७५।। गगुरोरनुज्ञयैकाकिविहारप्रतिमाधरः । तपःकृशाङ्गो महर्षिर्व्यहार्षीत् स पुरादिषु ॥१७६।। जातपक्ष इवाऽखण्डैर्मलोत्तरगणैः । आकाशगमनलब्धि स क्रमादासदन्मुनिः ॥१७७।। उत्पत्य सोऽन्यदाऽगच्छत्सुकच्छे विजये यतिः । तपस्तेजोभिरधिकैः खे भास्कर इवाऽपरः ।१७८।। सोऽप्यहिर्नरकोद्वत्तस्तत्रैव विजयेऽभवत् । ज्वलनाद्रौ महाटव्यां भिल्लो नाम्ना कुरङ्गकः ॥१७९।। उद्यौवनः प्रतिदिनमधिज्यीकृतकार्मुकः । स जीवनकृते जीवान्निघ्नन् बभ्राम गह्वरे ॥१८०॥ विहरन् वज्रनाभोऽपि तामेवाऽऽप महाटवीम् । सैनिकैरन्तकस्येव श्वापदैरास्पदीकृताम् ॥१८१।। सत्त्वैः क्रूरैश्चमूर्वाद्यैः स महर्षिरभापितः । जगाम ज्वलनगिरिं तदा चाऽस्तगिरि रविः ॥१८२।। यत्राऽस्तमितवासित्वाज्ज्वलनाद्रेः स कन्दरे । कायोत्सर्गेणाऽवतस्थे तच्छृङ्गमिव नूतनम् ॥१८३।। अन्धकारो दिशोऽरौत्सीत् कव्यात् कुलमिवोद्धतम् । घूत्कारैर्जुघुषुबूंका मृत्योः क्रीडाखगा इव ॥१८४॥ वृकाश्चक्रन्दुरत्युग्रं रक्षसामिव गायनाः । भ्रेमुर्व्याघ्रा भुवं घ्नन्तः पुच्छैः कोणैरिवाऽऽनकम् ॥१८५।। विचित्ररूपाः शाकिन्यो योगिन्यो व्यन्तरस्त्रियः । आवि:किलकिलारावाः समयेनाऽमिलंस्तदा ॥१८६॥ तत्रैव काले क्षेत्रे च स्वभावादतिभीषणे । "निष्कम्पो भगवांस्तस्थावुद्यान इव निर्भयः ॥१८७।। एवं ध्यानजुषस्तस्य सा व्यतीयाय यामिनी । तपोज्योतिरिवाऽमुष्योन्मिमील सवितुर्युतिः ॥१८८।। ततः सूर्यकरस्पर्शाद् गतजन्तुनि भूतले । युगमात्रदत्तदृष्टिविहर्तुं सोऽचलन्मुनिः ॥१८९।। अत्रान्तरे च पाद्धय निर्ययौ स कुरङ्गकः । व्याघ्रकूरो व्याघ्रचर्मवासाः कार्मुकतूणभृत् ॥१९०।। तेनाऽऽपतस्तदाऽदर्शि वज्रनाभो महामुनिः । असावशकुनं भिक्षुरिति दूरं च चुकुधे ॥१९१।।
क्रुद्धः प्राग्जन्मवैराच्च स दूराकृष्टकार्मुकः । कुरङ्गवन्महर्षि तं निजघान कुरङ्गकः ।।१९२।। १. बाल्यचापल्य० मु० । २. भारारोपणायेत्यर्थः । ३. अश्वाः । ४. हि ता० । ५. जाती पक्षौ यस्य सः । ६. नरकाद् भ्रान्त्वा भवं तत्रैव चाभवत् मु० । ७. ०श्चमर्याद्यैः मु० । चमूरुप्रभृतिसत्त्वैः । ८. यथा क्रव्याद्-राक्षस: मांसभक्षी वा, कुलं रुणद्धि तथा। ९. दण्डैर्दुन्दुभिमिव । १०. निःकम्पो सं०ता० । ११. पापद्धिर्नि० मु० । १२. आपतन्-आगच्छन् । ०स्तथा हे०ता० । १३. अतीव ।
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१७६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
'नमोऽर्हद्भय' इति गृणन् प्रतिलिख्य स भूतलम् । निषसाद प्रहारार्लोऽप्यातध्यानविवजितः ॥१९३|| सिद्धेभ्यः सम्यगालोच्य प्रपेदेऽनशनं ततः । सर्वेषां क्षामणं चक्रे निर्ममः सन् विशेषतः ॥१९४॥ धर्मध्यानपरो मृत्वा मध्यप्रैवेयके सुरः । ललिताङ्गोऽभिधानेन सोऽभवत् परमद्धिकः ॥१९५॥ कुरङ्गकोऽपि तं दृष्ट्वा मृतमेकप्रहारतः । महाधनुर्धरोऽस्मीति मुमुदे मदमुद्वहन् ॥१९६।।
आजन्ममृगयाजीवो मृत्वा सोऽपि कुरङ्गकः । उत्पेदे सप्तमावन्यामावासे रौरवाभिधे ।।१९७। गइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहेषु विस्तृतम् । पुराणपुरमित्यस्ति पुरं सुरपुरोपमम् ॥१९८॥ तस्मिन् बभूव कुलिशबाहुः कुलिशभृन्निभः । भूपतिभूपतिशतैमोल्यवद्धृतशासनः ॥१९९।। नाम्ना सुदर्शना तस्य रूपतोऽपि सुदर्शना । समभूदग्रमहिषी परमप्रेमभाजनम् ।।२००॥ रममाणस्तया सार्धं वपुष्मत्या भुवेव सः । अबाधितान्यपुमर्थोऽन्वभूद्वैषयिकं सुखम् ॥२०१।। पूरितायुर्वज्रनाभामरः कालेन गच्छता । च्युत्वा ग्रैवेयकात्तस्मात्तस्याः कुक्षाववातरत् ।।२०२॥ चतुर्दश महास्वप्नांश्चक्रभृज्जन्मसूचकान् । देवी सुदर्शनाऽपश्यन्निशान्ते शयनस्थिता ॥२०३॥ पत्या च व्याकृतैः स्वप्नैः सा हृष्टा कालमत्यगात् । दिवाकरमिव प्राची समयेऽसूत चाऽऽत्मजम् ॥२०४।। कृत्वा जन्मोत्सवं भूयोऽप्युत्सवेन महीयसा । सुवर्णबाहुरित्याख्यां तस्याऽकार्षीन्महीपतिः ॥२०५।। अङ्कादक़ नीयमानो धात्रीभी राजभिश्च सः । बाल्यं ललझे शनकैरध्वगो निम्नगामिव ॥२०६।। सुखं प्राग्जन्मसंस्कारात् सोऽध्यैष्ट सकलाः कलाः । कलयामास चाऽनङ्गसदनं यौवनं नवम् ॥२०७।। रूपेणाऽप्रतिरूपोऽभूत् स्वर्णबाहर्जगत्यपि । पराक्रमेण चाऽधृष्यः सौम्यश्च विनयश्रिया ॥२०८॥ भवोद्विग्नः क्षमाधीशः क्षमं ज्ञात्वा च तं सुतम् । उपरुध्य न्यधाद्राज्ये प्रवव्राज स्वयं पुनः ॥२०९।। अखंण्डिताज्ञो मेदिन्यां सौधर्म इव वज्रभृत् । तस्थौ भोगान् स मुञ्जानो मग्नः सुखसुधारसे ।।२१०॥ निर्ययौ क्रीडयाऽन्येद्युः सहस्रैर्भूभुजां वृतः । अपूर्वं हयमारूढः सूर्याश्वानामिवाऽष्टमम् ॥२११॥ रयं जिज्ञासुरश्वस्य कशाघातं ददौ नृपः । मरुंद्यानं मृग इव सोऽप्यधावत सत्वरम् ॥२१२।। यथा यथा नृपो वल्गामाचकर्ष तथा तथा । अधाविष्ट विपरीतशिक्षत्वात्सोऽधिकाधिकम् ॥२१३।। गरुत्मान् पादचारीव न स्वानिव मूर्तिमान् । स तुरङ्गः क्षणेनाऽपि दूरे तत्याज सैनिकान् ॥२१४॥ भूस्पृरव्योमचरो वेति नाऽलक्षि स हयो रयात् । सहोद्गत उताऽऽरूढ इति राजाऽप्यतयंत ॥२१५।। विचित्रतरुसङ्कीर्णं नानासत्त्वसमाकुलम् । वनमेकं क्षणात् प्राप दवीयोऽपि महीपतिः ॥२१६।। ईक्षाञ्चक्रे सरश्चैकं राजा स्वाशयनिर्मलम् । तस्थौ तद्दर्शनाच्चाऽश्वस्तृषितः श्वासपूरितः ॥२१७॥ ततः पर्याणमुत्तार्य नपयामास तं हयम् । पयश्चापाययद्भूपः स्नात्वा च स्वयमप्यपात् ॥२१८॥ ततो निःसृत्य विश्रम्य क्षणं तीरे क्षमापतिः । चलितोऽपश्यदग्रे च रम्यमेकं तपोवनम् ॥२१९॥ उत्सङ्गविधृतैणाभै|लतापसदारकैः । पूर्यमाणालवालद्रु तत्प्रेक्ष्य मुमुदे नृपः ॥२२०॥ पस्पन्दे दक्षिणं चक्षुस्तत्र प्रविशत: सतः । राज्ञो विचारकल्यस्य कल्याणं ज्ञापयन्नवम् ॥२२१।। मुदितः सोऽग्रतो गच्छन् दक्षिणेन सखीयुताम् । सिञ्चन्तीं दून् पयस्कुम्भैर्ददर्श मुनिकन्यकाम् ॥२२२॥ सोऽचिन्तयदहो ! रूपं नेदृगप्सरसामपि । न नागीनां न 'नारीणां त्रैलोक्यादधिका ह्यसौ ॥२२३।। ततश्च वृक्षान्तरितो यावत्तां स व्यचिन्तयत् । माधवीमण्डपं तावत् सह सख्या विवेश सा ॥२२४॥ दृढबद्धं श्लथीकृत्य वल्कलं तत्र बालिका । बकुलं सेक्तुमारेभे बकुलामोदभृन्मुखी ॥२२५।। भूयोऽप्यचिन्तयद्राजाऽमुष्या राजीवचक्षुषः । क्वेदं रूपं ? क्व कर्मेदं प्राकृतस्त्रीजनोचितम् ? ॥२२६।।
न च तापसकन्येयं यदस्यां रागि मे मनः । काऽप्यसौ राजपुत्रीति कुतोऽप्यत्राऽऽगता ध्रुवम् ॥२२७।। १. उत्पन्नः सं० । २. वजिसदृशः । ३. ०ऽदर्श० सं०हे०ता० । ४. पुनः स्वयम् सं० । ५. सहभै० सं० । ६. पवनवेगेन इत्यर्थः । मरुद्यान सं० । ७. शिक्षित्वा० मु० । ८. वायुः । ९. अतिदूरमपि । १०. उत्सङ्गे धारिता मृगबालका यैस्तैः । ११. विचारे कल्यश्चतुरस्तस्य। १२. नारीणाम् सं० । १३. नागीनाम् सं० । १४. कमलाक्ष्याः ।
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द्वितीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
अत्रान्तरे मुखे तस्याः पद्मभ्रान्त्या मधुव्रतः । पपातोत्पादयंस्त्रासं धुन्वत्याः पाणिपल्लवौ ॥ २२८॥ यदा च तां जहौ नाऽलिः सखीमुद्दिश्य सा तदा । भ्रमराद्राक्षसादस्माद्रक्ष रक्षेत्यभाषत ॥ २२९॥ सख्यप्यूचे रक्षितुं त्वां कोऽन्योऽलं स्वर्णबाहुतः । तमेवाऽनुसर क्ष्मापमर्थस्ते रक्षया यदि ॥ २३० ॥ को नाम व उपद्रोता पात्युर्वी वज्रबाहुजे । इति ब्रुवंस्तयो राजा प्रस्तवज्ञः प्रकट्यभूत् ॥२३१॥ अकस्मात्तं च ते प्रेक्ष्याऽवतस्थाते ससाध्वसे । नोचितं चक्रतुः किञ्चिन्न च किञ्चिज्जजल्पतुः ॥ २३२ ॥ भीते इति विदन् राजा ते भूयोऽपि ह्यभाषत । निःप्रत्यूहं तपः कच्चिन्निर्वहत्यत्र वां शुभे !? ॥२३३॥ धैर्यमालम्ब्य सख्यूचे नरेन्द्रे वज्रबाहुजे । तापसानां तपोविघ्नमत्र कः कर्तुमीश्वरः ? ||२३४ || इयं तु केवलं बाला पद्मभ्रान्त्या मुखेऽलिना । दश्यमाना कातराक्षी रक्ष रक्षेत्यभाषत ॥ २३५ ॥ तरुमूले तया दत्तासने राजोपवेश्य च । अपृच्छ्यत स्वच्छधिया गिरा पीयूषकल्पया ॥ २३६॥ लक्ष्यसे त्वमसामान्यो मूर्त्याऽपि निरवद्यया । तदाऽप्याख्याहि कोऽसि त्वं देवो विद्याधरोऽथ वा ? || २३७|| आत्मानमात्मनाऽऽख्यातुमक्षमः क्ष्माधवोऽवदत् । परिग्रहेऽहं कनकबाहोर्वसुमतीपतेः ॥ २३८ ॥ तदादेशादिहाऽऽगच्छमाश्रमे विघ्नकारिणाम् । निवारणार्थं यत्नोऽत्र महांस्तस्य हि भूपतेः ॥२३९॥ अयं स एव राजेति ध्यायन्तीं तां सखीं नृपः । उवाच किमियं बाला क्लिश्यते कर्मणाऽमुना ? || २४०|| अथ निःश्वस्य साऽवोचदियं रत्नपुरेशितुः । खेचरेन्द्रस्य पद्मेति कन्या रत्नावलीसुता ||२४१|| पिताऽस्यां जातमात्रायां विपेदे तत्पदार्थिनः । मिथः सुता युयुधिरे ततोऽभूद्राजविड्वेरः ॥ २४२ ॥ रत्नावली गृहीत्वेमां बालां स्वभ्रातुराश्रमे । गालवस्य कुलपतेर्निकेतनमुपागमत् ॥२४३॥ अन्येद्युः साधुरेकोऽत्र दिव्यज्ञानी समागमत् । पद्मायाः कः पतिर्भावीत्यपृच्छद्गालवश्च तम् ॥२४४।। अत्राऽऽगतोऽश्वापहृतश्चक्रभृद्वज्रबाहुः । परिणेष्यत्यमूं बालामित्याख्यत् स महामुनिः ॥ २४५ ॥ राजाऽपि दध्यावकस्मादश्वापहरणं मम । सहाऽनया सङ्घटनोपायः खल्वेष वेधसः || २४६ ॥ सोऽथाऽऽललाप क्वेदानीं भद्रे ! कुलपतिर्वद । तद्दर्शनेन मे भूयादधुनाऽऽनन्दकन्दलः ॥२४७॥ साऽप्याचख्यौ विहर्तुं तं प्रस्थितं मुनिमन्यतः । अनुगन्तुं गतोऽस्त्यद्य तं नमस्कृत्य चैष्यति ॥ २४८॥ पद्मामानय हे नन्दे ! कुलपत्यागमक्षणः । वर्ततेऽसाविति तदा काऽप्याख्यद्वृद्धतापसी ॥ २४९ ॥ राजाऽप्यश्वखुररवज्ञातसैन्यागमोऽवदत् । यातं युवामहमपि रक्षामि बलमा श्रमात् ॥ २५० ॥ निन्येऽथ नन्दया पद्मा ततः स्थानात् कथञ्चन । पश्यन्ती वलितग्रीवा स्वर्णबाहुमहीपतिम् ॥२५१॥ तदेयुषः कुलपते रत्नावल्याश्च सा सखी । सुवर्णबाहुवृत्तान्तं कथयामास सम्मदात् ॥ २५२॥ अथोचे गालवो ज्ञानमतिसप्रत्ययं मुने: । जैनर्षयो महात्मानो भाषन्ते न मृषा क्वचित् ॥ २५३॥ आतिथेयेन तत्पूज्यो वर्णाश्रमगुरुर्ह्यसौ । पद्मायाश्च पतिर्भावी तं यामः पद्मया सह ||२५४|| ततो रत्नावली - पद्मा - नन्दाभिः सहितो ययौ । राज्ञः पार्श्वे कुलपती राज्ञा चोत्थाय सत्कृतः ॥ २५५ ॥ अभ्यधाद्गालवं राजा द्रष्टुमुत्कण्ठितोऽद्य वः । अहमप्याजिगमिषं किं यूयं स्वयमागताः ? ॥ २५६॥ बभाषे गालवोऽप्येवमन्योऽपि ह्याश्रमागतः । आतिथेयेन पूज्यो नस्त्वं तु त्राता विशेषतः ॥ २५७।। `जामेयी मे त्वसौ पद्मा पत्नी ते ज्ञानिनोदिता । अस्याः पुण्यैस्त्वमायासीस्तदिमामुद्वहाऽधुना ॥२५८॥ इत्युक्तो मुनिना तेन पद्मां पद्मामिवाऽपराम् । गान्धर्वेण विवाहेन स्वर्णबाहुरुपायत ॥ २५९ ॥ रत्नावली ततः प्रोचे राजानं जनितोत्सवम् । पद्माहृदयपद्मस्य त्वं सूर्यौभव सर्वदा ॥ २६० ॥ 'सापत्नस्तनयो रत्नावल्याः पद्मोत्तरस्तदा । सप्राभृतः खेचरेन्द्रो विमानैश्छादयन् दिवम् ॥२६१|| तं प्रदेशमुपेयाय रत्नावल्या निवेदितः । स्वर्णबाहुं नमस्कृत्य जगादैवं कृताञ्जलिः ॥२६२॥ युग्मम् ॥
विप्लव: । ६. ० बाहुभूः
१. अवसरज्ञः । २. साध्वसं भयम् । ३. निर्विघ्नम् । ४. परिग्रहो० मु० । ५. राज्य० मु० । विड्वरः
ता० । ७. सख्याचख्यौ मु० । १ तदै० मु० । २.
भगिन्याः पुत्री । ३. सपत्न ता० ।
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१७८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व त्वद्वृत्तान्तमिमं ज्ञात्वा देव ! त्वामेव सेवितुम् । इहाऽऽगच्छं तदादेशं विशामीश ! प्रयच्छ मे ॥२६३।। वैताढ्याद्रौ प्रतापाढ्य ! त्वमेहि च पुरे मम । तत्र विद्याधरैश्वर्यलक्ष्मीस्तुभ्यं हि तिष्ठते ॥२६४॥ राजाऽपि तद्वचस्तस्योपरोधादन्वमन्यत । पद्माऽपि नत्वा जननी जगादेति सगद्गदम् ॥२६५॥ पत्या सह गमिष्यामि मात तः परं मम । स्थानमन्यत्र तद् ब्रूहि भूयोऽपि द्रक्ष्यसे कदा ? ॥२६६।। भ्रातृनिवोद्यानतरून्मृगडिम्भान् सुतानिव । मुनिकन्याश्च भगिनीरिव त्यक्ष्यामि ही कथम् ? ॥२६७॥ असौ गर्जति पर्जन्ये षड्जस्वरमनोज्ञवाक् । कलापी ताण्डवकलां कस्याऽग्रे दर्शयिष्यति ? ॥२६८।। बकुला-ऽशोक-माकन्दानमून् सम्प्रति मां विना । का पाययिष्यति पयो मातः ! स्तन्यं सुतानिव ? ॥२६९।। रत्नावल्यप्युवाचैवं वत्से ! त्वं चक्रवर्तिनः । पत्न्यभूविस्मर ततो धिग्वृत्तिं वनवासजाम् ॥२७०।। भर्ता त्वयाऽनुगम्योऽद्य चत्र्यसौ भूमिवासवः । त्वं भविष्यसि देव्यस्य हर्षस्थाने कृतं शुचा ॥२७१॥ इत्युक्त्वा मूनि चुम्बित्वा समालिङ्ग्य च निर्भरम् । अङ्कमारोप्य मुक्तास्राऽन्वशाद्रत्नावलीति ताम् ॥२७२।। गता पतिगृहं वत्से ! सदैव स्यां प्रियम्वदा । भुक्ते पत्यौ च भुञ्जीथाः शयीथाः शयिते तथा ॥२७३॥ चक्रिपत्नि ! सपत्नीषु सापत्न्याचारिणीष्वपि । भाव्यं त्वया दक्षिणया महत्त्वस्योचितं ह्यदः ॥२७४।। नीरङ्गीच्छन्नवदना नित्यं नीचैविलोचना । वत्से ! कैरविणीव त्वमसूर्यम्पश्यतां श्रयः ॥२७५।। श्वश्रूपादाब्जसेवायां हंसीव त्वं समुद्वहः । चक्रिपत्नीत्वजनितं गर्वं जात्वपि मा कृथाः ॥२७६॥ सापत्नान्यप्यपत्यानि पत्युर्मन्यस्व सर्वदा । स्तनन्धयानिव निजान् कुर्याश्च स्वाङ्कतल्पंगान् ॥२७७॥ आपीय कर्णाञ्जलिभिरिति शिक्षावचःसुधाम् । नत्वा प्रपच्छ जननीं स्वपत्युश्चाऽनुचर्यभूत् ।।२७८॥ नत्वा रत्नावली पद्मोत्तरोऽपि पृथिवीपतिम् । अलङ्कुरुष्व मे स्वामिन् ! विमानमिति चाऽवदत् ॥२७९॥ आपृच्छय गालवं रत्नावली चाऽथ महीपतिः । पद्मोत्तरविमानेऽध्यारुरोह सपरिच्छदः ।।२८०॥ ततः पद्मोत्तरः स्वर्णबाहुं पद्मासमन्वितम् । वैताढ्यमौलिमुकुटेऽनैषीद्रत्नपुरे पुरे ॥२८१।। प्रासादं रत्नघटितं विमानमिव नाकिनाम् । स खेचरोऽर्पयामास स्वर्णबाहुमहीभुजे ॥२८२।। आज्ञां प्रतीच्छन् पार्श्वस्थो भुजिष्य इव भूभुजः । रचयामास स स्नान-भोजनादिभिरौचितीम् ॥२८३।। तत्र स्थित: स्वर्णबाहुः प्राज्यया पुण्यसम्पदा । सर्वविद्याधरैश्वर्यं प्राप श्रेणिद्वयेऽपि हि ।।२८४|| तत्रोपयेमे बहुशः स विद्याधरकन्यकाः । विद्याधरैः सर्वविद्याधरैश्वर्येऽभ्यषेचि च ॥२८५।। पद्मादिकाभिरूढाभिः खेचरीभिः समन्वितः । ततः सपरिवारोऽगात् स्वर्णबाहुनिजं पुरम् ॥२८६।। सुवर्णबाहुराजस्य विधिवच्छासतो महीम् । चतुर्दशमहारत्नी क्रमेण समपद्यत ॥२८७।। चक्रमार्गानुगः सोऽथ षट्खण्डं क्षोणिमण्डलम् । लीलया साधयामास सेव्यमानः सुरैरपि ॥२८८॥ क्रीडन् विचित्रक्रीडाभिस्तत्राऽस्थाद्वज्रबाहुजः । प्रभाकर इवाऽऽक्रामन् विश्वतेजांसि तेजसा ॥२८९।। पअधिप्रासादमन्येद्युः स्थितः सोऽपश्यदम्बरे । उत्पतन्निपतद्देवजातं सञ्जातविस्मयः ॥२९०।।
अश्रौषीच्च जगन्नाथं तीर्थनाथमुपागतम् । वन्दितुं च ययौ तत्र श्रद्धासम्बद्धमानसः ॥२९१।। जिनेन्द्रं तत्र वन्दित्वा यथास्थानं निषद्य च । सोऽौषीद्देशनां तस्मादाकस्मिकसुधानिभाम् ।।२९२।। सम्बोध्य भूयसो भव्यान् भगवानन्यतो ययौ । सुवर्णबाहुराजोऽपि निजमेव निकेतनम् ॥२९३।। तीर्थकृद्देशनायातान् स्मारं स्मारं सुरान्नृपः । क्वैते दृष्टा मयेत्यूहापोहाज्जातिस्मृतिं ययौ ॥२९४।। दध्यौ च प्राग्भवान् पश्यन् प्रतिमर्त्यभवं मम । अपि प्रयतमानस्य भवान्तो नाऽधुनापि हि ।।२९५।।
आप्तवान् देवभूयं यः स मर्त्यत्वेऽपि तृप्यति । कर्मच्छन्नस्वभावस्य विमोहः कोऽयमात्मनः ? ॥२९६।। १. विद्यते ता० । २. हा ता० । ३. मुक्तानि अस्राणि-अश्रूणि यया सा। ४. दाक्षिण्यगुणवत्या । ५. वस्त्राञ्चलेन छत्रं-आवृतं वदनं यस्याः सा, 'लाज काढेली' इति भाषायाम् । ६. कैरविणी-रात्रिविकाशिकुमुदिनी । ७. स्वस्य अङ्क एव तल्पं- पल्यङ्कः, तत्र गतान्, स्वाङ्के शयनीया इत्यर्थः । ८. ०कुरु मम मु० । ९. दासः । १०. रौचितिम् मु० । ११. समाहारद्विगुरत्र । १२. षट्खण्डक्षोणि० मु०। १३. नामुना मु० ।
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द्वितीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७९
स्वर्गे मत्र्ये तिर्यग्योनौ नरकेऽपि च गच्छति । जन्तुः शिवाध्वनो भ्रान्तोऽध्वनीनोऽध्वान्तरेष्विव ॥२९७॥ तस्माच्छिवपथायैव प्रयतिष्ये विशेषतः । अंनिर्वेदः श्रियो मूलं सामान्येऽपि प्रयोजने ॥२९८।। निश्चित्यैवं सुतं राज्ये स्वर्णबाहुर्नृपो न्यधात् । तदा च विहरन्नाऽऽगाज्जगन्नाथो जिनेश्वरः ॥२९९॥ तीर्थनाथान्तिकं गत्वा प्रावाजीद्वज्रबाहुजः । तप्यमानस्तपश्चोग्रं गीतार्थः सोऽभवत् क्रमात् ॥३०॥
अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैः कियद्भिः सेवितैः सुधीः । शनैरुपार्जयामास तीर्थकृन्नामकर्म सः ॥३०१॥ पाएकदा विहरन् सोऽगादुपक्षीरमहागिरि । महाटवीं क्षीरवणां नानाश्वापदभीषणाम् ॥३०२॥ अर्कस्याऽभिमुखस्तत्र तेजसाऽर्क इवाऽपरः । कुर्वन्नातापनां तस्थौ स स्थिरप्रतिमाधरः ॥३०३॥ कुरङ्गकोऽपि नरकादुद्वत्तस्तत्र पर्वते । बभूव सिंहो भ्राम्यंश्च दैवात्तत्र समाययौ ॥३०४॥ भोज्याप्राप्तेर्वासरेऽपि ह्यस्तने स बुभुक्षितः । दूरादपि महर्षि तं ददर्शाऽन्तकसन्निभः ॥३०५।। क्रुद्धः प्राग्जन्मवैराच्चाऽधावत् स्फारीकृताननः । पञ्चाननोऽवनि पुच्छाच्छोटनैः स्फोटयन्निव ॥३०६॥ उत्कर्णकेसरः स्फारबूत्कारापूर्णकन्दरः । उत्फालोऽभ्येत्य स तलप्रहारमकरोन्मुनौ ॥३०७॥ मुनिर्देहनिराकांक्षः सिंहे तत्राऽऽपतत्यपि । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं समाहितः ॥३०८॥ आलोचनां सर्वसत्त्वक्षामणां चाऽकरोन्मुनिः । धर्मध्यानेऽवतस्थे च सिंहेऽप्यविकृताशयः ॥३०९॥ दीर्णः केसरिणा विपद्य स मुनिविंशत्युदन्वत्स्थितिः कल्पेऽभूद्दशमे महाप्रभमिति ख्याते विमाने सुरः । सिंहः सोऽपि मृतश्चतुर्थनरकेऽगच्छद्दशाब्धिस्थितिस्तिर्यग्योनिषु चाऽभवद्बहुविधाश्चाऽऽसादयन् वेदनाः ॥३१०॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये नवेमे पर्वणि श्रीपार्श्वनाथपूर्वभववर्णनो
नाम द्वितीयः सर्गः ॥
१. अनिर्वेदश्रियो मु० । २. च ता० । ३. ०दुद्धृत० मु० । ४. दैवादत्र मु० । तत्र दैवात् ता० । ५. ०केशरः सं० । ६. सिंहे तत्र पतत्यपि ता० । सिंहेन पातितो भुवि मु० । ७. केशरिणा सं. । ८. ०त्युदन्वस्थितिः मु० । ९. नवम० सं०ता० । १०. ०भवनवकवर्णनो हे० ता० । ११. प्रथमः ता० ।
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॥ अथ तृतीयः सर्गः ॥ तस्याऽथ जीवः सिंहस्य दुःखान्यनुभवन् भवे । सन्निवेशे क्वचिदर्भूद्रोरद्विजकुले सुतः ॥१॥ पित-भ्रात्रादयस्तस्य जातस्याऽपि विपेदिरे । कृपया जीवितो लोकैः कठ इत्युदितश्च सः ॥२॥ उल्लङ्घ्य शैशवं प्राप्तयौवनो नित्यदःस्तिः । लोकैविडम्ब्यमानः सन् कथमप्याप भोजनम् ॥३।। अन्येधुरीश्वरान् पश्यन् रत्नालड़ारधारिणः । सद्य उत्पन्नवैराग्यः कठ एवं व्यचिन्तयत् ॥४॥ सहस्रकुक्षिम्भरयो नानाभरणभूषिताः । देवा इवाऽमी तन्मन्ये प्राग्जन्मतपसः फलम् ॥५।। अहं भोजनमात्रेऽपि साभिलाप: सदाऽपि हि । नाऽकार्षं तत्तपो नूनं तपस्याम्यधुनाऽपि तत् ॥६।। एवं विचिन्त्य संवेगात् सोऽग्रहीत्तापसव्रतम् । पञ्चाग्न्यादितपस्तेपे कन्दमूलादिभोजनः ।।७।। पइतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतक्षेत्रभूषणम् । अनुगङ्ग नगर्यस्ति वाराणस्यभिधानतः ॥८॥ कल्लोला इव जाह्नव्यास्तस्यां चैत्येष्वभान् ध्वजाः । शांतकुम्भमयाः कुम्भाः पद्मकोशा इवोच्चकैः ॥९॥ राकोहिमकरस्तस्यामधिप्राकारमागतः । निशीथे तनुते रूप्यकपिशीर्षकविभ्रमम् ।१०॥ तत्रेन्द्रनीलबद्धासु वासमन्दिरभृमिषु । पयोबुद्ध्या क्षिप्तहस्ता हस्यन्तेऽतिथियोषितः ॥११॥ तस्यां चैत्यान्यभान् दग्धधूपधूमैः प्रसारिभिः । चक्षुर्दोषच्छिदे बद्धैविनीलवसनैरिव ॥१२॥ सङ्गीतमरजध्वानैर्मेघध्वनितशङ्किनः । केकायन्ते प्रावृषीव सदा तः तस्यामिक्ष्वाकुवंशो(श्यो)ऽभूदश्वसेनो महीपतिः । अश्वसेनाभिरभितोऽजिरीकृतदिगन्तरः ॥१४।। तस्य तस्थौ वक्षसि श्रीर्वाग्देवी च मुखाम्बुजे । करतल्पे कृपाणश्च दोर्दण्डे च वसुन्धरा ॥१५|| लीलयैव द्विषोऽजैषील्लीलयैवाऽशिषन्महीम । लीलयैव ददौ वित्तं स सर्वं लीलया व्यधात् ॥१६।। सदाचारनदीशैलो गणपक्षिमहीरुहः । लक्ष्मीकरणोरालानस्तम्भो भवि बभव सः ||१७|| नरेन्द्रपुण्डरीकस्य तस्याऽऽज्ञा न ललडिरे । पन्नगा इव राजानो दुर्वृत्ता अपि सर्वदा ॥१८॥ बभूव महिषी तस्य वामाक्षीणां शिरोमणिः । सपत्नीष्वप्यवामैव वामादेव्यभिधानतः ।।१९।। सा शीलं धारयामास पत्यर्यश इवाऽमलम । नैसर्गिकण शौचन द्वैतीयीकीव जाह्नवी ॥२०॥ तैस्तैर्गुणैः समभवद्भर्तुः साऽत्यन्तवल्लभा । तथापि वाल्लभ्यमदं न मनागप्यधारयत् ।।२१।। 'इतश्च प्राणते कल्पे भुक्त्वा देवद्धिमुत्तमाम् । सुवर्णबाहुराड्जीवो निजमायुरपूरयत् ॥२२॥
चैत्रे चतुर्थ्यां कृष्णायां विशाखायां ततश्च्युतः । निशीथेऽवातरद्वामास्वामिन्या उदरेऽथ सः ।।२३।। ददर्श च तदा देवी श्रीवामा विशतो मुखे । चतुर्दश महास्वप्नांस्तीर्थकृज्जन्मसूचकान् ॥२४॥ इन्द्रैः पत्या च तज्ज्ञैश्च स्वप्नेषु व्याकृतेषु सा । मुदिता बिभ्रती गर्भ कालं देव्यत्यवाहयत् ॥२५।। पौषकृष्णदशम्यां सा रा(यां सर्पलाञ्छनम् । रत्नं विडूरभूमीव नीलाभं सुषुवे सुतम् ॥२६॥ षट्पञ्चाद्दिक्कुमार्यस्तत्रोपेत्य क्षणादथ । अर्हतोऽर्हज्जनन्याश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥२७|| शक्रोऽप्यागात्तत्र देव्या दत्त्वाऽवस्वापनी ततः । अर्हत्प्रतिकति कत्वा तस्याः पार्वे न्यधत्त च ॥२८॥
रूपाणि पञ्च सोऽकार्षीत्तत्रैकेनाऽऽददे प्रभुम् । उभाभ्यां चामरे चाऽन्येनाऽऽतपत्रं प्रभूपरि ।।२९।। १. रोरा दीनोऽकिञ्चन इति यावत् । २. सुवर्णकुम्भाः । ३. पूणिमाचन्द्रः । ४. मुरुज० सं० ता० । ५. ०शङ्किताः मु० ता० । ६. ०ञ्जरी० ता० । अजिरं अङ्गणं, तदिव कृतानि दिगन्तराणि येन सः । ७. ०महाद्रुमः मु० । ८. अनुराधानक्षत्रे । ९. दत्त्वा देव्यापस्वा० सं० । १०. ०केन दधौ सं० मु० । ११. अन्येना० सं० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१८१
वज्रमुल्लालयन्नन्येनाऽग्रस्थो वल्गुवल्गितः । स्वामिवक्त्रे वलद्ग्रीवं दत्तदृष्टिर्ययौ द्रुतम् ॥३०॥ क्षणान्मेरावतिपाण्डुकम्बलामासदच्छिलाम् । सिंहासने न्यषदच्च शक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः ॥३१।। त्रिषष्टिरच्युताद्याश्च तत्रेन्द्रा द्रुतमाययुः । जन्माभिषेकं नाथस्य विधिवद्विदधुश्च ते ॥३२॥ ईशानोत्सङ्गमारोप्य प्रभुं सौधर्मवासवः । यथावत् स्नपयोमास वृषशङ्गोत्थितैर्जलैः ॥३३।। चर्चामर्चा रचयित्वा जगन्नाथस्य वासवः । कृताञ्जलिरिति स्तोत्रं पवित्रमुपचक्रमे ॥३४॥ नमः प्रियङ्गुवर्णाय जगतः प्रियहेतवे ! तुभ्यं दुस्तरसंसारपारावारैकसेतवे ॥३५॥ ज्ञानरत्नैककोशाय व्याँकोशेन्दीवरत्विषे । भव्यारविन्दांशुमते तुभ्यं भगवते नमः ॥३६।। फणभृल्लक्ष्मणेऽष्टाग्रसहस्रनरलक्ष्मणे । तुभ्यं नमः कर्मतमोविध्वंसशशलक्ष्मणे ॥३७।। जगत्रयपवित्राय ज्ञानत्रितयधारिणे । कर्मस्थलखनित्राय सुचरित्राय ते नमः ॥३८॥ सर्वातिशयपात्रायाऽतिमात्रकरुणावते । सर्वसम्पदमत्राय नमस्ते परमात्मने ॥३९।। दूरीभूतकषायाय मुदिता क्षीरवार्धये । रागद्वेषविमुक्ताय नमस्ते मुक्तिगामिने ॥४०॥ फलं त्वत्पादसेवाया यद्यस्ति परमेश्वर ! । तदेतदेव मे भूयात्त्वयि भक्तिर्भवे भवे ॥४१॥ "स्तुत्वेत्यर्हन्तमादाय नीत्वा वामान्तिकेऽमुचत् । जहेऽवस्वापनी तस्यास्तच्चाऽर्हत्प्रतिरूपकम् ॥४२॥ शक्रोऽगात् स्वं ततः स्थानमश्वसेनोऽपि हि प्रगे । सूनोर्जन्मोत्सवं चक्रे कारामोक्षादिपूर्वकम् ।।४३।। गर्भस्थितेऽस्मिञ्जननी कृष्णनिश्यपि पार्श्वतः । सर्पन्तं सर्पमद्राक्षीत् सद्यः पत्युः शशंस च ॥४४॥ स्मृत्वा तदेष गर्भस्य प्रभाव इति निर्णय॑न । पार्श्व इत्यभिधां सूनोरश्वसेननपोऽकरोत् ।।४५।। धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभिर्लाल्यमानो जगत्पतिः । क्रमेण ववृधे राज्ञामङ्कतोऽङ्केषु सञ्चरन् ॥४६।। नवहस्तप्रमाणाङ्गः क्रमात् प्राप च यौवनम् । अनङ्गलीलोपवनं कार्मणं हरिणीदृशाम् ।।४७।। नीलोपलानां सारेण यद्वा नीलोत्पलश्रियाम् । निर्मितः शुशुभे पार्श्वः कायकान्त्या विनीलया ॥४८।। बभौ विभुर्महाबाहुर्महाशाख इव द्रुमः । विशालदृढवक्षाश्च महातट इवाऽचलः ।।४९।। आश्वसेनिळराजिष्ट पाणि-पादास्य-चक्षुषा । विकस्वरेणाऽरविन्दवनेनेव महादः ॥५०॥ वादिलाञ्छनधरो वज्रमध्यः कृशोदरः । वज्रऋषभनाराचं दधौ संहननं प्रभुः ॥५१॥ तादृग्रूपं प्रभुं दृष्ट्वा चिन्तयामासुरङ्गनाः । यासां पतिरयं भावी धन्यास्ता एव भूतले ॥५२॥ अश्वसेननृपोऽन्येद्युजिनधर्मकथापरः । आस्थानस्थः प्रतीहारेणाऽभ्येत्य व्यज्ञपीदृशम् ॥५३।। अस्ति द्वारि नरः कोऽपि नरेश्वर ! सदाकतिः । विज्ञीप्सुः स्वामिनः पादान प्रसीदाऽऽदेशदानतः ॥५४।। अश्वसेननृपोऽप्यूचे प्रवेशय तमाश्वपि । विज्ञीप्सवो हि विज्ञाप्याः सर्वेऽपि न्यायिभि पैः ।।५५।। प्रवेशितोऽथ द्वाःस्थेन नमश्चक्रे महीपतिम् । प्रतीहारविनिर्दिष्टे विष्टर निषसाद सः ॥५६॥ भूपतिस्तमभाषिष्ट भद्र ! कस्यासि ? कोऽसि वा ? । केन वा कारणेनेह मदन्तिकमुपागम: ? ॥५७|| पस पुमानप्युवाचैवं स्वामित्रस्तीह भारते । पुरं कशस्थलं नाम क्रीडास्थलमिव श्रियाम् ॥५८॥ तत्राऽऽसीन्नरवर्मेति वर्मेव शरणार्थिनाम् । अर्थिनामेककल्पद्रुर्महौजाः पृथिवीपतिः ॥५९॥ सोऽसाधयद् बहून् राज्ञः स्वभूसीमान्तवर्तिनः । सांवत्तिक इवाऽऽदित्यो राजंस्तीवेण तेजसा ॥६०।।
'जैनधर्मे रैतो नित्यं साधुशुश्रूषणोद्यतः । सोऽपालयच्चिरं राज्यमखण्डन्यायविक्रमः ॥६१॥ १. वल्गु-सुन्दरं वल्गितं-गमनं यस्य सः । २. स्नापया० मु० । ३. व्याकोशं-विकसितं इन्दीवरं-कमलं तत्तुल्यकान्तये । ४. सर्वसम्पदा अमत्राय-पात्राय । ५. मुदित० मु० । करुणाक्षीर० हे. ता० । ६. ०ऽपस्वापिनी सं० । ७. प्रातः । ८. निर्नयन सं० । निर्णयम् हे० ता० । ९. महाचल० मु० । १०. वज्राहि० मु० । लाञ्छनधरः-लक्षणधर इत्यर्थः । ११. ०सेनो मु० । १२. विज्ञप्तिं कर्तुं इच्छु: । १३. आसने । १४. ०मुपागतः सं० । १५. क्रीडास्थान० सं०ता० । १६. संवर्ते-प्रलये भवः-सांवर्तिक: सूर्यः । १७. जैने ता० । १८. ०धर्मरतो हे० ।
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१८२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
भवोद्विग्नः सोऽपरेधुविहाय तृणवच्छ्रियम् । उपादत्त परिव्रज्यां सुसाधुगुरुसन्निधौ ॥६२॥ तेनाऽर्धकथितेऽप्येवं राजा धार्मिकवत्सलः । मुदितो निजगादैवं सदस्यानपि मोदयन् ॥६३।। अहो विवेकी धर्मज्ञो नरवर्मा नरेश्वरः । य एवं तृणवद्राज्यं त्यक्त्वा व्रतमुपाददे ॥६४|| प्राणसंशयमारुह्य विविधायोधनोद्यमैः । यद्राज्यमय॑ते भूपैस्तत्प्राणान्तेऽपि दुस्त्यजम् ॥६५।। आत्मना सम्पदा वाऽपि प्राणभूताश्च याः प्रियाः । रक्ष्यन्ते ये च पुत्राद्या दुस्त्यजास्तेऽपि जीवता ॥६६।। सर्वमेकपदेऽत्याक्षीत्यक्तुकाम इमं भवम् । नरवर्माऽकरोत् साधु तदूर्ध्वं ब्रूहि सम्प्रति ॥६७।। भूयोऽपि स पुमानूचे राज्येऽभून्नरवर्मणः । सूनुः प्रसेनजिन्नाम सेनासिन्धुमहोदधिः ॥६८।। तस्य प्रभावती नाम सम्प्रति प्राप्तयौवना । भुविष्ठा सुरकन्येवाऽद्वैतरूपाऽस्ति कन्यका ॥६९।। इन्दुक्षोदैरिव मुखं दृशाविन्दीवरैरिव । स्वर्णचूर्णैरिव वपुः पाद-पाण्यम्बुजैरिव ॥७०।। रम्भागभैरिव चोरू नखाः शोणोपलैरिव । मृणालैरिव दोर्वल्ल्यौ धात्रा तस्याः प्रचक्रिरे ॥७१॥ युग्मम् ।। अद्वैतरूप-लावण्यां तां पश्यन् प्राप्तयौवनाम् । अनुरूपवरस्याऽर्थे सचिन्तोऽभूत् प्रसेनजित् ॥७२॥ बहूनन्वेषयामास स कुमारान् महीभुजाम् । मेने स्वपुत्र्या उचितं रूपेण न तु कञ्चन ॥७३॥ प्रभावत्यन्यदोद्यानं सखीभिः सहिता गता । किन्नरीभिः पद्यगीतं गीयमानमदोऽशृणोत् ॥७४।। श्रीमद्वाराणसीभर्तुरश्वसेनस्य नन्दनः । श्रीपार्श्वनाथो नयति रूप-लावण्यसम्पदा ॥७५।। यया स प्राप्स्यते भर्ता जयिनी साऽपि भूतले । स वल्लभो दुर्लभैस्तु तादृक् पुण्योदयः कुतः ? ॥७६।। एवं श्रीपार्श्वनाथस्य शृण्वन्ती गुणकीर्तनम् । तद्रागविवशा जज्ञे तन्मयीव प्रभावती ॥७७।। पार्वेन विजितो रूपात् कामस्तदनुरागिणीम् । अताडयत्तां विशिखैस्तद्वैरादिव निर्दयम् ॥७८।। परित्यज्याऽपरां क्रीडां व्रीडां च हरिणीव सा । भूयो भूयश्च तद्गीतमश्रौषीदेकमानसा ॥७९।। तद्गीताकर्णनेनैव पार्वे रागः सखीजनैः । अलक्ष्यत प्रभावत्या दक्षैः किं नोपलक्ष्यते ? ॥८॥ किन्नरीषत्पतितासूत्पश्या चिरमवास्थित । प्रभावती शून्यमनाः स्मरभूतवशंवदा ॥८१।। सख्यो वेश्मन्यथाऽऽनैषुर्मनीषिण्यः प्रवर्त्य ताम् । श्रीपार्श्वनाथं मनसा ध्यायन्तीं योगिनीमिव ।।८२।। आँकल्पो वह्निकल्पोऽभूढुकूलं च कुकूलंवत् । असिधारेव हारश्च तस्यास्तल्लीनचेतसः ॥८३॥ तस्याश्चाङ्गेऽभवत्तापः पानीयंप्रसृतिम्पचः । प्रस्थम्पचकटाहानां पूरणी चाश्रुधोरणी ॥८४।। न प्रभाते न प्रदोषे न नक्तं न दिवाऽपि सा । अवाप निर्वति बाला मदनज्वरजर्जरा ॥८५॥ तं च व्यतिकरं तस्या विज्ञायाऽसाध्यमात्मनः । सख्यो विज्ञपयामासुस्तत्पित्रोस्त्राणकाम्यया ॥८६।। पितरौ ममदाते च पार्वे रक्तां विबुध्य ताम् । तदाश्वासनहेतोश्च मुहुरेवं जजल्पतुः ।।८७|| साधु पार्श्वकुमारोऽयं जगत्रयशिरोमणिः । स्वानुरूपो दुहित्रा मे वरो ववे सुचेतसा ॥८८।। अस्मद्वत्सा महेच्छानामेकैव धुरि वर्तते । ईदृङ् मनोरथोऽन्यस्याः सम्भवत्यपि न क्वचित् ॥८९॥ वत्सामुद्वाहयिष्यावः कुमारेणाऽऽश्वसेनिना । फलप्राप्त्यनुसारेण प्रायेण हि मनोरथः ।।१०।। इत्थं पितृवचः सख्यो गत्वा तस्यै व्यजिज्ञपन् । तद्गिरा मुमुदे सापि स्तनितेनेव केकिनी ॥९१॥ प्रत्याशयाऽनया स्वस्था साऽप्यहान्यत्यवाहयत् । अङ्गुलीभिर्गणयन्ती योगिनी जपमन्त्रवत् ॥९२।।
१. तेनार्धे कथिते० मु० । २. जीविताः मु० हे० । ३. सेना एव सिन्धवो नद्यस्तेषां महोदधिः । ४. चन्द्रचूर्णैः । ५. दुर्लभश्च हे० । ६. निश्चेष्टीभूतां तां सचेष्टां कृत्वा । ७. नेपथ्यपरिधानम् । ८. तुषाग्निवत् । ९. पानीयं जलं, तस्य प्रसृतिः - अञ्जलिः (चळु), तं पचतीत्येवंविधस्तापः । १०. प्रस्थो मानविशेषः । तत्प्रमाणं धान्यं येषु पच्यते तादृशा ये कटाहाः (कढाईया), तान् पूरयति तस्या अश्रुधारा । ११. अश्रुधारा । १२. दधे मु० । १३. ०ऽप्यस्याः सं० ता० । १४. ०ष्यामः सं० । १५. पत्याशया० मु० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१८३
प्रतिपच्चन्द्रलेखेव सा बभूव तथा कृशा । यथाऽलक्ष्यत कामस्य धनुर्यष्टिरिवाऽपरा ॥९३॥ दिने दिनेऽतिविधुरां पितरौ प्रेक्ष्य तां सुताम् । निश्चिक्याते प्रेषयितुमधिपाश्र्वं स्वयंवराम् ॥९४|| तच्चाऽज्ञासीत् कलिङ्गादिदेशानामेकनायकः । यवनो नाम दुर्दान्तः पर्षद्येवमुवाच च ॥९५॥ मयि सत्यपि किं कोऽपि पावो वोढा प्रभावतीम्? । कोऽयं कुशस्थलपतिर्यस्तां मह्यं न दास्यति? ॥९६॥ यदि वा याचका एव दत्तं गृह्णन्ति वस्त्विह । आच्छिद्यग्राहिणो वीरास्तेषां सर्वं स्वमेव हि ॥९७|| इत्युक्त्वा भूरिभिः सैन्यैरनन्यसमविक्रमः । कुशस्थलपुरं वेगाँदेत्याऽरौत्सीदनेकधा ॥९८॥ न कस्याऽप्यभवत्तंत्र प्रवेशो निष्कमोऽपि वा । नभस्वत इव ध्यानस्थितयोगीन्द्रवर्मणि ॥९९।। अहं तु प्रेषितो राज्ञा निशीथे निरगां पुरात् । पुरुषोत्तम इत्यस्मि मन्त्रिसागरदत्तसूः ॥१००॥ इमं वृत्तान्तमाख्यातुमिहाऽऽगममतः परम् । देवः करोतु यत्कृत्यं स्वजनेऽरिजनेऽपि च ॥१०१॥ पततः क्रुद्धोऽश्वसेनोऽपि बँकुटीविकटेक्षणः । इत्युवाच वचःसारं वज्रनिर्घोषभीषणम् ॥१०२॥ कोऽयं वराको यवनः? का भीर्वो मयि सत्यपि? । एषोऽभिषेणयिष्यामि पुरं त्रातुं कुशस्थलम् ॥१०३॥ इत्युक्त्वाऽवादयद् भम्भां जम्भारिरिव विक्रमात् । अश्वसेनोऽथ तत्सेनास्तन्नादेनाऽमिलन् द्रुतम् ॥१०४।। एक्रीडन् क्रीडागृहे पावो भम्भायास्तं महाध्वनिम् । मिलतां सैनिकानां च शुश्राव तुमुलं तदा ॥१०५॥ किमेतदिति सम्भ्रान्तः पार्श्वः पार्वे पितुर्ययौ । तत्र चाऽऽगच्छतोऽपश्यद्रणसज्जांश्चमूपतीन् ॥१०६॥ प्रणम्य पितरं चैवं कुमारोऽवोचदुच्चकैः । दैत्यो यक्षो राक्षसो वा किमन्यो वाऽपराध्यति ? ॥१०७|| यदर्थमभियोगोऽयं स्वयं तातस्य दोष्मतः । समं वाऽप्यधिकं वाऽपि न ते पश्यामि कञ्चन ॥१०८।। प्रसेनजित्तमाचख्यौ त्रातव्यो यवनान्नृपात् । अश्वसेननृपोऽङ्गुल्या दर्शयन् पुरुषोत्तमम् ॥१०९।। भूयः कुमारोऽभाषिष्ट तातस्य पुरतो युधि । न सुरो नाऽसुरोऽप्यस्ति नृमात्रं यवनः कियान् ? ॥११०।। अलं तातस्य यानेन प्रयास्याम्यहमेव हि । तस्य स्वान्यानभिज्ञस्य करिष्ये शिक्षणं क्षणात् ॥११॥ अवादीदश्वसेनोऽपि वत्स ! क्रीडोत्सवेन ते । मन्मनः प्रीयते कष्टै रणयात्रादिभिर्न तु ॥११२।। जानेऽहं स्वकुमारस्य जगत्रयजयक्षमम् । दोर्बलं किन्तु मे हर्षः सद्मनि क्रीडति त्वयि ॥११३।। प्रत्यूचे पार्श्वनाथोऽपि क्रीडेयमपि तात ! मे । नाऽऽयासमात्रमप्यत्र पूज्यास्तिष्ठन्त्विहैव तत् ॥११४॥ एवमत्या
स्तद्भजविक्रमम् । तत्प्रत्यपादि वचनं वचनीयविवजितम् ॥११५॥ पित्रा विसृष्टः श्रीपावो द्विपारूढः शुभे क्षणे । तेनाऽनुयातः पुरुषोत्तमेन प्रास्थितोत्सवात् ॥११६।। प्रदत्तैकप्रयाणे च प्रभौ शक्रस्य सारथिः । आगत्य नत्वा चोवाच रथोत्तीर्णः कृताञ्जलि: ॥११७|| क्रीडयाऽपि युयुत्सुं त्वां स्वामिन् ! ज्ञात्वा पुरन्दरः । रथं साङ्ग्रामिकं प्रैषीन्मया सारथिना सह ॥११८॥ जगत्रयं तणमिदं स्वामिवीर्यस्य वेत्त्यदः । तथापि शक्रः स्वां भक्तिं समये दर्शयत्यमूम् ॥११९।। अपरिस्पृष्टभूपृष्ठं विविधायुधपूरितम् । स्वामी शक्रानुग्रहाय तमारोहन्महारथम् ॥१२०॥ तिमतेजा इवोत्तेजा रथेन व्योमयायिना । श्रीपार्श्वनाथः प्रययौ स्तूयमानो नभश्चरैः ॥१२१॥
अन्वियाय च भूमिष्ठं रणप्रष्ठं प्रभोर्बलम् । मुहुर्मुहुः प्रभुं द्रष्टुमुत्पश्यैः शोभितं भटैः ॥१२२॥ क्षणेनाऽपि क्षमो गन्तुमेकोऽपि विजयक्षमः । स्वामी सैन्योपरोधेन ययौ हुस्वैः प्रयाणकैः ॥१२३।। दिनैः कतिपयैश्चाऽऽप कुशस्थलमथाऽवसँत् । उद्यानान्तः सुरकृते प्रासादे सप्तभूमिके ॥१२४।।
१. तत्राज्ञा० मु० । २. सर्वस्व० मु० । ३. वेगादभ्यारौ० मु० । ४. ०भवदत्र मु० । ५. नि:क्रमो सं०हे.ता० । ६. वायोः । ७. शरीरे। ८. भृकुटी० सं०ता० । ९. प्रत्यु० मु० । १०. कृष्णः । ११. प्रसेनजित० मु० विना । १२. नृपोऽत्र मु० । १३.
स्थामानभि० मु० । १४. प्रीतये सं० । १५. अस्पृष्टभूतलम् । १६. तीव्रतेजा:-सूर्यः । १७. रणे दक्षम् । १८. ०थाऽविशत् सं०
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
क्षत्रियाणां स्थितिरिति दयया चाऽऽदितः प्रभुः । अनुशिष्योपयवनं प्रैषीदूतं सुमेधेसम् ।१२५॥ स गत्वा यवनं स्माऽऽह स्वामिशक्त्या ससौष्ठवम् । श्रीमत्पार्श्वकुमारस्त्वां मन्मुखेनाऽऽदिशत्यदः ॥१२६।। तातं शरणमापन्नो नरेन्द्रोऽयं प्रसेनजित् । मोच्यो रोधाद्विरोधाच्च तदिदानीं त्वया नृप ! ॥१२७।। स्वयं प्रचलितं तातं निवार्य कथमप्यहम् । हेतुमात्रेणाऽमुनैव समागममिहाऽवनौ ।।१२८।। व्यावर्तस्व निजं स्थानमाश्रयस्व झगित्यपि । सोढ एवाऽपराधोऽयं तवाऽपसरतः सतः ॥१२९।। उत्कटभ्रुकुंटीभीमललाटो यवनोऽप्यथ । अवदद्दूत ! किमिदमवादीमा॑ न वेत्सि किम् ? ॥१३०॥ बालः क एष पार्वोऽत्र य आगाच्चापलाधुधि । को वॉऽश्वसेनः स्थविरश्चचाल प्रथमं च यः ? ॥१३॥ तौ द्वावपि कियन्मात्रं तदृह्याश्चाऽपरे नृपाः । तद् गच्छ पार्श्व एवाऽपयातु स्वकुशलेच्छया ॥१३२॥ दूतत्वात्त्वमवध्योऽसि विवदन्नपि निष्ठुरम् । जीवन् विमुक्तस्तद् गच्छ सर्वं स्वस्वामिने वद ॥१३३॥ दूतो भूयोऽप्युवाचैवं त्वां बोधयितुमेव माम् । कृपया प्राहिणोन्नाथो न त्वशक्त्या दुराशय ! ॥१३४।। कुशस्थलनराधीशं यथा तित्राँसते प्रभुः । न जिघांसुस्तथैव त्वां यद्याज्ञां विदधासि भोः ! ॥१३५।। दिव्यप्यखण्डां स्वाम्याज्ञां खण्डयन्नियसे स्वयम् । स्पृशन्नुचिषं वह्नि पतङ्ग इव मूढधीः ॥१३६। क्व खद्योतो विश्वविश्वोद्योती प्रद्योतनः क्व च ? । क्व राजमात्रं त्वमसि क्व पार्श्वस्त्रिजगत्पतिः ? ||१३७|| इति ब्रुवाणं तं दूतं कुंद्धा यवनसैनिकाः । उदायुधाः समुत्तस्थुर्जजल्पुश्चैवमुच्चकैः ॥१३८॥ वैरं स्वस्वामिना सार्धमरे ! किमपि तेऽस्ति यत् । तद्बोहाय वदस्येवमुपायज्ञोऽसि साधु रे ! ॥१३९।। तेष्वेवं विब्रुवाणेषु रोषाच्च प्रजिहीर्षुषु । वृद्धामात्योऽभ्यधत्तैवमाक्षेपपरुषाक्षरम् ।।१४०॥ नायं स्वस्वामिनो वैरी भवन्तो वैरिणः परम् । एवं ये स्वेच्छया भर्तुरनर्थं जनयन्ति हा ! ॥१४१॥ आज्ञाऽपि विश्वनाथस्य पार्श्वनाथस्य लङ्घिता । न हि क्षेमाय वो मूढाः किं पुनर्दूतघातनम् ? ॥१४२॥ भृत्यैरेवंविधैः स्वामी दुर्दान्तैस्तुरगैरिव । आकृष्याऽनर्थकान्तारे क्षिप्यते हि क्षणादपि ॥१४३॥ युष्माभिर्धर्षिता दूताः पुराऽन्येषां क्षमाभुजाम् । कुशलं तत्र वो जातं मल्लस्तेभ्यो हि नः प्रभुः ॥१४४॥ यस्य हीन्द्राश्चतुःषष्टिः सेवकास्तेन विग्रहः । कोऽयं स्वभर्तुरानीतो दुविनीतैर्नुकीटकैः ? ||१४५।। इति ते शिक्षिताः सर्वे भीताः शान्ति ययुर्भटाः । तं च दूतं करे धृत्वा मन्त्री साम्नेत्यवोचत ।।१४६।। अज्ञानादेवमुक्तं ते शस्त्रमात्रोपजीविभिः । सोढव्यं तत्त्वया विद्वन् ! सेवकोऽसि क्षमानिधेः ॥१४७।। शासनं पार्श्वपादानां प्रत्येष्टुं शिरसा स्वयम् । तवाऽनुपदमेष्यामो माऽऽख्यस्त्वं भर्तुरीदृशम् ॥१४८।। इति सम्बोध्य सत्कृत्य तं दूतं विससर्ज सः । हितकामी निजं नाथमित्यभाषिष्ट चाऽऽदरात् ॥१४९।। पाकिं स्वामिन्नविमृश्येदं कृतमासींरायति ? । इयताऽपि क्षतिर्नास्ति पार्श्वनाथं समाश्रय ॥१५०।। देवताः सूतिकाकर्म धात्रीकर्म च देवताः । इन्द्राश्च सामरा जन्मस्नपनं यस्य चक्रिरे ॥१५१।। सेन्द्राः सुरासुरा यस्य पत्तयस्तेन विग्रहे । तव 'ग्रहिलता केयमुरभ्रस्येव दन्तिना ? ॥१५२।। क्व गरुत्मान् क्व काकोलः? क्व सुमेरुः क्व सर्षपः?। क्व शेषाहिः क्व काहिः? क्व पार्श्वः क्व भवादशः? ||१५३।। न यावज्ज्ञायसे लोकैस्तावदात्महितेच्छया । कण्ठे कुठारं विन्यस्योपतिष्ठस्वाऽश्वसेनजम् ।।१५४॥ प्रतीच्छ शासनं पार्श्वस्वामिनो विश्वशासितुः । स्थास्यन्ति शासने येऽस्य तेऽत्राऽमुत्र च निर्भयाः ॥१५५।। विमृश्य यवनोऽप्यूचे साध्वहं बोधितस्त्वया । अस्मादनर्थाज्जडधीरन्धोऽन्धोरिव रक्षितः ॥१५६॥
इत्युक्त्वा सपरीवारः कण्ठे बद्ध्वा परश्वधम् । यवनोऽगात्तदुद्यानं श्रीपार्श्वस्वाम्यलङ्कतम् ॥१५७।। १. चोदितः मु० । २. बुद्धिमन्तम् । ३. ०भृकुटी० सं. । ४. ०धंधे मु० । ५. ०सेनस्थवि० मु. । ६. त्वा इति पाठः मुद्रितेऽन्यप्रतिषु च; सोऽत्र संशोधित: 'त्वां' इति । ७. तित्रासिते सं० ता० । तित्रायते मु० । त्रातुमिच्छति । ८. सूर्यः । ९. क्रुधा मु० हे० । १०. तत्क्षणा० ता० विना । ११. ०र्नुकण्टकैः सं० । १२. निजनाथ० मु० । १३. किं वा स्वामिन् ! वि० मु० । १४. अशुभः आयतिः-उत्तरकालः यस्मात् तत्तथा । १५. सुराः स्वयं यस्य हे० । १६. उन्मत्तता । १७, अजस्य । १८. कूपात् ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । लक्षशः सप्तिभिः सप्तसप्तिसप्तिविडम्बिभिः । सहस्रशो भद्रगजैर्महेन्द्रगजसन्निभैः ॥१५८॥ रथैः सुरविमानाभैः पत्तिभिः खेचरोपमैः । भूषितं प्रेक्ष्य तत्सैन्यं यवनोऽतिविसिष्मिये ॥१५९।। भटैः सविस्मयावज्ञैर्वीक्ष्यमाणः पदे पदे । क्रमेण यवनः स्वामिप्रासादद्वारमासदत् ।।१६०॥ वेत्रिणा विज्ञपय्याऽथ सभायां स प्रवेशितः । दूरादपि नमश्चके दिवाकरमिव प्रभुम् ॥१६१।। स्वामिना मोचितग्रीवाकुठारो यवनः पुनः । नत्वाऽग्रत उपाविक्षज्जगाद च कृताञ्जलिः ॥१६२।। “यस्याऽऽज्ञाकारिणः सर्वेऽपीन्द्रास्तस्य तवाऽग्रतः । कोऽहं नृकीटः कृपीटयोनेरिव तृणोत्करः ? ॥१६३।। कृपां कुर्वन् प्रेष्य दूतमद्य मामशिषः खलु । तव भ्रूभङ्गमात्रेण भस्मसान्न भवामि किम् ? ॥१६४।। गुणाय खलु जातोऽसौ स्वामिन्नविनयोऽपि मे । यदद्राक्षं भवत्पादाञ्जगत्रयपवित्रकान् ॥१६५॥ क्षमस्वेति कथं ब्रूयां? तव कोपोऽपि नास्ति यत् । तुभ्यं स्वयंग्रहेशाय यच्छामीत्यपि नोचितम् ॥१६६।। इन्ट्रैस्ते सेव्यमानस्य सेवकोऽस्मीति किंवचः । अभयं देहीति का वाक् स्वयं ह्यभयदायिनः ॥१६७॥ तथाऽप्यज्ञानतो वच्मि प्रसीदाऽऽदत्स्व मे श्रियम् । सेवकस्तेऽस्मि वितराऽभयं भीतस्य मे प्रभो ! ॥१६८।। श्रीपार्श्वनाथोऽप्यवदद्भद्र ! भद्राणि सन्तु ते । मा भैषीः शाधि राज्यं स्वं मा कार्षीः पुनरीदृशम् ॥१६९।। तथेति प्रतिपेदानं तं सच्चक्रे जगद्गुरुः । प्राज्यप्रसाददानेन महतां हीदृशी स्थितिः ॥१७०।। "अभूदुद्वेष्टनं सद्यः कुशस्थलपुरस्य च । पार्श्वनाथमनुज्ञाप्य ययौ च पुरुषोत्तमः ॥१७१।। प्रसेनजिन्नरेन्द्राय तं वृत्तान्तं शशंस स: । हर्ष एकातपत्रोऽभूत् तत्पुरे च तदैव हि ॥१७२॥ दध्यौ प्रसेनजित् प्रीतो भाग्यवानस्मि सर्वथा । सर्वथा भाग्यवत्येषा मम वत्सा प्रभावती ॥१७३।। नाऽभून्मनोरथोऽप्येष यत्सुरासुरपूजितः । पार्श्वनाथकुमारो मे नगरं पावयिष्यति ॥१७४।। उपायनमिमामेव समादाय प्रभावतीम् । उपतिष्ठे पार्श्वनाथकुमारमुपकारिणम् ॥१७५।। 'प्रसेनजिद्विमृश्यैवमुपादाय प्रभावतीम् । हृष्टो हृष्टपरीवारः पार्श्वनाथमुपाययौ ॥१७६।। स पार्श्वस्वामिनं नत्वा प्रोवाचैवं कृताञ्जलिः । अनभ्रवृष्टिवद्दिष्ट्या स्वामिन्नागमनं तव ॥१७७॥ द्विषन्नप्यपकारी मे यवनो येन विग्रहे । अनुग्रहं मे व्यधित जगत्रयपतिर्भवान् ॥१७८।। दययाऽन्वग्रही थ ! यथैवाऽऽगमनेन माम् । प्रभावतीविवाहेनाऽनुगृहाण तथैव हि ॥१७९।। दष्प्रापप्रार्थिका चेयं दूरं त्वय्यनरागिणी । कृपां कुरु तदेतस्यां कृपालुस्त्वं निसर्गतः ॥१८०।। प्रभावती चेति दध्यौ किन्नरीभ्यः पुरा श्रुतः । दृष्टश्चाऽद्य कुमारोऽयं दृक् श्रुत्याँ संवदत्यहो ! ॥१८१।। दाक्षिण्यवान् कृपालुश्च श्रूयते दृश्यतेऽपि च । उपरुद्धश्च तातेन मदर्थे साधु सम्प्रति ॥१८२।। स्वभाग्याप्रत्ययादद्य तथापि चकिताऽस्म्यहम् । किं मंस्यते तातवचो न वेत्याशङ्कयाऽऽकुला ? ||१८३|| एवं तस्यां चिन्तयन्त्यां प्रसेनजिति चोन्मुखे । बभाषे पार्श्वकुमारो मेघनिर्घोषधीरवाक् ॥१८४।। ताताज्ञया त्रातुमेव त्वामायाताः प्रसेनजित् ! । भवतः कन्यकामेतामुद्वोढुं न पुनर्वयम् ॥१८५।। तदत्र माऽऽग्रहं कार्षीः कुशस्थलपते ! वृथा । तातान्तिकं व्रजिष्यामः कृततातगिरो वयम् ॥१८६।। तच्च प्रभावती श्रुत्वा विषण्णैवमचिन्तयत् । चन्द्रात्तचिष्पतनं यदस्मादीदृशं वचः ॥१८७।। अयं कृपालुः सर्वत्राऽभवन्मयि तु निष्कृपः । कथं भविष्यसि हहा मन्दभाग्ये प्रभावति !? ॥१८८॥ सदाऽर्चिताः कुलदेव्यः सद्यस्तातस्य सम्प्रति । केञ्चिद्दर्शयतोपायं क्षीणोपायोऽधुना ह्ययम् ॥१८९।।
पदध्यौ प्रसेनजिच्चैवं स्वयं सर्वत्र निःस्पृहः । अश्वसेनोपरोधात्तु कर्ताऽसौ मन्मनोरथम् ॥१९०॥ १. सप्तसप्त० सं० हे० । २. अग्नेः । ३. स्वयंगृहे० सं० विना । स्वयं ग्रहणे समर्थाय । ४. कुवचः । ५. च सं० । ६. दुःप्राप मु० विना । ७. श्रुत्या: मु० । ८. दाक्षिण्यवाक् मु० । ९. ०त्तदर्चि पतनं सं० । १०. यद् अस्मात्-पार्श्वकुमाराद् ईदृशं वचो निर्गतं तत् चन्द्रादर्चिषोऽग्ने: पतनसदृशम् । ११. निःकृपः सं० । १२. किञ्चि० सं० । १३. स्वयं तु सर्वनिःस्पृहः मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
सह यास्याम्यश्वसेनदिदृक्षाच्छद्मना त्वहम् । उपरोत्स्येऽश्वसेनं च तत्समीहितसिद्धये ॥१९१।। एवं चिन्तयता तेन कारयित्वाऽथ सौहृदम् । श्रीपार्श्वनाथो व्यसृजत् सत्कृत्य यवनं नृपम् ।।१९२।। विसृज्यमानस्त्ववदत् पार्श्वनाथं प्रसेनजित् । अहमेष्याम्यश्वसेनपादान्नन्तुमनाः प्रभो ! ॥१९३।। एवमस्त्वित्युक्तवता श्रीपाइँन सहैव सः । प्रभावतीम्पादाय ययौ वाराणसी पुरीम ॥१९४|| तत्राऽश्वसेनं शरणागतत्राणेन रञ्जयन् । उपेत्याऽऽनन्दयामास पार्श्वनाथः स्वदर्शनात् ॥१९५।। स्वमन्दिरं गते पार्वे चाऽश्वसेनं प्रसेनजित् । उपतस्थे प्रभावत्या सहितः पुरतोऽनमत् ॥१९६।। अभ्युत्थायाऽश्वसेनस्तं लुठन्तं पादयोः पुरः । उद्धत्य दोामालिङ्ग्य ससम्भ्रममदोऽवदत् ॥१९७।। कच्चित्तवाऽजनि त्राणं? कच्चित्ते कुशलं नृप ! । आयासीर्यत्स्वयमिह शङ्के किमपि कारणम् ॥ १९८॥ प्रसेनजिदुवाचैवं त्राणं च कुशलं च मे । सदैव शासिता यस्य प्रतापतपनो भवान् ॥१९९।। दुष्प्रापार्थप्रार्थकता किं त्वेको बाधतेऽद्य माम् । साऽपि च त्वत्प्रसादेन राजकुञ्जर ! सेत्स्यति ॥२०॥ कन्या प्रभावती मेऽसौ राजन् ! मदुपरोधतः । पार्श्वनाथकुमारार्थे गृह्यतां माऽन्यथा कृथाः ॥२०१॥ अश्वसेनोऽप्युवाचैवं कुमारः पार्श्व एष नः । सदा विरक्तः संसारान्न जाने किं करिष्यति ? ॥२०२॥ असौ मनोरथोऽस्माकमप्यस्त्येव सदा हृदि । कदोचितवधूद्वाहोत्सवः सूनोर्भवेदिति ॥२०३॥ तवोपरोधादधुना पार्श्वनाथं बलादपि । उद्वाहं करयिष्यामोऽनिच्छन्तमपि बाल्यतः ॥२०४।। इत्युक्त्वा सह तेनैव पार्श्वपार्वं ययौ नृपः । इमां प्रसेनजित्पुत्रीमुद्वहेति जगाद च ॥२०५॥ श्रीपाश्र्वोऽप्यब्रवीत्तात ! कलत्रादिपरिग्रहः । अपि प्रक्षीणकल्पस्य जीवाँतुर्भवशाखिनः ॥२०६।। भवारम्भाय तत्कन्यां कथं तातोद्वहाम्यहम् । तरिष्याम्येष संसारं मूलतो निष्परिग्रहः ॥२०७।। अश्वसेनोऽप्यभाषिष्ट पूरयाऽस्मन्मनोरथम् । प्रसेनजिन्नृपसुतापाणिग्रहणलक्षणम् ॥२०८।। संसारोऽपि त्वया तीर्ण एव यस्येदृशं मनः । कृतोद्वाहोऽपि तज्जत ! समये स्वार्थमाचरेः ॥२०९।। इत्थं पितृवचः पाश्र्वोऽप्युल्लङ्गितुमनीश्वरः । भोग्यं कर्म क्षपयितुमुदुवाह प्रभावतीम् ॥२१०।। जनोपरोधादुद्यानक्रीडाशैलादिषु प्रभुः । रममाणस्तया सार्धं वासरानत्यवाहयत् ॥२११॥ अधिप्रासादमन्येद्युः पावो वातायनस्थितः । पुरीं वाराणसी द्रष्टुं प्रवर्तत कुतूहलात् ॥२१२।। बहिश्च निर्यत: पुष्पोपहारपटलीभृतः । ससम्भ्रमान्नागरांश्च नागरीश्चैक्षत प्रभुः ॥२१३॥ पावोऽपच्छच्च पार्श्वस्थान् कोऽयमद्य महोत्सवः ? । दृश्यते सत्वरो गच्छन् यल्लोको भूरिभूषणः ? ॥२१४॥ अथाऽऽचचक्षे कोऽप्येवं नाऽद्य कोऽपि महोत्सवः । किं त्वन्यत् कारणं देव ! वर्तते समपस्थितम् ॥२१५॥ कठो नाम तपस्व्यद्य पुर्या बहिरिहीऽऽगतः । पञ्चाग्न्यादितपास्तं चाऽचितुं पौरा व्रजन्त्यमी ॥२१६॥ 'तद् द्रष्टुं कौतुकं पार्श्वनाथोऽपि सपरिच्छदः । ययौ कठमपश्यच्च पञ्चाग्नितपसि स्थितम् ॥२१७|| ज्ञानतत्रयधरोऽपश्यन्महान्तमुरगं प्रभुः । दह्यमानं कुण्डमध्ये क्षिप्तकाष्ठान्तरस्थितम् ॥२१८॥ तद् दृष्ट्वा करुणाम्भोधिर्भगवानभ्यधादिदम् । अहो ! अज्ञानमज्ञानं न दया यत्तपस्यपि ॥२१९।। कीदृक् सरिद्विना तोयं? कीदृगिन्दुं विना निशा? । कीदृक् प्रावृड् विना मेघं? कीदृग्धर्मो दयां विना? ।।२२०॥ कायक्लेशसहस्यापि पशोरिव शरीरिणः । निर्दयस्य कथं धर्मो धर्मतत्त्वापरिस्पृशः ।।२२१।। तदाकर्ण्य कठोऽवोचद्राजपुत्रा हि जानते । हस्त्यश्वाद्येव धर्मं तु जानीमो मुनयो वयम् ॥२२२।।
तत: स्वाम्यादिदेश स्वान् कुण्डादाकृष्यतामिदम् । काष्ठं यत्नात् स्फोट्यतां च यथाऽस्य प्रत्ययो भवेत् ॥२२३॥ १. हि मु० । २. ०तोऽगमत् मु० हे० । ३. किमिह मु०। ४. दुःप्रापा० मु० विना । ५. त्वेषा सं० । ६. मे सं० । ७. संसारवृक्षस्य जीवनौषधम् । ८. नि:परि० मु० विना । ९. तत् पुत्र ! इत्यर्थः । १०. निर्गच्छतः । ११. ०पटला० मु० । १२. बहिरुपागतः सं० । १३. तं दृष्ट्वा ता० ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१८७
ते समाचकृषुः काष्ठं यत्नाच्च तददारयन् । सुमहानुरगस्तस्मात् सहसा निर्जगाम च ।।२२४।। तत्रेषद्दह्यमानस्य महाहेर्भगवानृभिः । अदापयन्नमस्कारान् प्रत्याख्यानं च तत्क्षणम् ॥२२५।। नागः समाहितः सोऽपि तत्प्रतीयेष शुद्धधीः । वीक्ष्यमाणो भगवता कृपामधुरया दृशा ॥२२६।। नमस्कारप्रभावेण स्वामिनो दर्शनेन च । विपद्य धरणो नाम नागराजो बभूव सः ॥२२७॥ अहो ! ज्ञानं कुमारस्य विवेकः कोऽप्यसावहो ! । जनैरिति स्तूयमानः स्वामी स्वसदनं ययौ ॥२२८।। तद् दृष्ट्वाऽऽकर्ण्य च कठो विशेषेणाऽकरोत्तपः । बालं कष्टतरं वोऽपि ज्ञानं मिथ्यादृशां कुतः ? ॥२२९।। मृत्वा मेघकुमारेषु कठो भवनवासिषु । असुरो मेघमालीति नामतः समजायत ॥२३०॥ पाइतश्च पाश्र्वो भगवान् कर्म भोगफलं निजम् । उपभुक्तं परिज्ञाय प्रव्रज्यायां दधौ मनः ।।२३१।। भावज्ञा इव तत्कालमेत्य लोकान्तिकामराः । पाश्र्वं विज्ञपयामासुर्नाथ ! तीर्थं प्रवर्तय ॥२३२॥ ततश्च वार्षिकं दानं स्वामी दातुं प्रचक्रमे ! धनैर्वैश्रवणादिष्टजृम्भकामरपूरितैः ॥२३३॥ शक्राद्यैर्वासवैरश्वसेनाद्यैश्च नरेश्वरैः । दीक्षाभिषेको विदधे पार्श्वस्य परमेशितुः ॥२३४॥ विशालां नाम शिबिकामुद्वाह्यां देव-मानवैः । आरुह्य श्रीपार्श्वनाथोऽगादाश्रमपदे वने ॥२३५।। सान्द्रैर्मरुवकस्तोमैर्मेचंकीभूतभूतलम् । प्रशस्तिमिव कान्दी दधानं कुन्दकुड्मलैः ॥२३६।। मुचुकुन्दनिॉरम्बचुम्बिरोलम्बडम्बरम् । अम्बरोद्भ्रान्तलवलीपरागसुरभीकृतम् ॥२३७॥ इक्षुक्षेत्रतटासीनगायदुद्यानपालिकम् । प्रविवेश तदुद्यानं भगवानश्वसेनसूः ॥२३८॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम्।। तत्रोत्तीर्य शिबिकाया भूषणादिकमत्यजत् । त्रिंशद्वर्षः प्रभुः पावो वासवार्पितदूष्यभृत् ॥२३९॥ पूर्वाह्ने पौषकृष्णैकादश्यां राधागते विधौ । स्वाम्यष्टमेन प्राव्राजीत् समं राज्ञां त्रिभिः शतैः ॥२४०।। मनःपर्ययसंज्ञं च तदा ज्ञानमभूद्विभोः । दीक्षासहभवं ह्येतत् सर्वेषां श्रीमदर्हताम् ॥२४१।। "द्वितीयेऽह्नि प्रभुः कोपकटाक्षे सन्निवेशने । अपारयत् पायसेन धन्यस्य गृहिणो गृहे ॥२४२॥ विदधुर्विबुधास्तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । धन्यस्तु विदधे पादपीठं स्वामिपदावनौ ॥२४३।। वायुरिवाऽप्रतिबद्धो ग्रामाकरपुरादिषु । युगमात्रदत्तदृष्टिब्रह्मस्थो व्यहरत् प्रभुः ।।२४४।। विहरन्नेकदा स्वामी नगरासन्नवर्तिनम् । तापसाश्रममागाच्च ययौ चाऽस्तं दिवाकरः ॥२४५।। तत्रोपकूपं न्यग्रोधतरुमूले जगद्गुरुः । तत्पाद इव निष्कम्पस्तस्थौ प्रतिमया निशि ॥२४६।। पइतश्च मेघकुमारो मेघमाली महासुरः । अज्ञासीदवधेः पूर्वभवव्यतिकरं निजम् ॥२४७।। पार्वे प्रतिभवं वैरं तच्च संस्मृत्य सोऽसुरः । अन्तः क्रोधेन जज्वाल वाडवेनेव सागरः ॥२४८।। पार्श्वनाथमुपद्रोतुं भेत्तुमद्रिमिव द्विपः । समाययावमर्षान्धो मेघौल्यसुराधमः ॥२४९॥ दंष्ट्राक्रकचभीमास्यान् सूर्पाकारनखाङ्करान् । शार्दूलान् पिङ्गलदृशो विचक्रे तत्र सोऽमरः ॥२५०।। पुच्छरोस्फोटयामासु पीठं ते मुहुर्मुहुः । चक्रुर्दूत्कारमुच्चैश्च मृत्योर्मन्त्राक्षरोपमम् ॥२५१।। तैर्न चुक्षोभ भगवान् ध्यानस्तिमितलोचनः । त एव प्रययुः क्वापि तद्ध्यानाग्निभयादिव ॥२५२।। विकृतास्तेन चाऽपेतुर्गर्जन्तो मदवर्षिणः । उत्कराः करिणस्तुङ्गाः पर्वता इव जङ्गमाः ॥२५३।। नाऽक्षुभ्यत्तैरपि स्वामी भीषणेभ्योऽपि भीषणैः । लज्जिता इव तेऽप्याशु प्रणश्य क्वचिदप्ययुः ॥२५४।। हिक्कानादापूर्णदिक्का भल्लूकाः शूर्कवजिताः । अनेकशश्चित्रकाश्च क्रूरा यमचमूनिभाः ॥२५५।।
शिला अपि स्फोटयन्तः कण्टकाग्रेण वृश्चिकाः । तरूनपि निर्दहन्तो दृष्ट्या दृष्टिविषा अपि ॥२५६।। १. स महा० सं० । २. चापि सं० ता० । ३. भुवन० मु० । ४. मरुवको वृक्षविशेषः भाषायां 'मरवो' । ५. श्यामीभूतभूतलम्। ६. प्रशक्ति० सं० । ७. निकुरुम्ब० सं० ता० । ८. पूर्वाह्ने सं० । ९. कोपकटाख्ये मु० हे० । १०. निःकम्प० ता० । ११. माली सुरा० सं० विना । १२. शृण्याकार० ता० विना । १३. ०राच्छोट० मु० । १४. दयारहिताः । १५. यमवसू० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
विचक्रिरे तत्र तेनोपद्रोतुमनसा प्रभुम् । नाऽचालीत्तैः प्रभुानान्मर्यादाया इवाऽर्णवः ॥२५७॥ त्रिभिविशेषकम् ॥ वेतालान् कतिकाहस्तान् सविद्युत इवाऽम्बुदान् । उच्चैः किलकिलारावानुद्दष्ट्रान् व्यकरोत्ततः ॥२५८|| प्रलम्बजिह्वाशिश्नास्ते लम्बिसर्पा इव द्रुमाः । दीर्घजवांहूयस्तालद्रुमारूढा इवोच्चकैः ॥२५९॥ । ज्वाला मुखेन मुञ्चन्तो जठराग्नेरिवाऽऽयताः । ते प्रभु परितोऽधावन् सारमेया इव द्विपम् ॥२६०॥ युग्मम् ।। प्रभुस्तैरपि नाऽक्षुभ्यल्लीनो ध्यानसुधाहदे । प्रणश्य तेऽप्ययुः क्वापि घूका इव दिवामुखे ॥२६१॥ विशेषेण ततः क्रुद्धो मेघमाल्यसुरः स्वयम् । मेघान् विचक्रे नभसि कालरात्रिसहोदरान् ॥२६२।। गगने व्यर्धेतद्विद्युत्कालजिह्वेव भीषणा । ब्रह्माण्डं स्फोटयदिव स्तनितं व्यानशे दिशः ॥२६३।। अन्धकारोऽभवद्धोरश्चक्षुर्व्यापारहारकः । द्यावापृथिव्यावेकत्र स्यूते इव बभूवतुः ॥२६४।। एष प्राग्वैरिणममुं संहरामीति दुधिया । प्रारेभे वषितुं मेघमाली कल्पान्तमेघवत् ॥२६५॥ मुर्शलैरिव धाराभिर्नाराचैरिव चाऽथवा । मेदिनी ताडयामास सँ खनित्रैः खनन्निव ॥२६६।। उत्पेतुश्च निपेतुश्च तरुभ्यः सुप्तपक्षिणः । इतस्ततः प्रचेलुश्च वराह-महिषादयः ॥२६७|| सत्त्वान्यकृष्यन्त पयःप्रवाहै।गभीषणैः । मूलतोऽप्युदमूल्यन्त महान्तोऽपि महीरुहाः ॥२६८।। क्षणादागुल्फमाजानु क्षणादाकटि च क्षणात् । क्षणादाकण्ठमम्भोऽभूच्छ्रीपार्श्वस्वामिनस्तदा ॥२६९॥ सुंदूरं प्रसृते तस्मिन् शुशुभेऽम्भस्यपि प्रभुः । लक्ष्मीसद्म महापद्ममिव पद्ममहाहूदे ॥२७०।। स्वामी रत्नशिलास्तम्भ इवाऽम्भस्यपि निश्चलः । नासाग्रन्यस्तदृग्ध्यानान्मनागपि चचाल न ॥२७१|| गआनासाग्रं यावदम्भः श्रीपार्श्वस्वामिनोऽभवत् । धरणस्योरगेन्द्रस्याऽऽसनं तावदकम्पत ।।२७२।। सोऽज्ञासीदवधेश्चैवमरे बालतपा: कठः । स वैरिणं मन्यमान उपद्रवति मे प्रभुम् ।।२७३॥ ततः समं महिषीभिर्नागराजो जगद्गुरुम् । मानसेन स्पर्धमान इव वेगात् समाययौ ॥२७४।। धरणः स्वामिनं नत्वाऽधस्तात्तत्पादयोwधात् । उन्नालम
वल्यासनसन्निभम् ॥२७५।। पृष्ठं पाश्वौं च पिदधे स स्वभोगेन भोगिराट् । फणैश्च सप्तभिश्छत्रं चकार शिरसि प्रभोः ॥२७६।। तदम्भोमाननालेऽब्जे तस्मिन् सुखमवस्थितः । समाधिलीनो भगवान् राजहंस इवाऽऽबभौ ॥२७७|| धरणेन्द्रमहिष्योऽपि श्रीपार्श्वस्वामिनः पुरः । विदधुर्गीतनृतीदि भक्तिभावितचेतसः ॥२७८।। वेणु-वीणाध्वनिस्तारो मृदङ्गध्वनिरुद्धतः । जैजम्भे तत्र विविधतालपातानुहारकः ॥२७९।। विचित्रचारुचारीकं हस्ताद्यभिनयोज्ज्वलम् । चित्राङ्गहारकरणं नृत्तं तत्र व्यपञ्च्यत ॥२८०।। ध्यानलीन: प्रभुश्चाऽस्थान्निविशेषो द्वयोरपि । नागाधिराजे धरणे मेघमालिनि चाऽसुरे ॥२८१।। एवं सत्यप्यमर्षेण वर्षन्तं मेघमालिनम् । निरीक्ष्य कुपितो नागराजः साक्षेपमब्रवीत् ॥२८२॥ अरे ! किमिदमारब्धमात्मानर्थाय दुर्मते ! । कृपालोरपि भृत्योऽहं सहिष्येऽतः परं न हि ॥२८३।। काष्ठान्तर्दह्यमानाहिं प्रदर्श्य प्रभुणाऽमुना । तदा पापान्निषिद्धश्चेत् कोऽपराधः कृतस्तव ? ॥२८४|| जज्ञे सदुपदेशोऽपि तव वैराय रे ! तदा । लवणायोषरावन्यां वारि वारिमुचामिव ॥२८५।। निष्कारणारि थेऽत्र त्वं निष्कारणबान्धवे । रे ! यदेवमपाकार्षीस्तदैद्य न भविष्यसि ॥२८६॥ तच्छ्रुत्वा वचनं मेघमाल्यधो निदधे दृशम् । तथास्थितमपश्यच्च पार्वं नागेन्द्रसेवितम् ॥२८७||
स भीतोऽचिन्तयच्चैवं शक्तिस्तावन्ममेयती । सा वृथाऽस्मिश्चक्रिणीव म्लेच्छंगृह्यपयोमुचाम् ।।२८८।। १. कर्डिका० मु० । २. जठराग्नि मु० । ३. दीर्घाः । ४. विद्युद् मु० । ५. मुसलै० मु० । ६. वाथवा मु० । ७. खनित्रैः खनयन्निव सं० ता० विना । ८. सुदूरप्र० सं० ता० । ९. आनाशाग्रं सं० । १०. तुझं के० मु० । ११. पृष्ठपावोरः पि० मु० । पृष्ठं पार्वे च हे० । १२. ० नृत्यादि मु० । १३. विजृम्भे सं० । १४. नृत्यं मु० । १५. व्यस्तीर्यत । १६. क्षारभूमौ । १७-१८. नि:का० मु० विना । १९. ०स्तदत्र ता० । २०, म्लेच्छराजाधीनमेघानां चक्रवतिसैन्योपरि यथा वृष्टिर्वथा तथा ।
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तृतीयः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
अप्यद्रीन्मुष्टिना पेष्ट क्षमोऽसौ करुणानिधिः । न भस्मसान्मां कुरुते धरणेन्द्रात्तथापि भीः ॥२८९॥ त्रैलोक्येशेऽत्राऽपकारात् त्रैलोक्येऽपि न मे स्थितिः । शरणाय व यास्यामि ? शरणं यद्यसौ प्रभुः ॥२९०॥ एवं विचिन्त्य संहृत्य स सद्योऽम्भोदमण्डलम् । भीतः स्वामिनमेवाऽगान्नत्वा चैवमवोचत ॥२९१॥ अपकारिण्यपि क्रोधः प्रभो ! यद्यपि नास्ति ते । स्वकर्मणों दूषितोऽहं भीतो नाथ ! तथापि हि ॥२९२।। एवं कृत्वाऽपि दुष्कर्म याचे त्वां विगतत्रपः । रक्ष रक्ष जगन्नाथ ! दीनं मां पातशङ्कितम् ॥२९३|| इत्युक्त्वा क्षमयित्वा च जगन्नाथं प्रणम्य च । सानुतापो ययौ मेघमालिदेवः स्वमास्पदम् ।।२९४।। विज्ञाय नाथं निरुपसर्ग स्तुत्वा प्रणम्य च । नागराजो ययौ स्वौको विभाता च विभावरी ॥२९५॥ पततः स्थानाज्जगन्नाथो गत्वा वाराणसी पुरीम् । तदाऽऽश्रमपदोद्यानेऽस्थात्तले धातकीतरोः ॥२९६॥ तदा च स्वामिनो दीक्षादिनादतिगतेषु तु । दिनेषु चतुरशीतौ घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥२९७|| चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां च विशाखास्थे निशाकरे । पूर्वाहे केवलज्ञानं श्रीपार्श्वस्योदपद्यत ।।२९८।। विज्ञायाऽऽसनकम्पेन शक्रप्रभृतयोऽमराः । चक्रुः समवसरणं श्रीपार्श्वस्वामिनः क्षणात् ।।२९९।। देवैर्जयजयारावकारिभिः परिवारितः । पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत् प्रभुः ॥३०॥ सप्तविंशतिधन्वोच्चं तत्र चैत्यमहातरुम् । स्वामी प्रदक्षिणीचके मेरुशैलमिवार्यमा ॥३०१।। नमस्तीर्थायेति वदन् रत्नसिंहासनोत्तमे । पूर्वाशाभिमुखः श्रीमान् पार्श्वप्रभुरुपाविशत् ॥३०२॥ स्वामिनः प्रतिरूपाणि तिसृष्वन्यासु दिक्ष्वपि । सद्योऽपि तत्प्रभावेण विचकुर्व्यन्तरामराः ॥३०३।। देवा देव्यो नरा नार्यः साधवः साध्व्य एव च । स्वामिपादान्नमस्कृत्य यथास्थित्यवतस्थिरे ।।३०४।। तदा च वनपालस्तत्प्रेक्ष्य नाथस्य वैभवम् । गत्वाऽश्वसेनभूपाय नत्वा चैवमवोचत ॥३०५॥ दिष्ट्याऽद्य वर्धसे स्वामिन् ! श्रीपार्श्वस्वामिनोऽधुना । उत्पेदे केवलज्ञानं जगदज्ञानघातकम् ॥३०६॥ महातिशयसम्पन्नः शक्रादिपरिवारितः । दिव्ये समवसरणे निषण्णोऽस्ति जगत्पतिः ॥३०७।। अथ तस्योचितं पारितोषिकं नृपतिर्ददौ । वामादेव्यै तदाख्यच्च तद्दिदृक्षाकृतत्वरः ॥३०८।। वामादेव्या सहैवाऽथाऽश्वसेनः सपरिच्छदः । ययौ समवसरणं तारणं भववारिधेः ॥३०९।। प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य च भूपतिः । अनुशक्रं निषसाद प्रमोदापूर्णमानसः ॥३१०|| भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा मूर्धन्यायोजिताञ्जलिः । शक्रोऽश्वसेनराजश्च स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥३११॥ सर्वत्रापि भवद्-भूत-भाविभावावभासकृत् । भवतां केवलज्ञानमिदं जयति निर्मलम् ॥३१२।। अस्मिन्नपारे संसारपारावारे शरीरिणाम् । यानपात्रं त्वमेवाऽसि निर्यामोऽपि त्वमेव हि ॥३१३॥ सर्ववासरराजोऽयं वासरस्त्रिजगत्पते ! । त्वत्पाददर्शनमहोत्सवो यत्राऽजनिष्ट नः ॥३१४।। विवेकदृष्टिलुण्टाकमज्ञानतिमिरं नृणाम् । त्वद्देशनौषधिरसं विना न हि निवर्तते ॥३१५॥ नद्यामिव नवं तीर्थं तव तीर्थं भवेऽधुना । उत्तारणाय भवति प्राणिनामहहोत्सवः ॥३१६।। सिद्धानन्तचतुष्काय सर्वातिशयशालिने । औदासीन्यनिषण्णायैकप्रसन्नाय ते नमः ॥३१७॥ अत्यन्तोपद्रवकरे प्रतिजन्म दुरात्मनि । मेघमालिनि करुणा करुणा कुत्र ते न हि ? ॥३१८॥ तिष्ठतो यत्र कुत्रापि गच्छतो यत्र कुत्रचित् । त्वत्पादपद्मस्मरणं माऽपयातु हृदो मम ॥३१९॥ इति स्तुत्वा विरतयोः सौधर्मेन्द्रा-श्वसेनयोः । श्रीपार्श्वनाथो भगवान् विदधे धर्मदेर्शनाम् ॥३२०।। अस्मिन् भवमहारण्ये जरा-रुग्-मृत्युगोचरे । धर्मं विनाऽन्यो न त्राता तस्मात् सेव्यः स एव हि ॥३२१।।
स द्विधा सर्वविरति-देशविरतिभेदतः । संयमादिर्दशविधोऽनगाराणां स आदिमः ॥३२२॥ १. स्वकर्मणोद्धषितो० मु० । २. दुःकर्म मु. विना । ३. पतनशङ्कितम् । ४. वाणारसी मु० । वाराणसीपुरीम् सं० । ५. पूर्वाह्ने ० हे. ता० । १.२. वामदेव्यै मु० । ३. नाविकः, निर्यामकः । ४. तत्पाद० मु० । ५. ०शरणं मु० । ६. देशनामिति मु० ।
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१९०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
द्वितीयोऽगारिणां पञ्चाऽणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षाव्रतानि चत्वारीति द्वादशविधो मतः ॥३२३॥ व्रतानि सातिचाराणि सुकृताय भवन्ति न । अतिचारास्ततो हेयाः पञ्च पञ्च व्रते व्रते ॥३२४|| क्रोधाद्वैन्धश्छविच्छेदोऽधिकभाराधिरोपणम् । प्रहारोऽन्नादिरोधश्चाऽहिंसायां परिकीर्तिताः ॥३२५।। मिथ्योपदेशः सहसाभ्याख्यानं गुह्यभाषणम् । विश्वस्तमन्त्रभेदश्च कूटलेखश्च सूनृते ॥३२६।। स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं द्विड्राज्यलङ्घनम् । प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चाऽस्तेयसंश्रिताः ।।३२७॥ इत्वरात्तागमोऽनोत्तागतिरन्यविवाहनम् । मदनात्याग्रहोऽनङ्गक्रीडा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥३२८॥ धनधान्यस्य कुप्य॑स्य गवादेः क्षेत्र-वास्तुनः । हिरण्य-हेम्नश्च संख्यातिक्रमोऽत्राऽपरिग्रहे ।।३२९।। बन्धनाद्भावतो गर्भाद्योजनाद्दानतस्तथा । प्रतिपन्नव्रतस्यैष पञ्चधाऽपि न युज्यते ॥३३०॥ स्मृत्यन्तर्धानमूर्ध्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चेति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥३३१।। सचित्तस्तेनं सम्बद्धः सन्मिश्रोऽभिषवस्तथा । दुष्पक्वाहार इत्येते भोगोपभोगमानगाः ॥३३२॥ अमी भोजनतस्त्याज्या: कर्मत: खरकर्म तु । तस्मिन् पञ्चदश मलान् कर्मादानानि संत्यजेत् ॥३३३॥ अङ्गार-वन-शैकट-भाटक-स्फोटजीविकाः । दन्तलाक्षा-रस-केश-विषैवाणिज्यकानि च ॥३३४।। यन्त्रपीडो निर्लाञ्छनमसतीपोषणं तथा । दवदानं सरःशोष इति पञ्चदश त्यजेत् ॥३३५।। अङ्गारभ्राष्ट्रकरणं कुम्भा-ऽयः-स्वर्णकारिता । ठठारत्वेष्टकापाकाविति ह्यङ्गारजीविका ॥३३६।। छिन्नाच्छिन्नवनपत्र-प्रसून-फलविक्रयः । कणानां दलनोत्पेषौदत्तिश्च वनजीविका ॥३३७॥ शकटानां तदङ्गानां घट्टनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटजीविका परिकीर्तिता ॥३३८।। शकटोक्ष-लुलायोष्ट्र-खराऽश्वतर-वाजिनाम् । भारस्य वाहनादृत्तिर्भवेद्भाटकजीविका ॥३३९॥ सर:कूपादिखनन-शिलाकुट्टनकर्मभिः । पृथिव्यारम्भसम्भूतैर्जीवनं स्फोटजीविका ॥३४०॥ दन्त-केश-नखा-स्थि-त्वग-रोम्णो ग्रहणमाकरे । त्रसाङ्गस्य वणिज्यार्थं दन्तवाणिज्यमुच्यते ॥३४१। लाक्षा-मनःशिला-नीली-धातकी-टङ्कणादिनः । विक्रयः पापसदनं लाक्षावाणिज्यमुच्यते ॥३४२॥ नवनीत-वसा-क्षौद्र-मद्यप्रभृतिविक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रयो वाणिज्यं रस-केशयोः ॥३४३॥ विषा-ऽस्त्र-हल-यन्त्रा-ऽयो-हरितालादिवस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते ॥३४४| तिलेक्षुसर्षपैरण्डजलयन्त्रादिपीडनम् । दलेतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥३४५।। नासावेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्ठगालनम् । कर्णकम्बलविच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥३४६।। शारिका-शुक-मार्जार-श्व-कुर्कुट-कलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ॥३४७|| व्यसनात् पुण्यबुद्ध्या वा दवदानं भवेद् द्विधा । सरःशोषः सर:-सिन्धु-हुदादेरम्बुसंप्लवः ॥३४८॥ संयुक्ताधिकरणत्वमुपभोगातिरिक्तता । मौखर्यमथ कौत्कुच्यं कन्दर्पोऽनर्थदण्डगाः ॥३४९।। कायवाङ्मनसां दुष्टप्रणिधानमनादरः । स्मृत्यनुपस्थापनं च स्मृताः सामायिकव्रते ॥३५०।। प्रेष्यप्रयोगाऽऽनयने पुद्गलक्षेपणं तथा । शब्द-रूपानुपातौ च व्रते देशावकाशिके ॥३५१॥ उत्सर्गादानसंस्तारा अनवेक्ष्याऽप्रमृज्य च । अनादरः स्मृत्यनुपस्थापनं चेति पोषधे ॥३५२॥
सचित्ते क्षेपणं तेने पिधानं काललङ्घनम् । मत्सरोऽन्यापदेशश्च तुर्यशिक्षाव्रते स्मृताः ॥३५३॥ १. द्वन्धच्छवि० मु० । २. सदृशद्रव्यमेलनम् । ३. न्यूनाधिकमानकरणम् । ४. वेश्यागमनम् । ५. अपरिगृहीतस्त्रीगमनम् । ६. सुवर्णरूप्यातिरिक्तधातवः । ७. क्षेत्रं च वास्तु (गृहादि) च । ८. स्मृतेरन्तर्धानं विस्मृतिः । ९. सचित्तेनेत्यर्थः । १०. सम्मिश्रो० सं० । ११, अपक्वाहारः । १२. दुःपक्वा० सं० । १३. अस्मिन् हे० । १४. ठठारत्वं सुधापाककारित्वम् । १५. ०ष्टिका० सं० । १६. ०त्पेषा वृत्ति० सं० ता० । १७. ०लुलापो० मु० । १८. ०खननं मु० । १९. दलानां-पर्णानां तैलम् । २०. ०भोगोऽति० मु०। २१. पौषधे मु०। २२. सचित्तपात्रेण ।
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तृतीयः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
व्रतान्येभिरतिचारै रहितान्यनुपालयन् । श्रावकोऽपि विशुद्धात्मा मुच्यते भवबन्धनात् ||३५४|| तां भर्तुर्देशनां श्रुत्वा भूयांसोऽपि प्रवव्रजुः । श्रावक्यभूवन् भूयांसो नाऽर्हद्दीर्जातु निष्फला ||३५५ || प्रतिबुद्धोऽश्वसेनोऽपि हस्तिसेनाय सूनवे । तत्रैव दत्त्वा स्वं राज्यं प्रवव्राज महामनाः || ३५६ || वामादेवी - प्रभावत्यावपि देशनया प्रभोः । भवोद्विग्ने जगृहतुः प्रव्रज्यां मोक्षसाधनीम् ||३५७ . बभूवुरार्यदत्ताद्याः प्रभोर्गणधरा दश । स्वाम्याख्यत् त्रिपदीं तेषां स्थित्युत्पादव्ययात्मिकाम् ||३५ तया त्रिपद्या ते सर्वे द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् । प्रज्ञावत्सूपदेशो हि स्याज्जले तैलबिन्दुवत् ॥ ३५९ ॥ पूर्णप्रथमपौरुष्यां देशनां व्यसृजत् प्रभुः । द्वितीयपौरुषीमार्यदत्तो व्यधित देशनाम् || ३६० ।। || अथ शक्रप्रभृतयः प्रणम्य परमेश्वरम् । स्थानं निजनिजं जग्मुः स्मरन्तः स्वामिदेशनाम् || ३६१ || तत्तीर्थभूरभूत् पार्श्वयक्षः कूर्मरथः शितिः । गजाननः फणिफणाच्छत्रशोभी चतुर्भुजः ॥३६२॥ नकुलाही वामदोर्भ्यां बीजपूरोरगौ पुनः । दक्षिणाभ्यां दधद्दोर्भ्यां भर्तुः शासनदेवता ॥ ३६३ || तथा पद्मावती देवी कुक्कुटोरगवाहना । स्वर्णवर्णा पद्म- पाशभृद्दक्षिणकरद्वया ॥३६४|| फलाङ्कुशधराभ्यां च वामदोर्भ्यां विराजिता । अभूद् द्वितीया श्रीपार्श्वभर्तुः शासनदेवता ॥३६५|| ताभ्यां प्रभुः शासनदेवताभ्यां निरन्तराधिष्ठितसन्निधानः । इमां व्यहार्षीदवनीं विनीतैर्देवैरथाऽन्यैरपि सेव्यमानः || ३६६ ||
॥ इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्ये नर्वमे पर्वणि श्रीपार्श्वनाथकौमार-दीक्षाकेवलोत्पत्तिवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः समाप्तः ॥
१. ०पञ्जरात् सं० । २. निःफला सं० । ३. श्वेतः । ४. कुर्कुटो० मु० । ५. ०प्रभोः मु० । ६. नवम० सं० ता० । ७. हे० ता० न । हे० प्रती ' ३७०' इत्यधिकम् ।
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॥ अथ चतुर्थः सर्गः ॥ विश्वविश्वानुग्रहाय विहरंस्त्रिजगद्गुरुः । भुवः पुण्ड्रायिते पुण्डूविषयेऽगमदन्यदा ॥१॥ इतश्चाऽऽसीत् पूर्वदेशे तामलिप्त्यां तदा पुरि । कलावित् सागरदत्तो वणिक्पुत्रो युवा सुधीः ॥२॥ जातात् स जातिस्मरणाद्विरक्तः स्त्रीषु सर्वदा । इयेष परिणेतुं न स्त्रियं रूपवतीमपि ॥३॥ स हि जन्मान्तरे विप्रो भार्ययाऽन्यप्रसक्तया । दत्त्वा विषं नष्टसंज्ञस्तत्यजे क्वचिदन्यतः ॥४॥ जीवितो गोकुलिन्या च स परिव्राडजायत । मृत्वा जातिस्मरः श्रेष्ठिपुत्रः स्त्रीविमुखोऽभवत् ॥५॥ लोकधर्मरता साऽपि मृत्वा गोकुलिनी क्रमात् । वणिक्पुत्री रूपवती तस्यामेवाऽभवत् पुरि ॥६॥ दृष्टिरस्य रमेताऽस्यामिति सम्भाव्य बन्धुभिः । वव्रे सागरदत्तार्थे सा लब्धा च सगौरवम् ॥७॥ तस्यामपि मनस्तस्य विशश्राम तथा न हि । स हि स्त्रीः प्राग्भवाभ्यासाद् यमदूतीरमन्यत ॥८॥ वणिक्सुता साऽथ दध्यौ कोऽपि जातिस्मरो ह्ययम् । स्त्रिया कयाऽप्युन्मथितः पुंश्चल्या पूर्वजन्मनि ॥९॥ सम्प्राप्तकालं तदिदमित्यालोच्य हृदि स्वयम् । लिखित्वा पत्रके श्लोकं सा प्रैषीत्सोऽप्यवाचयत् ॥१०॥ "पुंसः पायसदग्धस्य न त्यक्तुं दधि युज्यते । किं स्वल्पाम्भःसम्भविनो दुग्धे स्युः पूतराः क्वचित् ?'" ||११।। सम्यक् सागरदत्तोऽपि भावार्थं विमृशन् हृदि । लिखित्वा प्राहिणोच्छ्लोकं साऽपि चैवमवाचयत् ॥१२॥ "अपात्रे रमते नारी नीचं गच्छति कूलिनी । गिरौ वर्षति पर्जन्यो लक्ष्मीः श्रयति निर्गुणम्" ॥१३॥ विभाव्य साऽपि भावार्थं भूयस्तद्बोधहेतवे । लिखित्वा प्राहिणोच्छ्लोकं सोऽपि चैवमवाचयत् ॥१४॥ "क्व नै स्याद्वाचिको दोषस्तत्त्यागस्तावताऽपि किम् ? । अनुरक्तां रविः सन्ध्यां न हि त्यजति जातुचित्" ॥१५॥ तैयैवं सागरदत्तो वाचिकैरनुरञ्जितः । चक्रे विवाहं बुभुजे भोगांश्च मुदितोऽन्वहम् ॥१६।। अथ सागरदत्तस्य सपुत्रः श्वशुरोऽन्यदा । वणिज्याहेतवेऽगच्छन्नगरं पाटलापथम् ॥१७॥ श्रेष्ठी सागरदत्तोऽपि व्यवहर्तुं प्रचक्रमे । कदाचित्परतीरेऽगाद्वहनेन महीयसा ॥१८॥ सप्तकृत्व: प्रवहणं तस्याऽभज्यत वारिधौ । अपुण्योऽसाविति जनैर्जहसे च स आगतः ॥१९॥ क्षीणार्थोऽप्युद्यमं नौज्झद् भ्रमन् सोऽपश्यदन्यदा । आकर्षन्तं कूपिकया पयः कमपि दारकम् ॥२०॥ सप्तवारान् पयो नाऽऽगादागाद्वारेऽष्टमे पुनः । तद् दृष्ट्वाऽचिन्तयत् सोऽथ फलदो ह्युद्यमो नृणाम् ।।२१।। देवोऽपि शङ्कते तेभ्यो विघ्नान् कृत्वाऽऽपि खिद्यते । विघ्नैरस्खलितोत्साहाः प्रारब्धं न त्यजन्ति ये ॥२२॥ विचिन्त्यैवं स शकुनग्रन्थि बद्ध्वाऽधिसिंहलम् । चचाल पोतेन रत्नद्वीपं चाऽऽप मरुद्वशात् ॥२३॥ विचिक्रिये तत्र भाण्डान्यकीणाद्रत्नसञ्चयान् । तैश्च पोतं स आपूर्य प्रतस्थे स्वपुरीं प्रति ॥२४॥ तद्रत्रलुब्धैर्निर्यामैः स नक्तं चिक्षिपेऽर्णवे । प्राग्भिन्नपोतफलकं दैवात्प्राप्योत्ततार च ॥२५।। तच्च कूलस्थितं प्राप नगरं पाटलापथम् । वीक्षितश्च श्वशुर्येण निन्ये च निजवेश्मनि ॥२६॥ स्नात्वा भुक्त्वा च विश्रान्तः सागरो मूलतोऽपि हि । निर्यामोदन्तमाचख्यौ श्वशुर्योऽप्येवमब्रवीत् ॥२७॥ तिष्ठ त्वमत्र निर्यामास्त्वद्वन्धुजनशङ्कया । तामलिप्त्यां न यास्यन्ति किं त्वत्रैष्यन्ति दुर्धियः ॥२८॥ प्रत्यश्रौषीत् सागरस्तद्च्छृशुर्येण व्यजिज्ञपत् । तं वृत्तान्तं नरेन्द्राय न्यायोऽयं दीर्घदर्शिनाम् ॥२९॥
पतच्चाऽन्यदा प्रवहणं तीरे तत्र समाययौ । अज्ञायि चाऽऽयुक्तनरैः सागराख्यातलक्षणैः ॥३०॥ १. तिलकायिते । पुण्ड्रीयिते हे० । २. नदी । ३. नु मु० । ४. तथै० म० । ५. व्यापारं कर्तुम् । ६. श्वशुरेण मु० । ७. श्वशुरो० मु० । ८. ०च्छ्वशुरेण मु० ।
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चतुर्थः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१९३
कोऽत्र भाण्डपतिर्भाण्डं? किं किं कियदिहेत्यथ । पप्रच्छुरायुक्तनरास्तान् सर्वान् कर्णधारकान् ॥३१॥ ते चाऽन्यथाऽन्यथाऽऽख्यान्तः क्षुभिताश्चोपलक्षिताः । आयुक्तैः सागरदत्तस्तत्र चाऽकार्यत द्रुतम् ॥३२॥ सागरं प्रेक्ष्य ते भीता नत्वा चोचुरिदं तदा । अस्माभिः कर्मचण्डालैर्दुष्कर्म विहितं प्रभो ! ॥३३॥ तथापि त्वं स्वपुण्येन रक्षितोऽसि वयं पुनः । वध्यकोटि तव प्राप्ताः कुरुष्वं स्वामितोचितम् ॥३४॥ कृपालुस्सागरस्तांश्च राजपुम्भ्यो व्यमोचयत् । प्रदाय किञ्चित् पाथेयं विससर्ज च शुद्धधीः ॥३५।। पुण्यवानिति राज्ञोऽतिसम्मतः स महामतिः । तेन पोतस्थभाण्डेन बहु द्रव्यमुपार्जयत् ॥३६॥ सोऽदाहानमपच्छच्च धर्मेच्छधर्मतीथिकान । देवदेवमहं रश्चिकीर्षे तं च शंसत ॥३७॥ नाऽभूत्तेषामेकवाक्यं देवतत्त्वापरिस्पृशाम् । अथाऽऽप्तः कश्चिदप्यूचे मुग्धान्मा पृच्छ मादृशान् ॥३८॥ कृत्वा तपोऽधिवास्यैकं रत्नं प्रणिहितो भव । देवताः कथयिष्यन्ति देवं ते पारमार्थिकम् ॥३९॥ तथैव सागरश्चक्रेऽष्टमान्ते काऽपि देवता । अदर्शयत्तीर्थकरप्रतिमां तस्य पावनीम् ॥४०॥ तमुवाच च भद्रैषा देवता पारमार्थिकी। सम्यक् स्वरूपं मुनयो यस्या जानन्ति नाऽपरे ॥४१॥ इत्युक्त्वा देवता साऽगात् प्रहृष्टः सागरश्च ताम् । अर्हन्मूर्ति स्वर्णवर्णां साधूनां समदर्शयत् ॥४२॥ आचख्युः साधवस्तस्य धर्मं जिनवरोदितम् । बभूव श्रावकः सोऽपि साधून् प्रपच्छ चाऽन्यदा ॥४३।। कस्येयमहतो मूर्तिः ? केन वा विधिना मया । प्रतिष्ठाप्या ? भगवन्तो यूयं शंसत मेऽधुना ॥४४॥ ऊचिरे साधवोऽप्येवं विषये पुण्ड्रवर्धने । श्रीपार्श्वः समवसृतस्तिष्ठत्यभ्येत्य पृच्छ तम् ॥४५॥ तदैव सागरो गत्वा श्रीपार्वं प्रणिपत्य च । प्रपच्छ रत्नप्रतिमोचितकार्याणि सर्वतः ॥४६॥ स्वाम्यप्याख्यत्समुद्दिश्य समवसरणं निजम् । सर्वानहदतिशयाञ्जिनौ स्थापनामपि ॥४७॥ जिनोक्तविधिना सोऽपि तीर्थकृत्प्रतिमेति ताम् । प्रत्यष्ठापयदन्येद्युः स्वाम्यन्ते प्राव्रजत्ततः ॥४८॥ ततश्च सपरीवारः सेव्यमानः सुरासुरैः । सर्वातिशयसम्पूर्णो भगवानन्यतो ययौ ॥४९।। गइतश्चाऽभून्नागपुर्यां पुर्यां धुर्यो यशस्विनाम् । नागपुर्यामिवाऽहीन्द्रः सूरतेजा महीपतिः ॥५०॥ इभ्यो धनपति माऽभूत्तत्र नृपतेः प्रियः । तथा धनपतेः पत्नी सुन्दरी शीलसुन्दरी ॥५१॥ कृतपैतामहाभिख्यो बन्धुदत्तस्तयोः सुतः । विनीतो गुणवांश्चापि प्रतिपेदे स यौवनम् ॥५२॥ वत्साभिधाने विजये कौशाम्ब्यां पुरि भूपतिः । कृतारिमानभङ्गोऽभून्मानभङ्गोऽभिधानतः ॥५३॥ इभ्यश्च जिनदत्ताख्यो जिनधर्मरतोऽभवत् । तस्य भार्या वसुमती तत्सुता प्रियदर्शना ॥५४॥ तस्याश्चाऽऽसीत् सखी विद्याधराङ्गदतनूद्भवा । नाम्ना मृगाङ्कलेखेति निलीना जिनशासने ॥५५॥ दिनानि व्यतियान्ति स्म तयोः सख्योर्द्वयोरपि । देवपूजा-गुरूपास्ति-धर्माख्यानादिकर्मभिः ॥५६॥ पाअन्यदा गोचरचर्यागतेनैकेन साधुना । द्वितीयसाधोरित्याख्याय्युद्दिश्य प्रियदर्शनाम् ॥५७॥ जनयित्वा सुतमियं महात्मा प्रव्रजिष्यति । मृगाङ्कलेखा तच्छ्रुत्वाऽहष्यन्नाऽऽख्यत्तु कस्यचित् ॥५८॥ स्वसूनवे धनपतिश्चन्द्रलेखामयाचत । पुत्रीं नागपुरीश्रेष्ठिवसुनन्दाद्ददौ च सः ॥५९॥ महीयसा महेनाऽथ शुभेऽहनि शुभे क्षणे । बभूव बन्धुदत्तस्य विवाहश्चन्द्रलेखया ॥६०॥ कङ्कणाङ्कितहस्तैव चन्द्रलेखाऽपरेऽहनि । ददंशे ईन्दशूकेन निशायां च व्यपद्यत ॥६१॥ एवं च भार्याः षट् तस्य विवाहानन्तरे दिने । ऊढमात्रा व्यपद्यन्त परिणामेन कर्मणः ॥६२।। बन्धुदत्तो विषहस्त इति याच्यापरोऽपि सन् । ततो नाऽऽपाऽपरां कन्यां द्रविणैः प्रचुरैरपि ॥६३॥
१. ०१:कर्म ता० । २. कुरु स्वामिन् ! यथो० ता० । कुरुष्व स्वामिनो० मु० । ३. ०त्सुहृष्टः मु० । ४. धर्मे मु० । ५. ०ज्जिनार्चा मु० । ६. लीना च मु० । ७. ०य्युपदिश्य मु० । ८. सर्पण । ९. प्रभुतै० मु० ।
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१९४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
मम भार्याविहीनस्य किं श्रियेति स चिन्तयन् । दिने दिने क्षीयते स्म कृष्णपक्ष इवोडुपः ॥६४॥ पदध्यौ धनपतिपुःखी मम पुत्रो विपत्स्यते । तव्यापारे क्षिपाम्येनं दुःखविस्मृतिहेतवे ॥६५॥ इति निर्णीय स श्रेष्ठी बन्धुदत्तं समादिशत् । व्यवहर्तुं सिंहलेषु व्रज वत्साऽन्यतोऽपि वा ॥६६।। पित्राज्ञया बन्धुदत्तो भाण्डान्यादाय भूरिशः । पोतमारुह्य जलधि लङ्घित्वा सिंहलान् ययौ ॥६७।। स सिंहलेशं साराभिरुपदाभिररञ्जयत् । सोऽपि तस्याऽमुचच्छुल्कं प्रसादाद् व्यसृजच्च तम् ॥६८।। तत्र विक्रीय भाण्डानि प्राप्य लाभं मनीषितम् । प्रतिभाण्डानि च क्रीत्वा प्रतस्थे स्वंपुरं प्रति ॥६९।। गच्छतो वार्धिमार्गेण स्वदेशान्तिकमीयुषः । दुर्वातान्दोलितं तस्य यानपात्रमभज्यत ।।७०।। स प्राप्य काष्ठफलकं किञ्चिदैवानुकूल्यतः । रत्नद्वीपमाससाद समुद्रतटभूषणम् ॥७१।। उत्तीर्य वाप्यां स्नात्वा स फलिते चूतकानने । स्वादून्यास्वादयामास चूतानि क्षुद्रुजौषधम् ॥७२।। एवं मार्गे फलाहारी स ययौ रत्नपर्वतम् । तत्राऽऽरूढो रत्नमयं चैत्यमेकं ददर्श च ॥७३॥ प्रविवेश स तच्चैत्यं तत्र चाऽरिष्टनेमिन: । ववन्दे प्रतिमां तत्र स्थितानथ महामुनीन् ॥७४।। तत्र स ज्येष्ठमुनिना पृष्टः स्वोदन्तमादित: । जगाद भार्यामरणपोतभङ्गादिकं शनैः ॥७५।। मुनिना बोधितस्तेन जिनधर्मं स शिश्रिये । स्वकीयामार्गति तत्र सफलामनुमोदयन् ।।७६।। पतत्र चित्राङ्गदो नाम विद्याधर उवाच तम् । अमुना जिनधर्मेण साधु सार्मिकोऽसि मे ॥७७||
आकाशगामिनी विद्यां किं प्रयच्छाम्यहं तव? । त्वां स्थाने वा नयामीष्टे? तुभ्यं कन्यां ददामि वा? ||७४। बन्धुदत्तोऽवदद्या ते विद्या सा खलु मद्वशा । स्थानं तदेव मेऽभीष्टं यत्रेदृग्गुरुदर्शनम् ॥७९॥ इत्युक्त्वा तत्रं तूष्णीके चिन्तयामास खेचरः । कन्यामिच्छत्यसौ तत्राऽनिषेधेऽनुमतिध्रुवम् ॥८०॥ अमुनोढा सती कन्या न हि या म्रियतेऽधुना । सम्यग्विज्ञाय तामस्मै ढौकयामि महात्मने ।।८१।। इति निश्चित्य स स्थाने बन्धुदत्तं निजेऽनयत् । आनर्च चोचितैः स्नान-भोजनादिभिरुच्चकैः ॥८२।। चित्राङ्गदोऽथ पप्रच्छ स्वान् सर्वानपि खेचरान् । किं दृष्टा भारते वर्षे काऽपि कन्याऽस्य याऽर्हति ? ||८३। मृगाङ्कलेखा तद्भातुरङ्गदस्य सुता ततः । ऊचे तात ! न किं वेत्सि मत्सखीं प्रियदर्शनाम् ? ॥८४॥ स्त्रीरत्नमिव सा रूपात् कौशाम्ब्यामस्ति मे सखी । जिनदत्तश्रेष्ठिसुता तत्पार्वेऽहमगां पुरा ॥८५|| जनयित्वा सुतमियं परिव्रज्यां ग्रहीष्यति । इत्याख्यन्मुनिरेकस्तामुद्दिश्याऽ श्रावि तन्मया ॥८६।। चित्राङ्गदोऽथाऽऽदिदेशाऽमितगत्यादिखेचरान् । दापयितुं बन्धुदत्तायोचितां प्रियदर्शनाम् ॥८७।। ते बन्धुदत्तमादाय कौशाम्ब्यां खेचरा ययुः । आवात्सुर्बहिरुद्याने पार्श्वचैत्यविभूषिते ॥८८।। बन्धुदत्तोऽपि तच्चैत्यं प्राविशत् खेचरैः सह । पार्वं ववन्दे साधूंश्च तेभ्यो धर्ममथाऽशृणोत् ।।८९॥ तत्राऽऽयातो जिनदत्तोऽप्यथ: साधर्मिकप्रियः । निनाय स्वगृहेऽभ्यर्थ्य बन्धुदत्तं सखेचरम् ।।९०॥ बन्धुदत्तं खेचरांश्च जिनदत्तः सगौरवम् । स्नानासनाद्यैः सत्कृत्य पप्रच्छाऽऽगमकारणम् ॥११॥ कामप्रयोजनमिदं कामाङ्गमनृतं खलु । इति ते खेचराः सद्यः समुत्पाद्येदमूचिरे ॥९२॥ तीर्थयात्रामुपक्रम्य रत्नाद्रेनिर्गता वयम् । अगमामोज्जयन्ताद्राववन्दिष्महि नेमिनम् ॥९३।। तत्रत्येनाऽमुना बन्धुदत्तेन निजबन्धुवत् । सार्मिका इति वयमचिंता भोजनादिना ॥९४।। असौ धर्मरतो दारविमुखश्च सदैव हि । इत्यभूदधिका प्रीतिरस्माकममुना सह ॥९५।।
श्रीपाश्र्वं वन्दितुमिहोज्जयन्तादागता वयम् । बन्धुदत्तोऽप्यसावागादस्मत्स्नेहनियन्त्रितः ॥९६।। १. स्वपुरी सं० । २. क्षुध् एव रुजा-रोगः, तस्या औषधम् । ३. ०नष्ट मु० । ४. आगमनम् । ५. तस्मिन् बन्धुदत्ते तृष्णीके सति । ६. सुतमेषा मु०।
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चतुर्थः सगः)
श्रीविषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
खेचरोक्तिमिति श्रुत्वा बन्धदत्तं निरीक्ष्य च । अचिन्तयज्जिनदत्तो वरोऽसौ मत्सुतोचितः ॥९७।। जिनदत्तो विमृश्यैवं खेचा परोधयन् । बन्धुदत्तमभाषिष्ट ममोद्वह सुतामिति ।।९८।। बन्धुदत्तोऽपि मेने तदनिन्द्रामिव नाटयन् । तदैव चाऽमितगतिश्चत्राङ्गदमजिज्ञपत् ॥९९।। चित्राङ्गदे जन्ययात्रामुपादाय समागते । जिनदत्तो बन्धुदत्तं स्वपुत्र्या पर्यणाययत् ॥१००।। चित्राङ्गदो बन्धुदत्तं शासित्वा स्वास्पदं ययौ । बन्धुदत्तस्तु तत्राऽस्थाद्रमयन् प्रियदर्शनाम् ॥१०१।। स च श्रीपार्श्वनाथस्य रथयात्रामकारयत् । एवं धर्मरतस्तत्र चतुरब्दीमवास्थित ॥१०२।। कालेन गच्छता गर्भं दध्रे च प्रियदर्शना । ददर्श च गजं स्वप्ने प्रविशन्तं मुखाम्बुजे ॥१०३॥ अपरेधुर्बन्धुदत्तः स्वस्थानगमनं प्रति । मनोरथं समुत्पन्नं निजपत्रीमजिज्ञपत् ॥१०४॥ साऽप्याख्यज्जिनदत्ताय जिनदत्तोऽपि सम्पदा । भूयिष्ठया तं संवाह्य व्यसृजत् प्रियया सह ।।१०५।। यास्याम्यहं नागपुरीमित्याघोषणया जनान् । सह प्रचलितानग्रे विधाय निजबन्धुवत् ॥१०६।। गच्छन् शनैः शनैर्मार्गे स सन्मार्गमहाध्वगः । अनर्थैकमहासद्म-पद्माख्यामटवीं ययौ ॥१०७॥ युग्मम् ।। सार्थं रक्षन्ननिविण्णोऽटवीं तां वासरैस्त्रिभिः । लङ्घित्वैकस्य सरसस्तीरे सार्थमतिष्ठिपत् ॥१०८।। तत्रोषितस्य सार्थस्य यामिन्यां प्रहरेऽन्तिमे । चण्डसेनस्य पल्लीशस्याऽवस्कन्दः समापतत् ॥१०९॥ सार्थसर्वस्वमादाय तामपि प्रियदर्शनाम् । नीत्वा समर्पयामासुश्चण्डसेनाय तद्भटाः ॥११०॥ चण्डसेनोऽपि दीनास्यां निरीक्ष्य प्रियदर्शनाम् । उत्कृपोऽचिन्तयदिमां स्वस्थाने प्रापयामि किम् ? ॥१११।। इत्थं स चिन्तयंश्चुतलतां तत्पार्श्ववर्तिनीम् । चेटीमपृच्छदेषा का कस्येत्याख्याहि मेऽखिलम् ॥११२।। चेट्याँख्याज्जिनदत्तस्य कौशाम्बीश्रेष्ठिनः सुता । एषा प्रियदर्शनाख्येत्याकर्ण्य द्राग्मुमूर्छ सः ॥११३।। ऊचे च लब्धसंज्ञः सन् पल्लीशः प्रियदर्शनाम् । त्वत्पित्रा जीवितोऽस्मि प्राङ् मा भैषीः शृणु मूलतः ॥११४।। "प्रसिद्धोऽहं चौरराजोऽन्यदा चौर्याय निर्गतः । गतोऽस्मि वत्सविषये गिरिग्रामे निशामुखे ॥११५॥ चौरैर्वृतः पिबन्मद्यं तत्र प्राप्तोऽस्मि रक्षकैः । तैधृत्वा मानभङ्गस्याऽर्पितस्तेनाऽस्मि घातितः ॥११६॥ वधाय नीयमानोऽहं त्वत्पित्राऽतिकृपालुना । पोषधान्ते पारणाय गच्छता मोचितोऽस्मि च ॥११७॥ दत्त्वा वस्त्राणि वित्तं च त्वत्पिता व्यसृजच्च माम् । उपकारिसुताऽसि त्वं तदादिश करोमि किम् ? ||११८॥ जिनदत्तसुत्ताऽप्यूचे तद् भ्रातर्मेलयाऽधुना । अवस्कन्दे विप्रयुक्तं बन्धुदत्तं पतिं मम ॥११९॥ एवं करोमीत्युदित्वा पल्लीशः प्रियदर्शनाम् । गृहे नीत्वाऽत्यन्तभक्त्याऽपश्यत् स्वामिव देवताम् ॥१२०॥ अथ स्वयं चण्डसेनो बन्धुदत्तं निरीक्षितुम् । निर्जगामाऽभयदानैराश्वास्य प्रियदर्शनाम् ॥१२१॥ गइतश्च बन्धुदत्तोऽपि वियुक्तः प्रियया तया । हिन्तालवनमध्यस्थोऽस्वस्थ एवमचिन्तयत् ॥१२२॥ मया विरहितैकाहमपि प्रसृतिलोचना । सा जीवितुं नोत्सहते प्रिया मे तन्मृता भवेत् ॥१२३॥ प्रत्याशया ननु कया जीवाम्यहमतः परम्? । मरणं शरणं युक्तं तन्मेऽप्यन्या गतिर्न हि ॥१२४॥ इदानीमहमत्र स्वं सप्तच्छदतरौ गुरौ । उद्बध्य पञ्चतां यामीत्यालोच्याऽभिससार सः ॥१२५।। उपसप्तच्छदं प्राप्तो ददर्शाऽग्रे महासरः । तत्र चैकं राजहंसं प्रियाविरहदुःखितम् ॥१२६।। तं पश्यन्नात्मवद्दीनं सोऽभूदत्यन्तदुःखितः । दुःखितो दुःखितानां हि पीडां जानाति मानसीम् ॥१२७।। तथास्थिते बन्धुदत्ते राजहंसः क्षणेन सः । हंस्या कुवलयच्छायाऽऽसीनया युयुजेतराम् ॥१२८।। तं प्रियामिलितं दृष्ट्वा बन्धुदत्तोऽप्यचिन्तयत् । भूयोऽपि जीवतां योगो जायते जायया खलु ॥१२९।।
तद्यामि स्वां पुरी नि:स्वः कथं वा तत्र याम्यहम् । कौशाम्ब्यामपि गमनं नोचितं प्रियया विना ॥१३०।। १. चतुर्वर्षपर्यन्तम् । २. धाटी । ३. ०मपश्यदेषा मु० । ४. चेट्याख्या० मु० । ५. पौष० मु० । ६. अवस्कन्दैविप्र० मु० । ७. ०मध्यस्थः स्वस्थ० सं० । ८. दीर्घलोचना । ९. ०मत्रस्थसप्त० मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
तद् गत्वाऽहं विशालायां गृहीत्वाऽर्थं स्वमातुलात् । दत्त्वा च चोरसेनान्ये मोचयामि निजां प्रियाम् ।।१३१।। समं च प्रियया गत्वा नागपुर्यां स्ववेश्मतः । अर्थं दास्ये मातुलस्याऽप्युपायेन कृतं स्मरन् ॥१३२॥ ध्यात्वेति,पूर्वाभिमुखं गच्छन्नह्नि द्वितीयके । स्थानं गिरिस्थलं नाम जगामाऽत्यन्तदुःखितः ॥१३३।। मार्गासन्ने तरुच्छन्ने व्यश्राम्यद् यक्षवेश्मनि । स यावत्तावदभ्यागात् पान्थ एकः श्रमादितः ॥१३४॥ कुतोऽभ्यागा इति पृष्टो बन्धुदत्तेन सोऽध्वगः । आचचक्षे विशालायाः पुर्या आगामिति स्फुटम् ॥१३५।। सार्थवाहो धनदत्तस्तत्राऽस्ति कुशली स किम् ? | बन्धुदत्तेनेति पृष्टो दीनास्यः सोऽध्वगोऽब्रवीत् ॥१३६।। धनदत्ते व्यवहर्तुं गते तत्सूनुरोदिमः । गृहे पल्या सह क्रीडन् यान्तं नाजीगणन्नृपम् ॥१३७॥ सर्वस्वमग्रहीत्तस्य कुद्धस्तेनाऽऽगसा नृपः । गुसौ पुत्र-कलत्रादितत्कुटुम्ब न्यधत्त च ॥१३८।
आयातो धनदत्तोऽपि बन्धुदत्तं स्वसुः सुतम् । दण्डावशिष्टकोट्यर्थे व्यमोचि ह्यो व्रजन्मया ॥१३९।। पअथ दध्यौ बन्धुदत्तो दैवेन किमहो ! कृतम् ? । यत्राऽऽशा मेऽभवत् सोऽपि पातितो व्यसनार्णवे ॥१४०॥
भवत्वत्रैव हि स्थित्वा पश्यामि निजमातुलम् । गत्वा नागपुरीं तस्य साधयाम्यर्थमाशु च ॥१४१।। विमृश्यैवं च तस्थौ स पञ्चमेऽह्नि तु मातुलः । सार्थेनाऽऽगात्कतिपयसहायो भृशमुन्मनाः ॥१४२॥ वने यक्षौकसस्तस्य तमालस्य तरोस्तले । उपाविशद्धनदत्तो बन्धुदत्तेन चैक्ष्यत ॥१४३॥ उपलक्षयितुं तं च बन्धुदत्तोऽब्रवीदिति । कुतो यूयमिहाऽऽयाता ब्रूत यास्यथ कुत्र वा ? ॥१४४॥ उवाच धनदत्तोऽपि विशालाया इहागतः । महापुरी नागपुरी गच्छन्नस्मि च सुन्दर ! ॥१४५॥ बभाषे बन्धुदत्तोऽपि तत्राऽहमपि याम्यहो ! । नागपुर्यां परं तत्र को वस्तिष्ठति कथ्यताम् ॥१४६।। जामेयो बन्धुदत्तो मे तत्राऽस्तीति जगाद सः । प्रत्यूचे बन्धुदत्तोऽपि बन्धुदत्तः सुहृन्मम ॥१४७|| तं ज्ञात्वा मातुलं बन्धुदत्तः स्वं त्वप्रकाशयन् । तत्रैवाऽस्थाद्वभुजाते शिश्याते मिलितौ च तौ ॥१४८॥ गप्रातश्च बन्धुः शौचाय नदी यातो ददर्श च । कदम्बगहरे रत्नेच्छायाक्तरजसं भुवम् ॥१४९।। सोऽखनत्तीक्ष्णशृङ्गेण तां क्षमामाससाद च । करण्डकं ताम्रमयं रत्नाभरणपूरितम् ॥१५०।। करण्डं छत्रमादाय धनदत्तमुपेत्य च । आख्याय च यथालब्धं सप्रश्रयमदोऽवदत् ॥१५१॥ मया कार्पटिकाल्लब्धा प्रवत्तिर्भवतोऽखिला । त्वत्पुण्यैश्च करण्डोऽयं गृह्यतां मित्रमातुल ! ॥१५२।। उभौ गत्वा विशालायां दत्त्वाऽर्थं नृपतिग्रहोत् । स्वमानुषान्मोचयावो यावो नागपुरी ततः ॥१५३॥ इत्युदित्वा बन्धुदत्तः पुरो मुक्त्वा करण्डकम् । तूष्णीकः समभूत् सोऽपि धनदत्तोऽब्रवीदिति ॥१५४॥ मोचितैर्मानुषैः किं मे द्रक्ष्यामः सुहृदं तव । बन्धुदत्तं महाभाग ! स प्रमाणं ततः परम् ॥१५५।। बन्धुदत्तः प्रणम्याऽथ शशंस स्वं यथातथम् । उवाच धनदत्तो हा ! कथं प्राप्तो दशामिमाम् ? ॥१५६।। स्ववृत्ते बन्धुनाऽऽख्याते धनदत्तोऽभ्यधादिदम् । वत्साऽऽदौ मोचयिष्यामो भिल्लेभ्यः प्रियदर्शनाम् ॥१५७॥ अत्राऽन्तरे नृपभटा द्रुतमेयुरुदायुधाः । सर्वांस्तत्रोषितान् पान्थान् दध्रुस्तस्करशङ्कया ॥१५८॥ धनदत्त-बन्धुदत्तौ द्रव्यं यक्षालयान्तिके । यावच्चिक्षिपतुस्तावत्प्राप्तौ तौ राजपूरुषैः ॥१५९।। किमेतदिति तैः पृष्टावूचतुस्ताविदं वचः । युष्मद्भयेन स्थगितमावाभ्यां वस्त्विदं निजम् ॥१६॥ समं तेन करण्डेन तौ पान्थानपरानपि । ते निन्यिरे राजभटाः समीपे राजमन्त्रिणः ॥१६१॥ परीक्ष्य मुक्त्वाऽन्यान् पान्थान् मन्त्री जामेय-मातुलौ । युवां कुतस्त्यौ किं चेदमित्यपृच्छत् कृतादरः ॥१६२।। आगताः स्मो विशालायाः पूर्वार्जितमिदं धनम् । गृहीत्वा लाटदेशाय चलिताश्चाऽधुना वयम् ॥१६३।। मन्त्र्यचे यदि वोऽर्थोऽयं तद्यभिज्ञानपूर्वकम् । सर्वं शंसत वेगेन यत्करण्डेऽत्र तिष्ठति ॥१६४।।
क्षुभितावनभिज्ञौ तावूचतुर्यद्ययं हृतः । करण्डस्तत् स्वयं मन्त्रिन्नुद्धाट्य ावलोक्यताम् ।।१६५।। १. ज्येष्ठः । २. कारागृहे । ३. भगिनीपुत्रः । ४. तज्ज्ञात्वा सं० हे० । ५. रत्नकान्त्याऽक्तं अङ्कितं रजो यस्यास्ताम् । ६. गुप्तम् । ७. सप्रणयम् । ८. कर्प० सं०हे० । ९. नृपबन्धनात् । १०. प्रविलो० सं० । व्यवलो० हे० ता० ।
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चतुर्थः सर्गः )
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
स्वयमुद्घाटयामास तं मन्त्र्यथ करण्डकम् । राजनामाङ्कितान्यन्तर्भूषणानि ददर्श च ॥ १६६ ॥ चिरकालप्रणष्टार्थान् स्मृत्वा मन्त्री व्यचिन्तयत् । पुरा हृतेभ्यो ह्यर्थेभ्य आभ्यामेतन्निधीकृतम् ॥१६७॥ आभ्यामेतेऽपि लंप्स्यन्ते ताडिताभ्यां मलिम्लुचाः । ध्यात्वेत्यधारयत् सार्थं सोऽशेषमपि पूरुषः || १६८।। यमदूतैरिवाऽऽरक्षैः स तौ बाढमताडयत् । गाढप्रहारविधुरौ तावप्येवं जजल्पतुः ॥१६९॥ सार्थेन सममायातामावां हि ह्यस्तने दिने । यद्येवं न भवेन्मार्यौ विचार्य भवता तदा ॥ १७० ॥ बन्धुदत्तमथोद्दिश्योवाच स्थानपुमानिदम् । सार्थेऽत्र पञ्चमदिने वीक्षितोऽसौ मया खलु ॥ १७१ ॥ अमुं वेत्सीत्यमात्येन पृष्टः सार्थाधिपोऽवदत् । ईदृक्कौर्पटिकान् सार्थे वहतो हन्त वेत्ति कः ? ॥१७२॥ इति श्रुत्वा च कुपितो मन्त्री जामेय - मातुलौ । नरकावासकल्पायां तौ कारायामधारयत् ॥१७३॥ इतश्च चण्डसेनस्तां भ्रान्त्वा पद्माटवीं चिरम् । बन्धुदत्तमसम्प्राप्य विलक्षः सदनं ययौ ॥१७४॥ पुरः प्रियदर्शनाया: प्रत्य श्रौषीदिदं च सः । षण्मासान्तस्तव पतिमानयेऽग्नौ विशामि वा ॥ १७५ ॥ प्रतिज्ञायेति पल्लीश: प्रैषीत् प्रच्छन्नपूरुषान् । कौशाम्ब्यां नागपुर्यां च बन्धुदत्तं निरीक्षितुम् ॥१७६॥ दिनैः कतिभिरप्येत्य चण्डसेनाय तेऽवदन् । बन्धुदत्तो न सोऽस्माभिर्भ्रमद्भिरपि वीक्षितः ॥१७७॥ चण्डसेनोऽचिन्तयच्च स प्रियाविरहातुरः । भृगुपाताग्निवेशादि कृत्वा नूनं मृतो भवेत् ॥१७८॥ ममाऽपि मासाश्चत्वारः स्वप्रतिज्ञावधेर्गताः । प्रविशाम्यधुनाऽप्यग्नि बन्धुदत्तो हि दुर्लभः ॥ १७९ ॥ तावत्तिष्ठामि वा यावत् प्रसूते प्रियदर्शना । कौशाम्ब्यां तत्सुतं नीत्वा प्रवेक्ष्यामि हुताशने ॥ १८०॥ तत्रैवं चिन्तयत्येव द्वाःस्थोऽभ्येत्येदमब्रवीत् । दिष्ट्याऽद्य वर्धसे सूनुं सुषुवे प्रियदर्शना || १८१ ॥ हृष्टश्च प्रददौ तस्मै पल्लीशः पारितोषिकम् । उचे पद्माटवीदेवीं चण्डसेनाभिधां च सः ॥ १८२ ॥ मासं चेत् सह पुत्रेण स्वसा कुशलिनी मम । तदा भवत्यै दास्यामि दशभिः पुरुषैर्बलिम् ॥१८३॥ सक्षेमेण व्यतीतायां दिनानां पञ्चविंशतौ । आनेतुं बलिपुरुषान् प्रत्योशं प्राहिणोन्नरान् ॥ १८४॥ |इतश्च तत्र कारायां बन्धुदत्तः समातुलः । मासान् षडतिचक्राम नौरकायुः सहोदरान् ॥१८५॥ महाँभुजङ्गः सम्प्राप्तस्तदा चाऽऽरक्षकैर्निशि । परिव्राट् सधनो बद्ध्वाऽर्पितस्तस्यैव मन्त्रिणः ॥१८६॥ नेदृद्रव्यं परिव्राजां तदसौ तस्करो ध्रुवम् । इति निर्णीय तं मन्त्री निषूदयितुमादिशत् ॥१८७॥ वधार्थं नीयमानेनाऽनुशयानेन तेन च । नाऽन्यथा स्यान्मुनिवच इति ध्यात्वाऽभ्यधाय्यदः ॥ १८८॥ न मां मुक्त्वाऽपरेणेदं पर्यमुष्यत पत्तनम् । लोप्त्रं च सर्वमस्त्यद्रि- नद्यारामादिभूमिषु ॥ १८९ ॥ यस्य यस्य हृतं वित्तं तस्य तस्य तदर्प्यताम् । न्यस्तं कोश इवाऽस्त्येव निगृह्णीत ततश्च माम् ॥ १९०॥ आरक्षा मन्त्रिणे व्याख्यन् मन्त्र्यप्याख्यातभूमिषु । सर्वं ददर्श तद् द्रव्यं तं विनैकं करण्डकम् ॥१९१ | मन्त्र्यूचे तं परिव्राजं किमिदं चेष्टितं तव । विरुद्धं दर्शनाकृत्योः कृतिन्नाख्याहि निर्भयः ॥१९२॥ परिव्राडप्यभाषिष्ट विषयासक्तचेतसाम् । इदमेवोचितं कर्म निर्धनानां स्ववेश्मनि ॥१९३॥ यद्याश्चर्यं तर्हि शृणु नगरे पुण्ड्रवर्धने । द्विजस्य सोमदेवस्य सुतो नारायणो ह्यहम् ॥ १९४ ॥ जीवघातादिना स्वर्गं शंसन्नस्थां जनेष्वहम् । कदाऽप्यपश्यं दीनास्यांश्चौरबुद्धया धृतान्नरान् ॥ १९५॥ महाभुजङ्गा हन्यन्ताममी इत्यवदं तदा । हा ! कष्टमज्ञानमिति तदैको मुनिरब्रवीत् ॥१९६॥ किमज्ञानमिति मया नत्वा पृष्टोऽब्रवीन्मुनिः । यत्परस्याऽतिपीडाकृदसद्दोषाधिरोपणम् ॥१९७॥ एते प्राक्कर्मणः पाकात् पतिता व्यसने खलु । महाभुजङ्गतादोषमसन्तं च तनोषि किम् ? ॥१९८॥
१. ० प्रनष्टा० मु० विना । २. लभ्यन्ते सं० हे० । ३. ०क्कर्ष० सं० हे० । ४. पद्माटवीं मु० । ५. प्रतिदिशम् । ६. नरका०
सं० । ७. महाचौरः । ८ लुण्टितं धनम् । ९ कृतिन्- बुद्धिमन् ! ।
१९७
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१९८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व फलशेषं पूर्वजन्मकृतस्याऽपि हि कर्मणः । नचिराल्लप्स्यसे तन्माऽलीकं दोषं परे निधाः ।।१९९।। प्राक्कर्मफलशेषं तु भूयः पृष्टो मया मुनिः । ब्रूते स्माऽतिशयज्ञानी करुणाक्रान्तमानसः ॥२००।। "इहैव भरतक्षेत्रे नगरे गर्जनाभिधे । आषाढो नाम विप्रोऽभूत्तत्पनी रच्छुकाभिधा ।।२०१।। इतश्च पञ्चमभवे त्वं तयोस्तनयोऽभवः । चन्द्रदेव इति नाम्ना पित्रा वेदं च पाठितः ॥२०२।। विद्वन्मान्यतिमान्योऽभूर्वीरसेनस्य भूपतेः । योगात्मा नाम तत्राऽऽसीत् परिव्राडपरः सुधीः ॥२०३।। आसीच्च बालविधवा विनीतश्रेष्ठिनः सता । वीरमती मालिकेन सहाऽऽगात् सिंहलेन सा ॥२०४।। तस्याश्च पूज्यो योगात्मा दैवात्तद्दिन एव सः । निःसङ्गत्वादनाख्याय जगाम क्वचिदन्यतः ॥२०५।। गता वीरमतीत्यासीत् प्रघोषश्चाऽखिले जने । नूनं योगात्मना साधु गतेति त्वमचिन्तयः ॥२०६।। गता वीरमती क्वापीत्यभूद्राजकुलेऽपि गीः । गता योगात्मना सार्धमित्यवादीश्च निश्चयात् ॥२०७।। त्यक्तदारादिसङ्गः स इति राज्ञोदितेऽब्रवीः । अत एवाऽन्यदारान् स जहे पाखण्डधारकः ॥२०८॥ तच्छ्रुत्वाऽभूज्जनो धर्मे श्लथो दोषेण तेन तु । योगात्मानं बहिश्चक्रुः परिव्राजोऽपरे च तम् ॥२०९।। एवं निकाचितं कर्म तीवं कृत्वा विपन्नवान् । एडिक्कस्त्वं समभवः कोल्लाके सन्निवेशने ॥२१०।। तत्कर्मदोषात्कुथितजिह्वः पञ्चत्वमाप्य च । कोल्लाकस्य महाटव्यामभूस्त्वं मृर्गंधूर्तकः ॥२११।। जिह्वाकोथाज्जम्बुकोऽपि मृत्वा साकेतपत्तने । राड्वॉरवेश्यामदनलतायास्तनयोऽभवः ॥२१२॥ युवैकदा सुरामत्त आक्रोशन् राजमातरम् । वारितो राजपुत्रेण तमप्याक्रोश उच्चकैः ॥२१३।। तेन च्छेदितजिह्वः सन् हीणः सानशनो मृतः । अभूद्धिजोऽधुना कर्मशेषं तेऽद्यापि विद्युते ।।२१४।। तच्छ्रुत्वा जातवैराग्यः सुगुरोः पादसन्निधौ । अहं परिव्राडभवं गुरुशुश्रूषणोद्यतः ॥२१५।। गुरुणा म्रियमाणेन तालोद्घाटनिकायुता । विद्या खगामिनी दत्त्वा सादरं चाऽस्मि शिक्षितः ॥२१६।। विना धर्मवपूरक्षामन्यस्मिन् व्यसनेऽपि हि । नेमे विद्ये प्रयोक्तव्ये वाच्यं हास्येऽपि नो मृषा ॥२१७।। प्रमादाच्चेन्मृषोक्तं स्यान्नाभिदघ्ने तदम्भसि । विद्ययोरुद्भुजोऽष्टाग्रसहस्रं जपमाचरेः ॥२१८।। मया विषयसक्तेन विपरीतमिदं कृतम् । ह्योऽप्यजल्पं मृषाऽऽरामे स्थित आवसथान्तिके ।।२१९।। ह्यः स्नात्वाऽऽवसथे देवार्चनार्थं काश्चिदागताः । मामपृच्छन् युवतयो व्रतग्रहणकारणम् ।।२२०॥ अभीष्टपत्नीविरहहेतुमाख्यं प्रमादतः । जपं गुरूपदिष्टं तं न चाऽकाएं जले स्थितः ॥२२॥ निशीथे चौरिकाहेतोः श्रेष्ठिसागरवेश्मनि । दैवादपिहितद्वारे सारमेय इवाऽविशम् ॥२२२॥ गृहीत्वा स्वर्ण-रूप्यादि निर्गच्छन् राजपूरुषैः । धृतोऽस्मि नाऽस्फुरद्विद्या स्मृताऽप्याकाशगामिनी ॥२२३।।
पप्रच्छ तं भूयः किं भूषणकरण्डकः । एक एव न सम्प्राप्तः ? स्थानाद् भ्रान्तोऽसि किं ननु? ॥२२४।। प्यभाषिष्ट यत्राऽऽसीनिखात: स करण्डकः । दैवाज्ज्ञात्वा ततः स्थानाज्जहे केनाऽप्युपेयुषा ॥२२५॥ तच्छ्रुत्वा तं परिव्राजं मुमोच सचिवाग्रणी: । करण्डकहरौ तौ चाऽस्मरज्जामेय-मातुलौ ॥२२६।। दध्यौ च नूनमज्ञाभ्यां ताभ्यां लब्धः करण्डकः । भीताभ्यां चाऽन्यथाऽऽख्यातं प्रष्टव्यावभयेन तौ ॥२२७||
आहूयाऽभयपूर्वं तौ पृष्टौ तेन यथातथम् । आख्यातवन्तौ मुक्तौ च नीतिविज्ञेन मन्त्रिणा ॥२२८॥ पक्षामत्वात्तौ व्यहं स्थित्वा तृतीयेऽहनि जग्मतुः । तैश्चण्डसेनपुरुषैः प्राप्तौ च पुरुषेक्षिभिः ॥२२९॥ मध्ये क्षिप्तौ 'बन्दपुंसां किरातैस्तावुभावपि । चण्डसेनादेवतायाः समीपे बलिहेतवे ॥२३०॥
सहचेटी सपुत्रां च गृहीत्वा प्रियदर्शनाम् । चण्डसेनार्चनकृते चण्डसेनोऽप्युपाययौ ॥२३१।। १. ०लीकदोषं सं० । २. चण्डदेव सं० । ३. इडिक्क० सं० । एडक० मु० । अजः । ४. शृगालः । ५. राट्वार० सं० ता० । राड्-राजा, तस्य वारवेश्या । ६. सदामत्त सं० । ७. वर्तते सं० । ८. नाभिप्रमाणे । ९. स्थिते मु० । १०. ०रौप्या० मु० । ११. आगतेन । १२. पुरुषगवेषिभिः। १३. बन्दिपुंसां मु० ।
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चतुर्थः सर्गः) श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१९९ द्रष्टुं देवीमिमां भीमा क्षमा न हि वणिस्त्रियः । इति प्रियदर्शनायाः स दृशौ वाससा प्यधात् ॥२३२॥ पुत्रं च स्वयमादाय चण्डसेनोऽक्षिसंज्ञया । आनाययद्वन्धुदत्तं दैवात् प्रथममेव हि ॥२३३॥ देव्यै पत्रं प्रणमय्याऽर्पयित्वा रक्तचन्दनम् । अर्च्यतामिति पल्लीशः प्रोवाच प्रियदर्शनाम् ॥२३४।। स्वयं तु कोशान्निस्त्रिंशमाचकर्षाऽतिनिष्कृपः । एवं विचिन्तयामास दीना तु प्रियदर्शना ॥२३५॥ धिग्देव्या मत्कृते पुम्भिर्बलिरित्ययशो मया । प्रापणीयं कथमहो ! हा ! जाताऽस्मि निशाचरी ॥२३६।। आगतं बन्धुदत्तोऽपि ज्ञात्वा मृत्युं विशुद्धधीः । प्रावर्तत नमस्कारान् परावर्तयितुं गुणी ॥२३७।। तं च ध्वनि समाकर्ण्य सद्योऽपि प्रियदर्शना । दृशावुद्धाटयामास ददर्श च पति निजम् ॥२३८|| साऽवदच्चण्डसेनं च भ्रातः ! सत्यप्रतिश्रवः । जातोऽसि यदयं बन्धुदत्तस्ते भगिनीपतिः ॥२३९॥ चण्डसेनः पतित्वांऽद्यौर्बन्धुदत्तमभाषत । अनागो मे सहस्व स्वाम्यसि त्वं समादिश ॥२४०॥ बभाषे बन्धुदत्तोऽपि मुदितः प्रियदर्शनाम् । अपराधः क एतस्य यस्त्वया मामयोजयत् ॥२४१॥ चण्डसेनमथाऽऽज्ञाप्य बन्धुदत्तो व्यमोचयत् । बन्दोत्तान् पुरुषांस्तं च किमेतदिति चाऽवदत् ॥२४२॥ उपयाचितपर्यन्तं वृत्तान्तं स्माऽऽह भिल्लराट् । बन्धुरप्यवदत् पूजा जीवघातैर्न युज्यते ॥२४३॥ पुष्पाद्यैः पूजयेर्देवीं हिंसां परधन-स्त्रियौ । मृषोक्तिं च परिहरेभव सन्तोषभाजनम् ॥२४४॥ तथेति प्रतिपेदे स देवी चोवाच पात्रगा। अद्य प्रभृति मे पूजा कर्तव्या कुसुमादिना ॥२४५॥ तच्छ्रुत्वा बहवो भिल्ला बभूवुर्भद्रकाः क्षणात् । प्रियदर्शनया पुत्रो बन्धुदत्तस्य चाऽपितः ॥२४६।। आर्पयद्धनदत्ताय बन्धुदत्तोऽपि नन्दनम् । ममाऽसौ मातुल इति निजपत्न्यै शशंस च ॥२४७॥ कृतनीरङ्गिका साऽपि श्वशुरं दूरतोऽनमत् । दत्ताशी: सोऽप्युवाचैवं सूनो माऽद्य युज्यते ॥२४८॥ आनन्दको बान्धवानां यदसौ जीवदानतः । बान्धवानन्द इत्याख्यां पितरौ तस्य चक्रतुः ॥२४९।। समातुलं बन्धुदत्तं नीत्वा स्वौकस्यभोजयत् । तदा गृहीतं लोप्नं चाऽर्पयति स्म किरातराट् ॥२५०॥ चित्रकत्वक्-चामरे-भदन्त-मुक्ताफलादिकम् । बन्धुदत्तायोपनिन्ये चण्डसेनः कृताञ्जलिः ॥२५१।। व्यसृजद्वन्धुवद्वन्धुर्बन्दीनुचितदानतः । कृतकृत्यं धनदत्तं कृत्वा प्रेषीत् स्ववेश्मनि ॥२५२॥ गबन्धुदत्तः ससार्थोऽपि सपुत्र-प्रियदर्शनः । अन्वितश्चण्डसेनेन ययौ नागपुरी पुरीम् ॥२५३॥
अभ्येत्य बन्धुभिः प्रीतै राज्ञा च बहुमानतः । आरोप्य कुञ्जरस्कन्धं स्वयं पुर्यामवेश्यत ॥२५४॥ दानं ददानः सदनं बन्धुदत्तो निजं ययौ । भुक्तोत्तरे च बन्धूनां सर्वं स्वोदन्तमब्रवीत् ॥२५५॥ सर्वानूचे च भूयोऽपि मुक्त्वैकं जिनशासनम् । असारं सर्वमप्यत्र भवे स्वानुभवो ह्ययम् ॥२५६॥ जिनशासनरक्तोऽभूद् बन्धुदत्तगिरा जनः । बन्धुदत्तश्चण्डसेनं सत्कृत्य विससर्ज च ॥२५७।। सुखे च बन्धुदत्तोऽस्थाद् द्वादशाब्दानि तत्र च । अन्यदा समवासार्षीच्छीमान् पार्श्वः शरत्क्षणे ॥२५८॥ महद्धा बन्धुदत्तोऽपि गत्वा सप्रियदर्शनः । प्रणम्य श्रीपार्श्वनाथमशृणोद्धर्मदेशनाम् ॥२५९॥ सोऽथाऽपृच्छत् प्रभुं केन कर्मणा षण्मृताः प्रियाः । ऊढमात्राः ? कुतश्चाऽभूद् विरहो बन्दैता च मे ? ॥२६०॥ पास्वाम्याख्यदत्र भरते विन्ध्याद्रौ शबराधिपः । नाम्ना शिखरसेनोऽभूहिंसात्मा विषयप्रियः ॥२६१।।
इयं च श्रीमती नाम्ना प्रियाऽभूत् प्रियदर्शना । सहाऽनयाऽद्रिकुञ्जेषु त्वमस्था विलसंस्तदा ॥२६२॥ १. च मु० । २. निःकृपः मु० विना । ३. पतित्वांऽध्यो० मु० हे० ता० । ४. अज्ञानापराधम् । ५. बन्दित्वेन आत्तान् । ६. उपयाचितं भाषायां 'मानता' इति । ७. पार्श्वगा मु० । पात्रस्य 'भुवा' इत्याख्यया प्रसिद्धस्य शरीरे प्रविष्टा देवी उवाचेत्यर्थः । ८. कुमदा० मु०। ९. नीरङ्गी 'लाज' इति भाषायाम् । १०. चित्रकः 'चित्तो' इत्यभिधो हिंस्रः प्राणी, तस्य त्वक्-चर्म, व्याघ्रचर्मेति यावत् । ११. ०रेभ्यदन्त० मु० । १२. ०द्वन्दी० मु० । १३. ०वेश्मने सं० । १४. ०मानितः ता० । १५. ०च्छ्रीमत्पार्श्वः मु० ता० । १६. बन्दिता मु० । १७. ०सेनोऽभूत् मु० ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(नवमं पर्व
मार्गेऽन्यदा साधुगच्छो मार्गभ्रष्टोऽटवीमटन् । तत्राऽऽयातस्त्वयाऽदर्शि सानुकम्पेन चेतसा ॥२६३।। गत्वा साधूनपृच्छश्च यूयं भ्रमथ किं न्विह? | मार्गभ्रष्टा वयमिति तुभ्यं तेऽप्याचचक्षिरे ॥२६४।। उवाच श्रीमती त्वां च भोजयित्वा फलादिना । उत्तारय मुनीनेतान् विन्ध्यारण्याद् दुरुत्तरात् ॥२६५॥ कन्दादि त्वमुपानैषीस्तेऽप्यूचुनैतदर्हति । यद्यस्ति वर्ण-गन्धादिरहितं तत् प्रयच्छ नः ॥२६६॥ चिरकालगृहीतं वा कल्पते नः फलादिकम् । श्रुत्वेति तादृशैः कन्दादिभिस्तान् प्रत्यलाभयः ॥२६७॥ मार्गेऽनैषीश्च तान् साधूंस्ते धर्मं चाऽऽचचक्षिरे । दत्त्वा पञ्चनमस्कारमेवं च त्वय्युपादिशन् ॥२६८॥ पक्षस्य दिन एकस्मिस्त्यक्तसावद्यकर्मणा । स्मर्त्तव्योऽयं नमस्कारस्त्वया रहसि तस्थुषा ॥२६९॥ तदा च यदि ते कोऽपि द्रुह्येत्तस्मै स्म मा कुपः । एवं ते चरतो धर्मं स्वर्गश्रीन हि दुर्लभा ॥२७०।। आमेत्युक्त्वा कुर्वतश्च तथैव भवतोऽन्यदा । आगात्पञ्चाननस्तत्राऽभैषीच्च श्रीमती क्षणात् ॥२७१।। मा भैषीरिति जल्पंस्त्वमगृहीर्धनुरुत्कटम् । श्रीमत्या स्मारितश्चाऽसि नियमं गुरुभाषितम् ।।२७२।। ततश्च निश्चलोऽभूस्त्वं श्रीमती च महामतिः । जग्धौ सिंहेन सौधर्मेऽभूतं पल्यायुषौ सुरौ ॥२७३॥ पच्युत्वाऽपरविदेहेषु चक्रपुर्यां महीप॑तेः । अभूः कुरुमगाङ्कस्य बालचन्द्राभवः सुतः ।।२७४॥
कुरुमृगाङ्कश्यालस्य सुभूषणमहीपतेः । कुरुमत्यामभूत् पुत्री प्रच्युत्य श्रीमती दिवः ॥२७५॥ वसन्तसेना-शबरमृगाको नामतश्च तौ । क्रमेण यौवनं प्राप्तौ स्वस्वस्थानं स्थितौ युवाम् ॥२७६॥ गुणश्रुत्या त्वयि रक्ता साऽभूत्तस्यां पुनर्भवान् । चारुचित्रकरानीततद्र्पालेख्यदर्शनात् ॥२७७॥ पित्रा ज्ञातानुरागेण तया त्वं परिणायितः । पिता ते तापसो जातस्त्वं पुनः पृथिवीपतिः ॥२७८॥ तिर्यग्वियोगजं कर्म तव भिल्लभवोद्भवम् । तदानीमुदगात्तच्च शृणु धीमन् ! यथातथम् ॥२७९।। पतत्रैव विजये दोष्मान् राजा जयपुरेश्वरः । वर्धनो नाम निर्हेतु कुद्धस्त्वामवदन्नरैः ॥२८०॥ वसन्तसेनां मे यच्छ प्रतीच्छ मम शासनम् । भुक्ष्व राज्यं ततो नो वा त्वं युध्यस्व मया सह ॥२८१।। श्रुत्वाऽमर्षेण युद्धाय निरगास्त्वं गजस्थितः । ससैन्यो वार्यमाणोऽपि लोकेनाऽशकुनेक्षणात् ॥२८२॥ तदा च वर्धनो राजा जितो नंष्ट्वा जगाम सः । युयुधे च त्वया सार्धं तप्तो नाम नृपो बली ॥२८३।। तेन क्षीणबलस्त्वं तु योधयित्वा निबर्हितः । रौद्रध्यानवशात् षष्ठ्यामवन्यां नारकोऽभवः ॥२८४॥ अग्नि वसन्तसेनाऽपि प्रविश्य विरहार्दिता । विपद्य जज्ञे तत्रैव तत्कालं नरकावनौ ॥२८५॥ उद्वृत्त्य पुष्करद्वीपभरते रोरवेश्मनि । सुतोऽभवस्त्वं त्वत्तुल्य॑जातिः सा तु सुताऽभवत् ॥२८६॥ द्वयोरप्युद्यौवनयोर्बभूवोद्वाहकर्म च । सति दारिद्मदुःखेऽपि रेमाथे नितरां युवाम् ॥२८७।। युवाभ्यां स्वगृहस्थाभ्यां साध्व्यो ददृशिरेऽन्यदा । उत्थाय भक्त्या पानान्नैः प्रत्यलाभ्यन्त चाऽऽदरात् ॥२८८॥ गणिनी बालचन्द्रा नः श्रेष्ठिवस्वोकसोऽन्तिके । प्रतिश्रयश्चेति साध्व्यस्तत्पृष्टा आचचक्षिरे ॥२८९॥ दिवसान्ते युवां तत्र गतौ भावितमानसौ । धर्मं च श्रावितौ सम्यग्गणिन्या बालचन्द्रया ॥२९०॥ तत्पादान्ते गृहिधर्मं प्रतिपन्नावुभौ युवाम् । मृत्वाऽभूतं ब्रह्मलोके नववाायुषौ सुरौ ॥२९१।। च्युत्वा युवामिमौ जातौ त्वया तिर्यग्वियोजनम् । चक्रे भिल्लभवे तीव्रमनया चाऽनुमोदितम् ॥२९२॥ प्रियाविपत्तिं विरहं बन्ध-बन्दादिवेदनाः । आसदस्तद्विपाकेन कष्टः पाको हि कर्मणः ॥२९३॥ बन्धुदत्तः पुनर्नत्वा भगवन्तं व्यजिज्ञपत् । अतः परं क्व यास्यावः ? कियांश्च भव आवयोः ? ॥२९४।।
स्वाम्याचख्यौ युवां मृत्वा सहस्रारे व्रजिष्यथः । च्युत्वा चक्री प्राग्विदेहे त्वं भावी ते महिष्यसौ ॥२९५।। १. महीपतिः मु० । २. निर्हेतुः मु० विना । ३. मारितः । १. उद्धृत्य मु० । २. दरिद्रगृहे । ३. तत्तुल्य० मु० । ४. ०ऽभूतां सं० हे० ।
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________________
२०१
चतुर्थः सर्गः)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्र वैषयिकं सौख्यं भुक्त्वा चिरमुभावपि । उपादाय परिव्रज्यां ततः सिद्धिं व्रजिष्यथः ।।२९६।। तच्छ्रुत्वा बन्धुदत्तस्तु प्रियदर्शनया सह । श्रीपार्श्वस्वामिन: पार्वे तदैव व्रतमाददे ॥२९७।। पाअन्येधुः समवसृतं पाश्र्वं निजपुरान्तिके । राजा नवनिधिस्वामी वन्दनार्थमुपाययौ ॥२९८॥ प्राग्जन्मकर्मणा केन ऋद्धिमेतामिहाऽऽसदम् । तेनैवं भगवान् पृष्टः पार्श्वप्रभुरभाषत ॥२९९।। महाराष्ट्राभिधे राष्ट्र ग्रामे हेल्लूरनामनि । अभवः पूर्वभवे त्वमशोको नाम मालिकः ॥३००। विक्रीय पुष्पाण्यन्येधुश्चलितः स्वगृहं प्रति । मार्गार्धेऽहत्प्रतिष्ठेति प्राविशः श्रावकौकसि ॥३०१॥ तत्राऽर्हद्विम्बमालोक्य पुष्पान्वेषी करण्डके । त्वं हस्तं प्राक्षिपस्तत्र नव पुष्पाणि चाऽऽसदः ॥३०२॥ अर्हत्यारोपयस्तानि पुण्यं च महदार्जयः । प्रियङ्गोर्मञ्जरी राज्ञोऽन्यदा च त्वमढौकयः ॥३०३॥ राज्ञा श्रेणिप्रधानत्वे स्थापितस्त्वं विपद्य च । अभूर्नवद्रम्मलक्षपतिरेलपुरे पुरे ॥३०४॥ विपद्य तत्रैव नवद्रम्मकोटीश्वरोऽभवः । मृत्वा नवस्वर्णलक्षेशोऽभूः स्वर्णपथे पुरे ॥३०५॥ विपद्य तत्रैव नवस्वर्णकोटीश्वरोऽभवः । मृत्वा नवरत्नलक्षस्वामी रत्नपुरेऽभवः ॥३०६॥ क्रमाद्विपन्नस्तत्रैव पुरे रत्नपुराभिधे । नवानां रत्नकोटीनामुच्चस्त्वमधिभूरभूः ॥३०७॥ मृत्वा च वाटिकापुर्यां त्वं वल्लभनृपात्मजः । नवानां ग्रामलक्षाणामभूरधिपतिर्नृपः ॥३०८॥ ततो विपद्य राजाऽभूरीदृङ्नवनिधीश्वरः । अनुत्तरविमानं च भवादस्माद्गमिष्यसि ॥३०९॥
श्रुत्वेति स्वामिनो वाचं भृशं भावितमानसः । समुपादत्त तत्कालं परिव्रज्यां स पार्थिवः ॥३१०॥ गएवं विहरतो भर्तुः सहस्राः षोडशर्षयः । अष्टात्रिंशत्सहस्राणि साध्वीनां तु महात्मनाम् ॥३११॥ चतुर्दशपूर्वभृतां पञ्चाशं च शतत्रयम् । अवधिज्ञानयुक्तानां चतुर्दश शतानि तु ॥३१२॥ मनोविदां सप्तशती सार्धा केवलिनां पुनः । सहस्रं वैक्रियलब्धिमतां त्वेकशतोत्तरम् ॥३१३।। सम्पन्नवादलब्धीनां षट् शतानि महात्मनाम् । श्रावकाणां लक्षमेकं चतुःषष्टिसहस्रयुक् ॥३१४॥ श्राविकाणां तु त्रिलक्षीसहस्राः सप्तसप्ततिः । परिवारः समभवत् केवलज्ञानवासरात् ॥३१५।। ज्ञात्वा निर्वाणमासन्नं सम्मेताद्रौ ययौ प्रभुः । त्रयस्त्रिंशन्मुनियुतो मासं चाऽनशनं व्यधात् ॥३१६।। श्रावणस्य सिताष्टम्यां विशाखायां जगद्गुरुः । त्रयस्त्रिंशन्मुनियुतः प्रपेदे पदमव्ययम् ॥३१७॥ गार्हस्थ्ये त्रिंशदब्दानि सप्ततिव्रतपालने । इत्यायुर्वत्सरशतं श्रीपार्श्वस्वामिनोऽभवत् ॥३१८॥ श्रीनेमिनिर्वाणदिनात् त्र्यशीति-समासहस्यां शतसप्तके च। पञ्चाशदग्रे परमेश्वरस्य श्रीपार्श्वनाथस्य बभूव मोक्षः ॥३१९॥
शक्रादयो दिविषदां पतयः समेत्य सम्मेतशैलशिखरे त्रिदशैः समेताः । शोकातिरेकविवशाः परमेश्वरस्य पार्श्वस्य मोक्षमहिमानमकार्षुरुच्चैः ॥३२०॥ ये पार्श्वनाथचरितं त्रिजगत्पवित्रं श्रद्धालवः श्रवणगोचरमानयन्ति । तेभ्योऽपयान्ति विपदोऽद्भुतसम्पदश्च ते स्युर्वजन्ति परमं च पदं किमन्यत् ॥३२१॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये नवमपर्वणि श्रीपार्श्वनाथविहार-निर्वाणवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥
श्री पार्श्वनाथचरितं समाप्तं ॥ ग्रन्थाग्रं १६००३ ।
॥ समाप्तमिदं नवमं पर्व ॥ इति श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रे
अष्टमं नवमं च पर्व समाप्तम् ।। १. र्हत्प्रतिष्ठिते मु० । २. पुष्पान्वेशी मु० । ३. त्वं पुण्यं म० ता०। ४. नवद्रव्य० मु०, सं० हे० । ५. स्वामी । ६. सप्तविंशतिः ता० । ७. नवमे मु० । ८. १६०४ हे० । ४. समाप्तं चेदं हे० ।
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________________
॥ प्रथमं परिशिष्टम् ।। ।। श्लोकानामकारादिक्रमेणाऽनुक्रमः ।।
।। अष्टमं पर्व ।।
श्लोकः
सर्गः क्रमाङ्कः श्लोका
सर्गः क्रमाङ्कः श्लोकः
सर्गः क्रमाङ्कः
१
१ १८६
५३९
२२१ १०२ ५३४ ५५५ ३५
३५६
१०
७ ५
२४४ १४९
५२४
८५ १४५
४० ३१०
७
१६०
३५८८
३७४
१०७७ १०४४
३८४
२१६
६
१५९ १७८ ३१८ १०१९
मन्यधु
४६२
१४५
२६९
६८०
४९०
४१२ २८२ २३२
१२
ॐ नमो विश्वनाथाय अकम्पनो महासेनो अकस्माद् वनकरिणोअकृत्वा नियमं दोषाअक्रूरः कुमुदः पद्मः अक्रूराद्या: क्रूरबुद्धेः अक्षराणि लिखित्वैवअक्षोभ्यो द्विषदक्षोभ्यः अखण्डशीलां तां जामि अखातसरसां वारिअग्निना द्वारका दग्धा अग्निभूति-वायुभूती अग्निभूति-वायुभूती अग्निरङ्गे लगत्वस्याः अग्रे तत्राऽधिरूढश्च अग्रेऽपि युवयोः स्नेहः अग्रेऽपि सम्यक्त्वधरअघोषयद् द्वितीयेऽह्नि अङ्कमारोप्य वैदर्भी अङ्कादकं सञ्चरन्ती अङ्गशेषो धार्तराष्ट्रो अङ्गाधिराजः कर्णोऽपि अङ्गारकं स प्रेक्षिष्ट अङ्गारवृष्टिं विदधे अङ्गुलीयकवजं चाअङ्गुलीयेन रामोऽपि अङ्गुष्ठमध्यमास्फोट अङ्गेषु वैरूप्यमपि अचलोऽचलपुत्राश्च अचिन्तयं च त्वां दृष्ट्वा अचिन्तयच्च काऽप्यस्य अचिन्तयच्च तां बालाअचिन्तयच्च रूपेणाअचिन्तयच्च सार्थश्चेत् अचिन्तयच्चाऽऽपतितअचिरेणाऽपि जग्राह अच्छदन्तो बलं हन्तुं
७२
अच्युताद्याः सुरेन्द्रा यं ७ अजितसेन-निहत- १० अज्ञातगर्भा तद्राज्ञी २ अज्ञानात् त्वमवाज्ञासी- २ अज्ञानर्मद्यपानान्धै- ११ अट्टहासं लेप्यमयाअतः परं नः शरणं १ अतः परमिह स्थान- १ अतिमुक्तश्चारणर्षिः अतिशयितचिरा
३ अतिसक्रियमाणास्ते अतुच्छया मूर्च्छयाऽथ अतोचे न्यायविदुरो अत्याहारा विपद्योभी . ६ अत्र कृष्णभयात् तस्या १० अत्र त्वं कथमायासीअत्रान्तरे च चण्डांशुअत्रान्तरे च नभसा २ अत्रान्तरे च मार्तण्डो १ अत्रान्तरे चित्रगतिः १ अत्रान्तरे दिवो देवः ३ अत्रान्तरे धनदेवः अत्राऽन्तरे चाऽस्तगिरि अत्राऽन्तरे पाण्डुपुत्रैः ७ अत्राऽन्तरे मधुजीवो ६ अत्राऽवश्यं प्रवेष्टव्यअत्राऽऽगत्याथ राजान
३ अथ केवलिनं नत्वा ३ अथ कोशलनाथस्य ३ अथ क्रुद्धोऽवदत् कंस: अथ क्रोष्टुकिमाहूय
९ अथ गोष्ठे द्वितीयेऽह्नि अथ चित्रगतेः पारिअथ तस्थुर्यथास्थानं अथ दध्यो.बलमुनिः १२ अथ दुर्योधनः काशि- ७ अथ देवक्यूतुस्नाता
२७० ३०५ १६१ ८५४ १०४०
अथ द्वारं कपाटाभ्यां अथ प्रणम्य राजानं अथ प्रत्यक्पयोराशा अथ प्रद्युम्न-रुक्मिण्योः अथ प्रद्युम्न-शाम्बाद्याः १२ अथ प्रवर्तमानेऽत्र अथ मायामुनिं स्कन्ध- .२ अथ यौक्त्रिकबन्धेना- ५ अथ राजा जरासन्धः अथ राजा जरासन्धो ७ अथ रोधानेमिनाथो अथ विज्ञापयामास अथ श्रीषेणमन्येधु १ अथ श्वेतातपत्रेण अथ सेत्स्यन्ति ताः साधोअथ सोमप्रभस्येभ- १ अथ स्नाता शुचितेषा ६ अथ हष्टो जरासन्धअथ हृष्टो दशार्हेशो अथवा स्वर्गकल्पायाअथवाऽनेकदुःखाना अथावदद् वैश्रवणः अथाऽच्युतप्रभृतयः ५ अथाऽन्यदा वसुदेवअथाऽन्यदा हरिणन्दी अथाऽमात्यादयः प्रोचुः अथाऽरिष्टपुरे कृष्णः अथाऽवचित्य निर्वृन्तीअथाऽवतीर्य धनदः अथाऽवदज्जाम्बवती अथाऽवदद् बलं कृष्ण- ११ अथाऽवदन्नेमिनाथः ९ अथाऽऽख्यत् सारथिथि ! ९ अथाऽऽख्यद् भगवान् शौर्य- ११ अथाऽऽचचक्षे भगवान् १० अथाऽऽच्छिदच्चित्रगति- १ अथाऽऽयातं परबलं
७
३१०
२
१६०
१८४
४३४ २२५
४३४
११२
२९९
५०८ १०७
७
८०२ ६८१ ४३४ २८२ १३२
१६५ ९६८ १११ ५२६
१०६
१२४ २०३
१८७
२८२
५७२ ५४१ १४७
६२ ३०४
१
११७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
२०३
११५ २२८ ३५६
३
& Imm , r
३४८ ३५० ७३० ११२ ३४ २२९
४४४ १९९
९ १ ७
४
२७९ २६६
२५
११
०G
१२०
१९०
२७८
३
१२४ ७८८ २८६ १३७
४५८ ८५१
६१७
१९०
अथेप्सु पी पद्मअथैकः साधुरित्याख्यअथैककामुकेनाऽङ्गे अर्थकखड्गमाकृष्य अर्थकस्मिन्नद्रिकुञ्ज अथोचिरे लक्ष्मणाद्या अथोचे चित्रकृत स्मित्वा अथोच डिम्भको मन्त्री अथोचे पुण्डरीकाक्षोअथोचे भगवानेमिः अथोचे सीरिणं कृष्णो अथोचे सोविदान् कृष्णो अथोत्थाय नमस्कृत्य अथोत्थाय स्वयं कृष्ण अथोत्थिते कलकले अथावाचाऽरिष्टनेमि अदर्शयंश्च ते जीवअदूरवासिनः केऽपि अदूरे धनदस्याऽथ अदृश्यमानः केनाऽपि अदृश्यमानः केनाऽपि अद्य त्वा शरणं प्राप्ताः अद्याऽपराजितादेतद् अद्याऽप्युपेक्षितो हन्ति अधिसौधं कन्दुकेन अनङ्गो दुर्जयं ज्ञात्वा अनन्तकायाः सूत्रोक्ता अनन्दोलितपर्यङ्कअनर्थ मा प्रपद्येथाः अनाददानस्य राज्यअनाधृष्टिं च सेनान्यं अनाधृष्टिः पितुर्वेश्म अनाधृष्टिरथोपेत्योअनाधृष्टिर्दुर्मुखश्च अनाधृष्टिलघुहस्तअनाधृष्टिस्ततो हृष्टः अनाधृष्टेरन्तचिकी अनार्त्त-रौद्रध्यानी ताअनिच्छुनाऽपि प्रद्युम्नेअनिरुद्धमुषासमन्वितं अनिषिद्धं ह्यनुमतअनु तद्वचनं स्वर्गा अनुकूलो नलस्याऽक्षा
अनुज्ञातस्ततस्तेना
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अनुज्ञाता पितृष्वस्रा ६ ३७ अन्येऽपि यदवो नेमि- ९ अनुज्ञाप्य स्वपितरो ३ ३७२ . अन्येऽपि यदुकुमारा अनुज्येष्ठं विनीतास्ते
२७४
अन्येऽपि हि जरासन्धअनुत्तिष्ठन्तमुत्थाय
१३. अन्येऽपीभ्यश्रेष्ठिसार्थअनुनेमिकुमारं च
९ २५४ अन्वीयमानं रामाभि १ अनेककरि-मकर
अन्वेष्य जामिमानेष्याअनेकजननिर्माण
अपकर्तुंनभासेनोअनेकजन्तुसङ्घात- ९ ३३६ अपयातं युवां पान्थी अनेकधा सत्कृतास्ते
अपराजित इत्याख्या १ अनेकशो भग्नरथः
७ ३३४ अपराजितराजस्य अन्तःपुरप्रतीहारी
३ ३३७
अपरेधुः स्वसदने अन्तरान्तरसंस्थाश्च
अपरेधुर्वसुदेवं अन्तर्मुहूर्तात् परतः ९ ३३४
अपरेधुर्वसुदेवं अन्धकारो दिशां जज्ञे
३०२ अपरेऽपि हि राजानः अन्नं प्रेतपिशाचाद्यैः ९ ३४७ अपवादभयात् छन्नं अन्यच्च तापसपुराद्
८०१ अपसार्य पुनः पाणि अन्यच्च यत् क्रमायातं
२०५ अपसायं त्वया किञ्चिद् अन्यच्चोद्वाहकालेऽस्याः
अपायभीतास्ते धतुं ५ अन्यत्राऽन्यत्र चूतस्य
अपि खेचरनारीभि- ३ अन्यथाऽग्नौ प्रवेक्ष्यामि ५ ३३२ अपि तापससङ्गत्या ३ अन्यदा कुमुदानन्दे १२५ अपि मातृसपत्नीनां ३ अन्यदातस्थुषां तेषां ३ १०४५ अपृच्छद् भीमतनया
३ अन्यदा तस्य सामन्तो
अपृच्छन् वेत्रधारिण्य- ३ अन्यदा तु निशीथेऽद्रि
६३८ अप्यन्येदोहदेवृक्षाअन्यदा त्वशिवे जाते
अप्योषधकृते जग्धं ९ अन्यदा प्रावृडारम्भे
२०० अप्रतीच्छंस्तद्वचनं ८ अन्यदा रुक्मिणी स्वप्ने
अप्राप्नुवन्नन्यभक्ष्य- ९ अन्यदा वर्षात घने ३ ६६६
अबद्धा धारिणी तूचे २ अन्यदा शब्दमश्रौषं
२४० अब्दानि द्वादशाऽभूवअन्यदा सर्वसाधूनां
२४० अब्धिकाञ्चीशिरोरत्ने अन्यदा सिंहलेशस्य
अभाङ्क्षीत्क्ष्माभुजां लक्षं ७ अन्यदाऽनुगम-चर- ३ ४४० अभिगृह्येत्यगाद् विष्णुअन्याश्च तेन पूर्वाढा- १ ४२६ अभिचन्द्रस्तमित्यूचे अन्यासामपि गोविन्द
अभिज्ञानं कौस्तुभं में अन्यधुः काम्पील्यपुराद
अभुक्त एव स मुनि- २ अन्येधुः सपरीवारा
२३८ अभूच्च सत्यभामायाः अन्येधुरन्धकवृष्णि
अभ्यधत्त च धन्याऽस्मि ३ अन्येधुराययो तत्र
अभ्यधात्रषधिः पत्नी ३ अन्यधुरेत्य राजानं
११७ अभ्यणे धनुषस्तस्या- ५ अन्येधुर्दर्पणे तस्याः ६ २३९ अभ्युत्थाय दशार्हस्तअन्येधुर्दुग्धमाकण्ठं ९ २६७ अभ्येत्य तद्वचा कृष्णा- १० अन्येधुनिषधो राजा ३ ४०१ अभ्रच्छन्नमिवाऽऽदित्यं अन्येचूरुक्मिणी पुत्री
३८ अभ्रान्त्वाऽपि मयेकत्र अन्येऽपि बहवो भूपाः
१४८
अमन्त्रितं पुराऽकार्षीत्
१४५ ४३५ ५१३ २९८ ७८२ १४६
२५२
१९३ ४१६
३२०
१७७
ommmmm v39wrom mv9339939mvw
२०४ ३४५
३३९ ६४ ३४२ ११०
४६०
३४३ २३९
७५
२४५ ३७१ २३१ ३६९
७
५७ ३५ ३९३ ४८४ २३३
४४
१२२
४४१
१२८
३४५
२०८
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________________
२०४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
१०७४ २२१
७३
३८७ ५०१ १४८ १०७३
३८९
५५२
२१८
३४७ १७१ २०५
१४५
२०४
११३
अमित्रं पुरिमित्राख्यं
२९७ अमिलस्तत्र यात्रायां
२२५ अमुंत्वदाशया सार्धं १ ४९४ अयं कुब्नोऽस्तु कुण्टोऽस्तु ३ १०२८ अयं खलु मयाऽलेखि अयं च खेचराधीशो अयं च शबलैरश्वअयं दुग्धमुखो मुग्धो ५ २८० अयं भानुकवीवाहा
४१५ अयं महर्षिरुल्लाघः अयं मुकुरितश्चाऽद्य
४५८ अयं सोमप्रभः कीर्त्या
૨૮૮ अयं हि कण्ठे न्यासाय अयादवं करोत्यद्य
७ ४२३ अयादवं भवत्वद्येअयि ! किं विस्मृतः प्राच्यो अरिष्टनेमिनो जन्म अरिष्टो यस्तवोक्षाऽस्ति अरे ! कुलाङ्गारकोऽयअरे ! शीघ्रं वजन् किं मां अरोहति प्रहारे तु
१ ३५२ अचिंत्वा देवतां चैतां
४१५ अचिंत्वा सुचिरं तत्र अर्थ-धर्माविरोधेन
२८१ अर्धासनासितबल: ५ ३१९ अनय॑नेपथ्यधरा
१ ३८२ अर्पणीयो धनस्याऽयं १६९ अर्पयित्वा च तं हारं अर्वाग् जरासन्धसैन्याअर्हच्चैत्यसमासन्नं
२ १५६ अर्हत: सिद्ध-साधूंश्च अर्हतामन्तिके धर्म
१ २४९ अर्हत्स्वरूपमाख्याय ३ ६३० अर्हद्धर्म स्थापितोऽहं
१०४८ अलक्तरसरक्तोष्ठी
१९६ अलङ्करणसन्दोहै- ३ ३३३ अलमेतेन दृष्टेनेअलातचक्रवन्नेमे
७ ४२७ अवतीर्य रथात् कृष्णो अवदद् देवको नैष अवधिज्ञानभाजांच अवधीत् सारथिं रथ्याअवन्तिदेव्यास्तनयो अवरोधे निधा मेमा ३ ४५८
| ram rIvr wrr 29334 vrwws rummmmrw 14, 2m
अवशिष्टतृतीयांश- १० ५४ अवशिष्टस्त्वमेवैको अवात्सीद् बहिरुद्याने अवाप्तसंज्ञा चोत्थाय ९ २१२ अविकारः पुनर्नेमिअविद्धकर्णो तो धर्मा- ३ २२८ अवोचमहमप्यावा- २ २५२ अवोचमहमप्येवं
२ २३१ अशक्नुवन् व्रतं कर्तुं.. अशक्याऽत्राऽऽगतिणं- १० १८ अशनीयन् सदा मांसं
३२४ अशेषैर्यदुभिः सार्धं
१४४ अशोकपल्लवाताम्रअशोकपल्लवाताने अश्रद्दधत् शक्रवचो अश्रूण्युन्मृज्य साऽवोच- २ ४६२ अश्रौषीच्छारिका-कीरोअश्रौषीन् मुनिवृत्तान्तं ५८८ अश्वग्रीवस्ततः सोऽहअश्वसेनोऽश्वसेनाजः ७ १७५ अश्वारूढस्ततश्चैको २ २१४ अष्टमेऽह्नि च वैदी
८७६ अष्टादशब्रह्मरता अष्टादशाऽपि च लिपीअष्टोत्तरशतेनोच्चैअसकृद्वीचय इवो ९८१ असमञ्जसमेतद्धि ५ २८१ असहिष्णुर्ममेमा यो असावनिष्टः श्रेष्ठिन्या असावशकुनं मेऽभू- ३ २२१ असौ कदम्बदेशस्य १ ३८५ असौ समुद्रपालस्य अस्तायो यस्तथा स्वामिअस्ति त्वद्देशसीमाया अस्ति सा श्रीगृहे मुक्तेअस्मत्पुण्यैः समाकृष्टा अस्मन्मातृकुलमिदं
३७५ अस्माद् द्वादश योजनानि १२ १२६ अस्माभिरेष सम्भूय अस्मिन् खलूक्त्वा तद् भ्रात- ११ अस्मिन् जीवति मत्सूनो- १ १५५ अस्मिन् पुरे हरिश्चन्द्र- ३ ११७ अस्मिन् फलानि यावन्ति ३ १००६ अस्मिन्नुचितसंयोगे ५ ५३
अस्मिन्नेव भवे ताव- ३ अस्मै मया चाऽपकृतं अस्य किं क्रियतेऽद्येति अस्य दक्षिणपक्षस्थो अस्या महिष्यास्तनयाः अस्या योग्यो वरः कः स्या- १ अस्यां प्राग्भवपत्नीत्व- ३ अस्याः श्रुतेन शब्देनोअस्याः स्वयंवरे राज्ञा अस्यैव जम्बूद्वीपस्य अस्यैव तनयः सोऽयं अहं गन्धर्वसेनार्थी अहं च गतवान् वेश्म अहं चन्द्रातपो नाम . अहं तु धात्रिका तस्याअहं त्वत्कुलदेवीभिअहं त्वद्दर्शनेनाऽपि
२ अहं पुनर्मन्दभाग्यो १२ अहं मनुष्यो देवोऽयं अहं हि देवकीगर्भान् अहमद्याऽपि नो तृप्तअहमीदृगवस्थोऽस्मि २ अहो ! असारः संसारो अहो ! कुबेरो भगवान् अहो ! कृपानिधिः स्वामी १२ अहो ! धन्यो हरिश्चन्द्रो अहो ! धन्योऽस्मि यस्यैत- ३ अहो ! पुराऽपि युवयोअहो ! पूर्णकलापोऽयं २ अहो ! प्रमादो नाऽबोधं अहो ! मत्कर्मदोषेण अहो ! महात्मा देवोऽयं अहो ! रूपमहो ! तेजः अहो ! वनच्छिद् धन्योऽयं १२ अहो ! सुघटितं दैवाअहो ! सुष्ठु वृतं सुष्ठु ३ अहो धृष्टोऽसि गोपाल ! अह्नो मुखेऽवसानेऽपि ९ आकर्णाकृष्टकोदण्डान् आकर्णाकृष्टबाणेन १ आकर्षतः सन्दधतो आकस्मिकं निशीथेऽपि आकृष्याऽऽखण्डलधनुआख्यच्च देवको देव्यै
४४४ ३७ ४४६ १९४
३५९
३३६
२९३
६७
३५५
४०
२१९
१८०
४२८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
and
४५०
आख्यच्च नारदः सेयं
४१० आख्यच्च मन्त्रिसूस्तस्मै आख्यच्च राज्ञां सर्वेषां आख्यच्च सुप्रतिष्ठर्षिआख्यातं ज्ञानिना यत् तद आख्यातं ज्ञानिनाऽस्माकं - २९५ आख्यात् सोऽहमभवं ३ ८८५ आख्यायेति स्ववृत्तान्तं ३ ७४५ आगच्छन् गोकुले तत्र आगच्छन्ती दवदन्ती आगन्तव्यं त्वया तत्र आगमाम वयं दूरे १०७३ आगाच्च विक्रमधनो
१०० आगात् कुब्जे वदत्येवं आगात्तत्र च सुग्रीवः
१५७ आगाद् यशोभद्रसूरि- ३ ६४४ आगास्तर्हि कुतो हेतो- ६ आग्नेय्यां दिशि तत्राऽऽदौ आग्रीवं बाहुना तेन ५ २२० आचख्यौ कृष्णपृष्टश्च आचार्यकमिव प्राप ३३० आचार्या तु भवस्यद्य ६ ३९५ आचिक्षेप कुमारस्तआचिक्षेप हरि: काञ्चित् आचैत्यवन्दनं भैमी
३७३५ आजन्मसृष्टिसर्वस्वआजन्माऽपि मम स्वान्ते
७१२ आज्ञापयति च त्वं हि
७६३ आतोद्यानि ततादीनि ३ ३९९ आत्तरूप इव व्याले ५ ३०९ आत्तासना निर्गताच
४४७ आत्मनो निर्विशेषेण आत्मनोऽननुरूपाऽहं ९ २१६ आत्मरक्ष-प्रतीहारो- १ ३८३ आत्मरक्षीभवनद्य १ ३५० आत्मसंवादमुदितः आत्मेव तायव्यूहस्य ७ २६९ आदरेण यशोदा तं आदावप्युत्थितं शत्रुआदावालिङ्गनाज्ज्ञात आदिक्षद् दधिपर्णोऽपि आदौ पुत्रस्य वीवाहे ६४०६ आद्यो दधिमुखस्तेषु
आनन्दः शत्रुदमनो ७ ३९७
आनर्चुः खेचराः कृष्णं ८ आनाय्य शौर्यनगरात् आनिन्ये भामया शाम्बो आनीतं भक्त-पानादि आनीतो विद्यया त्वंतआनेतव्या स्वपुत्रीयं १ ३२५ आपृच्छ्य राम-गोविन्दौ आप्तैरिवाऽनिमित्तैश्चाऽआबद्धकङ्कणौ गोत्रआबद्धकुन्तला लोलआमगोरससम्पृक्त- ९ ३०६ आमगोरससम्पृक्त- ९ ३६२ आमेति नारदेनोक्ते ६ ४१२ आमेति नेमिनाऽप्युक्ते आमेत्युक्त्वा चित्रगतिः १ १७४ आमेत्युक्त्वांबलस्तेन १२ ३५ आमेत्युक्त्वा वसुदेवो २ १२३ आमेत्युदित्वा नृपतिः १७५ आमेत्युदीर्य सिद्धार्थः आययावभिचन्द्रोऽपि ७ १६८ आययो हिमवांस्तत्र ७ १६४ आयाता त्वामहं दृष्ट्वा आयातान्नापितान् मुण्डान् ६ ४७५ आयुः प्रपूर्य सौधर्माद् १ १३९ आयुक्ता चन्द्रयशसा ३ ७७९ आरक्षानागमय्योचे
७८५ आरक्षास्तं तदेत्यूचू- १ ११५ आरक्ष रक्ष्यमाणाश्च ९ १७४ आरक्षः पार्थिवार्दिष्टे- ३ ८०७ आरभ्य केवलादेवं १२ १०० आराधयन्त्यहममु
३ ६२९ आराधितश्च बाणेन ८७९ आरोपयितुमारेभे १२ २१ आकर्ण्य तदनाधृष्टि- ५ २४२ आकर्ण्य तद्गुरुशुचो १२ १२७ आर्द्रः कन्दः समग्रोऽपि ९ ३४३ आर्या-ऽनार्येषु विहृत्य १२९८ आर्यास्ताः सा कदाप्यूचे आर्यिकाणां गौरविता
३५२ आर्हतीयद्यहं तर्हि
३ ३५८ आर्हतीः प्रतिमास्तत्र ३ २३४ आलपन्ती प्रणयिनः ३ १२ आलम्बनोद्दीपनैस्तआलोचयिष्यामीत्युक्त्वा ६ ३२४
आवयोरश्वहतयोः १ २७३ आवासितमुदक्षिष्ट ३ ५७१ आविर्भूय नैगमेषी आविर्भूय सुरः सोऽपि आविष्कृतस्मिमिव ९ २४६ आविष्कृत्य निजं रूपं ६ ४८३ आश्चये द्वे मया दृष्टे आश्रित्य दक्षिणं पक्षं ७ २४८ आश्रित्य वामपक्षंतु ७ २५२ आश्विनस्याऽमावास्यायां. ९ २७७ आसंश्च तस्मिन्नगरे १० ९५
आसनं दिनमाख्येयं ३ ९८४ . आसनं मरणं ज्ञात्वा
आसाद्यते तपोदुःखै- ९ २०४ आसीद् देवो महाशुक्रे आस्थानस्थो द्वितीयेऽह्नि आहन्यमाना भल्लीभिआहूय जिनदत्तोऽपि आहूय श्रेष्ठिना सोऽपि इक्ष्वाकुवंशतिलको ३ ३३९ इच्छामि तत्सुतं वत्स इतः शुक्तिमतीपुर्या इत: सुमित्रभगिनीं इतश्च कंसरक्षार्थ ५ ३११ इतश्च कुसुमपुरे इतश्च कृष्णमवदद् इतश्च कृष्णो रुक्मिण्यो
१३९ इतश्च क्रीडया नेमिः इतश्च गच्छन् कृष्णोऽपि १०७ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् ४५२ इतश्च जवनद्वीपात्
७ १३४ इतश्च ते धर्मघोषाइतश्च दुर्गवप्रस्थ
४७३ इतश्च द्वारकावासी इतश्च नेमेरनुजो ९ २५८ इतश्च पल्यां वेदभ्यां ८ ७५ इतश्च पाण्डवाः कृष्णइतश्च पुर्यां ज्वलन्त्यां इतश्च पुष्कलावत्यां ६ १०५ इतश्च पूर्व वृषभ
६ २६४ इतश्च प्रत्यग्विदेहे १ २६१ इतश्च भगवानेमि- ९ २३६ इतश्च भगवान्नेमि- १० - ९८ इतश्च भगवान्नेमिः
३०७
४५
४३२
९४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
इतश्च भद्रिलपुरे
इतश्च भरतेऽत्राऽस्ति
इतश्च भिल्लेरपरै
इतश्च भीरवे भार्म
इतश्च मगधाधीशं
इतश्च मध्यदेशादी
इतश्च या शिलाकुण्डे
इतश्च वैताढ्यगिरौ
इतश्य शिशुपाला स
इतरच श्री शीर्षपुरे
इतश्च स जरासूनुः
इतश्च सा जीवयशा
इतश्च हस्तिनापुरे
इतश्चाऽत्रैव भरते
इतश्चाऽत्रैव भरते
इतश्चाऽत्रैव वैताढ्य
इतश्चाऽधिगतकला
इतश्चाऽपि विदर्भ इतश्चाऽख इतश्चाऽ ऽ सीज्जनानन्दे
इतस्तथा जपन्तीं तां
इति कंसवचः श्रुत्वा इति कृत्वा वसुदेवं इति कृष्ण चिन्तयन्त
इति क्रुधस्तच्छिसि इति क्षणं ध्यानमवाप्य रौद्रं
इति चेतसि सञ्चिन्त्य
इति तद्वचसा क्रुद्धो
इति दध्यौ च गोविन्दः
इति देवतयाऽप्युक्तः इति धैर्येण वैदर्भ्या
निःसृत्य वैराग्याद्
इति निश्चित्य तां रात्रि
इति निविशमाकृष्य
इति व्योमा
इति प्रशंसन् धनदो
इति प्राव्राजयत् कन्या
इति ब्रुवाणं तनयं
इति भ्रातृवचो रामइति रामोक्तेऽपि हरि
इति विष्णुगिरा क्रुद्धो इति श्रुत्वा पुष्कलाख्ये इति श्रुत्वा पूर्णभद्रइति श्रुत्वा यशोदाऽपि
3
७
७
१२
११
२
६
५
१२
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१
३
१
६
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१६४
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१२
३७
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२५
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३५५
५६३
१७३
२१६
१९२
८९
३४
४४१
१०६९
१९२
१३४
कलिकालसर्वशश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
इति श्रुत्वा स दूतोऽपि
इति श्रुत्वा सह तया
इति साक्षात्कृतफलं
इति स्तुत्वा जगन्नाथ
इति स्तुत्वा विरतयो
इति स्ववदनाम्भोज
भीमार्जुनौ वीरौ
इतो हिरण्यनाभस्या
इतोऽत्र भरते वैता
इतोऽपराजितजीव
इतोऽपराजिते गत्वा
इतोऽपि च यशोमत्या
इत्थं कनकवत्यास्तु
इत्यं कृतप्रतिज्ञासा
इत्यं चिन्ता प्रेक्ष्य
इत्थं स्वस्थीकृतायाश्च इत्यनाष्टिना रोषा
इत्यस्मात् कारणात् स्वामि
इत्यस्या वचसा कुप्यं
इत्याकृष्य छुरीं राजा
इत्याख्याय जगामर्षी
इत्यादि विविधं प्रो
इत्याद्यनन्तसंसारं
इत्याशशङ्करे ते च
इत्युक्तः प्रययौ वास
इत्युक्तः स तथा चक्रे
इत्युक्तः स नरो गत्वा
इत्युक्तः सीरिणा शाहगी
इत्युक्तः सोमकोऽवोचत्
इत्युक्तवन्तं तं भू
इत्युक्तवन्तं तं शखो
इत्युक्तवन्तं दत्ताशी: इत्युक्तश्चाऽग्रही विद्या
इत्युक्तस्तदा शरि
इत्युक्ते तयान्येषु इत्युक्तेनेति
इत्युक्ते पादयो मे
इत्युक्ते मुनिना व्योम्नि
इत्युक्ते साहिंगणा तत्रा
इत्युक्तेऽपि यदा रामइत्युक्तो देवकः कंस
इत्युक्तो द्यां ययौ देवः
इत्युक्तो मुदितः कृष्णः
इत्युक्तो व्यसृजद् भैमी
६
२
३
५
३
७
७
१
१
१
८
३
९
३
२
३५७
२
१५७
१ ३१५
३
५२१
१७७
३९५
१८७
१
२२
४७४
८६३
१९५
२९८
८४१
३०१
३६७
१३७
४५६
५२९
४८
१०७६
२३५
२०६
६७
१२ ४५
६
३३९
१०
६२
७
११३
१०
१००
५
३५३
९
३७२ १ ४९५
३
६१
२
३५०
२
३६६
२
५४१
४११
११३
३५६
४३
८४
६७
४७
१२९
४६२
३
९
६
९
११
२
९
३
इत्युक्तोऽतिशानः सोऽगात् इत्युक्त तेन देवेन
इत्युक्त्वा कन्यकां रम्भां
इत्युक्त्वा काणिरगमद्
इत्युक्त्वा च हिरण्यस्य
इत्युक्त्वा च हिरण्यस्य
इत्युक्त्वा तत्प्रत्ययार्थ
इत्युक्त्वा तमहे: काय
इत्युक्त्वा तस्य शिरसि
इत्युक्त्वा तां प्रणम्योचे
इत्युक्त्वा तेन दत्तानि
इत्युक्तेः स्थितंप इत्युक्त्वा निजशक्त्या स
इत्युक्त्वा पत्रिभिस्तीक्ष्णैः
इत्युक्त्वा पाणिघातेन
इत्युक्त्वा प्रययौ विष्णुः
इत्युक्त्वा प्राविशद् राम
इत्युक्त्वा प्रेरयामास
इत्युक्ा बुभुनाते ती
इत्युक्त्वा भावविज्ञा सा
इत्युक्त्वा भीमतनया
इत्युक्त्वा भीमतनया
इत्युक्त्वा मुदितस्ताभ्यां
इत्युक्त्वा यादवं वध्य
इत्युक्त्वा युयुधे भ्रात्रा
इत्युक्त्वा रचयन् योग
इत्युक्त्वा लोहदण्डेन
इत्युक्त्वा वसुदेवान्ते इत्युक्त्वा वारिभृङ्गार
इत्युक्त्वा विदधे स्नान
इत्युक्त्वा विद्यया ध्वान्तं
इत्युक्त्वा व्यि
इत्युक्त्वा स गृहं गत्वा
इत्युक्त्वा स ययौ देव
इत्युक्त्वा संस्तरे ताणें
इत्युक्त्वा सज्जयामास इत्युक्त्वा सा ययौ क्वापि
(प्रथमं परिशिष्टम्
१
७
३
३
६
३
१०
६
२
८
७
३
७
११
७
११
१
३
३
१
२
४
३
१०
८
३
३
१
९
३
१०
११
३
२
३
इत्युक्त्वा सार्थवाहस्तां
इत्युक्त्वा साऽविशद् वनी
इत्युक्त्वा सोऽम्भसे डगच्छत् १०
इत्युक्त्वा सोऽसिफलकी
इत्युक्त्वा स्थितवन्तं तं
इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे देवइत्युक्त्वाऽन्तर्दधं देवी
१
३
३
४२
२९०
३६१
६७
८६२
१०४९
४५
६७८
१५७
७१
४४५
६
९३
३२१
७९८
३३
११०
३५९
१२२
६८
७८६
४९६
३४४
५८५
३३
६९३
८७
२०
३५९
९७२
२०८
३०
२७०
१७२
१५७
१८१
३१४
७२९
३७७
१२९
३८०
१७१
१०६६
३११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२०७
३०६
३
८१२ ४४८
३
१
१२३
४०८
३६४ १२५ २ ५२५
४५६
४४२ १७३ १७५ १०६ ३०
१ ७ १०
३३२
७
९ १२
२८९ ४६
३२७ २५३ १८२ ३९७
७ ५
rrm
% WG WWG
3
११९
.
५०९
इत्युक्त्वोत्पत्य गोविन्दो इत्युक्त्वोत्पत्य स मुनिइत्युच्चैः शब्दमाक्रोशन् इत्युत्थाय द्रुतं चन्द्रइत्युदित्वा जगन्नाथो इत्युदित्वा तदुचितं इत्युदित्वा तस्य मुनेः इत्युदित्वा स्वयं डिम्भाइत्युवाच च येनेह इत्यूचे चाऽत्र भरते इदानी कुलदेवीनां इदानीमपि तद् गच्छ इदानीमपि मा कार्षीः इन्द्रनीलमयोवीकं इन्द्रोपेन्द्रौ पुनर्नत्वा इमं हन्मस्ततो गत्वेइमं हि शङ्खमादातुइमां गन्धर्वसेनां तो इयं गन्धर्वसेनाया इयं तु पतिवाल्लभ्याद् इयं माति निश्चित्य इयं यथा त्वया वीर ! इयं राजीमती नाम इयं हि पञ्चपतिका इयत्कालं मनस्येव इयत्यपि गते तं चेत् इयपि गते स्वामिन् ! इयन्त एव राजानो इषुवेगवतीं नाम इह विद्याः साधयन्ती इहाऽमरीभिः सहिता इहाऽस्ति लिखितो भद्रे इहैव पुर्या श्रेष्ठ्यासीद ईक्षाञ्चक्रे च कृष्णस्य ईदृगायुःस्थिती राजीईदृशेनौजसाऽसौ कि इप्सितं वः करिष्यामी ईशानाङ्के स्थापयित्वा उक्तं मयैतदज्ञानाद उक्तः सानुनयं पित्रा उक्तश्च किं ब्रवीषीति उग्रसेननरेन्द्रोऽपि उग्रसेनसर्मिण्या
उग्रसेनस्तत्सुताश्च
उग्रसेनस्य चाऽभूव- २ १०८ उग्रसेनोऽन्यदा गच्छन् उग्रसेनोऽप्यर्घपाद्याउचितं मम विष्णोश्च उज्झती मौग्ध्यमधुरां ३ २३ उत्कन्धरीकृताशेषउत्कल्लोलशिरानीर- ३ ६७१ उत्तराशाकुबेरोऽयं १ ३८७ उत्तरीयाञ्चलं राज्ञो ३८८८ उत्तीर्य वसुदेवोऽपि उत्तीर्य विषमाच्छैलात् उत्तीर्य ह्रीमतः शैलाद् उत्थाय च निजं वेष- ६ ३४० उत्थाय दवदन्ती स्वं ३ ३८२ उत्थाय नेमि नत्वा च उत्थाय रुक्मिणी तत्र उत्थितं मुष्टिकं दृष्ट्वा उत्पततो निपतत- ३ ६३९ उत्पन्नकेवलोऽन्येद्युः १ ५२२ उत्पनजातिस्मरणा ९ ३७५ उत्पाट्य स्वामिशिबिकां उत्पाता विविधाश्चैवं उत्पाद्याऽऽगः सोमभूतेउत्पिङ्गलकचं शैलउत्सर्पिण्यां प्रसर्पन्त्यां उदश्रुस्तं बलोऽप्यूचे उदस्तदोर्लता प्रादुउदुम्बर-वट-प्लक्ष- ९ ३४१ उदुह्य लक्ष्मणां कृष्णो
९१ उद्धवश्च धवश्चैव
१६१ उद्धृत्य नरकान्स्लेच्छेऽ- ६ ३१४ उद्धृत्य सप्तमावन्याउद्यतासी ततश्चोभी
४९६ उद्विग्नौ श्रेष्ठि-ललितो उद्धृत्य नरकाज्जातः
२८७ उत्रिद्रपङ्कजामोदि- ३ ५३७ उन्मत्तसारसद्वन्द्व
१ २७ उन्मुखा दीननयना ९ १७८ उन्मुखीभूय चाऽवोचद् उन्मृष्टाङ्गौ देवदूष्यैउपद्रवन् पुरं सर्वउपयेमे कुमायौं ते उपरिन्यस्तरत्नानि ३ २३७ उपरोधेन कंसस्य
२५८
उपसागरदत्तौको उपसृत्य च तत्कण्ठे उपातिष्ठन्त सर्वेतं उपायनेन तुष्टश्च उपार्जिता युद्धशतैउपास्योपास्य रामषि उपेक्षितः प्रमादेन उपेत्य शङ्खभूपालउभावपि ससरम्भौ उभौ च नीलयशसः उभौ जग्मतुरन्येद्युउभौ श्मशानभूम्यां तो उद्वर्त्यन्तेऽत्रोमिभिश्च उलूक-काक-मार्जारउलूकं नकुलोऽप्यस्त्रैउल्मको निषधः शत्रुउल्मुको निषधश्चैव उवाच कृष्णस्तं देवं उवाच क्रोष्टुकिश्चैवं उवाच खेचरेन्द्रस्तउवाच च नलं नाथ! उवाच च प्रियां तल्पं उवाच च विनीतः सन् उवाच देवी नृपति- उवाच नारदोऽत्राऽऽसीउवाच वसुदेवं सा उवाच शाम्ब को नाम उवाच शौरिः कंसेन उवाच शौरिः सोमश्रीउवाच सार्थवाहं सा उवाच सार्थवाहोऽपि उवाच साऽपि तनयउषा रूपवतीत्वेन उषितं च यदुसैन्यं ऊचिरे रुक्मिणी ताश्च ऊचुर्दशास्त्विं तेभ्यो ऊचुश्च नगरेऽमुष्मिऊचुश्च पाण्डवाः कृष्णं ऊचुश्च यदवो वीरा ऊचे कनकवत्येवं ऊचे कमलिनी युक्तऊचे कृष्ण: साधु यूयऊचे कृष्णोऽपि केयं ते ऊचेच तं मया दत्ता
६
२८८
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३
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१३१
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or
w
३७३
२
१०२ १८९
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३३८
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________________
२०८
ऊचे च दधिपर्णं स
ऊचे च पितरं स्वामिन्
ऊचे च मा विषीदः स्म
ऊचे च मालतीनामा
ऊचे च रथनेमिं सा
ऊचे च रुधिरस्तेऽलं
ऊचे च वत्से ! धिग् धिग्मां
ऊंचे चविष्णुहारोऽयं
ऊचे चित्रगतिश्चित्र
ऊचे चैवं यदूनुच्चे
ऊचे द्विजो दशग्रीव
ऊचे निःश्वस्य सोमश्री
ऊचे मानसवेगः प्राक्
ऊंचे मुनिर्मपालब्ध
ऊचे युधिष्ठिरस्तेषां
ऊचे राजा कुमारेण
ऊचे रामो यथा स्थाम्ना
उसे रामोऽप्युपकार ऊचे विलक्षः कृष्णोऽपि
ऊचे विष्णुः सुतं सिंही
ऊचे शौरिरकस्मात् त्वं
ऊचे शौरिर्विचिन्त्याऽहं
ऊचे समुद्रविजयो
ऊचे सागरदत्तोऽपि ऊचेऽपराजितोऽप्युच्चैः ऊर्ध्वाननो मृगः सोऽपि ऊर्मिकायाः प्रभावेण
ऋतुपर्णनरेन्द्रेण ऋतुपर्णनरेन्द्रोऽथ
एकां दास्यामि ते कन्याएकावित्वं कुतस्तस्य
३
३
३
१
४
३
७
१
७
२
२
२
२
११
७
३
ऋतुपर्णनृपस्तत्राऽभूत् ३ ऋतुपर्णश्चन्द्रया ऋतिक्रीडाभि १
३
ऋषभस्तीर्थकृद्यच्च
९
ऋषिः कृत्वा ऋषिर्बभाषे मा भैषीएकं देवकुलं शाम्ब: एकदा क्षीर डण्डीरा एकमुष्टिप्रहारेण
एकवस्त्रां दवदन्तीं एकस्मिन्वरेतस्य
एकस्य दन्तिनो दन्ते
एकस्याऽपि हि जीवस्य
५
२
५
६
१
१२
३
३
५
७
३
३
३
१
१
९
२
३
९८९
३८५
८९८
३८४
२६८
१८
८३४
३१
२०७
४०६
३४०
५६३
५६८
४६
३७४
५३१
३३
९८
७२
९०
११८
३१३
३४४
३२२
२७७
६५
१९३
८०६
७९५
७५५
१०४२
११०
११९
५४७
३८८
९४
२८२
१००८
४७१
४९१
२८५
३३५
१९
९३९
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
एकाकिन्यहमानीता एकान्तरोपवासस्था
एकाहं तापसास्ते चो
एक्लोल्लाला व एकेककुसुमनरेडा
एको दोषोऽयमस्माकं
एकोनकन्याशतस्य एकोनसप्ततिश्चाऽन्वे
एकोऽपि विष्णुर्हतेव
एकोऽप्यनेकथाभूत
एकोऽप्यनेकीभूयेव
एणीपुत्र इति नाम्ना
एणीपुत्रः सुतस्तेऽसा
एणीपुत्रेणाऽपत्यार्थ
एतत्
ग्नातमिति
एतत् तस्या वचः सर्वं
एतत् सागरदत्तोऽपि
एतद्मयं लक्ष्मी
एतन्न ज्ञातमस्माभि
एतावतिरथो वीरो
एते च सुमन:- सोम
एते हि मध्यमा वाहा
एली मुनि जिघांसन्ती
एत्य चशुरपुरे
एत्य डिम्भो जरासन्ध
एत्य शक्रः पञ्चरूपो
एभिर्देवकुमाराभे
एवं कुमारे वदति
एवं कृत्वा च शक्राद्याः
एवं गम्भीरया वाचा
एवं ग्रीष्मे धर्मभीष्ये
एवं च क्रीडतोस्तत्र
एवं च चन्द्रयशसो
एवं च प्रलपन् राम
-
एवं च यदुवीरेस्ते
एवं च रम्या नगरी
एवं चाऽघोषयत् कंसो
एवं चिन्तयतः शौरे
एवं चिन्ताप्रपन्ना सा
एवं चिरं चिन्तयत
एवं चोक्तस्तेन समं
एवं जाते च ते पूजा
एवं तत्राऽपि ते यावद्
एवं तयोक्तस्तूष्णीको
६
६
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५.
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५७
२२५
७२
६९
२७३
एवं तयोस्तु षड् गर्भान्
एवं तस्य गिरा लोक:
एवं तस्याश्चिन्तयन्त्याः
एवं ता विदधनेमे
एवं तासु ब्रुवाणासु
एवं कृतसङ्केता
एवं तैः साग्रहैर्नेमि
एवं दयाप्रधानः सन्
एवं द्वावपि तौ वैद्यौ
एवं ध्यायन् कृतप्रत्या
एवं नल दवदन्त्या
एवं परीवारकृत
एवं पुनः पुनः कृष्णे
एवं भावयतस्तस्याऽ
एवं भैमी विलपन्ती
एवं महद्ध्या श्रीनेमिः
एवं महान्तं संवेगं
एवं मानसवेगस्तु
एवं राज्ञा प्रतिषिद्धः
एवं लोकवचः शृण्वन्
एवं वदन्तीमपि हि
एवं वार्ततस्तस्मि
एवं विचित्रक्रीडाभि
एवं विचिन्त्य गोविन्दो
एवं विचिन्त्य तां दासीं
एवं विचिन्त्य भगवान्
एवं विचिन्त्य सा हारं
एवं विमृश्य श्री
एवं वियोग: पुत्रेण
एवं विलक्षौ तौ द्वाव
एवं विलप्य बहुधा
एवं समवसरणे
एवंविधचरित्रेण
एवंविधां रावत
एवंविधाऽनुरक्ताऽहं एवमखिति तेनोक्
एवमसिचति तेनोक्ते
एवमस्त्विति राज्ञोक्ते
एवमस्त्वित्यभाषिष्ट एवमाद्यनुशिष्याऽश्रु
एवमुक्तश्च मुक्तश्च
एवमुक्ते तिरोऽधत्त
एवमुक्त्वा कर्मालनी एवमुक्त्वा सार्थवाहो
(प्रथमं परिशिष्टम
१२
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३ २ ३
९३५ ४७०
४२२
प्रथमं परिशिष्टम्) एवमूचे च भो लोका:! एष क्वाऽपि मया दृष्ट एष चन्द्रवतीदेव्या एष ते पूरयाम्यर्थएषाऽप्युवाच मत्पाणि एषोऽतुल्योपकारी हि एषोऽपि तोषितोऽनेन एषोऽपि यदि मे भर्ता एषोऽमितगतिः सोऽहं एहि मन्येऽद्य गन्धर्वएह्येहि मां कुरङ्गाक्षि! ऐक्षिष्ट वसुदेवोऽपि ऐन्द्रेणाऽस्त्रेण वार्ष्णेयक एष वाचावातूल क एष स्वयमाक्षेप कंस इत्यभिधां तस्य कंसं हन्तुं सिंहस्थकंसनाऽन्येधुराहूतः कंसस्तत्राऽन्यदा शौरिकंसस्तत्सौष्ठवाद् भीतो कंसस्य खर-मेषो तु कंसस्य प्रत्यनीकोऽयकंसस्य माता पल्यश्च कंसस्येव प्रियसुहृद कंसाज्ञया युयुधिरे कंसादिष्टमहामात्रकंसायाऽदाज्जरासन्धः कंसारये पाञ्चजन्य कंसेन पूर्वमानीता कंसेन प्रेरितो दृष्ट्या कंसेन सह राजाऽथ कंसेनाऽतिनृशंसेन कंसेनाऽपि हि सत्कृत्य कंसोऽथ भय-कोपाभ्यां कंसोऽप्यवोचदुचितां कक्षान्तरं पञ्चमंच कक्षान्तरे सप्तमे च कज्जलश्यामलकचा कण्टको दारुखण्डं च कण्ठे कुठारं स क्षिप्त्वा कथं कृष्णः परिज्ञेय कथं त्वं चारुदत्तेहाकथं वैरं धूमकेतो कथं स ज्ञास्यते यद्वा
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। ८४ ____ कथञ्चित् तत्र चाऽऽयातो २ ५८ कलाविदः सर्वदेश२५० कथञ्चिदपि चाऽऽपृच्छय १ १९५ कलासक्तश्च तस्यांना ७८३ कथञ्चिल्लब्धसंज्ञः सन्
कलिङ्गसेनादुहितुः कथमप्याप्तसंज्ञः सन्
कलिप्रियः प्रकृत्याऽय३१४ कथमेकाकिनं पुत्रं
कल्पद्रुमः प्रणयिनां १८० कथयिष्यामि समयं
कल्पद्रुमैर्वृताः सर्वे कदम्बपुष्पपर्यङ्क
९ २४७ कल्पवृक्षविशेषेण कदम्बोऽपि हि सन्नह्य
कल्पितमानसवेगाकदाचित् सुहदी भूत्वा
१५४ कल्याणि ! भणसि त्वं चेत् २१७६ कदाचित् स्याद् यदि पुन- ३ ४८२ कश्चिदर्थो न नो गोर्भि कदापिनच सोऽभुक्त
२०८ कश्चिदामलकस्थूलकदाऽप्यगात् कर्णपथं
कस्यापि प्रावृषं यावत् कनकप्रभराजेन
६ २०७ कस्याऽप्यनल्पपुण्यस्य १ ४०६ कनकप्रभराजोऽपि ६ २२० का वश्चिन्तेति तानुक्त्वा
कनिष्ठं दुर्दशामग्न ११ १४२ का सपत्नीषु तेऽभीष्टा कन्यका गृह्यतामेषा
काचिच्च नलीनीनालं कन्यां कनकमालाख्यां
कादम्बरीगुहायोगाकन्यां कलाकलापाम्बु
काभिश्च विलगन्तीभिकन्यां नीचकुलां काञ्चिद् ११
कायोत्सर्ग स्थितोऽयं हि कन्योद्वाहप्रत्याख्याना
कार्य सुखार्थिना धर्म ५ २२१ कपिभृत्पुरुषो भूत्वा ६ ४१४ कालं कियन्तमप्यस्थां कपियूथपतिः सोऽपि
कालियाहे: स दमक५ ३३० कपिलस्तत्सभासीनो
काले च सुषुवे पुत्रं ५ २६२ कपिला नाम कन्याऽस्य
कालेन गच्छता लक्ष्मी५ २७४ कपिलो विष्णुरेषोऽह
कालो भ्रात्रा यवनेन ५ २६७ कमलं तत्र कमल- -
काष्ठादिहारकास्ते च कलिन्यब्रवीदत्र
काष्ठे त्वा तत्र गन्त्री५ ३९५
कमलिन्याललापैवं १४० कास-श्वास-ज्वर-कुष्टा- ५ ३१४ कमलेन हता सेति १ २०० काऽप्येषा रोदिति स्त्रीति करास्फोटं व्यधुः केऽपि
काऽसीति भामया पृष्टा २ १०५ करिष्ये त्वां तदधिका
किं करोमि ? क्व यामीति ५ ३२४ करीर-बदरीप्राय
३ ५६९।। किं करोमीति तत्पृष्ट करेणोल्लालयामास ३ ३२७ किं केतुमञ्जर्याज्ञां ते ५ ३०१ करोति विरतिं धन्यो
३६० किं च साऽपि स्नुषा राजी- करोमि भस्मसादेषां
२२८ किं चाऽन्यैाहतैीरेकर्णोऽथाऽऽकर्णमाकृष्ट- ७ ३३२ किंचाऽयं सप्तमो गर्भः १४१ कर्तिकादारुणकरं
५९४ किं चिन्तयसि वत्सेति ३३५ कर्मच्छेदः परिव्रज्यां
१९९ किंतु राजसभावेन ३५० कर्माऽन्तरायमर्जित्वा
किं दृष्टा द्रौपदी क्वापी४७४ कलभः शरभस्येव
किं द्वारका पुरी दग्धा ? कलभेनेव कृष्णेनो
किं पित्राऽहमिह क्षिप्त २ २६१ कला गृहाणाऽभिनवाः
किं प्रत्युपकरोम्येष ६१५३ कलाकलापमखिलं
किं युग्मिनां विघटन१ २१२ कलापताडनाव्यात्त- ३ ९२७ कि रोदिषीति विप्रेण
२ ५
२३९ २०७
०
०
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६ १
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६ १० ९ ७
२१६
३
२३०
४०
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१७० २२२ ९६४
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२१०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
४८९
४९२
३८
१६०
८
२५१
४१७
१७८
१० १२ ५ ३ ७ ५ ७
२८८ १४ ३९२ ३६० १५५ १२६ ३९९
३४८
४०९
किं विद्यासिद्धिहेतोस्ते २ किंकारणो वरोऽसावि- २ किञ्चित् सभयसम्भोगाद किञ्चिदग्रे परिक्रम्य किञ्चिदग्रे पुनर्भूत्वाकिन्तु ते देवकी माता किन्त्वितो योजनशतकिनरस्वरचाण्डालकिमज्ञो नीरसो वाऽसि किमन्यद् यस्य रूपेण किममूभिरिति ध्यात्वा
५३ किमात्मगोपनं कृत्वा किमेतदिति कृष्णेन किमेतदिति कृष्णेन १० २९३ किमेतदिति तेनैकः
४९९ किमेतदिति पृच्छंश्च किमेतदिति पृष्टश्च किमेतदिति भामोक्ता
४७३ किमेतदिति साश्चर्य ६२८६ किमेतदिति सोदयः ५ ३२० किमेवं खिद्यसेऽम्बेति किमेवं विमना मातकियत्यपि गते काले कुतः फलानीदृशानि कुन्ताग्रेण प्रदत्तोञ्च्छं कुन्ती गत्वा तदाचख्यौ कुन्त्यप्यूचे सपुत्राऽपि ६ ३६९ कुब्नः प्रोचे कोशलायां
१४५ कुब्जेन पृष्टः श्लोकार्थं ३ ९६५ कुब्नो जगाद हे राजन् ! कुब्जो जगाद हे राजन् ! कुब्जो दध्यौ सती भेमी ३ ९८७ कुब्जो नलोऽसीति पृष्टः
१०३१ कुब्जो बभाषे तोतन् ३ ९४२ कुब्नो यथा खेदति
९७४ कुब्नोऽङ्गुल्या स्पृशतु १०३० कुब्जोऽप्यपातयत्तानि
१०१० कुब्जाऽप्युवाच हे राजन् ! ३ कुब्जोऽवादीत् तदाकर्ण्य कुब्जोऽश्वहृदयविद्यां
१०११ कुमारं दोर्बलाज्जेतुं कुमारं मन्त्रिसूर स्माह १ २७६ कुमारस्त्रोटयामास
३०२ कुमारस्वद्वियोगातों
३४१
कुमारे निःस्पृहे सूर
३२४ कुमारोऽपि समुत्पत्य
४०८ कुमारोऽप्यग्रतो गच्छ
३२७ कुमारोऽप्यब्रवीत् ते दो
५०३ कुमारोऽप्यश्रुपूर्णाक्षः कुरुषे चेत् प्रसह्येवं
४५९ कुरोः सुतोऽभवद् हस्ती
२६५ कुर्याद् गज मे यो वश्य
९१९ कुर्वन् द्यां विद्युदावतकुलक्रमागतमपि कुलामात्या अपि न किं कुशलं तातपादाना
४२० कुशलः कुशलेनाऽथ ३ ९७३ कुशाग्रीयमतिः शङ्ख
४७० कुसुमायुधपुत्रोऽयं
३४५ कूपान्तः प्रविशाऽऽदत्स्वा- २२९ कूपे तं क्षेप्तुमारेभे १२ ४० कूबरः स्वकुलाङ्गारो कूबरेण विसृष्टश्च
३ ८१४ कूबरोऽथ नलं प्रोचे
४५४ कूबरोऽपि रणशङ्का
१०५६ कृतं च रोषपरुषं कृतकृत्रिमकोपा ता कृतखेचररूपाणां ८६९ कृतप्रणयकोपोचे कृतवेषान्तरः शौरिकृतशोषप्रतिज्ञश्च कृतषष्ठः कचोत्पाट ९ २५१ कृताञ्जलिः सुमित्रोऽपि कृतान्त इव द्रुष्प्रेक्षो कृतान्यरूपस्तत्राऽस्थात् कृतार्थं तं द्विजं कृत्वा
१३७ कृते नः पौरुषायत्तं
८२ कृतोत्तरीयपर्यङ्ककृत्रिमैः पुत्रकैनित्यं कृत्वा च परिधौ तेषां कृत्वा बालतपो मृत्वा कृत्वा विद्याबलादग्नि कृत्वा स्वरूपं शाम्बोऽपि कृत्वाऽवमाननां तेच कृपाणपाणिः स प्रोचे कृपाया एक आधारो कृपावान् राजपुत्रः प्राकृमिरागांशुकभृतां
१४०
कृष्णं ननाम प्रद्युम्नो कृष्णं न्यषेधद् रामोऽपि कृष्णं पराङ्मुखं यान्तं कृष्णं वा कृष्णजातं वा कृष्णं सतृष्णं पश्यन्ती कृष्णं सोलूखलं पेष्टुं कृष्णः कृतावहित्थोऽथ कृष्ण: कृष्णाज्ञयाऽन्येच कृष्ण: कोऽसाविति तया कृष्णः पालक-शाम्बादि- कृष्णकायं वहन्त्रर्चन् कृष्णपत्नी सत्यभामा कृष्णराजोऽथ तद्वारिकृष्णवमेव कृष्णोऽपि कृष्णसान्निध्यकारिण्यो कृष्णसेना पलायिष्ट कृष्णस्तत्परिघं गृह्णन् कृष्णस्तदाग्रहं ज्ञात्वा कृष्णस्य क्रीडतोऽन्यधुः कृष्णस्य ढण्ढणापत्न्यां कृष्णाग्रजमनाधृष्टिं कृष्णाग्रजोऽपि चोत्तीर्य कृष्णाङ्गत्वात् कृष्ण इति कृष्णाज्ञया समीपाद्री कृष्णादीनां स आचख्यो कृष्णाय याचमानाया- कृष्णायाऽदात् सुरो भेरीकृष्णाशयज्ञो वीरोऽपि कृष्णाश्वेन रथेनाऽयकृष्णे गतमनस्कत्वात् कृष्णेक्षु-नागरनाढ्ये कृष्णेन दर्शिता तस्याः कृष्णन दीयमानां तां कृष्णेन प्रेषितो रामो कृष्णेन यदुभिश्चान्येकृष्णेनाऽन्येधुरायातो कृष्णेनेत्युच्यमानोऽपि कृष्णेऽभिलाषां रुक्मिण्या कृष्णो बभाषे रुक्मिण्या कृष्णो रामः कुमाराश्च कृष्णोऽत्यगाधवारिस्थाकृष्णोऽथाऽवोचदेह्येहि कृष्णोऽध्यैष्ट धनुर्वेदकृष्णोऽन्यदा वसन्तः
५
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२११
४
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२२ ४५३ २१९
६
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४४५ ७०३
२६७ ८२ ४७२ २६३
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११
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२५९
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२६७ २३२
२६४ १४४ ३९४ १२९
७ १०
कृष्णोऽपि कृत्यमूढोऽस्थाद् १० कृष्णोऽपि जातकारुण्यो कृष्णोऽपि दध्यौ मत्पुत्र्यो कृष्णोऽपि द्वारकापुर्या कृष्णोऽपि नेमिना साधं कृष्णोऽपि पादं शिरसि ५ कृष्णोऽपि मुदितोऽगच्छ- ६ कृष्णोऽपि रुक्मिणीमूचे कृष्णोऽपि सर्वमाचख्यो कृष्णोऽपि सह रामेण कृष्णोऽपि स्वामिनं नत्वा कृष्णोऽपि हत एवेति कृष्णोऽपि हास्तिनपुरेऽकृष्णोऽपि हि बभाषेत कृष्णोऽप्यम्भोधिमुत्तीर्य कृष्णोऽप्युवाच कुपितो कृष्णोऽप्युवाच तामेवं कृष्णोऽप्युवाच ते कन्या कृष्णोऽप्युवाच भगवन्! कृष्णोऽप्युवाच यद्येवं कृष्णोऽप्युवाच सर्वज्ञो कृष्णोऽप्युवाच हे भ्रातकृष्णोऽप्यूचे गच्छ राजन्! कृष्णोऽप्यूचे जिता यूयं कृष्णोऽप्यूचे तदानीं ते कृष्णोऽप्यूचे दक्षिणाब्धे कृष्णोऽप्यूचे मेति कार्षीः कृष्णोऽसहिष्णुस्तं दर्प केचित् कङ्केल्लिशाखावकंचित् कलकलं चक्रू केनेयं ताडिता भेरीकेवलज्ञानिनौ तत्र केवपि हि विज्ञाय केवल्याख्यत् कोशलायां केवल्याख्यद् धनभवे केवल्यूचे यशोभद्रकेशदानपणः सोऽद्य केशदानविप्लवेन केशार्थ तत्र मां प्रेष्य ६ केऽपि गाढरतश्रान्ता केऽपि श्रावकतां भेजुः कैरप्यहाभिस्तरणि को न्वसो मेऽप्यलमिति
कोलिकस्त्वं न वेत्सीति १०
कोशलानामधीशोऽयं ३ ३४६ कोशलाया: परिसर
३९१ कोऽप्युपावीणयन् कोऽपि
४८ कोऽप्येष इति नो विद्यो
४८२ कोऽयं मुमूर्षुर्दुर्बुद्धि
४८८ कोऽयं मृत इति राज्ञा कोऽयमाप्याययति माकोऽसाविति च कंसेन को नु देवोपमावेता
७३ कौतुकाच्छङ्खमादित्सुं ९ कौमारान्तः षोडशाब्दानि कौमारे त्रिवर्षशती कौशलं गजशिक्षायां
९७७ क्रन्दन्तः सपरीवारा:
१३८ क्रमयोगेन वृष्टेश्च क्रमात् कलाः स जग्राह क्रमादुत्तीर्य कालिन्दी क्रमुको नागवल्ल्येव क्रमेण तमिहाऽऽयातं क्रमेण दवदन्त्यष्टाक्रमेणाऽन्येऽपि मञ्चेषु क्रिया-कारकगुप्तज्ञा क्रीडतोऽस्य नगोद्याने क्रीडन् कलायां कस्याञ्चिङ्ग ३ ५४४ क्रीडन्तं भ्रातरं पश्यंक्रीडापर्यटनेनाऽपि २ १२१ क्रीडार्थ सा च गङ्गायां क्रुद्धः कृष्णोऽपि कमलाक्रुद्धः सुतपराभूत्या
१ २०२ क्रुद्धा मदनवेगा द्राक्
४६८. क्रुद्धाः प्रजहुरारक्षा
२८१ क्रुद्धो हिरण्यनाभोऽपि
३५३ क्रुद्धोऽभ्यधाच्च गोविन्द
३५१ क्रोध एव महाशत्रु- ११ ३४ क्लृप्ताङ्गरागो गोशीर्ष
१४६ क्व भोः कुमार! यासीति
४७२ क्व मे भ्राता गज इति १० १३८ क्व यासि देवरेदानीखड्ग-खेटकभृच्चाऽऽगा
८३ खड्गं च मुकुटं चाऽथ
४०४ खिनां प्रेक्ष्य स तामूचे खे दृष्टं कोशलोद्यानं खे बलाकाभ्रमकरैः ३ १८७ खेचराश्च तदाऽभ्येयु- १ ५०६
खेचरेन्द्रो दधिमुखः खेचरोऽङ्गारकस्तत्र गङ्गदत्त इति नामागङ्गा तच्चिन्तितं ज्ञात्वा गङ्गा सत्यवती चेति गङ्गामध्ये गतः श्रान्तः गच्छंश्च पुरमध्येन गच्छतश्चाऽब्दकालोऽय- गच्छतो निषधस्याऽस्त- गच्छतो मत्तवृषभान् गच्छन्तमन्यदा मार्गे गच्छन्तौ तस्य शेलस्य गच्छन्त्यवश्यं तेऽधस्तात् गच्छन्त्यास्त्वरितं तस्या गच्छे: स्वच्छाशये! वेश्म गजा-ऽब्धि-सिंह-शशिनो गजादुत्तीर्य कृष्णस्तं गजारूढं च तं दृष्ट्वा गजे परिणते तस्मिन् गजे प्रव्रजिते चाथ गजो-क्ष-सिंह-श्री-दामगतः स्मरातः स्वं स्थानं गतश्च नारदस्तत्र गतागतं तद्रथयोगतामुपमयूरंच गते विहर्तुमन्यत्र गतोऽथ कृष्णः स्वं स्थानं गत्या गिरा च हंसीव गत्वरं यौवनमपि गत्वा कंसाय साऽऽचख्यो गत्वा च कथयामासुगत्वा च विष्णुना पृष्टः गत्वा नत्वा धनवत्यै गत्वा नत्वा महेन्द्रषि गत्वा परिणय त्वं तागत्वा ववन्दे सद्यस्तं गत्वा शौर्यपुरे सप्तगत्वा स आख्यद् भामायै गत्वोखरप्रदेशे च गदां चिक्षेप कौबेरी गन्तुमापृच्छ्यमानौ हि गन्धद्रव्यं कुमारेदं गन्धर्वसेना तत्राऽऽगाद गन्धर्वसेना तद्रूपं
४४४ ३३७ ३६८
२७७ ५३ ४९१
९
३००
४०४ १०५
६८४
६
१८२
५२६ ६८२ ४७६ १०८ ४८०
५
३६४
७ १ २
२९२ २७२ १२५
०५३
१०१८
३४ २३६
१८०
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________________
२१२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम्
३८३
१०८
४४२
५९
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१६३ १७७
१८५ ३०२
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३६४ २११
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६.
गन्धर्वसेना तो प्रेक्ष्य
३०४ गौरीवंशोद्भवस्तत्र गन्धारेषु हरिर्गत्वा
ग्राम-कर्बट-खेटादि गतेषु लिलियरे केऽपि
ग्राम-खेटादिदानेन गवाक्षलीनमथ तं
३ ३८ ग्रामस्याऽस्य वनस्थल्यां गह्वराणि गिरेस्तस्या
३६२५
ग्रीवायां रज्जुभिर्बद्धाः गान्धर्वे यो विजेता में २ १६८ ग्रीष्मकालातपा घोराः गान्धर्वेण विवाहेन
___घातेन विधुरं तेन गान्धारसैन्धवबलं
७ २३७ घोरान्धकाररुद्धाक्षेः गान्धारी नाम तस्याऽऽसीद १०६ घ्राणे नलिननालेन गायदारामिकारम्यै १ २८ चकर्त शल्यो बाणेन गायन्तीषु च गोपीषु ५ १६८ चक्रं तदागतं सद्यो गारुडेनेषुणेषु त
चक्ररत्नमिवाऽभेद्यं गिरिशृङ्गस्थितो वेणुं
१६७ चक्रव्यूहः स चाऽभञ्जि गिरिषु प्राविशन् केऽपि
चक्रव्यूहप्रतिद्वन्द्वं गिरिसारानप्यमून् य
चक्रुश्चितां च नैर्ऋत्यागिरेरेकस्य च प्राप्य ३ ६०९ चक्रे चित्रगतिश्चित्रां गीतार्थोऽभूत् क्रमाच्छङ्ख
चक्रे तत्र सहस्रारे गीयमाने जरासन्धे २ ४५४ चक्रे तत्राऽऽपतत्युच्चैगुणानभिज्ञा चेदेषा
चक्रे नैसर्गिकं रूपं गुरुस्तद्गन्धमाघ्रायो- ६ ३०१ चक्रोत्खाता येन गङ्गा गुरूणां क्षमणार्थं तु २ १३२ चण्डवेगस्य गङ्गायां गुर्वनुज्ञां गृहीत्वैक:
चतुरब्दशतीं गेहे गुहायामागतस्तस्यां
३ ६१४ चतुर्ज्ञानधरं तत्र गृहवासं परित्यज्य ११ १५९ चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमादिगृहाच्च कमलामेला
चतुर्थादितपःप्रान्ते गृहाण स्वप्रियमिति २ ३२० चतुर्विशतिमप्यर्हद्गृहाण स्वरमित्युक्तो
९९४ चतुष्पुरुषपर्यन्ते गृहीतश्च तया वेगात्
४७३ चत्वारिंशत् सहस्राणि गृहीत्वाऽलक्तकप्रायं
२४७
चन्द्रयशाः पुष्पदन्त्या गृहे च तामपश्यन्तो ८६८ चन्द्रलेखेव विमला गृहे च नीत्वा तेनर्षिः १ १२५ चन्द्रातपोऽपि तत्कालं गृहे प्रियङ्गसुन्दा
५१९ चन्द्रातपोऽपि सर्वाङ्गगृहे बहिर्वा मार्गे वा ९ ३१८ चम्पकाऽशोकबकुलागृहेऽपि कनकवत्या- १० १५१ चम्पेशो भोगवंश्योऽयं गृह्णती पाणिपोन
चरून सूर्यातपे मुक्त्वा गोदायां पतितः शौरि
चाणूर-मुष्टिकाभ्यां च गोपा अप्यूचिरे स्वामिन् !
चाणूरस्तेन घातेन गोपाल इव गोपुच्छ २२४२ चाणूरो वान्तरुधिरगोपावेतौ राम-कृष्णौ ५ ३३१ चाण्डालाभ्यां वरं ताभ्यां गोपीभूयाऽमरः सोऽग्रे
चापाधिरोपणाद् दून: गोपूजाव्याजतो नित्यं
१२२ चामरे तत्र दध्राते गोविन्दस्य करास्फोटः
चारणश्रमणश्चैकगौरी तमूचे सर्वत्रा
चारणश्रमणादीनां गौरी नाम महाविद्या ६३८४ चारणाधिष्ठिते चाऽत्रा
चारणैः स्तूयमानौ तौ चारु मातृगृहं दिव्यचारुचन्द्रः सुतो वेश्याऽचारुदत्तस्ततः श्रेष्ठी चारुदत्तादिति श्रुत्वा चिक्रीडुर्विविधं तत्र चिखादिषति यो मांसं चितासमीपे नीतश्च चित्रदृष्टं वसुदेवं चित्रस्थधनरूपेणाचित्राङ्गद-चित्रवीयों चित्राण्युत्पेतुरस्त्राणि चिन्तयन्ती क्व मे भर्तेचिन्तयामास चैवंस चिरं चिक्रीडतुर्वीराचिरंतप्त्वा विधायाऽन्ते चिरं युवा जरासन्धचिरात् प्राप्तेति जीर्णेति चिरादुभौ च क्षीणास्त्री चिरायितं किमद्येति चिल्ली हारमिवाऽहार्षचुत्कू(कू)न्दिरे यदानन्दं चैत्यद्रव्यद्रुतिः साध्वीचैत्यवन्दनपर्यन्ते चैत्यानि च विचित्राणि चैत्रस्य शुद्धपञ्चम्यां चैत्रे स गच्छन्नुद्यानं चौरोऽपि नत्वा वैदर्भीच्युत्वा च हास्तिनपुरे च्युत्वा चाऽभूद् द्रौपदीयं च्युत्वा ततोऽपि संसारं च्युत्वा भाव्यत्र भरते च्युत्वा मम्मणजीवोऽथ च्युत्वा शुक्राद् गङ्गदत्त- च्युत्वा सुदर्शना साऽपि च्युत्वाऽभूतां गजपुरे च्युत्वाऽऽरणात् सूर-सोमाछलयित्वा सुरैरेव छागं वृक इवोत्क्षिप्य छिद्यते दुःखमन्यस्य छुर्या तदा च नृत्यन्ती छेकः केतकपत्राणि जगाद च नलं वत्सः जगाद जाम्बवत्येव
o
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२८० ७३७ ४३७
or
९९१
३ ३ २ १२ ३ १
६१२ २३५ २३० १०१ ७६७ २२
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३०३ ७८४ १९८ ३५५
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३४०
३ ५ ६ ६
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२९८ ३००
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२२२
२५
२७८
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३३०
५ ३
१७५ २४० ३२२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२१३
२
३०
३
८५७ ६ ४२९
२
३६
५
३ २ २ २
१४३ ८७ १० २६४
१३० ५४४ १४९ १५०
७ २ ७
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३१५ ६३१
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३६३ ८४९ ४५ २२९ १५४
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३८२
१०६८
जगाद नारदः साधु जगाद प्राञ्जलिः कंसः जगाम कमलामेलाजगाम धाम भामायाः जगाम नन्दिषेणश्च जग्राह च कला: सर्वा जग्राह दधिसाराणि जघान क्रीडयन्नित्यं जज्ञिरेऽन्धकवृष्णेश्च जज्ञे जयजयारावः जज्ञे राज्ञां कलकलो जज्ञे विवाहः पुण्येऽह्नि जनप्रवेशं रुक्मिण्या जनयित्वा च किं भग्नः जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं जन्मतः सहसंसिद्ध जन्मतोऽपि भवोद्विग्नो जम्बूद्वीपस्य भरतजम्बूद्वीपस्य भरते जम्बूद्वीपस्य भरते जम्बूद्वीपार्धभरतेजम्बूद्वीपे द्वीपेऽत्रैव जयसेनप्रभृतीनां जयसेनोऽथ सङ्क्रुद्धः जयसेनोऽपि तस्याऽऽशु जयामि मेदिनीमेनाजरत्कुमारः कनकजरत्पान्थ इवाऽहं तु जराकुमारः कृष्णेनाऽजराकुमारात् कृष्णस्य जराकुमारो नाम्नाऽहजरासन्धः कासरवद जरासन्धः क्रूरसन्धो जरासन्धः सिंहरथाजरासन्धः स्वसामन्त- जरासन्धप्रभृतिषु जरासन्धमथ क्रुद्धं जरासन्धमथोपेयुः जरासन्धसुता अष्टाजरासन्धस्य कन्येयं जरासन्धाय तच्चक्र जरासन्धार्पितबलो जरासन्धेन पृष्टाऽथ
जरासन्धेन पृष्टोऽथ
जरासन्धेन सत्कृत्य
११४ जरासन्धो निशम्याऽथ जरासन्धोऽथ साशङ्क जरासन्धोऽभ्यधात् पुत्रि जलाघातेन तामत्वं जले स्थले वा छायाया
५५७ जलुसूर्यज्ञदेवोऽय
३४३ जह्येनं स्वयमुत्थाय जाज्वल्यमानः क्रोधेन जातं जातं सुतं मेऽसौ जातमात्रोऽपि मत्पादौ २ ५०२ जातश्च पुत्रः श्रेष्ठिन्या जातश्रद्धोऽथ निषधः
३८९ जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु- ३ ५९८ जातिस्मरत्वं सम्प्राप्तः जाते कलकले शौरि- २ ५६६ जाते गर्भ सपत्न्या च जाते प्रभाते तेऽपश्यंजाते शक्रमहेऽन्येद्युः जाते सर्वास्ववैफल्ये ७ ४४६ जातौ चाऽस्माद् राम-कृष्णौ ७ जाती विजयसेनाया जात्यवाजिवणिग्भूत्वा ६ ४१७ जामेय ! यमवक्त्रं किजामेयी दवदन्ती मे जाम्बवत्सूनुना विष्वक्जारेयं न्यस्य ते राज्ये जारेये च गते पादजिघत्सोः प्रसृते तस्य ५ २१९ जिघांसुतं बलो ज्ञात्वा
२९७ जितः शुश्रूषको जेतु
२७७ जितशत्रुनृपामात्यः
४१८ जितशत्रुमथाऽऽपृच्छ्य
४२५ जितशत्रुर्नृपोऽन्येधुजितशत्रुर्बभाषेतं जितशत्रुस्तया रन्त्वा
१८८ जितश्रमो नलो जातजितारितिवृत्तान्तो
५१५ जित्वाऽऽरूढो गजंताभ्यां १५४ जिनं जिनं प्रत्यकार्षीत् जीर्णखण्डस्यूतवासा जीवन्मूल्येनाऽपरेधुजीवश्चित्रगतेः सोऽथ १ २६४ जीवेदष्टसुता चाऽह
८ ७ ७ ३ ७ ९ १२
१२
२५ ३५० ३५२ ४३८ ३८३ १९८ ३२
७६
जुगुप्साकर्मणा तेन जृम्भकैः पालितो बाल: ज्यायांसोऽपि लघूभूय ज्येष्ठेन रक्षिताऽस्तीयं ज्योतिष्काणामिव पतिः ज्योत्स्नासहोदरक्षीर ज्वलनप्रभभार्या तु ज्वलनस्य विमलायां ज्वलनोऽप्यशनिवेगं ज्वलितज्वलनाभ्यणे ज्वालानां नान्तरं तत्राज्वालाशतदुरालोकं ज्वालाहस्तैननतेव ढण्ढणोऽप्येत्य सर्वज्ञं तं गृहीत्वा करे गाढ तंचधर्म तयाऽऽख्यातं तंच लुब्धं द्रोहिणं च तंच व्यतिकरं ज्ञात्वा तंच स्वप्नं हरे रुक्मितं च स्वस्थं प्रणम्योचे तं चित्रगतिरालिङ्गय तंछायास्थण्डिले मुक्त्वा तंजगाद बलो भ्रात- तंत्रिः प्रदक्षिणीकृत्य तं दिग्भ्यः सम्पदोऽभ्येयुः तं द्रष्टुं कौतुकाद् राज तंनत्वर्षि लोहिताक्षतं नत्वा विक्रमो वेश्म तं पश्यन्त्यो यथा गोप्यो तंप्रत्युवाच देवोऽपि तं प्रेक्ष्य केशवोऽवोचतंमध्येकृत्य हल्लीसं तं मातङ्गगणादेत्य तं माहेन्द्रेण बाणेन तं मुमोच च सा हस्तात् तं मूर्ख इति सुग्रीवो तं वज्रेषु विमुच्याऽऽशु तं शत्रु दर्शयामास तं शब्दमभिगच्छंश्च तं शीर्णहारं निष्पिष्टतंशृङ्गयोर्गृहीत्वाऽऽशु तं श्रावकं बन्धुमिव तंसामन्तपदे कृत्वा तं सार्थं तैः सहाऽऽगाच्च
५१७
५१३
१५८
११ ७ ७
१३४ ४११ १५३
99 mw&&33 Mrwmar
५ २
१५७ ३०६ २९४
३७६
४४० ४
१७२
५ ७
३६७ ३७२
५ ३ ५
२७२ ८८३ २३६ २१५ ७३४ ८१३ ७२५
२ ५
१०७ ३३६ ३७७
३ ३
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________________
२१४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
२१२
१२
१०८
६६ ३४२
३६९२
४४९
८२२
५७
३१७
१ ६ २ ३ २
२१ ३१० ४९४ ८०३ १३४
१०
२५९
११६
६ ३२१ ५ ३२१ . ७६०
५
१३१ २०६ २१४ २२६
३००
५
६६०
२
७७ ३९४ ३९९ २९ ७८ २५३ १६२ ७६
२१९
४
तं स्मित्वोवाच चन्द्राभा तं स्वर्णरथमारोप्य तच्च श्रुत्वा जरासन्धः तच्च श्रुत्वा जीवयशा तच्च स्खलयितुं कृष्णो तच्चक्रकृत्तमपतन्मगधेतच्चरित्रं श्रुतपूर्वी तच्चाऽज्ञासीच्चरैः कृष्णो तच्छङ्खध्वनिमाकर्ण्य तच्छ्रुत्वा कुपितः कृष्णः तच्छ्रुत्वा कुपितो रुक्मी तच्छ्रुत्वा खेचराः सर्वे तच्छ्रुत्वा जातसंवेगो तच्छ्रुत्वा दानशालायां तच्छुत्वा देवकी निन्दतच्छ्रुत्वा नन्द ऐक्षिष्ट तच्छ्रुत्वा पितरौ कृष्णोतच्छुत्वा प्रतिबुद्धः स तच्छ्रुत्वा मदनवेगातच्छ्रुत्वा राक्षसवधूतच्छुत्वा रुक्मिणी कृष्णे तच्छ्रुत्वा रोहिणी रोहत्- तच्छुत्वा विस्मयापनोऽतच्छुत्वा शाम्बकुमारः तच्छ्रुत्वा शाङ्गंभृत् तत्र तच्छ्रुत्वा श्रद्दधद्धर्म तच्छुत्वा सर्पिणी साऽपि तच्छुत्वाऽचिन्तयं चाऽहं तच्छुत्वोत्कण्ठिता जज्ञे तज्जन्मनः प्रभावेण ततः कालं जरासन्धो ततः किञ्चिद् गते कृष्णे ततः कुब्जाय तुष्टोऽदाद तत: कुमारस्तेनाऽऽत्तं ततः कृष्णः सरामोऽगात् ततः कृष्णो रुदन् भ्रातुः ततः क्रुद्धः खेचरेन्द्रो ततः क्रौष्टुकिनाऽऽख्याते ततः खिन्नान्निषण्णाच्च ततः परं यद् भवद्भिः ततः परमजानाना ततः परस्तादर्वाक्च ततः परिवृतौ गोपै ततः पाण्डुर्दशाहाँस्तान्
७६
ततः प्रपेदेऽनशनं ततः प्रभृत्यसो मौनततः प्रमुदितो रुक्मी ततः प्रव्रजितोऽमुष्पाततः प्रातः कुबेरोऽदाद् ततः स दूतः प्रययौ ततः स निरगात् क्रुद्धो ततः स मुदितस्तेन ततः सकोपा वतिनो ततः सङ्ग्राम आरम्भि ततः सञ्चरता राजततः सन्तमसन्तं वा ततः सपाण्डवो विष्णुततः सबन्धुरभ्येत्य ततः समुद्रविजयः ततः सुप्तेषु लोकेषु ततः सूदा मृतार्भस्य ततः सोऽतिशयज्ञानोततः स्थानाच्च गोविन्दः ततः स्थानान्मयि गते ततः स्वदेशाभिमुखं ततः स्वयं बलोपेन्द्रौ ततः स्वाम्यर्थकुशलं ततश्च कनकवतीततश्च कृतकृत्येव ततश्च कृष्ण-चाणूरौ ततश्च कोशलाधीशे ततश्च गत्वा स्वावासे ततश्च गन्तुमारेभे ततश्च चन्द्रयशसा ततश्च चन्द्रयशसि ततश्च ते युयुधिरे ततश्च त्वद्वियोगार्ता ततश्च देवः सिद्धार्थततश्च देवकी दध्यौ ततश्च नलराजस्य ततश्च पृथ्वीकायादिततश्च प्रययौ नेमिततश्च भीमतनया ततश्च भीमो निषधं ततश्च रुक्मिणं रामो ततश्च रुक्मिणी देवी ततश्च ललितजीवो ततश्च वन्दितुं नेमि
ततश्च शोकसन्तप्तः ततश्च स्मृत्वा प्रज्ञप्ति८ ततश्च स्वामिनाऽऽदिष्टौ ततश्च हरिणः सोऽभूततश्च हरिमित्राख्यततश्चन्द्रातपश्चन्द्राततश्चास्तंगते पाण्डो ततश्चाऽत्रैव चम्पायां
६ ततश्चाऽस्नपयच्चन्द्रततश्चोत्पन्नवैराग्य: ततश्च्युत्वा नन्दिषेणततश्च्युत्वैष चण्डालः ततस्तं मातुलोऽवोचत् ततस्तक्षशिलाधीशं ततस्तां लोक इत्यूचे ततस्ताभ्यां दशवर्षः ततस्तृतीययामिन्यां ५ ततस्ते कुपिता: सर्वे ६ ततस्ते कुपिताः सर्वे ११ ततस्ते नावमारुह्य १० ततस्ते साधवो नेमि- १० ततस्तौ तस्थतुर्लज्जा- ६ ततस्तो तामुपादाय ७ ततस्तौ पितरोऽवोचन् ततो गते चण्डवेगे २ ततो घोषणया राजा ततो दवानले दीप्ते ततो धन-धनवतीततो नत्वा प्रभुं कृष्णः ततो नलः कदम्बश्च ततो नलः सुसुमार- ३ ततो नलोऽमलयशाः ततो नाऽऽगन्तुमर्हाम ततो निर्विषयांश्चक्रे ततो नेमिर्दयावीरो ततो बभाषे कृष्णस्तं ११ ततो भ्राम्यन् ययौ शौरिः ततो मत्कथितं धर्म ततो मन्त्रबलाच्छौरिततो मयाऽपितालाबु २ ततो मुमूर्छ गोविन्दो १० ततो मुमोच कौन्तेयः ७ ततो मुमोच हुंकारां ३ ततो ययुः स्वकार्याय
४२९
२४१ २८९
५
३६७
३
३८३
२६३
३
५२ २९४ ३६९
३ १०
८२७ ४८ ६५
४२५ ९१५ ९३० ४६६
१४०
४७६
१०
१०८ ।
१७५
४३३
८
८५
३१६
९
१
४९९
२४५ १०३६ ३७०
१४८ ३७७ २५६ ५८० २३४ १३९ ३१४ ५७८
१२१
३
२
४६४ १०७ २६६ ३५८
२३
२११
३७
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२१५
२
३८१
१
११२
२५० ६७२ १९३ २१
५
४७०
९ ६
२५७ २३२
७८ १३३ १२४ १०४३
७
९
३
८५९
२६०
१२
१
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१०
५
१६४ ११९
२ १० ८
२६२ ८२९ ३५८ २७२ २९
ततो ययौ जाम्बवती ततो राज्येऽन्धकवृष्णिः ततो रुक्मिणमापृच्छ्य ततो रुद्रोऽवदन्नाऽतो ततो विपद्य सौधर्म ततो विरक्तश्चण्डालो ततो विरक्ता जगृहुः ततो विषण्णा सामर्षा ततो विहर्तुमन्यत्र ततो वृष्टाब्दतोयेन ततो हतेमौ रुधिरततो हतः सूर्पकेण ततो हष्टस्तमर्चित्वा ततोऽगाद् द्वारकां कृष्णो ततोऽजष्टङ्कणेऽभूवं ततोऽज्ञासिषमवधे ततोऽज्ञासीन् मृतं बन्धु ततोऽधावत् स्वयं कृष्णो ततोऽन्विता बहुस्त्रीभिः ततोऽपराजित-प्रीतिततोऽपि प्रस्थितः प्रापततोऽपि यान्ती वैदर्भी ततोऽमूमतिरूपाया: ततोऽवतीर्य त्रिदशो ततोऽवस्वापनीं दत्त्वां ततोऽहमभिमानेन तत् किं नलोऽसि विकृतातत्पुत्रि! न निगृह्णामि तत्कालं महिषीपाल तत्कूटमिङ्गितैत्विा तत्तीर्थजन्मा कूष्माण्डी तत्तीर्थजन्मा गोमेधतत्तु मातुरनिष्टत्वं तत्त्वानां श्रद्दधानत्वं तत्पादपीठं पादेनातत्पार्श्वे प्राव्रजद्रामतत्पिताऽमोघरेतास्तं तत्प्रत्यपादि राजाऽपि तत्प्रपद्य वचो विष्णुः तत्प्रभावात् तस्य लाभे तत्प्रहाससहः सद्यतत्फणामणिविद्योतात् तत्र कृष्णः सरामोऽपि
तत्र गत्वा च नन्त्वाच
तत्र च स्नात-भुक्तः स २ १३७ । तत्र चक्रमतिभास्वद तत्र चन्द्रयशोदास्यो तत्र चम्पाजुषो विष्णोः तत्र चाऽन्तर्हिताऽश्रौष
४६७ तत्र चाऽऽगादनगारतत्र चाऽऽयतने सुप्तो २ ३५३ तत्र चाऽऽयतनेषूच्चैः तत्र चित्रगति रूप
१ २३५ तत्र चैत्यं प्रतिष्ठाय
६९९ तत्र चैत्ये विशन् कुब्जो
९१४ तत्र नाऽगामिति हरि
४८१ तत्र पल्लवतल्पे स्वं
५१५ तत्र पात्रात् तुम्बरस
३०३ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य ९ २८८ तत्र भक्त्या परमया ३ ६८८ तत्र भूपस्य पद्यस्य १० २४ तत्र मातुलमित्रेण
२४६ तत्र मित्रश्रियं सार्थ- २ ३६७ तत्र राजपुरं नाम
२ २२१ तत्र राजा हरिश्चन्द्रतत्र राजा हरिश्चन्द्रः ३ ९१ तत्र राजीमी बालातत्र राट् नीलवानाम २ ३२७ तत्र रैवतकस्याद्रेः
५ ३९१ तत्र विद्याधराधीशो २ १४५ तत्र वैतरणिर्भव्य
१० १८१ तत्र वैश्रवणः पूजां
३ ११० तत्र शौरि रन्तुकामं २ ३३५ तत्र शौरिः स्नात-भुक्तो
३९७ तत्र सख्या नामग्राहं ६ २८४ तत्र सिद्धायतनस्थान
५०९ तत्र सोमश्रिया साधं
५७५ तत्र स्थिता च साऽपश्यद् ९ १६३ तत्र स्मशानमध्येऽस्था
८५६ तत्रापि नीलकण्ठेन तत्राभून विक्रमधना तत्राभून्मम्मणो राजा तत्राऽतिवाह्य ग्रीष्मतुं तत्राऽदूरे लोहकीलैः २ १९५ तत्राऽद्योद्यौवना कन्या तत्राऽद्रिदुर्गे समर- १ ४६४ तत्राऽन्येधुर्वने भव्य- १२ ५६ तत्राऽन्येधुर्वसुदेवो
तत्राऽपश्यत् कल्पवृक्षान् तत्राऽपश्यन् हरिविं तत्राऽपुत्रविपत्रस्य तत्राऽभू भीष्मको राजा तत्राऽशोकतरोर्मूले तत्राऽश्रौषीन्निमिपुत्रो तत्राऽश्वयोः श्रान्तयोस्तो तत्राऽऽकण्ठं निमग्नानां तत्राऽऽत्मानं प्रपश्यन्तीतत्राऽऽपतन्ती सोऽन्येद्युः तत्राऽऽययुर्दवदन्त्यातत्राऽऽययौ च तद्धात्री तत्राऽऽययौ हरिः सीरितत्राऽऽयातं शिशुपालं तत्राऽऽयातश्च कंसारि- तत्राऽऽरूढेन दृष्टश्च तत्राऽऽसीज्जगदानन्दी तत्राऽऽसीनो भोजनार्थ तत्रैकः कश्चिदाचख्यौ तत्रैकदा स्थिते नाथे तत्रैकयोजनोत्सेधा तत्रैकस्मिन् भव्यमञ्चे तत्रैकस्मिन् महामञ्चे तत्रैत्य कृष्णः श्रीस्थाने तत्रैव पर्यटत्येवं तत्रैवाऽऽसीज्जिनदत्तः तत्रैषाऽप्यनुरक्ताऽभूतत्रोत्पन्नकेवलस्य तत्रोत्फुल्लगृहोद्यानातत्रोद्याने देवगृहं तत्रौकोरत्नबद्धो:तत्सम्यगधिसह्याऽऽशु तत्सरो हंसवत् तीर्वा तत्सादृश्यान्मया ज्ञातौ तत्सीधु दृष्ट्वा सामोदं तत्सुता रेवती रामा तत्स्पर्शन तदण्डं तु तत्स्वयंवर्धितस्याऽस्य तथा कृते च प्रज्ञप्त्या तथा च समवसृतं तथा चक्रे कुमारेण तथा चक्रे स च क्रूरतथा जगौच वार्ष्णेयः तथा तान् क्रीडतः प्रेक्ष्य
१४३
५ ६ १२ ६
२७१ ६७ १५ ३१८
३
६५६ ९३८ ७९२
३१३ ६४२
३
१५८
६ ९ ९ ५ ९ १०
१२३ ३८६ ३८४ २२ ३०२ ४०
१६४
२
२७१
६ ६
१०२ २३१
२
५४३
९ २ ५ ५
२५ ३८५ २३७ २६३
९ १
२८३ ३१०
१८४
४३
४३
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________________
२१६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
५
९०७
२५६ ३०७ २८९ २५५
min ut in for a na ro
१३८ ३६६ ८७७ ६३ १०६ १२६
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चाला
३७६ ३४२
१६८
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२०९ ३६१
तथा परीषहसहं तथा श्रुतार्थप्रावीण्यं तथा ह्यत्रैव चम्पायां तथापि तेऽस्तु शरणं तथापि तौ स्वसामर्थ्यात् तथाप्यनुगृहाण त्वं तथाप्यवसरं ज्ञात्वा तथाहि काशीपुर्यां द्वे तथाऽप्यस्यां यशोमत्यां तथाऽप्यहं तेन सह तथाऽर्थ्यमानं ताभिश्च तथाऽऽरेभे जनः सर्वोतथैव कुर्वतां तेषां तथैव घोषणां कृष्णः तथैव च महासेनतथैव नेमिनाथोऽपि तथैव शिशुपालोऽपि तथैव सा ददौ दानं तथैव सारथिश्चक्रे तथैव स्वादु सलिलतथैवाऽथ नलादिष्टः तथैवाऽददतस्तांस्तु तदत्रैव सुखं शेष्व तदद्य पत्युरादेशं तदन्तर्मज्जनक्रीडां तदपश्यं न यद् विद्यातदप्यनीकं तरसा तदभ्यणेऽभिचन्द्रस्य तदयं प्रणिपाताह तदश्रुत्वेव सुभूमितदा गन्धसमृद्धेशो तदा च कश्चिदप्यागात् तदा च कार्तिके कृष्णतदा च जातिस्मरणतदा च तत्र चम्पाया तदा च तुमुलं श्रुत्वा तदा च दासी भामायाः तदा च पितृवैरेण तदा च मासे वैशाखे तदा च वसुदेवाय तदा च वादिनस्ताभ्यां तदा च विष्वग् रत्नाढ्यं तदा च साधवस्तत्र तदा च सुखसुप्ता सा
or w im w in mo
४१९ ४८६ ४१८ ५१४ . ५६०
तदा च सूर्पकसुतो तदा च सोमको राजा तदा च हित्वा वैदर्भी तदा चन्द्रवती नाम तदा चाऽचिन्तयत् शौरितदा चाऽवर्धयत् कृष्णं तदा चाऽस्तं ययौ सूर्योतदा चाऽऽलानमुन्मूल्य तदा जीवयशा: कंसतदा तत्राऽऽययौ शाम्बतदा तया पितृष्वस्रा तदा तस्याऽपविद्यस्य तदा त्रिशिखरपत्न्या तदा दुर्योधनो राजा तदा निषिद्धोऽमात्येन तदा पूर्वेक्षिता नीलतदा प्रव्रजितो मृत्वा तदा वेगवतीमात्रातदा शरधरिष्टोक्षा तदा शासनदेव्याश्च तदा शुभनिवासाख्ये तदा सुभूमिभागाख्य तदादाय बलोऽगच्छद् तदादि चक्रतुस्तौ तु तदादि मल्लिनाथेऽहतदादिश दिशामन्ताद तदादौ दूतमादिश्य तदानीमेव च सुरो तदानीमेव पूरिं तदानेतुश्च दास्यामि तदाऽभूत् त्वद्बलेनाऽलं तदुत्कर्षोऽस्तुमा वाऽस्तु तदुत्तिष्ठ महाभाग तदुत्थाय प्रयत्नेन तदेतः स्थानतः सार्धं तदेहि वत्स ! गच्छावा तदैत्य नारदोऽवादीद् तदैव च निशाशेषे तदैव च महाशुक्राद तदैव तत्र समवातदैव भीमतनया तदैव वसुदेवाय तदेव ही जरासन्धो तदैवाऽचिन्तयं योग्यो
तदैवोद्घाटये रत्न- ३ तद् गच्छ दूत ! राज्यस्य तद् गृहाण रथं नाथ ! तद् दृष्ट्वा पितरौ तस्या तद् धनस्य धनवतीतद् व्रजामि पितुर्वेश्म ३ तद्गच्छ भरते चक्रतद्गजं तलपादेषु तद्गिरा प्रज्वलन् कोपातद्गिरा साऽपि सकृपा तद्गिरा हृदि देवक्या तद्गृहेषूत्पताकेषु तद्गृह्या देवताः कंसा- ५ तद्गृह्या बहवोऽन्येऽपि ६ तद्गृह्योऽन्योऽपि यः कश्चित् ५ तद्दर्शनात् कामवश तद्दर्शनान्मनोऽचालीतइत्यच्छद्मना छन्नतदृष्टिविषयीकृत्य ३ तदृष्ट्वाऽचिन्तयन् सर्वे तद्ध्वनेर्वजनिर्घोषातद्ध्वाने रोदसीकुक्षितबिल्वं तं करण्डं च तयुद्धान्तस्तिनेऽहतद्रूपविस्मितः कृष्णः तद्वंश्योऽस्ति सुरदेवो तद्वक्षोऽस्पृक्षदगुल्या तद्वचोऽश्रद्दधत् कश्चितद्वधाय प्रतिष्ठासू १ तद्वर्जमपरै ज्यतद्वर्षासु बहिर्गेहातद्वाचं न हि शुश्राव तद्वार्तामपि ते नापु- १० तद्विज्ञाय सुभद्राऽऽगात् तनयौ तु प्रभावत्याः ७ तनयो बालचन्द्राया तन्त्रर्मभिः प्रीयमाण: २ तन्नादरुष्टो यूथेश: तन्नादेनाऽमिलन् सर्वे तनिवासी जनः सर्वः तमिवचनं श्रुत्वा तन्मन्यूचे च भावज्ञो १ तन्माता तु मयूरी सा तन्मुञ्च भीमतनयां
१७७
७४४ ३६८ ४१०
१०३२
११९
5 m w
१६० ४६५
१०२१
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प्रथमं परिशिष्टम् )
तन्मुञ्च मां स्वस्ति तुभ्यतन्मुञ्चामि शिलापृष्ठे
तन्मुद्रा धनकुमारः तन्वन्पुदं दशार्वणां
तपसाऽनेन भूयासं
तपसाऽनेन भूयासं
तपस्तप्त्वा विपत्रस्त्वं
तमदृष्टवती त्वं तु
तमन्यदा चौरवरं
तमन्यदा न्यधाद्राज्ये
तमभ्युत्थाय सोऽपृच्छद्
तमभ्युदस्थाद् भुवन
तमसा रुद्धक
तमानय महात्मानतमापतन्तं विशिखै
तमारक्षमहन् कृष्णो
तमावृत्तं सम्यभि
तमुवाच च किं वत्स !
तमूचे च नभःसेनः तनूचे [विक्रमः कच्चित्
तमूचे सत्यभामाऽथ तमेवाऽऽरुह्य करिणं तमोऽकृष्ण तया कनकवृष्ट्या च तया कुमार्या ताभ्यां तु तया च तत्राऽ ऽगतया तया च तपसाऽऽराधि या वसुदेवोऽय तया च सुषुवेऽन्ये तया चाऽभ्यर्थितो रन्तुं
तया जिघांसया व्योम्नो
तया थुविति कुर्वत्या
तया देशनया बुद्धातया विविधभोज्यानि
तया समं चित्रर्गात
तया सह ततो गत्वा
तया सहाऽन्यदा सुप्तं तयाऽथ चित्रस्थपति
तयंत्याश्वासिता धैर्यं तयेत्युक्ता प्रीतम
तयैकनासया पुत्र्या तयैवं बोधितः सोऽपि
कृतज्ञयारेव
तयां: समरसम्मर्दा
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श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
तयोर्गीतेन मुदितो तयोर्मानसवेगस्तुक् तयोर्युद्व्यप्रयोश्चाहं तयोर्विभज्य तद्राज्यं
तयोश्च नमुचिः सून तर्काभ्यासादलमभूत्
तव प्रथमशिष्यत्व
तव प्राणैः सहैवाऽद्य
तव स्वयंवरं श्रुत्वा
तवाऽनुजस्त्वया दत्त
तस्करं मन्त्रिपुत्राय
तस्थिवांसं प्रतिमया
तस्माच्च कृतवीर्योऽभूत्
तस्मात् पलायनं कृत्वा
तस्मादसारे संसारे
तस्मान्मां विसृज स्वामि
तस्मिन् पुरेऽन्यदोत्तस्था
तस्मिन् मनोरमोद्याने
तस्मै श्रावकवर्याय
तस्य कीर्तिमतीपत्न्यां
तस्य च प्राजतो वाहा:
तस्य च स्तः कमलिनी
तस्य चैषोऽभिग्रहोऽभू
तस्य चोपासिकां सत्य
तस्य जायाऽस्मि हिरण्य
तस्य पत्न्यां यशस्विन्यां
तस्य भ्राताऽपि भूत्वा त्वं
तस्य मूर्त्या च वाचा च
तस्य लक्ष्मीवती भार्या
तस्य वंशेऽभवद् राजा
तस्य विद्युद् घनस्येव
तस्य श्रियामपाराणां
तस्यर्थः प्रत्यनीकांस्तान्
तस्या रत्नवतीत्याख्यां
तस्या रमणसमयं
तस्यां कमप्यवृण्वत्यां
तस्यां पुर्वा हरिवंश्याद
तस्यां बहूनां पुत्राणा
तस्यां मम पितृयोऽस्ति
तस्यां वैश्रवणेन दर्शित
तस्यां शिलायां मघवा
तस्याः पुरस्तादेता हि
तस्याः पुरो रेवतको
तस्याः पूरयितुं वाञ्छां
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तस्याः शक्तेर्मुखोद्भूता
तस्या: सम्भाव्यते नैवं
तस्या: स्वयंवरकृते
तस्या: स्वयंवरं सर्वे
तस्यामटव्यां भीमायां तस्यामुदरवर्तिन्यां
तस्याश्च नंष्ट्वा चैत्याय
तस्याश्च पतिविरहं
तस्याश्चाऽतिकलाज्ञाया तस्यास्तत्तद्गुणगणातस्याऽग्रमहिषी प्राण
तस्याऽथो घोषयामास
तस्याऽनर्थेच्छया सोऽगाद्
तस्याऽनुकम्पया कृष्ण तस्याऽन्यदोद्यानपाल
तस्याऽभूज्ज्वलनवेगो तस्याऽभूत् पुष्पदन्तीति तस्याऽमलयशोराशेतस्याऽस्मि किङ्करो तो
तस्याऽऽनयनहेतोश्च तस्याऽऽपतत्सैन्येषु तस्याऽऽश्चर्यकरीं विद्यां
तस्याऽऽसनार्थं वेश्मान्त: तस्येभस्योत्तिष्ठतश्च तस्योचितं विधायैष तस्योत्कृष्टोत्कृष्टफलतस्याद्यानस्याऽधिपति
ता अप्यूचुः स्ववसतेता अभविष्यामः
तां कंसस्याऽऽर्पयंस्तेऽथ
तां किञ्चिदलसां प्रेक्ष्य
तां गान्धर्वविवाहेनो
तां च दृष्ट्वा जरासन्धोतां च धात्रीं यशोमत्या
तां चित्रपट्टिकां तस्माद्
तां चौरसेनामायान्ती
तां जाम्बवान् जाम्बवतीं
तां ज्ञात्वा सत्यभामाये
तां तथास्थामथाऽद्राक्षुः
तां त्यक्त्वा यादवायेभो
दृष्ट्वाऽचिन्तयत् कृष्णो
तां नारी बोधयित्वाऽथ
तां पद्भ्यामुपसर्पन्ती
तां प्रशंसां शक्रकृतां
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
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तां प्रेक्ष्य कालः पप्रच्छ ५ ३७४ तां भुजाग्रे दधौ विष्णु तां भेरी वादयामास तां यान्तीमशिषन्माता तां वाचं स्फूर्जथुनिभा तां विजेतुमयं लोको २ ३४३ तां विद्यां खेचरः सोऽदा तां विसृज्य पिता दध्यौ तां सख्या सिषिचुर्भीताः
२११ तां स्वगेहाङ्गणगतां ६१८६ तांश्च सत्रातः प्रेक्ष्य
३१५ ताडयंस्तुङ्गशृङ्गेण २ २४४ तात ! केनाऽप्युपायेन ३ ९७८ तात! तातेति जल्पन्तो २ २७२ तात! त्वां पश्यतां नेत्रोतात ! मां विसृजाऽद्यैव तादृशीं कनकवतीं
३ ७९ तानन्तराऽपि चिच्छेद तानाकर्ण्य हतान् कंस: तान् प्रविजिषून् ज्ञात्वा तान् प्रेक्ष्य स भ्रमणः तान्यस्त्राणि क्रमायाता
४४४ तापसानां ततस्तेषा
६६१ तापसानां पञ्चशती ताभिश्च व्योमगमनो ताभ्यः षोडश सहस्राः
४१ ताभ्यां च तज्जनन्या च २ २९३ ताभ्यां चरत्नवत्या च ताभ्यां जातानुकम्पाभ्यां ताभ्यां दत्तां रत्नमालाताभ्यां दृष्टः कुमारोऽपि ४९३ ताभ्यां भूयोऽपि सा राज- ६ ताभ्यां योग्योऽयमित्युक्ते ३ ताभ्यां सदाऽधिष्ठितसन्निधानो ९ ताभ्यामपि समागत्य ७ तामङ्गारो द्विधाऽकार्षीद २ तामन्यदा कमलिनी तामन्यदोचे वैदर्भी ३ ७७८ तामप्युदुह्य गोविन्दो तामलिप्त्यां गच्छतो मे तामित्युक्त्वा जरासन्धः तामुबह त्वं कुमार! तामेव सागरो दध्यौ तामेवमुक्त्वा मुक्त्वा च
तालवन्तं कराद् दन्ति- तावकम्पयतां भूमि तावताऽप्यङ्गुलिस्पर्शतावद् क्ष त्वमात्मानं तावन्यदा हयारूढौ तावप्याचख्यतुः स्वर्गातावाहदयो ज्ञात्वा तावुभौ जग्मतुस्तत्र तावूचतुर्न दिग्मोहो तावूचतुश्च श्रावस्त्याताश्च चन्द्रयशाः प्रोचे तासां धृतराष्ट्र-पाण्डुतासामर्हत्प्रतिमानां तिष्ठन्ती शून्यचित्तेह तिष्ठेस्त्वं प्रमदवने तीर्थाय नमः इत्युक्त्वा तुङ्गमष्टादशहस्तातुन्दिलो दन्तुरश्चुल्लतुभ्यमभ्यर्णमोक्षाय तुर्य-षष्ठा-ऽष्टमादीनि तुर्य कक्षान्तरं प्राप्तोतुष्टोऽथ सोऽमरः शक्रतृणाट्टान्निस्तृणांश्चक्रे तृषिता नगरद्वारतृष्णा-शुग्-घात-वातैस्तैते उग्रसेन-धारिण्योते त्रयस्तरुणा तेन ते द्रुमाः पर्वतास्तेऽपि ते पाण्डुपुत्राः पञ्चाऽपि ते राजानो नलादिष्टाः ते सर्वेऽपि तपस्तप्त्वा ते स्वं रुरोचयिषवतेजासेनोजयसेनतेजःसेनोजयो मेघ- . तेन कुण्डलितेनाऽभाद् तेन चाऽस्म्युपचरितः तेन पत्योजसाऽत्यन्तं तेन पाणिस्थितेनोचे तेन प्रसवरोगेण तेन प्रैषि तमानेतुं तेन शोकेन यदवो तेनाऽतिदह्यमानोऽपि तेनाऽपि सानुतापेन तेनाऽहं दह्यमानोऽपि
१६८ ४६८
तेनेत्युक्तो विना कोपं तेभ्योऽनीकयशोऽनन्ततेषां च पूजया प्रीतः तेषां च पृष्ठतो वीरः तेषां च मध्ये प्रासादो तेषां जयजयारावतेषां दृढपदन्यासतेषां धान्य-धनाढ्यानातेषां पृष्ठे चोग्रसेनो तेषामपि गिरा कंस तेषामपि वचो नैव तेषामभूतामनुजे तेषु द्वैपायनोऽथाऽग्निं तेषु भोक्तुं निषण्णेषु तेऽथ द्वात्रिंशतं कन्यां तेऽदुर्निजनिजाः पुत्रीतेऽन्यदा ययुरुञ्छायातेऽप्यूचुः सह पद्मेन तेऽप्यूचुदर्देवि ! मा कुप्य तेऽप्यूचुर्ज्ञानिनाऽऽख्यातं तेऽवोचन्याति यत्राऽस्तं तेऽवोचनिषधोऽभुक्त तैः समं वरदत्तादीतैः समं ववृते घोरः तैः सुतैः पञ्चभिर्जत्रतेरस्खलितमुत्पूरतैरेव पादैर्वलितः तैरेव राजस्वजनैः तैरेवं युध्यमानस्य तैर्बहिः स मृतो दृष्टतोषयित्वा तयाऽन्येद्युः तौ च मुष्टिक-चाणूरातौ चिरं व्रतिसंसर्गात् तौ तथाऽप्यन्यदा युद्ध्वा तो तेपाते तपोऽत्युग्रं तो त्रिपृष्ठा-ऽचलाभ्यां च तौ दिव्यैरायसैश्चाऽस्त्रैतो द्वौ दशधनुस्तुङ्गो तो धन्यौ धूसरी-धन्यौ तौ धूलिधूसरं पेष्टुं तौ नन्दनन्दनावेतातौ पुराऽपि मिथः प्रीतितौ मनोगति-चपलतौ वन्दित्वा भक्तिपूर्व
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प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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तौ सुग्रीव-यशोग्रोवौ २ त्यक्त्वा मम प्रियां नंष्ट्वा २ त्रायस्व कृष्ण ! कृष्णेति त्रिखण्डभरतेशेन
५ त्रिदण्डिनं दिनकर
२ त्रिरात्रमनवच्छिन्ना त्रिशत्यां जन्मतोऽब्दाना- ९ त्रैलोक्ये तेऽप्रतिरूपं ९ त्वं जलानयनायाऽगाः १ त्वं महद्धिः सुर इति १ त्वं वर्धितो नन्दगृहे १० त्वं स्वामी सर्वमेतत् ते त्वं हि सङ्कल्पमात्रेण ९ त्वत्तः श्रावकधर्मोऽपि त्वत्तः सुतोऽसौ जज्ञेऽस्मिन् २ त्वत्पुत्रैस्ताड्यमानेन त्वदर्थेऽष्टमभक्तेन त्वदाज्ञयाऽहं तं बद्ध्वा त्वदीयैः पुरुषैरत्रा त्वद्दर्शनेऽपि नाऽर्हामि त्वद्विषो निग्रहोऽमुष्मात्वद्वियोगे दुःखितायाः त्वमप्यस्याऽभयं देहि त्वमाकृष्टोऽसि मे पुण्य- ३ त्वया कृता भ्रूणहत्या त्वया तु पटहस्तत्र त्वया दासीकृताः सर्वे त्वया निर्वासिताः कुत्र त्वयाऽपि यदि हीयेत ३ त्वयि व्रतनिधिन्यो त्वयैव ह्वावयोोगो त्वयोपकारक्रीता: स्मत्वय्यप्यस्यामि चेदं मे १ त्वां कर्मयन्त्रितं स्वर्ग १२ त्वामागं दूरतोऽप्येष त्वामानेतुं प्रैषि राज्ञा २ त्वाष्ट्र शुचिसिताष्टम्यां दघिपर्णोऽपि हि तया ३ दत्तं न दत्तमात्तं च दत्तमार्गोऽम्भोधिनाऽपि दत्तान् दत्तान् शीघ्रमेव दत्ते स्थाने समुद्रेण ७ दत्त्वा मगधतुर्यांशं
ददर्श चाऽग्रे रुदतीं
ददर्श वन्द्यमानं च ददानमर्थिनामर्थं ददौ च वार्षिकं दानं ददौ वेगवतीमाता दधावे तत्र कोऽपीभो दधिपणं विदर्भायां दधिपर्णनृपः प्रेतदधिपर्णनृपस्तत्र दधिपर्णनृपो दूरादधिपर्णनृपो यावदधिपर्णनृपोऽन्येद्युः दधिपणेन च सह दधिपणों नलं नत्वादधिपर्णोऽथ तं प्रोचे दधिपर्णोऽवदत् कुब्ज ! दधिपर्णोऽवदत् कुब्ज दधुस्तस्योपरि च्छत्रं दधौ मनसि रुक्म्येवं दध्मौ शङ्ख सिंहनादं दध्यौ च क उपायो मे? दध्यौ च कृष्णो धन्यास्ते दध्यौ च क्व नलः क्वायं दध्यौ च जितशत्रुः कि दध्यौ च तन्मनःपूर्णदध्यौ च दधिपर्णस्तं दध्यौ च दवदन्त्येवं दध्यो च नेदं तत्स्थानं दध्यो च बिन्दुनाऽप्यस्य दध्यौ च सा न हीदृक्षः दध्यौ तं प्रेक्ष्य चन्द्राभा दध्यौ धनोऽपि काऽप्येषा दन्तैर्वत्सतरान् गृह्णदन्तोत्खननमुष्ट्यादिदम्पती लघुकर्मत्वाद दर्पकाश्वं पालकेन दर्शयाम्यद्य तच्चेष्टा दर्शयित्वा निजं रूपं दवदन्ति ! तवाऽऽदेशादवदन्ती तदाकोदवदन्ती-नलौ गत्वा दवदन्तीं गृहीत्वा च दवदन्ती हदि ध्यायन् दवदन्तीपितुः पावें दवदन्तीमनुपति
दवदन्त्यपि तत्काल
३९२ दवदन्त्यपि तत्कालं
३४८ दवदन्त्यपि तत्कालं
७०२ दवदन्यपि दान्तात्मा
६९६ दवदन्त्या तवाऽऽख्यातो दवदन्त्याश्च पुण्याति
३०९ दवदन्त्येकवस्त्रेय
५२९ दशनाग्रैर्दशन्नोष्ठं
४१५ दशनायाऽन्यदाऽहं ते दशभ्योऽपि दशाहेभ्यो
४२२ दशाह-कंसो मथुरा- ५७० दशाह कनकवती ३ १५३ दशार्हः प्रणमन्तीं तां दशार्हः प्रतिपत्त्यह दशाहमर्चमाना सा दशार्हा उग्रसेनश्च दशार्दा दश दोष्मन्तः ८ ३५ दशार्हा राम-कृष्णौ च
३७६ दशार्हाणां सुताश्चाऽन्ये
१९३ दशार्होऽप्यवदत् सुभ्र ! दशार्होऽप्यशृणोत् तेन दशाऽपि काशिप्रमुखादाक्षियनिधिरित्युक्तो दानशालास्थिताऽन्येद्युदानार्थिनश्च प्रत्येकं दाम्नोदरेऽन्यदा कृष्णं दारुको जयसेनश्च
३४ दारुपञ्जरमानेतुं
३ ४२ दास्यस्ता दुर्दशा प्राप्ता- ३ ७५७ दास्याख्यद् ब्राह्मणोदन्तं
४३१ दास्ये मैथुनिकायाऽमुं दिग्भ्योऽष्टाभ्योऽपि वातेन ११ दिनानि कयपि स्थित्वा १ दिने क्रोष्टुकिनाऽऽख्याते दिने दिने क्षीयमाणा दिने दिने चैक बर्हिदिवि दुन्दुभयो नेदु- ३ २१२ दिव्याङ्गरागपूर्णानि ३ १३९ दिव्याभरणधात्रीणां दिव्यालङ्कार-नेपथ्य
१५० दिव्यास्त्रयोधिनः सर्वे
३६६ दिष्ट्या कर्माणि घातीनि ९ २९१ __ दिष्ट्या तवाऽभवत् पुत्र ६ २५९ दिष्ट्याऽश्वाभ्याभपहता- १ २७१
२
१५६
५५९
९९५ ३५७ ३२९ ३०४
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३८०
२१५
३६०
२९९ ७७ ३६ ३७२ १०९ ९४८ ३१७ ४२
६०६
८५५
९५३
१०६७ ८२०
३
१४०
९७०
९५० ३७१
४७९
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२२०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम्
३७२
१७८ १ ३६५ ३६८९ १ १०१
५२४ ४४५
४२ ६२० ४७५
१५३
२०७ १६९
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१०२
३३२
१०
७९
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१९६
१०
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दिष्ट्याऽऽयासीर्दमयाऽश्व- २ ३७३ दीक्षा श्रीनेमिपादान्तदीक्षां जिघृक्षु रामंच दीनामशरणां शोरि- २ ३९३ दीप्ताङ्गुलीयर्माणना
३२९ दुःक्षत्रियेण केनापि १ ३५१ दुःखं गृह्णामि ते वत्से !
८३९ दुराग्रहैबन्धुवर्ग
२९६ दुर्गन्धस्य शरीरस्यौ- ३ १६७ दुर्दशेर्दर्शयन् दर्श
२४८ दुर्मर्षणरथं सोऽगात् ७ ३२८ दुर्मर्षणादिभिः षड्भिदुर्योधनं शिश्रियुस्ते
७ ३२९ दुर्योधनश्च कोरव्यो ७ २१८ दुर्योधनादयस्तासु
६ २७१ दुर्योधने विनिहते दुर्योधनेन तद्वृद्धादुर्योधनो रोधिरिश्च ७२७८ दुर्योधनोऽथ क्रोधान्धो दुर्योधनोऽपि माद्रेय- ७ ३२२ दुर्योधनोऽपि मुमोचो- ७ ३२३ दुर्योधनोऽरुधत् पार्थ- ७ २७९ दुष्करः साधुधर्मो नौ दूतेन सुंसुमारेशं दूतोऽपि गत्वा त्वरितं दूतोऽपि गत्वा रुक्मिण्यादूतोऽपि हि कदम्बोक्तं दूत्यं यन्मय्यनुचितं ३ १६४ दूराप क्षुरप्रेण
३५५ दूरादपि त्वां शरणं दूरादप्यवरुह्यभाद् ९ २८७ दूरे गत्वा गृहीत्वाऽम्भो १ ३२८ दूरे प्रहारवार्ता तु दृढधर्मा च विक्रान्त- ७ २६० दृढमुष्ट्या च चाणूरं ५ २९३ दृशा सम्भावयामास ३ १९९ दृश्यमाने: करटिभि- ३ ३१८ दृष्टः सुरेन्द्रदत्तेन २ २१६ दृष्टमात्रेऽपि पिरि दृष्टश्च भानुकेनाऽश्वः दृष्टिं दृष्टिविषस्येव दृष्टरानन्दमात्रं चेत् दृष्टो हर्रात नश्चित्तदृष्टोऽसि सिद्धायतने
M& mor mom m9999999999mm 9m my mor.991 m mmmw mor3.
दृष्ट्वा कालमथाऽऽसनं दृष्ट्वा क्षेमवती भैमी दृष्ट्वा च कृष्णः पप्रच्छ ६ दृष्ट्वा च चकिता रुक्मि- ६ दृष्ट्वा च तान् कान्दिशीकान् ३ दृष्ट्वा च नागराः प्रोचु- ३ दृष्ट्वा नेमि वनेऽगच्छद् दृष्ट्वा पटस्थं त्वां राकादृष्ट्वा सुतवधं क्रुद्धो देव ! प्राग्जन्मपत्नीति ३ देवं कृष्णोऽप्यभाषिष्ट १० देवको तु गते मासे देवकी वसुदेवाय देवकेनाऽचिंतौ तो तु देवको वसुदेवाय देवकोऽपि तयोर्भावं देवक्यवोचदाहूय ५ देवक्याश्चाऽऽग्रहेणाऽयं देवता देवतागार
३ देवता धनदादिष्टा देवपूजा-गुरूपास्तिदेवश्च्युत्वेह भरते देवस्तच्चिन्तितं ज्ञात्वा देवस्थानेऽत्र सम्बन्धादेवा-ऽसुर-नृपा-ऽमात्यादेवि ! क्षणं प्रबुध्यस्व देवि! केयमवस्था ते ३ देवी च धारयामास
५ देवी चन्द्रयशा: प्रीता देवीदत्तवरं शोरि देवोऽथाऽश्वहरीभूया- १० देवोऽप्याख्यत् ततः स्थानादेवोऽप्युवाच ते मातुदेवोऽप्युवाच पद्मस्य देवोऽप्युवाच पर्याप्त देवोऽप्युवाच मां युद्धे देवोऽप्यूचे युत्सहस्रेदेवोऽभ्यधाद् यदा ह्येष देव्यन्यदा चन्द्रयशाः देव्यप्यूचे वसुदेवो देव्याः शेषेति मदिरां देव्युवाच च हे वत्से ! देशचारित्रनिरतो देशनां तां प्रभाः श्रुत्वा
देशनान्ते चित्रगतिदेशनान्ते तु तं नत्वा देशनान्ते मया पृष्टः देशनान्ते व्यज्ञपयत् देशनान्तेऽवदच्छलो दैवतैर्दैवतान्यस्त्रादैवाज्जातिस्पर: सोऽभूत् दैवात् तदाऽभवत् तस्या दैवात् समाधिगुप्तर्षिः दोस्तम्भो विष्णुना नेमेदोर्युद्धेऽप्यपराजय्यं दोषत्वेनाऽभ्यधीयन्त दोषाणां कारणं मद्यं दोष्मान् रामश्च कृष्णश्चादोहदेनापि सा गर्भाद् द्यूतवैरं स्मरन् भीम द्यूतासक्तिनलस्याऽभूत् द्यूते कोटिजयाद् ज्ञातः द्रक्ष्यामोऽद्य बलं विष्णो- द्रविणैर्वासवादिष्टद्रव्यलक्षं गृहाणेदद्राक् समुद्र इवोद्वेले द्राघीयसाऽध्वना क्लान्तः द्रुतं गत्वा चोपवने द्रुतं च वसुदेवोऽगाद्रुतं रथादथोत्तीर्य द्रुपदं पूरणोऽभाङ्क्षीत् द्रुपदेनाऽचिंतास्तत्र द्रुमं समुर्दावजयः द्रुमसेनेन सेनान्या द्रुमान्तरस्था सोऽप्यूचे द्रौपदी-कृष्ण-पद्माना द्रौपदी चाऽर्पयामास द्रौपद्या: पञ्च भारः द्रौपद्याश्चाऽन्यदा वेश्मद्वन्द्वयुद्धमभूत् तेषां द्वयं संवाद्यभूदेतद् द्वयोरपि त्वमीशोऽसि द्वयोपि हि सेनान्योद्वाःस्थः प्रियङ्गुसुन्दाद्वा:स्थास्तस्य यथावस्था द्वादशाङ्गधरास्ते तु द्वादशाब्दसहस्राणि द्वादशावर्तपूर्व ते
२३९
५०७ ३८१ ८३१ १७८
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१६३
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७ ३
२८० ४७९
८६७
४१६
३१०
३०४ ३६५
६४३
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२१
१०
१९४
२८२
३९६
१५९
३५८ ४४३
५५५ १५१२
२८२
११
७२
२२६
१ ७
१२६ ३७९ २४७ ३७३ १९२ ११२
द्वारकाया यदूनां च द्वारकावप्रसंमूर्छद्वारवत्यां वैतरणिद्वावप्यारुह्य तं नागं द्वाविंशोऽर्हन्नथ च नवमः द्वितीयं हृदयं मेऽसि द्वितीयसाधुवेषं च द्वितीयेऽह्नि दशाहेशो द्वितीयेऽह्नि बहिर्गच्छन् द्विधा भव धरित्रि ! त्वं द्विषज्जयादिमूल्येन द्वीपोऽयं धातकीखण्डोद्वैपायनषि ध्यानस्थद्वैपायनोऽपि तच्छुत्वा धगद्धगिति जज्वाल धनं कामयसे नूनं धनं मुनिरनुज्ञाप्य धनञ्जयः पुनरयं धनदेव-धनदत्तधनदेव-धनदत्तो धनदो निजनामाङ्काधनदोऽनुपमश्रीकधनदोऽपि ततः स्वार्थधनध्यानपरवशा धनबन्धू धनदेवधनर्षिर्गुरुपादान्ते धनवत्यपि तत्रस्था धनवत्यपि तां नत्वाधनवत्यप्युवाचैवं धनवत्या समं सोऽथ धनुः शकुनिरप्युच्चैधनेनापि विसृष्टः सन् धन्यः स भगवान्नेमिधन्योऽतिधन्यमात्मानं धन्योऽपि सह धूसर्या धन्योऽप्युवाच हर्षेण धन्योऽस्मि यस्य वणिजोऽधन्वन्तरिस्तु विदधे धम्मिलाख्यस्याऽऽभीरस्य धम्मिल्लं मालतीगर्भ धरणः पञ्च तत्पुत्राः धरणेन्द्र इव स्थाम्ना धरणेन्द्रोऽप्युवाचाऽस्य
धर्म दत्त्वाऽन्तरे राज्ञा
धर्म श्रुत्वा नेमिपावें धर्मज्ञानौषधं दत्त्वा धर्मप्रभावतस्तत्रोधर्मभ्रंशो ममाऽनेन धर्माचार्यो ममाऽयं त- २२८९ धवलर्षभरूपेण धवलैर्गीयते यत् तन्न ९ २२१ धात्रीभिः सा गृहे निन्ये धाराधरोऽम्बुधाराभि
६१८ धारिण्या: समये जज्ञे धावत्सु चेन्द्रशर्मादि
३५२ धिगस्तु ते यशस्कामिन् ! धिग् धिक् तदेष संसारो
१८९ धीरा भव वरस्तेऽसा- ९ १७० धीरा भवाऽऽनयाम्येष
४८९ धूमकेतुः पूर्ववैराधूमस्तोमोऽञ्जनश्यामो ३ ८७८ धूमो निमेषमात्रेण
८७९ धृतराष्ट्र: पर्यणैषी
२७० धृतराष्ट्रसुतस्तस्मि- १ ११४ धृतातपत्रो धन्येना
२५७ ध्यात्वैवं तां रहोऽपृच्छत्
३७४ ध्यानान्न चालितश्चैष ध्वजांश्चिच्छेद केषाञ्चित् ७ न केवलं यदुकुलं
९ २९२ न केवलं स्वयममी
९ ११७ नक्षतोऽसीति पृच्छन्ती नचेद् गृह्णाम्यमूंभिक्षां न चेद् वां प्रत्ययस्तत्तं न चेलुस्तुरगास्तत्र न चोपेक्षितुमर्हामि ३७२ न जानाति परं स्वं वा न तावत् तावकावेतो न धर्मो निर्दयस्याऽस्ति न नः प्रभुर्जरासन्धः न पत्तयो न रथिनो न भोक्ष्ये मासपर्यन्तेन मे सखा विदेशस्यान यावत् कोऽपि जानाति न लक्ष्मीर्दोष्मतां दूरे न वयं कस्यचित् कोऽपि न व्यरंसीत्तु निषधः
३७८ न श्रामण्यक्षमोऽस्मीश! १० २१२ न स सादी निषादी वा ७ ३४९
३८८
न सामान्यः पुमानेष न सामान्येयमन्यून
७१४ न स्थलं न जलं नाऽपि
३७९ न स्पृष्टा पाणिना तेन
२३४ न ह्यकृत्यं करिष्यामी- ६ ३९२ न ह्यहं वेगवत्यस्मी- २ ५६४ नंष्ट्वा कोसलराजायानंष्ट्वा च क्वाऽप्यगाद् भद्रा १ नक्षत्रमालिकांचा
३ १७५ नखैः कनकमाला स्वं ६ ३९७ नगरेऽमृतधाराख्ये
२ ४३१ नत्वाऽथ कृष्णः पप्रच्छ
३६६ नत्वोपविश्य शंसित्वा
७६ नन्दस्तत्राऽऽगतोऽपश्यत् ५ १२७ नन्दस्य गोकुले नीत्वा नन्दिवर्धनशिष्यस्तो नन्दिषेणस्ततो दध्यौ
२ २४ नन्दिषेणस्तयोः सूनु नन्दिषेणां दुहितरं २ ५८४ नन्दिषेणोऽष्यवोचत्तं नन्दीश्वरसुरः सोऽपि नभासेनस्य सदने नभासेनाय सा दत्तानमस्काराक्षरैः सद्यः ३६६४ नमस्कृतोऽथ देवक्या ५ ६२ नमस्तुभ्यं जगन्नाथ ! ९ २९० नमिर्वशादिकन्दो नः नमिसूनुस्तु मातङ्गः २ ३१० नमुचिः सिद्धदिव्यास्त्रः नमो भगवते विश्वनमोऽर्हद्भ्यो भगवद्भ्यः नयं प्रमाणयन्तोऽमी ७ २२३ नरकादपि दुःखाय
१२ ७९ नरदेवो बलस्यैते
७ ३९८ नरलोकशिरोरत्नं १ १५० नर्दनत्यूजितं सोऽथ नर्मप्रश्रयपूर्व च नलं च दवदन्ती च ३ ८२३ नलं प्रधानपुरुषाः
३ ४६४ नलः कदम्बं दृष्ट्वाऽऽत्तनला कदम्बं व्यावर्ण्य
४३२ नलः कदम्बमूचे च ३ ४२४ नलः पप्रच्छ चाऽन्येद्युः नला पप्रच्छ तं तात!
९०९
४२९
१
१३३
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२७३ २६६
४९
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१५७
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५
४८३ १००
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________________
२२२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
९६०
५१२
१०३ १२३
२७८
४०७
३९० १०६० ५९२ ३९५
९७
२३९ १७३
१०५५
१६०
४२१ ३५६ ३६७ ९५२ १०२९
३१९ २८७ ३७८ ८८२ ३० ३९३ १०३५ ५४३ ४३३ ४५९ ६५७ २७०
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१६९ ३३१
८९३
४४४
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१२१
४८० १०५८ ८८७
७३
९४६
नलः पलाशैः पालाशैः नलः प्रोवाच मां देव! नलः प्रोवाच हे भीरु ! नलः सदारो निषधनलः स्वं राज्यमासाद्य नलप्रवासदिवसा नलश्च दवदन्ती च नलस्तं स्माऽऽह दूतेन नलस्तक्षशिला सर्वां नलस्य कृष्णराजस्य नलस्य वीवाहमहे नलस्य सूपकारोऽस्ति नलस्यैका रसवती नलस्यैवं चिन्तयतः नलस्यैवं विवदतो नलात् कदम्बो दर्पान्धो नलानुरक्तो लोकश्च नलानुलग्नां भैमी तु नले जीवति न ह्यन्यः नलेन जितराज्योऽपि नलो जातानुकम्पोऽथ नलो भ्रात्रा कोशलायां नलो मृत्वा कुबेरोऽहनलो विपेदे तत्रैव नलो हारितसर्वस्वनलोऽत्याक्षी: कमिमां ? नलोऽनलस एवाऽभूद नलोऽन्यदा तु भोगार्थी नलोऽपि कृष्णं सम्भाष्य नलोऽपि नन्दनवने नलोऽपि पालयामास नलोऽप्याख्यदटव्येषा नलोऽवदन् मया लक्ष्मीनलोऽश्वहृदयज्ञोऽस्ति नवमो वासुदेवोऽयनवयौवनया रुक्मिनववारारोपणस्य नव्यपल्लवतल्पेषु नष्टोऽहं लोजपाणिश्च नागपाशैः कमलवद् नातः परं पुर-ग्रामानाथ ! नाथेति रुदी नाथाऽद्य कृष्णदशमीनानाभूमिगवाक्षाढ्यं
२८७
नामतो मुनिचन्द्रोऽहं नाममुद्रासमेतोऽसौ २ नाम्ना गजसुकुमालं १० नाम्ना देवयश:-शत्रुनाम्ना पुष्करपत्रोऽभू- ५ नाम्नाऽनीकयशोऽनन्तनाम्नोत्तरकुरौ रत्न- ९ नारकाणामपि सुख- ५ नारदोऽपि च तं दृष्ट्वा नारदोऽप्यब्रवीद् दृष्टं नारीदर्श स्पृहयसि नारीभिर्नलिनीनाला- ९ नाऽगाद् दोःस्थाम नौ क्वापि ११ नाऽदा जीवितमात्रं मे १ नाऽन्यस्ततो गतघृणो ९ नाऽपराधं स्मरामि स्वं नाऽपहर्तुं प्रहतुवा नाऽप्रेक्ष्यसूक्ष्मजन्तूनि नाऽभ्यनन्दत् तवाऽऽदेशं नाऽसि रुक्मी हसित्वेति नाऽहं स्वश्लाघनस्त्वद्वनाऽऽख्यच्च किञ्चिद् वैदर्भी ७ नाऽऽसीन् मनोरथोऽप्येष निःस्नेहो निःस्पृहो लोकनिजतापसधर्म ते ३ नित्यं भजन्तु त्वत्पादा निद्रामुद्रितनेत्रायां
३ निद्रायमाणां तां मुक्त्वा ६ निध्यायन्ती दृशा नेमि निनदन् दर्दुरातोद्य ३ निन्युश्च मन्त्रिणोऽभ्यर्थ्य निन्ये च कनकपुरे १ निपीडयन्तो बाहुभ्यां ९ निपेतुरुल्का निर्घाता- ११ निरस्त्रीकृत्य तं कृष्णः निर्गच्छन् द्वारकायाश्च निर्गत्य नगराद् विद्या निघृणानां निस्त्रपाणां ३ निर्जीवमिव तं खित्रं ५ निर्दाक्षिण्यो निष्ठुरश्च ९ निर्मिता द्वारकाऽस्माभिः निर्लज्जः कामविवशः निर्विकारो नेमिरपि निवेश्य शिबिरं तत्र
निश्चित्यैवं कोशलाया निश्चेष्ये सम्यगिति च निषधस्याऽवनिपतेः निषधोऽपि हि तत्राऽऽगानिषिध्य स्वाज्ञया युद्धात् १ निषेदुस्ते च मञ्चेषु १ निष्कारणोपकारी त्वं ३ निस्पन्दाक्षं प्रेक्षमाण- ७ निहतप्रतिभा: सर्वे १ नीतो गृहान्तरेऽभ्यर्थ्य ३ नीतो रमयितुं यद्वो- ३ नीत्वा शोरिं पुरे ते तु नीयमानस्तया शौरि- २ नीरन्ध्रतिमिरायांच ३ नील-पीताम्बरधरौ ५ नीलः सुतार्थे सङ्केत- २ नीलकण्ठा-ऽङ्गारकाद्याः ८ नीलरत्नमिवोन्मृष्टं ५ नीलाञ्जनायाः पुत्री त्वनीलाम्बरं तालकेतुं नृत्य गायन्मया सार्धनृपं सकलत्रमपि नृपो निर्णीतवांस्तज्ज्ञैः नेच्छत्येषा विना शङ्ख १ नेमि प्रदक्षिणीकृत्य १० नेमिः कृष्णो बलश्चाऽति- ७ नेमिना ज्ञापितैर्देवैः १० नेमिनाथोऽपि हि चतुः- ९ नेमिरप्यब्रवीदेते ९ नेमिर्जगत्त्रयोत्कृष्टः नेमिसन्धिषु राजानः ७ नेम्यनाधृष्टि-पार्थास्ते ७ नेम्यागन्ता यद्यपीह नेम्यागमतुमुलेन नैर्ऋत्यां सागरस्याऽभूत् नैगमेष्यवदद् यस्यां नैमित्तिकोऽप्यभाषिष्ट नैषधिः सागरचन्द्रो नैषा केनाऽप्युपायेन न्यग्मुखी कथयामास पक्षाविव महानेमि
७ पक्षिणो रक्षणायाऽस्थुपञ्चकन्याशतान्यस्मै पञ्चचत्वारिंशतंतु
१०७२ ९४७
४५५
४८६ २७०
४५३
६३३
८३८ ४५२
به
१०७०
५१७ ३२८ १६४ २४९
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سه
३ ३
३६५ ९१३ ४०२
१५२ २७५ १८३ २३१ २७५ २७४ १५५
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४६३
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४०६
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७ ७ १
४५२ ८५ १०३
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९६१ २६५ २२६
८०१ ८८७
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८५२
२७०
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३५७
४१५
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१९६
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२३
६५५
३१५
१४८ ४९८
४३३
१५२
१६२
८९९
१ ९
५०२ ३६३ ७०६ ४२७ २३० १४४
४२३ ३४० ५२१
३२१ १९० ४५७ ३४२ ३३१ १८४
२
६
५८८
३७३
१४०
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४४० २६५
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२४३
२३३ ११६ ६२४ ४७७
२६६ ४५०
२६ ६०७
७
१९०
११९ ५८ १५०
२
पञ्चाग्निसाधकमपि पटहो न स केनाऽपि पटालिखितपुंरूपं पटे लिखित्वा तद्रूपं पट्टबन्धः पुरा मूर्धपणीकृतां द्रोपदीच पतिता सा महारण्ये पतित्वा पादयोः सोचे पत्तिस्तत्र व्रजन् कृष्णो पत्नी शशिमुखी तस्य पत्नीयुतौ राम-कृष्णापत्नीश्चोवाच भामाद्याः पत्न्या मदनवेगायाः पल्यां मनोरमायां मे पल्यां विजयसेनायापत्न्यां विजयसेनायां पत्या भृशमवज्ञाता पत्या सहाऽपि हि मया पत्युः पितुश्च संहारं पत्युः प्रवासं विज्ञाय पत्युर्विद्यां तदानीं च पत्रिका-रत्नमुद्राभिः पथ्येकस्मिन् वने तेषां पदमप्यक्षमा गन्तुं पद्मपत्रपुटेनाऽम्भो पद्माक्षी पाणिपद्येन पद्मावतीगृहाभ्यणे पद्मावत्यश्वसेनाभ्यां पद्मावत्या मन्त्रिपुत्र्या पद्मोऽप्यकथयत् स्वागोपद्मोऽप्यूचे स तत्रैव पन्नगेन तदाक्रान्तपपात मुकुटो मूो पपात मूर्छितः पृथ्व्यां पपात मूर्छितः पृथ्व्यां पप्रच्छ च कथं वेत्सि पप्रच्छ चैकमग्रस्थं पप्रच्छ तं चन्द्रयशा पप्रच्छ तान् जीवयशाः पप्रच्छ भीमजाऽप्येवं परं गुरौ त्वयि प्राप्ते परं जन्तुर्जरा-मृत्युपरं सर्वाणयतिनो
परः स्तोक: समो वापि
४३७
परबाणैरस्खलिता परसैन्यानि रुवाऽस्थापरस्त्रियं मा स्पृश मां पराभूतो न केनापि परिणीतास्त्वया बढ्यः परिव्रज्याफलेनाऽहं
३ परिव्राट् ब्रह्मचारी च परीक्षितुमथाऽऽरोहद् पर्जन्याविव गर्जन्तौ ७ पर्यटन द्विपमारूढः २ पर्यटनारदोऽन्येद्युः पर्यणैषीत् तत्र शौरिः २ पर्यणैषीद् वसुदेवः पर्यणैषीन्न मां सोऽद्य ९ पर्यन्तदेशे वसता
१ पर्वतः सर्वतोऽपि द्राग ३ पल्लीपति तमादाय १ पल्लीपतेर्जरानामपल्लीशेन वणिक्पाचे पश्यन्त्यः कन्यकाः शाम्ब- ७ पश्यन्नेमि हरिर्दध्यो
९ पस्पन्दे नयनं वाम ७ पाञ्चजन्यं जन्यनाट्यपाञ्चजन्यं पूरयितुं पाञ्चजन्यं सुघोषं च ६ पाञ्चजन्योऽऽधुना भ्रातः! पाणिभिः कृष्णपत्नीनां पाण्डवा अप्यपश्यन्तः १० पाण्डवाः स्वपुरं गत्वा पाण्डवानां वासुदेवपाण्डवान् कुरुदेशाय ८ पाण्डुयुधिष्ठिरायाऽथ ६ पाण्डोः पत्न्यां द्वितीयायां पातितं तं महीपृष्ठे पात्रे पीयूषदानेना- ३ पादं जानूपरि न्यस्य पादचङ्क्रमणा एव ३ पादपोपगमनं स विधाया- १ पादान् श्वशुरयोर्नेमुः पान्थ एकोऽन्यदातस्याः ३ पापा: कादम्बरीपान- ९ पाययित्वा स तं पान- २ पारणायोग्रसेनस्तं पारापतप्रभाश्वोऽयं
३८६
पार्श्वतो भूभुजोऽभूवपार्श्वद्वारा प्रविष्टः स पाहि पाहीति ते नेमि पितरं ललितोऽन्येद्युपितरो भ्रातरश्चैते पितरौ रत्नमालायाः पितरो शोकनिर्मग्नौ पिता तस्याऽकरोच्छङ्ख पिता पृष्टस्तद्वरार्थे पिता भरतवर्षार्धपिता स मृत्वा भरते पिताऽपि दध्यौ यद्येतां पितुः पुत्र्याश्च सोत्कण्ठं पितृभिर्मातृभी रामपितृभीतः सोऽत्र दुर्गे पितृभ्यां परिवारण पितृभ्यां राम-कृष्णाद्यैपितृवेश्म व्रजन्त्यम्बापितृवेश्मस्थितायास्ते पितृव्यो ज्येष्ठनृपतेः पित्रा काञ्चनदंष्ट्रेण पित्रा पुत्रीवरं पृष्टपित्राऽन्तकाले स्वे राज्ये पित्राऽऽदिष्टस्तत्र गत्वा पिप्पलाद इति नाम पिप्पलादस्य शिष्योऽहं पिबन्नपि मुहुर्मा पीनोन्नतकुचाग्राभ्यां पुण्डरीकं सुतं राज्ये पुण्यक्षेत्रे सुरैनीत्वा पुण्येऽहनि ददो चित्रपुण्योत्कर्षात् कुमारस्य पुत्र नभः सिताष्टम्यां पुत्रः पिता पिता पुत्र पुत्रजन्मोत्सवं कृत्वा पुत्रा गन्धर्वसेनाया पुत्रा मदनवेगाया पुत्रा-ऽङ्कुशधरवामपुत्रि ! मा साहसं कार्षीः पुत्री चाऽनङ्गसिंहस्य पुत्री मे ते स्नुषा स्वामिन् पुत्रीप्रेम्णा तु तांदूरापुत्रेदं श्रीफलफलपुत्र्यस्माकं जीवयशा
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६
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३८७ ४५७
१०३ ८२४ १३९ ५०५ ३७० १९६ ३९९
२६८ ५३४ ४३१ ७०१ ३०८ ३९
२४३
७६९ ९०५
३८५
३४१
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________________
२२४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
२
८८
४९३ १२७
१९५
२५८
१०
४७४ ५९
१८८ ३७४
१ ३ ७ १ २
३६ १२६
३ ६८३ ३६६५ ३७० ३ १७२
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१०
२४५ १५५ ३५
७४
२ १ ६
३६१ २३३ ४८२
२९
६८
२१४
३३७
२२
६
११३
पुत्र्याः प्रियङ्गुसुन्दर्याः पुनरप्यवदद् रामो पुनरप्यागतस्तत्र पुनराख्यदहो ! कुब्ज! पुनरारोपयमास पुनर्निमन्त्रयामास पुनर्ययो निजगृहं पुनर्विस्मयमापन्नो पुनश्च दर्यामकस्यां पुमानेष विरुद्धो मे पुरः सामानिकानांच पुरस्तात् स्वयमासीनौ पुरस्य भृगुकच्छस्य पुरा च धरणेन्द्रेण पुरा नमिजिनेनोक्तं पुरा समवसरणं पुरा स्वेषां विभज्यादात् पुराकृतानि मद्यानि पुराऽपि हि भवोद्विग्नः पुराऽप्याक्रान्तभूपाल: पुरीमध्ये महास्तम्भं पुरे कुण्डपुरेऽगाच्च पुरे गत्वा नृपश्चक्रे पुरे चित्रगतिः स्वेऽगात् पुरे राजगृहे सोऽगात् पुरो नेमिकुमारस्य पुर्यन्तः श्वापदाश्चेरुः पुर्या अदूरे निवसंपुष्पदन्त्यपि तद्राज्ञो पुष्पदामक्षेपपूर्व पुष्पितं फलितं चूतं पूजयित्वाऽर्हत्प्रतिमापूरणः पूरणपुत्रापूर्णकाले व्यतीपातापूर्णभद्र-माणिभद्रौ पूर्णभद्र-माणिभद्रौ पूर्ण च काले सुषुवे पूर्णेच समयेऽसूत पूर्वकर्मवशात् तस्याः पूर्वजन्मपतिस्तस्या पूर्वनिष्पादितेषूच्चैःपूर्वपक्षं प्रीतिमती पूर्वपुण्यप्रभावाच्च पूर्वार्जितानि कर्माणि
Mummro m mmm Surrom room mr & Mmmmm 9 murworrum mr.
४३६ ४७८ ३६३ ८७५
पूर्वासनमधिष्ठाय पूर्वोढा वरयोषितो पूर्वोपात्तव्रतश्चाऽतिपृच्छन् पृच्छन् ययौ कुब्जपृच्छ्यसे किन्तु भगव- पृथक्शरीरौ तावेक- पृथुः शतधनुश्चैव पृष्टश्चाऽऽख्यन् मन्त्रिपुत्रो पृष्टस्ताभ्यां खेचराभ्यां पृष्टा च चन्द्रयशसा पृष्टा तातेन वत्से ! त्वं पृष्टाश्च तापसा आख्यन् पृष्ठे तेषामभूच्चन्द्रपेटादिना सहाऽऽदाय पोतानमिव निर्यामः पोरीभ्यः स्वं रोचयितुं पोरेमिथो दय॑मानो पौषकृष्णचतुर्दश्यां प्यधात्तत् तिलकं राजा प्रकाराग्राणि बभ्रंशुः प्रकृत्या दक्षिणश्चाऽयं प्रकृत्या सदयो नेमिप्रकृत्याऽपि विनीतात्मा प्रकृष्टं तत्र सुग्रीवं प्रकृष्टं न मया चक्रे प्रक्षाल्य च क्षणादूवं प्रक्षिप्य केशान् क्षीराप्रच्छदो दधिपर्णस्य प्रजिहीर्षु पुना रामे प्रज्ञप्ति-गौर्यो साऽदत्त प्रज्ञप्तिविद्यां प्रद्युम्नो प्रज्ञप्त्या ज्ञापितं तं च प्रज्ञप्त्या ज्ञापितस्तच्च प्रज्ञप्त्या तत्तु विज्ञाय प्रज्ञप्त्या तामहं ज्ञात्वा प्रणश्य गच्छन् पद्मोऽपि प्रणेशुः सीर-चक्रादिप्रतारयसि किं नाथेप्रतिपद्य च तद् रामो प्रतिपद्य तथा रामो प्रतिपद्येति तद्वाचं प्रतिपनं स्मरन् रामः प्रतिपन्नाद् भवन्तोऽपि प्रतिबोध्य बहून् राज्ञो
९२६ प्रतिमार्चक-कर्तृणां
प्रतिविष्णुः प्रचण्डाज्ञप्रतिविष्णुविष्णुनैव
प्रतीक्षमाणः समयं ११७ प्रतीक्षमाणान सोऽन्यर्षीन २४२ प्रतीक्षितस्तेन राज्ञा १८४ । प्रत्यक्ष इव रेवन्त३२२ प्रत्यक्ष प्रेक्ष्य यस्तं हि २७४ प्रत्यक्षं सर्वलोकानां ७७२ प्रत्यक्षीभूतममरं २१७ प्रत्यभाषत गोविन्दो ५७८ प्रत्ययश्चाऽभवत् तस्या २५६ प्रत्यलाभयतां भक्त्या
प्रत्यहं बर्हिणं वंश३४४ प्रत्याख्यान-नमस्कार
प्रत्यायतितुमारेभे ५२ प्रत्युताऽसि प्रसादाहों
प्रत्युत्पन्नमतिद्रौप८५० प्रत्युवाच जरासन्धः
प्रत्युवाचाऽमरोऽप्येव३८६ प्रत्यूचे रुक्मिणी नर्षि
प्रत्यूचे वसुदेवोऽपि प्रत्यूचे वसुदेवोऽपि
प्रदत्तामुग्रसेनेन २२१ प्रद्युम्न-शाम्बप्रमुखा ८७१ प्रद्युम्न-शाम्बप्रमुखा
प्रद्युम्न-शाम्बसहितो
प्रद्युम्न-शाम्बौ तनयौ ४१८ प्रद्युम्न-शाम्बौ निषध ३९३ प्रद्युम्न-शाम्बौ वैदा १०१ प्रद्युम्नं सहजातयौवनमिव ४०४
प्रद्युम्नः पूरयन् शङ्ख
प्रद्युम्नः सानुतापोऽथ १०८ प्रद्युम्नस्तच्चमूंभङ्क्त्वा
प्रद्युम्नस्तमभाषिष्ट प्रद्युम्नस्तां जगादाऽथ प्रद्युम्नस्य महाऋद्ध्या
प्रद्युम्नानयनहेतो२४९
प्रद्युम्नानुज्ञया साऽथाप्रद्युम्नो भीरुकं नित्यप्रद्युम्नोऽपि द्विजीभूय
प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीच्छान्तं २१८ प्रद्युम्नोऽप्यब्रवीन्मात
प्रद्युम्नोऽप्यभ्यधात् तिष्ठे
७
१० ३
१२९ ३३४ १८८ २०० १४ २१५
७ ७ ८ ७
९ १४७ ११ ६६ २२७९ ३ ८२१
२५२
१०००
२८८
१०१५
७ ६
१०५
१५
७
१६७ २९१ १८१ १९७ २६५ १४०
४८७ ४०२ ४८९ ४२२ ४८५
२२३
६ ६
४०
५
७ ६
१०२ ४२५
४०४ ३०४ २६९
९
४११
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प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१२९
७
२३६ १७४
३६६ ५७३ ४५५ ३४९ ३९८ १४५
५
१४
३ १०
१९४
१४३
३
२
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१०२० ७४९ १६६ १२५ ९५७ ૨૮૬ १२३
८६३ १० १५ १० २५
७
१
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२२२ ४३५ २४२ २६३
२५१
१४९
१
९
२७९ २४९ ३७९
१८
प्रद्योतयन् दिशः सर्वाः प्रधानपुरुषैरेवं प्रधेश्च परिधौ राज्ञां प्रबुद्धा च शिवादेवी प्रबुद्धा द्रौपदी तत्राप्रबुद्धा शुनिका साऽपि प्रभविष्णोर्न किं विष्णोः प्रभातसमये स्वप्नप्रभाते सार्थवाहोऽपि प्रभाते हालिकः सोऽपि प्रभावतीमभिधया प्रभोः प्रमाणमादेश प्रभोरग्रे दुश्चरितं प्रमाणमत्र निःशेषो प्रमाणमर्हदाज्ञा चेत् प्रलोभ्य भूरिभिर्युम्नैप्रविवेश गुहां चैका प्रविशन्ति वरं घोरे प्रविशावस्तयोरन्त प्रविश्य पूर्वद्वारेण प्रविश्योद्यानमुत्तीर्य प्रविष्टान् मद्भयादग्नौ प्रवेपमानसर्वाङ्गप्रवेशं सोऽलभमानप्रवजिष्यति यः कश्चिप्रव्रज्यासमयाख्यानं प्रसङ्गमिलिते राजप्रसरत्सारणीवारिप्रससाराऽपससार प्रसह्याऽऽनीयमानः स प्रसादोऽयं ममेत्यूचे प्रसुप्तां प्रेयसी पश्यप्रहारार्तेन वार्ष्णेयप्रहितोऽनङ्गसिंहेन प्राकारः शैलशृङ्गाणि प्राकारकपिशीर्षाणि प्राकृतानामिदं युद्धं प्राप्रविष्टमपश्यन्ती प्राश्यामादत्तनेपथ्यं प्राक्सिद्धर्मोदकैः साऽथ प्रागप्राजता यास्तु प्राग्जन्ममित्रमवधेप्राग्वैरं संस्मरन् रुक्मी
प्राग्वैराद्क्मिणीवेषो
प्राङ्मुखं स्थापयामासु
१४१ प्राणदानोपकारं तं
७९७ प्राणभूतो मम सुतौ
३४७ प्राणान् दुर्योधनस्येव ७ ३३१ प्रातः शौचार्थमायातः २७२ प्रातः शौरिददर्शला
३८४ प्रातरर्कमिवोद्यन्तं
१९७ प्रातर्विदर्भाभ्यर्णेऽगात्
१०१२ प्रातवेगवतीं दृष्ट्वा
४२३ प्रातश्च गच्छता दृष्टः ६ १५२ प्रातश्च ददृशुलोका- ६ १७४ प्रातश्च रथमारुह्या- ५ २२८ प्रातश्चरुक्मिणीगेहे प्रातश्चचाल कृष्णोऽपि प्रातश्चाऽग्निज्वालपुरात्
१३४ प्राप्तं राज्यं त्वया साधोः
१०६८ प्राप्तः कक्षान्तरं षष्ठं
१३८ प्राप्तश्च गोपुरे शौरि
१०८ प्राप्ताश्च प्रमदवने प्राप्तेऽब्दे द्वादशे लोको प्राप्तो टङ्कणदेशं च २ २४९ प्राप्याऽथ यमुनाद्वीपप्राभूवन् पथि गच्छन्त्या
५६७ प्रारब्धमङ्गलाचारां ३ ३९४ प्रार्थये वः प्रसीदन्तु प्रार्थ्यमानोऽपि नाऽभूत् ते
२६४ प्राव्रजन बहवस्तत्र प्रावाजी भोजवृष्णिश्च प्रासादोऽष्टादशभूमः ५ ४१२ प्रासादौ च तदभ्यर्णे ५ ४०५ प्रियङ्गुसुन्दरीं तत्र २ ५५८ प्रियायाः पादघातेन प्रीणिता प्राणिनो दीना ९ १९१ प्रीता कनकवत्यूचे प्रीतिमत्या तथाऽन्याभिः
४२७ प्रीतो राजाऽब्रवीत् साधु
६१ प्रेक्ष्य रामस्य वैधुर्यं
७ ४१९ प्रेष्य द्वौ खेचरौ सैन्ये १ ५०७ प्रोचे च प्राञ्जलिर्भमी ३ १०४६ फुल्लसप्तच्छदोभ्राम्यद्
२६ बकुलस्य तले केऽपि बद्धं तेन प्रमादेन
२३८ बद्धप्रतिसरं नेमि बद्धस्तत्र स आरक्ष- २ ५८३
२७५
बद्ध्वा च भूरिश्रवसं बद्ध्वा मानसवेगं चा
बद्ध्वाऽऽरक्षेपगृहं ।। बध्यमानकचामेके
बन्ध-मोक्ष-गम-चरबन्धयित्वा पादयोस्तं बन्धुमत्या बन्धुषेणः बन्धुमत्या समं शौरिः बभाषे तावृषो भैमी बभाषे नैषधिस्तर्हि बभाषे पद्मनाभस्तां बभाषे पाण्डवान् कृष्णः बभाषे बलभद्रस्तं बभाषे बलभद्रोऽपि बभाषे बलभद्रोऽपि बभाषे रुक्मिणी कृष्णं बभाषे वीरकोऽप्येवं बभाषे सत्यभामाऽपि बभाषे स्वामिनं कृष्णः बभूव महिषी तस्य बभूव सर्वतोऽरण्ये बलत्रिभाग: पद्मस्य बलदेवं जगादेवं बलभद्रो बभाषेतबलस्तमूचे किं मुग्ध ! बलोऽप्युवाच सिद्धार्थ ! बहिः पुराच्च प्रासादान् बहिर्गत्वाऽकरोच्चित्यां बहिर्गत्वोपश्मशानं बहुभिर्दिवसै तो बाणोऽपि शङ्करवरेबाल-ग्लानादिसाधूनां बालसाधुवपुर्भूत्वा बालातपोऽप्यसह्योऽभूत् बालिकां युवती वृद्धा बालिशः किं किमुन्मत्तो बाहूबाहवि कृत्वा च बाहौ पुष्पाङ्गदं कापि बिभ्रती मार्गसङ्क्रान्तं बिभ्रती स्मरदालाभं बिभ्राणः छत्रकं मूर्ध्नि बिलादिव त्वया सर्पः बुद्धि-विक्रमसम्पन्नं बुभुक्षाक्षामकुक्षेमें
५ १२
२५४ २६
१०
२०७
०६५
१७२
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५२
३३४ ९२३
३
३. ५२५ २ १६३ १ २४१
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६५
५७०
१९७
२५३ २२४ ४०३ ५९६
३
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________________
२२६
बोधयामास सा तं च
बोधितश्च यशोभद्र
ब्रह्मलोकं बलो गामी
मन्द्रो दर्पण पूर्ण
भक्तां तदेनां वञ्चित्वा
भक्तिः पितृ ते कस
भक्तिमानमरस्तं च
भक्षयन्माक्षिकं क्षुद्र
भक्ष्य पाने बलो मुक्त्वा
भगवन्तं ततो नत्वा भगवन्तं नमस्कृत्य भगवानप्यथोवाच
भगवानप्यभाषिष्ट
भगिनीहरणेनाथ
भग्नं च रुधिरबलं
भग्ने सिंहरथानीके
र्भाणतो वेगवत्या च
भद्रापुत्राय पद्माय
भद्रे तपोवनेऽमुष्मिन् भरतार्धजयोद्भूतभरतेशकुलोसो भवता मोचितश्चास्मि
भवतो दर्शनेनैवा
भवभारत वर्ष
भवद्भ्यां च महात्मानी
भवन्तोऽपि हि भृत्या नः भवन्त्येता हि पाताय भवारण्ये लुण्ट्यमानं भविता षोडशाब्दान्ते भविष्यतोऽर्हतो बिम्बं भवे च नवमेऽरिष्टभवे भवे च पितरौ भवोद्विग्नो धनो राज्ये
भव्योऽसि भविता चाहन् भरिका दीव भाग्यसेनृपः पद्यो भानुकः सादरोऽवोचत् भानुश्च भामरश्चैव भामातो विभ्यतीभिः स भामादासीमपश्यच्च
भामाया भानुकः सूनुः भामाऽपि तं भोजयितुं भामोद्भामा ततः प्रेषी
भामोवाच सुतो यस्याः
२६६
८१०
५३
२४१
५३३
१३०
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३८३
२४८
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१९१
१८०
२२५
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६
४४०
६ ४७४
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४
२
२
१
३
३
३
२
३
३
५
८
३
६
३
१
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
भामौकसि गतः शाम्बो
भारुण्डाभ्यामुद्धतीच
भाविनी दुःखभाषा
भावीति सोऽपि पायोद
भिक्षामस्मै प्रदेहीति
भिल्लास्तु ते ययुः सर्वे
भिल्लास्ते ननृतुः केऽपि
भीताऽप्यथोऽवदद् धैर्य
भीतोऽथ कंसो वेश्मैत्या
भीमः सत्कृत्य सत्कृत्य
भीमजां वीजयामास
भीमजाया गुहामध्या
भीमजाऽपि रथं मुक्त्वा
भीमराजोऽवदत् पुत्र!
भीमस्तया रसवत्या
भीमेन सत्कृतो दूतः
भीमोऽथ कारयामास
भीमो ऽप्युवाच हे पुत्रि ! भीमोऽभ्यगाद्दधिप भुजोपपीडं तं सोमः
भुवा ग्रस्त इव रथ
भूचराः खेचराश्चेयुः
भूचरान् खेचरांश्चाथ भूतात्तवन्नरीनति भूत्वाऽपि वसुदेवस्य भूपतेः सोमदत्तस्य
भूपा: षोडश सहस्रा:
भूपाः संवर्मयामासुः
भूपृष्ठे पतितस्तत्र
भूमावास्फाल्य रजक भूयः क्लेशेन विद्या वः
भूयः प्रापय्य चैतन्य
भूयः सत्योऽवदत् प्राप्तौ
भूयांसो यदवोऽन्येऽपि
भूयांसो प्रतिनोऽन्येऽपि
भूयो बभाषे तां साधु
भूयो भूयश्च लाङ्गूल
भूयो भूयोऽपि दिमहात्
भूयो राजकुले गत्वा
भूयो लक्ष्मीवती तत्रा
भूयोऽपि वसुदेवेन भूयोऽप्युवाच चन्द्राभा भूयोऽप्यूचे महर्षिः स भूयोऽभ्यधत्त सर्वज्ञो
२
१०
१
६
३
३
३
३
३
३
३
३
३
३
३
३
३
१
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१
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४१३
७९
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४३२
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४०
४०७
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३५५
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३०७
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३८८
१११
४६१
९२४
१०४
३ २२२
६
२३३
२
८७
६
२१३
२५१
५१
भूरिश्रवाः सात्यकिश्च
भृत्यैरानाय्य तां शाम्बः भृशं तद्गण्डति
भेदितं भेदनीत्येव भेरीख्यातिमथ श्रुत्वा
भेरीपालोऽप्यर्धलुब्ध
भैमी प्रबुद्धा तत्काल
भैमी प्रेप्स्याऽतिदूरे सा
भैमी समाप्यात्पूज
भैम्यभ्यधादितो देव !
भैम्या रूपं प्रपश्यन्त्य
भैम्याख्यात सार्थवाहाय
भैम्यूचे च ममाऽऽख्यातं
भैम्यूचे नाव पश्यत्यां
भैम्यूचे यदि मे भर्ता
भेम्यूचे वत्स! दुष्कर्म
भैम्यूचे स नलस्तात !
म्यूरोऽहं वणिक्पुत्री भोः ! कोऽप्ययमुत्पात
भोगानभिज्ञो मबन्धुभोजवृणोर्मधुरायां
भोजोऽपि निजगादेव
भोस्तापसाः पूर्वभवे
भ्रमन्त्यटव्यां संव्याना
भ्रातुः स्वस्रा समं पूर्व
भ्रातृ-भ्रातृव्यसम्मत्या भ्रातृस्नेहादुपास्तेऽसौ भ्रातृस्नेहाद्युयुत्सु ध भ्रात्राऽवमानितोऽहं तु
भ्रान्त्वा तत्र बहु प्राप्तो मग्नास्तिष्ठन्ति कुत्रापि मञ्चस्तम्भमवोद्धृत्य मञ्चांश्च मण्डपस्याऽन्तमणिप्रक्षालनजल
मणिशेखर मुख्यास्ते
मतिप्रभो नाम गुण
मत्तस्त्वया रक्षितेयं
मत्ता सोऽदश कुरो मत्पिताऽष्टापदेऽथाऽगात्
मत्सान्निध्याज्जिताः सर्वे मत्स्वामिनमहो ! वैरि
मदनमयमिव तं मदिरापानमात्रेण मदेनेव लुलष्टि
(प्रथमं परिशिष्टम्
७
११
३
७
१०
१०
३
३
३
३
३
३
३
३
३
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१
१
१
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८१५.
९७६
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३२८
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२६१
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३२२
३५७
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३१९
५४६
१५२
५५३
४१३
९२९
३०७
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प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२७
१
१११
९ ९
३०५ ३१०
५
३१
३८० १३५ ९२२ ३३८ ७४८ ८६० २० ४८४ ३२८
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४ . ० ० murwwww ,339
१५२ २०५ २२२ २०३ ३४० ३९२
४०२
६
२३८ २९९
७
२५३
मदबन्धाश्चारुदत्तस्यामद्भात्रा तेन तं भार्या मद्यं मांसं नवांत मद्यपस्य शबस्थव मद्यपानरसे मग्नो मद्यपानात् सलवणामद्यपानाद् दुर्मदीव मद्वध्वा बान्धव इति मद्वाचा क्षमयः सर्वान् मधुं प्रणम्य चन्द्राभा मधुमहद्धिदेवत्वामधुः प्रतस्थेतं हन्तुं मधुनोऽपि हि माधुर्यमधुमत्तान्यपुष्टस्त्रीमधुर्बन्धुसुतं राज्य मध्यदेशनृपा वामे मध्यमाक्रम्य जानुभ्यां मध्याज्जृम्भकदेवानां मनःपर्ययसंज्ञंच मनोगतार्थाभिधानामनोऽवधिभ्यां स मुनिमन्त्रि-सारथपुत्रैश्च मन्त्रिसूर्बहिरुद्याने मन्त्रेणोद्धाटयामास मन्ये मुनिवचो मिथ्या मम चाऽमोघया वाचा मम चाऽऽगच्छतोऽभूवमम चेद् गृहजामाता मम रामस्य तातानां मम वस्त्राञ्चलग्रन्थौ ममाऽपि खड्गरत्नं य ममाऽपि हि निवासाय ममाऽप्युपकरोत्येतममाऽपितोवर्धनाय ममाऽसिरत्नं जहेऽसौ ममाऽस्ति चावधिज्ञानममाऽऽज्ञा प्रतिपद्यस्व ममैतदुल्मुकप्रायं ममोपकारिण: साधूमया गोपालबालेन मया तातस्य जामेश्च मया तु वस्त्रे लिखितामया निर्वृतिदेव्यद्य
मया मायोरगीभूय
१०६
४३० ४५१ २१२ ३१९ २९४ ६४६ ६४७ २५४ १७ ४३७ ४४७ ३१७ ४३४
मया वृतश्च मनसा ९ २३२ मयाऽपि वादिते शो मयाऽयं कांस्यपेटायां मयि तत्राऽधिरूढायां ३ १०१६ मयि सत्यपि पार्श्वस्थे मयूरपिच्छाभरणः
१६४ मयूरीपुत्रविरह
२५७ मर्यकाकिन्यसौ मुक्ता
५३२ मयैव सह सोऽन्येधु
४०२ मयैवमूहापोहाभ्यां मरिष्यत्यंव रामोऽयं ७ ४२० मरौ वीतभयेशस्य मर्तुकामा मन्त्रिणस्तामर्मणाऽन्तरिताऽभूस्त्वं
५५३ मर्माविधा शरेणेव मलयेनेव तुङ्गेन
३९३ मलीमसाझवसना
७०० मल्लयुद्धोत्सवं श्रुत्वा ५ २४८ मल्लेरेकोनविंशस्या
७४३ महत्यां पालको रात्रामहर्षि स्माऽऽह महिषी ३ २६९ महर्षिरपि तस्याऽऽख्यत्
२६२ महर्षे ! विषमः कालः महात्मैष निशां सर्वां ६ २४८ महानेमि शौर्यपुरे महानेमिः सत्यनेमिमहानेमिः सत्यनेमि- ७ २४९ महानेमिकुमारोऽयं ७ ३८२ महाप्राज्ञः सोऽतिविद्वान् २ २८३ महामात्र इव व्याल
११ ३३ महाय॑शिबिकारूढाः ९ १४९ महाव्रतधरो धीरः महासती तु ते पत्नी महासतीयमाजन्मा महासत्या दवदन्त्या ३ ९७१ महासेनस्याऽपि सुतः ७ १९१ महिषी: पङ्कसम्पर्क- ३ २५२ महिषीश्चारयामास
३ २४७ महीजयो जयसेन
७ ३५४ महीभुजां षोडशभिः ९ २८६ महेन महता भीम
३ ३६९ महेन्द्रो नाम तत्रर्षिमहेभ्यधार्मिकोदार- १० २५४ महोजसस्तमन्वीयुः
मा नः परिचितोऽज्ञासी- मा भू विवाहप्रत्यूहा मा मृथा मा मृथाः कुब्जामा रोदीरधुना वत्से ! मा शोचीरीदृशं कर्मोमां महापापिनं भद्रे मां विशेषात् प्रीणयितुं मां शङ्ख एवोद्वोति मांसास्वादनलुब्धस्य मांसाहारानिवृत्तास्ते माघमासे सिताष्टम्यां माणिक्यभित्तयोऽभूवं माता-पित्रो: प्रमोदेन माताऽपि प्रणमन्तं तं मातुः स्तन्यमपि मया मातुलेन सहाऽन्येद्युमाद्रेयस्तमुवाचोच्चैमानदो जयमानोऽथ मानुष्यं दुर्लभं हन्त मानुष्यकस्य च फलमामपश्य द्वितीयोऽजो मामेषोऽर्थितपूर्वीच माययैव हतः कंसो मायामयं स्वर्णतुण्डं मायायुद्धैरस्त्रयुद्धमायाविप्रोऽप्युवाचैवं मायासाधुः स तच्छ्रुत्वा मायो मायिसुतो मायिमार्ग तपनसन्तापमार्गे गृहा-ट्ट-वलभीमार्गे चाऽऽगच्छताऽनेक मार्ग महाद्रुसङ्कीर्ण मासपारणकेऽन्येधुमासान्ते तो विपद्योभी मासे मासं च सुग्रीवमासे मासे दिदृक्षुस्त्वां मासे मासे पारणं स माहेन्द्रे च सुहृद् भार्या मित्रश्रियः सुमित्रश्च मित्रैः सहकदा क्रीडमिथः संवलितैकैकमिथः स्निग्धाश्च तेऽन्येद्युमिथो नीरन्ध्रगमनैः मिथो युयुधिरे योधाः
६१
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१
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२८६ ३७८ ५३५
३
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________________
२२८
• मुक्तमात्रः स चौरोऽपि
मुक्तश्च पर्वतेऽपश्यद्
मुक्तस्तेनोपवैताढ्यं
मुक्तापितृभ्यां तद्गन्धामुक्ता-विदुमदामो मुक्त्वा तस्यान्तिके पुत्रं मुक्त्वामिभुजस्तम्भ
मुक्त्वाऽन] पानमन्वेष्ट्
मुखां - ऽहि-हस्तं प्रक्षाल्य मुख्यमानास्तु ते भैम्या
मुदिता तौ च प्रपच्छ
मुनिं प्रणम्य सुग्रीवः
मुनिः शशंस सा नंष्ट्वा
मुनिना सुप्रतिष्ठेन
मुनिराख्यत् त्वद्दुहितृमुनिर्बभाषे चलितो
मुनेर्लब्धिमतस्तस्य
मुर्विष्णुकुमारस्य मुमुक्षुतोऽसि त्वं
मुमूर्षुः सोऽथ वैराग्याद् मुषितोऽस्मीति जल्पंश्च मुहुर्मुहुः पठ्यमानं
मूर्च्छितः सोऽपतत्पृष्य मच्छितश्चाऽपतं भूमी मूच्छितोत्थापिता सा च
मूर्त्या च सीरिणस्तुल्यो मूल्यार्थ कम्बलानां तु मृगध्वनकुमारेणां मृगव्येन भ्रमंस्तत्रा मृते पितरि दावामृत्याविव मृति नीते मृत्युं ज्ञात्वा ततः पित्रो
मृत्वा तत्राऽभवद्ग्रामे मृत्वा पायनोऽप्यग्नि
मृत्याऽग्निला तु मृत्वाऽभवल्लोहिताक्षामृष्टान्नान्यपि विष्ठासा
मेधां पिपीलिका हन्ति
मेरुः कपिलरक्ताश्वः मेदो भूमिरामोपेक्षा बराकी मां मोहितेभो यादवस्ताय आख्यत् कनकवर्ती यः कोऽपि कोपं कुरुते
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१५३
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३५
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३४९
३८४
१७३
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
यः कोऽपि जातो वीरेण
यः प्राक् कुण्डपुरे दृष्टा यक्षिणी राजपुत्री च
यच्चाऽस्मि पतिता वृक्षात्
यज्ञदत्ता तस्य भार्या
यज्ञे वृत्ते कुमारस्ता
यत् किञ्चनाऽप्यपदेश्य
यत् प्रमोदय सूर्य
यत्तु भेषयसि त्वं मां
यत्र तत्र स्थितस्याऽपि
यत्र यत्र ययौ तत्र
यथा क्षणानष्टसंज्ञो
यथा तत्र स्वयं गत्वा
यथा धनकुमारोऽयं
यथा नाऽलं पुरीं त्रातुं
यथा नैवं वदन्त्यन्या
यथा प्रावर्तयत् तीर्थं
यथा ममोजसा रामो
यथा यथा हि
५३०
९२
१
८४
७
२२७
९ २९७
१०
२५२
१
१२२
१०
३७
१
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१०
९५
२२०
१०४
२९
१५६
४९
८२
३६३
६९५
१३१
३१
२३
१८४
८२
४०७
३७५
१४२
२७२
५३८
२३८
४०६
१०४
१०५
५४
५४०
६७४
१६
७१७
३७८
२
३
यथा हि स युवा रूप
यथा नश्वरौ राम
यथातथे तदाऽऽख्याते
यथार्थनामा विमलयथावसरमिलितैयथाऽर्धचक्री दोष्ण्यस्या
यथाऽसौ याति नाऽनर्थं
यथैषां बन्धनान्मोक्षः
योक्ता नारदेनेय
यदवस्तद्गिरा क्रुद्ध्वा यदवो गरुडव्यूह
यदवो यदुपन्यश्च
यदवोऽ ताडयंस्तूर्य
यदहं फलिते फुल्ले
यदा तदाऽत्रैति गोधा
यदा शक्रमहे च त्वां
यदा हस्ते गृहीत्वाऽहं
यदादिशति मे माते
यदाऽपश्यत् तदैवैत्य
यदि ते जायते पुत्रः
यदि ते धर्मवचनं
९
३
यदि पाणविकायेयं
यदि मे मानसं सम्यग्
यदुभिः पूज्यमानास्ते पदोरप्यभवत् सुन
५.
२
१०
९
५
३
१२
२
३
७
९
९
९
६
७
७
६
७
३
२
२
१२
२
३
२७६
४४८
३७८
५४९
३२
३
६
यद्यद्धन्वाऽऽददे रुक्मी यद्यप्ययमिहाऽऽयातः यद्यप्यसि हरेर्भ्राता
यद्यप्याजन्मविमुखः यद्यसौ परिणीय त्वां
यद्यालपाम्यमुं पाद
यद्वा तवाऽपि नो दोषो
यद्वा नेदं रोचते व
यद्वा मुखक्षालनाय
यद्वा सम्भाव्यते नेदं
यद्वेदं प्रागपि ज्ञातं
वयो कृष्णमनावृष्टिः
यो च तुच्छनत्वं
ययौ च भूतरमणो
ययौ स दूतः स्वगृहं यशोधर-गुणधरी यशोभद्रोऽवदत् सूरि
याचस्व च वरं कञ्चि
याचितो देवकीगर्भान् याचेथां रुचितं यद्वा
याच्यमानोऽपि कनक
याज्ञवल्क्यः सुलसया
यात प्रतीच्यामधुना
यात प्रथमपौरुष्यां
यात्रायाश्चाऽऽययौ शौरि
यान्तं मलिनवेषं तु
यान्ती चाऽग्रे जलाकार
यावच्च ब्रह्मलोकेऽगात्
यावत् तदर्थे श्रीषेणा
यावदाख्यातुमारेभे यावदेवं वार्तयन्तौ
यावद् विष्णुर्विषण्णोऽभूत् युगपद्वर्षां मुध्यमानी स्वयं चेली
युयुधाते ततश्योधी
युवयोरूपदृश्वाऽहं युवराजो जरासन्धयुष्यत्पितुः पुत्रकेणो
युष्माभिः कथमुत्तीर्णा
ये चैते पशवो दृष्टा
ये भक्षयन्ति पिशितं
ये भक्षयन्त्यन्यपलं
ये वासरं परित्यज्य
येन घोषवती सेना
(प्रथमं परिशिष्टम्
७
९
९
७
९
३
९
१०
३
९
७
१
६
१
१
३
५
७
६
२
५
९
२
३
३
२
१
३
३
७
५
२
३
७
६
१०
९
९
९
९
१०
२९१
१६६
४२४
२२७
७१
२१९
३५
५४२
३२
२१५
३७३
२६१
१३१
६४
५३१
६९७
५५६
७८
५७
२०८
२७८
३६१
३८२
४५१
१२१
७१५
४०३
४८५
१७१
२८६
४९०
२८३
२८३
९०
५०
३९०
३९८
८४
१८९
३२९
३२६
३५७
२२९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२९
१६३
२२७
३०२ ७ १९९ ३६६७ ३ १५८
२३०
३०८ ४६८ ५८२ ६४ ५२७ २६७ २१५
५६
२ १
३७८ १४९ ६०८
४७३
३
१०६१ ३०८
९
३६१
२६४
२
३३३ ३१७
२३५ ३२० ३०० ४२४ २६०
३१३
३७२
२५८
३३०
येन तेन प्रकारेण येन रक्तस्फटो नागो येनेतो पोषितौ सपा येषां कुलेऽरिष्टनेमियो जीवहिंसां कुरुते यो हि स्यादनुरूपस्ते योग्यो ममाऽयं जामाता योत्स्यन्ते किं भवन्तोऽत्र योद्धं च भाग्यसेनेन योऽसिरत्नं तवाऽऽच्छेत्ता रक्तवस्त्राणि ताम्बूलं रक्षार्थ रुक्मिणस्तत्र रजनीभोजनत्यागे रजोभिरिव सैन्योत्थैरज्जुमकर्ष भगवां रटन् गायन् लुठन् धावन् रणज्झणिति कुर्वद्भ्यां : रतश्रान्तस्तया सुप्तो रत्नवयपि तत्रैव रत्नवत्या कनिष्ठाभ्यां रत्नवत्याश्चाऽनुरूपो रत्नस्नानासनासीनौ रत्नादर्शाङ्कितं विष्वरत्या स्मर इव स्वैरं रत्यादिरमणीरूपं रथं कृत्वा च युक्ताश्वं रथं रथेनाऽश्वमश्वेरथः प्रवीयमानाश्वो रथकाराग्रणी राम रथकारो विचिन्त्यैवं रथनूपुरनाथस्य रथनेमि स्वराज्ज्ञात्वा रथनेमिविवस्त्रां तां रथनेमे ! पिबेदं त्वरथाङ्गकृतरेखायां रथाङ्गपाणि: कुपितोऽथ रथानां पञ्चविंशत्या रथानां पञ्चविंशत्या रन्तुं प्रवृत्तास्ते स्वैरं रममाणस्तया कालं रममाणस्तया सार्ध रममाणा वयस्याभिः रमयामास तां स्वैरं
ररासाऽश्वखुरक्षुण्णा
रसोद्भवाश्च भूयांसो ९ ३१६ रहःस्थितामन्यदा तां
२६२ राक्षस्याविव रक्तास्ये रागादिरहितः सोऽथ राजकन्या मयाऽप्याप्तेराजकार्य स आख्याय राजक्षेत्राणि न ग्राम्यैराजन्ती पाणिपद्मना
१६० राजपिण्डेन पुष्टोऽयं राजपुत्रि ! विविक्ताऽसि राजमती जगादाऽथ
९ २७१ राजविप्लवकृत्तावराजस्वनामाङ्कमुद्रा- २७० राजा गृह्णन् करं पृथ्व्या राजा तस्याऽभयं तेन २ ५०४ राजा देवर्षभो वायुराजा प्रोवाच तर्हि त्वं
१००९ राजा राज्ञी च तां दृष्ट्वा राजा रोहीतकेशोऽयं ३ ३४१ राजा वा राजपुत्रो वा
३९९ राजा समर्थयामास २ ५०९ राजा स्थगीधरश्छत्र- ३ ९९७ राजा हिरण्यनाभश्च ७ १४७ राजान उग्रसेनाद्याः राजानं क्षमयित्वाऽथ राजानश्चकितास्तेच राजानो राजपुत्राश्च ३ ३१७ | राजानोऽथाऽऽययुस्तत्र राजाऽथ चारुचन्द्राय २ ५३३ राजाऽथ तां दिने पुण्ये राजाऽपि वचनं तस्य ३ ९४३ राजाऽपि व्याजहारैवं ३ २८५ राजाऽपि स्वोत्तरीयेण ३ ८५३ राजाऽप्यूचे वणिक्पुत्र राजाऽहमेव नो पद्म राजाऽऽख्यात् ते विषं मात्रा राजीमती च श्रीनेमा
९ २७४ राजीमती तत्सखीना- ९ १६८ राजीमती सकोपोचे ९ २३० राजीमत्यपि संविग्ना १० १४८ राजीमत्याः प्रतिज्ञा तां ९ २३७ राजोचे भगवन् यस्य १ १८८ राज्ञा सहोग्रसेनेन ५ ३२९ । राज्ञा हिरण्यनाभेन ६ १००
राज्ञां दुर्योधनादीनां ७ राज्ञाऽपि तद्वचः श्रुत्वा राज्ञाऽपि युक्तमित्युक्ते २ राज्ञो ध्वान्तस्थितस्याऽथो राज्ञो यज्ञेऽथ तस्येयुराज्यं च यौवराज्यं च राज्यं न्यस्य सुते गत्वा राज्यं प्रकृष्टमथवा राज्यं सुतेभ्यः कालेन राज्यभ्रंशोद्भवं दुःखराज्याभिषेकमाङ्गल्योराज्यार्थिनौ सिषेवाते राज्ये मां स्थापयित्वाच राम इत्यभिरामंच राम-कृष्णानुज्ञयाऽथ राम-कृष्णावनाधृष्टिराम-कृष्णौ च तौ भूपान् राम-कृष्णौ पाण्डवाश्च ६ राम-कृष्णौ बल-विष्णू राम-कृष्णौ बहिः पुर्या राम बभाषे गोविन्दो रामपुत्रैर्वृतः पार्थः
७ रामप्राग्भवसम्बद्धः १२ राममाहूय सोऽन्येद्युः रामस्तदुपरोधेन
१२ रामस्य रूपातिशया- १२ रामानुजः सारणोऽथारामाभिरामं रामोऽपि ५ रामायाऽदाद् वनमाला रामेण सह गोविन्दः रामोऽपि कृष्णानुमतः रामोऽपि विममशैवं रामोऽप्युवाच गच्छ त्वं रामोऽष्टाविंशतिमपि रामोऽहं भवतो भ्राता राष्ट्रवर्धनराजोऽपि रुक्मिणी जाम्बवत्याद्या रुक्मिणी प्रक्षरत्स्तन्या रुक्मिणीसदनाभ्यणे रुक्मिणीस्नेहलेखंस रुक्मिण्या याच्यमानाऽपि रुक्मिण्याश्च गृहेऽन्येधु- ६ रुक्मिण्याऽपि तथोक्तः सः ६ रुक्मिण्याऽप्रच्छि स मुनिः ६
५२
५५ ३९
७ ३
३३७ ९९९
२५५
४२१
१२ १
६१ ३११
१० ९ १०
२७६ २६९ २२३
२९४
७ ७
२५१ २५५
१ २.
३६२ २०१
३१२
६५
३७४
१११
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________________
२३०
रुक्मिण्युवाच न क्वाऽपि
रुक्मिण्यूचे किमृषीणां रुक्मिण्यचे त्वयेवाऽस्मि
रुपये महतीम
रुक्मिन्! रुवा
रुक्मी शिशुपालश्च
रुडुबुडु रुडुबुडु स्वती सा पितुर्गवा रुदन् गत्वा भीरुराख्यद्
रुदन्नेवं च शुश्राव
रुद्धं बद्धपरिकरैः
रुधिरं कोशलाधीशो
रुधिरेणाऽर्चिता जग्मुरूपेण विस्मिता तेन रूपेणाऽप्रतिरूपस्त्वं रूपेणाऽमरकन्येवा
रूप्यस्य द्वादश कोटी:
रे किस भाव
रे ! दुरात्मन्त्रसमानरेमाते तो बहुं कालं
रेमं रमेव सा मूर्ता रेवत्याद्या बलपत्न्यो रेपिण्डोऽयुतीर्ण इव रोदसी छादयन् सैन्ये रोदस्योरन्तरा मानरोहिणी रोहिणीशाभं
रोहिण्याद्या महाविद्या
रौद्रध्यानवती मृत्वा लक्ष्मीवती वेगवती लगित्या सद्गलेऽरोदीलज्जाविनमदास्याब्जं लब्धसंज्ञः समुत्थाय ललितायां ततो गोष्ठ्या लवणाम्भोधिमध्यस्थो लीलांद्याने श्रीगृहे श्री लेलिह्यमानं भ्रमरे लोकः प्रीतो रथे शौरिलोकेन सद्योऽप्यानीतः लोकैयां याऽपिता वीणा लोकोत्तरं चरित्रं च लोकोपहासभीतो च लोहार्गलासनाथानि
वंशानां दह्यमानानां वक्रांऽहि नासिका हस्ता:
६
६
४५२
२७
१६
७६
३९
४१
४४१
२३७
८८
८०
१२६
१५
४२
३१
५१
२८३
२८४
९६
७६
४३९
३०१
१४०
८४२
४२८
६४१
२५
४८५
१८५
६
३७७
३
८७०
१
२९०
१
३३१
२
२०८
२
२६८
६
६६
३
३८४
२
३५६
६
१६९
२
१८१
६. ३७०
२
२८०
१०
५५
३
८८०
११
३९
७
६
६
६
१०
७
७
३
४
४
१
६
७
१०
३
३
९
३
१
३
२
१
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
वचनं ह्यस्तनं योऽद्य
वज्रेण भेद्या तदिय
वञ्चयमानावन्योऽन्यवणिग्भिस्त वास्तव्ये
मात्र वैकागो
-
वत्स ! वर्षशतं क्वाऽऽस्था वत्साभ्यां राम-कृष्णाभ्यां
वत्से ! प्राक्कर्मणामेष
वधू-वरस्य दशन
वनवासं तव त्राण
वनाद् वनं चिरं भ्रान्त्वा
वने तत्रैकदा सार्थे
वने तपस्यतस्तस्य
वन्दित्वा देवमर्हन्तं
वयमेव यतः सृष्टि
चैष
वयसा वपुषा
वरं राज्यं स्वयं देहि
वरमेको विपन्नोऽहं
वराणां दृग्विनोदाय
वरोऽस्या ज्ञानिनाऽऽचख्ये
वचोऽपहृत्याऽथ मुनौ वर्धमानः क्रमेणोपा
वर्धमानाश्चेतिसंज्ञाः
वर्षं वर्षं स्थिते मेघे
वर्षत्यब्दे च गमनं
वर्षत्यणि वेदभी
वर्षानाटकनान्याभां
वर्षारात्रमतिक्रम्य
बल्लवेवेल्लवीभिश्व
वाम रुधिरं रामो
ववृधे सा क्रमेणोपा
वशीकरोति यः कश्चि
वशीकृता परिव्राजै
वशीकृताशेषभुवोवसन्त-दक्षिण
वसन्ततुंरतीयाच वसन्तसार्थवाऽपि
वसुदेवं तथा दृष्ट्वा
वसुदेव देवकीं] च
वसुदेवं नमस्कर्तुं
वसुदेवं येकदाऽपि
वसुदेवं रहस्यूचे वसुदेवं शौर्यपुरे
७
6 ू
६
१
७
४
५
६
६
१०
६
१०
१२
३
१२
५
३
६
३
१ ३१२
२
૪૪
१
१४२
४०२
५९१
२६४
७७१
५८६
२७२
१४२
५
३
३
३
३
३
५
७
१
४१७
३७१
५४
५७९
२०२
३ १०५०
९
६९
७
२
६
९९
२८७
५२
३००
१३६
१०२
३८
३४५
३४१
३२९
१४३
३६५
१८७
४९
५१६
८५
२७९
४४७
३
३
११
७
२
२
२
३०५
१८८
६३४
१७८
७४
१२७
११८
९५
११५
वसुदेवः क इत्युक्तवसुदेवकुमारश्च
वसुदेवगृहेऽन्येद्युवसुदेवस्तदाकर्ण्य
वसुदेवस्य कनक
वसुदेवस्य पुत्रोऽहं
वसुदेवेन चाऽऽहूताः
वसुदेवोऽपि तच्छ्रुत्वा वसुदेवोऽपि तत्रागाद्
वसुदेवोऽप्यथाऽबादी
वसुदेवोऽप्युवाचेव
वसुदेवोऽवदत् कोऽयं
वसुदेवोऽवदद् भद्रे !
वसुदेवोऽवदद् भद्रे ।
वसुन्धराद् धनो दीक्षां
वस्त्रपानघटस्याऽन्तः वाग् दृष्टप्रत्यया तस्य वाङ्मात्रेणाऽनुमन्तव्यवाचयत्वेति राज्ञोचे वाचयित्वेति सा हृष्टा
वातोद्धूतं तूलमिव
यो काण्डपटे
वापीपरिसरे तस्मि वामोऽहिगोधया तस्या वारि चाऽऽदाय यास्यामः वारुणीपातान्ति वार्ष्णेयः स्त्रीति तां ज्ञात्वा
हा लोकान् वालयित्वा न किं प्रेषि
वालिखिल्यैरिव रविः
वासरे च रजन्यां च
वासरे सति ये श्रेय
वाससी धवले सूक्ष्मे
वाससी श्वेतमसृणे
वासुदेवं द्वितीयेऽनि वासुदेवोऽन्यदाऽपृच्छ विक्रीणानावुभौ तक्रं विचक्रे तेन देवेन विचित्रकौसुमरसविचित्ररत्न माणिक्यै
विचित्ररत्नं च कटिविचिन्त्यैवं मदावस्थां
विच्छायं वचसा तेन
विजहे भगवान्नेमि
(प्रथमं परिशिष्टम
५
२
३
११
५.
३
७
३
५.
४
३
३
१
१०
३
७
३
३
२
१०
३
९
३
८
१०
19
१०
९.
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१०
५५
७९
२००
५१६
२१५
१४६
२४६
१४८
१६९
८७
३२५
२०
१६०
१६५
१३२
२२४
४८१
११८
१०४
८५
४१०
१०
७६१
७५१
७२४
३१२
३८२
१७३
८५
१८४
३५४
३५८
८४४
७१
१३
२६१
९२
१६१
७३
४०३
१७६
७९
२५२
२७१
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२३१
२५१
३
३८५
wmmwww
१३५
२३३ २०६ ३१६ ३५४ ४२५ ८४ ४०१
८१९
५७४
७ १
१२० १३७
४२७
५७२
३३४
३ १
२५० १३१ २७६ ३६८ ३४४ ४४६ ५६७
२२३
३४६
२ ३ २
विजहे स्वामिना सार्धं विज्ञाय कालमरणं विज्ञाय चाऽवधिज्ञानाद विज्ञायाऽवधिना तस्यै
६०२ विदग्धा सत्यभामाद्या विदधत्यङ्गशैथिल्यं
३१४ विदर्भेशोऽन्यदाऽश्रौषीविदर्भेष्वेष यात्यध्वा
५२२ विदाञ्चकार क्षामाङ्गी विद्यया विश्रुतौ तत्र ६ १५७ विद्या सिद्धा त्वत्प्रभावाविद्या-दिव्यास्त्रपुष्टौजा विद्यां साधयतश्चण्डविद्यादाने तव शिष्यो विद्याद्वयोर्जितद्युम्नः
४०० विद्याधरसुतास्ताश्च
१ ५१७ विद्याधरस्त्रीरपराज्च शौरिः २ ५८९ विद्याधराधमादस्मात् विद्याधरी चित्रलेखां विद्याधरीभुजलतो- ३६७ विद्याधरेन्द्रो भुवन
१ ३३५ विद्याधरोऽप्यभाषिष्ट १ ३०८ विद्याप्रभावतो विद्या विद्याप्रभावादन्यच्च विद्याबलाच्च त्वां नाथ! विद्याबलात् सैन्यबलाद् विद्याशक्त्या महीयस्या विद्याश्चिरेण सेत्स्यन्ति विद्युदंष्ट्रो नमिवंश्यो
४७८ विद्युद्विलासचपलाः ९ २९९ विद्येयं सायमारब्धा २ ३४८ विधायाऽनशने प्राप्ते विधायाऽऽरात्रिकं भर्तुः विधायाऽऽराधनां सम्यक् विधिना शौरिकंसाभ्याविधुरं यदि मे किञ्चित् विधृत्य पाणिना कर्णे विनश्वर्याः श्रियोऽर्थेऽमी विना च कनकवीं १० १५० विना भवन्तं न स्थातुविनैव कारणं त्राता ५ १९२ विन्यस्याऽन्धकवृष्णि विपक्षनामग्रहणेविपरीतं कुतोऽकार्षी- ९ २१४
विप्रौ वैरायमाणौ तौ ६ १७३ विभातायां विभावाँ
६९८ विमानच्छायया पृथ्व्याः
१८२ विमानस्खलने हेतुं विमानस्खलने हेतु ६ १३६ विमुक्तोद्वर्तन-स्नान
४७ विमृशन्नुपसर्गतं
२ ३५१ विमृश्य क्रोष्टुकिश्चाऽऽरव्यद्-९ १३६ विमृश्येति कुमारस्या- १ ३३० विमृश्यति स्वहस्तेन विमृश्यैवं द्वितीयेऽह्नि
११० विमृश्यैवं भवोद्विग्नः
२५७ विमृश्यैवं सा जगाद
३८२ विरक्तः सागरस्ते हि
३३५ विरतायामद्य वृष्टौ
२६५ विरोधो बलिना सार्धं
३५० विलग्नश्च गले वाला
३५१ विलपन्तीति सा जघ्ने विलसन्स तया तत्र विवाहकाले श्रेष्ठयूचे विवाहयोग्या सा मात्रा
२१८ विवाहासत्रदिवसे
१३९ विवेकः संयमो ज्ञानं विवेश नाऽन्धतमसं
८४७ विशल्यां दशनै: पिष्ट्वा
१९३ विशीर्णमुकुटं स्रस्ता
३०७ विशेषितश्री: शरदा- १७८ विषवेगोपशान्तिस्तु विषव्यतिकरं तंच विषसादाऽखिलो लोको ३ ४४३ विषाणे उन्नमय्योच्चै
२१४ विषेण मूर्च्छितस्तेन
१५६ विष्वक्सेनस्तयोः सूनुः विष्वक्सेनो मधुराज्ये विसृज्य खेचरान स्थित्वा विसृज्य तस्करं मन्त्रिविहरन् ढण्ढणोऽप्यागात् विहरन्ती च सा कञ्चिविहृत्याऽन्यत्र चान्येधुवीज्यमानः सुरवधूवीणापाणीस्तत्र यूनः
१६६ वीणावाद्येन वार्ष्णेय
१४६ वीरंमन्यं विब्रुवाणं ७ २८१ वीरकस्य फलं कृष्णे- १०. २४७
३१५
वीरमत्यन्यदा धर्म- वीरो नाम कुविन्दोऽभूत् वृकोदरोऽपि सङ्घद्धो वृतोऽस्मि दवदन्त्याऽहं वृतौ रथस्थैर्यदुभिवृत्तानभिज्ञा देवक्यवृत्ताश्च चतुरस्राश्च वृत्तो मानसवेगाथैवृत्तोद्वाहः समं ताभिः वृथा प्रयासस्ते जज्ञे वृद्धालोचनतो ज्ञात्वा वृद्धयाऽऽदाय द्रव्यलक्षं वृष्टिं गन्धाम्बु-पुष्पाणां वृष्टिसृष्टोरुसेवालवेगादुत्थाय गोविन्दो वेतसस्य तले तत्र वेदसामपुरं गच्छन् वेदाचार्य तमित्यूचे वेश्यागमनवद् द्यूतं वैजयन्त्यांतत: पुर्या वैताढ्यपर्वताभ्यणे वैताढ्यवासिनः सर्वे वैताढ्याद्रौ जरासन्धवैदर्भि ! त्वत्प्रासादेनावैदर्भी दर्भविद्धांहिवैदर्भी सार्थवाहस्य वैदभी सुस्थिता तत्र वैदर्भीजानिना राज्यवैदर्भीमभ्यधाच्चन्द्रवैदर्भीमूचतुस्तौ च वैदेशिकः पुमानात्मवैद्यो वैतरणविन्ध्यवैमात्रेयो भ्रमन् पद्मवैमात्रेयोऽग्रजस्तेऽहं वैयावृत्त्यं प्रतिज्ञाय वैराग्यकारणं मे तु वैदा ज्ञापयित्वा स्वं वैदाः परिणयने वैदर्युवाच दर्भान व्यक्रीणताऽन्यवस्तूनि व्यतीतायां विभावयाँ व्यद्रावयत् सिंहस्थो व्ययितास्तत्र चाऽज्ञानात् व्यलपन् मुक्तकण्ठंच
७
२०३
३
५०१ १०४१ ७३१ १०५९ ७७३ ७४
३२३
१५८ १६२
३५३
१०
१८६
२०१
९
१९३
S
३
४८५
१३५
६
२४९
२
२१० ५५१
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________________
२३२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
३५९
१२
९७
३२८ २१० ८०० ४८७ ५६४ ५७६ ५०६ ४९५
12
.
१४४
२६५
३९३६
G00506 GSm90G GSms own wwwmu
५९५
२९४ ७१ ३८५ ४०१ १२५
४०
व्यलिखल्लीलया पाणि- ३ व्यवहारे सहाऽमात्यैव्यसनैरभिभूतेन व्याघ्रघूत्कारघोराद्रिव्याघ्रा व्यात्ताननास्तस्या ३ व्याजहार च सा चौरान् व्यापादि महिषः सोऽष्टाव्यापार्यमाणश्चैतेषु व्यावृत्तं नेमिनं दृष्ट्वा व्यावृत्तवृन्तपद्माभ व्याहरत् सागरोऽप्येवं व्याहरन् विहरन् वाऽपि व्यूहयोरग्रसुभटैः
७ व्यूहस्याऽऽस्ये कुमाराणाव्रजश्च कालिकादेव्या- १ व्रतमब्दशतं रामः १२ शंवरो मयि रक्तस्तु ६ शंवरोऽपि सुतवधात् ६ शकुनिः शकटं चक्रे ५ शकुनेः सहदेवोऽपि शकुनौ तमसम्प्राप्तशक्रस्य देवराजस्योशक्राज्ञया वैश्रवण- ५ शक्राज्ञया वैश्रवणो १२ शक्राज्ञयाऽग्निकुमाराशङ्करोऽप्यवदद् बाणं शङ्खत्रयनिनादेन शङ्खध्वनिः कृष्णविष्णो- १० शङ्खावदातं पूर्णेन्दु शखोज्ज्वलगुणः शङ्खो १. शङ्खोऽनुमेने तद्वाचं शतधन्वा दशरथो शतावरी विरूढानि ९ शत्रुञ्जयो महासेनो शत्रुन्तपश्चिरं युद्ध्वा शत्रुन्तपाद्या रुक्मी च ७ शनैः शनैस्तां जल्पन्ती शय्याधिरूढा तस्थौ च १० शरभस्येव पञ्चास्यैः ७ शरलक्षाणि वर्षन्तं ७ शरीरं वैक्रियं कृत्वा १२ शरीरधारणामात्रं
१ शल्योऽन्यद् धनुरारोप्य शशंस केवली पूर्व
१८१
३८०
शशंस मन्त्रिसू सर्व १ शाकिन्याविव पापिष्ठे शाम्बः पूज्यतिरस्कारशाम्बश्च जज्ञे तत्कन्या शाम्बादीनां दुर्दान्तानां शाम्बो गतमदावस्थोऽशाम्बो बभाषे प्रज्ञप्ति शाम्बो बभाषे स्वानित्थशाम्बो हेमाङ्गदनृपशाम्बोऽवोचदथाऽऽभीरी- ७ शाङ्गं चाऽस्फालयच्छाी १० शार्ङ्ग धन्व मया तातेशाङ्गं धन्वाऽक्षय्यतरौ शागिणं परितो भ्रमुशार्दूलचर्मसंव्यानं शिरीषसुकुमाराङ्गीशिरीषसुकुमारेण शिलां कोटिशिलां नाम शिवगामिन् ! शिवाकुक्षिशिवा च स्वामिनो माता शिवा समुद्रविजयः शिवा-रोहिणी-देवक्यो शिवा-समुद्रविजया- ९ शिवा-समुद्रविजयौ शिवा-समुद्रविजयो १२ शिशुपालवधक्रुद्धः - शिशुपालोऽपि सेनानीशिशुमारपुराऽऽयातो शिष्यः श्रीनेमिनाथस्या- १ शिष्यो धर्मरुचिस्तस्य शीता, कम्पमानाङ्गं शीलप्रभावाद् भैम्याश्च ३ शीलेन लज्जया प्रेम्णा शुक्र-शोणितसम्भूतं ९ शुक्लध्यानजुषस्तस्य शुभेऽह्नि कनकवीं शुभेऽह्नितैर्नृपैः सार्धं शुभैनिमित्तैः शकुनैः ७ शुश्राव नन्दिषेणस्तशुश्राव नेमिश्चाऽऽगच्छन् शुश्रूषमाणस्तं कृष्णो शून्योपवनकुल्यायाशङगानेणोद्दधे गाः स ५ शेषाण्यस्थीन्यन्यदवा- १२
१०४ ३ ७४७
१७९ १ २५६ ३ २१७ ७ १८३ १२ ११६ ११ १०४ १११ ९ २८१
शैले ह्रीमति गत्वा च शैशवे त्वां ममाऽङ्कस्थां शौरिं दधिमुखोऽन्येधुशौरि बन्धुमतीहे शौरिं राज्ये यौवराज्ये शौरिः प्रोवाच वेषेण शौरिः सुप्तोत्थितोऽन्येद्युशौरिश्च निर्ययौ तेच शौरिस्तमनुधावंश्च शौरिस्तामूमिका हस्ता शौरिस्तु मथुराराज्यं शौरी रतक्लमोत्पन्नश्रमापनोदजननी श्रावकः कथयामास श्रावकाणां लक्षमेकं श्रावकोऽपि करन्यस्त श्रावणश्वेतपञ्चम्यां श्रिये यथोत्सहन्तेऽमी श्रीदः प्रोचे सहर्षस्तं श्रीध्वजो नन्दनश्चैव श्रीनमिस्वामिनिर्वाणाश्रीनेमिः पल्हवे देशे श्रीनेमिनाथमन्येधुश्रीनेमे प्रतिरूपाणि श्रीनेमेरर्हतः कृष्ण श्रीमन्दिरे प्रापतुश्च श्रीवत्सं प्राणताधीशो श्रीवत्सलाञ्छितोरस्कं श्रीवासुपूज्यं वन्दित्वा श्रीषेण: पालयामास श्रीषेणराजाऽप्यन्येद्युश्रीषेणस्तत्र राजाऽभूद श्रीस्थानस्थां तत्र दृष्ट्वा श्रुतैश्च तस्या हुङ्कारेश्रुत्वा कुमारमायान्तं श्रुत्वा च तन्मुनिवचः श्रुत्वा तद्वचनं देवी श्रुत्वा द्वितीयपुत्र्याऽपि श्रुत्वा धर्म च तत्पावें श्रुत्वा मदनवेगांच श्रुत्वा वृत्तान्तमेतं ते श्रुत्वा श्रुत्वा जनश्रुत्या श्रुत्वा सुग्रीवराजोऽपि श्रुत्वाऽपीत्यर्हतो वाचं
१८२
३९९ ११७
११४ ।
२४२
१२०
४५४
१०२
२
१६५
४९२
२९८
५२१
२५५
५०५ २५४ ३४४ २५९
५२० ४५३
७० ५७९
३३२
२९०
१०८
२४ १०५२ १९५
२३२ ३९१ २९३ ७२ ४२१ ३१३ ५०८
१ २ १
४४९ ४४६ ४२३
२१० ।
१
१२२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
उत्तम कृष्ण श्रुति खेचरवृत
श्रुत्वेति भगवन्तं तं
श्रुत्वेति भामा पप्रच्छ
श्रुत्वेति मत्पिता नाऽदात् श्रुत्वेति मुदितः शोरि श्रुत्वेति मुमुदाते तौ
यादव गत्वा
श्रुत्वेति सह रामेण
श्रुत्वेत्यबोधयत् तौ च
श्रुत्वेदं तत्र सम्प्रापु
श्रुत्येवं प्रतिबुद्धश्रूयतां च स ते भर्ता
श्रेष्ठिनः कामदेवस्य
श्रेष्ठिना तद्वरार्थे च श्रेष्ठिनाऽपि तथाऽऽदिष्टो
श्रेष्ठिन्याश्चाऽन्यदा जज्ञे श्रेष्ठीच कामदेवोऽभूत् श्रेष्ठीह चारुदत्तोऽस्ति श्रेष्ठ यदि माता श्रोतृश्रोत्रसुधासारं श्वशुरः शरणं येषां श्वेतदिव्यांशुकोल्लोचं षट् च ते देवकीगर्भाः
षट् च ते देवकीपुत्राः षट्पञ्चाशद्दिक्कुमार्यः षड् गर्भा यत्र ते राजं
षड्भाषानुगया वाचा षण्णां नृपाणामन्येषां षष्टिं बाह्याः कुलकोटीषष्टिसप्ततिश्चापि षष्ट्या रथसहस्रैश्च षष्ठः कट्यां षडधिकषोडशस्त्रीसहस्राधि
स आख्यत् कुशलं देव्याः स आख्यत् तापसपुरे
स आख्यद् भाव्यसौ याम्य
स आख्यन् मल्लिनाथ
स आचख्यावग्निभूतिइत्युक्वोर कृष्ण
स उत्तीर्य च गङ्गायाः स एडकमथारूढो स एत्य मथुरापु
११
८
६
६
२
२
१
२
६
२
५
२
३
२
२
२
३
३
३
१०
३
७
११
१०
७
८
९
१३८
९२
२५८
४६९
४३९
३३३
३६७
३९१
९०
४९६
२२५
२९
१६१
५१४
५१५
३४९
२७
२८९
७१
१०६
२५७
३२
९९
८२५
७९९
३
४७७
३
७४२
६
१८३
१२
७४
२
५७७
६ ४२४
५
३४०
३
३
२
५००
१६७
७
६४८
५१८
१८५
९६
९९
१८०
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
सकुद्धोधयति पूरी
स खेचरो हंसचर
स गतोऽन्येद्युरुद्याने
स चाकारणबन्धुर्माचिक्षेपाऽर्जुनाऽपि
समानाऽपि
स तथा कुर्वती तस्थौ
स तापसपतिर्मृत्वा
स तु तावकोषध्या
स तु वीरमतीजीवः
स तेन सुहृदा सार्धं
स दत्त्वाऽ ऽशिषमासीनो
स दूतः प्रेषितो मन्ये
स देवः कृष्णमूचे च
स देवो मामथाऽवोच
स द्रक्ष्यत्यवधिज्ञानात्
सद्वावप्यजयद् वादे सनामतो धूमकेतु
स प्रणम्य यथास्थान
स प्रविश्यैकेन पुंसा समामवोचद्वैताचे
समायासाधुरप्यूचे समुनि समवासाची
मुनिःस्माऽऽह जीवेषु समे समक्षीभवतु
स यदूनामनुपदं
स राजा सदनं गत्वा
स राजोत्थाय नीत्वाऽन्तः
स वर्धमानः कलह
स ववन्दे दवदन्त्याः
स वसन्तो ऽन्यदाऽऽदाय
स विस्मयस्मेरनेत्रो
स सर्वतोऽ प्याजहार
११
३.
१
२
७
५
६
३
२
६
५८
४३८
२३७
३४७
३५५
४४२
१०४७
१९६
२४६
४६१
४३३
६६
३९६
२ २९१
१०
१९६
२
२८४
६
२२१
१
९९
१
३४९
१९७
४४९
७४१
२६७
६
३
१
६
१
२
६
३
१२
५
३७१
९३३
६
२
७६
३
८३०
३
८११
३
७८९
११
६९ १ २५१
६३७
२०४
३४८
३५४
२९
३५३
४८८
२९५
१०६२
स साधितानेकविद्यः
स सार्थवाहस्ते सर्वे
३
स सेवकः स्वामिभक्त्या
६
सहीणः पुनरारुह्य
७
६
संलेखनामष्टमासान् संवाहकत्व-कल्पाऽभू- ३ सजनीवसङ्घातं ९ संसारसारभूतां संस्कृतं स्याभिव्ये सकलैरवनीपालैः सोपं सोमकोऽप्यूचे
१
६
३
३४८
सकोपा साऽप्युवाचैवं सक्रोष्टुकर्मुनिः पृष्टो सखी कनकवत्यूचे
सास्तामुचिरे भाव
सख्यस्ताचैि सख्यूचे कनकयतों
सख्योऽप्यूचुः सखि ! शान्तं
सङ्ग्रामे सम्मुखीनानां सचतुश्चत्वारिंशति
सज्जयित्वा च तां वीणां
सज्जागो भूपतिश्चाऽभूसतीत्वणामे
सतीत्वेनाऽऽतीत्वेन
सत्कृत्य क्रोष्ट्रकि राजा
सत्कृत्य विविधालापैः
सत्कृत्य व्यसृजत् सर्वान्
सत्यं हि कोपश्चाण्डाल
सत्यभामा च यत्रैषा
सत्यभामा मुनिवचो
सत्यभामाऽन्यदा विष्णुसत्यभामाऽपि तच्छ्रुत्वा
सत्ययाऽथाऽपराभिश्च सत्ययाऽपि गुणस्तुत्या
सत्यस्मि यद्यहं यद्या
सत्यारूपं विधायाथ
सदश्वेतवसना
सदशश्वेतवसना
सदस्यचेऽन्यदा शक्रो
सदाऽन्यकन्याहरणं
सद्य आत्तव्रतौ भूपौ
सद्य: परिहितैर्देव
सद्यः सम्मूडितानन्त
सद्यः सुरेन्द्राश्चलितासद्यो मुक्त्वा नभःसेनसद्योऽपि शोकमग्नास्ते
सधर्मचारिणी तस्य सनकुल-मूल-शक्तिनारदोऽपि प्रयुक्त सनिबन्धं तयाऽथोक्तः
सनिष्कं बिभ्रती कण्ठं सपानीष्वप्यनुकूला सपत्न्याः सप्त रत्नानि सपांशुक्रीडिकाहस्तसप्तमं नरकं भूयो
७
३
९
३
९
७
३
२
१
३
३
६
१
७
५
६
६
६
६
१
३
३
९.
१०
८
२
३
९
९
८
१२
१
९
६
१०
না? two mo
१०
२३३
१२२
१७६
४१
१५४
२२४
२०३
१६९
२३०
७७६
१८२
346
७८७
६५१
१३७
३७६
४१७
७८
३६२
११२
१२५
१२७
७३
३४०
६२२
२४
१९५
१६२
१५९
९०
४९१
९०८
३३३ .
२७८
५९
९१
८
३८५
४०९
२३९
१५९
९०
११५
२०१
३१५
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________________
२३४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
५२८
१ १
५१६ । ११४
६५९
८५
२२० ८३ २९२
१०३ ३०८ १०७५
२२ २५४
१०४
१९३
२
३७६
४१६
२५६
२८५ ३२६ ४६३
२ ५
१२७ १३३
१८८
९४१
३३० ३०६ ४९० ওওও ४५०
३
८२८
२९२ १०५ १४५
१४७
७७
२७८
.G G656-6.60000.
000-sdo.sasum
७१०
१०५४ १०३७ २४३
२५२ ४३९
१५
७८ ३५०
१५४
९
सप्तमेऽस्मिन् भवे भार्या सप्तरात्रं तथैवाऽस्थां सप्तिभिर्वासरैस्तेन सप्तैतो देवकीगर्भान् सब्रह्मचारी तरणेसभास्थितेषु चाऽन्येद्युः समं केवलिना तेन समंच सुषुवाते ते समं दशाहेर्दशभिसमं पुत्र्याऽमृतसेनः सममन्तःपुरस्त्रीभी समये कथयिष्यामि समये त्वं समागच्छेसमये प्रतिपद्येथा समये सुषुवे पुर्वी समस्तानामपि भ्रातुसमागतं नलं ज्ञात्वा समागतं पुनरि समाधिमरणं प्राप्य समापिताम्भाक्रीडोऽथ समायान्तं जरासन्धं समुक्ताकुण्डलाभ्यां च समुद्धातेन जज्ञेच समुद्रविजयं नत्वा समुद्रविजयं नत्वा समुद्रविजयः कंसो समुद्रविजयः कृष्णासमुद्रविजयः स्वर्णसमुद्रविजयस्तत्रासमुद्रविजयस्तेषु समुद्रविजयो भात्रा समुद्रविजयोऽथोचे समुद्रविजयोऽपृच्छत् समुद्रविजयोऽप्यागात् समुद्रविजयोऽप्युत्को समुद्रविजयोऽप्यूचे समुद्रविजयोऽप्यूचे समुद्रस्तं गृहीत्वेषु समुद्रस्तं बभाषेऽथ समेघनादं व्योमेव सम्पूर्ण मासि दुहितुसम्प्राप्तावसरश्चोचे सम्प्राप्ते चाऽष्टमे वर्षे सम्प्रेक्ष्य पितरो शाम्बः
७०५
सम्भ्रमाच्छङ्खमाश्लिष्य सम्भ्रमादभिसत्योभौ सम्यक् प्रतिष्ठाप्य मातासम्यग्ज्ञात्वाऽपरं पिण्डं सम्यग्ज्ञानायोपयुज्य सरसो निरगानेमिसरस्तीरे पतनीलसरांसि दीर्घिका वाप्यसरागदृष्टिदानेन सरोषा साऽप्युवाचैवं सर्पिर्घटेष्वपि लुठत्सर्व जग्राह तत्कुब्नो सर्व दुःखातुरं प्रेक्ष्य सर्वज्ञवचनं श्रुत्वा सर्वज्ञशिष्या भूत्वा ते सर्वज्ञस्याऽनुजोऽसि त्वं सर्वज्ञो भगवानष्टासर्वज्ञोऽप्यवदत् कृष्ण! सर्वत्र राजधर्मोऽयं सर्वलक्षणया जातसर्वसम्पद्यमानार्थो सर्वस्य भिद्यते स्वान्तं सर्वाङ्गमपि बीभत्ससर्वाङ्गरूपसुभगा सर्वाणकेवले देवान् सर्वामुवी जिगायाऽथ सर्वार्थ मातुलं प्रातसर्वार्थमातुलसुतां सर्वे चरमदेहास्ते सर्वे दन्ता गिरिदन्तासर्वे निषेदुर्मञ्चेषु सर्वेषां पश्यतां राज्ञां सर्वेषां स्वागतं राज्ञासर्वेषामपि साधूनां सर्वेऽपि यदवस्तत्र सर्वेऽप्यायात भो ! यूयं सस्वजे चन्द्रयशसा सहकारतरुर्यश्चोसहकारो नलो राजा सहदेवः शकुनिना सहपांशुक्रीडितश्च सहपांशुक्रीडितश्च सहमानो ढण्ढणर्षिसहस्रपत्रं श्रीनेमे
५४ २९४ ८९५
सहस्रमेकं साधूनां १२ सहस्राधिकलक्षण सहेन्द्रेण वन्दनाय सहैव वसुदेवेन
८ सहैव विहरन्ती सा ६ सहेव शिशुपालेन सा कलाभिः पल्लविता सा कृतानशना मृत्वासा क्रमेणाऽचलपुरे सा गत्वाऽऽख्यात् सुभद्रायै ६ सा गुरोराज्ञया सर्व सा गृहीत्वा वेगवती २ सा च चन्द्रयशा देवी सा च प्रिया प्रीतिमती सा चरूपवती स्वानुसा जज्ञे तव भार्ययं सा जातजातिस्मरणा ६ सा तदप्यर्थिनी चक्रे ६ सा तदाख्याय रुक्मिण्या सा तुष्टा तामभाषिष्ट ८ सा त्वसम्पूर्णभोगेच्छा ६ सा ददर्श न तं पान्थसा दशाह स्वमूर्तिस्थसा दृष्ट्वा यादवं चित्रं सा पुत्री बालचन्द्रा मे सा पुलिन्दपुरन्ध्रीवासा पूर्णदोहदा मूल सा प्रत्यलाभयत्ताश्च सा प्रत्यलाभयत् सिंहसा प्रपेदेऽनवद्याङ्गी सा प्राप यौवनं तस्या सा प्रोचे कृतकृत्याऽस्मि सा बिम्बं शान्तिनाथस्य सा भर्तुराख्यत् तं स्वप्नं सा भ्रमन्ती सुवर्णाभे सा यथा धातकीखण्डसा यन्त्रशालभञ्जीव सा राक्षस्यैकया दृष्टा सा विचिन्त्येति मधवे सा विषण्णा निषण्णा च ३ सा सानुरागा चिक्षेप सा स्वयं भास्वती तेन साक्षिणः प्रतिभुवश्च साक्षिमात्रमुपाध्यायो
५६ ८५ १९८
२१०
१५४
२
४०८
५६८
२ २
३०० २०६
२०५ ३८० ३६७ १५७
६५ ३४३
१०१
३१
५३६
६०५
९ ५
२०० ३८७.
३ ६ ३ १० ५
६५८ ३२४ १०३ ३२० २४१ ३१८
६१०
६८
.. .. ..
४
३२
८३
३५ १३४
३ ३ ७ १ १
ওও ५४८ ५४७ ३०६ २६८ ४६०
७०८ २१६ ७५४ २८५
३ ३ ३
२९६ ८६४ ३०२
६०
११७
३०३
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
Pc
१०६
९५६
चख्या
७
१९८
८८
१२०
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२४५
९५४
२२६
साक्षिमात्रीकृत्य गुरुं साक्षेपो वसुदेवस्तसागरं प्रेक्ष्य पतितं सागरः षड्च तत्पुत्रा सागरः स्माऽऽह कमलासाधु मन्मित्रपुत्रोऽसि साधुवा युगपत्प्राप्ती ७ साधु साध्विति तां जल्पन् साध्वेतदिति जल्पंश्च साव्यस्तत्सहचर्योऽथ सानुज्ञाता भ्रातृभिस्तैः सापराधाऽहमेवेह
२ सायं स स्वामिनं पृष्ट्वा सार्थनाथोऽपि तां भक्त्या सार्थवाहो वसन्तस्तां सार्थवाहोऽवदत् सोमसार्थाद् भ्रष्टोऽन्यदाऽरण्ये सार्थेन सममायातसार्थेशोऽवददचलसार्थोऽस्य सार्थवाहस्य सावद्ययोगविरतिसावधानास्ततस्तेऽपि सास्रदृग् बान्धवायेव साऽङ्गशौचपरा चाऽऽसीसाऽथ तांस्तत्र षट् साधून् १० साऽधात् तदैव त्वन्मूर्ति- ३ साऽन्यदा यामिनीशेषे साऽपाठीत्रिनमस्कारं ३ साऽपि मृत्वा शुन्यभवद् साऽपि स्वप्नं कल्पयित्वो- ६ साऽप्यब्रवीदपातव्य- ९ साऽप्यवोचनाऽद्य किञ्चि- ६ साऽप्याख्यत् प्रमदवने साऽप्याचख्यौ सदा विद्यां साऽप्यूचे त्वत्कृतेऽकारि साऽप्यूचे दक्षिणश्रेण्या २ साऽप्यूचे नाऽपमानो मे साऽप्यूचे नाऽसि मे जातः ६ साऽप्यूचे परमार्थज्ञा साऽप्यूचे मां पुरस्कृत्य साऽप्यूचे मोदका ह्येते साऽप्यूचे यदि तुष्टोऽसि साऽप्यूचेऽहमृतुस्नाता
साऽब्रवीद् धनदे नाम- ३
साऽभूच्च श्राविका तेन ६ २५३ २४१ साऽभूदधीतिनी कर्म
३०४ साऽवदत् तर्हि मे स्वाम्य- १० २३८ साऽऽगात् पातुं रसं तस्या २ २४१
साऽऽचख्यौ भीतभीताच २८८ सिंहकेसर्यपि स्वामी
४५ ३२० सिंहदंष्ट्रनरेन्द्रेण
२ ३२५ १०५ सिंहनादं व्यधाद् भीमः ४०० सिंहमारितवन्येभ
४८८ २७४ सिंहस्वप्नं च साऽऽचख्यो ३७१ सिद्धविद्या त्वत्प्रभावात् ११२ सिद्धा विद्यास्त्वत्प्रभावा- २ १३० सिद्धायतनयात्रां सो- २ ४५० ५८१ सिद्धार्थः सारथिर्धाता ૬૨૭ । सिद्धार्थसारथिं रामः ३८९ सिद्धार्थोऽप्यभ्यधाद् श्रीम- १२ ३४
सिद्धिः स्याच्चिरसाध्यापि
सिन्दुवारादिदामानि ७२८ सीमन्धरतीर्थकरः
६ १४७ ६५२ सुकोशलापतिलोको३०३ सुकोशलापतिश्चास्ति
सुखेनाऽस्मद्गृहे कालं ५८२ सुगन्धिभिर्यक्षपङ्कः
३ २९० ३५१ सुगन्धिमल्लिकापुष्पा११२ सुगन्धिमुखनि:श्वास- ३ २९७ सुग्रीवभार्यया वाद
२ १७४ सुग्रीवस्तत्र राजाऽभूत् २ १३९ सुतं दत्त्वा यशोदायै
सुतजन्माऽन्यदा पृष्ट- २ १९२ १२२ सुता द्रुपदराजस्य २७० सुताऽहं भोजराजस्या- १० २८३ ४५४ सुतोदन्ते त्वसम्प्राप्ते १४७ सुधर्मासदृशी राम
५ ४१३ सुपुत्रं रक्षितुं भोज
२४७ ४१४ सुप्तां तदा मामत्याक्षी- ३ १०३४ ४१८ सुप्तामेकाकिनी मुग्धां
९६२ सुप्तो निशि तया सार्धं ३८८ सुप्तोऽसौ सुखमस्तीति
सुभूमचक्री जामाता २ ४४२
सुमित्रदेवं सत्कृत्य १ २४० ४६४ सुमित्रदेवः प्रत्यक्षी६०१ सुमित्रमृत्युना शोकं
२२४ ५३८ सुमित्रस्तत्र गम्भीरो
१५४ १६३ सुमित्रोऽप्यब्रवीदेव- १ २३२
सुमित्रोऽप्यब्रवीद् भ्रातः सुरद्रुममयोद्याने सुरस्त्रियोऽपि मुह्यन्ति सुरूपवेषा रत्नालसुरेन्द्रैस्तत्र समव- १२ सुवीरो मथुराराज्यं सुसुमारपुरे गत्वा
३ सुस्थितोऽपि तथा चक्रे सुहृत् ! प्राणप्रियो मेऽसि सुहृदा धूमशिखेन
२ सूत्थानस्येन्द्रियजये सूनवोऽन्धकवृष्ण्याद्या सूनुर्जातो मृतश्चेति सूनुस्तस्याऽस्म्यहं सङ्गा- ३ सूनोर्जन्मोत्सवो राज्ञा सूरप्रभं शिरोरत्न सूरिमा स्माऽऽह मा भैषी- ३ सूरोऽप्युचितयोगेच्छुः १ सूर्पकस्य सुतस्यार्थे सूर्पकेणाऽन्यदा सुप्तः सूर्यपाका रसवती ३ सूर्यपाका रसवती सूर्यश्च चन्द्रवर्मा च ७ सूर्योदयमिवाऽऽतन्वन् सेत्स्यत्यर्थो ममाऽनेनेसेनानीश्चाऽयमस्मासु ७ सैन्यान्तर्धवलैरश्वैः ७ सैन्ये त्वदीये धौरेयौ ७ सैन्यैः पीताम्भसोऽभूवन् सोचे तोहि दास्यामि ६ सोचे माऽस्म्यहं सार्थसोचे सुभग ! मा भेषीसोदासस्तस्य पुत्रोऽयं २ सोमदेवस्याऽग्निलायां ६ सोमशर्मद्विजसुतां १० सोमशर्मा न कुर्याच्चेत् सोमशर्माऽचिन्तयच्च १० सोमश्रियः सोमपुत्र्यासोमाद्यैः साऽपि नागश्रीसोज पर्जन्यवद् गर्जन् ५ सोवाच सर्वं ज्ञातं ते सोऽगात् पापोऽपरकायो सोऽगाद् गिरितटग्राम
१८७
३२६
२६२
२०४ ३८६ २१७
२४४
३७६
४२८
३५९ १५६ १२६
७
म
४१७
२७५
२२९
२३३ ३३९
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________________
२३६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
९
२४४
२३४
३०५
३३६ ५६६
२०७
२९७ २३६ १३७ ५५०
३
१३१ १९४ ३२७
द
३९४
३ ९ ३
५०
५३
११ १०२६
४६०
सोऽचिन्तयच्च कस्याऽपि ३ सोऽचिन्तयच्च यदहो! १२ सोऽणुपिङ्गकचः प्रेत ३ सोऽत्यन्तवल्लभो मातु- १० सोऽथ कृष्णान्तःपुरेऽगात् ६ सोऽथान्येधुर्गवाक्षस्थो ६ सोऽथाऽर्धरात्रे तल्पस्था सोऽथोग्रसेनभाया सोऽनिच्छन् भृकुटिं कृत्वा सोऽन्यदा मज्जनक्रीडां १ सोऽन्यदा स्वामिनः पावें सोऽन्येभ्योऽपि ददावेवसोऽपठद् वसुदेवेन २ सोऽपश्यन् सार्थवाहोऽपि सोऽपि ज्ञानी शशंसैवं सोऽपि प्रतिबभाषे तान् सोऽपूर्वर्वस्तुभी राजीसोऽप्यपूर्व मया द्रव्यं सोऽप्यभाषत यद्येवं ६ सोऽप्यभाषिष्ट तपसा सोऽप्यवादीत् तपःक्षामसोऽप्यवोचत् कनीयांसं सोऽप्यवोचद् वणिगस्मि २ सोऽप्याख्यत् पाण्डवान् मुक्त्वा १० सोऽप्याख्यत् सीधु तत्रस्थं सोऽप्युवाचाऽचिरादेतो ५ सोऽप्युवाचाऽहमैक्ष्वाकः सोऽप्यूचे किं तवाऽनेन सोऽप्यूचे कुत्र गच्छामि सोऽप्यूचे कुशलं सिंह सोऽप्यूचे चेत् प्रसन्नोऽसि सोऽप्यूचे प्रेक्षिताऽत्रैवासोऽप्यूचे मह्यमात्मानसोऽप्यूचे रिक्तहस्तानां सोऽब्रवीद् धनदस्येदं सोऽब्रवीद् भववासेन सोऽमरः खेचरौ तौ च सोऽयं मृत्वा कनिष्ठोऽस्या ५ सोऽर्भश्चरमदेहत्वा- ६ सोऽवन्तिसुन्दरीं सूर- ४ सोऽवोचद् रुक्मिणं नत्वा सोऽवोच विमलबोधं १ सोऽवोचनाऽस्मिते भात- ७ सोऽसि राजाज्ञया तेन
४१३
१४४ सोऽहं विमाने कुसुम१६ सौवर्णफलकेनेव ८९४ ।। सौवीरो जयसेनश्च ७ १२४ स्खलितं गीत-नृत्तादौ
स्तम्भानुन्मूल्य करिण३३६ स्तिमितोऽपि हि क्षुभितो ४७८ स्त्रिया सह विवादे स्या
स्त्रियाऽपि प्राग्जिताः शास्त्रैः २३१ स्त्रीगृहे पतितोऽस्मीति
स्त्रीजनं तत्र सोऽपश्यद ३ स्त्रीपदेः सुप्रिय इति २
स्त्रीमानं सप्तमो गर्भो ५ ७८ स्त्रीविहारक्षमो नाम ६१३ स्त्रीसम्बन्धात् पक्षमस्या
स्त्रीस्पर्शज्ञापनायाऽम्भ:स्त्रैणकार्मणसौभाग्यः
स्थाने स्थाने परीवाहैः ३०० स्थानेऽनुरागं ते ज्ञात्वा ४३६ स्थानेऽसिरुषितो भ्रातः १२ ४६५ स्थालं तदोदनभृत- ३
स्थितं समवसरणे
स्थितामुपवनेऽद्राक्षीद् २३२ ।। स्थित्वा तद्बहिरुद्यानेऽ
स्पृष्टासनोऽनिलेनापि ३
स्फुटत्पादाब्जरुधिर३६० स्फुलिङ्गवदनं नाम २ ५३९ स्मयमानो नलोऽवादी
स्मयमानोऽवदत् कुब्जा १०३ स्मरास्त्रागारसदृश
स्मरिष्यति ततः पूर्व- १० ५०४ स्मारं स्मारं धनरूपं ५४ स्मारं स्मारं सुतगुणान् १
स्मित्वा कृष्णोऽब्रवीद् ाज- ७ ४५९ स्मित्वा दध्यौ हरिनं १०४ स्मित्वा वार्ष्णेयमूचे सा २
स्मित्वा स्माऽऽह कुमारोऽपि- १ स्मित्वाऽथ नेमिस्तं शंख- ९ स्मित्वोचे धनदः शौरिं स्मित्वोचे नारदो नेयं स्मित्वोचे वसुदेवोऽपि
स्मृत्वा भूयोऽपि तं राजा ३७९ स्यन्दनानां द्वे सहने ७ ३५८ स्वं स्वं स्थानं ततस्तेषु ९
स्वगृहात् स्वगृहं दिष्ट्या १ ।
२८९ ३४९ ४७१ ३४६ २०५ २७७ ६११
स्वगृहाभ्यर्णमायातो स्वगृहे पञ्जरे न्यस्य स्वच्छश्रीचन्दनरसस्वच्छायामपि भिन्दन्तौ स्वजनस्नेहनिगडांस्वजनान् प्रातरापृच्छ्यास्वपुर्वी तद्गृहीत्वेमां स्वपुत्रीं विधुरां प्रेक्ष्याऽस्वपुरे मेघकूटाख्ये स्वप्नार्थमिति निर्णाय स्वप्ने रिष्टमयी दृष्टा स्वप्नेष्वपश्यन् पौराः स्वं स्वप्रभावादक्षताङ्गः स्वमुद्बन्टुं व्रजंस्त्वांच स्वयं कदाचिद् ग्रथितैः स्वयं ग्रथित्वा कुसुमा स्वयं चाऽऽलीयताऽऽलाने स्वयं दुर्योधनो वीरो स्वयं निकुञ्ज चैकस्मिस्वयं परेण वा ज्ञातं स्वयं विमृश्य तद् ब्रूत स्वयं विहितमार्गास्ते स्वयंगलितपुष्पाणि स्वयंवरं च ते श्रुत्वा स्वयंवरस्रक् क्षिप्तेयं स्वयंवरस्रजं सद्यः स्वयंवरे बहूनांच स्वयंवरे हि रोहिण्या स्वयंवरोत्सवे तत्र स्वयंवरोऽतिप्रौढानास्वरूपार्थी यदा त्वं स्याः स्वर्गाच्च्युत्वा रत्नवती स्वर्गादन्येधुरागत्य स्वर्ण-माणिक्य-मुक्तानां स्वर्णघर्घरिकामालस्वर्णस्तम्भं मणिमय- स्वर्णाब्जस्थं वृतं देवै स्वसाधुभिस्तं च साधुं स्वस्ति तुभ्यं प्रयाहीति स्वस्थीभूतो बलदेवोस्वस्थीभूय च सा तस्थौ स्वस्य वादक्षणे प्राप्ते स्वागतं चन्द्रवदने- स्वाङ्के स्वामिनमारोप्य
९१६
३ १
३७१ ३५३ १००३
३५१ ४०५ ५२ २१०
४५३
७
२४८
१९२
१६०
१
३७०
१०६३
ध्या हारनूनं
७
११८
३ ३ १ १०.
३५ १२९ १७६ १९८
२९८
مام
५७३
२३५ १८० २८९
२
१७९ ३१७ १८३
४५७
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२३७
४८२ २४२
८४
१९१
१६८ १४४ २६५ ९७५ ६३२
३७४ १९६
४०५
२०४
orom var mm, wwwwwr
२११
४०९
७६६
४४
१२३
४२७ ६० ७९४ ७१९
२०२ ३७७ २६२
स्वानुरूपं वरं तस्या १ स्वामिश्चित्रगतिस्तेऽसौ स्वामिस्तदनुजानीहि स्वामिना ते सह भ्रान्ता स्वामिनेऽप्सरसो धात्री स्वामिनो यस्य कस्याऽपि ३ स्वामिन् ! जानाम्यहं सुप्ता ३ स्वामिन् ! दासीभविष्यामि १ स्वामिन् ! बलीयान् पद्मोऽयं १० स्वामिन् ! सूनुर्मे दशमो स्वामिन्या धर्मपुत्री त्वस्वामिसंस्कारवैडूर्यस्वामी दशधनुस्तुङ्गः स्वामी बभाषे वर्षासु स्वाम्याख्यत् त्रिपदीं तेभ्यो स्वाम्याख्यद् दुष्करकरा: १० स्वाम्याख्य द्युसदा धूम- ६ स्वाम्याख्यन् मगधेष्वासीद् स्वाम्यूचे धर्मशीलाऽतो स्वाम्यूचे न यथैकत्र स्वाम्यूचे नाऽन्तरायं ते स्वारिं ज्ञातुमथो कंसोस्वार्थज्ञः सार्थवाहो हि स्वेदबिन्दुमिवाऽऽच्छोट्य हंसं मानुषवाचा तं हंसको डिम्भकोऽमात्यौ हंसरोमतूलिकाङ्के हंसोऽप्याख्यत् कोशलायां हंहो मा भेष्ट मा भेष्ट ३ हतपूर्वी क्वचिनाऽह- १ हतप्रभावो दध्यौ च ३ हतश्च रुद्रदत्तेन हन्ता पलस्य विक्रेता
हरिणन्दी तमभ्येत्य हरिमन्यां वीक्षमाणं हरिमित्राय तुष्टोऽदाद् हरिनेमिगिरा राज्ञहरिवंशः पवित्रोऽयं हरिवंशे तव पतिः हरिश्चन्द्रसतोवाच
३ हरिश्चन्द्रोऽपि हि तदा हरिस्तस्याऽच्छिदद् बाणैः ७ हर्ष-व्यग्रा रुक्मिणी तु हसित्वा हरिरप्यूचे हसित्वा हरिरप्यूचे ६ हसित्वा हरिरप्यूचे ६ हसित्वोवाच रुक्म्येवं ६ हस्तिबन्धे गतोऽन्येधुहस्त्यश्व-रथ-योधादि- ३ हा नाथ मां किमत्याक्षी: ? ३ हा भ्रातः ! अवनीवीर ! १२ हा वत्से ! किं त्वया मुक्तो हा वत्से ! क्वाऽसि वैदर्भि हित्वाऽथ कंसः सारथ्यं हिमवानचलश्चैव हिरण्यनाभनामानं
७ हिरण्यनाभनृपते हिरण्यरांम्नस्तत्राऽहं २ हिरण्यवयपि प्रात- २ हिरण्योऽयाऽभिचन्द्राय हृतश्च मदनवेगाहृत्वा कयां तदुद्वाह्याहृत्वा स्मरार्ता सा शौरिं हृदयं वज्रसात्कृत्वा हृदिकात् कृतवर्माख्यो हृष्टाश्च तुष्टुवुश्चित्र
७५ ४७७
२० ३७५ १२४ ५५२
हृष्टोऽवोचत् सुमित्रस्तं हे पृथ्वि ! देहि विवरं १ हेतुं पूर्वोपचाराणां
९ हेममालां टङ्कलक्षं ३ हेयोपादेयविद्भय ३ हीणो वलित्वा रामोऽपि क्षणं मूर्ध्नि क्षणं कण्ठे क्षणं विषादं स प्राप १ क्षणाच्च रथिनं हत्वा क्षणान्तरेण चाऽनङ्गो क्षत्रव्रतं मयाऽतोलि क्षम्यतां देवि ! रक्षाऽस्मा- १० क्षम्यतामपराधोऽस्य ३ क्षीरोदधिशिरोद्भूत ३ क्षीरोदाम्भोभिरब्दांश्च क्षुत्-पिपासादयः सोढुं क्षुधिता तृषिता जीर्णक्षुधितैस्तृषितैः श्रान्तैक्षेत्रे कुटुम्बिनेकेन क्ष्मापतिः शशलक्ष्माऽयं क्ष्वेडामाकर्ण्य कृष्णोऽपि ज्ञात्वा च मुष्टिना शौरिज्ञात्वा च वसुदेवेन ज्ञात्वा च समयं तत्राज्ञात्वा चाऽवधिना तत्र ज्ञात्वा ज्ञानेन तद्भावं ज्ञात्वा तदाशयं स्वामी ज्ञात्वा द्विट्सूदनं कृष्णं ज्ञात्वा सह समायातां ज्ञात्वा स्वाम्यपि तद्भाव- १० ज्ञात्वाऽपि किञ्च माऽलं भूत् ५ ज्ञात्वाऽऽहूय च तो माया- ७ ज्ञेयः पटहवाद्येन
८३६
ه
२५७ १६४ ३४२ ११९ ५७६
ه
ه
ه
२४१ ।
४२५ २०८
ه
ه
२२७
१९९ ३२१
Mur
ه
ه
४६९
ه
४१३
५७५ १३२ ३६२
ه
४३०
५१९
ه
م
२५७ ३२५
१९२ २२८
م
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम्
।।नवमं पर्व ।
श्लोकः
सर्गः क्रमाक श्लोकः
सर्गः क्रमाङ्क श्लोकः
सर्गः क्रमाङ्क
२३७ २३२
२१२
३१८
२१०
१८४ २६४
१२६
२८५
२२०
२०६
३
३३६ ५७६ १४७ ७३ ३१८
१
२
१९०
४
१५८
२४५
अकस्माज्जायते कोऽयं अकस्मात्तं च ते प्रेक्ष्याअक्षतानि तयोर्मूर्ध्नि अखण्डिताज्ञो मेदिन्यां अगृनुः पालयामास अग्निं वसन्तसेनाऽपि अग्रतः स ययौ यावत् अङ्कादकं नीयमानो अङ्गार-वन-शकटअङ्गारभ्राष्ट्रकरणं अज्ञातजननी-जामिअज्ञानादेवमुक्तं ते अतिविष्णुकुमारं तं अत्यन्तोपद्रवकरे अत्र पाणिप्रहारेण अत्रान्तरे च पापयें अत्रान्तरे च सम्प्राप्तः अत्रान्तरे मुखे तस्याः अत्राऽन्तरे नृपभटा अत्राऽऽगतोऽश्वापहतअथ कोऽप्येत्य तावूचे अथ तस्योचितं पारिअथ तां रमयामास अथ दध्यौ बन्धुदत्तो अथ निःश्वस्य साऽवोचअथ शक्रप्रभृतयः अथ सा साध्वसाक्रान्ता अथ सागरदत्तस्य अथ सान्तःपुरे राज्ञि अथ स्वयं चण्डसेनो अथाऽभवत्तपस्वी स अथाऽभाषत सा पुर्याअथाऽऽख्यायि मयाप्यस्य अथाऽऽचचक्षे कोऽप्येवं अथाऽऽश्रमे रत्नवतीअथैत्य ग्रामणीरूचे अथोचे गालवो ज्ञानअथोचे ब्रह्मदत्तस्तअदीर्घबुद्धिदीर्घोऽपि अद्वैतरूप-लावण्यां
अधिप्रासादमन्येद्युः
२९० अधिप्रासादमन्येद्युः अधीयानौ क्रमेणाऽथ अन्धकारो दिशोऽरौत्सीत् २ अन्धकारोऽभवद्धोर- ३ अन्यच्च पुष्पवत्याख्य- १ ३८८ अन्यदा गोचरचर्याअन्यदा पर्यटन सोऽहि- २ १४१ अन्येद्युः समवसृतं ४ २९८ अन्येद्युः साधुरेकोऽत्र २ २४४ अन्येधुरीश्वरान् पश्यन् अन्येधुर्नाट्यसङ्गीते अन्येधुर्भरतक्षेत्र
१ ४४९ अन्येधुस्तन्मुखेनाऽम्बाअन्योऽपि साधुविध्वंसं अन्वियाय च भूमिष्ठं ३ १२२ अपकारिण्यपि क्रोधः अपरिस्पृष्टभूपृष्ठं
३ १२० अपरेधुः सोऽपराधे १ २३ अपरेधुर्बन्धुदत्तः ४१०४ अपसर्पक्षणं तावद् अपसृत्य कुमारस्तां १ २२३ अपात्रे रमते नारी अप्यद्रीन्मुष्टिना पेष्टुं ३ २८९ अभीष्टपत्नीविरह- ४ २२१ अभूदुद्वेष्टनं सद्यः अभ्यधाद् गालवं राजा
२५६ अभ्युत्थायाऽश्वसेनस्तं
१९७ अभ्येत्य बन्धुभिः प्रीत
२५४ अभ्रखण्डमिव भ्रश्यअमी भोजनतस्त्याज्या:
३३३ अमुंवेत्सीत्यमात्येन ४ १७२ अमुच्यमानः कुट्टाकैअमुनोढा सती कन्या अमुष्य दक्षिणश्रेण्यां १ ३७१ अमोचि नमुचिः प्राप्तः अयं कृपालुः सर्वत्राऽ ३ १८८ अयं स एवं राजेति
२ २४० अरे ! किमिदमारब्धअरे वरधनो ! ब्रूहि
अर्कस्याऽभिमुखस्तत्र २ ३०३ अर्ध्यात्राऽर्चति यः सोऽपि १ अर्धश्लोकसमस्यां मे १ ४९० अर्हत्पादारविन्दालिअर्हत्यारोपयस्तानि अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैः २ अलंतातस्य यानेन ३ १११ अलमस्माकमप्येवंअवादीदश्वसेनोऽपि अश्रौषीच्च जगन्नाथं अश्वसेननृपोऽन्येधुअश्वसेननृपोऽप्यूचे अश्वसेनोऽप्यभाषिष्ट अश्वसेनोऽप्युवाचैवं अष्टापदाद्रौ गत्वा च असूचिकः कुक्कुटेन असौ गर्जति पर्जन्ये २ २६८ असौ धर्मरतो दारअसो मनोरथोऽस्माकअस्ति द्वारि नरः कोऽपि अस्ति विद्याधरावासः अस्ति श्रेष्ठिसुता रत्नअस्मद्वत्सा महेच्छानाअस्मिन् भवमहारण्ये __३ ३२१ अस्मित्रपारे संसारअस्यैव जम्बूद्वीपस्य अहं च यक्षिणीपावें अहं तु प्रेषितो राज्ञा अहं तु भवनिर्विण्ण २ १६२ अहं भोजनमात्रेऽपि अहो ! ज्ञानं कुमारस्य अहो रम्यत्वमस्येति अहो विवेकी धर्मज्ञो ३६४ आकल्पो वह्निकल्पोऽभू- ३ आकाशगामिनी विद्यां आकाशमिव दुर्गाह
२४६ आक्रष्टुं त्वामितः स्थानाद् १६५ आख्यान्त्यपि भवन्नाम १ ५३५ आगतं बन्धुदत्तोऽपि ४ २३७ आगताः स्मो विशालायाः ४ ।
३०२
२४०
३०८
१४० २४१ ३६१ २२४
१
५३३
१००
१
९७
२१०
१
३९६
२
२५३
२८३
३
७२
२७५
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________________
२३९
१४२
१६७
२२
४५९
२८०
२७१
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । आचख्युः साधवस्तस्य ४ ४३ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् २ १५१ आचारं ब्रह्मसुकृतं
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् आजन्ममृगयाजीवो
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् आज्ञां प्रतीच्छन् पार्श्वस्थो २८३ इतश्च तत्र कारायां
४ १८५ आज्ञाऽपि विश्वनाथस्य
इतश्च पञ्चमभवे ४२०२ आतिथेयेन तत्पूज्यो
२५४ इतश्च पाश्वो भगवान् आतोद्यपुटवत् सोऽथ १
इतश्च पोतनपतिः
२ ५९ आत्तधन्वा कुमारोऽपि ३४५ इतश्च प्राग्विदेहेषु
२ ११८ आत्मना सम्पदा वाऽपि ३
इतश्च प्राणते कल्पे आत्मानमात्मनाऽऽख्यातु- २ २३८ इतश्च बन्धुदत्तोऽपि ४ १२२ आत्रेय-यवना-भीर
___ इतश्च मेघकुमारो ३ २४७ आदिष्टा चाऽस्मि यदमुं
२५४ इतश्च सोऽष्टमात् कल्पाद् आनन्दको बान्धवानां
२४९ इतश्चाऽभूत्रागपुयाँ आनन्दबाष्पसलिले
२२६ इतश्चाऽऽसीत् पूर्वदेशे आनन्देन समं पित्रो१५६ इतस्ततो भ्रमन्नेषो
१ ३०० आनासाग्रं यावदम्भः
इति जल्पन्ननल्पक्रुत् १ ५८८ आपीय कर्णाञ्जलिभि
इति ते शिक्षिताः सर्वे ३ १४६ आपृच्छ्य गालवं रत्ना
इति निर्णीय स श्रेष्ठी आप्तवान् देवभूयं यः
२९६ इति निश्चित्य तौ प्राणआभ्यामेतेऽपि लप्स्यन्ते
१६८ इति निश्चित्य स स्थाने ४ ८२ आमेत्युक्त्वा कुर्वतश्च
इति ब्रुवाणं तं दूतं
३ १३८ आयातो धनदत्तोऽपि
इति श्रुत्वा च कुपितो
१७३ आरक्षं चाऽवदं त्वं चेत्
इति श्रुत्वाऽवदद्दीर्घः
१३३ आरक्षा मन्त्रिणे व्याख्यन् ४ १९१ इति सम्बोध्य सत्कृत्य ३ १४९ आरक्षेण प्रपन्नं तत्
इति स्तुत्वा विरतयोः ३ ३२० आरूढोऽभ्रंलिहे तस्मि
इत्थं पितृवचः पावो ३ २१० आकर्ण्य कर्णपीयूष- २ १३४ इत्थं पितृवचः सख्यो आकर्ण्य कर्णमधुरं
४४ इत्थं स चिन्तयंश्चूत- ४ ११२ आर्पयद्धनदत्ताय
२४७ इत्यादि ध्यायतो बाढं २६३ आर्ये देशे कुले श्रेष्ठे १ ५०७ इत्यादि बोधितस्तेन आर्षभिर्भरतश्चक्री
इत्यादिदेशनावाक्यआलोचनां सर्वसत्त्व
३०९ इत्युक्तवन्तं तं स्वामी २१७५ आशीर्वादं मुनिर्दत्त्वा १ ४९८ इत्युक्तेऽपि ह्यनिच्छन्तं
१६८ आश्वसेनिळराजिष्ट ३ ५० इत्युक्तो मुनिना तेन २ २५९ आसत्रभव्यं तं ज्ञात्वा- २७० इत्युक्त्वा क्षमयित्वा च आसीच्च बालविधवा
२०४ इत्युक्त्वा तत्र तूष्णीके आसीत् पूर्व नृपश्रेष्ठः १ ४५० इत्युक्त्वा देवता साऽगात् आस्थानमास्थितो राजा
४७९ इत्युक्त्वा भूरिभिः सैन्यै- ३ ९८ आहूयाऽभयपूर्व तो
इत्युक्त्वा मूर्ध्नि चुम्बित्वा इक्षुक्षेत्रतटासीन
२३८ इत्युक्त्वा स ययौ नागइतः प्रच्छन्नलेखेन
१५४ इत्युक्त्वा सपरीवारः इतश्च कमठोऽशान्तो
१०४ इत्युक्त्वा सह तेनैव ३ २०५ इतश्च चण्डसेनस्तां ४ १७४ इत्युक्त्वाऽगान्मरुभूति- १ ४१ इतश्च चित्र-सम्भूतौ
इत्युक्त्वाऽवादयद् भम्भां ३ १०४
इत्युदित्वा बन्धुदत्तः ४ १५४ इत्वरात्तागमोऽनात्ताइदं मदीयं स्खलितं इदानीमहमत्र स्वं
४ १२५ इन्दुक्षोदैरिव मुखं ३७० इन्द्रः पत्या च तज्झैश्च इन्ट्रैस्ते सेव्यमानस्य
३ १६७ इभोऽभ्यर्णेऽभ्यगाद्यावत् १ इभ्यश्च जिनदत्ताख्यो इभ्या बभासिरे तत्र इभ्यो धनपति मा इमं वृत्तान्तमाख्यातुइयं च श्रीमती नाम्ना ४ २६२ इयं तु केवलं बाला इह वैश्रवणोऽस्त्याढ्यः इहैव भरतक्षेत्रे
४ २०१ ईक्षाञ्चक्रे सरश्चैकं २ २१७ ईदृग्नरो किमायाता- १ ३०३ ईशानोत्सङ्गमारोप्य उत्कटभृकुटीभीमउत्कर्णकेसर: स्फारउत्ततार कुमारस्तां १ २१४ उत्तीर्य वाप्यां स्नात्वा स
७२ उत्तीर्य सरसस्तीरे
५२३ उत्थितो लब्धसंज्ञः सन्
३५२ उत्पत्य सोऽन्यदाऽगच्छ
१७८ उत्पत्योत्पत्य नखरैः १ ३०६ उत्पर्याणीकृत्य चाऽश्वं उत्पेतुश्च निपेतुश्च ३ २६७ उत्प्लुत्य दन्तसोपाने
४१५ उत्सङ्गविधृतैणार्भ- २२२० उत्सर्गादानसंस्तारा
३५२ उत्सवं प्रेक्षमाणौ तौ १ ४२ उद्धृत्त्य पुष्करद्वीपउद्यौवनः प्रतिदिन
१८० उद्यौवनाऽस्मिन्नुद्याने १ ३३४ उद्वसे वसतौ ग्रामे २६६ उपकारो गुणैरास्ताउपयाचितपर्यन्तं
४ २४३ उपयेमे कुमारस्तां
४२५ उपलक्षयितुंतंच
१४४ उपसप्तच्छदं प्राप्तो ४ १२६ उपायंस्त कुमारस्तां
२६० उपायनमिमामेव
१७५
२२२
५२१
२८६
२९४
२२८
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________________
२४०
उपास्यमानः स्वामीव
उभाभ्यां मन्त्रयित्वैवं
उभावपि बलिष्ठौ ता
उभौ गत्वा विशालायां
उल्लङ्घ्य शैशवं प्राप्त
उवाच धनदत्तोऽपि
उवाच पुष्पवत्येवं
उवाच मरुभूतिस्त
उवाच श्रीमती त्वांच
ऊचिरे साधवोऽप्येवं
ऊचे कुलपतिर्वत्स !
ऊचे च लब्धसंज्ञः सन्
ऊचे चक्रधोऽप्येव ऊचे ततो वरधनु
ऊचे पृष्टः कुमारेण ऋद्ध्या महत्या सद्योऽपि
एकदा भद्रवशया
एकदा युवनेशेन एकदा विहरन् सोऽगा
एकान्ते चुलनीदेव्या
एते प्राक्कर्मणः पाकात् एभिरत्यपराद्धं यएवं करोमीत्युदित्वा एवं कृत्वाऽपि दुष्कर्म
एवं च जन्मतो ब्रह्म
एवं च भार्याः षट् तस्य
एवं चिन्तयता तेन
एवं तस्यां चिन्तयन्त्यां
एवं तेन निषिद्धापि
एवं ध्यानजुषस्तस्य
एवं निकाचितं कर्म
एवं निवार्यमाणोऽपि
एवं मार्गे फलाहारी
एवं विचिन्त्य संवेगात्
एवं विचिन्त्य संहृत्य
एवं विहरतो भर्तुः
एवं वेषपरावर्त्तं
एवं श्रीपार्श्वनाथस्य
एवं सत्यप्यमर्षेण एवंविधाभिश्चेष्टाभिः
एवमत्याग्रहात् सूनोएवमस्त्वित्युक्तवता एष प्राग्वैरिणममुं एषा नौ षष्ठिका जाति
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१५३
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४५
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१८१
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३०२
११९
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५७१
६२
१९२
१८४
३९
१८८
२१०
१०१
७३
७
२९१
३११
१७७
७७
२८२
२११
११५
१९४
२६५
४९४
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
एह्येहि तन्मां विरह
क उपायोऽथवाऽस्त्येष
कः पराभूतवान् साधुं कङ्कणाङ्कितहस्तैव कच्चित्तवाऽजनि त्राणं ?
कटका कटकवत
कठो नाम तपस्व्यद्य
कणेरुदत्तोऽन्यो
कण्ठे वरधनुन्यस्तं
कदयोऽस्त्रदानेऽपि
कदाचित् प्राक् परिचितो कन्दादित्यमुपानैषी
कन्या प्रभावती मेऽसौ
कन्याऽस्मि भवते दत्ता
कमठो मरुभूतिश्चा
कमठोऽपि हि धावित्वा
कमप्यन कुर्वीत
करण्डं छत्रमादाय
करेणुदत्तश्चम्पेश
कलालावण्यरूपाणि
कलावित्रीतिकुशलः
कल्लोला इव जाह्नव्या
कस्येवमहतो मूर्ति ?
काकोऽहं त्वं पिकीत्यावां
कामप्रयोजनमिदं कायक्लेशसहस्यापि
कायवाङ्मनसां दुष्टकालिञ्जरगिरिप्रस्थे कालेन कियता सोऽपि
कालेन गच्छता गर्भ
कालेन वज्रनाभस्य कावेताविति विज्ञातुं काष्ठाद्यमानाहिं
किं स्वामित्रविमृश्येदं किन्नरीत्पतितासूकिमज्ञानमिति मया किमेतदिति तैः पृष्टा
किमेतदिति पृष्टो
किमेतदिति सम्भ्रान्तः
कीदृक् सरिद्विना तो? कुञ्जरः श्रावकः सोऽपि कुण्डलीकृतशुण्डाको कुतोऽभ्यागा इति पृष्टो कुत्राSS श्रमो वो भगव
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२२९
११
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२२१
३५०
१६
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१०३
१५९
४५
२८४
१५०
८१
१९७
१६०
१६४
१०६
२२०
९९
८२
१३५
१९५
कुन्तलश्च प्रतीच्यां तु कुमारं मन्त्रिसूरेव
कुमारः प्रविशंस्तस्मि
कुमारकण्ठमालम्ब्य
कुमारस्याऽक्षतान् मूर्ध्नि
कुमाराऽशरणाया मे कुमारे वर्षति शरान्
कुरोऽपि तं दृष्ट्वा
कुरुजाङ्गल - पञ्चाल
कुरुङ्गकोऽपि नरका
कुरुमृगाङ्कश्यालस्य
कुर्वन् जनदृगानन्दकुशस्थलनराधीशं कृतनीरयिका साऽपि कृतपैतामहाभिख्यो
कृत्वा जन्मोत्सवं भूयो
कृत्वा तपोऽधिवास्यैकं
कृत्वा वरधनुं सेनाकृत्वौर्ध्वदेहिकं ब्रह्मकृपां कुर्वन् प्रेष्य दूतकृष्णासागरस्तांश्च
ये सेऽम्भसे केऽपि
केऽर्हन्तस्ते ? वीतरागा को नाम व उपद्रोता कोपान्धा वरुणा साऽपि कोऽत्र भाण्डपतिर्भाण्डं ?
कोऽयं ? कुतो वा छन्नात्मा
कोऽयं वराको यवनः ?
कौशाम्बीदेशमुल्लङ्घ्य कोशाम्बीस्वामिनोऽन्येद्यु
क्रमाच्च कवचहरः
क्रमाद्विपन्नस्तत्रैव क्रीडन की पारी क्रीडन् विचित्रक्रीडाभि
क्रीडन्तावेकदेकस्तौ क्रीडयाऽपि युयुत्सुं त्वां
क्रुद्धः प्राग्जन्मवैराच्चा
क्रुद्धः प्राग्जन्मवैराच्च
कुधोषितसर्वा कुरश्वापदधीमायाकुरेणाऽनेन राज्ञाऽस्मि क्रोधाद्बन्धविच्छेद क्रोष्टुवत् कोटुशब्देन क्व खद्योतो विश्वविश्वो
(प्रथमं परिशिष्टम्
१
१
१
१
१
१
१
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१
२
૪
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३९
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११३
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१०५
२८९
१९
११८
३०६
१९२
२०८
५१९
५७८
३२५
४३
१३७
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________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२४१
१५३
५२०
२४० २४२
२०३ ३१२ १०५ ४६८
२
२१
२६५
४८
क्व गरुत्मान् क्व काकोलः ३ क्व न स्याद्वााचको दोषखेचरोक्तिमिति श्रुत्वा गगने व्यधुतद्विद्युगच्छतो वाधिमार्गेण गच्छन् शनैः शनैर्मार्ग ४१०७ गजबोधेन साश्चर्यगजेन्द्रजीवदेवोऽपि २ ११३ गणिनी बालचन्द्रा नः ४ २८९ गण्डोपरिष्टात् पिटके- १ २८७ गता पतिगृहं वत्से! २ २७३ गता वीरमती क्वापी- ४ २०७ गता वीरमतीत्यासीत् गते तस्मिन्नहं मातु- १ २९८ गते मृते प्रजिते गतेषु तेषु चौरेषु
४०७ गत्वा तदाख्यदखिलं गत्वा साधूनपृच्छश्च गरुत्मान् पादचारीव २ २१४ गर्भस्थितेऽस्मिञ्जननी गान्धर्वेण विवाहेन १ ३९२ गार्हस्थ्ये त्रिंशदब्दानि ४ ३१८ गिरिनद्यादिषु स्वैरं २५८ गीतप्रबन्धानुगतैः १ ३२ गुणश्रुत्या त्वयि रक्ता
२७७ गुणाय खलुजातोऽसौ गुरुः सुसाधुरन्योऽपि गुरुणा म्रियमाणेन गुरोरनुज्ञयकाकि
२ १३६ गुरोरनुज्ञयैकाकिगुरोरनुज्ञयैकाकिगूढप्रवेश-निःसारे गृहकार्येषु तत्राऽस्थात् गृहगोलं गृहगोला १५५२ गृहभारं तयोर्त्यस्य गृहाण यतिधर्म तत् गृहीत्वा स्वर्ण-रूप्यादि
२२३ गृह्यतां गृह्यतामेष
१ १९१ गेहाद् गेहं परिभ्राम्यग्रामेशेन सद:स्थेन १ ३५८ घातिकर्मक्षयात् प्राप्य १ ५११ चक्रमार्गानुग: सोऽथ
२८८ चक्रिणोऽथ प्रबोधाय १ ५६० चक्रिपत्नि! सपत्नीषु २ २७४
चक्री तृषात पर्याटा- १ चक्रे स देवो देवीं ताचच्चरी निर्ययौ तत्र चण्डसेनः पतित्वांऽह्यो- ४ चण्डसेनमथाऽऽज्ञाप्य . ४ चण्डसेनोऽचिन्तयच्च चण्डसेनोऽपि दीनास्यां चतुर्दश महास्वप्नां- २ चतुर्दशपूर्वभृतां
४ चतुर्दशमहास्वप्न
१ चतुर्दशानां रत्नाना- १ चर्चामा रचयित्वा चित्र-सम्भूतनामानो १ चित्रकत्वक्-चामरे-भचित्राङ्गदे जन्ययात्राचित्राङ्गदो बन्धुदत्तं चित्राङ्गदोऽथ पप्रच्छ चित्राङ्गदोऽथाऽऽदिदेशाचित्रोऽप्यत्राऽन्तरे ज्ञात्वा चित्रोऽप्यूचे कांक्षसीदं चिरं गतेषु तेष्वास्याचिरकालगृहीतं वा चिरकालप्रणष्टार्थान् चुलन्यपि तदाऽत्यन्तचुलन्यप्यखिलं लोकं चुलन्यादिष्टपुरुषैः चुलन्यूचे कथं राज्यचेट्याख्याज्जिनदत्तस्य चेतसेति विनश्चित्य चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां च चैत्रे चतुर्थ्यां कृष्णायां चौरैर्वृतः पिबन्मा च्युत्वा जीवोऽथ चित्रस्य च्युत्वा ततो दशपुरे च्युत्वा युवामिमौ जातो च्युत्वा सम्भूतजीवोऽपि च्युत्वाऽपरविदेहेषु छद्मकापालिकीभूय छागोऽवदद् यवा ह्येते छागोऽवोचदनेकस्त्री छाग्यब्रवीन्मरिष्यामि छादयन्मेदिनीं सैन्यैः छिन्नाच्छिन्नवनपत्र- ३ जगत्त्रयं तृणमिदं
१६७
जगत्त्रयपवित्राय
३ ३८ जग्मतुस्तपसा तौ द्या जज्ञेच ब्रह्मदत्तस्यो- १ १८५ जज्ञे सदुपदेशोऽपि ३ २८५ जनयित्वा सुतमियं जनयित्वा सुतमियं जनोपरोधादुद्यान
२११ जयतादेष चक्रीति
४४६ जरद्गव इवाऽहं तु १ १४७ जातपक्ष इवाऽखण्डै
१७७ जातस्त्वं कवचहर
१६६ जातात्स जातिस्मरणात् जाताऽस्मि चाऽहं तनया जानेऽहं स्वकुमारस्य
११३ जामेयी मे त्वसौ पद्मा २ २५८ जामेयो बन्धुदत्तो मे
१४७ जिनदत्तसुत्ताऽप्यूचे
११९ जिनदत्तो विमृश्यैवं जिनशासनरक्तोऽभूद जिनेन्द्र तत्र वन्दित्वा जिनोक्तविधिना सोऽपि जिह्वाकोथाज्जम्बुकोऽपि
२१२ जीवः किरणवेगस्य २ १५४ जीवधातादिना स्वर्ग जीवितो गोकुलिन्या च जीवित्वा पिचिरं कर्म जैनधर्म रतो नित्यं
३६१ ज्वाला मुखेन मुञ्चन्तो तंच वर्धान समाकर्ण्य
२३८ तंच व्यतिकरं तस्या तंच श्रुत्वा वज्रनाभो तं ज्ञातुकामः श्लोकार्धतं ज्ञात्वा मातुलं बन्धु
१४८ तंज्ञात्वा वरुणा त्यक्ततं दृष्ट्वाऽचिन्तयद् भूपः तं देशं दर्शयेत्युक्तो १ २७७ तं पश्यन्नात्मवद्दीनं
१२७ तं प्रदेशमुपेयाय
२ २६२ तं प्रियामिलितं दृष्ट्वा तच्च कूलस्थितं प्राप तच्च प्रभावती श्रुत्वा ३ १८७ तच्चाऽज्ञासीत् कलिङ्गादि- ३ तच्चाऽन्यदा प्रवहणं तच्चाऽऽख्यातुं समारेभे
४३८
१५८
२१६
३७
२७४ २८८ ५६३ ५६६ ५६४ ४६७ ३३७
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________________
२४२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम्
१
४१८
१ ४
५३६ २१५
५८५
२९७
१
४१२
२४६
१५१
१०९
१६४
१
३२८७
२०९ १ ४३२
१७४ २ १३० १ १८९
४९३ १९८ २५५ २१३ १९०
१
३०८
४
३
१०२
३०९ ५७७ ४२०
१
१
१
३६४
२ १ १ १
३०१ २१८ २७२ २३६ ३२३
४ २११ ३ ३६२ ४ २९१ २५६
२७७
तच्छत्वा कुपितो नाग- तच्छ्रुत्वा जातवैराग्य: तच्छुत्वा तं परिव्राजं तच्छ्रुत्वा पार्थिवोऽवोचतच्छुत्वा बन्धुदत्तस्तु तच्छ्रुत्वा बहवो भिल्ला तच्छ्रुत्वा वचनं मेघतच्छ्रुत्वाऽभूज्जनो धर्म ततः कटक इत्यूचे ततः काषायवस्त्राणि ततः किरणवेगस्य ततः कुमारं तृषितं ततः कुमारस्तां दृष्ट्वा तत: क्रुद्धोऽश्वसेनोऽपि ततः पद्मोत्तरः स्वर्णततः परं कथं नाथ ! ततः पर्याणमुत्तार्य ततः पीयूषगण्डूषैततः प्रभातसमये ततः प्रभृति ताम्यन्ती ततः प्रभृति तौ वाराततः प्रयाणैरच्छिन्नैः ततः प्रविष्टौ ग्रामे तो ततः स तीर्थयात्रार्थ ततः समं महिषीभिततः सर्पोपलम्भाय ततः सूर्यकरस्पर्शाद ततः स्थानाज्जगन्नाथो ततः स्नात्वा गजारूढततः स्वयं ब्रह्मदत्तः ततः स्वाम्यादिदेश स्वान् ततश्च निश्चलोऽभूस्त्वं ततश्च वार्षिकं दानं ततश्च वृक्षान्तरितो ततश्च सपरीवारः ततश्चचाल भूपालततस्तं प्रत्यभिज्ञाय ततस्तस्मिन् गतेऽरण्यततस्तस्या महाटव्या ततस्तौ पादचारेण ततो जहार दीर्घस्य ततो दूरं प्रयातौ तौ ततो द्विजवरेणोचे ततो ध्यात्वा नृपोऽप्येत-
ततो नरेन्द्रस्तत्राऽऽगा- ततो निःसृत्य नमुचिततो निःसृत्य विश्रम्य ततो निजगृहं प्राप्तततो नितम्बभारार्ता ततो भागीरथीतीरे ततो मनोरमोद्याने ततो महात्मनस्तस्य ततो रत्नावली-पद्माततो रसित्वा विरसं ततो वरधनुः सोऽयततो वरधनुः स्माऽऽह ततो विपद्य राजाऽभूततो विरामे यामिन्या ततो विशांपतिः कन्याः ततो विहरमाणौ तौ ततोऽनुयातो ग्रामण्या ततोऽपि मृतगङ्गायां तत्कर्मदोषात्कुथिततत्तीर्थभूरभूत् पार्श्वतत्पादान्ते गृहिधर्म तत्प्रहाररुजा सार्त्ततत्प्राप्याऽप्यविविक्तात्मा तत्र चित्राङ्गदो नाम तत्र तेन द्रुमलतातत्र विक्रीय भाण्डानि तत्र विद्युद्गतिर्नाम तत्र वैषयिकं सौख्यं तत्र स ज्येष्ठमुनिना तत्र सागरदत्तस्य तत्र सागरदत्तस्य तत्र स्थितः स्वर्णबाहुः तत्रत्येनाऽमुना बन्धुतत्राऽर्हबिम्बमालोक्य तत्राऽश्वसेनं शरणातत्राऽऽयाता मयोक्तास्ते तत्राऽऽयातो जिनदत्तो तत्राऽऽसीत्ररवर्मति तत्रेन्द्रनीलबद्धासु तत्रेषद्दह्यमानस्य तत्रैकः कश्चिदप्यैक्षि तत्रैकसरसस्तीरे तत्रैव काले क्षेत्रेच तत्रैव विजये दोष्मान्
तत्रैवं चिन्तयत्येव तत्रैवं भ्राम्यता मैत्री १ २९० तत्रोत्तीर्य शिबिकाया ३ २३९ तत्रोपकूपं न्यग्रोध
३ २४६ तत्रोपयेमे बहुशः
२ २८५ तत्रोषितस्य सार्थस्य तत्सहस्व प्रभो ! राज्यं तत्सूनुर्मे पिता राज्ये १ २६३ तथा पद्मावती देवी ३ ३६४ तथा हि क्व तदा धीमांतथापि त्वं स्वपुण्येन ४ ३४ तथापि नाथ ! नाथामि १७८ तथास्थिते बन्धुदत्ते ४ १२८ तथाऽप्यज्ञानतो वच्मि ३ १६८ तथेति प्रतिपद्याऽस्या तथेति प्रतिपेदानं तथेति प्रतिपेदे स तथेत्यादृतवत्यौ ते १ ३९५ तथैव सागरश्चक्रे तदत्र माऽऽग्रहं कार्षीः तदभूदमरावत्यातदम्भोमाननालेऽब्जे तदश्रद्दधती साऽपि १ ५५७ तदसावाचरेत् किञ्चित् तदा च पुरिमताला
४९२ तदा च पुष्पवत्याख्य- १ ३८७ तदा च भगवान् क्षेम- २ १६९ तदा च मरुभूतीभः २ ७९ तदा च यदि ते कोऽपि ४ २७० तदा च राज्ञो मत्तेभः १ ४११ तदा च वनपालस्त
३ ३०५ तदा च वर्धनो राजा ४ २८३ तदा च स्वामिनो दीक्षातदा जतुगृहे दग्धे तदा शरीरचिन्तायै १ ५४० तदा सागरदत्तोऽपि तदादेशादिहाऽऽगच्छतदाकर्ण्य कठोऽवोचतदितस्तत्र गन्तव्य- १ ३४१ तदेयुषः कुलपते तदैव सागरोगत्वा तद् गच्छ शंस दीर्घाय
४३५ तद् गत्वाऽहं विशालायां ४ १३१ तद् दृष्ट्वा करुणाम्भोधि- ३
१७८
१२६
१
२४९
३ १
३७५ २७४ १४ । १८९
२९६
५५९
२ ११९
४ २९६ ४७५
१ ३०५ १ ३०७ २ २८४
५२२
२२३ २७३
२३३
२९७
२
२२४ ४९
३ १
३०२ १९५ २९४
४७८ ३०४ १९३ १७०
१
३ ३
११ २२५
२५२
२८०
१८२
१
४८२
२ ४
१८७ २८०
२१९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२४३
२८४ २१४
५०९
५२४ ७३ ३९९ ५२७ ५४३ ३५७
१८४
२५२ २१ १२ ३३०
१०८
२७
४८१ ६७ ५०४ १३८ ५१०
३१
तद् दृष्ट्वाऽऽकर्ण्य च कठो ३ तद् द्रष्टुं कौतुकं पार्श्वतद्गीताकर्णनेनैव तद्दर्शितगवाक्षेऽस्थाद तद्भवे प्रतिपन्नं किं तद्यामि स्वां पुरी निःस्वः तद्रत्नलुब्धैर्निर्यामैः तद्रूपविस्मितः सोऽस्थाद् तद्वन्दनफलं मुख्यं तद्वरोऽसीति तेनोक्ततद्वर्णसङ्करो नाऽयं तद्वाचा दग्धुकामस्त्वातद्वाचा सोऽनुदद् रथ्यान् तद्वियोगज्वराक्रान्ता तद्विषप्रसरैत्विा तन्निमित्तं विवाहोपतन्मे सर्वत्र भरततपाकृशाङ्गो विविधातपसो हि फलं भोगाः तप्यमानस्तपस्तीव्र तमबोध्यतमं बुद्ध्वा १ तमुवाच च भद्रेषा तया त्रिपद्या ते सर्वे तया मुनिगिरा जातितया विषयसौख्यानि तयैवं सागरदत्तो तयोः प्राणप्रिये नाट्योतयोः शयितयोर्नक्तं तयोरथ विवाहोऽभूद्तयोश्च क्रूरमाकूतं तरुमूले तया दत्तातवोपरोधादधुना
३ तस्करैरिव निःशङ्क तस्थुषी चक्रवाकीव
१ तस्माच्छिवपथायैव २ तस्मिन् गते वरधनुः १. तस्मिन् बभूव कुलिशतस्य कोप उपाशाम्यतस्य तस्थौ वक्षसि श्रीतस्य धर्मकथामाख्यातस्य प्रभावती नाम तस्य प्रवृत्तिमानेष्ये तस्य लक्ष्मीवती नाम तस्यां च शरणार्थिन्यां १
तस्यां चैत्यान्यभान् दग्ध- ३ तस्यां पुरि प्रववृते १ ३६ तस्यामपि मनस्तस्य तस्यामिक्ष्वाकुवंशो(श्यो)ऽभू- ३ तस्याश्च पूज्यो योगात्मा तस्याश्चाङ्गेऽभवत्तापः ३ तस्याश्चाऽलकसंस्पर्श तस्याश्चाऽऽसीत् सखी विद्या- ४ तस्याश्चित्तानुवृत्त्या तु तस्यास्तद्वधवृत्तान्तं तस्याऽथ जीवः सिंहस्य तस्याऽनिवर्तको रौद्रा- १५९६ तस्यैवं वसुधेशस्य १ ५९७ तां भर्तुर्देशनां श्रुत्वा ३ ३५५ तां रह:स्थां च कमठो तातं शरणमापनो तातः सौधेऽन्यदा सख्याताताज्ञया त्रातुमेव तादृग्रूपं प्रभुं दृष्ट्वा तापसेर्वार्यमाणोऽपि
२०६ ताभ्यां प्रभुः शासनदेवताभ्यां ३ ३६६ ताभ्यां सोऽभिदधे प्रेमतामुषित्वा निशां बन्धु- १ १८६ तावचिन्तयतामेवं १ ४८ तावत्तिष्ठामि वा यावत् ४ १८० तावनाप्तप्रतीकारी तिग्मतेजा इवोत्तेजा ३ १२१ तिर्यग्वियोगजं कर्म ४ २७९ तिलेक्षुसर्षपैरण्ड- ३ ३४५ तिष्ठत्वमत्र निर्यामा- ४ २८ तिष्ठतो यत्र कुत्रापि तिष्ठमाने कृतस्नाना
१ ३६९ तीर्थकृद्देशनायातान् २ २९४ तीर्थनाथान्तिकं गत्वा २ ३०० तीर्थयात्रामुपक्रम्य तीव्रकोपतमोमुक्त: तुभ्यमम्भोजिनीपत्र- १ २७४ तुष्टो भक्त्यैव मे यक्षतुष्टोऽथ भूपः कनकते चाऽन्यथाऽन्यथाऽऽख्यान्तः ते बन्धुदत्तमादाय ते समाचकृषुः काष्ठं
२४ ते स्नेहाद्वर्षमेकैकतेजोलेश्योल्ललासाऽथ १ ७२
तेन क्षीणबलस्त्वंतु तेन च्छेदितजिह्वः सन ४ तेन पृष्टा च साऽप्यूचे तेन विक्रममाणेन तेनाऽर्धकथितेऽप्येवं तेनाऽऽपतस्तदाऽदर्शि तेनैवं बोध्यमानोऽपि तेनोचे नमुचिश्छन्नं तेष्वेवं विब्रुवाणेषु तेऽपि रासभमारोप्य तैरेवाख्यायि मे पट्टतैर्न चुक्षोभ भगवान् ३ तैस्तैर्गुणैः समभवद्- ३ तो क्रमाद्यौवनं प्राप्ती १ तौ गच्छन्तौ पुरो नारी- १ तौ गृहीत्वा कृपाणेन तौ तत्र बहिरुद्याने तो द्वावपि कियन्मानं तौ प्रणम्योपविश्याऽग्रे तौ प्रागुदुःखमिवोज्झन्तातो सैन्यशशवल्लोकैतो स्वादु जगतुर्गीतं १ त्यक्तदारादिसङ्गः स त्याज्यं वपुरिदं वां चेत्रिगर्त-कौशलाऽम्बष्ठाः त्रिषष्टिरच्युताद्याश्च त्रैलोक्येशेऽत्राऽपकारात् त्वत्कार्याय गतः क्वापि त्वद्वृत्तान्तमिमं ज्ञात्वा २ दंष्ट्राक्रकचभीमास्यान् दंष्ट्राभिविषभीष्माभिदत्त्वा वस्त्राणि वित्तंच ददर्श च तदा देवी ददर्शाऽदर्शनीयं तदध्याविति कुमारोऽपि दध्यौ च नूनमज्ञाभ्यां दध्यौ च प्राग्भवान् पश्यन् दध्यौ च स मुनिर्बाढ २ दध्यौ धनपतिपुःखी दध्यौ प्रसेनजिच्चैवं दध्यौ प्रसेनजित् प्रीतो ३ दन्त-केश-नखा-स्थित्वग- ३ दययाऽन्वग्रही थ! दशार्ण-कुसुमाँ च १
४५८
२९० ३५४ २६३ २५०
२३४
१४५
२
२३६
२०४ २७६ २६७ २९८ ३१५
१४४
६९
१९० १७३
१७९ ४६१
४१३
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
दाक्षिण्यवान् कृपालुश्च दान मानोपकारात्तैः
दानं ददानः सदनं
दासहस्ते मया लेख:
दिनानि व्यतियान्ति स्म
दिने दिनेऽतिविधुरा
दिनैः कतिपयैश्चाप
दिनैः कतिभिरप्येत्य
दिवसान्ते युवां तत्र दिव्यप्यखण्डां स्वाम्याज्ञां
दिव्याम्बरधरा नारी दिशोऽवलोकयंस्तत्राऽ
दिष्ट्याऽद्य वर्धसे स्वामिन्
दीर्घ सर्वाभिसारेणः
दीर्घः केसरिणा विपद्य
दीर्घस्त्रातुं सुहद्राज्यं
दीर्घस्य दूतः कटकदीर्घोऽप्यमर्षादुत्रामिदीर्घोऽब्रवीत् पुत्रमूर्त्या दीर्घाऽवादीदिदं देवि !
दुर्लभं खलु मानुष्यदुर्वारमारसन्तापः दुष्करस्य मदीयस्य
दुष्टविद्याधरेणाऽहं
ये
दुष्प्रापार्थप्रार्थकता
दूतत्वात्त्वमवध्योऽ
दूतो भूयोऽप्युवाचैवं
तो धावितः क्रोधात् दूरादन्यत्पपत्राणि दूरीभूतकषायाय दृढबद्धं श्लथीकृत्य दूशोरन्धीकृतस्तेन दृष्टि सोऽसहमानों मे
दृष्टिरस्य रमेताऽस्यादेवताः सूतिका देवा देव्यो नरा नार्यः
देवी पप्रच्छ राजान
देवे क्वापि मनश्चक्रे देवैर्जयजयारावदेव्यै पुत्रं प्रणमय्यादेशनान्ते भगवन्तं देशास्तन्नामभिस्तेऽमी देवोऽपि शङ्कते तेभ्यो
१८२
१५३
२५५
३२५
५६
९४
१२४
१७७
२९०
३
१३६
१
३९७
२
८१
३
३०६
१
४३७
२
३१०
१
११५
१
४३१
१
४४०
१ १३९
१
१३५
२
१३१
१
३२६
१
९८
१ २३०
१८०
२००
१३३
१३४
८५
५७९
४०
२२५
५८९
२३१
३
१
४
३
३
३
३
३
३
२
१
३
२
१
१
३
३
१
२
३
४
२
१
७
१५१
३०४
५५४
११२
३००
२३४
१७२
४५२
२२
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
दोर्दण्ड इव कालस्य
द्रविणं धनिकेनेव
द्रष्टुं देवीमिमां भीमां
द्वयोरप्युद्योवनयो
द्वावधीतकलौ तौ च
द्वितीयेऽहिन प्रभुः कोप
द्वितीयेऽह्नि स्वयं गत्वा
द्वितीयोऽगारिणां पञ्चाद्विषन्नप्युपकारी में
धनदत्त-बन्धुदत्त धनवते व्यवह
धनधान्यस्य कुप्यस्य
धरणः स्वामिनं नत्वा
धरणेन्द्रमहिष्योऽपि
धर्मं सत्रादिनाऽत्रैव
धर्मध्यानपरो मृत्वा धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभि
धात्रीभिर्लाल्यमानः स
धिग्देव्या मत्कृते पुम्भ
धूमपस्योर्ध्वपादस्व
धूमस्तोमस्ततो
धैर्यमालम्ब्य सख्यूचे
ध्यात्वेति पूर्वाभिमुखं
ध्यात्वेति भूभूजं पृष्ट्वा ध्यायेत्यालोचनांकृत्या ध्यानलीनः प्रभुश्चाऽस्था
न कदाचन स स्थाल
न कस्याऽप्यभवत्तत्र
न च तापसकन्येयं
न प्रभाते न प्रदोषे
न मां मुक्त्वाऽपरे
न यावज्ज्ञायसे लोकै
नत्वा रत्नावलीं पद्मो
नत्वाचे तं नृपः किं वो
नद्यामिव नवं तीर्थं
नमः प्रियवर्णाय
नमः श्रीपार्श्वनाथाय
२
२
नमनुशिरोरत्न
नमस्कारप्रभावेण
नमस्तीर्थायेति वदन्
नमोऽद्य इति गृणन्
२
३
१
३
३
१२४
२३६
१
२३२
१
१६२
२
२३४
४
१३३
२
५३
२
१४६
३ २८१
१
३
२
३
४
३
न यावत् कवचहरः
१
न स्यात् स्याच्चेच्चिरं न स्या- १ नकुलाही वायदोभ्यां
३
२
१
३
३
२
१
८९
३
२२७
३
३०२
२ १९३
४
३
३
३
१
२
३
२
१४०
१०२
२३२
२८७
१३
२४२
२९२
३२३
१७८
१५९
१३७
३२९
२७५
२७८
१५०
१९५
४६
५९४
९९
२२७
८५
१८९
१५४
१३७
७७
३६३
२७९
७५
३१६
३५
१
नरके पातनायैव
नरा नार्यो वाहनानि
नरेन्द्रपुण्डरीकस्य
नवनीत वसा-क्षौद्र
नवहस्तप्रमाणाङ्गः नागः समाहितः सोऽपि
नागरे मानो तो
नागस्तिरोहितस्तच्च नागोऽयुवाच तु
नागोऽप्युवाच दुर्देय
नागोऽप्यूचे भवत्येवं
नागोऽप्यूचे सत्यमेव
नामतः किरणतेजा-.
नाम्ना सुदर्शना तस्य
नायं स्वस्वामिनो वैरी
नासावेोऽमुष्क नाऽक्षुध्यतैरपि स्वामी नाऽभूतेषामेकवाक्यं नाऽभून्मनोरथोऽप्येष
निःशङ्कं बद्धपर्यङ्कः
निःसृत्य ब्रह्मसूनरात्
निन्येऽथ नन्दया पद्मा
निरङ्कुशता को
निर्जगाम मुखात् तस्य
नियों क्रीडयाऽन्येषुः
निर्वास्य कर्मचण्डाल
निर्विण्णः कामभोगेभ्यो
निर्व्यूढानशनौ तौ तु निशायामथ विप्रस्य
निशि तो निर्वियासन्तौ
निशीथे चौरिकाहेतो:
निश्चित्येवं सुतं राज्ये
निषेवितं राजहंसे
निष्कारणारिनांचेऽत्र
नीरगीच्छत्रवदना नीलोपलानां सारेण
नृपचक्रशिरश्चुम्बि
नृपस्तं च ध्वजं पश्य
नेदृद्रव्यं परिव्राजां
पक्षस्य दिन एकस्मिंपङ्के मग्नस्तदा देवापञ्चमवनियोग्याश्च पञ्चाशद्योजनीं क्रोशपत्या च व्याकृतैः स्वप्नैः
(प्रथमं परिशिष्टम्
२
२
३
३
३
३
१
१
१
१
१
२
२
३
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४
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१
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१३३
८३
१८
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२२६
४६
५३९
५४१
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५४६
१२७
२००
१४१
३४६
२५४
३८
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२०७
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११७
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२२२
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૪
२८६
२७५
४८
४६४
४७५
१८७
२६९
२०७
११७
१६९
२०४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम्)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
२४५
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२६६
१
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२८९ २७६ ५१७
१८७ ४७२ ३७६
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२९४ १५६ २५३
७४
पत्या सह गमिष्यामि पद्मादिकाभिरूढाभिः
२८६ पद्मामानय हे नन्दे ! २२४९ पप्रथात पृथिव्यां तो १ ४२६ पयःपूर्णकरोत्क्षेपं परं भट्टश्चिरेणापि १ ४८४ परिणीय स तास्तत्र १ ४२१ । परित्यज्याऽपरां क्रीडां
७९ परिव्राडप्यभाषिष्ट परिवाड्दत्तगुटिकां परीक्ष्य मुक्त्वाऽन्यान् पान्थान् १६२ पलायितो धनुर्मन्त्री
२८६ पश्चात्तापंचक्रतुस्तौ पश्यन् कुमारस्तामेव
२५२ पस्पन्दे दक्षिणं चक्षु पार्श्वनाथमुपद्रोतुं ३ २४९ पार्श्वयोरश्वमाक्रामपाश्वे प्रतिभवं वैरं
३ २४८ पावेन विजितो रूपात् ३ ७८ पार्योऽपृच्छच्च पार्श्वस्थान् ३ २१४ पितरौ मुमुदातेच पिताऽस्यां जातमात्रायां पितुः संसारभीतस्य
२ १६० पितृ-भ्रात्रादयस्तस्य पित्तलेव स्वर्णमितिः
१ १५६ पित्रा ज्ञातानुरागेण ४२७८ पित्रा विसृष्टः श्रीपाश्वों पित्राज्ञया बन्धुदत्तो पित्रोः परेतकार्याणि पुंसः पायसदग्धस्य पुच्छरास्फोटयामासु
२५१ पुण्यवानिति राज्ञोऽतिपुण्यैरसि समायातः पुत्रं च स्वयमादाय पुनः सोचे पश्य चक्री
५६५ पुरः प्रियदर्शनायाः पुरोगा दीर्घराजस्य पुरोहितसुतत्वेनापुष्पाद्यैः पूजयेदेवी ४ २४४ पूरितायुर्वज्रनाभा २ २०२ पूर्णप्रथमपौरुष्यां ३ ३६० पूर्वमेकाकिनस्तस्य
४७१ पूर्वाह्ण पौषकृष्णका- ३ २४० पूर्वोदूढाः सर्वतोऽपि
४४८
पृच्छ्यमानश्च लोकेन पृष्ठं पाश्वा च पिदधे पोत: पृष्ठानिलेनेव पौरलोकैर्वीक्ष्यमाणो पौरैः पितेव मातेव पौषकृष्णदशम्यां सा प्रणम्य पितरं चैवं प्रतिज्ञायेति पल्लीशः प्रतिपच्चन्द्रलेखेव प्रतिपन्नं नमुचिना प्रतिबुद्धोऽश्वसेनोऽपि प्रतीच्छ शासनं पार्श्वप्रत्यश्रौषीत् सागरप्रत्याशया ननु कया प्रत्याशयाऽनया स्वस्था प्रत्यूचे गृहगोलोऽपि प्रत्यूचे पार्श्वनाथोऽपि प्रदत्तैकप्रयाणेच प्रपद्य सर्वसावद्यप्रभावती चेति दध्यौ प्रभावत्यन्यदोद्यानं प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य प्रभुस्तैरपि नाऽक्षुभ्यप्रमादमदिरोन्मादी प्रमादाच्चेन्मृषोक्तं स्याप्रलम्बजिह्वाशिश्नास्ते प्रवव्रजुस्ते तत्पावें प्रविवेश स तच्चैत्यं प्रवेशितोऽथ द्वा:स्थेन प्रव्रज्यां जगतः पूज्यां प्रसिद्धोऽहं चौरराजो प्रसीदाऽऽगच्छ विश्राम्य प्रसेनजितमाचख्यौ प्रसेनजिदुवाचैवं प्रसेनजिद्विमृश्यैवप्रसेनजिन्नरेन्द्राय प्रस्थितावुत्पथेनाऽथ प्रहारातस्य तस्योपप्राक्कर्मफलशेषं तु प्राक्पञ्चजन्मस्मरणोप्राग्जन्मकर्मणा केन प्राग्ज्योतितिषवंशौच प्राणसंशयमारुह्य प्रातश्च बन्धुः शौचाय
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२६१
प्रान्तग्रामं प्रापतुस्तौ प्राप्तराज्यं च मां श्रुत्वा प्राप्ताश्चाष्टापदं तत्राप्रावृषेण्यमिवाऽम्भोदं प्रासादं रत्नघटितं प्रासादानिः सृतैर्दृष्टौ प्रियाविपत्ति विरह प्रीत्या सह चरन्तौ तो प्रेष्यप्रयोगाऽऽनयने प्रोवाच ब्रह्मदत्तोऽथ फणभृल्लक्ष्मणेऽष्टाग्रफलं त्वत्पादसेवाया फलशेष पूर्वजन्मफलाङ्कुशधराभ्यां च बकुला-ऽशोक-माकन्दाबद्ध्वा युवां समानेतुं बन्धनाद्भावतो गर्भाबन्धुदत्तं खेचरांश्च बन्धुदत्तः पुनर्नत्वा बन्धुदत्तः प्रणम्याऽथ बन्धुदत्तः ससार्थोऽपि बन्धुदत्तमथोद्दिश्योबन्धुदत्तो विषहस्त बन्धुदत्तोऽपि तच्चैत्यं बन्धुदत्तोऽपि मेने तबन्धुदत्तोऽवदद्या ते बभाषे गालवोऽप्येवबभाषे बन्धुदत्तोऽपि बभाषे बन्धुदत्तोऽपि बभाषे वज्रनाभस्तं बभूव करुणा नाम बभूव महिषी तस्य बभूवुरार्यदत्ताद्याः बभौ विभुर्महाबाहुबहिरङ्गान् द्विषोऽजेषीबहिश्च निर्यतः पुष्योबहूनन्वेषयामास बाल: क एष पावोऽत्र ब्रह्मणः पुत्रभाण्डे यब्रह्मणो नगरेऽन्येधुब्रह्मदत्तं तदानीं च ब्रह्मदत्तः शिशुर्यावब्रह्मदत्तस्ततः क्रोधाब्रह्मदत्तस्ततोऽवादी
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९९
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१७५ ४३९
४३४
५५ २०० ४८७ २९९ ४५३
- - - - - -
५३७ ११४ ४४२ २४२
१ १ १
६५ १४९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम
or
४
१८३ ४५६
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or
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२९३ ३०८ २३० १४७
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१७४
ब्रह्मदत्तस्ततोऽवादीद
५०३ ब्रह्मदत्तस्तु तं दृष्ट्वा १ ४८६ ब्रह्मदत्तस्य कौमारे- १ ५९८ ब्रह्मदत्तस्य पादात
४४१ ब्रह्मदत्तस्य पूर्णेषु
१ ११२ ब्रह्मदत्तोऽन्यदा क्रीडन्
२६१ ब्रह्मदत्तोऽपि चक्रित्व- १ ५१२ ब्रह्मदत्तोऽप्ययासूची: १ ३११ ब्रह्मदत्तोऽप्यवोचत्तं १ ५७३ ब्रह्मदत्तोऽसहिष्णुस्त- १ १२९ ब्रह्मदत्तोऽस्मि पञ्चाल
२२५ ब्रह्ममग्न इवानन्दाद् १ १०६ ब्रह्मराजस्य हृदयं
१ १२३ ब्रह्मराजे पतिप्रेम ब्रूते स्माऽग्निशिखः कः स्यात् १ भगिन्यो त्वद्विषो नाट्यो- १ भटैः सविस्मयावज्ञै- ३ १६० भरतेऽथ नृपादेशाद्- १४८३ भर्ता त्वयाऽनुगम्योऽद्य भवत्प्रवृत्तिं ग्रामेशा- १ ४०८ भवत्वत्रैव हि स्थित्वा ४ १४१ भवारम्भाय तत्कन्यां ३ २०७ भवोद्विग्नः क्षमाधीशः २ २०९ भवोद्विग्नः सोऽपरेधु- ३ ६२ भारद्वाज-श्चमूरश्च १ ४६० भावज्ञा इव तत्काल
२३२ भावयन् भावनामेवं २ १०३ भिल्लानुपनमय्याऽत्र भीते इति विदन् राजा भुञानस्य तया सार्ध २ १२१ भूपतिस्तमभाषिष्ट भूयः कुमारोऽभाषिष्ट भूयः श्रावकधर्मस्ते भूयोऽपि तं मुनिः स्माह भूयोऽपि भूपतिर्दध्यो १ ५२९ भूयोऽपि स पुमानूचे भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा ३ ३११ भूयोऽपृच्छत् सार्थवाहः भूयोऽप्यचिन्तयद्राजा भूयोऽप्याख्यद् गृहिधर्म भूस्मृण्व्योमचरो वेति भृगुपातेच्छया ताभ्या- १ ५३ भृत्यैरेवंविधैः स्वामी भृशं भोगेच्छुरग्रेऽपि
भो भो ! न संस्मरसि किं भोज्याप्राप्तेर्वासरेऽपि भ्रमत्रितस्ततोऽपश्यद् भ्रातुः सागरदत्तस्य भ्रातृनिवोद्यानतरूमद्दर्शनादनङ्गा? मद्वैरसाधनायाऽलमध्ये क्षिप्तौ बन्दपुंसां मनापर्ययसंज्ञंच मनोरथानामगतिः मनोविदां सप्तशती मन्त्रिपुत्रस्य मन्त्रेण मन्त्रिसूर्ब्रह्मदत्तस्य मन्त्री पप्रच्छ तं भूयः मन्त्री राजकुलेऽनैषीत् मन्त्र्यूचे तं परिव्राजं मन्त्र्यूचे यदि वोऽर्थोऽयं मम चेद् भोजनं दत्थ मम भार्याविहीनस्य ममाऽपि मासाश्चत्वारः मया कार्पटिकाल्लब्धा मया दीक्षेच्छुना राज्येमया विरहितैकाह मया विषयसक्तेन मयाऽपि सह मुग्धाक्षि! मयि सत्यपि किं कोऽपि मरुभूतिर्गतो ग्राममरुभूतिश्चाऽनुशिष्ये मरुभूतिस्तुसंसारामहा बन्धुदत्तोऽपि महातिशयसम्पन्नः महाभुजङ्गः सम्प्राप्तमहाभुजङ्गा हन्यन्तामहायतनवर्तिन्यां महाराष्ट्राभिधे राष्ट्र महिषी तस्य कनकमहीयसा महेनाऽथ महीषको वनराष्ट्रमा भैषीरिति जल्पंस्त्वमातङ्गदारकः सोऽयं मायाकृतावहित्थोऽथ मार्गासन्ने तरुच्छन्ने मार्गेऽनैषीश्च तान् साधूंमार्गेऽन्यदा साधुगच्छो
२ ८८ मासं चेत् सह पुत्रेण
३०५ माहेक-रुरु-कच्छाश्च २०५ मिथ्योपदेशः सहसा
३२२ मुचुकुन्दनिकुरम्ब२२६७ मुदा प्रकान्तसंगीत५३४ मुदितः सोऽग्रतो गच्छन्
मुनि सागरदत्तस्तं
मुनिः सुरगुरुर्नाम ३ २४१ मुनिना बोधितस्तेन १ २६८ मुनिरूचे ममाऽप्यासन् ४ ३१३।। मुनिर्देहनिराकांक्षा
१७३ मुनिस्तस्योपकाराय १७६ मुमुदे ब्रह्मदत्तोऽपि २२४ मुरजं धीरघोषं तौ २५८ मुशलैरिव धाराभि१९२ मूर्च्छद्गीति-ध्वनत्तूर्य
मृगाङ्कलेखा तद्भातु४०३ मृतेति तां पुराध्यक्षो
मृत्वा च वाटिकापुयाँ १७९ मृत्वा मेघकुमारेषु
मृत्वा स द्वादशे कल्पे मोचिता भवता व्यालाद्
मोचितैर्मानुषैः किं में ४ २१९ । मोहात् कृतं तन्निदान
म्रियते सह चेद् राज्ञी यः स्वामीयति दातारं यत्राऽस्तमितवासित्वायथा गजात्त्वया त्राता यथा यथा नृपो वल्गायथा हि द्रविणं दीना
यथाऽस्य रूपमद्वैतं १८६ यदर्थमभियोगोऽयं ४ १९६ यदा च तां जही नाऽलि:
३३७ यदाऽस्मद्भाग्यवैगुण्या४ ३०० यदि वा याचका एव
२ १२० यद्यहं त्वयि जातेऽपि ४६० यद्याश्चर्य तर्हि शृणु १ ४५४ ।। यन्त्रपीडा निर्लाञ्छन
यमदूतैरिवाऽऽरक्षः यया स प्राप्स्यते भर्ता
ययाचे कमळं दूरा४ १३४ यवराशेरमुष्मात् त्वं २६८ यस्य यस्य हृतं वित्तं
यस्य हीन्द्राश्चतुःषष्टिः
४२३ १५५
१
- Now Kamudrap
१०० ५६७ ५८६ १८३
४२४
२
२१३
२५९
३०७
५१४
१०८
२ १६७ ४ १९४ ३ ३३५ ४ १६९ ३७६
२१५
५६२
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३५
३
१४५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२४७
३
१
२
१६३ ५४२
३८ ५३०
२३ ४१६
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३६३
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१०६
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१
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५९१
२१३ १४४
३
५२५
३०१ २५७
११.
३
२
१५७
४००
२ १ ३
२३७ ३३१ ३४२
२८०
२४३
२६०
२
२७०
१५९
९
१
२१७
१
१
२३५
१
१०८
यस्याऽऽज्ञाकारिणः सर्व- या त्वया ताडिता नागी यातषु जन्मदिनता यामे तुरीयं यामिन्यायावन्मन्मम कस्यापि यावन्म राज्यलाभः स्यात् यास्याम्यहं नागपुरोयुवाभ्यां स्वगृहस्थाभ्यां युर्वकदा सुरामत्त युष्माभिधर्षिता दूताः य पार्श्वनाथारतं यो वाऽपराद्धवान् सोऽस्तु यौवनं स क्रमात् प्राप रत्नवत्याः पितृव्योऽपि रत्नावली गृहीत्वमा रत्नावली ततः प्रोचे रत्नावल्यप्युवाचवं रथेः सुरांवमानाभैः रममाण: समं ताभ्यां रममाणश्च सोऽपश्यद रममाणस्तया सार्धं ग्ममाणस्तया सार्धं रम्भाग रव चोरू स्यं जिज्ञासुरश्वस्य राकाहिमकरस्तस्यारागे रक्तां प्रयिष्य राजन्नसारे संसारे राजमार्ग गजारूढा राजशासनमुल्लङ्घ्य राजा तत्राऽवायवीयाँ राजा सनत्कुमारोऽपि राजादशन कौशाम्ब्यां राजापि व्याजहारेवं राजाऽपि तद्वचस्तस्योराजाऽपि दध्यावकस्माराजाऽप्यचिन्तयदहो! राजाऽप्यश्वखुररवगजाऽप्याख्यत्तयाः पापां राजाऽप्युवाचाऽकथिते राजाऽप्यूचं न ते दोषो राजाऽप्यूचे स्वल्पमेतद् राजेष सर्वभाषाविराज्ञस्तस्यानुरूपोऽभूराज्ञा श्रेणिप्रधानत्वे
(०१
राज्ञा व्यपि केनापि राज्येवं विमृशत्यश्वराज्याभिषेकपर्यन्त राज्याभिषेकव्याक्षेपात् रूपाणि पञ्च सोऽकार्षा- रूपेणाऽद्भुतलावण्य- रूपेणाऽप्रतिरूपोऽभूत् रे मातङ्गाऽसि मातङ्गः रांद्रमध्यवसायं तं लकुटैः कुट्यमानः स लक्षयन् बुद्धिलस्तस्य लक्षशः सप्तिभिः सप्तलक्ष्यसे त्वमसामान्यो लग्ना किमियती वेला लाक्षा-मन:शिला-नीली- लीलयव द्विषोऽजैषीलुण्ट्यमाने ततो ग्रामे लोकधर्मरता साऽपि वंशजालान्तरे सोऽथ वंशाद्यपृष्ट्वाऽपि नृपः वक्त्राणि ब्रह्मण इव वज्रमुल्लालयनन्यवज्रवीर्यस्तया पल्या वज्रादिलाञ्छनधरो वञ्चकानां नृशंसानां वटेऽधस्त्वां तदा मुक्त्वा वणिक्स्ता साऽथ दध्यो । वत्साभिधाने विजये वत्सामुद्राहयिष्याव: वधाय नीयमानोऽहं वधार्थ नीयमानेनावने यक्षाकसस्तस्य वन्दित्वा क्षयित्वा च वन्दित्वा तं मुनि तत्र वरुणा करिणी साप वरुणा कारणीभूता वर्णसङ्करतो वध्यावर्धमानः कुमारोऽयं वर्षाणि षोडश पुनवर्षात्यये समायाते वल्गयाऽऽकृष्यमाणोऽपि ववृधेस जगनेत्रवसन्तसेना-शबरवसन्तसेनां मे यच्छ
वसुन्धरा मरुभूतेवाक्-पादा-कुशयोगेन वामादेवी-प्रभावत्यावामादेव्या सहवाऽथावायुरिवाऽप्रतिबद्धो वाराणस्यां ततोऽभूतां वाराणस्यां तदा चाऽभूवार्ताभिर्मन्त्रिपुत्रेण विकृतास्तेन चाऽपेतुविकृत्य नागिनीरूपं विक्रीय पुष्पाण्यन्येधुविक्रिरे तत्र तेनोविचिक्रिये तत्र भाण्डाविचित्रचारुचारीकं विचित्रतरुसङ्कीर्ण विचित्ररूपाः शाकिन्यो विचित्राश्चित्र-सम्भूतो विचिन्त्य राजाऽयाचिष्ट विचिन्त्येवं स शकुनविज्ञप्ते मन्त्रिपुत्रेण विज्ञाय नाथ निरुपविज्ञायाऽऽसनकम्पन विदधुविबुधास्तत्र विदेह-वत्स-भद्रास्तु विद्याधरपतेस्तस्य विद्युदुर्गातस्तमभ्यर्थ्याविद्वन्माातमान्योऽभूविना धर्मवपूरक्षाविपत्स्य त्वद्गिरा नाहविपद्य तत्रैव नवविपद्य तत्रव नवविपन्नो ज्ञायते नेव विप्रनंधियाऽमृद्नात् विप्रवाचमजापाल: विबुद्धस्तु स नाऽपश्यत् विभज्याऽपरपुत्राणां विभातायां विभावयाँ विभाव्य साऽपि भावार्थ विभिन्नस्वामिताद्भूतविमुच्याऽपत्यवात्सल्यं विमृश्य यवनोऽप्यूचे विमृश्यति वरधनु:विमृश्यति विधृत्योभी विमृश्यैवं च तस्थौ स
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३२४३
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१
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१
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१
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५४५
१४०
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१
५६१
१
१०७
५२८
३०४
२८१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
(प्रथमं परिशिष्टम्
१
१
७१
३ १ २
२८८ २६६ १६१
३
२०६
३
३४९
३७५
१ ५६८ ४२८२
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३८२
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२८ ३१० ३३३
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१२५ १८४ २१२
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४९१
به
२७६
سه
१३९
३ ३ १
३३२ ३५३ १२४
ه
ه
२१८२
विवेकदृष्टिलुण्टाक
३१५ विशन् पुरे स ऐक्षिष्ट १ ३६५ विशालां नाम शिबिका
२३५ विशेषेण ततः क्रुद्धो ३ २६२ विशेषेणाऽऽर्तध्यानस्थो विश्वविश्वानुग्रहाय विश्वविश्वोपकाराय विषयेच्छुस्ततः सा चाविषा-ऽस्त्र-हल-यन्त्राऽयो- ३ ३४४ विसृज्यमानस्त्ववदत् ३ १९३ विहरन् वज्रनाभोऽपि २ १८१ विहरनेकदा स्वामी ३ २४५ वृकाश्चक्रन्दुरत्युग्रं
२ १८५ वृक्षान्तरस्थितेनैक
१ ४०६ वेणु-वीणाध्वनिस्तारो वेतालान्कर्तिकाहस्तान्
२५८ वेत्रिणा विज्ञपय्याऽथ वैताढ्याद्री प्रतापाढ्य ! वैरं स्वस्वामिना सार्धव्यसनात् पुण्यबुद्ध्या वा
३४८ व्यसृजद्बन्धुवबन्धु- ४२५२ व्याजहार कुमारोऽपि १ ३६७ व्यावर्तस्व निजं स्थानव्रतं तेऽपालयन्सम्यक् व्रतानि सातिचाराणि व्रतान्येभिरतिचारै शकटानां तदङ्गानां ३ ३३८ शकटोक्ष-लुलायोष्ट्रशक्रादयो दिविषदां शक्राद्यैर्वासवैरश्वशक्रोऽगात् स्वंततः स्थान- ३ शक्रोऽप्यागात्तत्र देव्या शरीरं गत्वरमिदं शरीरं यौवनं लक्ष्मीः
५०० शारिका-शुक-मार्जारशाश्वतानहतस्तत्र
२ १३७ । शासनं पार्श्वपादानां शिला अपि स्फोटयन्तः शिवः शिवोर्वशीरम्भाशोकाक्रान्त इवाऽसीति १ ३५९ श्रावणस्य सिताष्टम्यां श्राविकाणां तु त्रिलक्षीश्रीकान्तया राजपुत्र्या १ २५६ श्रीकान्ता कान्तदन्तांशु- १ २६२
श्रीनेमिनाथमानम्य श्रीनेमिनिर्वाणदिनात् श्रीपाश्वं वन्दितुमिहोश्रीपार्श्वनाथोऽप्यवदद् श्रीपाोऽप्यब्रवीत्तात! श्रीब्रह्मदत्तनामाङ्को श्रीमद्वाराणसीभर्तुश्रुत्वा चयपि तद्वाचं श्रुत्वाऽमर्षेण युद्धाय श्रुत्वाऽऽयान्तं ब्रह्मदत्तं श्रुत्वेति वचनं तस्याश्रुत्वेति स्वामिनो वाचं श्रेष्ठिश्रेष्ठस्य तस्याऽहश्रेष्ठी सागरदत्तोऽपि श्लथंबधान धम्मिल्लं श्लोकापराधं तद्राज्ञः श्लोकार्ध तत्तु सर्वोऽपि श्वश्रूपादाब्जसेवायां षट्खण्डपृथिवीपाता षट्पञ्चाशदिक्कुमार्यषष्ठाष्टमप्रभृतिभिसऊचे नाथ नाथेति सऊचे भृगुपातेन स कोऽपि देवो नैवाभूस गत्वा यवनं स्माह सच श्रीपार्श्वनाथस्य स तं दृष्ट्वा परिष्वङ्गास तत्र क्षुत्पिपासाभ्यास तत्र निवसंस्तेन स तत्र प्रविशन्नग्रे स तवोपरि भक्त्यैव स ताडयितुमारेभे स तु तत्र कृताहारो स तु प्रविश्य तत्राऽऽशु स तु भिक्षानिमित्तेन स तेषामुपकाराय स दध्यौ चेति धन्यास्ते सदोष्मसु यथैवैकस द्विधा सर्वविरतिस पल्लीपतिरन्येधुस पारितोषिकं तस्मै सपार्श्वस्वामिनं नत्वा स पुमानप्युवाचैवं स प्राक्पपरिचयादन्त
सप्राप्य काष्ठफलकं स भीतोऽचिन्तयच्चैवं स मामुद्यौवनां स्माह स शशीव कलापूर्णः स सिंहलेशं साराभिस हि जन्मान्तरे विप्रो संज्ञामधिब्रह्मदत्तं संयुक्ताधिकरणत्वसंसारासारतासारा संसारोऽपि त्वया तीर्ण संसिक्तश्चन्दनाम्भोभिः सकोशान्तःपुरं राज्यं सक्षेमेण व्यतीतायां सखेव ब्रह्मदत्तस्यासखो वेश्मन्यथाऽऽनेषुसख्यप्यूचे रक्षितुं त्वां सङ्गीतमुरजध्वानसचित्तस्तेन सम्बद्धः सचित्ते क्षेपणं तेन सचिवोऽचिन्तयच्चेदं सत्त्वान्यकृष्यन्त पयःसत्त्वैः क्रूरैश्चमूर्वाद्यैः सत्रं च पान्थसार्थानासदाचारनदीशैलो सदाऽचिंता: कुलदेव्यः सद्यः प्राग्जन्मवैरेण सद्यश्च जातसंवेगासद्यो जातावधिय॑स्य सपत्नीभिश्चतुःषष्टिसप्तकृत्वः प्रवहणं सप्तजिह्वोऽप्यभूत् कोटि- सप्तवारान् पयो नाऽऽगासप्तविंशतिधन्वोच्चं समं च प्रियया गत्वा समं तेन करण्डेन समातुलं बन्धुदत्तं समाप्य मुनिना ध्यानं सम्पत्रवादलब्धीनां सम्प्राप्तकालं तदिदसम्बोध्य भूयसो भव्यान् सम्भूतमुनिरन्येद्युसम्यक् पश्यन्नपश्यच्च सम्यक् सागरदत्तोऽपि सरकूपादिखनन
ه
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३२४
१२६
३५४
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४०४
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२६९
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४९६ १७७
३१५
११८
३
३४०
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________________
प्रथमं परिशिष्टम् )
सरस्युष्णांशुसन्तप्तं सर्वगान्धर्वसर्वस्व
सर्वतोऽपि तदांपेत्यो
सर्वत्रापि भवद्-भूत
सर्वमेकपदेऽत्याक्षीसर्ववासरराजोऽयं
सर्वस्वमीतस्य
सर्वोतशयात्राया
सर्वानूचे च भूयोऽपि
सव्यपाणिगृहीतास्य
ससैन्यौ युगपत्काल
सह यास्याम्यश्वसेन
सह वध्वा कुमारोऽपि
सहचेटीं सपुत्रांच सहस्रकुक्षिम्भरयो सहखारसुरलोको
सा काले सुषुवे सून
सा त्वया शिक्षिता साधु सा दास्या सह जल्पन्ती
सा पुनर्भावयतना
सा वस्त्राद्यर्पयित्वाचे
सा शीलं धारयामास
सासम्भूतमुने: पाद
साकेतनगरे चन्द्रा
साक्षात्कर्तुं स्वयमच साक्षादिव परेतेषु सागर-बुद्धिश्रेष्ठिसागरं प्रेक्ष्य ते भीता सागरानुज्ञया सोऽथ सादरं कुलपतिना साधयन्मागधा
साधु पार्श्वकुमारोऽयं साधु साध्वित्युच्यमानो सान्द्रैर्मरुवकस्तोमै
सापत्नस्तनयो रत्ना सापत्नान्यप्यपत्यानि सार्थं रक्षन्ननिर्विण्णोसार्थवाहो धनदत्तसार्थसर्वस्वमादाय
सार्थेन सममायातासार्थी शतधन्वाग साऽप्याख्यज्जिनदत्ताय साऽप्याचख्यौ विहर्तुं तं साऽप्यूचे ज्येष्ठ किमिदं
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१०८
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११०
१७०
१५०
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२४८
३१
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
साऽप्यूचेऽवश्यमाख्येयं साऽमन्त्रयद्विनाश्योऽयं
साऽवदच्चण्डसेनं च
सासूतसमये पुत्रं सिद्धानन्तयतुष्य सिद्धेभ्यः सम्यगालोच्य
सुकण्टकः कण्टकश्च
सुखं प्राग्जन्मसंस्कारात् सुखं बिलखतोरेवं
सुखमग्नः सदा तत्र
सुखे च बन्धुदत्तोऽस्थाद्
सुदूरं प्रसृते तस्मिन्
सुरङ्गां तत्र चाऽपश्यत्
सुरगान्ते धनुभूती
सुवर्णबाहुराजस्य
सूर्यतप्ताम्भसः पाता
सेत्यूचे मगधपुरे
सेन्द्राः सुरासुरा यस्य
सैन्येन च वृतश्चक्री
सोऽखतीक्ष्णशृङ्गेण सोऽगात् तया सह वेश्म सोऽगररजापाला सोऽचिन्तयदहो ! रूपं सोऽज्ञासोदवश्चैव
सोऽथ कुड्यान्तरे स्थित्वा
सोऽथ तौ भोजयामास सोऽथाऽपश्यत् कुलपति
सोऽथाऽपृच्छत् प्रभुं केन सोऽथाऽऽललाप क्वेदानीं सोऽदर्शवतो हा
सोऽदाद्दानमपृच्छच्च सोऽपि जीवः कुक्कुटासोऽप्यभाषिष्ट यत्रासीसोऽप्यहिर्नरको
सोऽप्यूचे भवता सार्धं
सोऽमात्यमादिदेवं सोऽलब्धप्रतिवाग् दृष्ट्वा
सोऽवदन्मां वरधनो !
सोऽवोचद् द्वादशाब्दानि
-
सोऽसहिष्णुर्दृशं तस्या
सोऽसाधयद् बहून् राज्ञः
सौधर्मात् क्षीणपुण्योऽस्मिस्तुत्वेत्यर्हन्तमादाय स्तेनानुत्रा तदानीता
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५९०
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३८६
६०
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४२
३२७
स्त्रीग्रहे पतितो राजा स्त्रीरत्नमिव सा रूपात्
स्त्रीलम्पटः प्रकृत्याऽपि
स्त्रीलोलो ब्रह्मदत्तोऽस्ति
स्थण्डिले मण्डलादीनि
स्थाने प्राप्ताः करिष्यामो
स्नात्वा भुक्त्वा च विश्रान्तः
स्नानं विलेपनं पूजां
स्पर्श स्त्रीरत्नरूपाया:
स्मरन् पञ्चपरमेष्ठि
स्मरन् विडम्बना पूर्वा
स्मित्वा च कमठ: स्माह
स्मृतपञ्चनमस्कारो
स्मृत्यन्तर्धानमूर्ध्वाध स्मृत्वा तदेष गर्भस्य
स्यन्दने ब्रह्मदत्तोऽपि स्वं ज्ञापयित्वा रुदतीं स्वधामनीव तद्धानि
स्वभाग्याप्रत्ययादद्य
स्वमन्दिरं गते पार्श्वे
स्वयं कोशास्त्र
स्वयं प्रचलितं तातं
स्वयं लिखित्वा चान्येद्यु
स्वयं सुरगुरोः पा
स्वयं हिंसापरास्त्वन्ये स्वयमुद्घाटयामास तं स्वर्गाच्च्युत्वा क्षीणपुण्यो
स्वर्गे मत्यै तिर्यग्योनी
स्वनुंषो ब्रह्मणः पुत्रे
स्व बन्धुनाऽख्याते
स्वसूनये धनपति
स्वाध्याय- पोषधादान
स्वामिन: प्रतिरूपाणि
स्वामिना मोचितग्रीवा
स्वामी रत्नशिलास्तम्भ स्वाम्ययास्यत्समुद्दिश्य स्वाम्याख्यदत्र भरते स्वाम्याचख्यौ युवां मृत्वा
स्वीकृतं च तदाऽऽवाभ्यां हंस्याऽन्येकं वा तोवरधनुर्नून
हा विद्यासाधनधनो
हारे बद्धं स्वनामाङ्क हिक्कानादापूर्णदिक्का
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________________
२५०
हिमेनेव शशी म्लानां
हृष्टः सागरदत्तस्ताहृष्टश्च प्रददौ तस्मै
हष्टस्ततः कुलपतिहेमाद्रिकटके भ्राम्यन् ह्यः स्नात्वाऽऽवसथे देवा
हिया न चेत् कथयस क्षणमत्र प्रतीक्षस्वेक्षणादागुल्फमाजानु
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
क्षणान्मेतिपाण्डु
क्षणेनाऽपि क्षमो गन्तु
क्षत्रियाणां स्थितिरिति
क्षमस्त्रेति कथं ब्रूयां ?
क्षामत्वात्तो द्र्यहं स्थित्वा
क्षीणार्थोऽप्युद्यमं नौज्झद
क्षुभितावनभिज्ञी ताक्ष्मापेनाऽपि पुराध्यक्षः
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ज्ञात्वा तत् पुष्पचूलोऽपि
ज्ञात्वा तद्भूतदत्तेना
ज्ञात्वा निर्वाणमासनं
ज्ञात्वा मातङ्गपुत्राभ्यां
ज्ञात्वाऽथ सेवक इवा
ज्ञात्वाऽ वर्धवोधकालं
ज्ञानत्रयधरोऽपश्यज्ञानरत्नेककांशाय
(प्रथमं परिशिष्टम
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॥ द्वितीयं परिशिष्टम् ।। ॥ हैमवचनामृतम् ॥
॥ अष्टमं पर्व ॥
॥ प्रथमः सर्गः ॥ को हि दीपे सत्यग्निमीक्षते ? ॥६७|| 'यत् प्रमोदयते सूर्यः पद्मिनी करपीडनात् । सोऽर्थः स्वभावसंसिद्धो न हि याच्चामपेक्षते' ॥८४॥ साधूनां नैकत: स्थितिः ॥११९।। मन्त्रशक्तेहि नाऽवधिः ॥१६३।। कामान्धाः किं न कुर्वते ? ॥३१७।। प्रकृष्टेभ्य: प्रकृष्टाः स्युर्बहुरत्ना हि भूरियम् ॥३९८॥
दैवं दुर्बलघाति हि ॥७०५॥ आयाति दुःखिनां दु:खे दुःखं तत्सौहदादिव ॥७५१॥ पङ्कमग्नाऽपि पद्मिन्येव हि पद्मिनी ॥७५७॥ राजा गृह्णन् करं पृथ्व्या रक्षेच्चौराद्युपद्रवम् । चौरादीनां हि पापेन लिप्येत स्वयमन्यथा ॥७९१|| नारीणामातुरत्वे हि न दूरे नयनोदकम् ॥८२१॥ न स्त्रीपरिभवं कोऽपि सहते ॥९८४॥
॥ चतुर्थः सर्गः ॥ पिता बाल्ये हि शासिता ||१७|| स्वयंवरे कन्यकानां प्रमाणं हि वृतो नरः ॥१८॥
॥ द्वितीयः सर्गः ॥ धर्मः सुखहेतुर्भवे भवे ॥२८॥ पूर्वजन्मनिदानं हि नाऽन्यथा जातु जायते ॥११३॥ रहस्यं खलु नारीणां हृदये न चिरं स्थिरम् ॥१२८।। पुण्यैः किं न हि सिध्यति ? ॥४४५।।
॥ पञ्चमः सर्गः ॥
प्राक्तनं कर्म नाऽन्यथा ॥२०॥ न खलु स्वामिशासने । युक्तायुक्तविचारोऽर्हः सेवकानां कदाचन ॥३४८।।
॥ षष्ठः सर्गः ॥ प्रातःस्तनितमब्धानां किं वा भवति निष्फलम् ॥२७॥ सर्वं कर्मानुसारि हि ॥२५१|| कर्मणां विषमा गतिः ॥२८८॥
॥ तृतीयः सर्गः ॥ दूत्ये हि मण्डनं वाग् ॥१२२।। दुर्गन्धस्य शरीरस्यौदारिकस्य सुधादनाः । नेशते गन्धमपि हि सोढुमित्याहतं वचः ॥१६७।। धर्मजुषां न किम् ? ॥२३३।। स्वस्थानगमनोत्कण्ठा कस्य न स्याद् बलीयसी ? ||३७८।। विनाऽऽलोकेन लोको हि जीवन्नपि परासुवत् ॥३८३।। न सिंहः सहतेऽन्यं हि गुहाद्वारोपसपिणम् ॥४२२॥ पलायनमपि श्रेयो यस्योदर्कोऽतिनिर्मल: ॥४२८।। चन्द्रस्याऽपि कलङ्कोऽस्ति क रत्रमनुपद्रवम् ? ||४३७।। प्रमाणं नियतिः खलु ॥४७५॥ कुर्यात् पुरुषकारः किं दैवे वक्रत्वमीयुषि ? ॥४९९।। श्वशुरः शरणं येषां नराणां ते नराधमाः ॥५१८।। शीलं सतीनां सर्वाङ्गरक्षामन्त्रो हि शाश्वत: ॥५२०॥ दुर्दशापतितानां हि स्त्रीणां धैर्यगुणः कुतः ? ॥५५१।। न ह्यात्मीया कञ्चलिका जातु भाराय भोगिनः ।।५५२॥ सर्वत्र कुशलं तासां स्त्रीणां याः स्युः पतिव्रताः ॥५६७॥ सुलभा धनिनां हि भीः ।।५७४|| पङ्कः पादेषु पान्थानां मोचकप्रक्रियाकरः ॥५८९॥ अवाप्तक्षीरपाणाय कस्मै रोचेत काञ्जिकम् ? ॥६३३।। तप:क्लेशसहानां हि न मोक्षोऽपि दवीयसि ॥६७२।।
सप्तमः सर्गः तनयोऽपि हि सापत्नः सपत्नीदशकोपमः ॥२७॥ भवति खलु नाऽन्यथा भवितव्यता ॥२८॥ दुर्लध्यं दैवशासनम् ॥७५।। सत्यं हि कोपश्चाण्डालः ॥७८।। सुतं सिंही सौम्यं भद्रं च मन्यते । गजा एव हि जानन्ति तस्य क्रीडां शिशोरपि ॥९०॥ मन्त्रशक्ति विनोत्साह-प्रभुशक्ती दुरायती ॥२०८।। परः स्तोक: समो वाऽपि द्रष्टव्यः स्वाधिक: खलु ॥२०९।। सङ्ग्रामे सम्मुखीनानां वरं मृत्युर्यशस्करः । रणात् पराङ्मुखानां तु न जीवितमपि ॥२३०॥ क्षत्रिया हि न वाक्शूराः किन्तु शूराः पराक्रमात् ॥३४५।। द्विषदाकान्तं नोपेक्ष्यं कुलमात्मनः ॥४२४॥ प्रतिविष्णुविष्णुनैव वध्यः ॥४३२।। परेषामेव शस्त्राणि शस्त्राणि स्युर्महात्मनाम् ॥४५६।।
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________________
२५२
॥ नवमः सर्गः ॥
विभिन्ना कर्मणां गतिः ॥ ११९ ॥ प्राणभयं सर्वेषां हि महद्भयम् ॥१७४॥
कर्मदायादः स्वयं स्वं कर्म भुज्यते ॥१९४॥ कर्मच्छेदः परिव्रज्यां विना न खलु साध्यते ॥ १९९॥ आसाद्यते तपोदुःखैर्मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः । विषयप्रभवैः सौख्यैर्नरको ऽनन्तदुःखदः ॥२०४॥ महतां प्रतिपन्नं हि यावज्जीवमपि स्थिरम् ॥२१७॥ कन्यादानं सकृत् खलु ॥२३१॥
न धर्मो निर्दयस्याऽस्ति ॥ ३३० ॥
वासरे च रजन्यां च यः खादमेव तिष्ठति । शृङ्ग-पुच्छपरिभ्रष्टः स्पष्टं स पशुरेव हि ॥३५४॥
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यगुम्फितं
पापा: सर्वत्र शङ्किताः ||६६ || क्षीरपाणमिवाऽहीनामुपकारोऽसतां यतः ॥६८॥
॥ प्रथमः सर्गः ॥
अपकारिष्वपि कृपा सतां किं नोपकारिषु ? ॥७॥ चित्रा हि चित्तवृत्तिः शरीरिणाम् ॥९॥
सहेत कः स्वदारेषु पारदारिकविप्लवम् ? ॥२७॥ अलङ्घ्या भवितव्यता ॥ ४३ ॥
भृगुपातेन वपुरेव हि शीर्यते ।
शीर्यते नाऽशुभं कर्म जन्मान्तरशतार्जितम् ॥५७॥ आदरेण गृहीतं हि किं वा न स्यान्मनस्विनाम् ? ॥६०॥ सम्भोग भूमयोऽपि स्युस्तपसे शान्तचेतसाम् ॥६३॥
आपोऽपि तप्यन्ते वहितापतः ॥७०॥
उत्तिष्ठति यतो वह्निस्तद्धि विध्यापयेत् सुधीः ॥७४॥ चन्द्राश्माऽकशुतोऽपि नाऽचिर्मुशति जातुचित् ॥७५॥ न स्यात् स्याच्चेस्थिरं न स्याच्चिरं चेत् तत्फलेऽन्यथा । खलस्नेह इव कोधः सताम् ॥७७॥
किमनेन शरीरेण किं वाऽऽहारेण योगिनाम् ? ||८४|| मान्यं हि गुरुशासनम् ॥९३॥
छलान्वेषी हि मन्मथः ॥ ९६ ॥
विषयेच्छा बलीयसी ॥ १०१ ॥
आधिपत्यं हि प्रायोऽन्धङ्करणं नृणाम् ॥११८॥ दुराणीन्द्रियाणि हि ॥१२०॥
अहो ! सर्वङ्कषः स्मरः ॥ १२१ ॥
सत्यो हि विरलाः स्त्रियः ॥ १२४ ॥
पोषकस्याऽपि नाऽऽत्मीयो मार्जार इव दुर्जनः ॥ १२६॥
तिरश्च्चोऽपि हि रक्षन्ति पुत्रान् प्राणानिवाऽऽत्मनः ॥१३८॥
॥ अथ नवमं पर्व ॥
॥ दशमः सर्गः ॥
सिद्धिः स्याच्चिरसाध्याऽपि सहायवशतः क्षणात् ॥ १४१ ॥
॥ एकादशः सर्गः ॥
(द्वितीयं परिशिष्टम्
क्रोध एव महाशत्रुर्यो दुःखं नेह केवलम् । प्रदत्ते किन्तु सततं जन्मलक्षेषु जन्मिनः ॥३४॥ वक्रांऽहि-नासिका - हस्ताः स्थूलोष्ठ-रद-नासिकाः । विलक्षणाक्षा होनाङ्गाः शान्ति यान्ति न जातुचित् ॥३९॥ सर्वज्ञभाषितं चाऽपि सर्वथा नाऽन्यथा भवेत् ||४०|| बलीयसी पुनरियं दुर्लभ्या भवितव्यता ॥८२॥ अप्युपकारं सन्तो दति चेतसि ।
कदापि कुस्वप्नमिव नाऽपकारं स्मरन्ति तु ॥९८॥
यद्वदाम्रवणं सेक्यं कार्यं च पितृतर्पणम् ॥ १४१ ॥ धीमद्भयः को न शङ्कते ? ॥१४८॥ कुतो निद्रा महात्मनाम् ? ॥ १६०॥ प्रायस्तेजोऽनुमानेन जायन्ते प्रतिपत्तयः ॥ १७९ ॥ भोगिनामुपतिष्ठन्ते भोगाः काममचिन्तिताः ॥१८५॥ एकत्राऽवस्थानं सद्विषां कुतः ॥ १८६॥ समये खलु पौरुषम् ॥१९२॥
तापसा ह्यतिथिप्रियाः ॥ १९५ ॥
अन्यथा चिन्तितं कार्य दैवं घटयतेऽन्यथा ॥२३९॥
मायया किं न साध्यते ? ॥२९० ॥
निम्नानां छद्मबाह्यं कुतो जयः ? ||३१२||
हन्त प्रहारिणि हरौ हरिणानां कुतः स्थितिः ? ॥३४६ ॥ स्वामिभक्तिप्रभावो हि भृत्यानां कवचायते ॥ ३५५॥ दविष्ठं हि वाजिनां मरुतां च किम् ? ॥३५७॥ अज्ञाता अपि पूज्यन्ते महान्तो मूर्तिदर्शनात् ॥ ३५८॥ धर्मेणेष्टं हि योजयेत् ॥ ३७५॥
बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥३८५॥
भोगी हि भाजनं स्त्रीणां सरितामिव सागरः || ३९२ || धनिनां सर्वमीषत्करं यतः ||४००||
राजहंसो हि गृह्यति विभज्य क्षीरमम्भसः ॥ ५०२|| उपक्रमेत को नाम स्वतः सिद्धे प्रयोजने ? ||५०४ || कुतः कृतनिदानानां बोधिबीजसमागमः ॥ ५०९ ॥ कालदिष्टाहिना दष्टे कियत्तिष्ठन्ति मान्त्रिका: ? ॥५१०|| पृथ्व्यां पृथ्वीभुजा सर्वः स्थापनीयो यतः पथि ॥५२७॥ योषितः खलु मायया ।
अपरं दूषयित्वाऽपि स्वदोषं छादयन्ति हि ॥ ५४५॥
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________________
द्वितीयं परिशिष्टम)
श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
(२५३
मायिन्यः खलु योषितः ॥५४६॥ गतयो भिन्नमार्गा हि कर्माधीनाः शरीरिणाम् ।।५६७।। पशुवत् पशुपाला हि नविमृश्यविधायिनः ॥५८२।। नाऽऽज्ञा लध्या विधेः खलु ॥५८३।। यः स्वामीयति दातारं दत्तं तस्मै वरं शुने । न जातु दातुमुचितं कृतघ्नानां द्विजन्मनाम् ।।५८६।। अशुभं वा शुभं वाऽपि सर्वं हि महतां महत् ।।५९६।।
दक्षैः किं नोपलक्ष्यते ? |८०॥ फलप्राप्त्यनुसारेण प्रायेण हि मनोरथः ॥१०॥ याचका एव दत्तं गृह्णन्ति वस्त्विह । आच्छिद्यग्राहिणो वीरास्तेषां सर्वं स्वमेव हि ॥९७॥ कीदृक् सरिद्विना तोयं ? कीदृगिन्, विना निशा ? । कीदृक् प्रावृड् विना मेघं? कीदृग्धर्मो दयां विना? ॥२२०॥ कायक्लेशसहस्यापि पशोरिव शरीरिणः । निर्दयस्य कथं धर्मो धर्मतत्त्वापरिस्पृशः ॥२२१॥ ज्ञानं मिथ्यादृशां कुतः? ॥२२९॥ अस्मिन् भवमहारण्ये जरा-रुग्-मृत्युगोचरे । धर्म विनाऽन्यो न त्राता तस्मात् सेव्यः स एव हि ॥३२१।। नाऽर्हगीर्जातु निष्फला ॥३५५।। प्रज्ञावत्सूपदेशो हि स्याज्जले तैलबिन्दुवत् ॥३५९।।
॥ द्वितीयः सर्गः ॥ विपन्ने पितरि प्रायो ज्यायान् पुत्रो धुरन्धरः ॥१८।। दृष्टनष्टं शरीरादि तत्राऽऽस्था का विवेकिनः ? ॥६२॥ भवेऽस्मिन्नाटकोपमे। प्राणी नट इवाऽऽप्नोति रूपान्यत्वं क्षणे क्षणे ॥९१।। पात्रे दानमिवाऽर्थस्य मर्त्यत्वस्य फलं व्रतम् ॥१०१।। पूर्वजन्माभिसम्बद्धः स्नेहो हि बलवत्तरः ॥११४॥ गुर्वाज्ञा हि बलीयसी ॥१६८॥ जैनर्षयो महात्मानो भाषन्ते न मृषा क्वचित् ॥२५३।। स्वर्गे मत्र्ये तिर्यग्योनौ नरकेऽपि च गच्छति । जन्तुः शिवाध्वनो भ्रान्तोऽध्वनीनोऽध्वान्तरेष्विव ।।२९७।। अनिर्वेदः श्रियो मूलं सामान्येऽपि प्रयोजने ॥२९८॥
॥ चतुर्थः सर्गः ॥
पुंस: पायसदग्धस्य न त्यक्तुं दधि युज्यते । कि स्वल्पाम्भःसम्भविनो दुग्धे स्युः पूतराः क्वचित् ? ॥११॥ अपात्रे रमते नारी नीचं गच्छति कूलिनी । गिरौ वर्षति पर्जन्यो लक्ष्मीः श्रयति निर्गुणम् ॥१३॥ अनुरक्तां रविः सन्ध्यां न हि त्यजति जातुचित् ॥१५॥ फलदो ह्युद्यमो नृणाम् ॥२१॥ देवोऽपि शङ्कते तेभ्यो विघ्नान् कृत्वाऽऽपि खिद्यते । विघ्नैरस्खलितोत्साहा: प्रारब्धं न त्यजन्ति ये ॥२२॥ दुःखितो दुःखितानां हि पीडां जानाति मानसीम् ।।१२७।।
॥ तृतीयः सर्गः ॥ विज्ञीप्सवो हि विज्ञाप्याः सर्वेऽपि न्यायिभिर्नृपः ॥५५॥
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________________ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् // * ‘જે અહીં છે તે અન્ય સ્થળે છે; જે અહીં નથી તે ક્યાંય નથી.” ઉપરનાં વચન મહાભારત માટે લખાયેલાં છે. તે જ વચન ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતને સારી રીતે લાગુ પડે છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત એટલે જૈન સંપ્રદાયનાં સિદ્ધાંતો, કથાનકો, ઇતિહાસ, પૌરાણિક કથાઓ, તત્ત્વજ્ઞાનનો સર્વસંગ્રહ. આખા ગ્રંથનું કદ 360OO શ્લોક ઉપરાંત પ્રમાણનું થવા જાય છે. આ મહાસાગર સમાન વિશાળ ગ્રંથની રચના શ્રી હેમચન્દ્રાચાર્યે તેમની ઉત્તરાવસ્થામાં કરી હતી. શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યની સુધાવર્ષિણી વાણીનાં ગૌરવ અને મીઠાશ એ મહાકાવ્યમાં આપણે અનુભવી શકીએ છીએ. સમકાલીન સામાજિક, ધાર્મિક અને વિચારગત પ્રણાલિકાનાં પ્રતિબિંબો એ વિશાળ ગ્રંથમાં ઘણે સ્થળે આપણે જોઈ શકીએ છીએ. એ રીતે તો ગુજરાતનો તે કાલનો સમાજ અને તેનું માનસ તેમાં નિગૂઢ રીતે પ્રતિબિંબિત થયા છે. આ દૃષ્ટિએ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું મહત્ત્વ હેમચંદ્રાચાર્યની કૃતિઓમાં વિશિષ્ટ પ્રકારનું છે. દ્વયાશ્રયમાં જેટલું વૈવિધ્ય તેમનાથી સાધી શકાયું છે તેના કરતાં અનેક પ્રકારે ચઢિયાતું વૈવિધ્ય આ ગ્રંથમાં દૃષ્ટિગોચર થાય છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતમાં 63 " “શલાકાપુરુષો''નાં ચરિતોનું આલેખન કરવામાં આવ્યું છે. ‘શલાકાપુરુષો” એટલે તે પ્રભાવક પુરુષો જેમના મોક્ષ વિષે સંદેહ નથી. આ ત્રેસઠ શલાકાપુરુષોમાં 24 તીર્થકર, 12 ચક્રવર્તી, વાસુદેવ, 9 બળદેવ, તથા 9 પ્રતિવાસુદેવનો સમાવેશ થાય છે. કાવ્યની અને શબ્દશાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ તો કાવ્યની વાત જ શી કરવી? તેમાં પ્રસાદ છે, કલ્પના છે, શબ્દનું માધુર્ય છે, સરળતા છતાંય ગૌરવ છે. આ નાના પ્રકરણમાં આ બધુંય બતાવવા માટે શી રીતે અવતરણો આપવાં ? જિજ્ઞાસુને તો મૂળગ્રંથ જોવા માટે જ ભલામણ કરવી રહી. એક પરિશીલન કરનાર કહે છે કે " ‘એ ગ્રંથ આખોય સાવંત વાંચવામાં આવે તો સંસ્કૃત ભાષાના આખા કોશનો અભ્યાસ થઈ જાય તેવી તેની ગોઠવણ છે.” ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું આખુંય અવલોકન અને પરિશીલન એ નાના પ્રકરણનો વિષય ન જ થઈ શકે. ૩૬OOUશ્લોકના અગાધ કાવ્યશક્તિ અને વ્યુત્પત્તિથી ભરેલા ગ્રંથનું પ્રસ્તુત પરિશીલન અત્યંત અલ્પ છે. આખાય ગ્રંથનું સમગ્ર પરીક્ષણ તો એક વિસ્તૃત મહાનિબંધનો વિષય બની શકે. હેમચંદ્રાચાર્યનું કલિકાલસર્વજ્ઞનું બિરૂદ આ એકલો ગ્રંથ પણ સિદ્ધ કરી શકે એવો એ વિશાળ, ગંભીર, સર્વદર્શી છે. એક દિશાસૂચક પ્રકાશશલાકાથી વધારે તો ક્યાંથી આ નાનું લખાણ આપી શકે ? કાલિદાસના શબ્દોમાં ‘‘દુસ્તર સમુદ્રને તરાપા''થી ઓળંગવા માટે આશા સેવતા હેમસારસ્વતના ઉપાસકના પ્રયત્ન કરતાં આ પ્રકરણમાં વધારે હોઈ પણ શું શકે? મધુસૂદન મોદી (‘હમસમીક્ષા’માંથી સાભાર ઉદ્ધત)