Book Title: Pashu Vadhna Sandarbhma Hindu Shastra Shu Kahe Che
Author(s): Jain Shwetambar Conference
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबंध 11 ૪ 2448 नः ३१८३ आगम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 44 www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका. दशेरा अथवा विजया दशमीने दहाडे पाडां, बकरां आदि निर्दोष प्राणीओनुं देवीने बळीदान आपवानुं धोरण केटलाक देशी राज्योमां चालतुं आवतुं हतुं; अने ते धोरण चालवानुं कारण मात्र एम समजवामां आवे छे के, वाममार्गीओनुं जे वखते प्रबल हतुं ते वखते दाखल थइ गयेलुं. जेम जेम विद्यानी वृद्धि थती गइ तेम तेम केटलाक विचक्षण राजकर्त्ताओए एवा बलिदान आपवाथी देवी रंजन थायज नहीं एवं समजी, ते अनार्यरिवाज बंध क र्यो. आम छतां पण केटलेक स्थळे ए रीवाज हजी हैयाति भोगवे छे. अने तेथी आ ग्रंथथी एम बतावी आपवा प्रयत्न कर्यो छे के, वेद जेवा गंभीर अने माहात्म्यवान धर्मशास्त्रमां आं बलिदान आपवानुं कोइ पण स्थळे कां नथी एवो वेदशास्त्रसंपन्न पुरुषोनो अनुभव छे. आजथी लगभग १२ वर्ष उपर, गुजरातमां आवेल धरमपुर राज्यमां, आ रीवाज घणा मोटा आकारमां चालतो हतो; तेथी त्यांना महाराजा साहेबनी इच्छाथी, हिंदुस्थानना विद्वान् पंडित महाशयोना अभिप्राय पूछवामां आव्या हता के बलिदान आप ते शास्त्रोक्त छे के नहीं? आवा जूदा जूदा सात प्रश्नो पूछ्वामां आव्या हता, अने तेना उत्तरो हिंदुस्थानना समर्थ पंडित राजोए आपी एम सिद्ध करी बताव्युं छे के, वेद जेवा पवित्र धर्मशास्त्रमां आवं घातकी कार्य उपदेश्युंज नथी; मात्र केटलाक स्वार्थी माणसोए, देशी राज्यकर्त्ताओनी धर्म श्रद्धानो लाभ लइ आवुं अनिच्छित कार्य प्रवेशावी दीधुं छे. धरमपुरना महाराजा साहेबे पूछावेला प्रश्नाना उत्तरो विचारी आ रीवाज बंध कर्यो छे; अने ते उपरथी ते उरोनो संग्रह करी, आ पुस्तकमां दाखल करवामां आव्यो छे. उत्तरो घणी मोटी संख्यामां आव्या छे, एटले मांना केटलाक आ पहेला भागगां दाखल करवामां आव्या छे, अने बाकीना बीजा भागमां दाखल करवामां आवशे. मोरबीवाळा अष्टावधानी शीघ्रकवि शंकरलाल महेश्वर भट्ट, जामनगरवाळा शास्त्रीजी हाथी भाई हरिशंकर, लीमडीवाळा भट्टजी बैजनाथ मोतीराम, मुंबईवाळा पंडित जेष्ठाराम मुकुंदजी आदि समर्थ पंडित राजोना अभिप्रायोनो आ पुस्तकमा समावेश करवामां आव्यो छे, अने ते उपरथी जोई शकाशे के, वेदशाखनी प्रवीणता आ पंडित राजोनी छे ते देशमशहूर छे; एवा पंडित राजोना अभिप्राय जोया पछी, एम आशा राखवी केवळ योग्य छे के, आ क्रूर रिवाज जे जे स्थळे चालतो हशे ते ते स्थळना राज्यकर्त्ता साहेबो अवश्य बंध करशे. आ हिलचाल सर्व देशीय छे जे जे स्थळे आ रीवाज प्रचलित होय ते स्थळना महाजनोए आ कार्य माथे लइ, पोतपोताना राज्यकर्त्तानी समीप अरज करवी घटे छे; अने तेमां अवश्य हिंदुस्ताननी तमाम हेमजा सददै पर्णा विना रहेशे नहीं. श्री जैन श्वेतांबर कोन्फरन्स. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. नंबर. नाम. १ पंडित ज्येष्ठाराम मुकुन्दजी विगेरे छ शास्त्रीओनो अभिप्राय २ लींबडीवाळा वैजनाथ मोतीराम भट्टनो अभिप्राय ...... ३ वडोदरावाळा रामकृष्ण शास्त्रीनो अभिप्राय ४ जामनगरवाळा शास्त्री हाथीभाई हरिशंकरनो अभिप्राय ५ शास्त्री कालिदास गोविंदजीनो अभिप्राय ६ पंडिता जमनाबाईनो अभिप्राय ७ शास्त्री महीधर हरिभट्टनो अभिप्राय ८ पंडित गडलालजीना शिष्य शास्त्री माधवजी गोपाळजीनो अभिप्राय ९ मुंबईना पचीस शास्त्रीओनो सामटो अभिप्राय .... .... १० शास्त्री रेवाशंकर मावजी दवेनो अभिप्राय .... ११ मोरबीवाळा शास्त्री शंकरलाल माहेश्वरनो अभिप्राय १२ शास्त्री भानुशंकर हरिशंकरनो अभिप्राय ..... १३ भावनगरवाला शास्त्री नर्मदाशंकर दामोदरनो अभिप्राय ४ शास्त्री विश्वनाथ नारायणजीनो अभिप्राय ...... १५ लींबडीवाला शास्त्री नागेश्वर नथुराम भट्टनो अभिप्राय १६ मेहेता मुरारजी वल्लभभाईनो अभिप्राय १७ मि० नाथाभाई मणीभाईनो अभिप्राय १८ लिंबडीवाला नागेश्वर नथुरामभट्टनो अभिप्राय १९ भट्ट बालाशंकर रूपजीनो अभिप्राय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat .... **** .... २० अमलसाडवाला शास्त्री रामकृष्ण इच्छारामनो अभिप्राय २१ स्वामि आत्मानन्दजीनो अभिप्राय २२ पंडित बालाजी विठ्ठल गावसकरनो अभिप्राय .... .... .... .... .... .... 4440 11.0 1004 पृष्ठ. १ 8 २२ २७ ३१ ३८ ४२ १३ ५१ ५८ L ६९ ७४ ७९ ८९ ९२ ९३ ९५ १०२ १०७ ११४ www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग३जो. अनुक्रमणिका. معمع नंबर नाम १ स्वस्थान मोरबीना ठाकोर साहेबनो उत्तर २ , विजावरना महाराजा साहेवनो उत्तर ३ , गोंडलना महाराजा साहेबनो उत्तर , सायलाना ठाकोर साहेबनो उत्तर , बोबिलीना महाराजा साहेबनो उत्तर , ध्रांगध्राना ठाकोर साहेबनो उत्तर ७ , सूनीना महाराणा साहेबनो उत्तर , कोटडासांगाणीना ठाकोर साहेबनो उत्तर .... , वाराहीना ठाकोर साहेबनो उत्तर ,, कटोसणाना ठाकोर साहेबनो उत्तर , लींबडीना ठाकोर साहेबनो उत्तर , पाटडीना ठाकोर साहेबनो उत्तर , खंबातना ठाकोर साहेबनो उत्तर , मदीनाना महाराजा साहेबनो उत्तर .... १५ , बरावन् करछनना महाराजा साहेबनो उत्तर १६ , राजूलाना महाराजा साहेबनो उत्तर .... मुंबई समाचार मु. मुंबई २ अखबारे सोदागर मु. मुंबई .... ३ अखबारे इसलाम मु. मुंबई .... ४ जागेजमशेद सु, मुंबई .... निर्दोषी प्राणिओनो वकील सांजवर्तमान तथा अखबारे सोदागर प्रत्ये मोकलेला तेनो पत्र मु. मुंबई .... ६ सयाजी विजय मु. वडोदरा .... m" ur 9 vv RAMROM . . . . . C... ८ बकरानो बली ... .... ...... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . .. . . भाग २ जो. अनुक्रमणिका. नंबर नाम - -- १ मुंबईवासी शास्त्री कहानजी जीवणरामनो अभिप्राय २ आर्यसमाजवाला मि. सेवकलाल करशनदासनो अभिप्राय.... ३ श्री रेवाथिओसोफीकल सोसायटीनो अभिप्राय .... .... ४ बडोदरावाला शास्त्री राजाराम काशीनाथनो अभिप्राय ५ शास्त्री बद्रीनाथ व्यंबकनाथनो अभिप्राय .... ६ सुरतवाला वैद्य धीरजराम दलपतरामनो अभिप्राय ७ सुरतवाला वैद्य तलखचंद ताराचंदनो अभिप्राय ८ लींबडीवाला भट्ट महाशंकर गोविंदजीनो अभिप्राय ९ लींबडीवाला शास्त्री करुणाशंकर गौरीशंकरनो अभिप्राय .... १० लींबडीवाला दवे नीलकंठ मकनजीनो अभिप्राय ११ खंबातवाला शास्त्री छगनलाल केशवलालनो अभिप्राय .... १२ जुनागढवाला शास्त्री गोराभाई रामजी पाठकनो अभिप्राय .... १३ शास्त्री हरिदत्त करुणाशंकरनो अभिप्राय .... १४ वैद्य रघुनाथ इंद्रजीनो अभिप्राय .... .... १५. धोराजीवाला पारेख वनेचंद पोपटनो अभिप्राय १६ धोराजीवाला पारेख पोपट मोतीचंदनो अभिप्राय १७ वेरावळवाला मि. मदनजी जुठानो अभिप्राय १८ प्रयागवाला शास्त्री भीमसेन शर्मानो अभिप्राय २० गोंडलवाला शास्त्री केवळराम लीलाधरनो अभिप्राय २१ गुंसाइ शंकरगरजी भैरवगरजीनो अभिप्राय २२ बारडोलीवाला जोशी मयाशंकर फकिरशानो अभिप्राय २३ एक गामडीया पारसीनो अभिप्राय.... .... २४ एवलावासी रजपुत शंकरसिंह छटुंसिंहनो अभिप्राय २५ लींबडीवाला शास्त्री कानजी पुरुषोत्तम भट्टनो अभिप्राय २७ जीवहिंसा हिंदुशास्त्र आधारे करवाविषे मनाइना जबाब २८ रामानुज सिद्धांतमताचार्यनो अभिप्राय .... .... २९ अमदाबादवाला शास्त्री रामचंद्र दीनानाथ भट्टनो अभिप्राय... .. .. ... . 40. १०६ १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंबर नाम ९ मोहिनी, मु. कनोज .... .... २० गुजरातमित्र तथा गुजरातदर्पण मु. सुरत ..... .... ११ दशरारे दिवसे देशी राज्योमा थतो पशुवध अने जैन कॉन्फरन्स .... १२ गुजराती पंच, मु. अहमदावाद १३ जैन, मु. अहमदाबाद १४ जैन विजय, मु. मुंबई .... ... १५ थी इंडियन एडवर टाईझर, मु. अहमदावाद १६ धी कारोनेशन एडवर टाईझर १७ एडव्होकेट ऑफ इन्डिया, मु. मुंबई. १८ धी रंगून गॅझिट, मु० रंगून .... १९ धी हिंढ प्याट्रियेट, मु० कलकत्ता.... २० पंजाब टाइम्स, मु. रावलपिंडी २१ जबलपुर पोष्ट, मु. जबलपुर ... ...... .... .. . . सूचना-भाग बीजानो अनुक्रम नंबर ओगणीस तथा नंबर छवीस भूलथी रही जवाथी तेना बदले नंबर वीस तथा सत्तावीस नांखवामां आवेल छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबध पशुवधना संबंधमां हिंदुशास्त्र शुं कहे छे ? "मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि” (वेदश्रुतिः) नं. १ पंडित ज्येष्टाराम मुकुंदजी विगेरे छ शास्त्रीओनो अभिप्राय. रा. रा. डाक्टर प्राणजीवन महेता जोग. आप तरफथी वलसाड ता. ९-९-९४ नी सालनी ७ प्रश्नावलीनी एक सूचना मली छे. जेनी पहोंच स्विकारवानी जोडे करेला प्रश्नोनो एकसामटो खुलासो नीचे प्रमाणे छे. बलेव अने दशेराना पर्व संबन्धे आपणा देशी आर्य जनोना ग्रन्थोमां तो कोइ पण प्राणिनी हिंसा के हनन करवा माटे सर्वथा आज्ञा नथी. व्रत नियमादिकना पुस्तकोमा उपर लखेलां पर्वमां व्रत करवानु लखेलुं छे; पण कोइ देव के देवीने उद्देशे करीने प्राणिवात करवानी आज्ञा नथी. त्यारे पशु प्राणिनो घात करवाने क्याथी रीत शरु थई छे ते तो स्पष्ट समजवू पण कठीण छे. ___ हवे आ प्रसंगनो उद्देश करी महाराज नामदार राणाश्री मोहनदेवजी महारानाए उपर दर्शावेली पशुहिंसाने अनभिमत जाणी अने चारे तरफ पोताना अभिप्राय जोडे लोकोना अभिप्राय लई जीवघातनुं निवारण थवा यत्न करेल छे. ए अनेक धन्यवाद लायक बनाव छे. तेमां वली दयावन्त दरबार मोसुफना विचारने अनुमोदन आपनारा आप पण असंख्य धन्यवादना पात्र छो. एक हुं तो शु, पण दयावन्त मनुष्य प्राणीमात्र आपने धन्यवाद बोलशे. कदाचित् पामर प्राणिने जो कार्याकार्यज्ञान हो तो तेओ पण बोलशे. हवे ज्यारे दशरा अने बलेवना पर्वोपर देव के देवीने अर्थ कोइ पण तेवा प्रकारे जीवधात अथवा बलिदान करवा विशे विधि नथी. त्यारे पछी ते बाबतने लांबी विस्तारवाली करी वधारे प्रश्नो करवा ते निरर्थक छे.. जो नवरात्रना अर्चनना उद्देशे करीने पशु आदिनो घात थतो होय तो नवरात-बलेव दशराने तो कई लागतुं वलगतुं नयी; तेम श्रौतकर्म यज्ञ यागादिनो संवन्ध पण दशरा बलेव जोडे श्यो छे ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्रश्न पत्रमा तो आरंभे अने उपसंहारे दशरा तथा बलेव लखेल छे कांई नवरात्र के देवदेवीयजनतो लखेलज नथी तेवू जाणीने दरेक प्रश्न- विवेचन करी तेना जूदां उत्तर न कल्पतां आटलाथी उत्तर पूर्ण थाय छे. ___स्त्रीसंग, हिंसा, मद्य, आ जगतमां रागतः प्राप्त छे. तो तेनी शास्त्रकारोए व्यवस्था करी छे. पण छेवटे तात्पर्यमां तो तेवां कृत्योथी निवृत्ति इष्ट छे. एम श्रीमद्भागवतादि सात्त्विकधर्मबोधक शास्त्रोनो मत छे. अने ते ते ग्रन्थो प्रसंगवशात् पोतानो अभिप्राय स्फुटपणे बोली रह्या छे. ___ अहिंसा प्रधान जैनधर्म तो हिंसाना काममा व्यवस्थाकथन करवा करतां निवृत्तिन पसंद करे छे तो ते लोकसिद्ध छे. अने हिंसानिवृत्यर्थे अनेक वचनो उपलब्ध छे. पण ते विषे सविस्तर लखतां बहु लंबाण थवाना भयथी फक्त थोडां वचन लख्यां छे. ते पण श्राद्ध प्रकरणने लइने लख्यां छे. कारण केटलांक बहु डाहपण डोलीने मन्वादि धर्मशास्त्रनां वचनो बोली देखाडीने लोकोने हिंसामा प्रवर्त करवा तैयार थई जाय छे. ___ जीवने अभयदान करवानी प्रशंसा. चतुर्वर्गचिंतामणौ परिशेषखंडे श्राद्धकल्पे श्राद्धोपकरणप्रकरणे चमत्कारखंडे ॥ यःश्राद्धदिवसे विद्वान् , प्राणिनामभयं वदेत भयं न तस्य किंचित्स्यादिहलोके परत्र च तत्रैव सौरपुराणे यद्यस्य भय मुत्पन्नं स्वतो वा परतोऽपि वा श्राद्धकर्मणि संप्राप्ते तत्तस्यापनयेत्सुधीः ॥ १॥ राजतश्चौरतो वापि व्यालाच श्वापदादपि संजातां तु हरेगीतिं पितृकर्मणि शक्तितः ॥२॥ एकतःकतवः सर्वे सर्वस्ववरदक्षिणा एकतो भयभीतस्य प्राणिनःप्राणरक्षणं ॥३॥ अतोर्थ सर्व कालेषु दद्यादभयदक्षिणां श्राद्धकाले विशेषेण सहि धर्मः परो मतः ॥ ४ ॥ यथाह्यभयदानेन तुष्यन्ति प्रपितामहाः न तथा वस्त्रपानान्न रत्नालंकारकांचनैः ॥ ५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतस्मादभयं देयं श्राद्धकाले विजानता अभयस्य प्रदातारो भयं विंदन्ति न क्वचित् ॥ ६॥ जन्ममत्युभयाभावादभयं मोक्ष उच्यते मोक्षमेव नरो याति प्राणिनामभय प्रदः॥ ७ ॥ श्राद्धमधिकृत्य ब्रह्मवैवर्ते जीवितस्यप्रदानाद्धि नान्यदानं विशिष्यते तस्मात् सर्वप्रयत्नेन देयं प्राणाभिरक्षणम् ॥ १॥ अहिंसा सर्वदेवत्यं पवित्रं सर्वपावनम् ॥ इत्यादि बहु वचनो छे. जो तेवो अवकाश मले तो मोटा निबंधो लखाय. (१) सम्मतिरत्रार्थ काशीशेष वेङ्कटाचल शास्त्रिणः (२) सम्मतिरत्रार्थे वालजी तनुज क्षेमजीशास्त्रिणः (३) सम्मतिरत्रार्थे मुकुन्दात्मभुवोज्येष्टारारामशर्मणः ॥ (४) सम्मतिरत्रार्थे पुरुषोत्तमात्मजशास्त्री जयकृष्णशर्मणः (५) सम्मतिरत्रार्थे हरजितात्मज भगवच्छर्मणः (६) सम्मतिरत्रार्थे नथ्वंगज मुरारिशर्मणः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २ लडीवाळा वैजनाथ मोतीराम भट्टनो अभिप्राय. ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते || पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः शान्ति शान्तिः अनुमान प्रमाण तथा प्रत्यक्ष प्रमाण विचारीए, अनुमान अने प्रत्यक्ष प्रमाण प्रथम स्थूळ बुद्धिथी विलोकिये तो आ दुनिआमां शुभ अशुभ बनावो बने छे ते बनावोनो कोई कर्ता होवो जोई - कारण के कारणाभावात् कार्याभावः अ वैशेषिक सूत्र छे. अनो अर्थ अवो छे के कारणना अभावे कार्यनो अभाव छे, - अटले कारण विना कार्य थतुं नथी. ते कारण बे छे एक उपादान, बीजुं निमित्त. निमित्त कारण ए के कुंभार चक्र अने दंड. माटी ए उपादान कारण छे अने घडो ए कार्य छे. आमां निमित्त कारण कुंभारज कहेवाय छे अने चक्रने दंड ए तो सहकारि कारण छे माटे छोडी दईए छिए तेम उपादान कारणने पण छोडीए छीए. कारण के ए तो जड छे. कुंभार निमित्त कारण छे ने ते चैतन्य छे एम ते बतावी शके छे. ए प्रमाणे आ शुभाशुभ बनावोनुं निमित्त कारण कोई होवु जोईर. कारण के “कार्यात् कारणं प्रतीयते” अर्थः- कार्यथी कारण जणाय छे. ए बनावोनो करनार कोई जोईए एम अनुमानमां आवे छे. त्यारे एनो बनावनार कोण हशे ? अने ते बे शुभ अने अशुभ कार्य थाय तो तेना कर्त्ता एक हशे के बे एम विचारतां एम अनुमान जाय छे के ए बेना कर्त्ता बे जुदा जणाय छे कारण के जे सारा छे तेनाथी नठारुं भाग्ये ज थाय छे, अने नठाराथी सारुं भाग्येज थई शके छे. जेथी एक सारुं करनार अने एक नठारुं करनार एम बे जणाय छे. आ जे करनारा छे ते देखाता नथी तेथी एमने देव एवी संज्ञा आपीये छीये कारण के अदृश्य छे. हवे राजानो धर्म एवो छे के जेम बने तेम प्रजा सुखी थाय एम करवुं प्रजाने पीडा थती होय तो ते पीडा दूर करवा माटे कदाच जानमालनी नुकशानी थाय तो खेर पण प्रजाने दुःखी थवा न देवी. त्यारे प्रजाने दुःख देनार आ बे देवमांना एक जे अशुभ कार्यवाळा छे ते होवा जोईए. ए देवो साये राजा युद्ध करी शके तेम नथी तेथी तेने कई आपीने पण संतोषवा जोईए, जेथी प्रजाने पीडा दूर थाय अने तेओ खराब कृत्य करनारा छे, माटे तेमनो खोराक पण खराब हरो, एम धारी तेने तेना लायक खोराक आपको जोईए. अने ते खोराक आपतां कदाच एक जीवनी हिंसा थतां घणा जीव उगरता होय तो एक जीवनी हिंसा थवाने अडचण नथी एम धारीने तेने एक जीव वर्षोंवर्ष आपवाथी तेओ पीडा नहि करे एम धारी तेमने राजाए आपवो. अगर जो नहीं आपे तो पीडा करशे; माटे तेमने भेट आपवी कारण के तेमनी साथे युद्ध करी जीती ताबे करी शकाय तेम नथी. हवे आपणे विचार करीए के आ बे देवमां बळवान् कोण छे ? अने बळवानना पक्षमां रहीए तो नबळो कांई करी शके के नहीं ? अने नबळाना पक्षमां रही बळवाननो द्रोह करीए तो नबळा काई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहाय करी शके के नहीं ? जो न करी शके, तो पछी नबळाना पक्षमां न रहे. हवे आ बे देवमां शुभ कर्म करनार देव छे ते बळवान छे, अने अशुभ कर्म करनार निर्बळ छे; एम जणाय छे. कारण के अशुभ कर्म करनाररांकनी पेठे दबायला जोवामां आवे छे. वळी शुभ करनाराओनो पक्ष ईश्वर करे छे अने अशुभ करनाराओनो ईश्वर संहार करे छे एम सांभळवामां आवे छे तो आअशुभ करनार देवने तेमने लायक तेवो खोराक आपतां शुभकर्म करवावाळा देवो नाराज थायके केम ? तो विचारी जोतां अलबत नाराज थवाज जोइए, अने ज्यारे नाराज थाय तो पछी ओ बळवान देवनो द्रोह करी निर्बळ देवना पक्षमा रहेवाथी दुःख अवश्य सहेवून पडे. हवे विचार करीए के ए अशुभ देवनो खोराक शुभ छे के नहीं ? कारणके जो बीजो खोराक न होय तो लाचार-जेमके सिंहनो खोराक मांसज छे, तेनी आगळ चहाय तेटला बीजा सारा पदार्थ मूकीए तो ते नकामा; तेम आमनुं तो नथी ? विचार करतां जणाय छे के ते देवाने एम नथी कारणके ते देवाने तेने बदल बीजा पदार्थो आपीए तो पण तेओ खराब खोराक आप्या बराबर तृप्त थाय छे एम सांभळ्युं छे. तो जो बीजो खोराक सारा देवने अनूकुळ होय तो ते आपवाने हरकत नथी; विचारतां प्रतिकूळ नहीं; कारणके तेथी शुभ देवने खोटु नथी लागवान, ने अशुभ देवने तेथी तृप्ति पण तेवीज थाय छे. विचारतां अडचण नथी तो आथी बनेनुं मन सचवाय छे ज्यारे बनेनुं मन सचवाय अने बने रानी थाय एम थतुं होय तो तेवा उपाय छोडीने बीजी रीते साराने द्वेष करी अशुभने रानी करे तेना जेवो बीजो अणसमजु कोण ? कोईज नहीं; माटे सुज्ञे तो बन्नोने रानी रखाय तेम कर, एटले पशुबलिने बदले बोजा पदार्थों आपवा-जेवाके साकरकोळु, शेरडी, श्रीफळ, कमळ वगरे आपवा ते उत्तम छे. अने तेथी बने राजी थशे. तथा सांभळयु छे के देवीए चोख्खं कर्तुं छे के मारा माहात्म्य, एकवार श्रवण ते एक वर्ष सुधी पशुबलि वगेरे पूजा करी मारी प्रीति मेळवे तेना बरोबर छ ज्यारे पाठ श्रवणथी एटलो बधो लाभ छे तो ते वधु लाभ मूकीने ओछो लाभ लेवानुं समजु तो नज करे. वळी ते देव- उपासन आपणे आधीन छे के ते देवने आधीन ? एम विचारतां उपासना देवने आधीन नथी पण उपासकने आधीन छे, एम सांभळयु छे, अने विचारतां पण एमज जणाय छे के जेनी प्रीति मेळववी ते प्रीति मेळवनारने आधिन छे. अने ते प्रीति प्रेमवडे छे, पण प्रेम विना चहाय तेवा सारा पदार्थों आपीए तेथी प्रीति थती नथी; ने तेमनी साथे शुद्ध अंतःकरणथी, उजळा मनयी थोडं आपीए तो ते पण बहु मनाय छे अने तेथीज प्रीति थाय छे. ___ स्थूळ बुद्धिए प्रत्यक्ष प्रमाणथी जोतां जे देवने बलि आपे छे ते देव देखातो नथी. एटलुंज नहि पण जे आपीए छीए ते ते लेतो होय एम पण जणातुं नथी. तेना आगळ जेटलुं धरीए तेटरों ने तेटलुंज रहे छे तेमां जरा पण फेरफार पडतो नी; त्यारे ए देव छे ए शी खात्री के ते देव आगळ आपणे ते पशुने मूकीए ? तेम न मनाय तो तेना आगळ पशु मूकीए पछी जो तेनामां सामर्थ्य हशे तो ते पशुने ते देव उपयोगमा लेशे. अने जो न लेतो पछी ते देव छे, अने तेने न आपीए तो ते नुकशान करे एनी शी खात्री? ते तेनो पोतानो खोराक लई शकतो नथी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर कोई फेरफार करी शकतो नथी. आपीए ते जो लई शकतो नथी तो न आपवाथी नुकशान करशे ए पण केम मनाय ? कारण के जे कांई लेइ शके नहि, अगर कांई फेरफार करी शके नहि ते सारुं अगर बुरुं पण शुं करी शकनार ? कांईज नहीं; माटे नाहक निचारा निरपराधी गरीब प्राणिने शा माटे मारवुं जोइए ? ते गरीब प्राणि पण राजानी प्रजाज छे. अने तेनुं पण राजाए बने तेटलुं रक्षण करवुंज जोइए. अने एवा निरर्थक पशु वध करवा नज जोइए. जो ते देवनी आगळ पशुने मूकतां ते पशुने ते ले तो भले वर्षो वर्ष आपवुं. पण जो नज ले तो पछीथी तेने आपकुंज नहीं. अनेकदाच जो आप तो तेने बदले बीजा पदार्थों ने कहेल छे ते आपवा, अने पाठ करवो ए उत्तम छे. तेथी हवा सुधरे छे, अने रोगादि उपद्रव हवा सुधरवाथी थता नयी. पशु वधथी कांई विशेष नथी. वळी बीजा राज्योमां तें वध नथी थता तो ते राज्योंमां नुकशान थत्रु जोइए, पण ए कांई जणातुं नथी. त्यारे बजाए पण शुं काम नाहक एम कर जोइए ? आपणने जेम जीववानी होंश छे तथा ममत्व छे ते प्रमाणे ते प्राणियोने पण छे माटे नाहक निरपराधी प्राणियोने मारवा ए अन्याय छे. हवे कदापिने ओम कहीए के शब्द देखातो नथी पण श्रवणेंद्रियजन्य प्रत्यक्ष छे, तेम से देवकार्य थाय छे. ते कार्य अनुभवजन्य प्रत्यक्ष छे, जेम वायु देखातो नथी षण स्पर्शथी जणाय छे के वायु छे; तेम कार्यों थाय छे, अने ते कार्यो अनुभववामां आवे छे, ते परथी से देव छे ओम सिद्ध थाय छे, तोपण ते अशुभ कार्य करनार छे तेम शुभकार्योंनो अनुभव थाय छे तेथी शुभकार्योनो कर्त्ता पण कोई छे अने शुभ कार्य करनार प्रवळ छे अशुभ कार्य करनार निर्बळ छे कारण के दरेक वखते शुभकार्योवाळानो पक्ष ईश्वरे कर्यो छे अने अशुभवाळानो पक्ष कर्यो नथी. माटे अशुभ कार्यों करनार निर्बळ छे तेनोज केवळ पक्ष स्वीकारवामां नुकशान छे माटे बन्ने राजी रहे तेम करवुं; अने ते करवा माटे पशु वधने बदलें बीजं कहेल छे ते करवुं. वळी तें देव खातो नथी अॅटले उपयोगमां नथी लेतो एम कहेवाय नहि; कारण के सुगंधी पदार्थ होय तो तेनी सुगंधी लेवाथी पण तृप्ति थाय छे; तेम रूप जोवाथी अने शब्द सांभळवाथी पण तृप्ति थाय छे, तो ते रूपथी ग्रहण करे. अगर रूपथी ग्रहण करे तो तेथी कांई पदार्थ ओछो न थाय अगर फेरफार न थाय तेथी ते उपयोगमां न लीधुं एम न कहेवाय. तेनो खुलासो एम छे के जे पशुवध छे तेमां एवो सरस गंध नथी; तथा पशुवधमां ते पशुनुं माधुं उडावी देवाथी बहु रूपवान देखाय एम पण नथी. माधुं गया पछी विकराळ स्वरूप देखाय छे तथा ते वखतें पग शरीर विगेरे तरफडतां होय नें ध्रुजतां होय छे तथी राजी थवा जेतुं नथी. तेम आनंद पामवा जेवुं पण नथी. वळी ए शरीर पशुनां रजवायन बनेल छे ते रज वीर्य मळ छे- अने शरीर केबुं छे के चहाय तेवो सारो पदार्थ शरीरनी अंदर गळावाटे गयो के तेने खराब करी नांखे छे. अवुं शरीर छे तो ते मळमां सुगंधी क्यांथी ज होय, पण केवळ दुर्गंध अने गलीची छे. कदाच एम कहो के सेवा देवोने ते गमे छे तो ते पण बने नहीं कारणके कोई गंदो अने अत्यंत गलीची करनार होय तेना आगळ बीजो जो गलीचीपणुं करे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो तेने गमतुं नथी. जेम चोर छे ते चोरी करे छे; पण चारेने घरे को ई चोरी करे तो ते तेने गमती नथी. तेमज आ तमारी करेल गलीची तेने केम गमशे? नहींन गमे. अने शुभतो गमे ज माटे पशुवध बंध करी तेने बदले बीजा अहिंसक अने बने राजी थाय एवां पदार्थो आपवां उत्तम छे. अने तेथी वळी आपणुं धारेलं काम थाय छे. अने शास्त्रने बाध आवतो नथी. माटे ए उत्तम छेए अनुमान अने प्रत्यक्ष प्रमाणो आप्या. हवे सूक्ष्म बुद्धिधी विचारिए-आपणुं आ स्थूळ शरीर पंचमहाभूतनुं बनेल जणाय छे. कठण भाग पृथ्वीनो, द्रवी भाग जळनो, उष्ण भाग अग्निनो, गति भाग वायुनो अने पोलाण ए आकाशनो भाग छे. आ स्थूल शरीरनी अंदर सुक्ष्म शरीर छे ते सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच कर्मेंद्रिय, पांच प्राण, अंतःकरण चार ए रीते ओगणीश तत्त्वनुं बनेल जणाय छे. अने एमना ओगणीश देवताओ छे एम सांभळ्युं छे हवे आथी शुभ ने अशुभ बे कृत्यो बने छे माटे तेना बे भागो जणाय छे. ज्यारे तेना शुभ अने अशुभ वृत्तिवाळा बे भाग छे त्यारे तेमना देवताना पण बे भाग होवा जोईए. आपणे एम सांभळ्युं छे के "पिंडे सो ब्रह्मांडे" त्यारे पिंड (शरीर) प्रमाणे ब्रह्मांडमां पण होवू जोईए. ते विचारतां ते पण एमन जणाय छे. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अने आकाश ए पांच मळीने आ ब्रह्मांड स्थूल शरीर छे. अने ते वैराट · शरीर कहेवाय छे एम सांभळ्युं छे. त्यारे आ वैराटने पण सूक्ष्म शरीर होवू जोइए अने विचारतां जणाय छे के छे. त्यारे जोइए तो मालम पडे छे के पांच कर्मेद्रिय, पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच प्राण ने अंतःकरण चार ते तेमने पण छे. तथा देवता पण तेज प्रमाणे छे. आपणुं अने एर्नु बेउनु एक सरखं शरीर जणाय छे. आपणा शरीरने व्यष्टि अने आने समष्टि कहे छे एम सांभळ्युं छे. अने एमां पण शुभाशुभ कृत्यने शुभाशुभ देवताओ छे एम जणाय छे. खावानुं ते जठर द्वारा इंद्रियो तथा तेना देवताने पहोंचे छे. सांभळवू श्रवणद्वारा तेमने पहोंचे छे, जोवु नेत्रद्वारा पहोंचे छे, स्पर्श ते त्वचा इंद्रियद्वारा पोहोंचे छे. रस ते रसना द्वारा पहोंचे छे, अने गंध ते घाणेंद्रिय द्वारा पहोचे छे. आ बधाने पहोंचे छे ए खरी वात, पण जो जठरा न होय तो ए बधां लूलां वा जणाय छे. अने ते द्वारा ए इंद्रियोने ने देवताने खोराक पहोंचतो होय एम मालम पडे छे. इंद्रियो तथा देवताओ आपणा शरीरमां जठरावडे खोराक खातां होय अने तेथी ज काम करवा शक्तिमान थतां होय तेम जणाय छे. तथा आपणे जे जे खाईए. छीए ते ते जठरा ते देवाने पहोंचाडे छे. एटले जठरा द्वारा पहोंचे छे अने जेवो खोराक तेवा तेमांथी विचारो उठता होय तेम जणाय छे. तथा कहेवत छे के अन्न तेवो उद्गार ते वात खरी जणाय छे. हवे आपणे व्यष्टि प्रमाणे समष्टिमां जोइए तो तेनी नठरा प्रत्यक्ष " अग्नि " होय एम नणाय छे. अने आ अग्नि ते इन्द्रियो अने देवताओने खोराक पहोंचाडती होय एम जणाय छे तथा तेथी ज तेओ शक्तिमान रहेता होय एम जणाय छे. आपणे खाईए छीए ते जठरा ग्रहण करीने जेम देवने पहोंचाडे छे तेम आ अग्नि पण ते इन्द्रियो तथा देवने पहोंचाडे छे. हवे विचारीए के आपणो आ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यष्टि आ समष्टि साथै कांई संबंध छे के केम ? तो विचार करतां बहु ज निकट संबंध जणाय छे. अने एम जणाय छे के आ समष्टिथी ज आपणुं व्यष्टि शरीर बन्युं होय नी शुं ? एम लागे छे. ज्यारे समष्टिथी व्यष्टि बन्युं होय त्यारे तो समष्टि बळवान होवुं जोइए ? ते विचार करतां ते तेमज जणाय छे. विशेष विचार करतां आ सर्व प्राणीओनां शरीर समष्टिथी बनेलां होय एम जणाय छे. एटलुंज नहीं पण ते समष्टिद्वारा आपणने खोराक मळे छे एम तेथी ज पोषण थाय छे. ते न होय तो आपणे न ज होइए अने तेनी इन्द्रियोने देवता बळवान होय तो ज आपणी इन्द्रियोने देवता बळवान होय. एम जणाय छे, त्यारे एना इंद्रियोंने देवता शाथी बळवान थाय ए विचारतां आ प्रत्यक्ष खोराक आपवाथी. त्यारे सारो खोराक आपवाथी सारुं अने नठारो खोराक आपवाथी नठारुं थतुंज हशे ? तो हा एमज थतुं जणाय छे. त्यारे तो आपणे ए अग्निने बहुज साचववो जोईतो लागे छे ? तो हा तेमज जणाय छे त्यारे तो आ यज्ञो जे कह्या छे ते बरोबर जणाय छे. ज्यारे ए यज्ञोनुं अवश्य कर्त्तव्य जणाय छे त्यारे ते यज्ञोमां सारां पदार्थों होमे सारुं भने नठारां पदार्थों होमे नठारुं थाय एम जणाय छे. अने आथी सर्व प्राणिओने जेवी असर करवी होय तेवी करी शकाती होय एम जणाय छे ने शुं? वाह ? आपणा वृद्धोए शुं खुबी गोती काढी छे ने? धन्य छे आपणां वृद्धोने. तेओए जे जे कार्यो बांध्यां होय छे ते बहु डहापण भरेलां होय एम जणाय छे. त्यारे आ यज्ञोमां पशु होम तथा पशु वध विषे विचारीए तेनुं केम छे ते जोइए ? पशुशरीर ए पशुनो मळ रजवीर्यथी थयेल छे अने ते मळज छे तथा मळ छे ते कदी पण सारो पदार्थ होय नाहि. ज्यारे ते सारो पदार्थ नथी त्यारे ए अग्निमा होमवाथी नठारुंज परिणाम आववानुं अने ए नठारुं परिणाम एम करनारनुं कोईनुं आव्युं छे के नहीं? एम विचारतां दैत्यानां राज गयां ने पायमाल थई गया तथा राक्षसो पण पायमाल थई गया ते तेथीज हशे ? एम जणाय छे कारण के एओए एवां कृत्यो बहु करेला होय एम संभळाय छे. त्यारे ए दैत्यो तथा राक्षसोए एवां कृत्यो कर्या तेथी तेमनो तथा तेमना राजनो अने प्रजानो नाश थयो तेम हालना राजाओ जो एम करे तो तेथी पण अवश्य तेज परिणाम आवे एम जाय छे. माटे राजा प्रजा जे शुभ इच्छनार छे तेमणे ए न करवुं ए अति उत्तम जणाय छे. खराब वस्तुओ होमतां नुकशान अने शुभ वस्तुओ होमतां फायदो जणाय छे. अने राजाए विशेषे करीने आ बाबतनी काळजी राखवी एम जणाय छे. कारणके सर्व प्रजानो आधार तेनापर बिशेष छे. अने प्रजाए पण काळजी राखवी जोइए के राजा तेम करतो होय तो तेने अटकाववो. कारणके प्रजाए राजाथी सुख मेळववानुं छे. राजा सुखीए प्रजा सुखी अने राजा दुःखीए प्रजा दुःखी तेमज प्रजा दुखीए राजा दुःखी अने प्रजा सुखीए राजा सुखी एम परस्पर संबंध जणाय छे. हवे सूक्ष्म बुद्धिथी प्रत्यक्ष प्रमाण नीचे प्रमाणे छेः- आपणा शरीरमां कठण भाग, द्रवीभाग, उष्णभाग, गतिवाळोभाग, अने पोलाण छे. पगथी जवाय अवाय छे, हाथथी आप ले थाय छे, गुदधी मळ त्याग थाय छे, शिश्नथी पेशाब त्याग तथा रतिभोग थाय छे, मुखथी खवाय छे, नाकथी गंध जणाय छे, जिह्वाथी स्वाद जणाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, चक्षुयी रूप जोवाय छे, चामंडीथी स्पर्श जणाय छे, अने कानथी शब्द श्रवण थाय छे. पांच प्राण(प्राणथी श्वासोश्वास लेवाय छे अने अपानथी मळ त्याग कराय छे, उदानथी हेडकी होडकार स्वप्नां आवे छे, समान सर्व नाडीओमां रस पहोंचाडे छे, व्यान सर्वांगन्यापी रहेल छे.) मन संकल्प विकल्प करे छे, बुद्धि निश्चय करे छे. चित्तथी चितवन तथा स्मरण (याद आवg) थाय छे. अहंकारथी अमिमान भराय छे, ए एकन अंतःकरणना चार भाग छे, आ अंतःकरणनी शुभाशुभ वृत्तिओ थाय छे. अने तेथी सुखदुःख प्राप्त थाय छे.. मुखथी जे खाइए पीए ते जठराग्नि तेने पचावे छे अने त्यांथी समान वायु ते रस सर्व नाडीओमां पहोंचांडे छे. अने तेथी अंतःकरण- पोषण थाय छे. जेवो जेवो खोराक खाधामां आवे छे तेवी तेवी वृत्ति थाय छे. अंतःकरण रसना द्वारा स्वाद जाणे छे, घ्राणद्वारा गंध जाणे छे, चक्षुद्वारा रूप जुए छे, नाकद्वारा स्पर्श जाणे छे, श्रवणेन्द्रियद्वारा शब्द सांभळे छे. अने शुभ वा अशुभ नेवा ग्रहण थाय ते प्रमाणे अंतःकरणनी वृत्ति शुभ अशुभ थाय छे. जमणो हाथ प्रबळ, डाबो हाथ निर्बळ, जमणो पग प्रबळ, डाबो पग निर्बळ, जमणी आंख प्रबळ, डाबी आंख निर्बळ, जमणो कान प्रबळ, डाबो कान निर्बळ वगेरे प्रबळ निर्बळ छे. वृत्तिओ प्रबळ निर्बळ थाय छे अने सारो खोराक होय तो सारी वृत्ति प्रबळ थाय अने नठारो खोराक होय तो नठारी वृत्ति प्रबळ थाय तथा सुख दुःखादि फळ पण ते न प्रमाणे प्राप्त थाय छे. प्रबळ निर्बळने दवावे छे इत्यादि आपणे प्रत्यक्ष अनुभवीए छईए. आ इन्द्रियो अंतःकरणादि ईश्वरनी संनिधियी चैतन्य छ, नहीं तो जड छे. जुओ मुडदाल शरीरमां ईश्वर जे इन्द्रिय अंतःकरणादि लईने जे जे नग्योए छे तेनां ते ते प्रमाणे जुदा जुदां नाम उपाधिभेदे आ प्रमाणे छे. पगे उपेंद्र, हाथे इंद्र, शिश्ने प्रजापति, गुदे यम, मुख अग्नि, वाणी सरस्वती (वेद), घाण अश्वनि कुमार, रसना वरुण, चक्षु सूर्य चंद्र, त्वक् मरुत्, श्रवणे दिपाल, प्राणे वायु, मने चंद्रमा, बुद्धि ब्रह्मा, चित्त नारायण, अहंकारे रुद्र, तथा शुभ वृत्ति ए पालक, अशुभ वृत्तिए संहारक ए प्रमाणेनां नामो छे. आ बताब्युं ते व्यष्टि स्थूल तथा व्यष्टि सूक्ष्म शरीर छे. हवे बहार जोतां कठण पृथ्वी, द्रवीजळ, उष्ण अग्नि, गतिमान् वायु, पोलाण आकाश, आ समष्टिस्थूल शरीर तथा नीचे प्रमाणे समष्टिसूक्ष्मशरीर छे. समष्टि सूक्ष्म शरीर-पग उपेंद्र, हाथ इन्द्र, शिश्न प्रजापति, गुद यम, मुख अग्नि, वाणी सरस्वति (वेद), घाण अश्वनिकुमार, रसना वरुणदेव, चक्षु सूर्य चंद्र, त्वक् मरुतदेव, श्रवण दिग्पाळ, प्राण वायु, मन चंद्रमा, बुद्धि ब्रह्मा, चित्तनारायण, अहंकार रुद्र" ए अंतःकरण छे. पालक तथा संहारक ए शुभ तथा अशुभ वृत्ति. जेवो खोराक तेवी वृत्ति. आ बधा देवो छे. प्रत्यक्ष अग्नि खोराकने पचावे छे, वायु रसने पाचाडे छे. तथा प्रबळ निर्बळ पण व्यष्टि प्रमाणे छे. एम प्रत्यक्ष रीते जोवामां आवे छे. आ समष्टिथीन आपणुं व्यष्टि शरीर थयेल छे. माटे समष्टि उपर आपणो सर्व आधार छे. तथा सर्व प्राणियोना सुःखदुःखनो आधार पण तेन छे आ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० उपर कहेल समष्टि शरीरने प्रत्यक्ष अग्निद्वारा ने आपीए छीए ते पहोंचे छे अने तेटलाज माटे आपणा वृद्धोए अग्निहोत्र राखवा, सवार सांज नित्यहोम करवा, ने यज्ञयागादिक करवानुं का छे. अने ए यज्ञयाग होम विगेरेथी हवा सुधरे छे, वृष्टि सारी थाय छे, ने रोगनो उपद्रव थवा पामतो नथी. तथा प्रजा सुखकारीमा रहे छे पण जोए अग्निमां खराब पदार्थनो होम थाय तो सर्व प्राणियोने नुकशान थया विना रहेतुं नथी. जेम एक झेरी वस्तु छे ते एक माणस जेटली खाइने मरी जाय तेटली ते वस्तु जो अग्निमां नांखी होय तो जेटला माणसने धुमाडो लागे तेटला मरण पामे छे. वळी आपणी पासे थोडी वस्तु होय ने ते वस्तु घणा माणसने पहोंचाडवी होय तो, अग्निमां नांखवाथी घणाने ते एकसरखे हिस्से पहोंचे छे. तेवी ज रीते खराब पदार्थोने होमवाथी नुकशान अने शुभ पदार्थो होमवाथी फायदो छे माटे पशु- मांस होमवाथी नुकशान ज छे कारणके ते अग्निमां नाखवाथी हवा बगडे छे ने नठारो पदार्थ समष्टिना देवोने (इंद्रियोने ) पहोंचे छे. अने ते द्वारा आपणने बहून नुकशान थाय छे. माटे अवश्य पशुबलि अग्निमां न आपq तथा मांस होमवू नहीं. त्यारे शुं बहार बलि आपq ? तो तेम पण नहीं. एथी पण तेवीन नुकशानी छे. केमके हवा खराब करे छे. कारण ते केवळ मळन छे. अने मळ्यी कोई खुशी थाय ज नहीं, नाखुश जथाय अने नाखुश थवाथी नुकशान थाय छे. ते नुकशान जुओ दैत्योने अने राक्षसोने एम अकृत्य करवाथी थयेल छे तथा तेमनां राज्यो पण पायमालीपर आवी गयां छे वळी तेओ भुंडे हाल मरण पाम्या छे अने महा खराब थई गया छे. माटे जेमणे खराब थर्बु होय तेमणे ए कृत्य करवू. राजाए तथा प्रजाए बनतां सुधी ए कृत्य करवा देवू ज नहीं. कारण के एथी बहु न हानि छे अने ते आ वांचवापरथी तथा विचारथी अनुभवमां आवेल ज हशे. हवे यज्ञ करवा ए शास्त्रीय छे अने करवा ए ठीक एम अनुभवमां पण आवे छे. पण पशुवध तो वामतंत्रोना ग्रंथो सिवाय बीजा कोई ग्रंथोमां जोवामां आवतो नथी. माटे ते प्रबळ गणाय नहीं. आसुरी संपत्तिवाळाओ एम करे छे. दैवी संपत्तिवाळा कदि एम करे ज नहीं. अने राजाने ए नन जोईए. आ बलि शुभ देवो ने पालक आगळ बताव्या छे तेने अपाय छे के अशुभ संहारक देवोने अपाय छे ? जो शुभ देवोने आपता होय तो ते महाहानि छे. शुभ देवो तेने अंगीकार न नहीं करे अने सामा गुस्से थशे तेथी नुकशान छे. अने अशुभ देवोने आपवाथी ते मांकडाने दारु पाया बरोबर छे. खराब तो छ ज अने तेमने वळी आवी रीते उत्तेजन मळे तो तेओ शुं न करे ? तेओ नुकशान करे छे ने आथी वधु नुकशान छे. माटे सर्व रीते पशु वधनो निषेध छे. त्यारे राजाए सर्वेने यथा शक्ति सत्कार करवो ज जोईए, तथा ए संहारक देवो पण राजाने कोई वखते उपयोगी छे, माटे तेमनुं पण ओळखाण राखg जोइए अने तेमने दुभववा न जोइए ए पण एक ठीक छे. कोइ वखते काम लागे तेम छे तो पछी तेओने ते बलिने बदले बीनां पदार्थो कह्यां छे ते आपवां एटले कोइ जातनी अडचण आवशेन नहीं. आ द्वंद्वाकृति अनादिथी चाली आवे छे. सारुं ने नरसं, शुभ ने अशुभ पाळक ने संहारक, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख ने दुःख, पाप ने पुण्य, धर्म ने अधर्म, धर्मी ने अधर्मी, साचो ने जुठो, जो ए प्रमाणे द्वंद्वाकृति न होय तो सारं नरसुं जणाय नहीं. माटे ए एक बीजाने जणावे छे तेटला माटे ए पण उपयोगी होइने ए प्रमाणे बनेल छे तो तेपण ठीक छे. 'जुठो साचाने बतावे छे तथा साचो जुठाने बतावे छे तेमन वळी धर्मी अधर्मीने बतावे छे अने अधर्मीथी धर्मी जणाय छे, माटे ए पण एक समजणथी बनेल छे. आ उपरथी सर्वे सुज्ञोने लक्षमां आव्युं हशे के पशुवध महानिषिद्ध छे माटे न करवो. आटळु हवे सुज्ञोने बहु छे ने अणसमजुने हजारो ग्रंथोथी उपदेश ते काइ नथी ने समजुने सहेन इसारो बस छे. एम धारी हुं आ विषे विशेष लखवू बंध करुं छु. जेने जेम गमे तेम कहे. बे रस्ता छे. शुभ ने अशुभना. ते बे बताव्या छे, तेमाथी जे जेने जोइए ते उपाडी ले. आ विषेनुं लखवा बेशीए तो ते एक मोटो ग्रंथ बने माटे टुंकामां ते, मात्र दिग्दर्शन करावी वधु लंबावतो नथी. आ अनुमान अने प्रत्यक्ष प्रमाणो आप्यां छे. तेमां तमारा साते प्रश्नोना उत्तर आवी जाय छे. ___ छतां दिग्दर्शनरूपे तेना उत्तरो पण लडें छ. ए प्रश्नोना उत्तर आपवा माटे पहेलां प्रमाण ग्रंथोनां नाम जणाववां जोइए. प्रमाण विना कोई वस्तु सिद्ध थती नथी. माटे सर्व मान्य प्रमाणो नीचे प्रमाणे योगवासिष्टना मुमुक्षु प्रकरणना अढारमा सर्गमां वसिष्ट महामुनिये श्रीरामने कह्यां छे. "अपि पौरुष मादेयं, शास्त्रं चेयुक्तिबोधकम् । अन्यत्त्वामपि त्याज्यं, भाव्यं न्यायैकसेविना ॥ युक्तियुक्त मुपादेयं, वचनं बालकादपि, अन्य तृणमिव त्याज्य, मप्युक्तं परमेष्टिना ।। योऽस्मत्तातस्य कूपोऽय, मिति कौपं पिबेतू पयः । त्यक्त्वा गांगं पुरःस्थं तं, कोऽनुशास्त्यतिरागिणम्" ॥ __ अर्थ-अपक्षपाती मनुष्ये युक्तिबोधक शास्त्र साधारण पुरुषे रचेलु होय तथापि स्वीकारवू,पण युक्तिविनानु,ऋषिये कहेलुं होय तोय पण त्याग करवू. केम के युक्तियुक्त वचन बाळकथी पण ग्रहण करवा लायक छे ने युक्ति विनानुं कदि प्रजापतिये कहेलु तोपण तृणनी पेठे त्याग करवा लायक छे. एम छतां पण जे अमारा बापनो कुवो छे एवा हठथी पासे रहेढुं गंगार्नु मीठु जल मूकी कुवानुं खारु पाणी पीए तेवा अतिरागीने कोण उपदेश करे ? युक्ति-षट् लिंगथी ग्रंथनां तात्पर्य (रहस्य)नो निर्णय करवो तेने युक्ति कहे छे. षट्लिंग एटले षट् प्रमाण-ते आ प्रमाणे छे. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अने अभाव. आ प्रमाणोमां कोई एक प्रत्यक्षनेन माने छे. कोई प्रत्यक्ष अने अनुमान एम बे भाने छे. कोई त्रण माने छे कोई चार माने छे. पूर्वमीमांसा तथा उत्तर मीमांसावाळा छ प्रमाण माने छे तथा बीजा आठ प्रमाण माने छे. पण ते बधानो समावेश घणुं करी त्रण प्रमाणमां थाय छे. पातंजल योगदर्शनमां कां छे के "प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि"(प्रथम समाधिपादनुं सूत्र ७ मुं) अर्थ-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम (शब्दप्रमाण), ए प्रमाणे छे. यथार्थ ज्ञाननू ने करण होय ते प्रमाण कहेवाय छे. इन्द्रियसन्निकर्षद्वारा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चित्तनुं बहारनी वस्तुरूपे परिणाम ते प्रत्यक्षचित्तना बहारना संचार माटे इन्द्रियोद्वार रूप छे. धुमाडो देखीने अग्निनुं ज्ञान थाय ते अनुमान, आ बे सिवाय ज्ञानना साधनरुप एक त्रीजी वृत्ति छे ते द्वारा आ बे करतां जूदीज तरेहनुं ज्ञान उदय थाय छे. ए त्रीजी शब्दग्रहण जन्य वृत्तिने आगम नामथी ओळखवामां आवे छे. आ आगमज आपणा बधा ज्ञाननुं मूळ छे. आ आगमद्वारा आपणने त्रण प्रकारनं ज्ञान मळे छे. ते एक "आ शुं ?" ए प्रश्नना उत्तरवाळु, बीजुं ज्ञानी पुरुषोनी स्वयं प्रवर्त्तावेली शिक्षाद्वारा मळेलु, अने त्रीजुं वयोवृद्ध तथा ज्ञानवृद्धनी परस्परनी वातो सांभळीने थयेलुं. ए रीते प्रमाणो बताव्या. हवे शब्दप्रमाण नीचे प्रमाणे छे. याज्ञवल्क्य स्मृतिना आचाराध्यायमां श्लोक छे के श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः, स्वस्यच प्रियमात्मनः । सम्यक् संकल्पजः कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम् ।। अर्थ — श्रुति कहेतां वेद, स्मृति कहेतां धर्मशास्त्र, सदाचार कहेतां शिष्ट लोकोनी रीतभात, पोताना मनने गमतुं ते एरी के जे विषयमां शास्त्रोक्त अनेक पक्ष छे तेमां जे आपणने अनुकुळ होय ते तथा सारा रुडा संकल्पथी उठेली अर्थात् जे शास्त्रविरुद्ध नहीं होय एवी हरेक नियम पाळवानी इच्छा एटला धर्मनां मूळ एटले स्वरूप समजवानां प्रमाण छे तथा श्लोक ३ मां कहेल छे के-पुराणं न्याय मीमांसा, धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः । वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ ३ ॥ अर्थ-पुराण कहेतां ब्रह्मपुराण, विष्णुपुराण इत्यादि, न्याय एटले तर्कविद्या, मीमांसा एटले वेदार्थ विचार, धर्मशास्त्र एटले मनु विगेरे ऋषिओए रचेला स्मृतिग्रंथ, शिक्षा, कल्पसूत्र, व्याकरण, निरुक्त, छंद, अने ज्योतिष एवेदनांछ अंग, वेद चार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्वणवेद मळीने चउद प्रकारना आ निबंधो विद्याओना एटले चतुर्विध पुरुषार्थनुं ज्ञान थवा माटे जे साधन छे तेवी विद्याओनां अने धर्मनां स्थान कहेतां आधार के पायाओ छे. वळी नीचे प्रमाणे विद्यानां अदार प्रस्थान छे. चार वेद, चार उपवेद, षट्वेदनां अंग, अने चार उपांग ते पुराण न्याय मीमांसा, अने धर्मशास्त्र. ए रीते वैखरी वाणी रूप विद्याना अंदार भेद छे तेमने प्रस्थान कहे छे. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद ए चार वेद छे. आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अने अथर्ववेद ए चार उपवेद छे. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष्, अने छंदस् ए वेदनां छ अंग छे. १ ब्रह्म, २ पद्म, ३ वैष्णव, ४ शैव, १ भागवत, ६ नारदीय, ७ मार्कंडेय, ← आग्नेय, ९ भविष्य, १० ब्रह्म वैवर्त, ११ लिंग, १२ वराह, १३ स्कंद, १४ वामन, १५ कौर्म्य, १५ मात्स्य, १७ गारुड, अने १८ ब्रह्मांड. ए अढार पुराण छे. न्याय शास्त्रमां न्याय तथा वैशेषिक, मीमांसा शास्त्रमां एक धर्ममीमांसाने बीजी ब्रह्ममीमांस. धर्ममीमांसाने पूर्वमीमांसा अने ब्रह्ममीमांसाने उत्तरमीमांसा कहे छे. धर्मशास्त्र एटले स्मृतिओ, याज्ञवल्क्य स्मृतिना आचाराध्यायनो श्लोक ४ थो. “मन्वत्रिविष्णुहारीत - याज्ञवल्क्यो शनोंगिराः । यमापस्तव संवर्ताः कात्यायननृइस्पती ॥। ४ ॥ पराशरव्यासशंख-लिखिता दक्षगौतम, शातातपो वशिष्टश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-मर्नु, अत्रि, विष्णु, होरीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, संवत, शातातप पराशर, गौतम, शंखें, दक्ष, आपस्तंब , यमें, बृहस्पति, व्यास, कात्यायन, देवते, नारदै, इत्यादिक उपर बतावेल सर्वज्ञ थया छे. तेमणे वेदने अनुसार स्मृतिनामे ग्रंथो कर्या छे. तेने धर्मशास्त्र कहे छे. अने ते तेमना नामथी ओळखाय छे. तेम सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, ए पण धर्मशास्त्रनां अंतर्भूत छे. हवे आमां पहेले नंबरे प्रमाणभूत वेद, पछी स्मृति, पछी शास्त्र; पछी इतिहास अने पछी पुराण, पछी, अन्य ग्रंथो प्रमाण भूत छे:-श्रुतिस्मृतिपुराणेषु विरुद्धेषु परस्परम् इत्यादि-अर्थ:-श्रुति अने स्मृतिनो विरोध आवे तो श्रुति बळवान् छे. अने स्मृति तथा आचारनो विरोध आवे तो स्मृति बळवान् छे. __ए प्रमाणे शब्दप्रमाणना ग्रंथो जे सर्व मान्य छ ते बतावीने हवे ते प्रश्नोना उत्तर पेहेला शब्दप्रमाणथी आपीए छीए अने ते शब्द प्रमाणमां पण पहेलां जे शास्त्रमा वधनुं कहेलुं छे, तेज शास्रोनां तेना विरुद्धना प्रमाण आपीने पछी एक एकथी विशेष बळवान् प्रमाण एक पछी एक यथानुक्रम प्रमाणे आ सार्थ दर्शावेल छे. प्रश्नो. प्र०-१ बळेव, दशरा विगेरे पर्वोपर देवीके देवने भोग आपवाना निमित्तथी पशुवध (पाडा, बकरां विगैरे प्राणीनो भोग) एवा प्रकारनी पशुहिंसा करवानें क्या शास्त्रमा कर्तुं छे ए पेहेलो प्रश्न छे. उत्तरः-मार्कंडेय पुराणगत, चंडीपाठ कवच १८ मां (श्लोक २७) सुरथ राजा प्रत्ये मार्कडेय ऋषि कहे छे. रुधिराक्तेनबलिना मांसेन सुरया नृप, माणामाचमनीयेन चंदनेन सुगंधिना ॥२७॥ अर्थः-हे राजा रक्तप्रोक्षण करेला अन्ननुं बलि, मांस तथा मद्यपण ए चंडीकाने समर्पण करवां, पछी नमस्कार, आचमन, सुगंधयुक्त चंदन इत्यादिथी पुजन करवू. तथा देवीपुराणमां कहेल छे के. अश्विने पूजयित्वा तु अर्धरात्रेष्टमीषुच, घातयंतिपशून् भक्त्या ते भवंति महाबलाः॥ तथा-पशुघातश्चकर्तव्यो, गवयाजवंधस्तथा ॥(वळी)तत्राश्वपेषछागमहिषस्वमांसाना मुत्तरोत्तरमाशस्त्यं फलविशेषश्च अर्थ-देवीपुराणमां कां छे के आसोमासमां अष्टमीने दिवसे अर्ध रात्रे जे माता- पूजन करीने भक्तिवडे करीने पशुने मारे छे; ते महाबळवान् थाय छे. पशुघात करवा योग्य छे. रोझ अने बकरानो वध ते पण करवा योग्य छे. बलिदानमां अश्व, घेटो, बकरो, पाडो, ने पोतानुं मांस एम उत्तरोत्तर श्रेष्ठ छे ने तेनुं फळ पण उत्तरोत्तर श्रेष्ठ छे. ए सिवाय कालीपुराण तथा बीजा वामतंत्रना ग्रंथोमां घणे ठेकाणे छे. पण दशरा तया बळेवने दिवसे बलि आपवानो निषेध नीचे प्रमाणे छे.-नंदायां ज्वलते वन्हिः पूर्णायां पशुघातनम्, भद्रायां गोकुले क्रीडा, तत्रराज्यं विनश्यति" । अर्थ :-पडवे, छठ्ठ, अने एकादशी ए नंदा तिथि छे. ते दिवसे जो होली प्रगटे छे तो, तथा पांचम, दशम, अने पूनम ए पूर्णातिथिने दिवसे पशुघात पशुनो बलि आपे तो, अने बीज, सातमने बारस ए भद्रा तिथिमां जन्माष्टमीनो उत्सव करे तो, जे देशमा ए प्रमाणे थाय त्यां राजनो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश थाय छे. ए प्रमाणे कालीपुराण ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा नारद पुराणमां कहेल छे, माटे दशरा तथा बळेवने दिवसे बलि आपवानो निषेध छे ते दिवसे पशुवध न करवो. प्र. २. जे शास्त्रमा का होय ते शास्त्र आर्य लोकोमा सर्वमान्य गणाय छे के केम ? अथवा बहुमान्य गणाय छे के केम? उत्तर. जे शास्त्रमा कहेल छे ते शास्त्र आर्य लोकोमा सर्वमान्य गणातां नथी, तथा बहुमान्य पण गणातां नथी. छेवटनी कनिष्ट पायरीनां छे. ते आगळ दर्शावेल शब्द प्रमाणना सर्वमान्य ग्रंथोथी जाणशो के ते सर्वमान्य नथी. प्र. ३. ते शास्त्र करतां पण जे शास्त्रनुं प्रमाण वधारे बलवान् गणातुं होय एवां कोइ शास्त्रमा ते हिंसानो निषेध कर्यो छे के केम? उत्तर. ते शास्त्र करतां पण जे शास्त्रनुं प्रमाण वधारे बळवान् होय एवा घणा शास्त्रोमां ते हिंसानो निषेध छे. एटलुंन नहीं पण तेने ते शास्त्रोमां पण निषेध करेल छे. अने ते सर्वे नीचे प्रमाणे छे. पहेलां तेमना शास्त्रोनोज निषेध लखीए छीए. मार्कंडेय पुराणगत चंडीपाठ कवच १५ श्लोक १९-२०-२१-देवीदेव प्रत्ये कहे छे. सर्व ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् पशुपुष्यार्घ धुपश्च, गंधदीपै स्तथोत्तमैः ॥ १९ ॥ विप्राणां भोजनोंमैः प्रोक्षणीयैरहनिशं ॥ अन्यैश्च विविधोंगेः प्रदानैवत्सरेण या ॥ २०॥ प्रीतिक्रियते सास्मिन्सकृत्सुचरिते श्रुते श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यं प्रयच्छति ॥ २१ ॥ अर्थ-देवी देव प्रत्ये कहे छे के आ सर्व माहात्म्य (चंडीपाठ) मारूं सन्निधान करनार छे, माटे पशुबलि, जळ, दुग्ध, दुर्वाग्र, दहीं, अक्षत, तील, यव, तथा हिरण्यगर्भ एवा आठ पदार्थ युक्त अर्घ्य तथा उत्तम सुगंधित गंध, पुष्प, धूप, दीप वगैरे अने ब्रह्मभोजन होम प्रति दिवसे पंचामृतनो अभिषेक तथा अनेक प्रकारनां पुष्पोनी माळाओ वगेरे भोगो मने तथा मारा उद्देशथी ब्राह्मणोने वस्त्रालंकारादि दानो आपवा पूर्वक एक वर्ष पर्यंत मारी पूजा करीने जेओ मारी प्रीति उत्पन्न करे छे, ते प्रीति मारुं आ सुचरित्र (चंडीपाठ) एकवार श्रवण करवाथी मने पहोंचे छे. कारण के आ चरित्र मात्र सांभळवाथीन सकळ पापोनुं हरण करे छे, तथा शरीरने विषे आरोग्यता आपे छे ॥२१॥ तथा कालीपुराणमां कहे छे के-नंदायां ज्वलते वन्हिः पूर्णायां पशुघातनम् ॥ भद्रायां गोकुले क्रीडा तत्र राज्यं विनश्यति ॥ अर्थ-ज्यां, नंदा कहेतां पडवे छठ्ठने एकादशीमां होली प्रगटाय छे, तथा पूर्णा कहेतां पांचम, दशम, अने पुनेमने दिवसे बलि पशुधात थाय छे. अने भद्रा कहेतां बीज, सातम, ने बारशने दिवसे जन्माष्टमीनो उत्सव थाय छे. त्यां राज नाश पामे छे आ वाक्य ब्रह्म वैवर्त तथा नारदादिक पुराणमां पण छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ - कलियुगे वर्ज्य तेमां आने लगतांज लखेल छे. वृहन्नारदीये "देवराच्च सुतोत्पत्ति मधुपर्क पशोर्वधः मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रम स्तथा ॥ अर्थ - दीयर थकी पुत्रनी उत्पत्ति, मधुपर्क, पशुनो वध, श्राद्धमां मांसनुं दान तथा वानप्रस्थाश्रम ए कलियुगमां त्याज्य छे. हेमाद्रि, ब्राह्ममां कहे छे के, गोत्रान्मातुः सपिंडाया विवाहो गोवधस्तथा, नराश्वमेधो मद्यं च कलौ वर्ज्य द्विजातिभिः ।। माताना गोत्र थकी तथा पोताना सपिंडी गोत्र थकी विवाह न करवो, गोवध न करवो तथा नरमेध, अश्वमेध, अने मद्यपान कलियुगे ब्राह्मण क्षत्रि अने वैश्यने वर्ज्य छे. अक्षता गौ पशुचैव श्राद्धे मांसं तथा मधु, देवराच्च सुतोत्पत्तिः । कलौ पंच विवर्जयेत् । इति निगमोक्तिः ॥ अक्षत स्त्री, गाय, पशु, श्राद्धमां मांस तथा मद्य, दीयर थकी पुत्रनी उत्पत्ति ए पांच कलियुगमां वर्जवां एम निगममां कहेल छे. वरातिथिपितृभ्यश्च पशूपाकरणक्रियेति कलिवर्ज्येषु ॥ हेमाद्रावादित्यपुराणे च ।। वरने, अतिथिने, पितृने, पशुरुपी उपाकरण क्रिया ते कलियुगमां वर्ज्य छे एम हेमाद्रि तथा आदित्य पुराणमां छे. भागवतना चोथा स्कंधमा प्राचीन बर्हिषी राजाने नारदे कयुं छे के —— हे प्राचीन बर्हिषी राजा, तें जे यज्ञमां हजारो पशुओ मारी नांख्यां ते तें केवळ अधर्म कर्यो छे. कारण के ते पशुओ तारी वाट जोड्ने रह्यां छे, के आ राजा क्यारे मरे के तेणे अमने जेम मारेल छे ते प्रकारे पाछु अमारुं वैर लइए. माटे हे राजन् ते पशुओ तारी वाट जोड़ने ऊभा छे तेमने प्रत्यक्ष जो. मतलब के अहिंसा एज परम धर्म छे. महाभारतांतर्गत शांति पर्वना अध्याय १५२ मां कहेल छे के “अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा, अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ।। अर्थः-मन, वाणी तथा कर्मे करी प्राणी मात्र नो द्रोह न करवो, दया राखवी, तथा उपकार करवो ए सत् पुरुषनो सनातन धर्म छे. तथा अध्याय ११६ मां कहेल छे जे - अहिंसा परमो धर्म स्तथाऽहिंसा परोदमः || अहिंसा परमंदानमहिंसा परमं तपः । अर्थ :- अहिंसा ए उत्तम धर्म, उत्तम दम, उत्तम दान, तथा उत्तम तप छे, वळी एज पर्वमां कहेल छे जे-यथा नागपदे न्यानि पदानि पदगामिनाम् || सर्वाण्येवापि धीयते पदजातानि कौंजरे || एवं सर्व महिंसायां, धर्मार्थमपि धीयते ॥ अर्थः- जे प्रकारे हाथीना पगमां पगवडे चालनार सर्व प्राणियोना पग अंतर्भूत थाय छे ते प्रमाणेज यज्ञ, तप, दानादिक सर्वे धर्म अने अर्थ अहिंसाने विषे अंतर्भूत थाय छे. विष्णुशर्मा कहेल छे जे-मतर्व्यमिति यद्दुःखं पुरुषस्योप जायते । शक्यस्तेनानुमानेन परोऽपि परिरक्षितुम् ॥ अर्थ: - पुरुषने मरण संबंधी जे दुःख थाय छे, ते उपमाए जोइ ते अनुमानथी अन्य प्राणियोनी पण रक्षा करवा योग्य छे तेमज महाभारतांतर्गत अनुशासन पर्वना अध्याय १११ तथा ११६ मां कहेल छे जे - प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा, आत्मौपम्येन मंतव्या बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः अर्थ - जे प्रमाणे पोतानो प्राण पोताने प्रिय छे. तेज प्रमाणे बीजा प्राणियोने पण तेओनो प्राण तेओने प्रिय हशे ए प्रमाणे पोतानी उपमाए बुद्धिमान ज्ञानियोए विचार. वळी कयुं छे के नहि प्राणात्मियतरं लोके किंचन विद्यते ॥ तस्माद्दयां नरः कुर्याद्यथात्मनि तथापरे । अर्थ- वळी जगत्‌मां प्राणथी अधिक प्रिय कांइपण जणायलुं नथी ते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण माटे मनुष्ये पोतानी उपमावडे जोइ बीजापर दया राखवी. वळी कां छे के प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति ।। नह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् ।। अर्थ-प्राणदानथी बीजुं अधिक श्रेष्ठदान आज सुधी थयुं नथी अने थशे पण नहीं. कारण के आत्माथी बीजुं कांइ पण अधिक प्रिय छे ज नहीं. ए निश्चय छे. तथा क्युं छे के अनिष्टं सर्व भूतानां मरणं नाम भारत, मृत्युकालेहि भूतानां सद्यो भवति वेपथुः ।। अर्थ- सर्व प्राणिमात्रने मृत्यु महा अनिष्ट छे; कारण के मृत्युकालमां प्राणियोने तत्काळ कंप थाय छे. माटे बिचारा गरीब निरपराधी प्राणियोनी जींदगी पर्यंतनुं सुख तोडी नांख एनाथी बीजुं कोई पापाचरण नथी, वळी प्राणियोनी सर्वे जातिओमां आनंद रहेलो छेज जेथी तेमने पण मनुष्यनी पेठे घणुं जीववानी होंश होय छे, अने तेओ पोतपोताना कुटुंबमां घणो स्नेह बांधे छे; जेथी एक बीजाने वियोग थतां तेओ अत्यंत दुःखी थाय छे. एम आपणे प्रत्यक्ष अनुभवथी जोईए तो आपणा अनुभवमां पण आवे छे. शांति पर्व मोक्ष धर्म - अध्याय ८८ मां धर्मनुं एवं लक्षण आपेलुं छे के सर्वभूतनुं हित तथा सर्वभूत साथे मित्रभाव राखवो ए धर्म प्राचीन छे. सर्व प्राणियोने अभय आपे छे; तेज अभय पामे छे. तप करवाथी, यज्ञ करवाथी, दान करवाथी, अने वेदांत वाक्योनुं चिंतवन करवाथी, जे जे फळ प्राप्त थाय छे, ते फळ एक अभयदानरूप धर्म करवाथी पण प्राप्त थाय छे, जे पुरुष सर्व प्राणियोने आलोकमां अभयदानरूपी दक्षिणा आपे छे, तेने सर्व यज्ञनुं फळ प्राप्त थईने ते पण अभय दक्षणा पामे छे. ऋषिओए अने योगीओए नहुष राजाने एम कह्युं छे के, तें गायने हणी ते पोतानी माने हण्या बरोबर पाप कर्यु छे, तें प्रजापतिने हण्या बरोबर पाप कर्तुं छे. - इत्यादि, इत्यादि, अध्याय ८९ मां अहिंसानी स्तुति अने हिंसानी निंदा विषे प्रजाना उपर दयाअर्थे विचख्यु राजाए कह्युं छे. अध्याय ९२ मां- तुलाधारे जाजलीने अहिंसाधर्म कहेल छे. अध्याय ९७ मां- हिंसा करवी ए यज्ञ कर्म नथी - हिंसात्मक यज्ञ करवाथी सत्यनामे ब्राह्मणनुं मोटुं तप नाश पाम्युं. अध्याय ९३ मां प्राणियोनी हिंसा कर्या विना एैश्वर्य प्राप्त थाय एवो धर्म गृहस्थने अने योगीने कल्याणकारी होय ते कह्यो छे. अध्याय ११७ मां जे हिंसायुक्त नथी ते आर्य पुरुषनुं सत्पुरुषो पूजन करे छे. पातंजल योगदर्शन साधनपाद सू. ३० तथा ३२. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ ३० ॥ शौचसंतोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः || ३२ || अर्थ:-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अने अपरिग्रह एयम छे.॥३०॥ पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय अने ईश्वरप्रणिधान ए नियम छे. सूत्र ॥ ३१ ॥ तथा सूत्र ३२ मां कहेल छे के-सू० जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥ अर्थः- जाति, देश, काळ अने समयथी ते यमनो भंग न थतां जो सर्व अवस्थामां ते सुस्थिर रहे तो ते महाव्रत कहेवाय छे. पछी सूत्र ३३ वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३६ ॥ अर्थ-वितर्कनां नाशमां तेना प्रतिपक्षनी भावना हेतु छे. ॥ ३३ ॥ तथा सूत्र ३४ वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानंतफला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥ अर्थ: - हिंसादिक वितर्को छे तेना कृत, कारित, अने अनुमोदित ए ऋण प्रकार छे, लोभ, क्रोध अने मोहपूर्वक ए वितर्कोनी उत्पत्ति थाय छे. ए विकल्पना मृदु, मध्य, अधिमात्र एवा अवांतर भेद छे. उक्त विकल्प दुःख अने अज्ञानरूपी अनंत फळो उत्पन्न करे छे. एवी?रीतनी प्रतिपक्षभावना करवी ३४. ए अहिंसाथी जे फळ थाय छे. ते कहे छे. सूत्र ३५. अहिंसाप्रतिष्टायां तत्संन्निधौ वैरत्यागः || ३५ ॥ अर्थ - अहिंसा सिद्ध थवाथी ते मुनि पासे वैरनो त्याग थाय छे. आ यम नियम ते सांख्य, न्याय, वैशेषिक, अने बने मीमांसा ए शास्त्रोने संमत छे; एटलुंज नहीं पण सर्वे धर्मवाळाओने पण संमत छे. कोई पण धर्ममा आनो निषेध करेल जोवामां आवतो नथी. ते कोई शास्त्रमां पण आयम नियमनो निषेध नथी अने ते राजाथी ते चांडाल पर्यंत सर्वने मानवा तथा पाळवा योग्य छे. हवे ए अहिंसानुं लक्षण योगसूत्रपर व्यास भाष्य छे तेमां लखेल छे जे "तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूताना मनभिद्रोहः ॥ अर्थः- सर्व प्रकारे सर्वदा सर्व प्राणियोनो अद्रोह करवो ते अहिंसा छे. तथा याज्ञवल्क्य संहितामां कहेल छे जे "कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा, अक्लेशजननं प्रोक्तमहिंसात्वेन योगिभिः ॥ अर्थ - सर्वदा सर्व प्राणियोने जे मन वचन अने शरीर वडे क्लेशनी उत्पत्ति न करवी तेनुं नाम अहिंसा छे. तथा याज्ञवल्य स्मृतिना आचाराध्यायमां कहेल छे के अहिंसा सत्यमस्तेयं शौच मिंद्रियनिग्रहः । दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनं ॥ अर्थ-अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, परोपकार, दया, मननुं दमन, तथा क्षमा ए नव सर्वेने धर्मनां साधन छे. आ याज्ञवल्क्यना मतमां अत्रिसंहिता, विष्णुस्मृति, हारितस्मृति, औशनसस्मृति, अंगिरसस्मृति, यमस्मृति, आपस्तंबस्मृति, संवर्त्तस्मृति, कात्यायनस्मृति, बृहस्पतिस्मृति, पराशरस्मृति, व्याससंहिता, शंखसंहिता, लिखितसंहिता, दक्षसंहिता, गौतमसंहिता, शातातपसंहिता, वशिष्टसंहिता, पुलस्त्यस्मृति, बुधस्मृति अने कश्यपस्मृति जरा पण विरुद्ध नथी. यजुर्वेद श्रुतिः नतं धिदयिऽइमा जजा नान्य घुषम् क्रमंतरं बभूव, नीहारेण प्रावृता जल्प्या चा सु तृपऽउक्थशासश्चरंति ॥ अर्थ - ते परमेश्वरने आपणे जाणता नथी जे आ प्रजाओने उत्पन्न करे छे ( करता हवा ) कारण के तेने ने आपणे घणुं अंतर होतुं हवं. माटे ते परमेश्वरना रूपने जाण्या विना अज्ञानमां वींटाएला प्राणि बकवाद करे छे अने कहे छे के आवी रीतिये पशुओनी हिंसा करवाथी तथा मांस भक्षण करवा थकी अनेक जातनुं आ लोक तथा परलोकनुं सुख मळे छे. ए प्रमाणे बकवाद करे छे, ते केवळ कर्मजड छे. कांइपण धर्मने जाणता नथी. मिथ्या बकवाद करे छे. केनी पेठे के जेम मोटो वंटोळीओ आवेलो होय अने तेमां राख उडेली होय अने आंखो बुरायेली होय, कांई न जोइ शकतो होय, ने तेने पूछयुं होय के पूर्व दिशा कई ? त्यारे ते जेम जाण्या विना पश्चिम के दक्षिणने पूर्व कहे, तेम अज्ञानी मूर्ख पुरुषो हिंसा करवा थकी आ लोक परलोकनुं सुख मळे एम बकवाद करे छे. तेने शुं फळ मळे छे ते कहे छे के, केवळ नीच अवतारो वारंवार पामे छे. तथा श्रुतिः - अथ कुपूया चरणा अभ्यासो हयते कुपूयां योनि मापद्येरन् श्वयो ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निं वा शूकरयोनि वा चांडालयोनि वा इति. अर्थ-शास्त्र निषिद्ध जे यज्ञमां पशुवध इत्यादि पापकोने करनार पुरुष जलदीन नीच योनिने प्राप्त थाय छे. कदि श्वान योनिने पामे छे, कदि शूकर योनिने पामे छे, ए आदि लईने बीजी पण अनेक अनेक नीच योनियोने पामे छे यजुर्वेद ईशोपनिषद् अथवा वाजसनेय संहितोपनिषद्मां कहेल छे के श्रुतिः-अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्या मुपासते ततो भूय इवते तमोय उ विद्यायाऽरताः ॥१२ ॥ अर्थ-जे पुरुष केवळः कर्मने करे छे ते पुरुष अदर्शनरूप तमने पामे छे. अने जे पुरुष केवळ उपासनामां प्रीतिवाळो छे ते पुरुष दारुण तमने पामे छे ॥९॥ श्रुतिः-अन्धन्तमः प्रविशन्ति ये संभूति मुपासते ततो भूय इवते तमोय उ संम्भूत्यारताः१२ अर्थः-जे पुरुष कारण अव्याकृत नाम मायानी उपासना करे छे, ते पुरुष अदर्शनरूप तमने प्राप्त थाय छे. तथा जे पुरुष हिरण्यगर्भरूप नाम कार्यनी उपासना करे छे ते पुरुष अधिक घोर तमने पामे छे. तथा शिरउपनिषद् , गर्भोपनिषद् , नादबिंदु उपनिषत् , ब्रह्मबिंदु उपनिषत् , अमृतबिंदूपनिषत् , ध्यानबिंदूपनिषत् , तेजोबिन्दूपनिषत् , योगतत्वोपनिषत , संन्यासोपनिषत् , आरुणेयोपनिषत् , ब्रह्मविद्योपनिषत् , क्षुरिकोपनिषत् , चूलिकोपनिषत् , अथर्वशिखोपनिषत्, ब्रह्मोपनिषत् , प्राणाग्निहोत्रोपनिषत् , नीलरुद्रोपनिषद् , कंठश्रुत्युपनिषत्, पिंडोपनिषत् , आत्मोपनिषत्, शमपूर्वतापन्युपनिषत् , रामोत्तरतापन्युपनिपत् , हनुमदुक्तरामोपनिषत् , सवोपनिपत् , हंसोपनिषत् , जाबालोपनिषत् अने कैवल्योपनिषत् एओमां क्यांइए पण दसेरा तथा बळेव पर के बीजे पर्वे पशुवध करवो एम छे ज नहीं. वळी-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य ए उपनिषदो जे चारे वेदनां छे तेमां कयांइ पण पशुवध छेज नहीं. तथा वृहदारण्यमां पण दसेरा बळेवे पशुवध करवो एवं क्यांइ पण छेज नहीं. प्र. ४. राजाओने ते अवश्य कर्तव्यज छे, अने ते न करवामां आवे तो बळवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय एवं काइ स्पष्ट प्रमाण छे के केम ? उत्तर-राजाओने ते अवश्य कर्तव्य छे एम कोइ कोइ कहे छे. अने मार्कडेय ऋषिए सुरथ राजाने चंडीपाठमां कहेल छे ते आगळ बतावेल छे, पण ते नहीं सरखं छे. एटले खास एवी कांई फरज विशेष होय एम जणातुं नथी. अने ते न करवामां आवे तो कोई बळवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय एवं कांई स्पष्ट कारण छेज नहीं. पण न करवू ए उत्तम छे. अने ते आगळना प्रमाणोथी जाणी लेशो. प्रश्न-५ ए हिंसानी प्रवृत्ति जो न करवामां आवे तो तेथी राज्यने, प्रजाने के राजाना अंगे कोइपण प्रकारनो आपत्तियोग आवे अथवा अकार्य कर्यु गणाय एवं कोइ बळवान् शास्त्रमा कयुं छे के केम? उत्तर-ए प्रमाणे कोइ पण बळवान् शास्त्रमा कां नथी. पण न करवाथी फायदा बतान्या छे. अने ते प्रश्न त्रीजाना खुलासामां ने प्रमाणो आप्यां छे तेथी वाकेफ थशो. करवाथी नुकशान छे. प्र. ६. ते पशुवधने बदले बीजी कोइ हिंसारहित क्रिया करी ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी कंड बळवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कयों गणाय के केम? तेवी हिंसा रहित शुं शुक्रिया बराबर गणाय? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-ते पशुवधने बदले बीजी कोइ हिंसारहित क्रिया करी ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी कई बळवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो गणाय नहिं पण सारुं छे. एवी हिंसारहित क्रियाओ बराबर गणाय तेवी नीचे प्रमाणे छे, कालीपुराणे-कूष्मांड मिक्षुदंडच, मांसं सारस मेवच, एते बलिसमाः प्रोक्ता स्तृप्तौ छागसमा सदा ॥ साकरकोळु, शेरडीनी कातळी, मांस, सारसपक्षी ए बधाय बलिदान समान कह्यां छे. एओ तृप्तिने विषे निरंतर बकरानी तुल्य छे. रुद्रयामले छागाभावेतु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं वस्त्रसंवेतिं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना. अर्थ-रुद्रयामलमां कयु छे के बकराना अभावे, साकरकोहोळु अथवा सुंदर श्रीफळ तेने लूगडं वींटाळीने छरीवडे छेदवू. प्रश्न-७ पशुवध करवाने बदले तेनां नाक कानने छेको मारीने ते प्राणिने छूटुं मेली देवामां आवे तो क्रिया पूर्ण थई गणाय के केम? उत्तर-एम करवू ते ठीक नथी. निषेध छे. एटले नाक कानने छेको करवो ते ठीक नथी. तंत्रांतरे. ओष्टस्य चिबुकस्यापि नेंद्रियाणां तथैवच, रक्तं मांस बलिदाने न दातव्यं कदाचन ॥ अर्थहोठy, नाकन ने इंद्रियोनुं मांस अथवा रुधिर बलिदानमां कोइ वखत आप_ नहीं. छूटुं मेली देवू उत्तम छे अने ते आगळ त्रीजा प्रश्नना खुलासाथी वाकेफ थकुं. त्यारे आवा यज्ञो कोण करे छे? तो विशेष आसुरी संपत्तिवाळा करे छे. एम कृष्ण भगवान् कहे छे. भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ५ मो. दैवी संपद् विमोक्षाय निबंधायासुरी मता ॥ अर्थ-दैवी संपत् मोक्ष कारणे ने आसुरी बंधन कारणे छे. तथा श्लोक ६ मां कहेल छे के द्वौभूतसौँ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एवच ॥ अर्थ-आ लोकमां देवनी अने असुरनी एवी बे प्रकारनी भूतसृष्टि छे. अध्याय १७ श्लोक ४ यजते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजते तामसाजनाः॥अर्थ-सात्विक जन देवने यजे छे. राजस ते यक्ष राक्षसने अने तामसजन ते भूतगणने यजे छे. अध्याय १६ श्लोक १७ आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजंते नाम यज्ञैस्ते दंभेना विधिपूर्वकम् ॥अहंकार बलंदर्प कामं क्रोधंच संश्रिताः॥ मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषंतोऽभ्यसूयकाः ॥ अर्थ:-कोइ सत्पुरुषे पूज्य करेला नहीं पण पोतेज पोतानी मेळे पूज्य बनी बेठेला, अनम्र, धनथी थयेला मान अने मदवाळा, अहंकार, बल, गर्व, काम अने क्रोधनो आश्रय करीने रहेला अर्थात् अहंकार आदि दुर्गुणोमां बुडेला, सन्मार्गमां चालनारा पुरुषपर दोषनो आरोप करनारा तथा हुं जे बीजाना देहमां चैतन्यांशवडे रह्यो छु तेनो द्वेष करनारा ते उपर कहेला आसुरो जीवो दंभथी मात्र नामनान यज्ञोवडे यजन करे छे. १७-१८ अध्याय १७ श्लोक १० यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् । उच्छिष्ट मपिचामेध्यं, भोजनं तामसप्रियम् ॥ अर्थः-प्रहर पछी निरस, दुर्गंधिवाळ, वासी, जमतां वधेलं, अपवित्र, भोजन (यज्ञमां निषिद्ध के अभक्ष्य ) ते तामस जनने प्रिय छे. अध्याय १६ श्लोक १९-२० तानहं द्विषतः क्रूरा न्संसारेषु नराधमान् ॥ क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥१९॥ आसुरीं योनि मापना मूढा जन्मनिजन्मनि॥माममाप्यैव कौंतेय ततो यांत्यधमांगतिम् ॥२०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २० अर्थः-मारो द्वेष करनारा तथा क्रूर ने अधम पुरुषोने जन्म मरणना मार्गरूप संसारमा अतिकर व्याघ्रादि योनियोमा न हुं नांखु छु. अर्थात् तेवा पापीने एवा फळ आपुं छु ॥ १९ ॥ ए आसुरी योनिने पामेला ते मूढ पुरुषो हे कुंताना पुत्र ? मने पाभ्या विना अर्थात् मारी प्राप्ति तो तेमने होयज क्याथी पण मने पामवाना उपायरूप सन्मार्गने पाम्याविना तेथी पण माठी गतिने पामे छे. अर्थात् क्रमि कीट आदि योनिमां उत्पन्न थाय छे. (इति शिवम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः) संवत १९५० ना भादरवा वदी ३ चंद्रवार. लखनार वैजनाथ मोतीराम भट्ट. लींबडी. ॐ तत्सत् रा. रा. प्राणजीवनदास जगजीवनदास मेहेता. चीफ मेडीकल ऑफिसर, साहेब. मु. धरमपुर. आपने विदित करवानु के आपना सवालना जबाब में मोकलाव्या छे तेमां नीचे लख्या प्रमाणे सुधारशोजी. (१) शब्द पुराणमां ज्यां अढार पुराणो गणाव्यां छे त्यां आ श्लोक दाखल करशो. पद्म पुराणना उत्तरखंडना ९४ मा अध्यायमां शिवजीए पार्वतीने का छे के वैष्णवं नारदीयंच तथा भागवतं शुभम् । गारुडंच तथा पानं वाराहं शुभदर्शनम् । सात्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै ॥ ब्रह्मांडं ब्रह्मवैवर्त मार्कंडेयं तथैवच, भविष्यं वामनं ब्रायं राजसानि निबोधमे।। मात्स्यं कौयं तथा लिंगं शैवं स्कांदं तथैवच, आग्नेयंच षडेतानि तामसानि निबोधमे ॥ अर्थ-विष्णुपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, गरुडपुराण, पद्मपुराण, अने वराहपुराण ए छ पुराण सात्विक गुणनां जाणवां. तथा ब्रह्मांड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कडेय, भविष्य, वामन अने ब्रह्म ए छ पुराण राजस गुणनां छे. मत्स्य, कूर्म, लिंग, शैव, स्कंद तथा आग्नि ए छ पुराण तामस गुणना जाणवां. (२) तमारा छठ्ठा प्रश्नना जवाबमां कालीपुराणनो श्लोक कूष्मांड मिक्षुदंडंच मापं कंसारमेवच, एते बलिसमाः प्रोक्ताः स्तृप्तौ छागसमाः सदा । अर्थ-साकरकोळु, शेरडीनो सांठो, अडद (अडदना लोटनो हरकोइ बनावेल पदार्थ अगर अडदनी पलाळेली दाळनां वडां विगेरे ) तथा कंसार एओ बलि समान कहेल छे अने तेथी सदा बकरा अगर पाडा समान तृप्ति थाय छे... __ (३) सूक्ष्म बुद्धिथी अनुमान प्रमाण आपेल छे. तेमां ए नठारुं परिणाम एम करनार- कोइनु आव्यु छे के नहीं ? एम विचारतां-त्यांथी काशीनो राजा सुदक्षिण तेणे यज्ञमां पशहिंसा करी तेथी सुदर्शन चक्रे काशी बाळीने सुदक्षिण राजाने हण्यो, शकुनिनो पुत्र वृकासुर ते यज्ञमां मांस होमवाथी मरण पाम्यो, जरासंधे भैरव यज्ञ कर्यो ने तेमां पशुवध कर्यो तेथी मृत्यु पाम्यो, कंसे धनुर्योग भैरवयज्ञमां पशुवध कयों तेनुं फळ ए मळ्युं के तेने श्रीकृष्णे भ्राताओ सहित मार्यो, प्राचीन बर्हि राजाए यज्ञो कर्या, ने पशु हिंसा थयेल ते पशुओ ते राजाने मारवा माटे वाट जोइने रह्यां हतां के राजा क्यारे मरे अने अमारु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैर लइए ? एबुं नारदे ते प्राचीन बर्हि राजाने प्रत्यक्ष देखाडयुं हतुं. अने पछीथी पोतानी भूल कबूल करी यज्ञ करवा बंध कर्या अने नारदना उपदेशथी बची गयो. सहस्रार्जुने यज्ञ कर्यो त्यारपछी तरतज जमदग्नि साथे वैर थयुं ने तेनो नाश थयो. एटलुंन नहीं पण तेना छांटा बीजाथी स्त्रियोने उड्या ने एकवीशवार नक्षत्री पृथ्वी थई ते एन परिणाम होय एम जणाय छे. तथा पांडवोओए राजसूय यज्ञ कों ने त्यार पछीथीन तेमनी विपरीत बुद्धि थई, दुर्योधन- हास्य कयु, जूगटुं रम्या तेथी राजपाट खोइ बेठा अने बार वरस वनवास भोगववो पडयो एम महा हेरान थई गया. तथा महाभारत युद्ध थयुं, तेमां श्रीकृष्णनी सहायताथी पांडवो बची गया. पण ए महाभारतना युद्धथी बहुन नुकशान थयु. महाभारतना युद्ध पहेलां एकज धर्म हतो. पण ए महाभारत युद्ध थया पछी राजाओमां कुसंप पेठो. सार्वजनिक हित विचारवानू बाजुपर रह्यु. अने ए कुसंप वधतो जतां माहोमांहे वढी मुआ अनेक जातना धर्मो नीकळया तेमां पण लडाइओ थईने खराब थई गया. अने तेनां मूळ एटलां बधां उंडां पेशी गयां के हाल आपणा घरमां पण एकसंप नथी. एटले सुधीनी स्थितिमां आपणे हाल आवी गया छइए; ते ज्यां सूधी आपणे एकसंप नहीं थवाना तथा सार्वजनिक हित तरफ लक्ष राखी तेवां कार्यों नहीं करीए त्यां सूधी उन्नति थवी मुश्केल छे. आ थोडं मार्छ परिणाम छे ? आथी बीजुं माठु परिणाम शुं ? कारण के विनाशकाले विपरीतबुद्धिः विनाश काळे विपरीत बुद्धि थाय छे. ए प्रमाणे विपरीत बुद्धि थइने एनां फळ आपणेहज़ भोगवीए छीए. वळी कयुं छे के बुद्धि यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेश्व कुतो बलं अर्थ-जेने सारी बुद्धि तेज बळवान् छे. बुद्धि रहित क्याथी बळवान् थाय ? अने ते बुद्धि कर्मानुसार छे. जुओ बुद्धिः कर्मानुसारिणी. बुद्धि कर्मने अनुसार थई ( बगडी ) अने तेथोन एवां माठां परिणामो आव्यां जणाय छे. तथा बीजा राजाओ जेमणे जेमणे ए कृत्यो कर्या तेमने पछीथी बहु खराबी थई छे ते तेमना इतिहासपरथी जणाय छे. ज्यारे आ यज्ञ कर्ममां एवी खराबी छे त्यारे यज्ञ कर्म सिवाय पशु बलि आपवाथी नुकशान थाय तेमां शुं नवाई ? वळी कृष्ण सरखा जेना सहाय करनार तेमने पण नुकशान थयु. त्यारे हालना साधारण राजाओने नुकशान थाय तेमां शुं आश्चर्य? अने ए नुकशान तो यज्ञोथी एटले शुक्ल कृष्ण कर्म करवाथी थयु. शुक्ल कृष्ण कर्म ए के जेमां पुण्य अने पाप बन्ने होय ते. ए शुक्लकृष्ण कर्मथी नुकशान थयुं त्यारे पशुबलि जे केवळ कृष्णकर्म तेनाथी तो फायदो क्याथीज थशे? माटे ए अत्यंत निषिद्ध जणाय छे. वळी दैत्योनां राज गयां, अने तेओ पायमाल थई गया ते तेथीज हशे, एम जणाय छे. माटे पशुबलि आपQ अत्यंत निषेध जणाय छे. कारण के एओए एवां कृत्यो बहु क- होय एम संभळाय छे. आहीं सुधीनी वचमां आ उपर लखेल वधार.) (४) सूक्ष्म बुद्धिए प्रत्यक्ष प्रमाणमां तेनुं नुकशान जुओ अहीं सूक्ष्म बुद्धिथी अनुमान प्रमाण आपेल छ; अने त्यां महान् नुकशान थाय छे ते बताव्युं छे, तेथी आंही ए लखतो नथी. (आ वधार.) तथा दैत्यो अने राक्षसोने एम अकृत्य करवाथी थयेल छे. ( आ मेळवी देवू.) लि. भट्ट वैजनाथ मोतीरामना जय सच्चिदानंद. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ३ वडोदरावाळा रामकृष्ण शास्त्रीनो अभिप्राय. (संस्कृतमां.) अस्ति स्वस्तिश्री धर्मपुरराज्यासनालङ्कारभूतो धर्मनिष्ठः श्रीसप्तसमेतः श्रीमोहनदेवनामा भूमिवृढः सच सर्वप्राणिसुखदुःखमात्मसदृशंमन्वानःकेवलंधर्मप्रवणमना मनागपि हिंसायांप्रवृत्तिमकुर्वाणो निर्वाणोत्कंठितांतःकरणः करणासक्तिनियमयन धर्मभीरुतया मया किं कर्तव्यं किं न कर्तव्यमितिसंशयानः सर्वत्रापि शास्त्रानुज्ञां समीहमानः किंचित् प्रश्नयति "आप जाणोछो विगेरे." अत्रतावदिदंविचार्यते किं एतावत्कालपर्यंतं प्रचलितकर्मधर्मत्वेन प्रगृहीतमधर्मत्वेन वा? यदि च धर्मत्वेनेतिचेन्नास्ति प्रश्नावकाशः परंपरागतधर्मस्य राज्ञोऽवश्यकतव्यत्वात् । न च धोऽपि परमतालोचनतया धर्मइवाभासतइति परिहेयः । परमतविरोधस्याकिंचित्करत्वात् । अत एवोच्यते “स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मोभयावहः" किं च यदि परमतविरोधस्यापि परिजिहीर्षा, तर्हिसानयुक्ता, दानपञ्चमहायज्ञादि परित्यज्य सर्वेषां श्रमणत्वपरिग्रहापत्तेः । अस्ति च परमते जलव्ययादिना जीवहिंसारूपोऽधर्मः । यवनैरपि जलव्ययभीरुता स्वीक्रियते मासिकर्तुसमयइति. प्रसिद्धतरम् किंबहुना जातिभेदहानिरपि इदानीमेव कर्त्तव्या स्यात् सर्वेषामिति महान् कोलाहल स्यात् ॥ किं च ॥ "क्षत्रियस्य विजितम्" ॥ इति स्मृत्या क्षत्रियस्यजयलब्धस्वामित्वमुक्तं तन्नैवघटेत अस्ति च जयेजयेपरसैनिकप्राणवियोगानुकूलव्यापाररूपाहिंसाजागरूका । न च क्षत्रियस्य शस्त्रनिष्टता एवधर्म इति विष्णुस्मृते रणेशस्त्रव्यापारेन दोषइति । राज्यश्रुतिस्मृतिसदाचाराणां पूर्वपूर्वस्यबलीयस्त्वेन सर्वभूतहिंसा न कर्त्तव्येत्यर्थिकायाः श्रुतेः स्मृत्यपेक्षया प्रबलत्वेन वैष्णवस्मृतेरकिंचित्करत्वापत्तिः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यादेतत् श्रुत्योर्विरोधपरिहारार्थ मीमांसाशास्त्रं तत्र कपिंजलाधिकरणन्यायः तेनात्रविजयार्थरणव्यतिरिक्तविषये हिंसानिषेधिकाश्रुतिः प्रवर्त्ततइति श्रुत्यर्थसंकोच इतिचेत्सत्यं कपिञ्जला हियागद्रव्यतयाश्रुतावुक्ता यागे च द्रव्यं देवतोद्देशेन दीयते इति तत्र कपिञ्जलाधिकरणन्यायप्रवृतावपि रणे कथं तत्प्रवृत्तिः? न हि रणे काचिदपिदेवतोद्देश्यता। ननु रणं नाम कश्चन यज्ञः तत्र हननं न हिंसा तस्यालभनशब्देन व्यवहारादितिचेन्न । हिंसायामालभने च प्राणादि वियोगानुकूलव्यापारस्य सत्त्वेन हिंसात्वात् किं च देवतोद्देशेन पशुहननमालभनमित्युच्यते इति भागवतीयलोके व्यवायश्लोकटीकायां श्रीधरस्वामिनोक्तं । न च रणे देवतोद्देशेन पशुहननं किंतु केवलं परराज्यप्राप्तिकामतया मनुष्याणां हननमिति तत्र हिंसानिषेधकतया श्रुत्या निर्भय प्रवर्तितव्यं । सत्यांचतादृक् श्रुतिप्रवृत्तौ क्षात्रधर्महानिः स्पष्टैव तथैव च "धर्मे नष्टेकुलंकृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत" इतिगीतोक्तधर्ममार्गेणाधर्मव्याप्तिः । सा माभूदेतदर्थक्षात्रेणधर्मेण राज्ञा भाव्यं अत एव गीतोत्पत्तिरपि संगच्छते ॥ अन्यथा पूर्वब्रह्मणा श्रीमद्भागवता श्रीकृष्णेन गीतोपदेशकद्वारा अर्जुने शौर्याधानपूर्वकश्रुतिविरुद्ध नानागोत्रविशसनप्रवृत्तिबुद्धिसमुत्पत्तिः कथंका रंकृता स्यात् तस्माद्रणे दोषाभावेऽपि अन्यत्रदोष एवेति चेन्मैवम् विधिपूर्वकस्य देवतोद्देश्यकहननस्य परंपरागतस्वधर्मतया अदुष्टत्वात् अतएव रणस्यापि धर्मता अन्यथा गीतोत्पत्त्यादरेपि दोषग्रस्तता स्यात् ॥ नतु देवतो. देशेऽपि प्रागुक्तरीत्या हिंसात्वमेवेति वाच्यं तत्र हिंसाशब्दस्य प्रवृत्यभावात् ॥ यदि च साम्यं दृष्ट्वा एकःशब्दःप्रवर्तेत तर्हि धनदण्डापहारयोःकोभेदःउभयत्रापि अदित्सतोधनग्रहणं तथाहि अपहर्तानिःक्रोशनिस्त्रिंशतादर्शयित्वा बलात्कारेण धनं लिप्सति राजा च सर्वत्र प्रसृमरं प्राणहारकं प्रतापं प्रदर्य बलात्कारेण धनं लिप्सति उभयोरर्पयति धनस्वामी धनम् । तत्रापहर्ता चोरः राजा न चोर इत्यत्र नास्ति विनिगमना, विनासाङ्केतिकाभ्यामपहारदण्डशब्दाभ्यां । एवं च यथादण्डं स्वकरं च गृह्णनभूपति नपापभाक् । तथाऽऽलभनशब्देऽपि ज्ञेयं । अत एव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुस्मृतौ-प्रजाभ्योबल्यर्थं संवत्सरेण धान्यतःषष्टमंशमादद्यात्सर्वसस्येभ्यश्च द्विकं शतं पशुहिरण्येभ्यो वस्त्रेभ्यश्वेत्युक्तम् मनुरपि-यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा "इत्यादिभिः श्लोकैरक्तवान् ॥ तथाविष्णुस्मृतौ गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः” इति यज्ञविधिरुक्तः ॥ तथा तत्रैव "पूजार्हमपूजयन्" इत्यादिनाऽपूजकस्य दण्डोऽप्युक्तः एवं तत्रैव "पर्वसु शान्तिहोमं कुर्यात्" इति खकुलाचारेण कर्म कुर्वतो न हानिस्तथाच मनुविष्णू ॥ आचाराल्लभते चायुराचारादीप्सितां गति, आचाराधनमक्षय्यमाचाराद्धन्त्यलक्षणम्॥ सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः ॥ श्रद्दधानोऽप्यसूर्यश्च शतं वणि जीवति ॥ तथा मनुः ॥ येनास्यपितरोयाता येन याताः पितामहाः ॥ तेन यायात् स तं मार्ग तेन गच्छ. न्नदुष्यति ॥ तथा ॥ नास्तिक्यं वेदनिन्दां च, देवतानां च कुत्सनं ॥ द्वेषंदर्भ च मानं च, क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत् ॥ सर्वत्र सत्वेन यद्यपि यज्ञे हननं संभवति नान्यत्रेति चेन्न ॥ “विषनागदमंत्रधारीस्यादिति” विष्णुस्मृतौ राजधर्मत्वेनोक्तेः ॥ मंत्रशास्त्रे च बलिदानरूपेण पशोर्देयतोक्ता अत एव निर्णयसिन्धौ नवरात्रप्रकरणे सिंहमहिषादीनां बलिदानत्वेनोक्तिर्दृश्यते तस्माद्यदि अयं कुलाचारःस्यात् दृढतरः समूलश्च तर्हिनैव निरोढुंशक्यः प्रत्युतरोधनं निषेधति लघुहारीतः ॥ यः कश्चिकु रुते धर्म विधिहित्वा दुरात्मवान् । न तत्फलमवाप्नोति कुर्वाणोपि विधिच्युतः॥ किं च परदेशावाप्तौ तद्देशधर्मान्नोच्छिद्यात् ॥ इति विष्णुस्मृतौ देशाचारपरित्यागस्य निषेध उक्तः ॥ तथा तत्रैव पितृदेवताभ्यर्चनमन्तरा प्राणिघातकोऽपुण्यकृदित्युक्तम् ॥ द्वितीयस्मिन् पक्षे नैवास्ति अधर्मसेव्यता कस्मिन्नपि मते इति निर्विवादम् । ननु शास्त्रा दूढिर्बलीयसीति रूढ्या परम्परागम्यधर्म मपि परित्यक्तुं परिशङ्कते मनःइति चेन्न यारूढिः शास्त्राविधिनी तस्या एव प्राबलस्य शिष्टसंग्रहीत्वेन अधर्मफलिकाया निर्मूलाया रूढेर्न प्रयोजकत्वम् ननु रूढिर्नाम कुलक्रमागत आचारः स च प्रत्येककुलभिन्नः यथा नवरात्रव्रतविषये नव दिनानि केषांचित्केवलं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलाहारः केषांचिदेककृत्वोभोजनं केषांचित् अनाहार इतिनानाविधत्वं सिद्ध इति रूढिः प्रबलेतिचेत्सत्यं परं सापिरूढिर्न शास्त्रविरोधिनी तथा च निर्णयसिंधौ हेमाद्रौ भविष्ये ॥ “एवं च विन्ध्यवासिन्या नवरात्रोपवासतः। एकभक्तेनतत्केन तथैवाया चितेनचे” त्युक्तंतन्मूलिका सा रूढिः ॥ ननु यदि सर्वत्र कुलाचारे शास्त्रप्रामाण्यमस्ति तर्हि उपनयनप्रकरणे याज्ञवल्क्यस्मृतौ प्रथमतस्तत्कालं दर्शयित्वान्ते ॥ एके इति किमर्थमुक्तम् तथा "श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः इत्यत्र सदाचारस्वप्रियवचनं च किमर्थ मिति चेन्नतेन भवदिष्टसिद्धिः यतोमनुविण्वाश्वलायनादिवचनेषु षष्ठपञ्चादिवर्षाणामुपनयनकालतयोक्तत्वेन तन्मूलककुलाचारार्थयाज्ञवल्कीये। एकेत्यादि ॥ स एव सदाचारो यः सद्भिः शास्त्रज्ञैरा चरितः ॥ स्वस्य च प्रियमात्मनः इत्यस्य तु व्यवस्थाविकल्पविषयतया मिताक्षरायामुक्तेरिति । तन्नास्माकं प्रतिकूलं अथ यदि कथमपि न परावर्त्तते युक्तया भवन्मनश्चेत् गृह्यतामिदं याज्ञवल्यवचनम् “अख> लोकविहिष्टं धर्म्यमप्याचरेन्नतु ॥ इति नैवाधर्म आचरितव्यः ॥ अधर्मश्चानेकविधः ॥ इहान्तःपाती हिंसारूपोप्ययमधर्मः स च पर्युदस्तआपस्तम्बेन “मोक्षोभवेन्नित्य महिंसकस्य" इति ॥ बृहस्पति रपि “धनं फलति दानेन जीवितं जीवरक्षणात् ॥ रूपमैश्वर्य मारोग्य महिंसाफलमश्नुते ॥ इति स्थितम् ॥ १ हिंसा तु न कस्मिन्नपि शास्त्रेऽभिहितेति न प्रथमप्रश्नावकाशः २ द्वितीयस्तु प्रश्नो मृगतृष्णिकाजलसंरक्षणार्थ सेतुबन्धप्रयासवद्विफलइति दर्पणगतप्रतिबिंबस्य मूलं दर्पणपृष्ट मार्गयतः शिशुजनस्येव विलसितम् ॥ यतो हिंसाप्रतिपादकं शास्त्रमेव न भवतीति कुतस्तस्य बहुमान्यता सर्वमान्यता च । यदि चात्र मृगयादिहिंसा रागतः प्राप्ता व्यसनत्वेन शास्त्रेप्रतिपरिगणितेति तदेवं शास्त्रं हिंसाप्रतिपादक मुच्यते तर्हि ततोप्यधिका श्रुति हिंसानिषेधिका सर्वैः शिरसावन्द्या वर्त्ततएव ॥ अतएवोक्त मापस्तम्बेन ॥ आत्मवत्सर्वभूतेषुयः पश्यतिस पश्यति ॥ तदेव गीतायां एतेन तृतीयोपि प्रश्नो दत्तोत्तरः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हिंसा न केनापि राज्ञा कर्तव्येति मृगयारमणनिषेधोऽपि प्राप्तः किंच देवार्थ मालभनमपि तन्न विजयादशमीदिने विहितं कापि प्रतीयते । ननुमास्तुविहितं कुलक्रमागतं वर्तत इत्युच्यते तर्हि विधानाभावात् सा हिंसा संपन्ना हिंसायाश्च निषेधिकाश्रुतिर्वतते नच श्रुतेः पन्थाः केनापि वर्णेन परित्युक्तं शक्यइत्यलं पल्लवितेन । एतेनयदि एवं विचारपरोयः कोऽपि राजा इतः परं कदाचिदपि वृथा मांसाशी स्वानन्दहेतवे मृगयारमणमनाच स्यात्तर्हि कुलद्रोही भूत्वा महापापेन युज्यते इत्यर्थात् समायातम् ॥ ५ यदि हिंसाऽऽलभनविधाय कवचएवमभविष्यत्तदातदकरणे राजा प्रजा चार्निष्टेन फलेन समयोक्ष्यत परन्तु विजयादशमीविषयकधर्मसिन्धु निर्णयसिन्धुपर्यालोचनया तु तादृशपशुहननपरं वचनं नोपलभ्यते ॥ नवरात्रप्रकरणे निर्णयसिन्धौ क्षत्रियेण - " अश्वमेषछागमहिषस्वमांसाना “मुत्तरोत्तरं प्राशस्त्य” मुक्तं तदपि न दशमीविषये” मेषाभावे कुष्माण्ड इत्यादि तत एवावगन्तव्यम्” ननु विजयः शत्रुवधेन कर्तव्यः न च शत्रुवधः कापि धर्मत्वेनाभिहित इति कथं विजयसिद्धिः इति चेत्सत्यं परन्तु नहि तत्तथौ शत्रुकर्त्तव्यव्यपदेशेन महिषस्यवा किंतु केवलमपराजितापूजनं सीमोल्लंघनादि च देवीपुरतः शत्रुवध उक्तः सोपि पैष्टिकशत्रोरष्टम्यां बलिप्रदानसमय एवेतिशम् ॥ अल्पकालतयानेके, ग्रन्थानालोचिता उभौ, सिन्धूस्मृतीश्च आलोच्य लिखितं तु यथास्थितम् ॥ तिथिराश्विन सुदि षष्ठी संवत् १९५० वेद धर्मशास्त्र पाठशाळा, रामकृष्ण शास्त्री, वडोदरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ४ ॐनमः जामनगरवाळा शास्त्रि हाथीभाई हरिशंकरनो अभिप्राय. रा. रा. स्नेही बंधुवर्य, मेहेता -प्राणजीवन जगजीवन. चीफ मेडिकल आफीसर. मु. धरमपूर. ली. हितेच्छु - दवे . हाथी भाई वि. हरिशंकरना आशीर्वाद फुरसद वखते मान्य करशो. विशेष लखवानुं के महाराजा मोहन देवजी तरफथी वर्तमान पत्रमां जे सात प्रश्नो पूछाव्या छे तेनो लंबाणना भयथी विशेष अनुवाद नहि करतां मात्र उत्तर ज लखी जणावुं छं. १ नवरात्रि समाप्ति निमित्तकज देवीनी महापूजा करवामां आवे छे, तेमां पशुहिंसा करवानुं कोइपण आर्य ग्रंथोमां लखेलुं जोवामां आवतुं नथी. शंबर तंत्र, महामाया तंत्र, अष्टयामळ विगेरे चोसठ तंत्र ग्रंथो छे. तेमां वामाचारथी कोइ स्थले कंइ स्थले कंइ लख्यु होय तो होय, भगवत्पूज्यपाद श्री शंकराचार्ये सौंदर्य लहरीना ३१ मा लोकमां कं छे के “चतुःषष्ठी तंत्रैः सकल मतिसंघायभुवनं " तेमां अतिसंधाय पद छे तेनो लक्ष्मीधराचार्ये अर्थ लख्यो छे जे तंत्रो जगतनां अतिसंधानकारक छे–अर्थात् जगतनां विनाश हेतु भूत छे. माटे भगवतीनुं आराधन केवल सामादिकाचार दक्षिणमार्गीज करवुं तेम स्पष्ट लखेलुं छे, तथा तेवां वाम तंत्रोनुं सर्वथा अनादरणीयत्व स्थापित करेलुं छे, जेथी तेवा प्रकारनी पशुहिंसा शास्त्रविहित मानी शकाती नथी. २ तेवा तंत्र ग्रंथो बहु मान्य पण नथी, तो पछी ते सर्व मान्य गणवानी वात दूरथीज पाछी वळी निकले छे. किंच आचार्य स्वामिए तेनो उपर लख्या प्रमाणे अनादर सूचव्यो छे. तेथी शिष्टाचारपरिपाटीभां ओनी गणना नथी एटले मान्य गणनामां पण आंचको खावा जेवुं छे. ३ तंत्र ग्रंथो करतां प्रामाण्यपात्र श्रुति, स्मृति विगेरेमां पशु हिंसानो निषेध अनेकशः जोवामां आवे छे. जेमांनां थोडां वाक्यो अहीं नीचे टांकी बताववामां आवे छे " माहिसी पुरुषम् जगत् " यजुर्वेद संहिता अध्याय १६ मंत्र ३. आनो अर्थ एवो छे के कोइ पण चेष्टा करता जीवनी हिंसा कर मा. नहिंस्यात्सर्वभूतानि” शतपथ ब्राह्मण. सर्वप्राणि मात्रनी हिंसा करवी नहि. योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्महितेच्छया || सजीवंश्वमृतश्चैव नकचित् सुखमेधते ।। मनु अ० ५ - ४५ जे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य अहिंसक (लोकने उपद्रव नहिं करनारा) प्राणिओने, पोता हित करवानी इच्छाथी मारे छे, ते जीवतां सुधी तथा मुवा पछी पण सुखने पामतो नथी. यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोह मारणं ॥ वृथा पशुन्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ मनु अध्याय ५-१८. जे पुरुष वृथा पशुने मारे छे. ते जेटलां पशुनां रोम होय छे तेटलीवार ते पशुना हाथथी मरण दुःख पामे छे. इत्यादि श्रुति स्मृतिमां हिंसाना निषेधक तथा निंदक वचनो जथाबध छे. मनुमहात्मा एधर्मना लक्षणमांधृतिःक्षमादमोऽस्त्येयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।।अहिंसा सत्यमक्रोधो दशकंधर्मलक्षणं ॥ ए वाक्यमां धर्मलक्षणांतर्गत धृत्यादिक गुणोमां अहिंसाने गणावेल छे. तेथी हिंसा अधर्म छे. महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २७२ मां-तस्यतेनानुभावेन मृगहिंसाकृतस्सदा ॥ तपोमहत्समुच्छिन्नं तस्मादिसा न यज्ञिया ॥१॥ अहिंसा परमो धर्मों हिंसाधर्मस्तथाविधः ॥ सत्यं तेहं प्रवक्ष्यामि योधर्मः सत्यवादिनां ॥आनो अर्थ नीचे मुजब छे. निरन्तर हिंसा परायण ते मुनिनु घणा काळया संचय करेलु तप क्षीण थई गयुं माटे हिंसा करवी ते यज्ञोचित कर्म नथी. अहिंसा परमधर्म छे. अने हिंसा करवी ते परम अधर्म छे. हुं तो सत्यवादिनां धर्म प्रमाणे छे ते यथार्थ कहुं छु. आवी रीते हिंसानो भीष्म पितामहे स्पष्ट अनादर बतावेल छे ए प्रमाणे श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास विगेरे विशिष्ट प्रमाणबाला ग्रंथोमां हिंसा निषेध करेल छे. ४ हिंसा करवी ते राज्य, अवश्य कर्तव्य छे तेवू कांइ शास्त्र वचन छेन नहि. मृगयाविहार विगेरेमां पण मात्र सिंह व्याघ्रादिक उपद्रव करनार प्राणीनो शिकार करवो कहेल छ पण बीजी हिंसा शास्त्रनी अनुमत नथी. तेम उपरना मनु. अ. ४५ मां श्लोक उपरथी स्पष्ट विदित थाय छे. नच प्राणिवधः स्वर्यः प्राणीहिंसा कांइ स्वर्गमां साधनभूत नथी तेम श्लोक छे. श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्यच प्रिय मात्मनःएतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥ धर्मलक्षणमां श्रति-स्मृतिनी साथे सदाचार तथा पोताने जे प्रिय लागे ते ज धर्म गणावेल छे. एटले जे सदाचारबहिष्कृत होय तेम जे आत्मने प्रिय न लागे ते कर्म धर्मलक्षणाक्रान्त थइ शकतुं नथी. अर्थात् तेवी हिंसा न करवाथी बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडया जेवू कशुं नथी. प्रत्युत धर्मज्ञाननू अनुकरण कर्यु गणाय. स्मृति संग्रहमा कयुं छे के:-श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवा वधार्यतां । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषांनसमाचरेत् ॥ आ वाक्यने अनुसरीने मोक्ष मूलर साहेबे एक महावाक्य पोताना धर्मसंबंन्धी भाषणमा लत्यु छे. Therefore let no one to do others what he would not have done to himself. एबुं कांइ पण कृत्य बीजा प्रते न करवू के जे कृत्य आपणे आपणीज प्रति करवा इछीए नहीं. आ महावाक्य धर्मर्नु रहस्य छे. अर्थात् हिंसा वर्जनार्थक, धर्मशास्त्रना वाक्यने अनुसरवं उचित छे. ५-एवा प्रकारनी हिंसानी प्रवृत्ति नहीं करवाथी राज विगेरेने आपत्तियोग थाय ज नहीं. कारण के जीवने अभयदान देवू, ए सर्व दानथी श्रेष्ट दान थाय छे. जेम महाभारत शांति पर्वमां मोक्ष धर्मना अ० मां कहेल छे. श्लोक नीचे मुजब. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ जीवानां रक्षणं श्रेष्टं जीवाजीवितकांक्षिणः तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यो ऽभयदानं विशिष्यते ॥ जीवोनुं रक्षण कर ए श्रेष्ट छे. कारण के सर्व जीवो जीवितनी आकांक्षावाला होय छे माटे सर्वदान करतां जीवोने अभयदान देवं ए श्रेष्ट गणाय छे. एवा उत्कृष्ट दाननुं फल उत्कृष्ट गतिनेज आपे छे. विष्णुपुराणे उक्तं ॥ कपिलानां सहस्राणि योद्विजेभ्यः प्रयच्छति एकस्मायभयं दद्यात् तयोस्तुल्यंफलं स्मृतम् ॥ हजारो कपिला गोदान करनारने तथा एक जीवने अभयदान देनारने समान पुण्य थाय छे. अर्थात् हिंसा परिवर्जनथी अनिष्ट परिणामंनी आशंका ते साकर खाधाथी मोढुं बलवाना भय जेवी छे. अहिंसा नियम पालनारने आपत्तियोग आवे नहीं एटलुंज नहीं पण विशेषमां || सामपश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यमधिगच्छति ।। इत्यादि स्मृति वचनोमां एवा पोतानी पैठे सर्व प्राणीमां समभावथी वर्ती आत्मानुं यजन करनार पुरुषने स्वराज्य सुखनी प्राप्तिरूप उत्तम फल पण दर्शावेल छे. जेथी राजा तथा प्रजा के इतर जातिना माणसना अंगने अनिष्ट प्राप्तिनी शंकाने अवकाश मळतो नथी. अने तेथी हिंसानी प्रवृत्ति करवी एज अकार्य गणाय एवां अनेक शास्त्र वचनो छे- भगवाने पोते कहेल छे केयोमां सर्वगतंज्ञात्वा नचहिंस्यात्कदाचन तस्याहं न प्रणश्यामि सचमेनप्रणस्यति ॥ इति विष्णुपुराणे. हे - राजन् जे मनुष्य सर्व प्राणिमां अंतर्यामि रूपे रहेला मारा स्वरूपने जाणीने कोई पण काले तेनी हिंसा करतो नथी, एने हुं निरन्तर अविनष्टरूपे प्रकाशुं हुं अने ते मने हमेशां अविनष्टरूपे प्रकाशे छे. ६ - उपरना विवेचनथी पशुवधने माटे बळवान शास्त्रोमां विधि नहीं पण उलटो निषेध करेलो छे. एम स्थापित थयुं एटले पशुवध रहित क्रियाओथी आराधना करवामां शास्त्रनी आज्ञानुं भंग कर्यु न गणाय पण ते शास्त्र प्रमाणेज कर्यु कहेवाय. हवे ते क्रियाओ कई ? ए जाणवुं जोइए. लघुस्तवमां वर्ण क्रम प्रमाणे द्रव्य कहेल छे. ॥ विप्राःक्षोणिभुजोविशस्तदितरे क्षीराज्यमध्वासवैः ब्राह्मण दूध देवीने धरावे, क्षत्रिय घी धरावे, वैश्य मध धरावे अने ए त्रण वर्णथीं इतर जे शूद्र ते आसव धरावे. ते प्रमाणे जे व्यवस्था कही तदनुसार - अनुष्ठान करवुं. सप्तशतीना अ० १२ ॥ श्लोकः पशु पुष्पाघधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणयिरैहर्निशं ॥ अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारी रीते पुष्प, अर्थ, धूप, गन्ध, दीप इत्यादि उत्तम उपचारथी तथा ब्राह्मण भोननी तथा बीजा विविध भोगथी एक वर्ष पर्यंत मारुं आराधन करे अने तेथी नेवी मने प्रीती थाय तेवीज प्रीति आ सप्तशतीरूपे मारुं चरित्र, को ई पुरुष एक ज वार श्रद्धाथी श्रवण करे तेथी थाय छे एम देवीना पोताना वाक्यमां कहेलुं छे. उपरना श्लोकमां पशु शब्दनो मेष विगेरे पशु एवो अर्थ कांई समजवो नहीं पशु ए अव्यय छे अने तेनो सम्यक् सारी रीते एवो अर्थ सिद्धान्तकौमुदीनी टीका मनोरमाना अव्ययार्थ प्रकरणमा भट्टोनी दीक्षिते कीधेलो छे. तेम ज नागोजी भट्ट तथा रामाश्रमे पण सप्तशतीनी टीकामां पशुयथास्यात् तथा जेम ठीक थाय तेम एम अर्थ लई दर्शित करी ते अव्ययना अर्थने क्रियाविशेषण तरीके घटान्यो छे. अर्थात् देवीना आराधनमा मुख्य गणाता चंडीपाठमां पशु हिंसा करी देवीने बली आपवान क्याई लख्युं नथी पण ए त्रयोदशाध्यायात्मक स्तोत्रपाठश्रवणादिकनु घणुं न फल देवीए स्वमुखथी कहयुं छे. आपणे तेनो अनादर करी इतर तंत्रोनुं आचरण करवु ए अनुचित छेन छे. "कलौ चंडीविनायको" एवा वाक्यथी कलियुगमां चंडीनुं प्राधान्य कहेलुं छे ते चंडीमां पशुहिंसानो गंध पण नथी. माटे तादृक् पशुहिंसा नेवां कर्म नहीं करतां इच्छानुसार देवी पूजन करवा माटे पुष्प अर्धादि उपचारो कह्या ते सघला अथवा तेमांना जेटला उपलब्ध होय तेटला उपचारथी पूजन करी तेनां सुचरित सप्तशती, श्रवण, पठन, अर्थानुसंधान पूर्वक करवू, उत्तम घृत पायसादि पदार्थोथी होम करवों अने ब्राह्मणभोजन विगेरे देवीप्रसादजनक कर्मो करवां जेथी देवीनी आज्ञा प्रमाणे तेवा आराधना सर्वांग संपन्न थई गणाय. अने तेथी शास्त्रना भंगनी आज्ञानी शंकातो उठीज शकती नथी. __ ७ प्राणीना नाक कान वगेरेने छेका देवानी कल्पना तो उपहासास्पद जेवी गणवा योग्य छे. कारण के जीव प्राणीमात्र उपर दया राखवी विगेरे मनुप्रभृति महर्षिओनी जागती आज्ञा छे. तो पछी छेका देवा जेवू घोर कर्मज प्राणीने अत्यन्त दुःखनो अनुभव करावे छे, तेढुं कर्म शास्त्रानुमत छे एम केम मानी शकाय. तेवी रीतनी क्रिया करवा- कांइ मान्य ग्रन्थमां कहेलु नथी. एटले आ सर्व चर्चानो सारांश एम समजवानो छे के हिंसा ए पाप कृत्य छे. अने अहिंसाज सर्व मान्य धर्म छे. इति शिवम् हुं विदेश गयो हतो. गई काल रात्रे आव्यो त्यारे मारा पूज्य पिताश्रीए आवेल प्रश्न पत्र वंचाव्यु, उत्तर लखी मोकलवाने बांधेली मुदत तो वीती गई छे, तथापि बधा विद्वानोना उत्तरो साथै छपावी प्रगट करवाना हो तो तेमां एक संख्या वधे तेवा उद्देशथी आ उत्तरपत्र लखी मोकलेल छ. टपालनो टाईम व्यतीत थई जाय छे, तेथी फेर कोपी कर्या शिवाय तमोने तेमनुं तेम मोकलेल छे. जो काइ पण प्रकारना उपयोगमां आवे तो यथेच्छ उपयोग लेशो अने जो अनुपयुक्त गणो तो पार्छ मोकली आपवा अवश्य कृपा करशो कारण के मारी पासे में नकल राखी नथी. हाथीभाई हरिशंकर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ५ शास्त्री कालिदास गोविंदजीनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवनदास स्वस्थान धर्मपुर. जामनगरथी लि. हितेच्छु कालिदास गोविंद जीना प्रणाम साथ लखवानुं के आपना महाराज तरफथी अत्र सात प्रश्नोना उत्तर माग्या छे, तो ते उत्तर मारी यथामती नीचे लखुं हुं, तो आप मेहरबानी साथे हजुरमां दाखल करशो. १ बलेवने दिवसे राजाए देवी के देवने पशुनो भोग आपवो एवं वचन कोइ पण ग्रन्थमां जोवामां आवतुं नथी. दशराने दिवसे देवीने पशुनो भोग आपवो तेवो विधि नथी पण मात्र महानवमीने दिवसे आपवानो विद्याभ्यास छे. रूपनारायणीय नामना ग्रन्थमां ब्रह्मपुराणनुं अने हेमाद्रि नामना ग्रन्थमां भविष्यपुराणनुं जे वचन लख्युं छे. ते उपरथी निर्णयसिंधु करनाराए नवमीने दिवसे देवीने वास्ते पशुवध करवानो निर्णय लख्यो छे. पण निर्णयसिन्धु करनाराए जाते ब्रह्मपुराणना के भविष्यपुराणनां असल पुस्तको तपासीने ए वचनो लख्यां नथी एम निर्णयसिन्धु करनाराना पोताना लखवा उपरथीज स्पष्ट मालम पडे छे. निर्णयसिन्धु करनाराए एज प्रकरणमां एटले आश्विनमासना प्रकरणमां देवीपुराणमां तथा रुद्रयामलमां पशुवध विषयक वचनो लखेलां छे के जे वचनो तेणे पोते ते ग्रन्थोमां जोएलां होय एम जणाय छे. ए वचनोमां स्पष्टरीते कहेलुं छे के आश्विन शुदि नवमीने दिवसे देवीने पशुनो भोग आपवो. धर्मसिन्धु करनारो निर्णयसिन्धुने ज अनुसरीने लखे छे. अने तेना लखाणनुं मूल निर्णयसिन्धुनां वचनो छे. माटे ते विशे विवेचन करवानी जरूर जणाती नथी. मूल संस्कृत वचनो जोवां होय तो निर्णयसिन्धुना बीजा परिच्छेदना आश्विनमासनां कर्तव्योना निर्णयमां जोइ लेवां. मार्कंडेय पुराणना आठमां मन्वंतरनी कथा संबन्धी सप्तशती पाठ के जे दुर्गापाठ तरीके जगत्प्रसिद्ध छे, तेनी समाप्ती पछीना वैकृतिक नामना रहस्यमां || रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरयानृप । प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगंधिना । ए श्लोकमां लोहीथी खरडेला बलिथी, मांसधी मदिराधी - प्रणामथी—आचमनथी-अने सुगन्धी चन्दनथी देवीने पूजन करवानुं लख्युं छे. तो ते उपरथी पण देवीने पशुनो भोग आपवानी रूढि चालेली होय एम कही शकाय छे. मार्कडेय पुराणनां असल पुस्तकों जोतां केलीएक प्रतोमां रहस्य प्रकरण जोवामां आवे छे. अने केटलीएक प्रतोमा ए प्रकरण मुद्दल छे नहीं थी शोधक विद्वानोने रहस्य प्रकरणना प्रमाणिकपणा विषे विश्वास आवतो नथी. २– पुराणोनी अपेक्षाथी मनुस्मृति वगेरे धर्मशास्त्रो बलवान् गणाय अने धर्मशास्त्रोनी अपेक्षाथी वेढ़ बळवान् छे ए वाद निर्वीवाद छे. आ उपरथी सिद्ध थाय छे के जेवां वेद अने धर्मशास्त्रो आर्य लोकमां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ माननीय छे, तेवां पुराणो माननीय नथी. देवीपुराण तथा कालिकापुराण - अढार पुराणोनी गणतरीमां न होवाथी तेओने पुराणोनी पंक्तिमा पण दाखल करी शकाय तेम नथी. तो पछी तेओने सर्वमान्य के बहुमान्य शी रीते कही शकाय ? मद्यमांस तथा मैथुन वगेरे विषयोमां लंपट थयेला शाक्त तथा कापिलक वगेरे लोकोए पुराणोना नामथी तथा तंत्रोना नामथी एवा एवा घणा घणा ग्रन्थो उभा करेला छे, अने अमुक प्रामाणिक ग्रन्थोमां पण जूज स्थले नवीन वचनो नांखेला छे, एम प्रौढ विद्वानो घणां घणां कारणोथी माने छे. देवीपुराण विगेरे पुराण नामधारी ग्रन्थोने अने रुद्रयामल वगेरे तंत्र ग्रन्थोने प्रमाणिक विद्वानो अनादरनी दृष्टीथीज जुवे छे. अने तेओमां जे पशुवधादिक कर्मों लखेलां छे, तेओने वेदिक वर्णाश्रम धर्मथी विरुद्ध होवाने लिधे पाखंडरूपज गणे छे. मनुस्मृति ९ मा अध्यायना २२५ श्लोकमां लख्युं छे के-राजाए पाखंडी लोकने शहेरथी बहार काढी मूकवा जोइए. देवीपुराण, कालिकापुराण तथा रुद्रायमल वगेरे ग्रन्थोमां एवा एवा नीचा दुराचारो करवानुं लख्युं छे के जे दुराचारोने आपणां धर्मशास्त्रो प्रबल पापरूप गणे छे. आनो नमुनो जोवो होय तो निर्णयसिन्धुना आश्विन मासना प्रकरणमां लखेलुं कालिकापुराणनुं - भगलिंगाभिधानैश्च भगलिंगप्रगीतकैः भगलिंगक्रियाभिश्च प्रीणयेद्वरचण्डिकाम् ॥ ए वचन जुवो. निर्णयसिन्धुना कर्ताए पोताना समयमां आर्य लोकोना जूदा जूदा वगमां जे क्रियानी रुढीओ चालती हती तथा ते रुढिओनां जे प्रमाणो मानतां हतां तेओने फक्त एकंदर करीने क्रमवार लख्यां छे. तेथी निर्णयसिंधुमां जे कांइ लख्युं छे, ते सघलुं धर्मरूपज छे, एम मानवुं ते विवेकथी विरूद्ध छे. ३ – पुराणोमां के तंत्रग्रन्थोमां वांधो नहीं लेतां कबुल करीए छीए के तेओमां देवी अने देवने वास्ते पशुवध करवानुं जे लख्युं छे, ते मान्य छे तोपण वेदोनुं तथा मनुस्मृति वगेरे धर्मशास्त्रानुं बलवान्पणुं पुराणोथी तथा तंत्रोथी घणुं अधिक छे, ए निर्विवाद छे. अने वेदोमां के धर्मशास्त्रोमां कोइ जग्याए पण नवरात्रि क्रिया करवानुं अथवा ते प्रसंगमां देवीने पशुनो भोग आपवानुं लख्युंज नथी, ए निःसंशय छे, एटलुंज नहीं पण ते बलवान् शास्त्रोए एवी अवैदिक हिंसा करवानो एटले जे हिंसा करवानी वेदे आज्ञा करी नथी तेवी हिंसा करवानो निषेध - " नावेद विहितां हिंसा मापद्यपि समाचरेत्" योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यान्म सुखेच्छया सजीवश्चमृतश्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥ १ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ योबंधन धक्केशान् प्राणिना न चिकीर्षति ससर्वस्यहितप्रेप्सुः सुखमत्यंतमश्नुते ॥ २ ॥ यद्ध्यायतियत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्रच तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किंचन ॥ ३ ॥ ॥ अनुमंता विशसिता निहंता क्रयविक्रयी संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ इत्यादि घृणां वचनोथी स्पष्टरीते कहेलो छे. याज्ञवल्क्य स्मृतिना आचाराध्यायना १७९ मां वसेत्सनर के घोरे दिनानि पशुरोमभिः ॥ संमितानिदुराचारो यो हन्त्यविधिनां पशून ॥ ए श्लोकमा पण जे घणी वेदोक्त यज्ञादि क्रिया वगर पशुओनी हत्या करे तेने पशुओनां रुवाटां जेटला दिवसो सुधी घोर नरकमां रहेवुं पडे एम कयुं छे. भागवत पुराण सर्व पुराणोमां घणुं मान्य अने प्रतिष्टित छे. तेना सप्तमस्कंधना १५ मा अध्यायमां नैतादशोऽपरोधर्मेनृणां सद्धर्ममिच्छताम् ॥ न्यायोदंडस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्ययः ॥ ए श्लोकथी जणाव्युं छे के अहिंसा समान बीजो कोइ उत्तम धर्म नथी. एज पुराणमां चतुर्थ स्कन्धमां २६ अध्यायमां तीर्थेषु प्रतिदृष्टेषु राजा मेध्यान् पशून् वने ॥ यावदर्थमलंलुब्धो हन्यादिति नियम्यते ॥ लोकी तथा एकादश स्कंधना पांचमां अध्यायमां लोकव्यवायामिषमद्यसेवा इत्यादि श्लोकथी वेदोक्त हिंसाना कारणनो निर्णय कर्यो छे. वेदमां ज्योतिष्टोम आदि पशु हिंसा करवानी जे आज्ञा करी छे, ते पण हिंसाने अवश्य कर्तव्य जणाववाना अभिप्रायथी करी नथी पण स्वाभिरुचिथी करवामां आवती हिंसामां केटलोक अटकाव नांखी तेने ओछी कराववाने वास्ते करी छे. जे छोकरो बहुज रमतीयाल होवाथी भणतो न होय तेने तेनो बाप कहेके तारे एक कलाक रमवुं. आ वाक्यनो अर्थ तुं एक कलाक नहीं रमे तो हुं तने मारीश, एवो नथी, पण तारे रमत कर्या विना नज चालतुं होय तो एक कलाक रमवानी छूट छे एवो अर्थ छे. तेम वेदे ज्योतिटोम आदि यज्ञोमां पशुवध करवानी जे आज्ञा करी छे, तेनो अर्थ जो आ यज्ञोमां पशु वध करो तो पापी थशो एवो नथी पण जो तमारे हिंसा विना नज चालतुं होय तो, ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोमां ज करजो. अने बनी शके तो तमाम हिंसा छोडी ज देजो एवो अर्थ छे. आ निर्णय करीने अन्ते ॥ ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येत्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाःसदभिमानिनः पशून दुष्टन्तिविस्तब्धाः प्रेत्यखादन्तितेचतान् ॥ ए श्लोकी जणाव्यु छे के आ खरा निर्णयने नहीं जाणी धार्मिकपणानो डोल घालनारा जे लोको निःशंक रहीने पशुओनो वध करे छे, ते लोको मरण पाम्या पछी तेओने ते पशुओ खाय छे. _ महाभारत के जेतुं मान्यपणुं धर्मशास्त्रोना जेवु न गणवामां आवे छे, तेना अनुशासन नामना तेरमा पर्वनां सोलमा अध्यायमां ॥ अहिंसा परमोधर्मस्तथाऽहिंसा परोदमः॥ ॥ अहिंसा परमं दान महिंसा परमं तपः ॥ ॥ अहिंसा परमोयज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् ॥ ॥ अहिंसा परमं मित्र महिंसा परमं सुखं ॥ ॥ सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्व तीर्थेषु वा स्नुतम् ॥ ॥ सर्वदान फलं वापि नैवतुल्य महिंसया ॥ ३ ॥ ॥अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा ॥ ॥ अहिंस्रः सर्व भूतानां यथा माता यथा पिता ॥ ॥ ४ ॥ ॥ एतत्फलमहिंसाया भूयश्च कुरुमुद्गव ॥ ॥ नहिशक्या गुणावक्तु मपि वर्षशतैरपि ॥ ॥ ५ ॥ ॥ अहिंसा लक्षणो धर्म इति धर्म विदोविदुः॥ ॥ यदहिंसात्मकं कर्म तत्कुर्यादात्मवान्नरः॥६॥ ॥ अभयं सर्वभूतेषु योददाति दयापरः ॥ ॥ अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम ॥ ७ ॥ ॥ नहिप्राणात प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ॥ ॥ तस्माइयांनरः कुर्यात् यथात्मनि तथापरे ॥ ८ ॥ इत्यादि अनेक वचनोथी अहिंसानीज स्तुति अने ते द्वारा हिंसानेज धिक्कारी छे. दशरा विगेरे पर्वमा देवीने पशुनो भोग आपवानी जे क्रिया हाल चाले छे ते क्रिया वेदोक्त छेन नहीं तेथी वृथा हिंसारूपज गणाय. मनु पांचमा आध्यायमां कहे छे के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ यावन्ति पशुरोमाणि तावत् कृत्वोह मारणम् । वृथापशुनः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ एश्लोकी वृथा हिंसा करनारने अनेक जन्मोमां अनिष्ट फल प्राप्त थवानुं जणाय छे. ४ - राजाओओ दशरा वगेरे. पर्वमा देवीने के देवने पशुनो भोग अवश्य आपवो जोइए. एम देवीपुराण - कालिकापुराण तथा तंत्रो वगेरे अप्रमाणिक ग्रन्थोमां पण लख्युं नथी. त्यारे प्रमाणिक ग्रन्थोमां तो क्यांथीज होय? देवीने के देवने पशुनो भोग नहीं आपवाथी निर्बळ ग्रंथोनी पण आज्ञा त्रुटी नथी त्यारे बलवान् शास्त्रोके जेओमां देवीने के देवने वास्ते एवो पशुवध करवानो इशारो पण कह्यो नथी, तो तेओनी आज्ञा तो क्यांथीज त्रुटे ? धर्मसिंधुना कर्ता के जे निर्णय सिन्धुने अनुसरनारो छे ते पोताना ग्रंथना बीजा परिच्छेदमां नवरात्र प्रकरणमां कहे छे के, क्षत्रियवैश्ययोर्मासादियुतराजस पूजायामप्यधिकारः ॥ सचकेवलं काम्य एव नतु नित्यः निष्कामक्षत्रियादेः सात्विक पूजाकरणे मोक्षादि फलातिशयः । एवं शूद्रादेरपि । संदर्भथी स्पष्ट जणाय छे के क्षत्रियने अने वैश्यने मांस वगेरे पदार्थोथी संयुक्त जप होमवाली रजोगुणी पूजामां पण अधिकार छे. परन्तु ते अधिकार फक्त काम्य छे. एटले मनमां कांइ स्त्रीप्राि वगेरेनी कामना होय तोज तेवी पूजा करवी. पण दरवर्षे तेवीज पूजा करवानुं आवश्यक नथी. जो क्षत्रिय के वैश्य निष्काम रहिने सात्विक एटले मांसादिकना उपयोग वगेरेनी पूजा करे तो तेने मोक्ष वगेरे फलो बहुज प्राप्ति थाय छे. शूद्रादिकने वास्ते पण एमज छे. एटले तेओने पण मांसादिक वाली पूजा करवानी कशी जरुर नथी. मांसादिकथी रहित पूजा करवाथी सर्वोत्तम फल मले छे" निर्णयसिन्धुना कर्ता पण पोताना एज प्रकारना प्रकरणमा साचकाम्या नित्या च ए वाक्यथी प्रमाणे जगावे छे. ५ - देवीने के देवने वास्ते एवी हिंसानी प्रवृत्ति न करवामां आवे तो तेथी राज्यने के प्रजाने के राजाने अंगे कोइ पण प्रकारनो आपत्तियोग आवे अथवा अकार्य कर्यु गणाय एम कोइ पण बलवान् शास्त्रमां लख्युं नथी. बलवान् शास्त्र तो एक तरफ रह्यां परन्तु कोई निर्बल शास्त्रमां पण लख्युं नथी. ६ - एवा पशुवधने बदले बीजी कोइ हिंसा रहित क्रिया करी ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी कोइ पण बलवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो गणाय एम नथी केम के कोइ पण बलवान् शास्त्रे एवा पशुवधनी आज्ञा करीज नथी. महा भारतना अनुशासन पर्वनां ११५ मा अध्यायमां श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः । येनायजंतयज्वानः पुण्यलोक परायणाः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजानां हित कामेन त्वगस्त्येनमहात्मना आरण्याः सर्वदैवत्याः प्रोक्षितास्तपसामृगाः ए वचनोथी जणाव्युं छे के पूर्वे वेदोक्त यज्ञ करनारा लोको यज्ञोमां पशुवधने बढ़ले भातनो पशु बनावी तेनो वध करीने यज्ञनी मूर्ति मानता हता अने प्रजाओगें हित इच्छता. महात्मा अगस्त्य मुनिए तो पशुओथी यज्ञ करीने पण पशुओनो वध कयों नहोतो. परन्तु यज्ञमां पशुओने हानर करीने पछी तेओने छोडी मेल्या हता. महाभारतना टीकाकार नीलकंठे उपरना श्लोकनी व्याख्यामां प्रमाणरूपे पर्यग्निकृतानारण्यानुत्सृजति ए वैदिक श्रुति आपेली छे. श्रुतिनो अर्थ एवो छे के पशुओने यज्ञमां हाजर करी तेओना उपर करवानी बीजी क्रियाओ करीने अंते तेओने जीवतां छोडी मेलवां. हाल पण केटलाएक अग्निहोत्रीओ चातुर्मास्य वगेरे करे छे, तेओमां घणी जगोए लोटना पशु बनावी तेओनो वध करवामां आवे छे. ए वात सुप्रसिद्ध छे. ___ आ प्रामाणिक ग्रन्थोनां वचनो उपरथी ज्यारे वैदिक यज्ञोमां पण पशुओने छोडी मूकवाथी अथवा लोटना पशुओनो उपयोग करवाथी क्रिया पूर्ण थई गणाय छे, त्यारे नवरात्र अथवा दशरा वेगेरेना दिवसोमां रूढियी चालती अवैदिक क्रियाओ पशुओने छोडी मूकवाथी अथवा लोटना पशुनो उपयोग करवाथी पूर्ण थएली गणीशकाय ए न्यायसिद्धन छे. मनुस्मृतिना पांचमा अध्यायमां कुर्याघृतपशुं संगेकुर्यात् पिष्टपशुं तथा । नत्वेवतुवृथाहन्तुं पशुमिच्छेत् कदाचन । ए श्लोकमां को छे के-पशुनो वध करवाथीन मनने संतोष थाय, एम होय तो घीनो अथवा लोटनो पशु बनावीने काम चलावी लेवू. परन्तु कही पण पशुने नाहक मारी नाखवानी इच्छा करवी नहीं. मार्कडेय पुराणनो सप्तशती पाठ ( चंडी पाठ ) के जेने तांत्रिक लोको वेद समान गणे छे, तेना बारमा अध्यायमां देवीए देवताओने-कां छे के, पशुपुष्याईधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः विप्राणां भौजनोमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् अन्यैश्वविविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेणया प्रीति#क्रियते सास्मिन सकृत्सुचरितेश्रुते॥ एक वर्ष सुधी अहर्निश पशु-पुष्प-अर्ध-उत्तम चंदनादिक तथा दीप एओथी, ब्राह्मण भोजनथी, होमथी, अभिषेकथी, बीजा पण अनेक प्रकारना भोगथी तथा मारा उद्देशथी करवामां आवतां दानोथी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त लोको मारा मनमां जे प्रीतिने उत्पन्न करे छे, ते प्रीति मारुं आ सुंदर चरित्र ( सप्तशती ) एकवार सांभळवाथी उत्पन्न करी शकाय छे. आ उपरथी सिद्ध थाय छे के जो कदापि अवैदिक मतने अनुसरीए तोपण दशरा जेवां पर्वोमां एक वखत चंडीपाठ सांभळवाथी ज देवी, पशुवधादिक संघली क्रियाओ करतां अधिक अने सर्वोत्तम आराधन करी शकाय छे. ____ खरी वात आवी रीते छे एटला माटे देवीनी के देवनी पासे पशुओने हाजर करीने अंते छोडी मुकवाथी अथवा लोटना पशु बनावी तेओने आपवाथी, अथवा पशुसंबंधी कांइ पण क्रिया नहीं करता, फक्त चंडीपाठ सांभळवाथी पण ते संबंधी क्रिया बराबर थएली गणाय. राजाओने एकवार चंडीपाठनुं श्रवण करवू ते तो शं, पण चंडीपाठ अथवा शतचंडी अथवा सहस्रचंडीनुं पुरश्वरण करावयूँ पण कांइ अशक्य नथी. ७ वेदानुसारी बहुमान्य अने प्रमाणिक बलवत्तर शास्त्रो तपासता नणाय छे के जेम पशुनो वध करवानी जरुर नथी तेम ते बदल बीजी पण कशी क्रिया करवी जरुर नथी. कारण के पापकर्मनो त्याग करवामांन गुण छे. तोपण बीजा ग्रंथोथी चाली आवेली रुढिनो एकदम परित्याग करवामां मनने काइ क्षोभ थतो होय अने ते क्षोभ उपर लखेली पशु विसर्जन पिष्ट पशुवध तथा चंडीपाठ श्रवण एओमांनी कोइ क्रियाथी नहीं मटे एम जणाय तो पछी जेम “यद्घाणभक्षो विहितः सुरायाः" ए भागवतना वचन प्रमाणे "सौत्रामणि" नामना वैदिक यागमा मदिराना पानने बदले मदिराने सुंघवाथी पण यागनी क्रिया बराबर थइ गणाय छे, तेम आ विषयमां पण एज न्यायने अनुसरी पशना वधने बदले तेना नाक कानने छेका दइ छूटा मेली देवाथी पण पशुवधनी क्रियाने बराबर थयेली मानवामां अयोग्यता नथी. एज शिवम संवत् १९६१ ना भादरवा वदि ४ बुधे. शास्त्रि कालीदास गोविंदजी मु. जामनगर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.६ पंडिता जमनाबाइनो अभिप्राय. रा. रा. स्नेही बन्धुवर्य-प्राणजीवन जगजीवन मेहेता. चीफ मेडीकल ऑफिसर, साहेब. मु. धरमपुर. नमस्कार साथे लखवान के पशुवध विषेनी बाबत आपे थोडा दहाडा अगाउ प्रगट करवी जोइती हती. आपने आवती अमावास्या सुधीमां उत्तरो जोइए छीए. ए मुदत घणीज टुंकी छे. अने प्रसिद्ध करेला प्रश्नोनो विषय घणोज विस्तीर्ण, विचारणीय अने विवादास्पद छे. हुं दिलगीर छु के वखत घणोज टुंको रह्यो. नहीं तर त्यां आवीने आ विषयपर एक लंबाणथी व्याख्यान आपत. आविषयना संबंधमां मारे घणुंज लखवानुं छे. परंतु कालनो अवकाश घणो ज थोडो होवाथी अने नानी मोटी उपाधिओ जारी होवाने लीधे तेम बनी शकयुं नथी. आपनी विशेष जीज्ञासा हशे तो पाछळथी तेम करवामां आवशे. हाल तो आपना प्रश्नोनो टुकमां खुलासो आपी ते विषे केटलोएक मारो अभिप्राय, ठराव अने विज्ञप्ति जाहेर करूं छु. आपनी सहीथी ता. २३-९-९४ना — गुजराती ' न्यूस रेपरमां बलेव तथा दशेरा वगेरे पर्वोमां देवीने के देवने भोग आपवाना निमित्तथी ने पशुवध थतो इतो अने थाय छे. ए रुढि प्रवेशY कारण शुं ? अने राजाओने माटे ते केम अवश्य कार्य थई पत्यु छ ? ए खुलासो मागवा आप सात प्रश्नोना उत्तर माग्या छे. ते उत्तर क्रमवार नीचे प्रमाणे छे. १-दशरा वगेरे पर्वोमां पशुहिंसा करवानुं खास कोइ धर्मशास्त्रनुं फरमान नथी. २-कालीतंत्र, कुलार्णवतंत्र-अने रुद्रयामल तंत्र वगेरे कौल ग्रन्थोमां हिंसानुं प्रतिपादन कदाच होय पण तेवा ग्रंथो सर्वमान्य के बहुमान्य गणांता नथी. अने तेवा शाक्त लोकोना ग्रंथो छपाइ प्रसिद्धिमां आव्या नथी के जे विषे पूरती छूटथी लखी शकाय. __३-हालमा बहुमान्य अने सर्वमान्य श्रुति अने स्मृति छे. तेमां अनेक जगोए हिंसानो निषेध करेलो जोवामां आवे छे. नहिंस्यात्सर्वभूतानि ॥ सर्व प्राणीओनी हिंसा करवी नहीं. ए श्रुतिनुं प्रमाण सर्व प्रमाणोथी बलवत्तर छे. ॥ सर्व पदं हस्तिपदे निमग्नं ए न्यायने अनुसरशो तो पछी बजिा पूरावानी जरुर नथी स्मृतिमां पण लखे छे के ॥ हिंसारतश्चयोनित्यं नेहाऽसौ सुखमेधते ॥ अर्थ-हिंसा करवामां प्रीतिवालो पुरुष कोइ दिवस सुख मेलवतो नथी " यजुर्वेदना घणा मंत्रमा पशुओना रक्षणने माटे प्रार्थनाओ करवामां आवेली छे. ४-राजाओने तो ए अवश्य त्याज्य छे. कारण के राजा जो पर्वने दिवसे हिंसा करशे के करावशे तो पछी प्रजा तो तेम करवामां मुद्दल अचकाशे नहीं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्टाः पापे पापाः समेसमाः ॥ राजानमनुवर्तते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ राजा जो धर्मिष्ट होय तो प्रजा धर्मिष्ट थाय छे, राजा पापी होय तो प्रजा पापी थाय छे, अने राजा जो समान होय तो प्रजा पण समान थाय छे. हरेक रीते प्रनाओ राजाने अनुसरे छे. प्रश्न चोथानो उत्तर प्रथम प्रश्नना उत्तरमां गतार्थ छे. तो पण लखवानुं के हिंसानो त्याग करवाथी शास्त्रनी आज्ञा तोडी एवं कोइ शास्त्रमा स्पष्ट के अस्पष्ट प्रमाण आपेलुं नथी. ५--प्रश्न पांचमुं पण उपरना उत्तरोथी उत्तरित थइ जाय छे. नामदार, महारणा मोहनदेवजी तरफथी आप लखो छो के " देवीने के देवने भोग आपवा निमित्त पशुवध थतो हतो ने थाय छे. शा कारणथी ते रुढिए प्रवेश को छे?" आ लखाण उपरथीज सिद्ध थाय छे के-राजा ए विष्णुनो अंश छे. अने तेमनाज मुखथी प्रथम पीठिकामां परम मंगळमय प्रभुए आ वचनो बोलाव्यां छे. तो आ इश्वर प्रेरणाथी जणाय छे के पशु हिंसानी क्रिया शास्त्रोक्त मथी पण रूढि छे. हवे आ रुढिनो प्रवेश शा कारणथी थयो-ए शोधवानी के जाणवानी एटली बधी अगत्य नथी. प्रथम कालमा उत्पन्न थयेला यत्किंचित् कारण उपरथी अनेक रुढिओए आ देशमां घर घाल्युं छे. रुढिमां एटलुं जोवानुं छे के आ रूढि हितकारक छे के नुकशान कारक छे. जो नुकशान कारक होय तो तजी देवी. अने आ जंगली रुढि तजी देवाथी राज्यने-राजाना अंगने के प्रजाने कोइ जातनो आपत्तियोग आववानो नथी पण पशु रक्षण थवाथी अर्थशास्त्रना नियम प्रमाणे उलटो संपत्तियोग आवे छे. ६-पशुवध न करवो ए वात सिद्ध थई गई तो हवे तेना बदलामा कोइ क्रिया करवी रहेती नथी. अने दशरा ( पांच महापाप अने पांच उपपाप हरनारी तिथि) ने रोज धर्मसिन्धु अने निर्णय सिन्धु वगेरे ग्रन्थोमां जे अपराजिताना पूजन वगेरे लखेलुं छे ते करवू. एम करवाथीज बलवान् शास्त्रनी आज्ञा पाळी गणाय. धर्मसिन्धुना बीजा परिच्छेदमां उपाध्याय काशीनाथ लखे छे के अत्राऽपराजिता पूजनं सीमोल्लंघनं शमीपूजनं देशांतरयात्रार्थिनां प्रस्थानंचविहितम् विजया दशमीने रोज आपराजितानुं पूजन, सीमा- उलंघन, खीनडीनुं पूजन, अने प्रवास करवा इच्छनाराओनुं प्रस्थान ए कर्तव्य छे. आ माहेली क्रिया ए शास्त्रविधि प्रमाणे बराबर कयु कहवाय. __७–पशुओने माटे वध करवाना बदलामां नाक कानने छेको मारवायूँ कोइ जग्याए फरमाव्युं नथी. विना कारण पशुना नाक कानने छेको मारवाथी वध करवानो मननो परिणाम थाय. तेथी नाहक हिंसाना पाप भागी थवाय छे. चोरी न करी होय अने चोरी करवा मननो संकल्प करीए के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेने लगती कोइ क्रिया करीए तो पण अपराधी ठरीए छीए ए दृष्टांत प्रमाणे पशु हिंसानु चिंतन करी तेना नाक, कानपर छेको मारवो ए निरर्थक पाप वोरी लेवा जेवं छे. प्रथम पीठिकामां आपनुं लखq छे के शा कारणथी ते राजाओने अवश्य कर्म थइ पडयुं छे ? आना जवाबमां लखवानुं के बीजा सामान्य लोकोमा कोइ कोइ कारणथी रूढिमां फेरफार थवानो संभव छे. पण राज्य वर्गमां ने रूढि पडी ते बदलाती नथी, कारण के दरेक रूढिनो राजाना दफतरमा नोंध थाय छे, जेथी ते विषेनो काइ पण पूर्वापर विचार न करतां दफतरमा लखाएली कलमोने शास्त्रवचन तुल्य गणी ते प्रमाणे हमेशां करवामां आवे छे. बीजुं आपने कइ कोमना कया शास्त्रोमा पूरावा जोइए छीए ए कांइ विशेष लखेलं नथी. जो जैन शास्त्रना पूरावा जोइता होय तो आ अहिंसानो विषय ढगलाबन्ध ग्रन्थोमां प्रतिपादन करेलो छे. तेमन मुसलमान पारसीओ अने इंग्रेज लोकोना शास्त्रोनो अभिप्राय पण अहिंसा उपर छे–कदाचित् कोइ खूणे खोचरेथी हिंसा करवानुं लुलु पांगळु प्रमाण नीकले तो ते निरर्थक अने धर्मनी हानी करनारुं छे. कारण के हिंसा करवामां कोईयुक्ति आपणने टेको आपती नथी. आपणा स्मृतिकार बृहस्पति लखे छे के केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्योहि निर्णयः युक्तिहीने विचारेतु धर्महानिः प्रजायते ॥ आम छे छतां मुगां पशुओना प्राण लइ तेनो बलिभोग करी पेटने कबरस्तान बनावी पूरुं पापी करवू ए सहृदयने अनुचित छे. किंच, आ रूढिनो प्रवेश पूर्वकालमां आपणा देशमां कृषिविद्या ज्यारे घणी अनघड स्थितिमां हती त्यारे थएलो होवो जोइए. कारण के ते वखते अनाज पूरुं पाकतुं नहिं. अने गुजारो तो करवो जोइए जेथी हिंसानो प्रचार वधी पडयो हतो. पाछळथी जेम जेम खेतीवाडीनी विद्यानो शोध वधतो गयो तेम तेम हिंसा ओछी थवा लागी. अने केटलीएक नियमित थई गई-आ कालमांजैनीओनी प्रबळता पण वधती जती हती तेथी हिंसानू काम घणुंज घटी गयु. अने कोई वार तहेवारने दिवसे हिंसा थाय एवो जंगली रिवाज चालु रह्यो, जे आज थोडा प्रमाणमा छे छतां आपणना मनने कंपावे छे. रूढी देवी, प्राबल्य बधा जमानामां होवाने लीधे, आज सुधरेला जमानामां पण आ रिवाज पोतार्नु भयंकर रूप देखाडे छे. ___ आ सृष्टिनो बीजो पण एक अचल नियम जोवामां आवे छे के सबलो नबलाने दबावे, दुःख दे अने पोताना ताबामा राखे. महामुनि वेदव्यासे पण श्रीभागवतमां लखेलु छे के अहस्तानि सहस्ताना मपदानि चतुष्पदाम् । फल्गूनि तत्र महतां जीवोजीवस्य जीवनम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ कदाच आपने कोइ दुर्बळ प्रमाण मळशे तो पण तेनो वाच्यार्थ हिंसापर देखा तो हशे पण लक्ष्यार्थ तो अहिंसापरज हशे . आ विषयनी विशेष जिज्ञासा जो आप राखता हशो तो अवकाशानुसार हूं पूरता दाखला दलिलो सहित लखी जणावीश. हुं आज्ञा पूर्वक जणाववा रजा लडं हुं के आपनुं धर्मपुर नगर छे. ते हिंसानो त्याग करी अन्वर्थ करो - आ बाबतपर वधारे भार दई लखवानी अगत्य एटलीज छे के जो हिंसा थती अटके तो धर्मशास्त्रनी मर्यादा प्रमाणे तेना पुण्यफळमां हुं पण एक भागीदार थाउं. जे हिंसानुं प्रतिपादन करे छे ते शास्त्र नथी पण कुशास्त्र, छे. हिंसानो त्याग करवाथी जो पाप पडतुं होय तो ते पाप हुं स्वीकारी लउं हुं. आ हेतुथी पण हिंसानी जरुर रहेती नथी. घणो विस्तार थई जवाने लीधे आटलेथीज बंध राखुं हुं. अने प्रत्युत्तरनी आकांक्षा राखुं हुं. सौ. पंडिता - जमनाबाई - जामनगर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ७ शास्त्री महीधर हरिभटनो अभिप्राय. राज्यनीतिरंजितजनसमूहांतःकरणेषु निजानेकसद्गुण प्रकटीकृतसत्कीर्तिषु गोब्राह्मण प्रतिपाळ श्रीधर्मपुरनृपतिषु नवीननगरस्थहरिभट्टात्मजमहिधरशास्त्रिणःशुभाशिषांराशयः समुल्लसन्तु, शमिह तत्रास्तु, परंच, समाचार ए छे ने आपर्नु कुशळ पत्र आव्यु ते पहोच्यु तेने वांचीने मने आनंद थयो छे. घणा राज्योमां विद्वान् लोको थोडा होवाथी अंधपरंपराये करीने विजया दशमी विगेरे मोटा पर्वमां ने पशुहिंसा राजाओ करे छे तथा करावे छे ते राजाओनी मोटी भूल छे. केमके धर्म शास्रमां कलिवर्ण्य प्रकरणमा पशुहिंसानो घणो निषेध करेलो छे. तद्वाक्यानि बृहन्नारदीये कथ्यन्ते ॥ समुद्रयातुः स्वीकारः कमंडलुविधारणम् । द्विजानामस्त्रवणास्त्रं कन्यारूपमयस्तथा ॥१॥ देवराच्च सुतोत्पत्तिः मधुपर्के पशोर्वधः मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा ॥ २ ॥ दीर्घकालं ब्रह्मचर्य नरमेधाश्वमेधकौ ॥३॥ महाप्रस्थानगमनं गोमेधश्च तथा मरवः ॥ इमान धर्मान् कलियुगे वानाहु मनीषिणः ॥ ४ ॥ मधुपर्के पशोर्वधः श्राद्धे मांसदानम् नरमेधाश्वमेधौ गोमेधश्च मखः इत्यादि सर्व उपलक्ष. णम् वस्तुतस्तुसर्वमिहापर्वसु पशुवधं विधाय बलिदानादिकं हिंसादि कृत्यं निषिद्धं कलौ महापापरूपकं ज्ञेयम् अत एव नवरात्रौ विजयादशम्यादौ न सर्वैर्नृपैः पायसान्नादिभिः कर्त्तव्यम् इतिधर्मशास्त्रसिद्धांतः इदं पत्रं प्राप्त मिति उत्तरपत्रं लेख्यम्. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.८ पंडित गटुलालजीना शिष्य शास्त्री माधवजी गोपाळजीनो अभिप्राय. स्वस्तिश्री श्रीमत्सकलकलाकलापकुशलेषु श्रीधर्मपुरवास्तव्येषु समस्त गुणगणस्तव्येषु भूरिभगवद्भावभव्येषु स्वधर्मसंरक्षणकरणपरायणांतःकरणेषु श्रीदरवार श्रीमोहनदेवजी वर्मसु श्रीमोहमयीतो गोपालतनुजनुषो माधव शास्त्रिणः शुभाशिर्वादः ॥ अत्रशं तत्रास्तु-अपरंच-भवत्प्रसिद्धपत्रद्वारा विदित मस्माभिरुदन्तजातं निःशेषहिंसात्मकप्रश्नोत्तरदाने न वयं द्रव्यस्वीकारणी भूतांतःकरणाः। किंतु यथा भवदीयं भावतकं भवेत् तदैहिकं पारलौकिकं तथैव शास्त्रानुसारेण निष्पक्षपाततया मया प्रोच्यते” तदाचरणकरणे भवदीय मन्तः करणं प्रमाणं ॥ किंच-भवत्प्रसिद्धिपत्रास्योत्तरं सशास्त्रं यद् परिपति लौकिका लौकिकक्षमकरं यत्प्राचीनमन्वादिभिरनुष्टितं यदनुष्टानतः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः तन्मार्गचरणं भवद्भि रुररीकार्य इतिमे मनीषा-तदित्थम् ॥ सर्वत्रवेदाः प्राथमिकं प्रमाणम् । तदनुरोधेन द्वितीयं प्रमाणं गीता ॥ ततश्च व्याससूत्राणि-तदनन्तरं महाभारतं भागवतं च इदम्प्रमाणचतुष्टयं सर्वधर्माचार्यैःस्वीकार्यम् ॥ तत्रयल्लिखितं तदनुष्टेयम् ॥ तद्विरुद्ध नहिकार्यतेषु प्रमाण चतुष्टयेषु परमात्मन उपासनाएव ब्राह्मणक्षत्रियादीनां विहिता नत्वन्यत्--सोपासना ज्ञानपूर्वकभक्तिरूपा तामत्र सविस्तरं न ब्रूमहे-वस्तुतस्तु वक्त व्यांशस्तावदियानेव-पूर्वसूरिभिर्यत्स्वीकृतंतदेव भवदीयभावत्ककरं । तदित्थं देव्यादीनांपूजा वाममार्गेण न विधेया-यत्र वाममार्गे पशुहिंसा सा नोचिता यदाचरणेन नरके नराणां पातइति वेदा वदन्ति गीतादिग्रंथा अपि । किं च ॥ श्लोकः ॥ अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता ॥ भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽ यं सार्ववर्णिकः ॥ इति भागवतं ॥ अन्यान्यपि संति वचनानि-देवद्विज गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राज्ञपूजनं शौच मार्जवम् ॥ ब्रह्मचर्य महिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ इति गीताच-अन्यान्यपि सहस्रवचनानि हिंसानिषेधकारणभूतानि विद्यन्ते विस्त रभयान्नोलिखितानि॥अथ देवी तामसी मूर्तिः सा तामसै रेखो पास्यान वयं तामसाः तामसानां तामसगतिः नास्माकं सागतिः। अस्माभिस्तु मनुप्रह्लादांबरीशपांडव श्रीरामचंद्रप्रभृतिप्रचलितमार्ग एवं शुभकर उपास्यः-तैःकदाचिदपि हिंसालेशोऽ पिनाकारि नहि कार्यश्च । तस्माद् हे राजन् यदि शुभैकपरायणं भवदीयं चेतश्चेत्-अहिंसामुख्यो धर्मः ॥ सर्वत्र वेदादिषु अहिंसैव प्रतिपादिता-किंबहूतेन-एतद्विषये यदि विशेषाग्रहश्चेद्वयं भवत्संनिधावागत्य हिंसानिषेधं सशास्त्रं सहस्रप्रमाणपुरःसरं प्रतिपादयिष्यामः-अपरंच अत्रत्यैर्योगानंदस्वामिशिरोमणिभिरपितथैवाभाणि-तदित्थम्-देव्यै पशुहिंसा कार्येत्यंधपरंपरा तविधिहेमाद्रौतंत्रोक्तः अस्माकममान्यः भूपानां क्षात्रकुलोत्पन्नानां विष्णुरुपास्यः। स विषयः सामवेदे निर्णीयते-सामवेदप्रतिपादनं हेमाद्रिवचनतः प्रबलं-अंधपरंपर! कथं प्रचलति तद्विषये राज्ञः खंडेरायवर्मण इतिहासोऽवादि "केनाप्यागत्याभाणि नारायणोऽस्माकं प्रसन्नो जात इति तत्कथनेन मुग्धो राजा सन्मान माचरत् इति इतिहासः ममापि पूर्वावस्थायां मदीय देशस्थराज्ञा हिंसाचरिता सा ममजनकेन निर्मूला कृता, अन्यत्र सा देवी स्थापिता हिंसाचरणेन जायंत उपद्रवाः-आचरणाभावतो रोगादिनां शांति रुपदिष्टा शास्त्रेषु ॥ महाभारतेऽपिव्यासेनाभाणि मांसभक्षणव्यसनिना यदि मांसत्यागो विधीयते तदासहस्रराजसूययज्ञकारणं पुण्यं भवति-अंधपरंपरया यदि हिंसा के नापि क्रियते सा दैवयोगेन पुण्यवता राज्ञा निवारिता-कदाचित् किमपि कारण मुद्दिश्य मस्तकशूलं राज्ञो जातं तदानी हिंसाप्रियैर्दैवीभक्तै स्तामसै रुच्यते यत् भोराजन ! परंपरागतहिंसारूपं बलिदानं भवद्भि निषिद्धं तेन भवन्मस्तके दुःखं समुत्पन्नमिति मूर्ख मूल् राजा बोध्यते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादीनि योगानंद संन्यासिकथितानि वचनानि मयाप्यत्रलिखितानि तानि विचारणीयानि ॥ सारांशः ॥ राज्ञापरमात्मनो भक्तिः कार्या वेदगीताव्याससूत्रभागवतमहाभारतादिग्रंथप्रतिपादितस्वधर्मसंरक्षणं च विधेयं एतद्दिषये यद्यस्माकं कार्य पतेत्तर्हि तत्राप्यागत्य सशास्त्रं सविस्तर वदिष्यामः ॥ भाद्रपद कृ० १४ सं० १९०५ पंडित गट्ठलालजीनो शिष्य शास्त्री माधवजी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २ मुंबईना पचीश शास्त्रिओनो सामटो अभिप्राय. गोस्वामी श्री नृसिंहलालजी महाराजना अध्यक्षपणा नीचे स्थापित थएली श्री सुबोधिनी सभा तरफथी आवेलो, "ता. २३ सप्तम्बर सने १८९४ना गुजराती वर्तमान पत्रना पृष्ठ १०५२ मां " देवदेवीने भोग आपवा निमित्ते थतो पशुवध " ए मथाला चर्चापत्र वाचतां तेमां बलेव अने दशरा विगेरे पर्व उपर देवी के देवने भोग आपवा निमित्तथी पशुवध थतो हतो अने थाय छे ए रूढीए शा कारणथी प्रवेश कयों छे ? तेनी हकीकत लखी तेनी अंदर सात प्रश्नो लखेला छे. ते विषे विचार करतां (रूढी) शब्द पण तेवी बाबतने लागु पडतो नथी ! केमके रूढी शब्दनो अर्थ एवो छे, एकन बाबतनी बन्ने रीति शास्त्रमा जूदी जूदी लखेली होय (जेमके सूर्यनो उदय थया पहेला होम करवो अने उदय थया पछी होम करवो ) एवी बन्ने हकीकतमाथी जे परंपराथी चालती होय ते प्रमाणरूप रूढी गणाय केम के ते शास्त्रसिद्ध छे. पण शास्त्रमा आधार न होय अने चालती होय ते अंधपरंपरानी रूढी छे तेवी रूढी मान्य गणाती नथी; तेम शास्त्र पण जे खरा धर्मने बतावे तेज शास्त्र गणाय छे. अने ते प्रमाणेन धर्म व्यवहार चालवो जोइए. पण जेनी अंदर श्रीमद्भागवतना सप्तमस्कंधमां बताव्या प्रमाणे विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा, छलए पांच प्रकारनी अधर्मनी शाखानुप्रतिपादन होय 'ते' धर्मसंबन्धी शास्त्र गणातुं नथी. तेमज सात्विक, राजस, तामस, एवा पुराणो विगेरेमां पण भेद छे. तेमांथी तामस पुराणनी हकीकत त्याग करवा योग्य; राजस पुराणनी उपेक्षा करवा योग्य, अने सात्विक पुराणनी ग्राह्य छे. अने ते ते हकीकतो तेमज ते ते पुराण--तामस, राजस, के सात्विकपणुं ए तेमां लखेला धर्मोना प्रकार अने देवोना यजन विगेरेथी स्पष्ट जाणी शकाय तेम छे तेथी ते विषेर्नु विवेचन आस्थले लखवाथी विस्तार थाय एम धारी फक्त आ चालती बाबत विषे विचार करवा सत्यधर्माग्रही विद्वान् मंडळी मेळवतां ते ते बाबतनो नीचे प्रमाणे अभिप्राय आपे छे. १ प्रश्न-एवा प्रकारनी पशुहिंसा करवानें कया शास्त्रमा कां छे ? उत्तर-बलेव के पशु हिंसा करवानुं कोइ प्रमाणभूत शास्त्रमा कहेलु नथी. २ प्रश्न-जे शास्त्रमा कां होय ते शास्त्र आर्य लोकोमा सर्वमान्य गणाय छे के केम? अथवा बहुमान्य गणाय छे के केम? उत्तर-आनो खुलासो एटलोज छे के आर्य लोकोमा सर्वमान्य कोइ शास्त्रमा तेवी बाबत लखेली नथी. प्रश्न ३-ते शास्त्र करतां पण ने शास्त्र प्रमाण वधारे बलवान् गणातुं होय एवा कोइ शास्त्रमा ते हिंसानो निषेध कयों छे के? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ उत्तर-श्रीमद्भगवद्गीता सर्वमान्य शास्त्र गणाय छ जेनी अंदर सोळमा अध्यायमा दैवी अने आसुरी एम बे प्रकारनी संपत्ति लखेली छे. तेमां दैवी संपद्वाळाना धर्ममां अहिंसाधर्म मुख्य गणेलो छे. “ अहिंसा सत्यमक्रोधः" इत्यादि. तेमज श्री भागवतमां तेवा हिंसकने तामस गणेला छे, एज मोटो निषेध छे. ४ प्रश्न-राजाओने ते अवश्य कर्तव्यज छे, अने ते न करवामां आवे तो बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय एवं कोइ स्पष्ट प्रमाण छे के केम ? उत्तर-अवश्य कर्तव्य नथी; तेथी ते बाबत काइ बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाती नथी. ५ प्रश्न-ते हिंसानी प्रवृति जो न करवामां आवे तो तेथी राज्यने प्रनाने के राजाना अंगे कोइ पण प्रकारनो आपत्ति योग आवे अथवा अकार्य कयु गणाय एवं कोइ बळवान् शास्त्रमा कहेलुं छे के केम? उत्तर-जे बाबत शास्त्रमा विधि नथी, ते बाबत करवामां न आवे तो तेथी राजाने, राज्यने, के प्रजाने अंगे कोइपण प्रकारनो आपत्तियोग आववानो संबंध नथी, पण उलटुं थती जीवहिंसा बंध . करवाथी धर्मनुं फळ प्राप्त थाय तेम छे. ६ प्रश्न-ते पशुवधने बदले बोनी कोइ हिंसा रहित क्रिया करीने ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी कोइ बलवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कयों गणाय के केम ? अने तेवी हिंसा रहित शुं शुक्रिया बराबर गणाय ? उत्तर-पशुवध करवां ज्यां काम्य रीते पण लखेलुं छे त्यां पशुने बदले बीनी वस्तुथी आराधना करवानुं लखेलुं छे. जेमके:कालिका पुराणे कूष्मांडमिक्षुदंडं च मांसं सारसमेवच ॥ एते बलिसमाः प्रोक्तास्तृप्तौ छागसमाःसदा ॥ १ ॥ रुद्रयामलेपि छागाभावेतु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरम् ॥ वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना ॥१॥ इत्यादिक वाक्यथी कोलं, शेरडी, श्रीफल वगेरेथी पण बकराना जेवी ज तृप्ति तेवा देवने थवा- लख्युं छे. प्रश्न ७-पशुवध करवाने बदले तेनां नाककानने छेको मारीने ते प्राणीने छूटुं मेली देवामां आवे तो क्रिया पूर्ण गणाय के केम ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ उत्तर ७ - आ पर्वमां हिसा करवानुं लखेलुं नथी, त्यां नाककानने छेको माखानुं तो क्यांथी होय ? उपर लखेली बाबत विशे कोइने एवी शंका थाय, के अष्ठमीना बलिदानमां पशु हिंसा लखेली छे तेथी ते शास्त्रसिद्ध गणाय तो तेमां निर्णयसिंधुमां लखेलुं छे के तत्राश्वमेषछागमहिषस्वमांसानामुत्तरोत्तरप्राशस्त्यं फलविशेषश्चान्यतोऽवसेयः ॥ अर्थ - तेमां घोडो, घेटो, बकरूं, पाडो अने पोतानुं मांस एम उत्तरोत्तर विशेष वखाणवा योग्य छे - अने फल पण विशेष छे, एम बीजा ग्रंथोथी जाणी लेवुं. एवा लखाण उपरथी साफ मालम पडे छे के फलनी इच्छावाळानेज ते कर्तव्य छे, तेथी सकाम छे. अने सकाम कर्मने शास्त्रमां निंद्य गणेलुं छे. तेम ते आवश्यक गणातुं नथी, वळी तेमां सर्व पशुना मांस करतां पोतानुं मांस विशेष फल आपनारुं कहेलुं छे, त्यारे फलनी इच्छा वालाए, पोतानुं मांस शा माटे न आप ? अने नाहक न बोली शके तेवा पशुनो घात शामाटे करवा ? तेमज ते लेख पछी कलम छठीमां लख्या प्रमाणे कूष्मांड विगेरे पण आपवानुं लखेलुं छे थी सिद्ध थाय छे के वा बलिदानमां पण पशुनो घात करवा करतां कूष्मांड विगेरेथी क्रिया करवी तेज उत्तम छे. तेमज धर्मसिंधुमां पण लखेलुं छे के ब्राह्मणेन माषादिमिश्रान्नेन कुष्मांडेन वा कार्य यद्वा घृतमयं यवपिष्टादिमयं वा सिंहव्याघ्रनरमेषादिकं कृत्वा खड्गेन घातयेत् ब्राह्मणेन पशुमांसमद्यादिबलिदाने ब्राह्मण्यभ्रष्टता || अर्थ-ब्राह्मणे अडद मिश्रित अन्नथी के कोलाथी बलिदान करवुं अथवा लोटनो सिंह, वाघ, मनुष्य, घेटो, वगेरे करीने खङ्गवडे घात करवो. ब्राह्मणे पशुनुं मांस के मद्यादिनुं बलिदान आपवामां ब्राह्मणपणाथी भ्रष्ट थवाय छे. वली लख्युं छे के सकामेन क्षत्रियादिनां सिंहव्याघनरमहिषछाग सुकर मृगपक्षिमत्सनकुलगोघापिस्वगात्ररुधिरादिमथोबलिर्देयः अर्थ - कामनावाला क्षत्रिय वगेरेए सिंह, वाघ, माणस, पाडो, बकरूं, सूवर, मृग, पक्षि, मत्स, नोलिओ, अने घो, ए प्राणी तथा पोताना शरीरना रुधिरवालुं बलिदान देवं एम लख्युं छे तेमां कामनावालाए बलिदान आपवानुं लख्युं छे, तेथी निष्क्रामने ते बलिदान आपवानुं सिद्ध थतुं नथी, तेम तेनी अंदर जेटलां गणावेला छे तेथी सिंह, व्याघ्र, मनुष्य, विगेरे आगलनां त्रणने अने छेले लखेल पोताना शरीरना रुधिरने छोडी दइने वचमांथी बिचारा पाडा, अने बकराए शो गुन्हो कर्यो के तेनेज लेवां; ने तेवी कामनावाला अने हिंसाना आग्रह वाला होय तेणे सिंह, वाघ, के पोताना शरीरनो बलि शामाटे न आपवो ! पण वाघने पकडवा जाय तो पोतेज बलिदानरूप थई पडे अने पोतानुं मांस के रुधिर आपवुं विषम पडे, माटेज आ न बोले तेवा पशुने पकडावानो रिवाज कोइए पोतानी रुचि प्रमाणे चलाव्यो होय ते कांई मान्य गणाय नहीं. तेम सकाम कर्म करवुं ते राज्यमां कोइने रुशवत ( लांच ) दइने काम कराववा जेवुं छे ते ज्यारे लोकमां सारं गणातुं नथी, त्यारे शास्त्र तो तेने सारुं शी रीते कहे ? ते सारुं श्री भागवतमां पण लखेलुं छे केः श्लोक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ ॥ मुन्यन्नैः स्याद्यथा प्रीतिस्तथा न पशुहिंसया ॥ पवित्र अन्नथी जेवी देवताओने प्रीति थाय छे तेवी पशुहिंसाथी थती नथी. तेमज । अहिंसा परमो धर्मः ॥ ए वाक्य सर्व सम्मत छे त्यारे धर्मने बहाने प्राणीनो घात करवो ते करतां तेवा धर्मथी अलगु रहेg तेज वधारे उत्तम छे. उपरनी बाबत विषे श्री भागवत एकादशस्कंधमां तो सकाम कर्म करवा वाळानो तो एटलो तिरस्कार करेलो छे के जे सांभळवाथी साधारण लोकोने पण एमज थाय के तेवा कर्मथी अलगुंज रहेg जोइए. तेमन पद्मपुराण, वायुपुराण, स्कंदपुराण, विगेरे पुराणामां पण 'अहिंसा एज मुख्य धर्म छे, एम स्पष्ट लखेलुं छे. अने आ पर्वमा पशुधात करवो ए कोइ पण प्रकारनो विधि प्रयुक्त नथी; एम घणी रीते सिद्ध थाय तेम छे. पण थोडा वखतने लीधे संक्षेपमां फक्त उपरनी बाबत लखेली छे. बाकी ते विशे विशेष विचार चलाववो होय तो मोटो विस्तारयुक्त ग्रंथ थाय एटलो विचार तेमां थई शके तेम छे. ____१ सम्मतिरत्र खोपपादितेर्थे शास्त्री छगनलाल शर्मणः २ सम्मतिरत्र जीवरामशास्त्रिणः ३ सम्मतिरत्र इच्छाशङ्करशास्त्रिणः ४ सम्मतिरत्र नथुरामशास्त्रिणः ५ सम्मतिरत्र कांताप्रसादशास्त्रिणः ६ सम्मतिरत्र प्रभुरामात्मज भगवच्छास्त्रिणः ७ सम्मतिरत्र वाघजी शर्मात्मज लाधारामशर्मणः ८ सम्मतिरत्र प्राणजीवनशास्त्रिणः ९ सम्मतिरत्र शास्त्री जयशंकरशर्मणः १० सम्मतिरत्र शास्त्री केशवरामात्मज बदरीनाथशर्मणः ११ सम्मतिरत्र गवयपुरनिवासिनः भट्टाऽवटंक रामभट्टशर्मणः १२ सम्मतिरत्र मूलशंकरशास्त्रिणः १३ सम्मतिरत्र भायावरदनिवासिनः केशवलालशास्त्रिणः १४ सम्मतिरत्र मथुररामशर्मणः १५ सम्मतिरत्र प्रमाशंकरात्मजमयाशंकरस्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० १६ सम्मतिरत्र करुणशंकर शर्मणः १७ सम्मतिरत्र नरोत्तमशर्मणः १८ सम्मतिरत्र शंकरलालशर्मणः १९ सम्मतिरत्र गौरीशंकरात्मज प्रजारामशर्मणः ( संसत्संपर्कत द्वितीयवारं सम्मति ) २० सम्मतिरत्र वालजितनुजस्य क्षेमजीशर्मणः २१ सम्मतिरत्र मुकुन्दतनुज ज्येष्ठा रामशर्मणः २२ सम्मतिरत्र गोपाळात्मज माधवशर्मणः २३ सम्मतिरत्र पुरुषोत्तमात्मज कृष्णशास्त्रिणः २४ सम्मतिरत्र रामचन्द्र दीनानाथशास्त्रिणः २५ सम्मतिरत्र काशीशेष वेङ्कटाचलशास्त्रिणः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १० शास्त्रि रेवाशंकर मावजी दवेनो अभिप्राय. डाकटर - साहेब. प्राणजीवनदास जगजीवनदास महेता मु० धर्मपुर. आप साहेब तरफथी वर्तमान पत्रिकामां सात प्रश्नो आव्यां, ते वांची जोवामां आव्यां - आधुनिक कालना राजाओमां घणुं निर्दयपणुं, अविचारीपणुं लोकोना जोवामां आवे छे. परन्तु आपत्रिका वांचतां श्री धर्मपुरना महाराजा साहेबने आवी रीते दयानी प्रवृत्ति थइने हिंसानी निवृति करवानी जे जरुर थइ छे, ते घणो वखाणवा लायक छे. अने तेनी साथे धन्यवाद आपवो जोइए छीए. क्षत्रिओने प्रजानी रक्षा करवी अने सर्व प्राणिपर समभाव राखवो एज उत्कृष्ट राज्यधर्म छे. पूर्वे पण घणा क्षत्रिओ चक्रवर्ती राजाओए अनेक प्रकारे दया अने बुद्धि पूर्वक अहिंसा, क्षमा, तितिक्षा, शौर्यता तथा धैर्यताथी प्राणिओनुं रक्षण करेलुं छे अने क्षत्रिय शब्दनो अर्थ रघुवंशमां महाकवि श्रीकालिदासे बीज सर्गमा आ रीते करेल छे के क्षतात्किलत्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्यशब्दो भुवनेषुरूढः ॥ - राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोश मलिम्लुचैर्वा ॥ उपरना श्लोकमां क्षत् जे हिंसा तेथी निरापराधिनी रक्षा करवी तेज क्षत्रिओनो धर्म छे. अने ते थकी विपरीतपणे वरतवाथी राज्य होय तो पण शुं अने दुष्ट प्रवृत्तिवाळा पोताना प्राणथी पण शुं आ वचन महात्मा चक्रवर्ति राजा रघुना पिता दिलीपनुं छे. श्री भगवद्गीतामां परमात्मा श्रीकृष्ण भगवाने पण कहां छे के ममैवांशो जीवलोके ।। ते वाक्यमां एवो भावार्थ छे जे आ लोकमां जेटला जीव छे ते सर्वे मारा अंश रूप छे. तो तेने हणवाथी आपणने परमात्माना अंश उपर घात करवाना दोषने पात्र थवुं पडे छे; माटे सर्व प्रकारे जे कार्यमां अहिंसारूप प्रवृत्ति होय तेज सनातन धर्म छे. बाकी जे तामस भावथी हिंसादिक कार्य करे छे ते आ लोकमां अने परलोकमां निंदित थाय छे. ते विशे श्री गीतामां कयुं छे के, अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् मोहादारभते कर्म तत्तामसमुदाहृतम् ॥ अर्थ - अनुबन्धने, क्षयने, हिंसाने, तथा पौरुषने विचार्या विना जे कर्म करवामां आवे छे ते तामस कर्म छे. अने तामसीनी गतिविषे पण गीतामां कहेलुं छे. ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ॥ जघन्यगुणवृत्तित्वा दधो गछन्ति तामसाः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अर्थ- सत्यगुणनी प्रवृत्तिवाला उर्द्ध नाम मोक्षगामी छे. अने राजस प्रकृतिवाळा मध्यमां रहे छे. तेमज तामस कर्म करनार अधो एटले नर्कमां जाय छे. वळी गीतामां क्षत्रियना धर्म कह्या छे ते " श्लोक" शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् दान मीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् भावार्थ - शौर्य, तेज, धृति, चतुराई, युद्धमां न भाग, दान, ईश्वरभाव ए क्षत्रियना स्वाभाविक धर्म छे तेमां क्षत्रिये हिंसा करवी एवं अनुमोदन नथी - अने श्रीमद्भागवतमां स्कंध ४ थाना अध्याय २५ ॥ अहिंसया पारमहंसचर्यया स्मृत्या मुकुंदारमिताग्रासिन्धुना ॥ धर्मे रकमैर्नियमै रनिंदया निरीहया इन्द्रतितिक्षया च ॥ अर्थ - ए प्रकारे सनत्कुमार ऋषिए पृथुराज प्रत्ये उपदेश कर्यो छे. तेमां मोक्षगामी क्षत्रिये उपर प्रमाणे वर्तवुं तेम्मं मुख्य अहिंसा कही छे बाकीनां वचनो केवल सात्विक प्रवृत्तिवालाने ने निवृत्ति धर्मने अनुसरीने कहेला छे. माटे जे केवळ अंध परंपराने वळगी रहे छे, ते अज्ञाननो हेतु छे. ते विषे दृष्टान्त छे के - पूर्वे वेन करीने एक राजा थया हता. तेनां कर्म घणा क्रूर हता तेथी तेणे धर्मना लोपना आग्रह करी सर्व मनुष्यो तथा स्त्रीओ प्रत्येकह्युं जे कोइए पण सत्कर्म कर नहि अने सर्व मने अर्पण करो.” अने ऋषिओ द्वाराए मळेलो उपदेश न मान्यो तेथी ऋषिनो श्राप थतां ते मृत्युने पाम्यो . पछी तेना शरीरमाथी राजा प्रथु थया ते महाकर्म निष्ट अने सत्य धर्म प्रवृत्त थया. पछी तेणे कुळ परंपराए लोकोने पीडा दीधी नहि. आ शैलीने अनुसरीने महाराजा साहेबने धर्म विषे जे रुचि थई छे ते घणी स्तुति पात्र छेमाटे आवेली पत्रिकाना मारी बुद्धि अनुसार प्रश्नोना उत्तर यथामती लखी जणावुं हुं ते स्वीकारी लेशो. १ प्रश्ननो उत्तर. बलेव तथा दशरा उपर हिंसा करी बलि भोग आपवानुं तंत्रो अने शाक्त शास्त्रमां प्रतिपादन करेलुं छे. अने धर्म सिंधु तथा निर्णयसिन्धु वगेरे शास्त्रना मत गौणपणे कहेल छे. ते पण नवरात्रीना संबंधमां छे. परन्तु बळेव उपर हिंसा करवानुं कोई पण शास्त्रमां आवतुं नथी. २ प्रश्ननो उत्तर. जे शास्त्रमां हिंसानुं प्रतिपादन करेल छे, ते शास्त्र घणांज तुच्छ अने गुप्त छे. धर्म सिंधु तथा निर्णय सिन्धुमां तो सूक्ष्म रीते कहेल छे. ते पण शास्त्रमां विशेष मान्य वचन गणातुं नथी. माटे ते शास्त्रो सर्व लोकमां सर्व मान्य नथी तेम बहुमान्य पण नयी अने बळीदान विधि पण अस्त्र शस्त्र विद्यामां विशेषे करीने जोवामां आवे छे. आधुनिक काळमां शस्त्रास्त्र विद्या प्रचलीत थई गएल छे, तेथी ते कर्म निंदित छे. माटे कोइ पण प्रकारे जे शास्त्रमां हिंसानुं प्रतिपादन होय तो तेनो कोइ सत् शास्त्रमां कोइ वचन अर्थ फेरथी जोवामां आवतुं होय तो ते उत्तम पुरुषोने मान्य नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रश्ननो उत्तर. वेदमा, श्रीमद्भागवतमां, श्रीमद्भगवद्गीतामां, शिवाय बीजा सत्शास्त्रोमां हिंसानो तिरस्कारथी निषेध अने अहिंसानो आदरथी विधि बतावेल छे. सर्व मान्य वेदनेविषे हिंसा छे एवी रीते जे लोको कहे छे, ते वेदनाज निंदक छे अने कोइ प्रकरणमां राजस तामस कार्यनी निवृत्ति माटे संकोच रूप वचन होय तेनो पण अर्थ गूढ होवाथी ते यथार्थ रीते कोइ पुरुषो जाणी शक्ता होय एबुं मानी शकातुं नथी. व्याकरणथी वेदनी वाणिना अनेकार्थ थाय छे. तेथी कोइ पण रीते वेदमां हिंसानु प्रतिपादन छेन नहिं माटेन वेदनेविषे ने कोइ हिंसानु प्रतिपादन करे छे ते वेदधर्मना द्रोही छे. वेद हिंसामय नथी ते विषे एक महाभारतनुं आख्यान मारा सांभळवामां आव्युं छे ते जणावू छु. एक काळने विषे देवताना राजा इन्द्रे यज्ञ करवा माटे यज्ञशालामा पशु बांधेलां हतां ते समयमां महात्मा सप्त रुषिओ पधार्या अने का के ' हे इंद्र ! तारे आ पशुने शुं करवानुं छे ? " त्यारे इन्द्रे जवाब आप्यो के " वेदमां हिंसामय यज्ञ वर्णवेल छे; ते माटे पशु बांधेल छे.” ते वाक्य सांभळी महाऋषिओए कह्यु. "आ केवी अयोग्य अने निर्दयता भरेली वात छे. वेदमां हिंसानु कह्युज नथी." ते विषे घणीक तकरार थतां छेवट बे पक्षवालाओए पंच तरी के उपरी अमरवसु नामना राजाने ते शंका निवारणने माटे प्रश्न कर्यो; त्यारे ते वखत राजाए इंद्रनो पक्ष राखवो उत्तम मानी वेदमां हिंसामय यज्ञ छे." एवं वचन काढतां तुरत ते महर्षि पासे उभा छतां पण ते पृथ्वी उपर पड्यो अने तेनी पाताळमां अधोगति थइ ने अन्ते तेने नरकनो आश्रम लेवो पड्यो. __ आ द्रष्टांतथी एम सिद्ध थाय छे के वेदमां हिंसानी प्रवृत्ति छ ज नहिं; एम महात्मा वेदवक्ता भगवान वेदव्यासजी महाभारतना शांति पर्वमां २६५ अध्यायमा लखे छे. सुरांमत्स्यान्मधुमांस मासवं कृश रोदनम् ॥ धूतैः प्रवर्तितं ह्येतत् नैतदेवेषु कल्पितम् ॥ १॥ महामोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत् प्रकीर्तितम् ॥ विष्णुमेवा भिजानंति सर्व यज्ञेषु ब्राह्मणाः॥२॥ पायसैः सुमनोभिश्च तस्यास्ति यजनं कृतम् ॥ यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ ३ ॥ उपरना श्लोकोनो अर्थ एवो छे के वेदमां कोइ पशुनी हिंसा कहेली नथी अने प्रकरणोमां प्रति पादननो आभास जोवामां आवे छे. ते वेदनां वचन नथी ते वचन कोइ दुःष्ट पुरुषे रसस्वादने अनुसरी वेदन दूषित करवा नाखेल छे, एम स्पष्ट थाय छे. अने वेदना अर्थ- अत्यंत गूढपणुं छे तेथी जेने जेवी रुचि ते प्रमाणे कोइ कोइ स्थळनो अर्थ न समजवाथी हिंसाना पक्ष, प्रश्न करे छे. माटे वेदमां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ कोइ भागमां हिंसा करवानुं प्रतिपादन नथी अने जो होय तो वेदवेत्ता वेदव्यासजी उपर प्रमाणे लखी जात नहि. माटे कोइ पण अधर्मने धर्म मानी हिंसा करशे तो तेने अधर्मनुं फळ मळशे तेमां संशय नथी. वेदमां कोइ हिंसाना यज्ञ अर्थे हिंसा करवी एवो अर्थ समजी पूर्वे प्राचीन बहिराजा अने महात्मा नारदजीनो संवाद श्री भागवतना चतुर्थ स्कंधमा २५ अध्याय २१ मां आ प्रमाणे छे. राजोवाच नजानामि महाभाग परं कर्मापि विद्धधीः ॥ ब्रूहि मे विमलं ज्ञानं येन मुच्येत कर्मभिः ॥ ५ ॥ गृहेषु कूट धर्मेषु पुत्र दार धनार्थधीः ॥ न परं विंदते मूढो भ्राम्यन् संसारवर्त्मसु ॥ ६ ॥ श्री नारदोवाचसंज्ञापितान् जीवसंधान् निघूर्णेन सहस्रसः ॥ भो भो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे ॥ अते वै त्वां प्रतीक्षन्ते स्मरंतो वैषसं तव ॥ संपरेतमयः कूटै छिन्दन्त्युत्थित मन्यवः ॥ अर्थ - राजा यज्ञने विषे हिंसा करवामां केटलाक पशु भेळा करी यज्ञ करवा वखते नारदजी पधार्या त्यां तेना दर्शनथी ‘निर्मळ बुद्धि थतां राजाए नारद प्रत्ये प्रश्न पूछयुं के " हे माहाभाग अमारी कर्मे करी बुद्धि हणाएली छे. माटे विमळ ज्ञान (धर्म) अमने कहो. जेथी कर्म थकी मूकाइए केम जे कपटरूप ग्रहस्थाश्रमनो धर्म तो वली केवो छे जे पुत्र, स्त्री, द्रव्य ए वडे करी मूढपुरुषो संसाररुपी मार्गमां भमे छे ते प्रत्ये नादरजीनुं वचन - हे प्रजापते-तें आ यज्ञमां हजारो जीवने भेला कर्या छे. केटलाक जीवोने यज्ञमां बाल्या छे, ते तारा मृत्युने स्मरण करे छे. तेओ ज्यारे तारुं शरीर पडशे, त्यारे कूट जेवा आयुधो वडे घणा क्रोधथी तारुं छेदन करशे. माटे जो वेदवचनथी हिंसा करवामां आवती होय तो नारदजी आवं शामाटे कहे . ए रीते वेदनुं अहिंसामय प्रतिपादन छे. वली भागवताना प्रथम स्कंधना ८ अध्यायमा ५० मा लोकमां राजा युधिष्टिरे परिताप कर्यो छे केः यथा पंकेन पंकाम्नः सुरया वा सुराकृतम् ॥ भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञे मर्छु मर्हसि ॥ ५ ॥ एम एम जणावेल छे जे जेम कादव कादवना पाणीथी धोवो अने सुरा सुरावडे करी धोवी, तेम एक प्रांणिनी हिंसा करी यज्ञ वडे शुद्ध थवं ते योग्य नथी. राजा युधिष्टिर तो क्षात्रधर्ममां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ रही युद्धमा परमात्मा कृष्णना वचनथी प्रवर्त्यो हतो; पण तेने घणोक परिताप थयो. ने प्राणीना घातथी राज्य प्राप्त थयुं ते करवाने हुं योग्य नथी एम विचारवा लाग्यो त्यारे ते राजाने यज्ञ करवाथी तारा पापनो नाश थशे ते संबन्धमां तेणे उपलो श्लोक कह्यो छे. पण तेओए तो अपराधिनेज मार्या हता. तो पण तेने राज्य जीवनपर्यंत सुखदाई थयुं न होतुं, तो जो कोइ निरपराधी प्राणीनो अधर्मने धर्मरूपमानी निर्द पणेथी घात करे छे, तो तेओ केवळ कसाईनुं कर्म-करे छे - अने अन्ते घोर नरकनी गतिने पामे छे. वली सप्तमस्कंधमां नारदजीए युधिष्टिर प्रत्ये कहेल छे के: नदद्यादामिषं श्राद्धे नाश्नयाद्धर्मतत्ववित् ॥ मुन्यन्नैः स्यात् परा प्रीतिर्न तथा पशुहिंसया ॥ १ ॥ नैतादृशो परो धर्मो नृणां सद्धर्म मिछताम् ॥ न्यासो दंडश्च भूतेषु मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ २ ॥ अर्थः-श्राद्धमां मांस न वापरवुं. जेवी शुद्ध अन्नथी पितृओने तृप्ति थाय छे तेवी मांसथी नथी. धर्म इच्छता एवा जे मनुष्यो तेमणे भूत प्राणि मात्रने विषे मन, वचन, कायाथी दंड करवो नहिं . हिंसानो निरोध अने अहिंसानुं प्रतिपादन करवा एक मोटो ग्रंथ करवा धारीए तो ते थई शके माटे आ प्रमाण शास्त्र, वेद, भागवत तथा गीता ते सर्वमान्य गणाय छे. बाकी जे शास्त्रमां हिंसा कहेल छे, ते शास्त्र शास्त्रपंक्तिमां गणवा लायक नथी. माटे चारे वर्ण अने चारे आश्रमवाळाए सर्व प्रकारे हिंसाथी दूर रही अहिंसा धर्ममां वर्ततुं जोइए. तेमां पण राजाने विशेषे करी करवानुं छे. कारण के जे कोई हिंसा करे तेने शिक्षा करवानी तेमां शक्तिनी जरूर छे. ४ प्रश्ननो उत्तर. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एओने यज्ञोपवीतनो संस्कार छे एटले तेमने शास्त्रमां द्विज एवी संज्ञा आपी छे. द्विजवर्ण कोइ काले हिंसा करे नहीं, करतो होय तेने अटकावे, तेमां ब्राह्मण अने वैश्य कोइ काळे हिंसा करे नहीं, अने क्षत्री पोते करे नहिं, ने करनारने अटकावे ने शिक्षा लायकने पण शिक्षा करे छे. अने शूद्रने विषे एम छे के केटलाक शूद्र हिंसक वृतिवाळा छे, तेओ शक्ति तथा तांत्रिकोना शास्त्रमां कह्या प्रमाणे तेवा विधि प्रवर्त करे छे, ते चांडाळनी पेठे त्याग करवा योग्य छे. जेओ सदैव वैष्णवना भक्त छे तेमणे सात्विक देवनी पूजा करवी तथा सात्विक यज्ञादिक करवा. वळी तेमनुं अपराधीने दंड देवा रूप राजकर्म ते मोक्षनो हेतु छे. पण तामसभावथी पोताना पाळेला निरपराधी पशुने हणवाथी कोइ रीतनेो धर्मनो हेतु होय तो वेदशास्त्र प्रमाणे अहिंसा धर्म होवोज न जोइए माटे हिंसा ते पापकर्मज समजवानुं छे. श्रीभागवतमां नारदजी वर्ष वर्ष प्रत्ये इंद्रने अर्थे यज्ञ करता तेमां पण विधिनी गोवर्धनना मोटा उत्सव रूपे अन्नकोटना नामथी प्रवृत्ति थइ छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अन्नादिक यजन छे. तेज नारदजी वैष्णव हता; छतां www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पण ते हिंसा करता नहिं, तो तेथी उत्कृष्ट वर्णवाळाए ते केम मान्य करी शकाय ? माटे राजाए अहिंसा धर्म प्रवर्ततां कोइ पण शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय नहिं. अने जो आज्ञा त्रूटती होय तो पूर्वे मोटा थ‍ गयेला राजाओए अहिंसा धर्म प्रवर्तावेल छे. ते सर्वे महात्मा भगवान्ना परम भक्त गणायाथी मोक्षने पाम्या छे. ते वात नहि बनते. ५ प्रश्ननो उत्तर. हिंसानो त्याग करी अहिंसामांथी थता धर्मनुंज राजा आचरण करे ते राजाने, तथा तेनी प्रजाने संपत्ति मळे छे, ने कोइ जातनी आपत्ति आवती नथी. अहिंसाथी केवळ सुखनी उत्पत्ति छे, ६ प्रश्ननो उत्तर. देवीने उद्देशेज हिंसा करवामां आवे छे, ते तो घणुंज अकार्य छे कारण के देवी त्रिगुणात्मक भगवत स्वरूपनी शक्ति छे तेनुं देवोनी साथे सात्विकपणाथी पूजन छे. मार्केड पुराणमां देवीने कोइ ठेकाणे तामसी देवतुल्य गणी नथी. माटे सात्विक देवनुं मांसादिकथी पूजन होयज नहिं अने जेकरे छे ते तो पोताने मांस भक्षण करवाना हेतुथी पूजनमां लावे छे. भागवतमां जडभरतना आख्यानमां म्लेछनो राजा भद्रकालीने अर्थे पशुमारवा जतो हतो तेमांथी पशु जतुं रह्यं तेने बढ़ले जंगलमांथी भरतजीने पकडी गयो अने देवी पासे जइ तेनो वध करवा मांड्यो, के तरत देवीए कोप कर्यो. माटे जो देवी प्रसन्न थती होय तो म्लेछनो नाश करत नहिं वली तेमां कोइ एवं पूछशे के जे राजाओ देवीना निमित्ते हिंसा करेछे, तेमने केम कांइ थतुं नथी. ते विषे आम समजवानुं छे जे राज्य पदवी कई थोडा तप के सुकृत्यनुं फल नथी पण महा उग्र अने उत्कृष्ट धर्मनुं फल छे. तेथी पूर्वना पुन्यना जोगे करीने हाल कशुं विघ्न जोवामां आवतुं नथी तेथी करी हिंसानी प्रवृत्ति कर्या करे छे. तेथीज राजाने अन्ते केटलाक राज्यने अघो नर्क भोगववुं पडे छे. एम अनेक शास्त्रों कहे छे. माटे देवीने सारा पदार्थ अन्नादिकथी बलिदान आपहुं अने कढ़ी पोताना मनमां हिंसानो घणो आग्रह होय तो कूष्मांडादिक फलनुं नैवेद मुकवं तेथी कोई शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो कहेवाय नहिं. वली देवी जगत् जननी कहेवाय छे. जगतमां स्थावर जंगम बे जातनां प्राणी छे. ते सर्वे तेना संतान छे. माटे ते पोताना निरपराधी संतानोना घातथी पोते प्रसन्न था ज नहीं. माटे कोई प्रकारे देवनीके शास्त्रनी आज्ञानो भंग थतो नथी. ७ प्रश्ननो उत्तर. कारण पशु हिंसाने बदले पशुना नाक के कान छेदवामां आवे ए प्रश्ननुं कांई उचित प्रयोजन नथी. जे पुरुषने हिंसामाथी निवृत्ति पामवानो उद्देश छे तेने तो पशुने विरूप करवानुं कांई प्रशस्त नथी. तो पण जो मनने अस्थिरपणुं भासतुं होय अने उपरना शास्त्रोना अभिप्रायमां शंका थती होय तो नाक कान छेदवाथी क्रिया थई कहेवाय छे, अने एवी रूढी पण केटलेक स्थले चाले छे. पण मारे धारे तो ते पण क्रिया बंध करवा लायक छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत्मा प्राणिमात्रने त्रण वस्तुनी प्राप्ती थाय छे. विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां परिपीडनाय ॥ खलस्य साधोर्विपरीत मेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥१॥ खल पुरुषो विद्यानो विवादमां उपयोग करे छे, धनथी मद करे छे अने शक्तिथी परने पीडा करे छे, पण साधुपुरुष तेथी विपरीत एटले ए त्रण वस्तुनो सदुपयोग करे छे–विद्याथी सर्वेने ज्ञान आपे छे, धनथी दान आपे छे अने शक्तिथी प्राणिमात्रनुं रक्षण करे छे. माटे हिंसा करवी ते तमाम खल अने नीच पुरुष- कृत्य छे. वास्ते कोइ प्रकारे हिंसाने धर्म मानी प्रवर्तशे तो ते अघोर एवा नरकमां पडशे एवो सर्व शास्त्रवेत्ताओनो अभिप्राय छे. अने अहिंसा एज सर्वोत्तम मत छे ने ते आश्रय करवा योग्य छे. तथास्तु" | उपरना प्रश्नोनां मारी अल्प बुद्धिथी उत्तर लख्या छे. आवा गाढ विषयमां मारे आगळ पडी लखवू योग्य नथी तो पण धर्मनी लागणीथी सत्पुरुषना मुखारविंद आगळ मारो मत निवेदन करुं छु ते अनुग्रहथी स्वीकारशो. आवा सत्कर्ममां अनेक धर्मवेत्ता शास्त्रीओना अभिप्राय आवी पहोंच्या हशे. कोइ पण प्रकारे हिंसा बंध थतां अहिंसा धर्म प्रवर्तन थशे तो हिंसाथी बचनार प्राणिओना शुभ आशीर्वाद महाराजा साहेबना राज्यने, कोशने, प्रजाने अने सर्व संपत्तिने पूर्ण फलिभूत करशे अने आ काम आलोक परलोकमां शय, अने मोक्षनुं साधनरूप छे. आ कार्य अहिंसारूप प्रवतशे तो ते अनुसारे केटलांक राज्यमा रूढी हशे ते पण निवृत्त थशे तेमां सर्वलोकथी आपने आशीर्वाद थशे. वैष्णव अने स्मृति धर्मवाला सर्व ' अहिंसा परमो धर्म' एवा वाक्यने सर्वोत्कृष्ट गणे छे. वेदमूर्ति भगवान्, शंकरना अवताररूप, सन्यासीना आदिगुरु श्रीशंकराचार्य, श्रीरामानुज संप्रदाय वाला, माध्व, राधावल्लभी, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीस्वामीनारायणवाला, आदि सर्व अहिंसाज प्रतिपादन करे छे. तेओए सनातन वेदमां जे धर्म कह्यो छे, तेज प्रवर्तावेल छे. माटे कोइ पण धर्माचार्य तो अहिंसा- कार्यज प्रमाण करे छे छतां जे हिंसाना कार्यमा प्रवर्ते छे तेओ वेद, भागवत, गीता, मनुस्मृति अने उपर लख्या ते धर्माचार्योना प्रत्यक्ष रीते निंदक छे. वळी एवं कयुं शास्त्र छे के जेमां हिंसा करवाथी धर्म थाय एम कहेडं होय. महाराजनुं नाम परंपराथी धर्मपुरना महाराजा तरीके निर्माण थयेल छे तो तेओए पोताना शहेरना नामनो खरेखरो अर्थ आ पत्रिकाथी आरंभ्यो लागे छे ते परमात्मा संपूर्ण करशे, एवी अमो महात्माओ पासे अभिवंदना करीए छीए अने अहिंसारूप सत्कार्य सिद्ध थवा चाहिए छीए. वली विशेष के श्री जैनधर्ममां तो कोइ स्थले कोइ अंशे कोइ वाक्य हिंसा करवी तेवू छेज नहि. एटले ते मत तो हिंसा न करवी एवो अति आग्रहपूर्वक बोध करे छे माटे ते मत पण मान्य करवा लायक छ, आ कार्यमां महाराजा साहेबने पुण्यनो कांइ पार रहेशे नहि. वली तेवा कार्यमां प्रवर्ति करवा एटले हिंसा न कराववा माटे जे प्रयास करवामां आवे छे, ते पण अति उत्तम धन्यवादने पात्र छे. सुज्ञेषु किंबहुना, शांतिः मुंबइथी लि. शास्त्री रेवाशंकर मावजी दवे. मांडवीपंदवाळा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ११ मोरबीवाळा शास्त्री शंकरलाल माहेश्वरनो अभिप्राय. ( प्रथम पत्र ) सौजन्य सुधासागर परम हितैषिवर्य रा. रा. भाईश्री प्राणजीवन जगजीवन मेहेता. श्री मोरबीथी ली. शंकरलाल माहेश्वरना आशीर्वाद वांचशो. तमारो ता ७-९ - ९४नो लखेल पत्र मने पहोंच्यो वांची वीगत जाणी जवाब नीचे मुजब. १ देवीभागवत मार्कंडेय पुराण आदि देवीना पुराणमां कोइ ठेकाणे देवीने के देवने पशुहिंसा करी भोग आपवानुं लख्युं नथी तेमज तंत्र ग्रंथमां पण पशुवध देवी के देवने भोग माटे लखेलो नथी. कढ़ी कौलमत (शक्ति पंथ ) ना पुस्तकमा पशुहिंसा करी भोग आपवानुं लग्न्युं होय तो ईश्वर जाणे ए पंथोना में ग्रंथ जोया नथी. २ कोइ पण मतना ग्रंथोमा लखेलां वचनो सर्व मान्य गणा यज नहीं तेम बहु मान्य पण गणाय नहीं. ३ सर्वमान्य अने प्रमाणरूप शास्त्रमां हिंसानो निषेध करेल छे जे वचनो में अर्थ सहित साना पत्रमा लखेला छे. ४ देव देवी माटे पशुहिंसा अवश्य करवीज जोइए एम राजाओनां अवश्य कृत्योमां जोवामां आवतुं नथी तेम पशुहिंसा न करे तो बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय नहीं केम के बलवान् शास्त्रोए एवी आज्ञा करीज नथी. ५ हिंसामय प्रवृत्ति न करे तो तेथी राजाने कांई आपत्तियोग आवेज नहीं पण राजा अने प्रजानुं कल्याणज थाय अने पशुहिंसा न करवाथी अकार्य कर्यु न गणाय पण उत्तम कार्य कर्यु गणाय; ते विषे वचनो पण साधे लखेलां छे. ६ पशुवधने बदले हिंसा वगरनी क्रिया करीने ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो गणाय नहीं. सप्तशतीना पाठो कराववाथी, अनेक प्रकार नां नैवेद्यो करवाथी अने ब्राह्मणोने जमाडवाथी देवीने परम प्रीति थाय छे एवां वचनो घणां छे, ७ प्राणीना नाक के कानने छेको मारवानी कांइ जरुर नथी; कारण के ज्यारे सर्व मान्य शास्त्रोमां देवीने बाले आपवा माटे पशुहिंसा करवी, एवं वचन जोवामां आवतुं नथी त्यारे निरपराधी प्राणीनां नाक के कानने छेको मारीने तेने शुं करवा पीडं जोइए. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशास्त्रोनां पुस्तकोमा दशरा ने बलेवनां वृत्तांतो जोतां कोइ पण पुस्तकमां नथी जोवामां आवतुं के देवी अथवा देवना भोग माटे पशुहिंसा करवी; माटे दशरा विगेरेमा पशुहिंसा करवानी रूढी अशास्त्रीय छे जूवो उपर लखेला अभिप्रायने दृढ करनारां सर्वमान्य शास्त्रोनां वचनो. १ अहिंसा परमो धर्मः। अर्थ-अहिंसा एज़ उत्तम धर्म छे. २ न हिंस्यात्सर्वाणि भूतानि । कोइ पण प्राणिनी हिंसा करवी नहीं. ३ मनुस्मृति अध्याय ५ श्लोक ३८ मो. यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोह मारणम् ॥ वृथा पशुधनः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ ३८ ॥ अर्थ-जे माणस वृथा पशु हिंसा करे छे; ते माणस ते पशुनां जेटलां रुंवाडा होय छे तेटली वखत जन्ममां ते पशुथी मरणनो अनुभव करे छे.. ४ श्रीभागवतना तृतीय स्कंधना सातमा अध्यायना श्लोक सातमामां लखे छे के, सर्वेवेदाश्च यज्ञाश्च तपोदानानि चानघ ॥ जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि ॥१॥ अर्थ-सर्व वेद, सर्व यज्ञ, सर्व प्रकारनां तप अने सर्व प्रकारनां दान पण जीवने अभयदान आपवानां पुण्यनी एक कला पण करतां नथी. मतलब के ए सर्व करतां जीवने अभय करवं ए मोटुं पुन्य छे. ५ श्रीभागवत तृतीयस्कंध अध्याय २७ मो श्लोक २१-२२ अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ॥ तमवज्ञाय मां मूढाः कुरुते विडंबनम् ॥ २१ ॥ अर्थ-श्रीकपिलदेवजी कहे छे के हुं प्राणिमात्रमा आत्मरुपे रह्यो छु, तेनी अवज्ञा करीने मूर्खलोको मूर्तिन पूजन करेछे मतलब के जे पशु हिंसा करीने मूर्तिनी पूनाकरे छे ते मूढ छे. यो मां सर्वेषु भूतेषु संतमात्मानमीश्वरम् ॥ हित्वा! भजते मौढ्यात् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२ ॥ अर्थ-श्रीभगवान् कहेछे के हुं प्राणिमात्रमा आत्मारुप रह्यो छु. तेनुं अपमान करीने मूर्तिनी पूजा करे छे एटले पशुमा आत्मरुप हुँ रह्यो छु तेनी हिंसा करी मारूं अपमान करे छे ते राखमा होमे छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्रीभागवतमा एकादश स्कंध अध्याय ५ येत्वनेवंविदो संतः स्तब्धाः सदभिमानिनः ॥ पशून द्रुह्यति विस्रब्धाः प्रेत्य खादंति ते च तान् ॥ १॥ अर्थ-जे अज्ञानी अभिमानी असाधु छतां पोताने साधु माननारा लोको पशुने मारे छे; तेओने मूआ पछी तेज पशुओ खाय छे. ७-जुओ महाभारतमाथी नीकलेल इतिहास समुच्चयनां वचनोने के जे अहिंसानेज कल्याणर्नु साधन छे एम सिद्ध करे छे. तपः कृते प्रशंशति त्रेतायां ज्ञानसाधनं ॥ द्वापरे यज्ञ मेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ १ ॥ सर्वेषामेव दानानामिदमेवैकमुत्तमम् ॥ अभयं सर्वभूतानां मनोवाकायकभिः ॥ २ ॥ चराणामचराणां च योऽभयं वै प्रयच्छति ॥ स सर्वभयनिर्मुक्तः परब्रह्माधिगच्छति ॥ ३ ॥ नास्त्यहिंसापरंपुण्यं नास्त्यहिंसापरं सुखं ॥ नास्त्यहिंसापरंज्ञानं नास्त्यहिंसापरोऽभयः ॥ ४ ॥ सत्ययुगमा तपनेज कल्याण- साधन कहेता. द्वापरमां यज्ञनेन कल्याण साधन कहेता. त्रेतायुगमा ज्ञाननेन कल्याणर्नु साधन अने कलियुगमा दाननेज कल्याणनु साधन गणेल छे. सर्व दानमां पण उत्तम दान तेन छे के मन, वचन, काया अने कर्मथी सर्व प्राणीमात्रने अभयदान आपq. अर्थात् प्राणिनी हिंसा न करवी एज अभयदान कहेवाय छे. जे स्थावर जंगम जीवने अभयदान आपे छे ते परब्रह्म (मोक्ष) ने पामे छे. प्राणीनी हिंसा न करवी ए जेबुं बीजुं पुण्य नथी, प्राणीनी हिंसा न करवी ए जेवू बीजुं सुख नथी. प्राणीनी हिंसा न करवी ए जेबुं बीजुं ज्ञान नथी ने प्राणीनी हिंसा न करवी ए जेतुं बीजुं कल्याण नथी. ८ श्रीमद्भगवद्गीतामां छठा अध्यायना ३२ श्लोकमां कहेतुं छे. आत्मौपम्येन सर्वेषु समं पश्यति योर्जुन ॥ सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२॥ ने प्राणिमात्रमा सुखने अने दुःखने पोतानी उपमाथी देखे छे ते माणस उत्तम योगी मानवो. मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीताना १२ मा अध्यायमा १३ श्लोकमां । अद्वेष्टा सर्वभूतानां । ने सर्व प्राणीमात्रनी हिंसा नथी करतो; ते मारो व्हालो छे एम कयु छे. ९ तेमज दैवी संपत्तिमां जे जीवने भगवाने गणाव्या छे तेमां हिंसा न करनार, सत्य बोलनार, क्रोध न करनार, उदार, शांतिवान्, चाडी न करनार, प्राणीमात्र उपर दया राखनार, लोभ न राखनार, कोमल मन राखनार, शरम राखनार अने चपलता न राखनार एवा जनोने दैवी संपत्तिना कह्या छे. तेम आसुरी जीवोनी गणना करतां जेओ प्राणीमात्रमा हुँ रह्यो छु तेनो द्वेष करे छे. एवा जनोने हुँ आसुरीयोनिमांज नाखु छ एम भगवाने का छे. तेमज गीताना १८ मा अध्यायमा २५ श्लोकमां हिंसा जेमां थाय एवां कोने तमोगुणी कर्म गणेल छे, एथी पण अहिंसा केवी उत्तम छे ने हिंसा केवी निंद्य छे ते जाहेर जणाय छे.. एवी रीते हिंसानी निंदा ने अहिंसानी स्तुतिनां वचनो अनेक छे. पण ते लखवाथी विस्तार वधीं जाय, माटे टुंकामां थोडाक वाक्यो लखु छु. दीर्यमाणः कुशेनापि यः स्वांगे हंत दूयते ॥ निर्मतून् स कथं जंतूनघातये निशितायुधैः ॥ १ ॥ जे माणस पोताना शरीरमां दर्भनो कांटो वागतां पण दुःभाय छे, ते माणस निरपराधी जीवने हथीयारथी केम मारे? निर्मातुं क्षणिकां तृप्ति क्रूरक्रूरतराशयाः ॥ समापयन्ति सकल जन्मान्यस्य शरीरिणः ॥ १॥ अर्थ-क्रूरमां पण क्रूर लोको पोतानी क्षणिक तृप्ती माटे बीजा प्राणानुं सबळू जीवित समाप्त करी दे छे ए केवी खेदनी वात छे. म्रियस्वेत्युच्यमानोऽपि देही भवति दुःखितः ॥ मार्यमाणः प्रहरणे दारुणैः स कथं भवेत् ॥ १ ॥ अर्थ-तुं मरीजा एटलं कहेवाथी पण प्राणिने दुःख लागे छे त्यारे जे भयंकर हथीआरथी मरातो हशे तेने केबुं दुःख थतुं हशे. हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशांतौ कृतापि हि ॥ कुलाचारधियाप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥ २॥ अर्थ-विघ्नोनी शान्ति करवा माटे करेली हिंसा विघ्नोनेज करे छे, कुलनो आचार मानीने करेली हिंसा पण कुलनेन हानि करे छे. ए प्रमाणे प्राणिहिंसाने निंदी छे. अने नीचेना श्लोकमां अहिंसाने वखाणेल छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योभूतेष्वभयं दद्यात् भूतेभ्यस्तस्य नोऽभयम् ॥ याग्वितीर्यते दानं तागासाद्यते फलम् ॥ ३ ॥ अर्थ जे प्राणीमात्रने अभय आपे छे तेने प्राणीमात्रथी भय नथी, कारण के जेवू दान आपीए ते, फळ मळे छे. मातेव सर्वभूताना महिंसा हितकारिणी ॥ अहिंसैव हि संसारमरावमतसारिणी ॥ ४ ॥ अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनावलिः ॥ भवभ्रमिरुगागना महिंसा परमौषधीः ॥ ५॥ दीर्घमायुः परंरूपमारोग्यं श्लाघनीयता ॥ अहिंसायाः फलं सर्व किमन्यत्कामदैव सा ॥ ६ ॥ अर्थ-अहिंसा मातानी पेठे प्राणि हित करनारी छे. अहिंसाज संसाररुप मरु भूमिमां अमृतनी नदी छे. अहिंसा दुःखरूपी दावाग्निने शान्त करवामां मेघनी पंक्तिरुपे छे अने अहिंसा संसारमा जन्म मरणरूप रोगने टालवामां महौषधी छे. दीर्घ आयुष्य, उत्तम रूप, शरीरमां निरोगीपणुं अने उत्तम कीर्ति ए सर्वे अहिंसाना फल छे, विशेष शुं कहेवू ? अहिंसा तो कामदुघा धेनु छे. इत्यादि अनेक वाक्यो छे. पण लखाणमां लंबाण थवाना भयथी बंध करुं छु. सं १९५० ना भाद्रपद शुदी १२ रविवार. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ ( द्वितीय पत्र. ) रा. रा. प्राणजीवनभाई जगजीवनभाई मेहता. धर्मपुर स्टेट. मोरबीथी ली. शंकरलाल महेश्वरना आशिर्वाद वांचशो. विशेष लखवानुं के गइ काले में मारो अभिप्राय जणावेलो छे. तेमांथी भागवतना चोथा स्कंधनी वात लखवी चूकी गयो हुं. ते ए के प्राचीनबर्हि नामना राजाए अश्वमेध कर्यो हतो, तेने नारदजीए कहुं के जे जे पशुओने यज्ञमां मारेला छे, ते तारी वाट जोइने उभां छे, तेओ तुं मरीश त्यारे तने मुद्गलथी मारशे एम कही पुरंजननुं आख्यान संभळाव्युं के तेणे तारी पेठे घणा यज्ञेो कर्या हता तेथी तेनुं मृत्यु थया पछी तेणे जेजे जीवो यज्ञोमां मार्या हता, तेओ कुवाडा लइने तेंने मारवा उभा रह्या अने तेने नरकोनी पीडा भोगववी पडी हती. एथी यज्ञमां थता पशुवधथी पण नरकमां जनुं पडे छे; तो पछी दशरा जेवा पर्वमां तंत्रमां लखेलां वचनथी करेली हिंसा दुःखदायक केम न थाय ? कालिका पुराण- डामर तंत्र विगेरे तंत्र ग्रन्थोमां दशराना दिवसे नहिं पण नवरात्रीना बलिदानमां लखेल छे के पशुहिंसा सकाम राजाए करवी. पण तेमां सिंह - वाघ - बकरो - पाडो - गाडरनुं बलिदान आपवानुं बताव छेव पोतानुं मांस आपवुं एम लखेल छे. त्यारे कोइ उपरना तंत्रनां वचन आपे तो आपणे पूछवानुं छे के सिंह वाघ बलिदान के नथी आपता ? तेम पोतानुं मांस सर्वथी उत्तम कयुं छे ते केम नथी आपता ? माटे देवीनुं नाम लई अहिंसा पोतानी इच्छाथी करवामां आवे छे तो ते वृथा हिंसा छे. तो तेवी हिंसा बन्ध थवाथी देवी कोपे नहीं पण प्रसन्नज थाय छे. तेम छतां पण देवींनी परम प्रीति माटे शतचंडी विगेरेथी उत्तम आराधना कराववी. में प्रथमना पत्रमां देवीभागवतमां पशुहिंसा नथी एम लख्युं छे. पण आजे फरीने तेने जोतां एक ठेकाणे तेमां पण पशुहिंसा लखी छे. तो पण ते वाक्य सर्वमान्य न गणाय ते वात सिद्ध छे. माटे हिंसा तो बन्धन थवी जोइए. आपणी मोरबीमांज प्रथम पाडो मच्छु माताने चडावता, ने त्यार पछी बकरो चडावता; ते राजमान्य राजेश्री पारेख मोतीचंद रतनसीए ठाकोर साहेबने अरज करी बंध करावेल छे. तेथी हवे इहां तेवं कृत्य नथी ज थतुं तेमज सतपर गाममां दशराना पर्वमा बेटा के ऋण घेटा मारता; ते पण पारेख मोतीचंद रतनसी त्यां जई माताना कोपनुं पोताने माथे लई ते बे घेटाने उपाडी लाव्या, ते दिवसथी, त्यां पण बंन्ध थयेल छे; ने दरबारमां तथा मोतीभाइना घरमां आनंद छे. ते माटे ए पशु हिंसानी रूढी बंध पाडवाथी राजानुं कल्याण छे; ने आपने पण मोंटो यश मळशे. तेज धर्मने उत्तेजन छे माटे ते उपर आपे पण बनती महेनत लेवी . आपने वधारे लखवुं पडे तेम नथी. आ वखते पारेख - लालाभाई मोतीचंद अहिं आव्या छे ते तमने यथायोग कही लखावे छे के आपे आ धर्मनुं काम उपाडयुं ते वात सांभळी अमोने पण पूर्ण संतोष थयेलो छे. ने आपने धन्यवाद आपीए छीए; ने ईश्वर तमारो श्रम सफल करे एम मागीए छीए. शास्त्री शंकरलाल माहेश्वर - मोरबी संस्कृत शालाना अध्यापक. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १२ श्रीमान् धर्मतत्पर आर्यभिमानी रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन मेहेता. ___ चीफ मेडिकल आफीसर. स्वस्थान धरमपूर. भावनगरथी लि. शास्त्री भानुशंकर हरिशंकरना यथायोग्य आशीर्वाद स्वीकारशो. विशेष लखवानुं के अखंड प्रौढप्रतापी आर्यधर्मोत्तेजक अने परमब्रह्मण्य महाराज श्रीमोहनदेवजीनी पवित्र आज्ञाने अनुसारे आफ्ना तरफथी एक प्रश्नपत्रिका मने मली छे, ते मारा वांचवामां आवतां अहिंसाप्रवर्तक वृत्ति जोइ मने घणो हर्ष प्राप्त थयो छे. आजकाल केटलाक सकामी पुरुषोना उत्कृष्ट उपदेशथी प्रवृत्ति मार्गनो प्रचंड वेग घणा राज्यस्थानोमां अंधपरंपराथी प्रवर्तलो छे अने ते रूढीना प्रबल पणाथी एवो सज्जड थई गयो छे के, एकदम ते निर्मूल करवो अशक्य छ तथापि महाराजाना सुविचारथी आवी हिंसा रूढी विनाश थाशे. ए जोइ हुं संतोष पामु छु अने मारी स्वदेश भूमि उपर आवा दयालु महाराजा निरन्तर राज्य करे एवी इच्छा राखं छु. विशेष आपने जणाववानुं के आपना तरफथी जे सात प्रश्नना खुलाशा मागेला छे, तेओनो क्रमवार खुलाशो मने आपणा आर्य ग्रन्थोमा जे जे मारा वाचवामां आव्युं ते प्रमाणे बताववाने में नीचे प्रमाणे लखेलो छे; ते आप ध्यानमा लेशो. जो के आ विषय एटलो गम्भीर अने चर्चवा युक्त छे के जो तेनुं बराबर प्रमाण साथे विवेचन कयु होय तो एक ग्रंथ थाय; अथवा जो मारो ने तमारो प्रत्यक्ष समागम होय तो घणुं सारी रीते स्पष्टीकरण थई शके, तथापि फक्त हार्दने अनुसारे संक्षिप्त करी तेना नीचे प्रमाणे प्रमाणो आपवामां आव्यां छे ते आपने विदित थशे. १ प्रश्रनो उत्तर. पहेला प्रश्नना उत्तरमा लखवारों के महिषादि पशुवध करवानो विधि तांत्रमत प्रमाणे देवी भागवत, कालिकापुराण, कात्यायन तंत्र विगेरेमां कहेलो छे खरो, पण ते फक्त तांत्र पक्षी प्रमाण छे. २ प्रश्ननो उत्तर. बीजा प्रश्नना उत्तरमा लखवानुं के जे ग्रंथमां पशुवध कहेल छे ते ग्रंथो आर्यलोकोमा जे सकामी छे तेने मान्य छे तेथी तांत्रिक पक्षमांन बहु मान्य गणाय पण जेओ निष्कामी अने शुद्ध मार्गानुसारी छे तेओने ए ग्रंथो बिलकुल मान्य गणाता नथी. ३ प्रश्ननो उत्तर. त्रीजा प्रश्नना उत्तरमां ते ग्रंथो करतां घणा बलवत्तर प्रमाणवाला अने हिंसाने निषेध करनारा घणा आर्यग्रंथो केशरीसिंहनी माफक गर्जना करे छे. जेनी पासे सकामीना ग्रंथो जंवूकनी पेठे दूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ नासी जाय छे तेओमां केटला एक उपनिषद् भगवद्गीता अने महाभारतना शान्ति पर्वात्तर्गत मोक्ष धर्ममां तेनुं घणुं सारुं विवेचन करेलुं छे. आमां उपनिषद् भगवद्गीता विगेरेना प्रमाण आपीने जो लखवा बेसीए तो घणो विस्तार थइ जाय पण आ ठेकाणे तेमां घणो उपयोगी मोक्षनो एक विषय धारीने हुं नीचे प्रमाणे प्रमाणो आपुं हुं, के जे प्रमाणो आपणा माहात्मा वेदव्यासना मुख कमळी निकळेल छे. अने जेओनी उपर भारतटीकाकार पंडित नीलकंठे श्रुतिओनां प्रमाणोथी टीकाद्वारा ए अहिंसा धर्मने सिद्ध करेलो छे. अहिंसाने ते प्रतिपादन करे छे. अने तेमां " अनागां " एटले निरपराधी एवं विशेषण आपीने यज्ञ संबन्धी हिंसाविधि करतां अहिंसा विधि श्रेष्ठ छे, एवं साबीत करे छे. कारण के जेतुं मधुपर्कमां गायनुं निरपराधीपणुं छे, तेवुंज यज्ञमां पशुनुं पण निरपराधीपणुं छे. आ उपरथी श्रुतिनो तात्पर्य अहिंसा विधिमा प्रवर्त्ते छे. आवी रीते जुदा जुदा आचारथी श्रुतिनुं तात्पर्य अहिंसा धर्ममां प्रवर्ताव्युं छे. तेवी रीते केटलां एक सकामिक कर्म के जेओ श्रुतिनुं तात्पर्य बराबर समज्या वगर पोतानी अज्ञानताना प्रौढ प्रतापमां तणाइने वेदना अर्थवादोनुं स्तुतिमां तात्पर्य जाण्या शिवाय हिंसाधर्मने प्रमाण करवाने मथे छे तेओनी निंदाने माटे ए पछीना अध्याय २६३ - श्लोके ६ ठामां आ प्रमाणे लखे छे. ॥ श्लोकः ॥ लुब्धैर्वित्तपरैर्ब्रह्म नास्तिकैः संप्रवर्तितम् || वेदवादानविज्ञाय सत्याभास मिवा नृतम् ॥ अर्थ || हे ब्रह्मन् आस्तिक एटले वेदनं प्रमाण बोलनारा पण तेना तात्पर्यने नहिं जाणनारा विषयलंपट एवा लोभी कर्म जेओए वेदमां कहेला अर्थवादोनुं स्तुति मात्रमां तात्पर्य छे एम न जाणी उपरथी सत्य जेवुं लागतुं पण अविद्यामूळक ब्राह्मणत्वादिनो अध्यास प्रबल होवाथी स्वरूपे खोटुं एवं हिंसात्मक कर्म प्रवर्तान्युं छे जेने माटे श्रुतिमां कहें छे के नीहारेण प्रावृता जल्पाचासुतृप उक्थशासञ्चरन्ति ।। अर्थः- जे कर्म जेओ अज्ञानथी छवाएला तथा अर्थवादना वचनाने सत्य मानी पोताना प्राणनुं पोषण करनारा अने कर्मनुं अनुशासन करवामां तत्पर छे. टीकाभिप्रायसहितं तत् ॥ आवी रीते हिंसाने प्रमाण गणनारा सकामी लोकोनी श्रुति ज पोतेज निंदा करे छे. हवे उपरना प्रमाणोथी हिंसात्मक कर्मनी निंदा करीने ब्रह्मयज्ञनुं स्वरूप कहे छे. ॥ अ० २६३ श्लोक ८ ॥ यदेव सुकृतं हव्यं तेन तुष्यन्तिदेवताः नमस्कारेण हविषा, स्वाध्यायै रौषधैस्तथा ॥ पूजा स्यात् देवतानांहि, यथाशास्त्रनिदर्शनम् ॥ अर्थ - सुकृत वडे मेळवेलुं हव्य उत्तम छे अने तेमनाथी देवताओ संतोष पामे छे. ते हवि त्रण प्रकारनुं छे. एक नमस्कार हव्य, बीजुं स्वाध्याय हव्य, त्रीजुं औषध हव्य, आ त्रण प्रकारना हव्यथी जेवा देवताओ संतोष पामे छे तेवो संतोष पशु विगेरे हिंसात्मक द्रव्यथी पामता नथी. अर्थात् नमस्कार हव्य, वेदाध्ययन रूप हव्य, अने व्रीहियवात्मक हव्यथी यज्ञ करवो पण हिंसाथी करवो नहिं . ९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीमहाभारत शान्तिपर्व, मोक्ष धर्म, अ० २६२ श्लो. २८, २९, ३०, ३१, ३३, ३५ नो भावार्थ आ प्रमाणे छे:- तुलाधार अने जाजलानो संवाद चाले छे. तुलाधार जाजली प्रत्ये कहे छे. हे जाजली ! तप करवायी, यज्ञ करवाथी, दान आपवाथी अने ज्ञानोपदेशनां सद्वाक्यो कहेवाथी जे फल प्राप्त थाय छे ते फल प्राणीने अभयदान करवाथी थाय छे. ॥ २८ ॥ जे पुरुष आ लोकमां प्राणीओने अभय दक्षिणा आहे छे ते सर्व यज्ञो. करना जाणवो. ने ते पण अभयपदने पामे छे. ॥ २९ ॥ सर्व प्राणीओनी अहिंसाथी श्रेष्ट बीजो कोइ धर्म नथी. जेनाथी क्यारे पण कोइ प्राणी उद्वेग पामतो नथी. हे महामुनि ! ते सर्व प्राणीथी अभय पामे छे ॥३०॥ घरमा रहेला सर्पथी जेम लोको उद्वेग पामे छे, तेम आ लोकमां अने परलोकमां ते धर्मने पामतो नथी ॥ ३१ ॥ हें जाजली ! सर्व दानमां प्राणीओने जे अभयदान करते उत्तम कहेवाय छे. आ हुं तमने खरेखरूं कहुं हुं. माटे ते उपर तमो विश्वास राखजो ॥ ३२ ॥ हे जाजली ! अहिंसात्मक अने अभयदानरूप जे सुधर्म छे, ते निष्फल नथी. कारण के वेदमां स्वर्गनी प्राप्तीने माटे तथा ब्रह्मनी प्राप्तीने माटे यज्ञादिक अने शमादिकनुं अध्ययन करेलुं छे, पण तेनो तात्पर्य एवोछे के स्वर्गादिक अनेक फलनो आपनार यज्ञादिक स्थूल धर्म छे अने ब्रह्म प्राप्तीना नित्यरूपने आपनार शमादिक जे अहिंसात्मक धर्म छे ते सूक्ष्म छे; माटे उत्तम छे. ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ते अहिंसात्मक धर्म सूक्ष्म होवाथी जाणवो अशक्य छे, कारण के तेने मर्दन करनारा अने सकामिक मतने पृष्ठ करनारा क्रेटलांएक वचनो हिंसाने बोध करनारा आवे छे. सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभते सप्तदशप्रजापतिः । अर्थ :- प्रजापति दैवत्य एवा सत्तर पशुओने जे आलभन करे एटले हिंसा करे ते प्रजापति भावने पामे. आवी रीते केटलांक श्रुतिबोधित विधिना वचनो हिंसाने एक श्रेयनुं साधनरूप उपदेश करी अहिंसा शास्त्रनुं उपमर्दन करे छे. (निषेध करे छे ). आ ठेकाणे शंका करेछे, जो आवा वचनो श्रुतिबोधित होय तो अहिंसा शास्त्र अप्रमाण गणाय. पण ते विधि एकान्त नथी. केम के केवल एक बीजाना आचारो तरफ ज्यारे जोइए छीए त्यारे श्रुतिबोधित अहिंसा धर्म जाणी शकाय छे. जेम के ( उक्षाणं वावेहतं वाक्षदंतं, महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेत् ।। अर्थ-पहेली श्रुतिमां कां छे के बलिवर्ध अथवा गायने हिंसा करे ने पछी नी स्मृतीमां कह्युं छे के कोइ वेदपाठी, अग्निहोत्री घरे आवेल होय त्यारे तेने माटे मोटो बलद अथवा मोटो बकरो मारवो ) आ श्रुति अने स्मृति हिंसानो बोध करे छे. तेवी रीते "मधुपर्क" मां पण गायना आलंभन करवानो एक आचार बतावे छे. पण तेवी रीते बीजी श्रुति पण हिंसारूप आचारथी विरुद्ध अहिंसारूप आचार बतावे छे. जेम के (मागा मनागां यदिति वधि ॥ अर्थ - निरपराधी अदितिरूप गायनो वध करवो नहीं. आवी रीते हिंसाथी विरुद्ध बीजी श्रुति पोतानो सिद्धांत के वेढ़नी विधिथी करे छे खरा पण ते यज्ञो श्रद्धादिकपणाथी रहित होवाथी अयज्ञरूप कहेवाय छे तेथी तेना दांभीक अन्तर्यज्ञ अने बहियज्ञने योग्य गणाता नथी, अने जेओने पुर्ण श्रद्धा छे तेओने तो एक गायथी ज ब्रह्मय्तनी सिद्धि थाय छे. तेने माटे आ प्रमाणे श्रुति छे. सर्वस्मैवा एतद् यज्ञाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृह्यन्ते यधुवायामाज्यं ऐंद्रपयोऽमावास्यायां ऐंद्रं दध्यमावास्थायां आधान प्रकारेख च द्वादश गृहीतेतेनस्रचं पुरवित्वासप्तवत्या पुर्णाहुतिं जुहोति ॥ आ श्रुतिनो पण तात्पर्य एवो छे के गायना दूधयी अने दही वडे करीने पूर्णाहुति करी यज्ञ संपादन करवो. तेमज जे अशक्त छे तेमणे गायना शींगाडाथी अभिषेक, पुच्छथी तर्पण अने पगना रजथी स्पर्श करी यज्ञ संपादन करवो. पण हिंसाथी यज्ञ करवो नहिं. तेमज ते अध्यायना श्लोक ४ मां का छे के-यज्ञना उपयोगी पशुओमां ने पुरोडास छे ते पवित्र यज्ञने योग्य गणाय छे. तेने माटे त्यां आ प्रमाणे श्रुति छे. त एतउत्क्रांतमेधा अमेध्याः पशवः ॥ तस्मादाहु पुरोडाशसं सर्वलोक्थमिति ॥ अर्थ-यज्ञमां विहित जे जे पशुओ छे, ते अपवित्र अने यज्ञने अयोग्य छे. अने जे पुरोडाश छे ते पवित्र अने यज्ञने योग्य छे. माटेन पुरोडाशनो यज्ञ दर्शनीय अने उत्तम छे. तेमन पुरोडाशना यज्ञथी पशुयज्ञनु प्रयोजन सिद्ध थाय छे. तेने माटे आप्रमाणे श्रुति छे ॥ सर्वेषां वा एष पशूनां मेधेन यजते यः पुरोडाशेन यजते ॥ अर्थ-जे पुरुष पुरोडाशथी यज्ञ करे छे. ते पुरुष अश्व, अनादिक पशुओथी थनारा यज्ञ ( अश्वमेधादिक ) ने करनारा गणाय छे. आ उपरथी कदापि कोइ शंका करशे के पशुयज्ञ पण वेदमां छे खरो, पण तेना समाधानमां एम समजवानुं छे के पशु यज्ञना विधिने कहेनारी श्रतिओ तेना निषेधनी श्रति आगळ गौण थइ जाय छे अने तेओना प्रबल प्रमाणोथी आखर हिंसा विधिनी श्रतिओने निर्बल थावं पडे छे छेवटे आपणा आर्यधर्मना सर्वकर्मशिरोमणी अहिंसाधर्मनो विनय थाय छे. ___ वली अहिंसाने माटे प्रतिपादन करनारी एक कठउपनिषद्नी श्रुति आ प्रमाणे छे ॥ प्लवाद्येते अदढायज्ञरूपा अष्टादशोक्त मवरं येषु कर्म एतच्छ्रेयोयेऽभिनंदन्ति मूढाजरामृत्युंते पुनरवापी यन्ति ॥ अर्थ ॥ पशु हिंसामय यज्ञरूपी ए वहाणो दृढ नथी. जेमां सोल ऋत्विज् अने बे दंपती मली अढारनुं अवश्य कर्म छे. तेने जे श्रेय मानी वखाणे छे. ते मूढ लोको वारंवार फरीथी जरा मृत्युने पाम्या करेछे आ श्रुतिथी पण अहिंसा सिद्ध थाय छे. __ आ गंभीर विषयनी चर्चाने माटे बीना केटलाएक बलवत्तर प्रमाणो आ ठेकाणे आपवा योग्य छे. पण विस्तारना भयथी अने वखतना संकोचथी आटलेथीज आपना त्रीजा प्रश्ननो उत्तर समाप्त करवो पड्यो छे. ____ ४ चोथा प्रश्नना उत्तरमां लखवानुं के कोइ पण शास्त्रमा राजाने अवश्य हिंसा कर्तव्यज छे. अने जो न करे तो अमुक प्रायश्चित छे. तेवू प्रमाण जोवामां आवतुं नथी ते छतां कदापि सकामी थइ तेवा कर्म करवा प्रवते पण तेवा सकामीना कर्मने माटे श्रुति, स्मृति अने पुराणोना तात्पर्यार्थ जोतां सकामी कर्मने धिक्कारेला छे; माटे तेम नहीं करवाथी कोइ पण बळवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाशे नहीं. सकामीना कर्मने माटे भगवद्गीतामां बीजा अध्यायमां श्लोक ४१-४२-४३-४४ मां तेनुं विवेचन करेलुं छे. तेमन श्रीमद्भागवतमां लोके विवाया० ए एकादश स्कंधमां पण बताव्युं छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पांचमा प्रश्नना उत्तरमा लखवान के हिंसानी प्रवृति न करवाथी राज्य तथा प्रनामां आपत्तिओ आवे अथवा अकार्य कर्यु कहेवाय तेवु कोइ बळवान् शास्त्रमा जोवामां आव्युं नथी. ६ छठ्ठा प्रश्नना उत्तरमा लखवानु के-कदापि सकामीपणाथी के रूढीना बलथी तेवू हिंसा कर्म कर, होय तो तेने बदले पिष्ठपशु अथवा कूष्मांड (कोढुं )नो बलि विगेरे कर्याथी तेवी क्रियानो भंग थतो नथी अने ते क्रिया संपूर्ण गणाय छे तेने माटे निर्णयसिंधुमां" आ प्रमाणे श्लोक छे. कूष्मांड मिक्षुदंडं च मांस सारस मेव च ॥ एते बलिसमाः प्रोक्ता स्तृप्तौ छाग समाः सदा ॥ १ ॥ अर्थ-कूष्मांड ( कोलुं) शेरडी, सारसपक्षीनु मांस ए पशुबलिना जेवा गणाय छे अने तेथी बकराना जेवी देवताने तृप्ति थाय छे. रुद्रयामल नामना ग्रंथमां पण का छे के छागाभावेतु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरम् ॥ वस्त्रसंवेष्टितंकृत्वा छेदयेत् च्छुरिकादिना ॥ २ ॥ अर्थ-जो पशुनो अभाव होय तो कूष्मांड अथवा सुंदर एवा श्रीफलने वस्त्रथी वीटीने छरी विगेरे शस्त्रथी छेदन करवू. ॥ २ ॥ आवो विधि पण ते ग्रंथोमां लखेलो छे.-धर्मसिन्धुमा पशुवध करवाने माटे कयुं छे. पण जो राजा सकाम होय तो करे पण बीजाने करवानी जरुर नथी, एवं सूचवे छे अने ते उपरथी एम सिद्धान्त थाय छे के सर्व कर्मों पशुवध विना पुरोडाशादिकथी संपादन करवा अने तेम करवामां आपणा सर्वप्रमाण शिरोमणिरूप श्रुति ग्रन्थोनो उत्तम तात्पर्य पराकाष्टाने पहोंचे छे. __ ७ सातमा प्रश्नना उत्तरमा लखवानुं के पशुना कान के नाक कापीने छुटो मुकतां ते क्रिया पूर्ण थइ कहेवाय तेवु कोइ आर्यग्रंथमां जोवामां आव्यु नथी. ___ आवी रीते आपना सात प्रश्ननो खुलाशो अमारा तरफथी आपनी तरफ मोकल्यो छे. तेनी साथे एकंदर अमारो अभिप्राय एवो छे के आर्यशास्त्रना कोइ पण ग्रंथमां केवल निन्दितकर्म करवानो विधि लखेलोज नथी. कदापि लखेलो होय तो ते तांत्रमत प्रमाणे पूर्वापर विरोध करनारा तेनां वचनो परस्पर गौणता करवामां तत्पर थाय छे. पण छेवटे आपणा आर्यधर्मनो अहिंसात्मक सिद्धान्त बलवत्तर थाय छे अने ते प्रवृत्ति मार्गनो शुद्ध उपदेश करी निवृत्तिमार्गमा दोरी जवाने प्रयत्न करे छे. एज आपणो सनातन मार्ग सर्वमां प्रमाणभूत छे. सर्वने मान्य छे अने अति आदरवा योग्य छे. हुं आशा राखं छु के आवा हिंसात्मक मार्गनी क्रिया दूर करी आर्योना उत्तम मार्गर्नु अवलंबन करीने आपणा दयालु महाराजा आवा उत्तम सन्मार्गनुं ग्रहण करशे एन. तथास्तु॥ शास्त्री भानुशंकर हरिशंकर सही. भावनगर दरबारी पाठशाळाना मुख्यगुरु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १३ ॐ परमात्मने नमः श्रीयुत, स्वधर्मनिष्ठ, राज्यमान्य राजेश्री प्राणजीवनदास जगजीवनदास महेता. चीफ मेडिकल ओफीसर. स्वस्थान धर्मपुर. विशेष लखवानुं के गइ ता. ११-९-९४ ने रोज आपना तरफथी मुद्रांकित करेली सात प्रश्ननी पत्रिका अमारी तरफ आवी छे. तेमां लखेली बिना अमारा जाणवामां आवी छे. आ संबन्धमां आपना महाराजा श्रीमोहनदेवजीना पवित्र अने स्तुत्य विचारने अमे धन्यवाद आपीए छी. केटलाएक धर्मना नामथी चालता अपवित्र रीवाजो के जे आपणा प्राचीन आर्यधर्मने कलंकित करे छे. तेना संबन्धमां आपना धर्मिष्ट महाराजाए एक स्तुत्य पगलुं भर्यु छे एम निःशंक कही शकाय छे. जेवी रीते महाराजाना पवित्र विचार तेमनी धार्मिक मनोवृत्तिमां उत्पन्न थयेला छे. तेनी साथे आपना जेवा दयावान् धार्मिक पुरुषे तेमना विचारने पुष्टी करी टेको आप्यो छे ते एक आपनी पवित्र फरज पूर्ण अंशे सफल थइ एम मानीए छीए. आपना जे सात प्रश्नो आवेला छे; तेओना खुलासा अनुक्रमे जे जे आर्य ग्रंथो जोवामां आव्या छें. तेमांथी वांची तपासीने अमे नीचे प्रमाणे क्रमवार आपीए छीए; ते आप ध्यानमां लेशो. १ आपना पहेला प्रश्नना जवाबमां लखवानुं के, देवीना बलीदानने माटे पशुहिंसा करवामां आवे छे, ते बाबत भविष्यपुराण, निर्णयामृत, हेमाद्रि, विगेरेमा केटलाएक तांत्रमत ग्रन्थोना प्रमाणो, आपेला छे अने ते बलिदानना अंगमां गणेला छे. ए बलिदानना दरेक उपचारना मंत्रो " विष्णु धर्मोत्तर" नामना ग्रन्थमां आवेला छे. तेओने कालिकापुराण, तथा देवीभागवत, तांत्र पक्षी पुष्ट आपे छे. पण ते एकपक्षी होवाथी सार्वजनिक प्रमाणमां गणाय नहीं. २ बीजा प्रश्नना जबाबमां लखवानुं के जे ग्रंथोमां पशुनुं बलिदान करवाने लख्युं छे. ते ग्रन्थ तांत्र पक्षी पुष्टि करे छे अने तेना ते ग्रंथो पाछा बीजा पक्षथी तेनो निषेध करवाने पोताना प्रमाणो आपे छे. अथवा तेना बदलामां बीजो विधि बतावी ते पक्ष निर्मूल करे छे. आथी जो के ते ग्रंथो आर्य लोकोमां मान्यतो गणाय. पण हिंसाने माटे तामसी क्रियानुं नाम आपी तेने तिरस्कार करी वर्त्तनारा मोटा बळवत्तर ग्रंथो आगल तेओनी गौणता थइ शके खरी अने तेथी ज तेओने बहुमान्य गणवामां सारा विद्वानोने आंचको खावो पडे छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ३ त्रीजा प्रश्नना जवाबमां लखचानुं के - ते शास्त्र करतां हिंसाने निषेध करनारा बीजा बलवान् शास्त्रना ग्रन्थो घृणा छे. तेमां एवीरीते हिंसानो निषेध कर्यो छे के जेथी फरीने हिंसात्मक क्रिया उज्जीवन थइ शकेज नहीं. ते ग्रन्थो मांहेला जो अत्यारे प्रमाणो आपवा बेसीए तो एक मोटो ग्रन्थ भराय तथापि केटलोएक संक्षिप्त सार नीचे प्रमाणे आएं हूं. हिंसानो निषेध करनारा ग्रन्थोमां वेदना उपनिषदों, भगवद्गीता, श्री महाभारतनो मोक्षधर्म इत्यादि घणा ग्रन्थो मुख्य मुख्य गणाय छे. - तेमां उपनिषद् अने भगवद्गीता निवृत्तिमार्गनो आश्रय लइने सकामी पुरुषोनी कर्म निमित्त हिंसानो निषेध करे छे-मोक्षधर्ममां अध्याय २६२ मां श्लोक २८, २९, ३१, ३२।३३।३५।३६—–आटला श्लोकोमां तुलाधार अने जाजलिना संवादमां श्रुतिना प्रमाण साथै हिंसा कर्मनो निषेध घणी सारी युक्तिथी कहेलो छे. प्रथम अभयदाननुं महात्म्य वर्णवी हिंसा बोध करनारी श्रुतिओने तोडवाने माटे नीजी श्रुतिओ आपीने आपणा सर्व मान्य अहिंसा धर्म प्रतिपादन करेलो छे. मोक्षधर्मना अध्याय ६३ ना श्लोक ६ मां हिंसा करनारा अज्ञानी कर्मठीओनी निंदा करी छे. अने ते पछी श्लोक ८ आठमामां - यज्ञनुं प्रवित्र हव्य नमस्कारात्मक, स्वाध्यायात्मक अने औषधात्मक, एवा त्रण भेदथी बतावी ते हव्यथी यज्ञ करवो पण पशुरूप हव्यथी नहीं एम साबित करेलुं छे. ते पछी श्लोक ३८ मामां श्रद्धाथी थतो यज्ञ ते यज्ञ कहेवाय नहीं पण अयज्ञ छे, एम बतावी एक गायथीज बधी क्रिया पूर्णताने पामे छे-तेवं श्रुतिनुं प्रमाण आपीने ग्रन्थकर्ता हिंसाना यज्ञनो निषेध बतावे छे. त्यारपछीना श्लोक ४० मां यज्ञना करतां पुरोडाश पवित्र छे, एम श्रुतिथी सिद्ध करी पोताना अहिंसात्मक सिद्धान्तने ग्रन्थकर्ता प्रगट करे छे. आवा हिंसाने निषेध करनारा सेंकडो ग्रन्थो आर्य तनुजोने एवा निंदित कर्मथी वारवाने पोताना प्रमाणोथी पोकार कर्या करे छे तथापि दांभिक कर्मठीओ समजता नथी. कदापि कोइ शंका करशे के श्रुतिओमां हिंसा पण छे खरी अने निषेध पण छे. त्यारे कई वात मानवी ? त्यारे तेना समाधानमां जणाववानुं के जे जे वाक्यो हिंसानो निषेध करवामां घणां बळवान छे, तेओनो पक्ष ग्रहण करवो, कारण के कदापि सकामी लोकोने माटे तांत्र मतथी तेवां वाक्य होय तेथी शुं ते मुख्य गणाय ? अथवा स्वीकारवा योग्य गणाय ? अर्थात नहीं गणाय. माटे सर्वने अहिंसात्मक ग्रंथोना प्रमाण एक देशी छे तेम अवश्य मानवं जोइए. महात्मा वेदव्यास जे आर्य पुराणोना कर्ता अने परमात्माना अंशावतारी कहेवाय छे, तेओए पोताना रचेला सेकडो ग्रन्थोमां हिंसानो निषेध कर्यो छे. आ विषय उपर जो विशेष चर्चा करवा धारीए तो एक मोटो ग्रन्थ थाय पण आ वखते विस्तारना भयथी अने वखतना संकोचथी आ त्रीजा प्रश्नना उत्तरमां आटलेथीज विराम पामीए छीए. ४ प्रश्रना उत्तरमां लखवानुं के राजाओने ते कर्म अवश्य कर्तव्य छे अने ते न करवामां आवे तो बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय एवं कोइ पण आर्य ग्रन्थमां निकलतुं नथी. आवा हिंसात्मक कर्म करवाने कोइपण आर्यना पूज्य ग्रन्थ फरज पाडे नहीं अने जे निर्णसिन्धुमां तांत्र मतथी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवामां आवे छे ते कर्तव्य तरीके नथी, पण एक जातनी सकामी क्रिया छे एम बतावे छे. कारण के धर्मसिन्धुमां बलिदानना प्रकारमा तेवी क्रिया करनारने सकाम एबुं विशेषण आपीने करवाने कयं छे. जे सकामीनी क्रिया छे ते आपणा श्रुति अने पुराणोथी निंदित थएली छे. ५ पांचमा प्रश्नना उत्तरमा लखवानुं के हिंसानी प्रवृत्ति न करवामां आवे तो तेथी राज्यने के प्रजाने काइ पण आपत्ति आवे तेवु कोइ आर्य ग्रन्थोमां जोवामां नथी आवतुं पण उलटुं एम जोवामां आवे छे के जेना देशमां हिंसा थाय ते देश दुर्भिक्ष विगेरेनी पीडाथी पीडाय छे जेनुं आ प्रमाण छे. यस्मिन्देशे भवेडिसा, या पशूनामनागसाम् ॥ स दुर्भिक्षादिभिर्नित्यं, नश्येच्चोपद्रवैस्तथा ॥ १ ॥ अर्थ-जे देशमां निरपराधी प्राणीओनी हिंसा थाय ते देश दुर्भिक्ष (दुकाल) विगेरे उपद्रवोथी नाश थइ जाय छे. आवा केटलाएक प्रमाणो एथी विपरीत रीते मले छे. पण जो हिंसा न करवामां आवे तो देशमा विपत्ति थाय तेवा प्रमाणो मळता नथी. ६ छठ्ठा प्रश्नना उत्तरमा लखवानु के-कदापि जो ते हिंसाने बदले बीजी क्रिया करवी होय तो ते कालिकापुराणमां आ प्रमाणे लखेल छे. कूष्मांडमिक्षुदंडं च मांसं सारस मेव च ॥ एते बलिसमाः प्रोक्ता स्तृप्तौ छागसमाः सदा ॥ १ ॥ अर्थ-जो पशुनी हिंसा न करवी होय तो तेने बदले कुष्मांड ( कोलां ) शेलडी, अने सारस पक्षीनुं मांस, एटला पदार्थो बलिदान समान छे. अने तेथी देवताने बकराना बलिदान जेवी तृप्ति थाय छे. ॥ १॥ ए प्रमाणे “ रुद्रयामल" नामना ग्रन्थमां पण कर्तुं छे के छागाभावे तु कूष्मांडं, श्रीफलं वा मनोहरम् ॥ वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना ॥२॥ अर्थ-जो पशुनो अभाव होय तो तेने बदले कुष्मांड (कोल) अथवा सुंदर श्रीफल लेवू तेने वस्त्रथी वीटालीने छरी विगेरेथी छेदन करवू ॥२॥ आ बे श्लोकमां तांत्रमत प्रमाणे तेना बदलामा विधि करवाने छे. ते शिवाय कोइ ग्रन्थमां पिष्टपशु करवाने माटे पण कहेलं नथी. एथी एम पण सिद्ध थाय छे के कदापि कोइ मतथी के कालना योगथी आर्योना पवित्र वेदादि ग्रन्थोमां हिंसानो प्रचार दाखल थयेलो छे, पण पाछलथी केटलाएक कुशाग्रमतिवाला पंडितोने निंदित कर्म उपर तिरस्कार उत्पन्न थएलो अने तेथी तेओए आवा विधिने बदले बीना विधि करवानो उपदेश करेलो जणाय छे. ___७ सातमा प्रश्नना उत्तरमा लखवानू के पशु वध करवाने बदले. तेना नाक कान कापवानो विधि कोइ पण ठेकाणे जोवामां आवतो नथी अने तेथी ते क्रिया पूर्ण थइ गणाय तेवू पण मारा वांचवामां आव्युं नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ विशेष विवेचन आपना सात प्रश्नोनो उत्तर अमारा जाणवा प्रमाणे आवी रीते आपेलो छे. ते उपरथी अमारो तात्पर्यार्थ एवो छे के कोइ पण क्रियामां हिंसात्मक कर्म कर नहीं - - आपणा आर्य वेदो अने आर्य पुराणो. तेने माटे पोतानां सबल प्रमाणोथी पोकार करीने कहे छे. अने आ भारती प्रजाने क्षणे क्षणे अने पदे, पदे एवो उपदेश आपेलो छे के हे आर्य पुत्रो ! तमो आर्यना पवित्र मार्गे चालजो अने जेम तमारी आर्यता उज्वल रीते शोभे तेम आर्यपणाना उत्तम लक्षणो धारण करजो जे लक्षणो आपणा महात्मा मनु पोतानी स्मृतिमा आप्रमाणे आपेछे. अहिंसा सत्यमस्तेयं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः || दानं दमो दया शान्तिः सर्वेषां धर्म साधनम् ॥ अर्थ-अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी ते, प्रवित्रता, इंद्रिओने कबजे राखवी अने क्षमा ए सर्वे धर्मनां साधन छे. आचाराध्याय || श्लोक १२२ ॥ आ प्रमाणे सर्व स्मृतिकारोनो पण अहिंसाने माटे एक सिद्धान्त जोवामां आवे छे. जो के पशु हिंसानो यज्ञ एक पक्षथी विहित हशे, पण तेने माटे कठोपनिषद्नी श्रुतिमां आ प्रमाणे छे. प्लवाह्येते अदृढा अज्ञरुपा अष्टादशोद्यमवरं येषु कर्म एतच्छ्रेयो येऽभिनंदति मूढानरा मृत्युन्ते पुनरे वापियन्ति ।। अर्थः-पशु हिंसामय यज्ञरुपि ए वहाण मजबुत नथी जेमां सोळ ऋत्विज अने बे दर्भपति मळी अढारनुं अवश्य कर्म छे. ए कर्मने जेओ श्रेयमानी वखाणे छे, ते मूढ लोको वारंवार जरामृत्युने पाम्या करे छे. आवी रीते आ उपनिषद्नी श्रुति पण आपणा अहिंसात्मक धर्मनेज प्रतिपादन करे छे. आ विषयमां जेटलुं बोलीए तेटलुं थोडुं छे.पण हवे आपणे प्रस्तुत उपर विचार करीए . आपणा महाराजा जे प्रतिवर्ष दशराने दिवसे पशुनुं बलिदान आपता हशे पण ते कोइ विधिथी अपातुं नहीं होय कदापि आपणे तांत्रमत प्रमाणे पशुनु बळिदान करवानो विधि स्वीकारीए पण ते हालमां कोई ठेकाणे विधिथी अपातो नथी. ते तो फक्त नीच लोको भुवाना ढोंग उपरथी पशुने जेम जेम मारी नांखे छे, पण तेमां कोई जातनी मांत्रिक क्रिया करवामां आवती नथी. माटे अविधिथी हणेलो पशु यजमानने केतुं नठारुं फळ आपे छेतेने माटे आचाराध्यायमां महात्मा मनु लखे छे के वसेत् सनरकेघोरे दिनानि पशुरोमभिः । संमितानि दुराचारोयो हन्त्य विधिना पशून् ॥ अर्थ:- जे दुराचारी - विधि विना केवल नकामो पशु मारे छे ते पशुना जेटला दिवसो सुधि घोर नरकमां पडे छे. तेमज बीजुं पण प्रमाण छे के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावन्ति पशुरोमाणि तावत् कृत्वोह मारणम् । वृथा पशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ आ स्मृतिनो अर्थ उपर प्रमाणे ज छे. माटे कदापि पशु वधनो विधि स्वीकार करतां पण ते काम विधि पूर्वक न थवाथी यजमानने मोटुं प्रायश्चित प्राप्त थाय छे. ते पक्षे जोतां पण बिजया दशमी उपर पशु बध करवानी जरूर नथी. आवी रीते बने पक्षे पण हिंसानो पराभव थाय छे अने आपणा अहिंसात्मक धर्मनो विजय थाय छे. हुं आशा राखं छु के उपरना सिद्धान्तने अनुसरी धर्मपुरना धर्मिष्ट महाराजा आ अधर्मनी प्रवृ. त्तिनो अटकाव करशे अने पोताना प्रतापी सूर्यवंशनो आद्य धर्म जे अहिंसा तेने स्वीकार करशे. अने तेथी आवा घोर अने भयंकर घामाथी बचेला पामर पशुओनां अन्तःकरणनी आशिषोनी वृष्टिओ महाराजानी उपर वर्ष्या करशे. ॥ तथास्तु ॥ ली. शास्त्री नर्मदाशंकर दामोदर अध्यापक मु. भावनगर. १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.१४ शास्त्री विश्वनाथ नारायणजीनो अभिप्राय. श्रीधर्मपुर राज्यना चीफ मेडीकल ओफीसर साहेब. मु. धरमपुर. भावनगरथी ली. जोशी. विश्वनाथ नारायणजीना आशीर्वाद फुरसद वखते मान्य करशो बाद लखवानुं के आपना महाराजा श्री मोहनदेवजी तरफथी जे वर्तमान पत्रमां हिंसा बाबत सात प्रश्नो फूछयामां आव्या छे; तेमा उत्तरो हुं मारी यथा मतिथी लखु छु ते आप स्वीकारशो. ___ चालु समयमा बलेव, दशरा विगेरे तहेवारो उपर बलीदानवें कही जीवनो भोग आपवामां आवे छे ते बाबत शोधन करतां प्राचीन वखतमा चालता आवेला एक रिवाज अनुसार थतुं देखाय छे, अने ते रिवाज केटलीएक लोक रुढीने अनुसरीने अथवा देवीमतने अनुसरीने दाखल थएलो छे एम लागे छे. पण ते आर्योए मंजुर राखेल शास्त्र अनुसार नथी. देवीमतना शास्त्रो शिवाय बलेव उपर जीवहिंसानो भोग आपवो एवं कोइ शास्त्रमा छे नहीं एटलुंन नहीं पण केटलेक ठेकाणे तो राजा रजवाडामां पण ए रीवाज जणातो नथी पण दशरा वगेरे तहेवारना दिवसोमां जे भोग आपवामां आवे छे ते भोग देवीमतने अनुसरी ने आपवानो रीवाज पडेलो जणाय छे. देवीमतमां पण आ तेहेवार उपर भोग आपवोज जोइए एवं खास करीने नथी; पण पूजानी साथे देवीमतने अनुसरतो होय तो ते शास्त्रमा बतावेल क्रम प्रमाणेनी विधिए करवामां आवे तो मात्र एक ए देवीमतने एकदेशी मान्य छे अने जोइए छीए तो एक देशी प्रमाणे पण विधि अनुसार कशुं थतुं नथी. देवीमतना शास्त्रोमां देवी भागवत अने देवीरहस्य नामना जे पुस्तको छे ते सर्वदेशी नथी, एटलुंज नहीं पण ते शास्त्र प्रमाणे ते देशी मतवाळाए दीक्षा लईने ए काम की) होय अने ते पण पूजन विगेरे क्रियाथी की, होय तोज ते देशी प्रमाणे यथायोग्य गणाय. चालु काळमाए देशीनुं प्रमाण निर्बळ मनायलं छे अने जोइए छीए तो ते पण अनादिथी निर्बल छे–एके कीधुं ते प्रमाणे बीजाए पछवाडे पगढुं भरेलुं छे पण ए वगरक्रियाए गाडरीया प्रवाह (बकराना टोला)नी माफक भोग आपवानो जणाय छे. वली केटलाक शास्त्रथी एम पण जणाएलु छे के असलना वखतमा लडाइ एकाएक उठती ते वखते लडाइमां जवा सारु मूहुर्त विगेरे जोवु ते एकाएक उठती लडाइने लीधे जोइ नहीं सकातुं होवाथी दशरानो तेहवार जोके मुहूर्त तरीकेना प्रस्थाना मूकवा जेवो छे, एटले ते शुभ दिवस मूहुर्त लेवानो छे. नीचेना शास्त्रमा पण जीव हिंसाना बलीदाननू कडूं कहेल नथी. पण प्रस्थाना तरीके सीमाडे खीनडीपूजन करवा जq एवो नियम छे. जुओ रुद्रयामल, धर्मसिन्धु, निर्णयसिन्धु, महाभारत, आ शास्त्रमा उपर प्रमाणे कहेलु छे. पण तेना घणा श्लोको होवाथी वखत टुंको होवाने लीधे अत्रे दाखल करी शक्यो नथी. सर्व देशी शास्त्रो ए के जे सर्व देशीओमां मंजुर रहेल छे. ते शास्त्रोथी जीव हिंसा न करवी एम ठरावेलुं छे. वलीदेवीमत प्रमाणे पण क्रियावगर काम हिंसारूप ठरावेलुं छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ सर्व देशीओए मंजुर राखेल शास्त्रो जेवाके धर्म शास्त्र ( पाराशरी के जेनुं वचन कलियुगमां प्राधान्य छे ) मां हिंसा करवा माटे नीचे प्रमाणे दर्शावेल छे. कलौ पाराशरी स्मृतिः (बृहत् पाराशरी) । यस्तु प्राणिवधं कृत्वा देवापितूंश्च तर्पयेत् ॥ सो विद्वांचंदनंदग्ध्वा कुर्या दंगारलेपनम् ॥ १ ॥ वेद ब्राह्मण नामना शास्त्रमां जीव हिंसा नहीं करवा माटे नीचे प्रमाणे कहे छे - तैतर ॥ उत्क्रांन्त मेधा अमेधा पशव स्तस्मादेतेषां नानियातमस्या मनवगछन् सोनुगतो ब्रीहि रन्नवधप्तशौ पुरोडाश मनु निवपन्ति समेधने पशुने क्षमत देवे || पशुने अपवित्र गणी यज्ञकार्ये पशु मारवा हिंसा न करवी. मनुस्मृतिमां पण नीचे प्रमाणे जीव हिंसा करवानो निषेध छे. ॥ श्लोकः ॥ नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते कचित् न च प्राणिवधरस्वर्ग्यस्तस्माद्धिंसां विवर्जयेत् ॥ आ शिवाय बीजा धर्म शास्त्रोना पुस्तकोमां पण || अहिंसा परमोधर्मः ॥ हिंसा न करवी एज मोटो धर्म छे–एम ठेकाणे ठेकाणे कहेलुं छे. बली महाभारत जेवा शास्त्रने धर्मशास्त्रनी पंक्तिमां गणे छे अने तेथी ते शास्त्र ने पांचमो वेद कहे छे. जेथी ते बहु बलवान् शास्त्रो छे. तेमां पण जुबो हिंसा नहिं करवानुं नीचे प्रमाणे छे अहिंसा लक्षणो धर्मो हिंसा चाधर्म लक्षणम् शिव वचनेअनुदानं निषिद्धस्य त्यागो विहितकर्मणां ॥ प्राणातिपातनं स्तैन्यं परदारमथापि च । त्रीणि पापानि कायेन सर्वतः परिवर्जयेत् ॥ स्मृत्युक्तं ।। पापस्य पुरुषे क्लृपोनु वर्तिव्यं "यथा" नाधर्मश्वरितो राजन् सद्यः फलति गौरिख, शने रावर्त्तमानस्तु कुलान्यपि निकृंतति पापेनात्मनि मित्रेषु नचेत् पुत्रेषु भृत्येषु पापमा चरीत कर्मावर्ग मनुवर्तते कलेत्ययं घाषंमुरुं भूतगमी वायरो ॥ आवी रीते हिंसा न करवानुं भारतमां ठेकाणे ठेकाणे कहेलुं छे. वली भागवतमां कहेलुं छे के || येत्वनेवंविदो ऽसंतस्तब्धाः सदभिमानिनः पशून् दुह्यंति विख्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् ॥ १ ॥ वळी कधुं छे के “द्विशंते परकायेषु स्वात्मानं हतमीश्वरं " ॥ दरेक कार्यमा आत्मरूप भगवान एक छे - एम जाणी हिंसा न करवी एवं पण वाक्य सुप्रसिद्ध छे. ए रीतेना शास्त्रो बगेरेनो विचार करतां जे रुढ़ीए जीव हिंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৩৭ करवामां आवे छे ते शास्त्रप्रमाण नथी. तेमन ज्ञान द्रष्टीए जोतां अने तत्वज्ञाननी फिलसुफीना शास्त्रो जोतांजणाय छे के सर्व प्राणीओ साथे आत्मवध एटले जीवहिंसा निषेध छे. एवी घातकी रूढी ज्ञानना प्रसार आगळ दूर थवी हरकोइ मनुष्य प्राणी उत्तम मानशे. आ सर्वे उपरथी पूछेला प्रश्नोना टुंकामां उत्तर ए छे के: १-देवी मतना रुद्रयामळना उत्तर खंडमां देवीचरीत्रना विधानमां लख्यु छे के सर्व ऋतुना नवरात्रीना अंगे क्रिया प्रमाणे पूजा करी बलीदान आपवू पण उपर कह्या प्रमाणे दशराके बलेवना दिवसोंर्नु छ ज नहीं. २-ए सर्वे देवी मतना ग्रन्थो आर्य लोकोमा सर्व मान्य गणाता नथी. मात्र देवीमतमान्य छे, ते प्रमाणे पूजनथी अथवा पूजन शिवाय जे हिंसा करवी ते हिंसा रूपज गणाय. ३-कारणके ते शास्त्र करतां उपर देखाडेल धर्म शास्त्रो वधारे बलवान् छे. वली धर्मशास्त्रमा कहेलुं छे ते नीचे श्लोक छे. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिंद्रियनिग्रहः। दानं दया दमः शान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ अहिंसा (प्राणीने न हणवां ते), सत्य, अस्तेय (चोरी न करवी), शौच, इंद्रियनिग्रह, दान, तथा शांति ए तमाम सर्व धर्मनां साधन छे. तो आ श्लोक उपरथी हिंसा न करवी तेम सिद्ध थाय छे. ४ राजाओने जीव हिंसानुं कर्तव्य अवश्य छेज एवं कोइ पण शास्त्रमा प्रमाण नथी. तेम न करवाने लीधे कोइ शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय नहीं. ५-उपर प्रमाणे कोइ बलवान् शास्त्रनी आज्ञा जीव हिंसाने माटे नथी अने निषेध करेल छे. तो तेन करवाने अंगे कोइ प्रकारनो आपत्तीयोग होयज नहीं, पण जीव हिंसा न करवाथी पुण्य मनाएटुं छे जेथी पुण्यने लीधे आपत्तीयोग बीजा कोइ सबबने लीधे होय तो ते दूरज थाय. ६-कोइ बलवान् शास्त्रनी आज्ञा जीव हिंसा नहीं करवाथी तोडेली गणाती नथी, पण दशराने दिवसे जे क्रिया करवानी छे ते पण हिंसा रहितनी छे, अने ते उपर देखाडेल देवीमतना रुद्रयामलना उत्तरखंडे देवी चरित्रमा बताव्युं छे. ७-जवाबमां एटलुंज लखवानुं के ते दिवसनी विधीमां भोग आपवानो नथी त्यारे ते माटे वधारे लखवानुं नथी. अमारी पासे हिंसा न करवी एवां घणां वचनो छे, तेमां आपने केटलाक उपर लखी जणान्या छे. तथापि कोइ प्रसंगे वैदिक तथा देव पूजनादिक क्रियाओमां बलीदान अर्थेज ने हिंसा करवामां आवे छे तेवा बहु वचनो बताववा करतां उभय मतथी संशय दूर करवो ए वधारे उचित छे. एम धारी टुंकामां सशास्त्र प्रमाणे मतनो खोटो वहेम दूर करवो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर जणावेला कर्मग्रन्थोमां बलेव, दशरा वगेरे तेहेंवार दीवसे राजाओए केवी क्रियाओ करवी तेनी वीगत नीचे प्रमाणे छे. ७७ ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्योए बलेवने दिवसे विश्नु तथा सप्तऋषीनुं पूजन विगेरे क्रियाओ करी, नूतन उपवीत धारण करी दान पूजन करवुं ए ए दिवसनुं कर्म छे. हालना समयमां ब्राह्मण शिवाय क्षत्रिय के वैश्य जनोइ धारण करता नथी, पण कोइ देशभां तेओ पण उपवीत धारण करेछे. तो जे धारण करे तेणे बतावेल क्रियाओ करवी, पण राजाओए ते दिवसे अमुक हिंसा करवी एवं कोइ ग्रन्थमां नथी, छतां राज्यमां उपर जणावेला दिवसोमां पशुवध करवामां आवे छे ते उभय शास्त्रोंना वचनथी विरुद्ध छे. माटे आविषे वधु विवेचन करवा जरुर नथी, पण दशराने दिवसे अमुक विधि करवो तेम उपर जणावेळा कर्म ग्रन्थोमां छे. अलंकृती भूषितभृत्यवर्गः वाजित्रनादप्रतिनादिताशः ॥ सुमंगलाचारपरंपराशीः, निर्गत्य राजा भवनात् स्वकीयात् ॥ १ ॥ , राजा निर्गत्य भवनात्, पुरोहित पुरोगमः प्रस्थानक विधिं कृत्वा, प्रतस्थे पूर्वतो दिशि ॥ गत्वा नगरसीमान्तं, वास्तुपूजां समाचरेत् । संपूज्य चाथ दिक्पालान, पूजयेच्चान्यदेवताः ॥ मंत्रैर्वैदिकपुराणैः पूजयेच्चशर्मितरुं । पूज्यान् द्विजांश्च संपूज्य संवत्सरपुरोहितौ ॥ गजवाजिपदातीनां प्रेक्षाकौतुक माचरेत् । जयमंगलशब्देन, ततः स्वभवनं विशेत् । यएवं कुरुते राजा वर्षे वर्षे सुमंगलं ॥ आयुरारोग्यमैश्वर्य विजयं च दिने ॥ नाधयो व्याधयस्तस्य भवन्ति न पराजयः । श्रियं पुण्यमवाप्नोति विजयं च सदा भुवि ॥ • आ प्रमाणे राजाओए विजया दशमीने दिवसे आटलीज क्रियाओ करवी एम वेदना गोपथ ब्राह्मण नामना ग्रन्थमां कह्युं छे एटलुंज नहिं पण महाभारत, वाल्मीक रामायण, निर्णयसिंधु, धर्मसिंधु, देवी रहस्य तथा देवपूजन पद्धति विगेरे तांत्रिक ग्रन्थोमां उपर जणावेल विधि छे पण आ विजया दशमीने दिवसे पशु मारखं एवं उभय मतना ग्रन्थोमां सप्रमाण नथी. माटे आ दिवसे हिंसानुं कर्म कर ए उभय प्रकारे धर्म विरुद्ध कर एम गणाय. कोइ माणस संपूर्ण शास्त्रीय मार्गने नहीं जाणता छतां अज्ञानताथी एवी शंका करे के राजाओए देवी तथा भैरव क्षेत्रपालादि ग्रामदेवताओंने पशु आदिकना रुधिरमांसनुं बलीदान आपवुं के जेथी ते देवताओ प्रसन्न भई राजाओ वगेरेने विघ्न नाश करे आवी शंका जे छे ते अशास्त्रीय छे अने उभय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ मतपी विरुद्ध छ; कारण के मंत्रादिक क्रियाओ रहित ते दिवसे हिंसाओ थाय छे परन्तु आ शंकानुं निवारण करवाने सर्व मान्य धर्मशास्त्रनी स्मृतिमां जे वचन , ते नीचे मुजब छे. ॥श्लोक ॥ कलौ दशसहस्राणि हरिस्त्यक्ष्यति मेदिनीम् । तदर्ध जानूषीतोयं तदर्ध ग्रामदेवताः॥१॥ कलियुगना दश हजार वर्ष जशे एटले हरि पृथ्वीने त्याग करशे अने कलियुगनां ५००० वर्ष पुरा थशे एटले गंगानी स्वर्गे जशे. अने ग्रामदेवताओ तो क्यारनाय स्वर्गमां गया. माटे ते देवोने वास्ते क्रियासहित कर्म करवामां आवे तो पण निरर्थक समजवां. जोशी विश्वनाथ नारणजी. ता. २९-९-९-भावनमर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १५ लीवडीवाला शास्त्री नागेश्वर नथुराम भटनो अभिप्राय. रा. रा. गोविंददास केशवलाल, मु. धर्मपुर स्टेट. प्रश्नोत्तर. आ नवरात्रना उत्सव संबन्धे पशुहिंसा करवानी रीत घणां वरस थयां चालेली छे; पण आपना प्रश्नपत्रना उपोद्घातमां बताववामां आव्युं छे–के दशरा विगेरेना दिवसे भोग अपाय छे," तो ते कोइ शास्त्रमा नथी. दशरानुं कार्य जूदुं छे. आतो फक्त अष्टमी नवमीनी क्रियाना बलिदान विषे शाक्तसंबंधीनां तांत्रिक ग्रन्थोमां प्रमाण नीकले छे. ते नीचे मुजब. उक्तं च निर्णयसिन्धौ एवं ऋष्टैर्निशां नीत्वा, प्रभाते अरुणोदये। घातयेन्महिषान्मेषा नग्रतोनत कन्धरान् ॥ शतमर्धशतं वापि, तदर्ध वा यथेच्छया। सुससवघृतैः कुम्भैस्तर्पयेत् परमेश्वरीम् ॥ कापालिकेभ्य स्तद्देयं, दासिदासजने तथा । इति ॥ अर्थ-अष्टमी नवमीनी रात्रीए देवीना पूजननो उत्सव कर्या पछी प्रातःकालने विषे अगाडी नम्र थइ छे डोको जेमनी एवा महिष अथवा बकरा, सो, पचास, पचीस, अथवा पोतानी इच्छा प्रमाणे तेनो वध करवो. मद्य तथा घृतनां कुंभे करी देवीने तृप्त करवी अने ते पशुओना मांसने कापालिक तथा दासी दास तेओने वहेंची आप. आश्विने पूजयित्वा तु अर्धरात्रेऽष्टमीषु च । घातयन्ति पशून भक्त्या, ते भवन्ति महाबलाः ॥ कन्या संस्थे खावीशे शुक्लाष्टम्यां प्रपूजयेत् । सोपवासो निशाढेतु महाविभवविस्तरैः॥ पशुघातश्च कर्तव्यो गवयाजवधस्तथा ॥ अर्थ-आशो मासमां कन्यानो सूर्य होय त्यारे शुक्लपक्षनी अष्टमीनी मध्य रात्रिए देवीनी पूना करी राझ, पाडा, बकरा, तेओनो घात करवो. आम करवाथी ते उपासक बलिष्ट थाय छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० उक्तं च शक्ति तंत्रे तत्राश्वमेषछागमहिष स्वमांसानां उत्तरोत्तरं प्राशस्त्यं अर्थ - घोडो, बकरो, पाडो अने उपासकनुं मांस ए उत्तरोत्तर श्रेष्ठ गण्णुं छे. उक्तं च कालिका पुराणे. कन्यासंस्थे रवौ शुक्र, शुक्लाष्टम्यां प्रपूजयेत् । द्रोणपुष्पैश्च बिल्वाम्रजाति पुंनाग चंपकैः ॥ पंचाब्दं लक्षणोपेतं, गन्धपुष्पसमन्वितम् । विधिवत् कालिकालीति, जवा खड्गेन घातयेत् ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा बलिं पूर्वमुखं तथा । निरीक्ष्य साधकं पश्चादिमं मंत्र मुदीरयेत् ॥ पशुस्त्वं बलिरूपेण, ममभाग्यादुपस्थितः । प्रणमामि ततः सर्वरूपिणं बलिरूपिणम् ॥ चंडिकाप्रीतिदानेन दातुरापद्विनाशनम् । चामुंडाबलिरूपाय, बले तुभ्यं नमोस्तु ते ॥ यज्ञार्थे बलयः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । अतस्त्वां घातयाम्यद्य, तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ अर्थ- हे शुक्र !' कन्याना सूर्य थाय त्यारे शुक्ल पक्षनी अष्टमीने दिवसे द्रोणपुष्प, बिल्व, आम्र जातिपुष्प, पुंनागपुष्प, चंपकपुष्प, इत्यादिवडे देवींनुं पूजन करवु पछी सघला लक्षणोपेत एटले सबली इंद्रिय युक्त-पांच वर्षनो पाडो के जेनी गंध पुष्पवडे पूजा करेली होय एवो लई काली काली-आ शब्दनो उच्चार करी साधक पुरुषे उत्तर दिशानुं मुख करवुं. बलीनुं पूर्व तरफनुं मुख कर अने आ मंत्र भणवो के–हे पशु तुं मारा भाग्ये करी प्राप्त थयो छे, वास्ते हुं तने प्रणाम करूं हूं. चंडिकानी प्रीतिने अर्थे तथा बलिदान आपनारनी आपत्ती नाश करनारुं एवं जे बल्ली ते ब्रह्माए यज्ञने माटे सृज्युं छे. वास्ते हुं तारो घात करूं हूं. उक्तं च हेमाद्रि खंडे आश्वयुक् शुक्लपक्षस्य, अष्टमी मूल संयुता । सा महानवमी नाम, त्रैलोक्येपि सुदुर्लभा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्यागते सवितरि, शुक्लपक्षेऽष्टमीयुता ॥ मूलनक्षत्र संयुक्ता, सा महानवमी स्मृता ॥ . नवम्यां पूजिता देवी, ददात्यभिमतं फलम् । सा पुण्या सा पवित्रा च, सा धन्या सुखदायिनी ॥ तस्यां सदा पूजनीया, चामुंडा मुंडमालिनी । तस्यां ये छुपयुज्यंते, प्राणिनो महिषादयः॥ सर्वे ते स्वर्गतिं यान्ति नतां पापं न विद्यते । यावत्प्रचालयेगात्र, पशुस्तावन्नहन्यते ॥ न तथा बलिदानेन, पुष्पधूपविलेपनैः। यथा संतुष्यते मेषैः, महिषैर्विध्यवासिनी ॥ स्नातैः प्रमुदितै ऋष्टैः, ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्नृपः । वैश्यैः शूद्वैर्भक्तियुतम्लेंच्छै रन्यैश्च मानवैः ॥ अर्थ-आशो मासनी शुक्ल पक्षनी अष्टमी मूलनक्षत्र युक्त होय तो ते महानवमी जाणवी अथवा कन्याना सूर्यमां शुक्ल पक्षनी अष्टमी मूल नक्षत्र युक्त होय, तो ते महानवमी जाणवी. ए महानवमीने विषे देवीपूजा करवाथी देवी अभीष्ट फल आपे छे अने एज तिथि पवित्र अने पुण्यकारी तथा सुख दायक जाणवी, एने विषे निरंतर चामुंडी देवीनी पूजा करवी. ए तिथिने दिवसे जे महिषादि पशुनी योजना करे छे तो ते पशु स्वर्ग पामे छे अने हणनारने पाप लागतुं नथी. पशु ज्यां सुधी गात्र हलावे त्यां सुधी हणवु नहीं. विंध्यवासिनी देवी बकरा पाडाथी नेवी संतुष्ट थाय छे तेवी बलि, पुष्प चंदन वडे थती नथी. आ पूजनमां ब्राह्मण, क्षत्री, नृप,वैश्य, शूद्र इत्यादि सघली वर्णोने आधिकार छे. वली-उक्तं च रुद्रयामले ॥ अष्टम्यां च महारात्रौ, नवम्यां वा विधीयते ॥ पूजनोत्तरकाले तु महिषस्य च हिंसनम् ॥ १ ॥ खड्नेन कुर्यान्नृपति देवीप्रियचिकीर्षया ॥ छागं वा मेढकं वापि हिंसयेत् भक्तितत्परः॥२॥ पुरुषो वा प्रतिनिधौ, दातव्यो भूतिमिच्छता ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ अर्थ - अष्टमी अथवा नवमीनी महारात्रीने विषे देवानुं पूजन कर्या पछी पाडानी हिंसा करवी. भक्ति तत्पर एवा राजाए देवीनी प्रीति उत्पन्न करवा सारु जाते खङ्गे करी पाडो अथवा बकरो के छेटो मारवो. उक्तं च भैरव तंत्रे— अष्टम्या मर्धरात्रेषु, शरत्काले महानिशि ॥ आराधिता चेत् काली च तत्क्षणात् सिद्धिदा भवेत् ॥ १ ॥ सर्वोपचारसंपन्नं वस्त्रालंकरणदिभिः ॥ पुष्पैस्तु कृष्णवर्णैश्च पूजयेत् कालिकां शुभाम् ॥ २ ॥ वर्षादूर्द्धभुजं मेषं मृगं वाथ यथाविधि ॥ दद्यात् पूर्वं महेशान्यै ततश्च जप माचरेत् ॥ ३ ॥ अर्थ - शरद कालनी अष्टमीनी अर्धरात्रीने विषे सघळा उपचार वडे तथा कृष्णपुष्प वडे काळिकानी पूजा करवी. तो ते तत्काळ सिद्धी आपनारी थाय छे. त्यार पछी एक वरशनी उपरनो घेटो बकरो अथवा मृग एनं बळीदान आपी जपनो आरंभ करवो. आम शक्ति विषयना तांत्रीक ग्रंथोमां हिंसा प्रकार अष्टमी नवमीनी तिथिने विषे बताववामां आवेलो छे. पण दशमीने दिवसे बळीदान तरीके जो अपातुं होय तो तेनो निषेध छे. उक्तंच कालदीपिकायां नंदायां ज्वलते वह्निः पूर्णायां पशुघातनम् ॥ भद्रायां गोकुळक्रीडा तंत्र राज्यं विनश्यति ॥ १ ॥ अर्थ-फागण शुद् १५ छोडी प्रतिपदमां हुताशनी सळो अथवा अश्विन मासनी नवमी छोडी दशमीमा पशुहिंसा बळीदान थाय तथा कारतक शुद्ध प्रतिपद छोडी बीजमां गोवर्धन उत्सव थाय तो ते राज्य नाश पामे छे. हवे दशमीनुं कांइ जणाववानेज फक्त लखुं हुं. दशमीने दिवसे राजाए पोताना हाथी घोडा उंट लस्कर इत्यादिकने शणगारी गामथी ईशान कोण तरफ जनुं अने शमीनी पूजा करवी. पछी पोताने घेर आवी नीराजन विधि करवो. रुद्रयामलतांत्रिक ग्रंथने विषे पूजन करती वखते पोताना शत्रुनी प्रतिकृति करी तेनो बाणवडे वध करवो, पछी राजाए सीमोलंघन कर एटलुं विशेष छे. पण हिंसा करवानी कही नथी. २ प्रश्ननो उत्तर. तंत्र मां हिंसा करवानी लखी छे, ते शाक्तमतना ग्रंथो छे अने ते ग्रंथो शाक्त मतवाळानेज मान्य छे, पण सघळा आर्य लोकोने मान्य नथी. तेमज ए ग्रंथ बहु मान्य गणाय एम पण नथी. केम के ए शाक्त मतवाळानो सिद्धांत छे ते हुं दर्शावुं हुं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तं च कालधर्मरहस्ये निवृत्ते भैरवीचक्रे, सर्वे वर्णाः पृथक् पृथक् ॥ मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुन मेवच ॥१॥ एते पंच मकाराश्च मोक्षदा हि युगे युगे ॥ पीत्वापीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले ॥ २ ॥ उत्थितः सन् पुनः पीत्वा पुनर्जन्मो न विद्यते ॥ सहस्रभगदर्शनात् मुक्तिः ॥ मातृयोनि परित्यज्य, विहरेत् सर्वयोनिषु ॥ अर्थ-ज्या लगी आ भैरवी चक्र प्रवृत्तमान थयु नथी, त्यां लगी सर्व वर्णो जुदी जुदी नहीं पण एकमेक मली मद्य, मांस मच्छ, मुद्रा, मैथुन आ पांच मकार सेवन करवाथी युग युग परत्वे मोक्ष पामे छे. पीवं ते क्यां सुधी के पृथ्वीपर पडे त्यां सुधी. पाछा उठ्याके पार्छ पी. आम करवाथी फरीथी जन्म थतो नथी. हनार भग दर्शनथी मुक्त थाय छे. पोतानी मातानी योनीनो त्यागकरी सघळी योनीने विषे विहार करवो. आ शक्ति मतनां आवा प्रकारना सिद्धांतपरथी आर्यावर्त देशमां आर्योने ए तांत्रिक ग्रंथो मान्य नथी. तेम प्रमाणी भूत पण नथी. ३ प्रश्ननो उत्तर. उपर दीवेला शक्ति मतना प्रमाणो करतां हिंसाना निषेधने अर्थे वेदादिक सत्य ग्रन्थोमा अनेक प्रमाणो मली आवे छे. उक्तं च मीमांसासूत्रे न हिंस्यात् सर्व भूतानि ॥ अर्थ--कोइ पण प्राणीनी हिंसा करवी नहीं. उक्तं च तैतरीय उपनिषदि . यान्यनवद्यानिकर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि ॥ अर्थ:-जे स्तुत्य कर्मो छे तेनुं न सेवन करवु. जे निंदा पात्र छे तेनु सेवन करवू नहीं. उक्तं च पातंजल सूत्रे अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ अर्थ-हिंसा करवी नहिं; सत्य पालवू, चोरी करवी नहीं, ब्रह्मचर्य राखj, एम नियम पाळवा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तं च शान्तिमयूरवे पापनिवृत्तिपूर्वकं अहिंसाप्रयोजकं कर्म शांतिकं ॥ अर्थ-जेमां पापनी निवृत्ति थाय छे, अने जेमां हिंसा थती नथी तेज शान्तिक कर्म जाणवू. शान्तिक कर्म कोने फल आपे छे ? अहिंसकस्य दान्तस्य, धर्मार्जितधनस्य च ॥ दयादाक्षिण्ययुक्तस्य, सर्वे सानुग्रहा ग्रहाः ॥ अर्थ-जे अहिंसक छे, उदार छे, धर्मथी मेळवेला धनवालो छे, दया अने डाहपणवालो छे. तेनेज शान्ति कर्म सिद्धि आपनारुं थाय छे. उक्तं च विष्णुस्मृतौ ग्रामारण्यपशूनां हिंसनं संकरीकरणमिति ॥ अर्थ गामना तथा अरण्यना पशुओनी हिंसा करवी-एने संकरीकरण पाप गण्डे छे. उक्तं च मनुस्मुतौ खराश्वोष्टमृगेभानां अजाविकवधस्तथा । संकरीकरणंज्ञेयं मीनाहिमहिषस्य च ॥ __ अर्थ-गधेडो, घोडो, उंट, मृग, हाथी, बकरो, घेटो, मच्छ, सर्प, पाडो, इत्यादिनी हिंसा करवी एने संकरीकरण पाप गण्यु छे. भागवतना बीजा स्कन्धमा कामनापरत्वे मनुष्यो देवीनी उपासना करे छे अने हिंसादि कार्य करे छे. ते उपर भागवतना अगीयारमा स्कन्धमां कहेल छे के: भा० ए० स्कं० अ० यद्यधर्मरतः संगादसतां वा जितेंद्रियः । कामात्मा कृपणोलुब्धोः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥ पशनविधिनालभ्य प्रतभूतगणान् यजेत् नरकानवशोजन्तुः गत्वा यात्युल्वणं तमः ॥ अर्थ- अधर्मने विषे तत्पर थयेलो अने असत् पुरुषना संगथी कामवालो पुरुष लोभिओ, वगर विधिए पशुओने लावी हिंसा करे छे अने भूत प्रेतादि एवा देवो यजन करे छे ते अन्ते नरके जाय छे अने महान् अंधकारमां पडे छे. एज हिंसा नहीं करवा नारदे कयुं छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० च० स्कंधे अध्याय २५ भो भो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे संज्ञापितान् जीवसंघान् निर्घृणेन सहस्रसः ॥ एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरंतो वैशसं तव । संपरेतमयः कूटै, रिच्छदंत्युत्थितमन्यवः ॥ ८५ अर्थ- हे प्राचीन बर्हिष राजा, तें जेजे पशुओनी यज्ञमां हिंसा करी छे ते ते पशुओ तारी वाट जोता अने क्रोध तत्पर थइ पोतानां शींगडां उचां करी तने प्रहार करवा स्वर्गमां तैयार छे, माटे गीताना सोळमा अध्यायमा कं छे के ( गीता अ० ।। १६ ।। ) अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ अर्थ - अनेक चित्तनी भ्रान्तिवडे मोहजालमां पडेलो मनुष्य, अनेक भोगनी इच्छा करतो नरकने विषे पडे छे. वास्ते गीतामां कयुं छे अहिंसासत्यमस्तेयमिति ॥ अर्थ-हींसा कर नहीं - सत्य पालकं - चोरी करवी नहीं इत्यादि. उक्तंच भा. स. अ. १५ न दद्यादामिषं श्राद्धे, न चाद्याद्धर्मतत्ववित् । मुन्यन्नैः स्यात् पराप्रीतिर्यथा न पशुहिंसया || नैतादृशः परो धर्मे नृणां सद्धर्ममिच्छताम् । न्यासो दंडस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ॥ अर्थ--धर्म तत्वना जाणनार ए श्राद्धमां पित्रादि देवोने मांस आपनुं नहीं, अने खावुं नहीं. जेवी देवताने मुनि-अन्ने करी प्रीति थाय छे तेवी पशु हिंसाए करी थती नथी. सत् धर्मने इच्छनारा मनुष्योने आ अहिंसारूप श्रेष्ट धर्म छे, एटलुंज नहीं पण सघला प्राणीओने विषे मन वाणी अने काया एणे करी उत्पन्न थनारी कोइ पण प्रकारनी पीडा, तेनो त्याग करवो ए उपर महात्मा भर्तृहरि क छे. प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यम् काले शतया प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ तृष्णास्रोतो विभंगो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा सामान्यःसर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसा मेष पन्थाः ॥ १ ॥ अर्थ -- प्राणीओना घातथी निवृत्त थवं, परधन हरणथी नियममां रहेवुं, सत्य बोलकं, शक्तिना अनुसारे दान आपवु, पारकी स्त्रीओनी वातथी मुंगा रहेवुं, आशा तृष्णा छोडी देवी, गुरुने विषे नम्रपणुं राखवुं; सत्रला प्राणीओने विषे दया राखवी; ए सघला शास्त्रनो सामान्य विधि छे. अने कल्याणकारी एज मार्ग छे. आ शिवाय पशु हिंसाना निषेधार्थे सर्वमान्य अने सत्य शास्त्रमां अनेक प्रमाणो छे. पण विस्तारना भयथी विशेष प्रमाणो आप्यां नथी. ४ प्रश्ननो उत्तर. जे राजा शाक्तमतना अनुयाथी होय अने ते संप्रदायनी परनालिका प्रमाणे दीक्षा लीधी होय तो तेने हिंसादि कर्म उचित छे. अन्यथा बीजाने कांइ विधिनिषेध नथी. ए शाक्तादिक शास्त्रमां यज्ञ शिवाय हिंसानो विधि नीकलतोज नथी. तो आज्ञानुं उल्लंघन थवाने कांइ हेतु उपस्थित थी. ५ प्रश्ननो उत्तर. आ प्रश्ननो उत्तर चोथा प्रश्नना उत्तरमां समावेश थाय छे. तथापि दर्शान्युं छे के राजा तथा प्रजाना सुखनुं कारण कांइ केवल हिंसा नथी. पण सत्य अने सर्व मान्य शास्त्रमां बतावेली विधि क्रिया अने शुभाचरण एणे करी राजा प्रजानो अभ्युदय थाय छे. आ सर्वोपरी सिद्धान्त छे. वास्ते मनुस्मृतिमां कहेलुं छे के, पाखंडिनो विकर्मस्थान, बैडालव्रतिकान् शठान् । हैतुकान् बकवृतिंश्च वाङमात्रेणापि नार्चयेत् ॥ अर्थ-पाखंङ धर्मी (जेवाके - शाक्त - कापालिक इत्यादि ) नठारा कर्म करनारा; दम्भि वृत्तिवाला, लोभीभा; बकवृतिवाला; एवाओनुं वाणी मात्रे करीने पण अर्चन कर नहीं. ६ प्रश्ननो उत्तर. शाक्त मत शिवाय, बलवान् शास्त्रोमां राजाओंने अर्थे शरदऋतुमां हिंसा रहित नीराजन विधि अवश्य करवा आज्ञा करी छे के जे विधिना योगे सेना सहित राजाप्रजादिकनुं कल्याण थाय छे. प्राचीन कालमा थइ गयेला विक्रमादित्यना वखतमां वराहमिहिर नामना पंडिते पोतानी रचेली वाराही संहितामां ए नीराजन विधि लखी छे. बृ. सं. अध्याय ४४ भगवतिजलधरपक्ष्म क्षपाकरा कैक्षणेकमलनाभौ । उन्मीलयति तुरंगम करिजननीराजनं कुर्यात् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ द्वादश्यामष्टम्यां कार्तिकशुक्लस्य पंचदश्यां वा । आश्वयुजे वाकुर्यान्नीराजन संज्ञितां शान्तिमिति ॥ अर्थ-मेघ छे पांपण जेनी अने चंद्र सूर्य छे नेत्र जेना एवा कमलनाभि भगवान् ज्यारे जाग्रत थाय छे, त्यारे अश्व-गज - मनुष्य एओनी नीरांजन विधि करवी. कार्तिक शुक्लपक्षमां द्वादशीअष्टमी – पूर्णिमा ए तिथिमां अथवा आश्विन शुक्ल पक्षनी १२ -८-१५ मां नीराजन संज्ञक शांती करवी. ॥ आ विधिनो एक अध्याय छे. वास्ते आ जग्याए लख्यो नथी. ॥ हवे मद्य, मांसादिना प्रतिनिधि शाक्त मतना ग्रन्थोमां शुं शुं लीधुं छे ते दर्शाव्युं छे. राजस तामस वृत्ति वालो ब्राह्मण राजसीक तामसीक कर्म करवा तैयार थयो होय तो तेने मांसनी जग्याए-मीठा शवालो दुधपाक तथा सुरानी जग्याए मीठाशवालुं दुध एम शान्ति मयूखमां कह्युं छे. ए शिवाय, बीजा ग्रंथोमां लीला प्रमाण उक्तं च कौलधर्मरहस्ये लवणाद्रककल्याणि गोधूमतिलमाषकम् । शुनं तु महादेवि मांस प्रतिनिधिः स्मृतः ॥ अर्ध-मीठं, आदु, घहु, तल, अडद, लशण, ए मांसना प्रतिनिधि गणाय छे. उक्तं च कालिका पुराणे कूष्माडमिक्षुदंडं च, मांसं सारसमेव च । एते बलि समाः प्रोक्ता, स्तृप्तौछागसमाः सदा ॥ अर्थ - भूरुंको, शेरडी, सारसनुं मांस, ए बलिदान बकराना बरोबर गण्णुं छे. उक्तं च रुद्रयामले— ब्राह्मणेन सदादेयं कूष्माडं बलिकर्माणि ॥ श्रीफलं वासुराधीश छेदं नैवतु कारयेत् ॥ अर्थ - रुद्र विष्णु प्रत्येकछे के - ब्राह्मणे बलिदान विषयमां भूरुं कोलुं लेवुं अथवा बीलु लेवं पण तेनो छेद करवो नहीं. अथवा छेद करवो होय तो राजस तामस गुणाश्रयी क्षत्रीयादिओने प्रत्यक्ष कर. ७ प्रश्ननो उत्तर. शाक्तमतना ग्रन्थने अनुसरी चालनार उपासक जो क्षत्रिय होय तो तेने प्रत्यक्ष वध करवानो कह्यो छे. त्यां छेको मारी छोडी देवानो विधि जणातो नथी. ज्यां सुधी जे ग्रन्थने अनुसरी चलाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं तो ते क्रिया पूर्ण थइ एम केम गणाय ? जो ब्राह्मण रजोगुण वृत्तिमा रही देवीनी उपासना करतो होय तो तेने पशुओनी प्रतिकृति लोटनी करवी अने तेनो छेद करवो. अथवा प्रत्यक्ष पशुओने छेको मारी छोडी देवा एम कौलधर्ममां कोइ कोइ जग्याए लखेलुं छे. इत्यलम् ॥ सर्व वेदशास्त्रनुं सारभूत अंग॥ सर्वना नियंता परमात्माए आ त्रिगुणात्मक सृष्टी उत्पन्न करी तेनी स्थितीने अर्थे त्रिगुणात्मक वेद रच्या छे. जेमां सात्विक-राजसी-तामसी-मनुष्यप्राणीओने अनुकूल तेवाज त्रिगुणात्मक ( सात्विक राजसी-तामसी) कर्म दर्शव्या छे. माटे आ कर्ममां हिंसा करवी अधर्मरुप छे. अने हिंसा न करवी ए धर्मरुप छे. छतां परस्पर विरुद्ध मतना प्रमाणोना ग्रन्थो थवानो हेतु अज्ञानछे. शास्त्री भाइचंद्रनरोचमदासशर्मा-सुरत सगरामपुरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १६ मेहेता मुरारजी वल्लभभाइनो अभिप्रायः रा. रा. गोविंददास केशवलाल धर्मपुर स्टेटना कारभारी. जत-आपनी सहीनो ता. १०-९-९४ नो पत्र मळयो छे. ते परथी जाणवामां आव्युं छे के "दशराने दिवसे ए स्टेटमां पशुवध थाय छे, ते रूढी शास्त्र रहित छे. एम विद्वानोना बहु मते ठरे तो ते बंध पाडवी.” एम आपना नामदार-महाराणाश्री मोहनदेवजी महाराजश्रीनी इच्छा छे. महाराजानी ए इच्छा अति स्तुत्य छे. स्तुत्य एटला माटे के-पशुनी हिंसा थती अटकाववी ए क्षत्रिओनो खास खरो धर्म छे. निरुक्त शास्त्र के जे वेदनां छ अंगमां एक छे. तेमां क्षत्रि शब्दनी व्युत्पत्ति ए छे के-क्षतात् प्रहारात किलत्रायते क्षत्रिः कोइपण प्राणीने प्रहार-मार-हिंसा थती होय, ते अटकावे ते क्षत्रि. एज व्युत्पत्तिने प्रख्यात पंडित कालीदास पोताना रघुवंश नामे काव्यमा एकस्थले एने मलतुंन पद लखे छे के क्षतात् किल त्रायत् इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः ॥ इ०हवे ज्यारे दशराने दिवसे पशुवध थाय छे, त्यारे क्षत्रिना धर्मथी केवल उलटुं कसइनुं कृत्य थाय छे. शास्त्रमा अभयदान सुपात्रदान-अनुकम्पादान-उचितदान-कीर्तिदान ए पांच प्रकारचं दान कयुं छे. तेमां सर्वथी श्रेष्टदान कोइपण प्राणीनो जीव बचाववो ते अभयदान छे. केमके इन्द्रथी कीटादि सर्व प्राणी जीवीतने इच्छे छे. यो दद्यात् कांचनं मेरु, कत्नां, चापि वसुंधराम् ॥ एकस्य जीवितं दद्यात् नहि तुल्यं कदाचन ॥१॥ अर्थ-मेरु पर्वत जेटला सोनाना ढगलानु कोइ श्रीमन्त पुरुष दान करे, अगर चक्रवर्तिराजा आखी पृथ्वीनुं दान करे. तोपण एक पुरुष एक जीवने बचावे तेनी बरोबर थतुं नथी. एम उपरना श्लोक उपरथी नक्की थाय छे. त्यारे दरवर्षे एक जीवनो वध बचशे ए शुं महाराजा मोहनदेवजी तरफ, जेवू तेवू दान थशे? खरं अति मोटुं दान थशे. ___ पशुहिंसा करी तेनुं मांस भक्षण करवू; परस्त्रिविलास करवो के सुरापान करवू एवी प्रेरणा कदि कोइ सच्छास्त्रमा होयज नहि. ए श्रेष्टमत अंगिकार राखीने छूटमात्र व्यवस्था निमित्ते एटली राखवामां आवी छे के-विवाह करी परणेली पोतानी स्त्री जोडे ऋतुकाले स्त्रीसंभोग-यज्ञमांज बलीदान माटे कापेला पशु- मांस भक्षण अने अमुक विधाननी ईष्टीमांन सोमवल्लीपान, एटली रजा छतां दशरानी क्रियाए कांइ यज्ञकर्म नथी, एटले एमां पशुवधनी रना वेदोक्त नीज. एम धारीए के वेदना आधारे यज्ञवत ए क्रिया छे. तो तेमां पण बाध आवे छे. कलियुगमां एवी क्रिया करवानो प्रतिबंध छे. एक दाखलो लइए के-अज ए शब्दनो अर्थ बकरा लई होमता पण अज शब्दनो अर्थ (अनहीं+न =जन्म)=नहीं जन्म एटले त्रण वर्षनी जूनी थयेली डांगर के जे रोपतां उगी शकती नथी ने अजन्मयोनि १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त थइ गइ छे ते डांगर एटले व्रीहर्नुि अजने बदले बलीदान देवु एमप्रख्यात पंडित दयानंदजी सरस्वति जेवा महात्माओअर्थ करे छे-"यज्ञंकृत्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्" इ. वचनोथी समजबुं के पशुने मारे लोहीनो कादव करे तेवडे स्वर्ग मळतुं होय तो दान-पुण्य वगेरे कर्मोनी शी जरुर रहे ? मतलबके ज्यारे यज्ञमां पशु हिंसा करवा शास्त्रो सम्मत नथी, त्यारे दशराने दिवसे पाडानो वध ए रूढि पौराणिक मार्गे प्रवेश थयेली, कदि वेदोक्त के स्मृत्युक्त शास्त्रसंपन्न होय ज नहीं. "दशशिरहरा इति दशरा"दश शिरनो रावण रामे मार्यो ते दशरा. पाडो बिचारो क्यां रावण ठरे ? नाहक अवाचक बिचारां प्राणीनी हिंसा छे. मान्य स्मृतिमां मनु- प्रबल सर्व मान्य वचन छे केः अहिंसा परमोधर्मः हिंसा न करवी ए मोटो धर्म छे ए मुजब सामान्य विवेचन करी प्रश्नना क्रमवार जवाब नीचे मुजब टुकामां आप्या छे. (१) देवी भागवत तथा दुर्गा सप्तशती ( चंडीपाठ ) ए ग्रन्थोमां पशु हिंसानां वचनोनो आधार छे. स्मृति-श्रुति ग्रन्थोमां आधार नथी. (२) उपरना ग्रन्यो शक्तिपंथी ( वाम मार्गी ) सांप्रादायीओमां फक्त मान्य ग्रन्थो छे. एटले ते अमुक पन्थना ठर्या माटे सर्व मान्यके बहु मान्य न कहेवाय. (३) एकादश भागवत-मनुस्मृति-बृहदारण्यक उपनिषद् वगेरे ग्रन्थोमां हिंसा निषेधना घणांक वचनो छे. (४) निर्णय सिन्धु अने हेमाद्रि ए ग्रन्थोमां ए पर्वने दिवसे राजाने ए कृत्य करवा आवश्यक्ता बतावा होय त्यारे ते साचं जाणवू. (५) आपत्ति योग आवे एवं कोइज प्रमाण नथी. साधारण समजथी पण ए उलटी वात छे. हालमां केटलांक वर्षो थयां पशुनो वध थाय छे. छतां दुष्काल वगेरे आपत्ति योग पडे छे. भविष्य कालमां कदि न करे नारायणने आपत्तियोग आववो निर्माण हशे तो ते पाडानो वध जारी राखे कदि मटनार नथी अने तेमज होय तो शान्तिक पौष्टिक क्रियाओ करवी व्यर्थ छे. (६) बलवान् शास्त्रनी आज्ञाज नथी त्यारे बलवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग शी रीते थयो गणाय. " मूलं नास्ति कुतः शाखा " तेवी हिंसा रहित क्रियाओ शांति कमलाकर ग्रन्थमां जोई लेवी. (७) ए प्रश्न निरर्थक छे. छठ्ठा प्रश्नमा ए प्रश्न उडी जाय छे. माटे तेना उत्तरमां कहेली क्रिया कहेला ग्रंथमाथी प्रतिपादन करी अनुसरवू. उपरना जवाब छेक ढूंकामां लख्या छे. केम के आपेली मुदत घणी थोडी होवाथी अने लखेला ग्रंथो पासे विद्यमान न होवाथी लाचारीथी तेनां फक्त नामज आपवां पड्यां छे. एटले चोकस छे के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने ग्रन्थनां नाम आप्यां छे. ते सर्वमान्य शास्त्रोना ग्रन्थो छे. अने तेमां जोइती हकीकत आपेली छे. ए निश्चय छे. माटे दरबार श्री उदार आश्रयथी ए ग्रन्थो मेलवी विद्वान् शास्त्री राखी कमिटीने जोइती हकीकत मेलवशे. एटले पाडानो वध करवानी चालती रूढी बंध पडी अहिंसक क्रिया यथायोग्य मलशे. तेवी कडाकूटमां पडवू वास्तविक न लागतुं होय तो आपणा पवित्र तीर्थ काशीमां त्यांनी संस्कृत कोलेजना व्याकरण विषयना अध्यापक (प्रोफेसर ) नामे दामोदर शास्त्री भरद्वाज हाल छे. तेमनी जोडे पत्र व्यवहार चलावी खुलाशो मागवानी जरुर योजना मेळवशो. आज्ञांकित-मुरारजी वलभभाई. मेहता नं० ३ नी म्युनिसिपालनिशाळना हेडमास्तर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं०१७ मि नाथाभाइ मणीसाइनो अभिप्राय. मेहरबान डाह्याभाइ बापालाल. धर्मपुर लाइब्रेरीना सेक्रेटरी. प्रणाम साथे लखवानुं के आजना देशी मित्रमा दशरा उपर पाडा मारवानो अने तेमां केटलीक सच्चाइ छे तेनो निर्णय करवानो माहाराजाश्रीनो विचार जाणी मने घणो संतोष थयो छे. खुलाशामां नीचेनी बे लीटी करतां वधु लखवानुं हुं दुरस्त धारतो नथी. हिंदुस्तानना देशीओमां सर्व मान्य एक वेदन छे. ते वेद तथा तदनुकुल सकल शास्त्रनो सिद्धान्त छे के "अहिंसा परमो धर्मः" तेम छतां परमेश्वरने नामे जे कोइ हिंसा करे छे, तेना उपर तो कृपालु परमात्मानो अत्यन्त कोप उतरे छे. ए वातना प्रमाणनी जरुर नथी अने ए करतां वधु लखवा हुं धारतो नथी. ली० आफ्नो सुभेच्छक नाथाभाइ मणीभाइ मेनेजर. गोरक्षाप्रसाद. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १८ लिंबडीवाला नागेश्वर नथुरामभट्टनो अभिप्राय. श्री श्रोत्तरव्यवस्था - प्रथम प्रश्ननो उत्तर-तत्र विधिए करीने कालिका पुराणमां पशु वध कह्यो छे. तेनां प्रमाण तथा वाक्य नीचे लखेल छे. निर्णयसिन्धौ-दुर्गापूजायां ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा, बलिं पूर्वमुखं तथा ॥ निरीक्ष्य साधकः पश्चादिमं मंत्र मुदीरयेत् ॥ १ ॥ पशुस्त्वं बलिरूपेण, ममभाग्या दुपस्थितः प्रणमामिततः सर्व रूपिणं बलिरूपिणम् ॥ २ ॥ चंडिका प्रीतिदानेन दातुरापद्विनाशनं ॥ चामुंडा बलिरूपाय, बले तुभ्यं नमोनमः ॥ ३ ॥ यज्ञार्थे बलयः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ अतस्त्वां घातयाम्यद्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ४ अहीं मंत्रे करीने बलीदान कर्पु छे-एम कालीकापुराण - रुद्रयामल - देवीपुराणमां कहेल छे. ते सर्वे उपर लखेला बाक्यो आज कलियुगमां मान्य नथी तो ते क्रिया करवी एमां शुं कहेतुं ? ते प्रमाण नींचे लखेल छे. वरातिथिपितृभ्यश्च, पशुपाकं रणक्रिया ॥ दत्तौरसेतरेषांतु पुत्रत्वेन परिग्रहः ॥ १ ॥ यतेश्च सर्ववर्णेषु, भिक्षाचर्या विधानतः ॥ मांसदानं तथा श्राद्धे, वानप्रस्थाश्रमस्तथा ॥ २ ॥ दत्ताक्षतायाः कन्यायाः, पुनर्दानं परस्यच ॥ दीर्घकालं ब्रह्मचर्य, नरमेधाश्वमेधकौ ॥ ३ ॥ सौत्रामण्यादियज्ञेऽपि सुरापात्रग्रहस्तथा ॥ इमान्धर्मान् कलियुगे, वर्ज्यानाहु र्मनीषिणः ॥ ४ ॥ छागाभावे तु कूष्माडं, श्रीफलं वा मनोहरं । वस्त्र संवेष्टितं कृत्वा छेदयेत् छुरिकादिना ॥ एम निर्णयसिन्ध्वादि महा निबन्धे निर्णय करेल छे के न करवुं अने करेतो ते उपर लखेल सर्व धर्म उलटं विपरीत फळ आपे छे अने नरक प्राप्तीना हेतु थाय छे. श्रीमद्भागवतना दशमस्कंधमां दशनो अध्याय पशूनविधिनाला पेतभूतगणान् यजन् ॥ नरक नवशोदे ही गत्वा य/स्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वणंतमः ॥ तेवा प्रमाणथी. पूर्वे त्रेतायुग तथा द्वापरमां शास्त्रविधि रहित रागथी हिंसा करे तो नरकमां जाय पण आज कलियुगमा हिंसा विधिनां शास्त्रो मानवां नहीं मद्यभक्ष्यादिवामाद्यागमस्यलु न मान्यता ॥ एवा बलवान् धर्मशास्त्रोना प्रमाणथी हिंसाक्रियानो संकल्प तो क्याथीज होय ? उपर लखेलमां त्रण प्रश्नोनुं समाधान थाय छे. प्रश्न ४-राजाओने आ समयमा कर्तव्य नथी. जे शास्त्र हिंसानी आज्ञा करे छे ते आज्ञा तोडवा माटे बलवान् आर्यधर्मशास्त्र हुकम करे छे. प्रश्न ५-ते हिंसा न करवाथी देव उलटा प्रसन्न थइ राजप्रजाने सुख आपे छे. तेवा देवाने प्रसन्न करवाना सप्तशत्यादि-जप होम घणा उपाय छे. ते उपाय आ लोकमां तथा परलोकमां सुख आपे छे. प्रश्न ६-जेने कर्मशास्त्रमा श्रद्धा छे. तेने माटे यज्ञादिमां हिंसाथी बलीदान अवश्य करवानुं लख्यु छे. तेमां बळवान र्धमशास्त्रनी मनाइथी प्रतिनिधि कह्या छे. कालिकापुराण-रुद्रयामलमां एवा प्रमाणोथी बलीदानना प्रतिनिधि थाय छे. तेम करवाथी ते बराबर गणाय. प्रश्न ७ ते पशुनां नाक, कान जराक छेदी छोडी देवां ते कई प्रमाण नथी तो तेनो उत्तर पण नथी. तथास्तु. भट्ठ-नागेश्वर नथुरामर्नु आशीर्वचन. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १९ भट बालाशंकर रूपजीनो अभिप्राय. श्रीगणेशाय नमः प्रश्न.१ उत्तर-तंत्र शास्त्र मध्ये वाममार्ग उपासनामां उक्तंचबृहत्तंत्रराजे. उपासना त्रिधा प्रोक्ता श्रेष्टा तत्र तु सात्विकी ॥ यस्यां च मानसी पूजा जपो मुख्यतम स्मृतः॥ १ ॥ राजसो दक्षिणो मार्गः प्रतिमायां च पूजनम् ॥ राजोपचारैः पुष्पायै स्तदाधानं विशिष्यते ॥ २॥ तामसोपासनं प्रोक्तं पूजादौ बलिदानतः॥ वाममार्गेण तच्चायं वर्ण हित्वा प्रकथ्यते ॥ ३ ॥ एषा व्यवस्था संप्रोक्ता वामदक्षिणयोः परा॥ गोपिता सर्वतंत्रेषु किमन्यत् श्रोतु मिच्छसि ॥ ४ ॥ इति शिववाक्यं पार्वती प्रति-विशेष काली तंत्र रुद्रयामलादिक तंत्रोमां व्यवस्था छे. तथा कौलार्णवादि तंत्रोमां कहेल छे. परन्तु ते हिंसादि बलिदान शूद्रने मुख्यत्वे वाममार्गम' कहेल छे. अने ए वामाचार पण शूद्रने कहेल छे.. उक्तं च मेरु तंत्रे शिवेन वामाचारो मदुक्तोयं सर्वः शूद्र परः प्रिये इति वाक्यात अग्रे आयं वर्ण हित्वा क्षत्रियस्य कथितं तत् उपलक्षणमात्रत्वेन द्विजातिभिः ताज्यः ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यैरित्यर्थः विध्येकवाक्यात् महिषोडामरे तंत्रे विनोदाय महेश्वरी क्षीराज्यमधुमाषैश्च विप्रादीनां च पूजयेत् २ प्रश्ननो उत्तर. ते आर्य लोकमां सर्व मान्य नथी तथा बहु मान्य पण नथी ते शास्त्रमाथी श्रुति स्मृति पुराणनुं कुल जे वाक्य होय ते मानवा लायक छे. नेने सिद्धान्त विरुद्ध होय ते त्याग करवा योग्य छे. माटे सर्वथा मान्यके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ प्रबल शास्त्र ते नथी कारण के ते मोहशास्त्र कहेवाय छे, ने ते भ्रष्ट मार्ग छे. एनां वाक्यो जोवां होय तो देवी भागवतमां एकादश स्कंधमां ते विशे खुलाशा छे. विस्तारना भयथी अहि ते वाक्यो लख्यां नी माटे ते वाक्यो जोवानी मरजी होय तो तेमां जोशो एटले खुलाशो थशे. ब्राह्मं पाशुपतं सौरं शाक्तं गाणेशवं तथा वामं तस्मात् वरिष्टं स्यात्तस्मात् कौलं विशिष्यते कौलाच्च दक्षिणं श्रेष्ट सर्वेभ्यो विजितेन्द्रियं जितेन्द्रियाद् वरिष्टं च नास्तिवाक्यं शिवोदितम् ॥ २॥ इति रुद्रयामलोचोक्तं प्रश्न ३–उत्तर-ते शास्त्र करतां अति प्रबल श्रुति स्मृतिपुराण इतिहास वगेरे तमाम शास्त्रोमां तेनो निषेध लखेलो छे. तेना बाक्य केटलांक नीचे लखु हुं. उक्तंच महाभारते शान्ति पर्वणि सत्येनासाद्यते धर्मः दयादानेन वर्धते । क्षमया स्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभात् विनश्यति ॥ १ ॥ अहिंसा सत्य मस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनं । पंचस्वेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः ॥ २ ॥ अहिंसालक्षणो धर्मः अधर्मो प्राणिनां वधः । तस्माद् धर्मार्थिभिर्लोके कर्तव्या प्राणिनां दया ॥ ३ ॥ लोभमायाभिभूतानां नराणां प्राणिनां घ्नतां । एषां प्राणिव धर्मो विपरीता भवन्ति ते ॥ ४ ॥ न शोणितकृतं वस्त्रं शोणितेनैव शुध्यते । शोणिताद्वैतु यद् वस्त्रं शुद्धं भवति वारिणा ॥ ५ ॥ यदि प्राणिव धर्मे स्वर्गश्च खलु जायते । संसारभाजकानां तु कुतः श्वभ्रो विधास्यते ॥ ६ ॥ ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे नास्ति यज्ञ स्त्वहिंसकः । तातेऽहिंसात्मकः कार्यः सदा यज्ञो युधिष्टिर ॥ ७ ॥ | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ इन्द्रियाणि पशून् कृत्वा वेदी कृत्वा तपोमयीं अहिंसा माहुतिं कृत्वा आत्मयज्ञं यजाम्यहम् ॥ ८ ॥ ध्यानानौ जीवकुंडस्थ दममारुतदीपिते । असत्कर्म समित्क्षेपे अग्निहोत्रं कुरुत्तमं ॥९॥ यूपं छित्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दम । यद्येवं गम्यते सौख्यं नरकं केन गम्यते ॥ १० ॥ मातृवत् परदाराणि परद्रव्याणि लोष्टवत् । आत्मवत् सर्व भूतानि यः पश्यति सपश्यति ॥ ११ ॥ अहिंसा सर्वजीवेषु तत्वज्ञैः परिभाषितं । इदं हि मूलं धर्मस्य शेष स्तस्यैव वितरः ॥ १२॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य सुसंयमः । मद्यमांसादि त्यागश्च तदै धर्मस्य लक्षणम् ॥ १३ ॥ यथा मम प्रियां प्राणास्तथान्यस्यापि देहिनः । इति मत्वा न कर्तव्यो घोरः प्राणिवधोबुधैः ॥ १४ ॥ प्राणिनां रक्षणं युक्तं मृत्यु भीताहिजंतवः। आत्मौपम्येन जानहि रिष्टं सर्वस्य जीवितं ॥ १५॥ उद्यतं शस्त्र मालोक्य विषाद यांति विह्वलाः । जीवाः कंपति संत्रस्ता नास्ति मृत्युसमभयं ॥ १६ ॥ कंटकेनापि विद्धस्य महती वेदना भवेत् । चक्रकुंतासियष्टयाद्यैः मार्यमाणस्य किं पुनः ॥ १७ ॥ दियते मार्यमाणस्य कोटिजीवित मेवच । धनकोटीः परित्यज्य जीवो जीवितु मिच्छति ॥ १८ ॥ योयत्र जायते जन्तु सतत्र रमते चिरं । अतःसर्वेषु जीवेषु दयां कुर्वति साधवः ॥ १९ ॥ १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ अमेध्यमध्ये कीटस्य सुरेंद्रस्य सुरालये । समानाजीविताकांक्षातुल्यंमृत्युभयद्वयोः ॥ २० ॥ अहिंसा सर्वजीवाना माजन्मापिहिरोचते। नित्यमात्मनो विषये तथा कार्याऽपरेष्वपि ॥ २१ ॥ जीवानां रक्षणं श्रेष्टं जीवा जीवितकांक्षिणः । तस्मात् समस्त दानेभ्योऽभयदानं प्रशस्यते ॥ २२ ॥ अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्णमिंद्रिय निग्रहः। - सर्वभूतदया पुष्पं क्षमा पुष्यं विशेषतः ॥ २३ ॥ ध्यानं पुष्पं तपः पुष्पं ज्ञानं पुष्पं सुसप्तमं । सत्य मेवाष्टमं पुष्पं तेनतुष्यन्ति देवताः ॥ २४ ॥ पृथिव्या मप्यहं पार्थ वायावग्नौ जलेप्यहं । वनस्पतिगतश्वाहं सर्वभूते वसाम्यहं ॥ २५ ॥ जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामाळाकुले विष्णुः सर्व विष्णुमयंजगत् ॥ २६ ॥ योमांसर्वगतं ज्ञात्वा नचहिंसेतु कदाचन । तस्याहं न प्रणस्यामि सचमेन प्रणश्यति ॥ २७ ॥ विष्णुपुराणे योददाति सहस्राणि गवांचापि शतानिच ।। अभयं सर्वसत्वेभ्यस्तदान मतिरिद्यते ॥ २८ ॥ कपिलानां सहस्राणि यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ २९ ॥ दत्तमिष्टं तपस्तप्ततीर्थसेवा तथा श्रुतम् । सर्वेप्यभयदानस्य कलां नार्हति षोडशीं ॥ ३० ॥ नातोभूयस्तमोधर्मः कश्चिदन्योस्तिभूतले। प्राणिनां भयभीतानां अभयं यत् प्रदीयते ॥ ३१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर मेकस्य सत्वस्य दत्ताह्यभयदक्षिणा । नतु विप्रसहस्रेभ्यो गोसहस्रमलंकृतम् ॥ ३२॥ अभय सर्वसत्वभ्योयोददाति दयापरः । तस्य देहेऽपि मुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ ३३ ॥ हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके प्राणिनामभयप्रदः ॥ ३४ ॥ महता मपि दानानां कालेन क्षीयते फलं । भीताभयप्रदानस्य क्षय एवन बिद्यते ॥ ३५ ॥ शान्ति पर्वणि-यथा मेन प्रियो मृत्युः सर्वेषां प्राणीनां तथा । तस्मान्मृत्यु भयान्नित्यं स्वातव्याः प्राणिनो बुधैः ॥ ३६ ॥ एकत कृतवः सर्वे समग्रवरदक्षिणाः। एकतो भवभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥ ३७॥ एकतः कांचनो मेरु बहुरत्ना वसुंधरा । एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणं ॥ ३८ ॥ सप्तद्विपांसरत्नां च दद्यात् मेरुं सकांचनं यस्य जीवदया नास्ति सर्व मेतत् निरर्थकं ॥ ३९॥ खल्पायु विकलो रोगी विचक्षु बधिरः खलु वामनः पामनषंढो जायते सभवेभवे ॥ ४० ॥ अहिंसा परमो धर्म स्तथा ऽहिंसा परं तपः अहिंसा परमं ज्ञानं अहिंसा परमं पदं ॥ ४१ ॥ इतिहासपुराणे तथा श्रीमद्भगवद्गीतायां ॥ अधोगच्छन्तितामसाः इत्यादि ॥ तथाच श्रुतिः॥ नतं वेदा यज इमा जजा कमंतरं बभूव नीहारेण प्रावृताजल्या चासुतुप उक्थ शासश्चरन्ति ॥ तथा च भागवते एकादशस्कन्धे ॥ हिंसाविहाराह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया यजन्ते देवतायज्ञैः पितृभूतपतीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खला ॥ भागवते नारदवाक्यं ॥ भो भो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे ॥ संज्ञापितान् जीवसंधान निघृणेन सहस्रसः ॥ एते त्वां संप्रतीक्षते स्मरंतो वैशसंतव ॥ संपरेतमयःकूटै छिंदत्युत्थितमन्यवः ॥ इत्यादि बहूनि वाक्यानि हिंसानिषेधपराणि सन्ति ग्रन्थविस्तरभया नात्र लिखितानि॥श्लोक ॥ मरुत्तंत्र॥न कर्तव्यं न कर्तव्यं न कर्त्तव्यं कदाचन ॥ इदन्तु साहस देवि न कर्तव्यं कदाचन ॥ प्रश्न ४ नो उत्तर-राजाओने ते अवश्य कर्तव्य नथी. अने ते न करवाथी को ई शास्त्रनो बाध लागतो नथी कारण के ते विषे उपर वाक्य लखेल छे के ते वामाचार शूद्रने के मूर्ख-अज्ञानीने करवा लायक छे. उक्तंच वामाचारो मदुक्तोयं सर्वः शूद्रपरःपिये न कर्तव्यो न कर्तव्यो न कर्तव्यः कदाचन ॥ मरुत्तंत्रे ॥ प्रश्न ५ नो उत्तर-ए हिंसानी प्रवृत्ति बंध करवाथी कोई जातनो राजाने तथा प्रजाने आपत्तियोग आवे एवं कोइ प्रख्यात शास्त्रमा कबुल नथी ने हिंसा बंध करवाथी सारु फल प्राप्तमान थाय छे, तेम घणे ठेकाणे कहेल छे. ते वाक्य लढें छु. तथा ते विशे केटलाक वाक्य उपर लखेल छे. श्लोक-२७-२८-२९-३०-३१-३२-३३-३४-३५-३६-३७-३८-३९-महाभारते॥ आयुरारोग्यमैश्वर्यत्यागभोगी यशानिधिःभवत्यभयदानेन चिरंजीवी निरामयः॥ प्रश्न ६ नो उत्तर-पशुवधविना तेनी प्रतिनिधि क्रिया करवाथी कोइ बलवान शास्त्रनी आज्ञानो भंग थतो नथी. कारण के अहिंसा रूढीथी प्राप्त छे, तेमां शुं शास्त्रनो भंग थाय ? कारणके एनो कोइ अंश वाममार्गने लायक पडे छे. ते शूद्रादि नीचने करवा लायक छे ते विशे आगळ लख्युं छे. अने ते हिंसानी बराबर क्रिया नीचे प्रमाणे छे. ___ श्रीशक्तिसंगमतंत्रे प्रतिनिधिः ॥ पायसंतुगजत्वेन मांजारत्वेकुलुत्थकं ॥ वृन्ताकंकुक्कुटत्वेन मेषत्वेन च तुम्बिका ॥ माहिषत्वेन मसूरान् उष्ट्रत्वेन च तुम्बिका ॥ तथाच रुद्रयामले ॥ छागाभावे च कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं ॥ वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेत् छुरिकादिना ॥ श्रीमहाकालसहितायां ॥ सात्विको जीवहत्यादि कदाचिदपि नाचरेत् ॥ इक्षुदंडं च कूष्मांडं तथा रण्यफलादिकम् ॥ क्षीर पिंडैः शालिचूर्णैः पशुं कृत्वाचरेद्वलिं ॥ तत्तत्फलविशेषेण नान्यं पशुमुपानयेत्॥(कूष्मांडं महिषत्वेन छागत्वेन च कर्कटी मिति ॥ अवश्य कामना प्रयोगमां जीव हिंसाने बदले उपर प्रमाणे प्रतिनिधि करवा- कन्यु छे. ते प्रमाणे करवाथी तेटलुन फल प्राप्त थाय छे माटे अवश्य कर्तव्य होयतो प्रतिनिधियी ते उत्सव करवो, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ प्रश्न ७ नो उत्तर - पशु वगेरे बलीदानमां ते पशुना नाक तथा कानने छेको मारीने प्राणीने छूटुं मेली देवाथी कांइ पूर्ण क्रिया थइ न गणाय. उक्तंच कालिका पुराणे सुगन्धि रुधिरे दद्यात् न कदाचित तु साधकः नोष्टस्य चिबुकस्यापि नेंद्रियाणां तथैव च ॥ इंद्रियछेदोन मुख्यत्वे अहिंसा बंध करवा लायक छे. कारण कोइ ठेकाणे आ प्रमाणे अविधिथी हिंसा करवी ते कोइ ठेकाणे वाक्य नथी. उपर लखेल के बलेव अथवा दशराने दिवसे हिंसा करवामां आवे छे. ते केवळ शास्त्रविरुद्ध छे. माटे बंध कर जोइए कारणके दशराने दिवसे बळीदान आपवाथी राज्यनो नाश थाय छे. एवं धर्म शास्त्रमां लखेलछे. नंदायां ज्वलते वन्हिः पूर्णायां पशघातनं भद्रायां गोकुलकीडा देशनाशायकल्पते ॥ माटे मुख्यत्वे ते कर्तव्यता शास्त्र विरुद्ध छे. माटे ते रुढी बंध करवी जोइए अथवा कुष्मांड छेदन करण पशु वध करवो, एवो मारो मत छे. लि० भट्ट बालाशंकर रूपजी. लींबडी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.२० अमलसाडवाला शास्त्री रामकृष्ण इच्छारामनो अभिप्राय. श्रीमत् महाराणा राजा साहेब कमीटीना मेम्बरो-तथा. प्राणजीवन जीगजीवन महेता समीपेषुआपनी पवित्र जाहेरखबर हाळ बेत्रण दिवसमांन मलवाथी तथा समय आवा गंभीर विषयने माटे बहु ओछो होवाथी-स्थाली पुलाकन्यायवत् संक्षेपमांप्रश्नना उत्तरो यथामति नीचे प्रमाणे छे. १- वेद शास्त्र तथा पुराणादि ग्रन्थोमां ज्या ज्यां राजप्रकरणो जोइए तो त्या त्यां विजया दशमी विगेरे पर्वपर पाडा बकरा विगेरेनो वध राज्यश्रेयने माटे लखेलो जोवामां आवतो नथी. बहु कालथी चालता ए आसुरी वाम मार्ग(जेनो बौध मतथी अगाडी अधिक जोर हतो) थी हिंसामय क्रूर मार्गनो प्रचार थयेलो संभवे छे. अंगोपांग शास्त्रोमां ए वात बिलकुल नथी. वेद शास्त्रोमां प्रजापिडक व्याघ्रसिंह वनसूकरादिनो तथा वेदविरोधि आतत्यायीनो वध करवानो राज पुरुषोने विधि जणाय छे. यदि पुराणिक पंडितो हठयी मार्कंडेयादि पुराणोमां एवां क्रूर करम करवाने जणावे तो ते सृष्टिकम युक्ति तथा इश्वरनागुणकर्म अने स्वभावने अनुकूल न होवार्थी सिद्धान्त पक्षे मान्य थइ शके नही. सांख्य दर्शनमां कापलजीए कह्यु छे के "नायौक्तिकस्य संग्रहोन्यथा बालोन्मत्तादिसमत्वं" अर्थात् ग्रन्थोमां ने अयोक्तिक संग्रह होय ते उन्मत्त बालकोना जेवो समजवो. तो दीन अनाथ तथा संसार जीवनभूत प्राणिओनी हिंसा विजयादशमी विगेरे पर्व उपर करवी कराववी ए कोइ आर्ष शास्त्रोमां विधिपूर्वक प्रयुक्त जणातुं नथी. वळी योगवसिष्टना मुमुक्षु प्रकरणना अढारमा सर्गमां वसिष्ट महामुनिए महाराज रामचंद्रनीने का छे के अपि पौरुषमादेयं शास्त्रंचेयुक्तिबोधकं अन्यत्त्वार्षमपि त्याज्यं भाव्यं न्यायैक सेविना ॥ १॥ युक्तियुक्त मुपादेयं वचनं बालकादपि अन्यत्तृणमिव त्याज्य मप्युक्तं परमेष्टिना ॥ २॥ अर्थ-अपक्षपाती मनुष्ये युक्तिबोधक शास्त्र साधारण पुरुषे रचेलूहोय तथापि स्वीकार, पण युक्ति विनानुं ऋषिए कहेलं होय तो पण त्याग करवू केम के युक्तियुक्त वचन बाळकथी पण गृहण करवा योग छे. ने युक्तिरहित कदी प्रजापतिए कह्यु होय तथापि घासनी पेठे हलकुं गणी त्याग करवू. तो राजधर्ममां एवी हिंसाथी श्रेय थाय एवां वचनो बतावनारां शास्त्रो कदी मोटा महर्षि ने नामे जणावी सिद्ध करता होय तथापि ईश्वरना न्यायने भणी धर्मात्मा मनुष्ये निर्भयताथी छोडी देवा जोइए. वैशेषिक शास्त्रोमां महर्षि कणादे का छे के दुष्टं हिंसायाम् अर्थात् हिंसाकर्म विशे प्रवृत्ति ए दुष्ट कर्म छे माटे एवा निंद्य कर्मथी राज्य, श्रेय थतुं नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ वीजा प्रश्ननो उत्तर. आर्य लोकोमा सर्व मान्य अथवा बहु मान्य अपौरुषेय वेद (जे संहिता विभाग ) तेज गणाय छे. केमके एमां इश्वरना गुणकर्म अने स्वभाव तथा सृष्टिक्रम विरुद्ध लेखन नथी. माटे सर्वमान्य एज गणाय छे. ने ब्राह्मणादि पौरुषेय ग्रन्थोनो जेटलो वेदानुकूल विभाग तेटलोज सर्व मान्य थइ शके बीजो नहीं. माटे स्वतःप्रमाण वेदरूप शास्त्रोने वेदान्त दर्शनमां व्यास महामुनिए मुख्य शास्त्र मान्युं छे. तथा शास्त्रयोनित्वात् ए सूत्र उपरथी श्री शंकराचार्ये जे भाष्य कीधुं छे, तेनी मतलब ए छे के ऋग्वेदादि शास्त्रनुं योनि (कारण) ब्रह्म छे. माटे एज शास्त्र सर्व मान्य तथा बहु मान्य गणाय छे. ए वेद शास्त्रोनां राजधर्म प्रकरणमां दिन परोपकारी पशुओना विजया दशमी आदि पर्वोपर हिंसा जणाती बथी. माटे सर्वथा ताज्य छे. ३-त्रीजा प्रश्ननो उत्तर वेदशास्त्रना प्रमाणथी (स्मृति ) धर्म शास्त्रनुं प्रमाण उतरतुं गणाय, ने तेना करतां पुराण कनिष्ट गणाय छे, एम शास्त्रकारोनो सिद्धान्त छे यथा श्रुति स्मृतिः पुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते तत्र श्रौतं प्रमाणंतु तयोद्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ १ ॥ अर्थात् वेद धर्मशास्त्र तथा पुराणोमा एक ज विषय निर्णय करवामां विरोध आवी पडे तो श्रुति प्रमाण प्रबल छे अने स्मृतिप्रमाण तथा पुराण प्रमाणमां विरोधआवी पडे तो स्मृतिप्रमाण श्रेष्ठ गणाय छे. फलितार्थ ए आवे छे के सर्व करतां वेदतुं प्रमाण श्रेष्ठ सर्व विद्वानो मानता आव्या तथा हाल माने छे. हवे वेदमां एवा विजया दशमी उपर पाडां बकरादिनी हिंसानो विधि जणातो नथी. निषेध मंत्रो घणां जणाय छे. “यथा, यजमाना पशूनपाहि" यजुर्वेदे अ० १ ० १ अर्थः-इश्वर आज्ञा करे छे केयजमान नाम जे यज्ञ यागादि कानार विद्वानोने सत्कार करनार-संगति करनार यजमान क्षात्र धर्मी राजपुरुष, पशु रक्षणकर. एवी ईश्वरनी हिंसा न करवा रूप आज्ञा जणाय छे. वली यजुर्वेदना ४० मा अध्यायमां तो मनुष्य मात्रने माटे अहिंसा लखी छे, तो राज्य पुरुषोने राज्यना कोई पण जातना भलांने माटे श्वासवान् दीन परोपकारी प्राणीने वध करवो शी रीते संभवे ? यथा असुयानामते लोका अन्धेन तमसा वृता॥ता स्तेप्रेत्यापिगच्छन्ति येके चात्महनोजनाः॥अर्थात्जे मनुष्यो श्वासवान् जीवोने एटले निरपराधी मनुष्य पश्वादि प्राणीओने ठार मारे छे तेनुं गति अर्थात् ज्ञान नहीं एवी अंधकारमय एटले अज्ञान वेष्टित् पश्वादि योनिने प्राप्त थाय छे. माटे ए अपौरुषेय वाणीने, मान्य करी क्षमा एवा हिंसादि दोषथी बची इहलोक परलोकनी हानी न करवी एवी प्रबलं शास्त्रनी आज्ञा छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ४ प्रश्ननो उत्तर. राजपुरुषों ए कर्तव्य नथी के एवां गरीब प्रजाना जीवमां सहायभूत प्राणीओनो विनाकारण दुष्ट रूढी रुप संकुलामां बद्ध थइ वध करवो. केमके एम थवाथी राजपुरुषोनुं कर्तव्य सिद्ध थयुं गणाय नहीं. मनु महाराजे तो क्षत्रीओने जे कर्तव्य कर्म लख्यां ते आ प्रमाणे छे. प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययन मेवच विषयेष्व प्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः अर्थ - क्षत्री ( राज पुरुषे ) प्रजानुं सर्व रीते रक्षण करवुं अनाथ अथवा विद्वानोनो यथा योग सत्कार करवो, सर्वना सुखने माटे यज्ञ करवा, वेद शास्त्रो भणवां, विषय सुखमां अति आसक्त न थनुं, इत्यादि संक्षेपमां क्षत्रीओनां कर्तव्य कह्यां छे. एज कर्तव्य राजाओने कल्याण करनार छे. एज प्रमाणे भगवद्गीतामां पण श्रीकृष्ण भगवाने राजाओनां कर्तव्य कर्मों नीचे प्रमाणे लख्यां छे. शार्यतेजोवृतिर्दाक्ष्यं युद्धेचाप्यपलायनम दान मीश्वर भावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् अर्थात्-राजपुरुषोए पराक्रमी थवं, शरीर तथा विद्या विर्यथी तेजस्वी थवं धीरज राखवी उदार थवु, युद्धमां कायर थइ पार्छु हठवुं नहीं. उदारता राखवी - ईश्वरने विषे आस्तिक बुद्धी राखवी एटलां क्षत्रीओनां स्वभावथी एटलां कर्मों उत्पन्न थयेलां छे राजाओनुं एज कर्तव्य छे. शुद्रकनीति तथा मनुस्मृत्तिमां राजधर्ममां विजया दशमी विगेरे पर्वोपर पशुवध करवो जणावेलो नथी. राजनीति राजाओनो प्रधान धर्म छे ( स्वेस्वेकर्मण्यत्रिरतः संसिद्धिलभते नरः ॥ श्रीकृष्णजीए अर्जुनने पण एमज कं छे के पोत पोताना वर्णाश्रम धर्म पालवाथीज शुभ सिद्धि छे. बलवान् शास्त्रो एवी आज्ञा करतां नथी. ने एवी क्रिया न करवाथी शास्त्रोनी आज्ञानुं उल्लंघन गणायज नहीं. एवा प्रसंग उपर हिंसा न थवाथी राज्यने प्रजाने तथा राजाने अंगे कोइ पण प्रकारनी आपत्ति आवती नथी परन्तु ॥ अहिंसा प्रतिष्ठायां वैरत्यागः एम व्यासजीए पोताना पातंजली दर्शने भाष्यमां कह्युं छे. अर्थात् हिंसा तजवाथी जे पशुओनो विना कारण वध थवाथी आवता जन्ममां वैर लेवाने माटे भय उत्पन्न थाय छे तेनो अटकाव थता आ लोकमां वैर त्यागनो मोटो लाभ थाय छे. पशु वध करवाथी राज्यने ने प्रजाने तथा राजाने अंगे हरकत थाय ए केवल वहेम छे. एतदर्थ प्रतिपादक प्रमाणो वामीओनां बीलकूल मिथ्या छे. एनी साबेती एटलीज के जेने काठियावाड विगेरे संस्थानोना राजाओए एवां पर्व पर हिंसा छोडी छे, तेओने एवीज कोइ प्रकारनी आपत्ति आवी होय एम जाण्यामां आव्युं नथी. कदापि कोइने कोइ प्रकारनं नुकशान थयुं वा थशे तो हिंसा छोडवाथीज थयुं एम सिद्ध थइ शकतुं नथी. तेमां बीजां घणां कारणो होवां जोइए परन्तुं एवां निंद्य कर्मनो त्याग करवाथी प्रतिष्ठा वधे छे, माटे ए महापापनुं काम छोडवाथी :- कोइ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातनुं अकार्य थवानुं नथी. एटलुंज नहीं पण परमात्मानी प्रसन्नताथी महा सुखनी प्राप्ती थशे. एज प्रमाणे श्रीकृष्णे-अर्जुनने कयुं छे–नहि कल्याणतःकश्चिदुर्गतितातगच्छति ॥ अर्थात् कल्याणकारी काम करनारने कोइ प्रकारनी दुर्गति थतीनथी. एमज शंका थती होयके विजयादशमी विगेरे पर्वोपर हिंसा करवाथीज राज्यादिनी आबादी छे तो इतिहासथी सिद्ध थाय छे के नागपुर, सोलापुर विगेरे राज्योमा पूर्वोक्त पर्वोपर उपर्युक्त हिंसा थती ही छतां केम राज्यनुं रक्षण नहीं थयुं? माटे देशकाल प्रजाप्रियता जोइ राज्यकान्ति पूर्वक राज्य करवाथीन राजा प्रजानी आबादानी छे. हाल युरोप अमेरिकाना राजा महाराजाओ पोताना देशनी सुखाकारीने माटे एवी क्रूर क्रिया करता नथी. तेतो साम दाम दंड भेद विगेरे, कृषिव्यापार, कलाकौशल्यादि प्रजानी आबादानीना योग्य कर्तव्यो करवाथीज बुलंदीपर पहोच्यां छे. माटे राज्यनी आबादानी-राज्यनुं श्रेय ने पोतानी कुशलता इच्छनार राजा महाराजाओए योग्य युरोपनी राज्यनीतिनुं अनुकरण करवू. एज बलवान शास्त्रोनी. सम्मति छे. किंबहुना ५ प्रश्ननो उत्तर. ... घृणित पशुवधने बदले होम हवनादि षायु-जळ शुद्धि पूर्वक वैदिक अनेक क्रियाओ करवानी छे. तथा राज्य आबादानीना कार्यो करवा राज्यमाथी (महीसुरनी पेठे) प्रतिनिधिओ बोलावी सर्वानुमते देशकालने अनुसरी राज्य सुधाराना कामो करवानो आरंभ करवो विगे रे घणी शुभ क्रियाओ करवानी छे. ए करवाथी बलवान शास्त्र वेदोनी आज्ञानो भंग थयो गणाय नहीं. एवी हिंसारहित क्रियामां विधिपूर्वक हवन बराबर तो शं? पण श्रेष्ठतम श्रेयस्कर गणाय छे. एवा विषयोनां वाख्यानो वा विस्तार पूर्वक लेखो थवाथीज महत्व मालम पडे. सारांश एटलोन के एवां पर्वपर हवन विगेरे पारमार्थिक क्रिया तथा बीजी हिंसा रहित लौकिक क्रिया करवी एज बस छे ६ प्रश्ननो उत्तर. विजया दशमी विगेरे पर्वोपर पशुवध करवाने बदले नाक विगे रेने छेको मारवो ए पण युक्तिसृष्टि तथा वेदादि सच्छात्रनी विरुद्ध छे. वळी ए पण क्रूर कर्ममां गणाय छे. माटे त्याज्य छे तेथी एकदम रसातळ पहोंचेलां हिंसारूप मूलीयां न छेदातां होय तो आरंभमां छेकारूप क्रियाथी वध अटके तो तेमां मोटो दोष नथी एम विवेकथी देखाय छे. परन्तु व्याजबी जोतां छेको करी छोडवा करतां बीलकुल एवी पण क्रिया न करीए ए धर्मात्माआनो सिद्धांत छे. आ नियम साधारणने माटे छे. स्वतंत्र राजाओने माटे नथी. केमके मनुस्मृतिमां लव्युं छे के. राजा कालस्यकारणं ॥ अर्थात् सारो नरसो काल लाववो एचं कारण राजा छे. त्यारे दुष्ट रिवाज धर्म रुपे प्रसरेलो काढी नांखवो ए शी विसात छे ? पण राजा धैर्यवान-धर्मात्मा-विद्वान्-शूरवीर, सत्य निर्णयी, बुद्धिवान् , सृष्टि नियम तथा इश्वरना गुण, कर्म, स्वभावथी ज्ञानवान् होय तोज आवां कामो करी शके. एवा प्रसंगउपर केटलाक मोटा गणाता पंडितो संस्कृमतां होय तेटलुं खरुंज १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ एम मानी पुष्टि आपनारा निकलशे खरा. ते उपर लोभाइ न जतां एकदम निर्णयपर न आवg एने माटे शास्त्रार्थ करवो ए श्रेष्ट छे. वली कर्मकांडविषयक नवीन पुस्तकोमा हिंसा रुप क्रिया जणावेली छे. पण ते प्रेरणा वा विधिरुप नथी पण रोज हिंसा थती होय तेने नियममाः लावी क्रमे क्रमे अटकाववा रुप छे. एवो शास्त्रोनो हेतु न समजतां सर्वत्र हिंसा पंडितमन्य मूढधीओऐ ठोकी बेसाडी शास्त्र वचनोपर पाणी फेरवी धर्मनी आडमां एवां क्रूर कर्मनो वधारो करी मूक्यो छे. ए रीति नियम वचन भागवतमां हिंसा छोडाववाने जणाय छे. तथा पशोरालम्भनं हिंसा ॥ अर्थात् हिंस्य पशुने आलंभन, एटले स्पर्षन पूजन करी छोडी देवू. अहिं आलंभननो अर्थ हिंसा रुपन करबो ए हिंसकनो स्वार्थ छे. बाकी प्रकरण तथा कर्ताना अभिप्राय प्रमाणे अर्थ तो शास्त्रमा स्पर्श तथा पूजन रूप थाय छे. एम मानवू शास्त्र तथा युक्ति पूर्वक छे. ए शास्त्रीय कर्मकांडी विषयमां पुष्कळ लखवा बोलवानुं छे परन्तु काम, समय तथा विषय वधवाना भयथी वधारे लखवानी हाळ जरूर नथी. पण आटलं तो जणावयूँ जोइएके ऋग्वेद ऐतरेय ब्राह्मण मां अलंकार रूपे पशु (वध) शब्दनो अर्थ नहीं उगे एवं त्रण त्रण वरसनुं जुनुंभात एवो करेलो छे. सारांश एके त्रण वर्षनां जूना भातनो वध एटले खांडी कुसका जूदा करी तेना पिष्टनो मोहन भोग करी हवन करवो कह्यो छे. ने एवीज अनामेध संज्ञा छे. आवातमां शंका थती होय तो तथा ए विषयमां वधु जाणवांनी इच्छा होय तो पूर्वोक्त ब्राह्मण ग्रंथ मंगावी वांची निर्णय करी लेवो ओ सर्वेषां वाएष यमूनो मेघो यहीहि यवौ अर्थात् सर्व पदार्थोमां शाली तथा यव ए पशु संज्ञक शुद्ध धान्य हवनने योग्य छे. एवो पशु क्ध करी होम करवो एज पशु वधथी. सरद् ऋतुनी शान्ति रूप क्रिया पूर्ण थई गणाय पण आवां जीवन्त पशु मारवां नहीं. उपसंहार. धीर वीर प्रतापी सूर्यवंशमुगटमणी धर्मावतार महाराज महाराणा श्रीमान् मोहन देवजी महाराज तथा प्रधानादि राज्यकर्मचारीओ तथा आ विषयनी समीक्षक कमीटी तथा राज्याश्रित पंडितादि सुज्ञजनो प्रति अनेक धन्यवाद पूर्वक सानुनय प्रार्थना छे के आ मारा बाल लेखनुं सारी रीते निरीक्षण करवू. आ पत्र पहोंचवा पहेलां पत्रोनी समीक्षा थई चूकी हशे. परन्तु कृपा करी आ पत्रनुं पणसम्मेलन करवू ने व्याजबी निर्यण आपवो एवी आशा छे. ने आशा छे के आ रिवाज हवेथी धर्मपुरीमां बन्ध थशे एज ली० कृपाकांक्षी कृष्णराम ईच्छाराम वैदिक धर्मोपदेशक ग्राम खरसाङ–ता. अमळसाड तथा जलालपुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २१ स्वामि आत्मानंदजीनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवनदास जगजीवन धर्मपुर. स्वामि आत्मानंदनीना आशिर्वाद. विशेष लीखवेमें आते हे के हिंसा नहि करवी एसा सात प्रश्न तुमने पुछये हुवेथे इसका जुवाब यथामति लिखवेमें आये हे सो मान्य करेंगे, तुमेरा कागज हमने ता. ७-९-९४ का छपा हुवा मिलाथा सो उत्तर लिख्या हे. “केटलाक राज्योमा दशेरा वगेरे पर्वोपर देवी के देवने भोग आपवाना निमित्तथी पशुवध थतो अने थाय छे ते वात शास्त्रोक्त छे के केम" ए वगेरे ये निर्णय वास्ते कितनेक प्रश्रो लिखे हैं. सदरहु विषमये नीचे लिखे अनुसार उत्तर लिखताहुं विदित होके "मूलं नास्ति कुतः शाखा" इस वाक्य समान उक्तपत्रलिखित प्रश्न हे अतेव उनके सविस्तर उत्तर लिखनेमें समय गंवाना व्यर्थ समजता हूं अर्थात् जो राजा लोग देवि या देवके सामने पाडा बकरा विगेरे की हिंसा करते हैं वहां प्रथम यह विचारना उचित हे के वोह पथ्थर ओर मनुष्य घडत मूर्ति देवहे अथवा नहीं? अथवा वोह स्वयं देवहे ? यदि वोह मूर्ति देवहे क्यों पाडाविगे रेका खून पीते हे क्यों के माडाविगेरे निरपराधी की हिंसा उसकी तृप्ति अर्थ समजी गइ हे निदान जो वोह देव सबके समक्ष खून पी लेवे उस देवका वाहन पथ्थरका बना हुआ सिंह अपना कर्तव्य (हरण वगेरे पशुको स्वयं मार डालना इत्यादि) दिखावे; उस देवकी ( में आया मनुष्या) उंगली कोटें तो कुछ परिणाम (उंग. लीमेसे खून निकले, या देव पुकारे, या देव काटनेवालैको मारे या अपनी नाराजी सिद्ध करे या अपने को देव बचावे निकले या हमारा रखाहुवा भोग खालेवे ४; वा कोइ अनुचित क्रिया उसकी सेवामें करें तब मुखसे कहे या शिक्षा दे ५. वगेरे परीक्षा हो जावें तो वोह मूर्ति या स्वयं देव किसीके मंतव्यमे देव या देवी हे" एसा मान लेंगे (क्योंके देव नाम हे विद्वान् सद्गुणी पुरुषका. हिंसा या मांस भक्षण तमगुणके अंतर गतहे अतेव उक्त खून पीनेवालेको सर्वके मंतव्यमें देव कहना अनुचितहे ) परंतु आर्यावर्तके चमत्कारीक कहवाने वाले स्वत और मंदिरोमें जाना कर परिक्षा की हे; उस देव या देवीने “ यह थोडाथोडा हे या अधिक हे यह मुझे पसंदहे यह पसंद नही हे-एसा कबी उत्तर नहीं दिया ओर न कभी भोग खाया. अतेव उस मूर्ति या स्थानको देव वा स्वयं देव नहीं मान सकते ( शं ) सत्युगमें मूर्ति परचा देतीथी अब कलयुगमें बंध पड़गयाहै और देवता चलेगये, अतेव परीक्षा उपर आधार नहीं करते ( समाधान ) जब सतयुग आवे ओर मूर्ति या देव उक्त प्रकारके परचा देवें ओर दैवत आजावे ओर कलिकाल नाश हो जावे तभी तुमभी ऐसी हिंसा करना. अभी तो इस अनुचित्त कृत्यको बंध करो जराक एकांतमां बेठकर निष्पक्ष होकर विचारोके पथ्थरों ( शथपथ ब्राह्मण कां० १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ओर गीताका अध्याय ९६ देखो. ) की मूर्तिका जे वर चोर लेगये तब उन्होने अमने पूजारी को भी नहीं जगाया ओर अब न जगाते हैं; ओरको दूर नहीं कर सकते, भोगको नहीं खाते, उनके सेवकनको हिंदू तीनके कहे शत्रु जो मुसलमान उन मूर्तियोंको तोड डालते हैं ओर तोड डालीहे तबभी वे मूर्ति देव आप अपनेको वा अपने पुजारीको नहीं बचाते वा बचायो नहीं, उतेव “जो जैनी पौराणी वगेरे लोक मूर्तिको देव मानते या पूनते है या एसी त्रट सढी रखते हे वे भूलपर हैं या अज्ञानमें पासे हे या स्वार्थी हे" ऐसा स्पष्ट देख पडता हे. पुराण ग्रंथो सिवाय "मूर्ति पूजा या पथ्थरको चेतन मानना या जडको चेतन मानना या उसका चेतन बनजाना" किसी भी प्राचीन आर्य शास्त्रोमें नहीं लिखाहै और मान्या हे षट् शास्त्र या चारुं बेदोमें इसका विधान नहींहे किंतु "वेदोमें जो कोइ ईश्वरो या ईश्वरकी मूर्ति या ईश्वर पूजा या मूर्ति देव हे ऐसा कोइ सिद्ध कर देतो उसको रु. पांच हजारका इनाम देवें" ऐसी जाहेर खबर कलकत्तेके प्रसिद्ध प्रतिष्ठित बाबूने छ वर्षमे पेपरोमें प्रसिद्ध कर रखी हे परंतु अभीतक कोइभी सिद्ध करने को तैयार नहीं हुवा इत्यादि अनेक युक्ति प्रमाण ए अनुभवसे "मूर्तिपूजा या स्वघडत मूर्तिदेव वा पुज्य हे ऐसा मानना, मनाना या पथ्थर प्रतिष्ठा वगेरेसे चेतन हो जाता है ऐसा जानना" समीचीन नहीं हे हमेरे से पूर्वज मानते आये हैं वे क्या अज्ञथे ? (स.) झूठकी रूढी पडगइहे ओर बहोत कालसे सो क्या मान्य हे यवन लोगोंका पीछे चला जीसमें हिंदुओंसे तिगुने मनुष्य हे सो क्यो नहीं मानते वे क्या सब अज्ञहे. मूर्तिकी रसम तो २५०० वर्ष पूर्व नहींथी यह इतिहास ओर प्राचीन ग्रंथ देखनेसे प्रसिद्ध हे अतेव हमेशे से नहीं अतेव प्राचिनोंपर मत देना योग्य नहीं) इतने लिखनेसें क्या सिद्ध हुवा ? जीसके सामने (देवके सामने) हिंसा करते हे वोह देवी या देवताही नहीं हे तब यही स्वीकार करना पडता हे के "जीसके सामने या जीस स्थलमें हिंसा करते हैं वोह मूर्ति या देव नहीं हे तब उसके सन्मुख हिंसा करना उचित . हे या नहीं? शास्त्रोक्त हे वा नहीं एसी हिंसा बंध करनेवालेने शास्त्र मर्यादा उल्लंघन करी या नहीं ? इत्यादि" पत्र लिखित प्रश्नही नहीं बनते तब उत्तरही क्या लिखें इसी सत्रबसे पत्र लिखित प्रश्नके उत्तरमें समय गंवाना व्यर्थ समजकर उदासीन हुं ( यहि मूर्ति पूजा, देव ओर हिंसाके संबंधमें विशेष देखना होतो भ्रम नाशक ग्रंथ धर्मपुरमें मिलता हे ) ओर पुरुषार्थ प्रकाश (यहरांथ हियासत शाठपुरा इलाके अजमेर देश मेवाडकी आर्य समाजमे मिल शकता हे.) ग्रंथमे सविस्तर शास्त्रोंके प्रमाण पूर्वक लिखा हे वहां देखलो. अतेव राजा या हरकोइ पत्र लिखित हिंसाजो करते वा कराते हैं वा निरपराधी उपयोगी जीवोंको दुःख देते वा मारते हे; वे अनीतिपर हे; तथा जो सामर्थ्यवान् हो ओर एसी अनीतिका बंध नहीं करे तो वोह अनीतिका सहायक हे एसा में मानता हूं. निरपराधी जीवको उस जड मूत्तिके सामने क्या सफल हे ? इस प्रश्नका यथार्थ ओर पूर्ण उत्तर वे हिंसक नहीं दे सकते. किंतु स्वार्थ सिवाय कोइ उत्तरही नहीं दे. यही आर्योमेंसे कोइ एसे कहे के देवके सामने वा यज्ञमे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुको मारडालनेसे या हवन करनेसे वोह पशु स्वर्गमें जाता हे तब ओ आर्य इस वातका उत्तर नहीं दे सकता अर्थात् उसका पुरावा क्या? वा आप या अपने पिता या पुत्रको ही क्यों न मारा भयके मुरुत में स्वर्ग मिलजाय. जो काइ ऐसा मानता होके पत्र लिखित हिंसा नहीं करोगे तो देव नाराज हो जायगा नुकसान करेगा तब हमारा इतनाही उत्तर बसहे यदि पूर्वोक्त परीक्षामें वोह देव पास होय जाय ओर उसकी नाराजगी सिद्ध होय जाय तो देवकारजी होनाभी मान लेगे ओर हिंसा करनेको अर्थ स्वीकार लेगे परंतु आज तक एसा नहीं हुवाहे जो एसा होतातो सोमनाथकी प्रतिका शिर यवन नहीं तोडते ओर क्षत्रिोंका राज नहीं जाता. ___ निदान जडके सन्मुख निरपराधी उपयोगी जीवके प्राण हनन करना अनीति हे एसे अनेक कारणोसे सीसोटिकोके बडे उदयपुरके महाराणा ओर दूसरे राजोने बहोत जगे पत्रलिखित हिंसा होना बंद करदियाहे. __ शूरवीर धीरोंका काम हे के निर्बल निरपराधीपर हाथ नहीं उगना किंतु उनकी रक्षा करना, और दुष्ट, शत्रु, घातकी जीवा ( काकू, आतयी, सिंह, रीछ, सूवर वगेरे ) को मारना ओर उनके भयसें मुसाफीर ओर प्रजाको अभयदान देना नके एसी अनुचित हिंसा करना या करनेमें सहाइ होना. पत्रमें प्रमाणी आर्य शास्त्रके संबंधसे प्रश्न लिखाहे इसका वर्तमानी निदान जरासी बातहे वोह यहयेः-तमाम दुनियामें कोनसा शास्त्र मान्यहे ? इस सवालके निर्णयका तो प्रसंग यहां नहींहे किंतु पत्रमें आर्य शास्त्रकी चर्चाहे; तहां आर्य ग्रंथोंमें कोणता शास्त्र मुख्य प्रमाणहे ? इस सवाल के उत्तरमें विचारहे? जैनी ओर पुराणियोंको दृष्टि ते शास्त्रोंकी दो शाखा हे जैन शास्त्रोंके सूत्रोंमें उक्त हिंसा नहीं हे परंतु उनके धर्मके प्राचीन ग्रंथ नहीं है किंतु २५४० ठाई हजार वर्ष पूर्वकालके जैन धर्मके ग्रंथ देखने में वामानेमे नहीं आते ( जुओ जैनी बाबु शिवप्रसाद स्टारापूर इंद्रिआ काडयाट्आ इतिहास तिमिरनाशक ग्रंथ ) अतेव पौराणियोंके शास्त्रोंपर दृष्टी डालें तो पुराण १८, स्मृति २०, शास्त्र ६, उपवेद ४, ब्राह्मण ग्रंथ ४, उपनिषद् १०, वेदके षट् अंग, ओर ४ वेदहे इनमेंसे पुराण तो जैन धर्मके सूत्रोंके पीछे बनेहे ( यह बात पुराणोंके लेख सही सिद्ध होती है.) यदि ईन ग्रंथोंके अनेक कारणोपर जावें तो बहोत हे इसलिये सर्व मान्य इतनाही उत्तर लिखना बसहे के आर्यों ( चोराणी विगेरे) के सर्व ग्रंथ ( उक्त ग्रंथ शास्त्र वगेरे ) वेद ग्रंथकी साक्षी लेते हैं; वेदको स्वतः प्रमाण मानते हैं. सर्व ग्रंथ शास्त्र वेदके पीछे बने हे. (वर्तमान कालके नवीन शोधकों ( यूरोपीअने वगेरे ) ने भय भीतहि निश्चय कीया हे के ईस पृथ्वीके तमाम देशके ग्रंथों में "वेद" प्राचीन ग्रंथ हे. काली पुराण देवी भागवत पुराण नहीं है, मार्कडेय वगेरे पुराण राजा भोज के समय किसीने बनाये हे देखो संजीवनी नाम ग्रंथ जो राजा भोजके समय बना हे.) निदान उनके तमाम ग्रंथ ओर आचार्य वेदकोटी मान्य मानते हैं चतेव अन्य ग्रंथ ओर शास्त्रोंकी छोडकर ४ वेद (४संहिता) को प्रबल मुख्य प्रमाण कल्प लेवें तब सामान्य दृष्टिसे यह प्रश्न उत्पन्न होते हे के" वेद प्रमाण हे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा अप्रमाण हे ? यदि प्रमाण हे तो उसमें प्रबळ हेतु क्या ? इत्यादि परंतु इन झगडोंका यहां प्रसंग नहीं है किंतु पत्र लिखत आर्य ग्रंथपर ध्यान रखनेसे वेदको प्रमाण मान करही उत्तर लिखने योग्य हे. वेद ग्रंथको प्रमाण मानने वाले वेदके षष्टांगसे वेद मंत्रका जो अर्थ सिद्ध हो जावे ओर ईश्वरी नियमसे विरुद्ध न हो सो अर्थ मान्य मानते हैं अन्यथा (अमान्य ) वेदके भाष्य (वेदका अर्थ विगेरे ) रावण, उवट, महीधर, सायनाचार्य, मोक्षमूलर, ओर दयानंद सरस्वती ने किये हैं इन सबके भाष्यमें पत्र लिखित हिंसाका तो कहींभी विधान नहीं है (यह पत्रका उत्तर है; बस) परंतु कोइ भाष्य ( महीधर सायनाचार्य ) विषे यज्ञमें पशुवध करके मांस हवन करनेका अर्थ करडालेहें; परंतु दयानंदादिने एसा अर्थ किया हे के वेदमें पशु वध विद्र नहीं किंतु निषेधहे, एसा सिद्धकर देखायाहे. इत्यादि मुख्य प्रबल प्रमाण वेदके अर्थोमें झगडे हैं; वहां यह शंका उत्पन्न होती हे के इनमेंसे किसका अर्थ मान्य होगा? तब वेदके पटांगपर द्रष्टि डालनी पडती हे (वेदानुयायीके मंतव्य अनुसार षटांगकी चर्चा अवश्य करनी पडी. शब्दके अर्थ करनेमें आकांक्षादि ४ हेतुवों से व्याकरण मुख्य हे; वास्ते वेद ग्रंथके व्याकरणको यहां तपास करनेकी जरुरतहै अतेव नीचे लिखे अनुसार तपासका विस्तार लिखते हैं:-वेद ग्रंथ तो महाभारतके समय तथा व्यास, कृष्ण, पतंजली, राम, गौतम, कपिल, ऋषभदेव और मनु वगेरे पूर्वकालके क्योंके उनके ग्रंथोंमें वेदोंकी साक्षी स्पष्ट लिखीहै ओर वेद ग्रंथोंमें उक्त पुरुष या उनके ग्रंथोंकी साक्षी वा चरचा किंतु किसी मनुष्यका भी इतिहास नहीं है. अब यह विचार उचित हवा के जीस व्याकरणसे ( उवट, महीधर सायनाचार्य वगेरेने ) वेदके अर्थ किये हैं वा करते हैं सो "पाणिनीऋषि" कृत "अष्टाध्यायी" ग्रंथ हे सो तो "रामचंद्रनीके पीछे बनी है" यह बात उस अष्टाध्यायीके सूत्रोंसेही सिद्ध होतीहे; क्योंके उसमें 'गर्ग, 'वामदेव, इत्यादिकी संतानके वास्ते प्रत्यय लिखेहैं; ओर वामदेवता दशरथके समय हुवाह इसलिये राजा रामचंद्रके पिता राजा दशरथ ओर श्रीरामचंद्रके पीछे पाणिनीकृत व्याकरण अष्टाध्याइ ग्रंथ बनाहै ओर पतंजलि ऋषिने उसकेपर महाभाष्य रच्याहे सोभी रामचंद्रजीके हुयेहैं ( इत्यादिक देखो आर्य संवत ग्रंथ) इत्यादि पुरावोंसे अष्टाध्याइ ( जोके वेद ग्रंथका व्याकरण कहाताहै ) रामचंद्रके पीछे बना स्पष्ट है. तथाहि अष्टाध्याइके सूत्रोंसे यहभी सिद्ध होताहे के उसके पूर्व दूसरे व्याकरण प्रचलित थे कयोंके दूसरे व्याकरणोंकी अष्टाध्यायीमें साक्षी है. ( मतांतर भी हे ) इतने लिखनेसे क्या आया के वेद काल समयका आकरण जब हो तब वेदका यथार्थ अर्थ होना संभव हे. ( अष्टाध्याइ) वेद कालसें हजारो किंतु उससे भी अधिक वर्षों पीछे बनीहे अतेव फेरफार होना संभव हे. वात्ते इसी व्याकरणपर आधार नहीं हो सकता अथवा उस समयके वेदार्थहों उसपर विशेष ध्यान देना योग्यहे, परंतु दिलगीरी हे के उक्त दोनों वातें अभीतक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ प्रसिद्ध देखनेमें नहीं आइ अतेव वेदार्थका केसे निश्चय हो. ( यह एक अंग व्याकरणका तपासहे) अतेव जबतक सत्यवक्ता विद्वान तथा सत्ताधारीकी मंडली होकर एक अर्थ निश्चित न होवे वहांतक हम वेदके मंत्रोंकी भी साक्षीमें देना नहीं चाह दूसरे ग्रंथोंकी तो वातही क्या ( शंका ) अष्टाध्या इमें पूर्व प्रचलित व्याकरणका अंतर तथा भिन्नत्व जनाया है. इसीसे सिद्ध होता हे के संस्कृत भाषाका मूल वेद उस बेदके काल पीछे संस्कृत भाषामें फेरफार हुवात्तभी लौकिक संस्कृतका व्याकरण कितनेक भागमें भिन्न पड गया है, यदि एसा न होता तो दोनोंका शबोका एकही व्याकरण होता अतेव फेरफार स्पष्ट हे. (शं.) वेदके पीछे वेदसे अत्यंत समीप कालमें “ मनुस्मृति " ग्रंथ बना हे उसके दाखले देने योग्य हे (उ० ) यद्यपि मनुस्मृति के अध्याय ५ श्लोक ४५ से ५१ तकमें ऐसा स्पष्ट लिखा हे "अनुमंता विशसिता" इत्यादि श्लोक.५१ जीवके मारने में सलाहकांरी, मारनेवाला, मांस वेचनेवाला, मांस लेनेवाला, मांस पकानेवाला, मांस खानेवाला इत्यदि घातकी पापीहें" इत्यादि प्रकारके दाखले हे तथापि वर्तमान कालमें जो सर्वमान्य शिरोमाण स्मृतिकी तपास हुइ तो किसी कापीमें कितनेही श्लोक अधिक पाये अर्थात् इस ग्रंथमें स्वार्थिओने मेलझोल करदिया हे यह स्पष्ट होगया यहांतक के पूर्वापर विरोध देखवाने वाले श्लोक उसमें मिलते हैं जैसे ॥ सुरावैमल्य ॥ इत्यादि अध्याय ११ के श्लोक ९३-९४-९५ में सुराका निषेध कीया है और नमांस भक्षणे दोषो न मद्ये नच मैथुने इत्यादि अध्याय५में एसा श्लोक लिख्याहे के मांसभक्ष,मद्य पीवन ओर मैथुन करने में दोष नहीं है क्योंके मनुष्यों की स्वाभाविक उसमें प्रवृत्ति होती हे परंतु इनसे निवृत होनेमें बडा अछा फलहे अब बुध्धिमान विचार लेंगे के एसा पूर्वापर विरुद्ध लेख मनु केसे लिखता अतेव मनुस्मृतिमें घालमेल होनेसे उसके दाखलेभी हम देना नहीं चाहते तब दूसरी स्मृतियोंकी तो क्या गणनाहे. इसी प्रकार ब्राह्मणादि ग्रंथो के दाखले से उदासी नहें. यद्यपि षटशास्त्रोंमें हिंसा मात्रका निषेध हे इसमे किसीका विवाद नहीं हे ओर उनमेंसे "पूर्वमीमांसा" के कोइ सूत्रमें विवाद भीहे ओर पत्र लिखित हिंसा तो पूर्वमीमांसा में भी नहींहे. तो भी षट् शास्त्रके दाखके नहीं देना चाहते क्योंके हमतो उनके मूलपर दृष्टि डाल रहे हैं. तेसेही पत्र लिखित हिंसा पूर्वोक्त कोई भी ग्रंथमें नहीं हे तो भी उनके दाखले देना नहीं चाहते क्योंके ग्रंथोमें घालमेल होनेसे उनके वेद मूलपरही हमारी दृष्टि है. यद्यपि पत्रलिखित हिंसा वेदमें भी नहीं हे यदि होती तो पूर्वोक्त किसीके भाष्यमें तो चर्चा होती सो तो नहीं है इसलिये एसा कहनेमें दूषण नहीं है किंतु यथार्थ हे के "वेदमे पत्रलिखित हिंसाका विधान नहीं हे" तथापि अर्थ के विवादसे सर्व हिंसा अहिंसा बाबत हम वेदके मंत्र साक्षीमें नहीं देना चाहीए. परंतु इतनी प्रतिज्ञा करसकते हैं के पत्रलिखित हिंसा वेदमें जो सिद्ध करनेको तैयार होतो शास्त्रार्थ करनेको उद्यत होकर नियम बांधकर शास्त्रार्थ करे. पूर्वोक्त प्रकारसे पत्रलिखित प्रश्न ही नहीं बनते वेसेही प्रश्नोंका उत्तर ही लिखने योग्य नहीं इतना विषय यहांतक आचुका अतेव पूर्व लेखपर दृष्टि डालते हुए पत्र लिखित ७ प्रश्नों के मुकाबले पर यह लखना बस है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ७ प्रश्नोंका उत्तर. कोई शास्त्र नहीं है. पूर्व प्रश्न अंतर्गत उत्तर छे तंत्र ग्रंथ शास्त्र नहीं कहेला छे. वेदमें अनपराधी उपयोगीकी अनुचित्त रीतिसे हिंसाका निषेध 19 होने योग्य है, परंतु प्रबल शास्त्र वेद ग्रंथके अर्थ में झगडे हानेसे साक्षीमें मंत्र लिखना नहीं चाहते शास्त्रार्थ होने तक. ૪ થે १ ले प्रश्नका उत्तर.... २ सरे ३ सरे " .... .... ओर न होने योग्य है. ७ वे . आज्ञा तोडी एसा नहि गिना जाता ओर इसका प्रबल प्रमाण हे. नहीं कहा है क्योंके विद्ध ही नहीं है. नहीं तो तिसके बदले अमुक क्रिया कैसे लिख शकते हैं ६ जत्रके पत्र लिखित हिंसाही "" 11 "" कुरान या बाईबलके मतका वेदमें निषेध हे ! ऐसा कोई प्रश्न करे तो इसकी साक्षीके मंत्र वेद में नहीं निकलेंगे कुरान या बाईबलका नाम भी वेदमें नहीं हे ईसी प्रकार पत्र लिखित हिंसाकी साक्षी वास्ते समझ लेना अतेव दाखले नहीं लिख सकते और अर्थापत्तिकी रीतिसे झगडे हैं. जब यूं होते यह सवाल पेदा होते हे के उक्त हिंसा की रूढीने क्यों ओर कब प्रवेश किया ? इसका संक्षेपमें यह उत्तर है. जिस समय इसकी रसम चली तत्र वर्तमान कालका कोई भी मनुष्य नहीं था अतेव दृष्ठ साक्षी तो कोई भी नहीं करसक्ता तथा योगी लोग भी भूत भविष्य यथार्थ नहीं बता सक्ते इसकी सिद्धि हम कर सकते हैं अतेव ग्रंथोंके लेखसहित करार करनी पडती है जब इतिहास पर बात आई तब ईतनी शंका सन्मुख आती है: १ अपने अपने धर्माचार्य के अनुयाइ अपने ग्रंथ में अपना पक्ष कल्पित गाथासे लिख देता है जेसे कबीर पंथवाले कबीरकी हयाती ओर चरित्र सृष्टि आरंभ से मानते हैं, और ग्रंथो में लिखे बताते हैं वेसेही जैनी, किरानी, कुसनी, पुराणी अपने अपने पक्ष के सिद्धि वास्ते इतिहास बना बनाकर छोड गये हे जिनका मूल माथा नहीं मिलता अतेव कोनसा इतिहास मान्य हे. पृथीराज चोहान कोनसे संबतमें हुआ इसमेंही तकरार हे कोइ संवत ११४९ कोइ १२५० लिखता हे अब विद्वान विचारेंगे के एसे प्रसिद्ध राजाके समयका ८०० वर्षमें झगडा पडगया, निर्णय नहीं होता तब एसी सूक्ष्म ओर अनेकाधीन रसमका यथार्थ कारणमें विवाद हो उसमें क्या करना है. २ - संसारमें फेरफार होता रहेता हे, नवीनखंड वस्ते हे प्राचीन समुद्रमे डूब जातें हैं; इत्यादि अनेक फेरफारसे ग्रंथ या संकला मिलना असंभव है. अतेव रूढीके निर्णयमें श्रम करना व्थर्य हे तथापि इस रूढीका ठीक अमुक समय तो नहीं परंतु समय की लगभगता निश्चय होनेकी सामग्री मिलने से इतना लिखना बस हे के महाभारतसे पूर्वके ग्रंथोंमें किंतु २५०० वर्षके पूर्व कालके ग्रंथोंमें मूर्त्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा नहीं है इससे यह सिद्ध होता हे के पूर्वोक्त हिंसाकी रूढी २५०० वर्षके पूर्व कालमें तो नहीं थी किंतु पीछेसे चली हे और उसका मूल कारण वाम मार्ग मतहे. जान्होंने महादेव वगेरे ऋषिओंके नामसे तंत्रग्रंथ बराबर चलायो. इस मतका शंरार्चायेने नाश कियाथा परंतु उसके अंग बाकी रहगयेथे तिस पीछे इस ( पत्रलिखित ) रूपमें इस हिंसाका प्रवेश हुवाहै. उदेपुरके महाराणाओंके इतिहास तवारीख मेवाड-राजप्रशस्ति वगेरे ग्रंथसे तो यह ज्ञात होताहै के राणा राजसिंह ( ओरंगजेब, आलमगीरका शत्रु ) के समय तक राज्योंमें यह रसम नहीं चलीथी जबसे वाममार्गने राजपुतानेमें प्रवेश किया, ओर क्षत्री राजा अपने शत्र मुसलमानों को अपनी हजुरीमें रखने लगे तबसे इस रूढीने राज्योंमें प्रवेश किया ओर उक्त संगसे द्रढात्मक होगइ यह रूढी क्यों चली यह कोइ प्रश्न नहीं है, इन्द्रनाल, सिद्ध साधक, ओर चालाकी करके चुटकले दिखलाकर स्वार्थियोंने एसें स्वरूपमें इसको ढालादया एसा ज्ञात होताहे अथवा नामरदे, कायर, आलसी क्षत्रियोंने सिंहादिके बदले पाडे बकरे मारना बहादूरी मानकर यह रसम द्रढ कर दीइ." रूढीपर चलना या नहीं चलना " इस वातका विद्वान सत्यवक्ता और उत्तम राजा स्वयं फैसला कर सक्ते हे. अर्थात् निकृष्ट रुढीको नष्ट करना और उत्तमका प्रचार करनाही उचितहे. निकृष्ट सठीपर अंध परंपरासे चलना कोइपर फरज नहीं हे किंतु विद्वान सत्य वक्ता ओर योग्य राजपुरुष या लायक राजाको तो यह फरज हे के ऐसी निकृष्ट रूढियोंका प्रचार ही न होने देवे और रिवाज होगया होतो नष्ट भ्रष्ट करनेका जलदी उपाय ले, नहीं तो व्यसनी, इंद्रि आसक्त और स्वार्थी मनुष्य बल पाकर किसी रूढीको द्रढ कर देंगे फेर उसका निकालना कठिन पड जाता हे. दोहासुन देखे अनुभव करे, बुद्धि युक्ति कर पाय, जैसी जाकी बुद्धिहै, वेसी कहे सुनाय, हंस नीर और छीरमें, कर वियोग पयपीत, सत्या सत्यके शोध में, सत्य लेत मनजीत. हितेच्छु स्वा. आत्मानंदनी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To, नं. २२ पंडित बाळाजी विठ्ठल गावसकरनो अभिप्राय. HIS HIGHNESS MOHAN DEV JI, MAHARAJA OF DHARMPUR. MAY IT PLEASE YOUR HIGHNESS, That there are no bounds to my joy when a circular was put unto my hands so late as this morning from Pranjivan Jagjivan Medical officer by a friend of mine calling upon those who take interest in (f) (Ahimsa ) I have been throughout my life in search of Authority on the point and met unfortunately with none that could stand genuine altogether what I collected in the range of my researches proved to be totally spurious and I stand very able to refute anything that may be brought in vindication off on an intimation being sent to me by your Highness. In these days of Aryan degeneration it has been so dangerous by an uphill work to find the without of the obstenice and corrupted state of Aryan an Biglography. I confess it was my life long study to have ultimately to find that the Vedas prevent anything but f and hence in these gloomy days I rejoice to see Your Highness in the place of your noble ancestors of solar race-the great Viswakarma Devjee and Ramchandra who made many sacrifices without common thing themselves to the abhorance of consumming animal life. I beg leave to lay before Your Highness herewith two copies of a pamphlet named "Thoughts on Dasara" out of my several works bearing the subject. This pamphlet is particularly submitted to enlighten Your Highness on the absurdity and cruelty of ruthlessly killing of sheep goats and buffaloes throughout the country on the Dasara day; a high sin I implore God that personages like Your Highness may be convinced of and returned from to shed light in this land of Devas. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ I further beg to call Your Highness's attention to my exhaustive work in Gujarathi with authorities and minute point and reasons named अहिंसा धर्मप्रकाश which is in the press and shortly will be out. I beg to remain Your Highness Your Highness's most obedient servant PANDIT BALAJI VITHL GAVASKAR, ADDRESS C/O PRANJIVANDAS KANDRAM, *999999666666 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat BOMBAY. www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुवध निषेध. भाग २ जो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुवधनिषेध. भाग २ जो. नं. १ मुंबई वासी शास्त्री कहानजी जीवणरामनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन मेहता __ चीफ मेडीकल आफीसर. मु. धमपुर. मुंबई बंदरथी लखनार गीरनारा काहानजी जीवनराम शर्मानी आशीश वांचशो. ता. २३ मी सप्तेम्बर सने १८९४ ने रवीवारना गुजराती पत्रमा तमारा तरफथी जे हिंसा बाबतनुं लखाण प्रश्नरुपे छपायुं छे ते चर्चापत्र अमारा वाचवामां आवता हवे हुं आ हिंदनी स्थिति सारी हालतमा आववी जोईए एवी आशा राखी अति हर्ष सहित यथा शक्ति तमारा प्रश्नोना उत्तर लखवा शरु करुंछं. तमारा तरफथी जे सात प्रश्न करवामां आव्या छे ते जीव हिंसा करवी के नकरवी ? करवीतो कोने करवी ? अने ते कया वजनदार शास्त्रमा लखेलुं छे ? आ विषय उपर सघळु लखाण छे तेनो खुलासो नीचे प्रमाणे. प्रथमतो उपरना प्रश्नोनो जिज्ञासु कोणछे ? अने तेनुं खरं कर्तव्य शास्त्रोमा शं छे ? भने ते शुं कहेवायछे ? तेनो खुलासो कर्याथी खरं कर्म स्वच्छ जणाशे. तो उपरना सवालना जिशासु महाराजा पोतेज छे. ज्यारे हिंदु राजा क्षत्रिय तरीके शास्त्रमा लेखायछे त्यारे क्षत्रिओने पण वेदमां द्विज कह्याछे. ने ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य ए त्रण जाति द्विज कहेवायछे तेने माटे नीचे प्रमाणे मनु भगवान् कहेछे. ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः॥ चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्तितु पंचमः ॥ १॥ मनुस्मृति अ. १०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य ए त्रणने द्विज अथवा द्विजातिय वर्ण कहेछे एटले जेने बे जन्म के एवा कहेछे, चोथी शूद्र जातिने एकजात केहे छे एटले तेने एकवार जन्म छे, पांचमोवर्ण नथी. ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चेति वर्णाश्चत्वारः ॥ १ ॥ तेषामाद्याद्विजातयस्रयः ॥ विष्णस्मृति अ. २ जो. अर्थ — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र एम चार वर्ण छे तेमांना पेला त्रण द्विज छे. हवे द्विजना त्रण जन्म छे ते नीचे लखुं कुं. मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौजिबंधने ॥ तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् ॥ १ ॥ मनुस्मृति अ. २ जो. S अर्थ - पोतानी माता थकी थएलो जे जन्म ते पहेलो जन्म. उपनयन [ जनोई ] संस्कारथी थएलो ते बीजो जन्म. अने यज्ञ दीक्षा लीधा पछी थएलो जे जन्म, ते त्रीजो जन्म. एवं श्रुतिनुं प्रमाण छे.—त्यारे हवे उपनयन संस्कार थया बाद द्विजने माटे श्रीवेदमगवाने आ प्रमाणें कहुं छे. ॥ अहरहः संध्यामुपासीत ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एत्रण वर्णोंए नित्य संध्यादिक कर्म करवुं जोईए. - ए मंत्रथी मज आज्ञा करी छे, माटे वेदोक्त नित्य कर्म करवामां त्रणे वर्णे प्रमाद करवो नहीं जोईए. अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः ॥ वेदप्रतिपादित संध्यावंदनादिक नित्यकर्म नहि करवाथी द्विज पापरूप दोषने पामे छे, श्रुतिमां नित्यकर्म नहीं करनारने पापना भागी कह्या छे. ए सर्वदा स्मरणमां राखतुं जोईए के जे संध्यादिक कर्मे नथी करतो तेने शूद्र समान जाणवो.- - भगवान मनु कहे छे. न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् ॥ सशूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ॥ १०३ ॥ मनुस्मृति अ. २० अर्थ — जे द्विज प्रातःकालनी संध्याने उभो रहीने करतो नथी, अहीं संध्या ए शब्दथी गायत्री जाणवी कारण के, - - " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व संध्यां न तिष्ठेत सावित्री मर्कद्दर्शनात् ॥ इत्यादि मनुनु वचन छे, अने बेसीने सायंकालनी संध्या करतो नधी तेने शूद्रना जेवो गणीने ब्राह्मण, क्षत्रिय ने वैश्यना सर्व कर्मथी दूर करी ज्ञाति बहार करवो, अने पशुना सरखो जाणी सत्कार न करवो. अन्य स्मृतिओए.पण ए. विषेना संबंधमां एमज कहुं छे के, श्रौतंचापितथास्मात, कर्मालंब्य वसेद्विजः॥ तद्विहीनः पतत्येव, ह्यालंवरहितांधवत् ॥ १॥ एकाहं जपहीनस्तु संध्याहीनो दिनत्रयं ॥ द्वादशाहमनग्निस्तु शूद्रएव न संशयः ॥२॥ तस्मान्न लंघयेत् संध्यां सायं प्रातः समाहितः ॥ उल्लंघयति यो मोहात् सयाति नरकं ध्रुवम् ॥ ३॥ भावार्थ-श्रुतिए तथा स्मृतिए कहेलां नित्य कर्मोनो आश्रय करीने द्विजे रहेवू अने ते नित्य कर्मों विना द्विज अवश्य अधोगामी थायछे. जेमके लाकडी विगेरेना आलंबन विनानो आंधळो पुरुष खाडामां पडेछे तेम. ॥ १ ॥ जे द्विज एक दिवस पर्यंत जपरहितछे त्रण दिवस पर्यंत संध्या रहितछे अने बार दिवसपर्यंत अग्निमां होम कर्याविनानोछे ते द्विज शूद्रज छे एमा संशय नथी.॥ २ ॥ संध्यागें उलंघन करवाथी द्विज शूद्र भावने पाछे, माटे द्विजे. कदापि पण उलंघन न करता सायंकाळमां तथा प्रातः काळमां सावधान थईने संध्या वंदन करवु. जे द्विज प्रमादथी ते संध्यानो परित्याग करछे ते द्विज निश्चय नरकने पामेछे ॥ ३ ॥ वळी गायत्री जपविषे श्री मनुभगवान् नीचे प्रमाणे कहेछे. मनुस्मृति अध्याय बीजो. सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत्रिकं द्विजः। महतोऽप्येनसो मासात्वचेवाहि विमुच्यते ॥ ७९ ॥ एतदर्चा विप्रयुक्तः कालेच क्रियया स्वया। ब्रह्मक्षत्रियविदयोनि गर्हणां कति साधुषु ॥ ८०॥ अर्थ-जे द्विज संध्या वेळा सिवाय बीजा काळमा बहारजई. ओंकार तथा त्रण व्याहती सहित गायत्रीनो छ हजारवार जप करे तो ते कांचळीमांथी सर्पनी पेठे महापातक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांथी एक मासमां छूटो थायछे. ॥ ७९ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्यमांथी जे कोई गायत्रीनी जप त्याग करेछे; अने यथाकाले पोतानी क्रिया करतो नथी तेनी सारा माणसोमां निंदा थायछे माटे गायत्रीजप अने स्वकर्मनो त्याग कदापि करवो नहि ॥ ८७ ॥ प्रमादथी संध्या वंदनादि करता नथी तेनी गति श्रीमरीचिरुषि नीचे प्रमाणे कहेछे. संध्या येन न विज्ञाता संध्या येनानुपासिता । जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वाचाभिजायते ॥ ४ भावार्थ- जे द्विजे संध्या जाणी नथी अने संध्यानी उपासना करी नथी ते द्विजने जीवतां शूद्र जाणवो अने मुआपछी ते कूतरो थायछे. श्री दक्ष नीचेना श्लोकथी कहेछेके संध्या वगरनो द्विज सर्व धार्मिक कर्ममां काम आवतो नथी. संध्या हीनोऽशुचिर्नित्य मनः सर्वकर्मसु । यदन्यत्कुरुते कर्म, न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ भावार्थ - जे द्विज संध्याहीन छे, ते नित्य अपवित्र छे. तेथी सर्व कर्ममां ते द्विज काम आवतो नथी ने ते बीजुं धर्म संबंधी कांई काम करे, तो तेनुं फल ते द्विजने कांई मळतुं नथी. . हवे उपरना श्लोकोथी एवो भावार्थ खुलो समजाशे के, सर्व द्विजने उपनयन संस्कार तो अवश्य थवो जोईए. त्यार पछी संध्यावन्दनादिक होम अने गायत्रीनो जप यथाविधि करवो जोईए. अने जेओ प्रमादथी करी शकता नथी तेओ अशुद्धभावने पामी नरकमां पडेछे. माटे पोतताना अधिकार प्रमाणे द्विजे कर्म अबश्य करवां ते बहुज उत्तम कहेवाय छे. छठ्ठा श्लोकमां एवं कहेवामां आवेल छे के, गायत्री महापातकमांथी मुक्त करे छे. त्यारे गायत्रीनो अर्थ तथा तेना मंत्रनो अर्थ जाणवो जोईए. गायत्री एटले गाय +त्री = गानार यथाविधि जप करनार, ने त्रीनाम पापथी तारे छे माटे ते गायत्री कहेवाय छे. अने तना मंत्रनो भावार्थ एवो छे के आ लोक तथा परलोकना जे प्रकाश करनार एवा जे ब्रह्ममयी सूर्य, ते अमारी बुद्धिने धर्म, अर्थ काम अने मोक्षमां प्रेरेछे, कारण के है सूर्य ! अमो तमारुं निरंतर ध्यान करीए छीए. माटे अमारा आ जगतने विशे कयां कयां कर्तव्य अमारे करवानो अ-धिकार छे ते बतावो . त्यारे जेम सोय पासे चमकपाण धरवाथी जेम पोतानी मेलेज सोप खेंचाई चमकपाणने चोटे छे तेमज आ गायत्री जप तथा संध्यावंदनादि कर्म करवाथी अंतःकरणनी शुद्धि थाय छे, त्यारेज धर्ममां अंतःकरण प्रवर्ते छे, अने तेथी अर्थ झुं साधवो, तथा काम कर्तुं तेवा सूक्ष्म विचार कर्याशिवाय सूक्ष्मज्ञान पण थतुं नयी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने सूक्ष्मज्ञान उपर ध्यान आप्या वगर धर्म, अर्थ, काम न जणाय तो मोक्षपद तो क्याथीज मळे. आजकालना द्विजो पोतपोतानुं खरूं कर्तव्य पण जाणता नथी, कारण के उपदेशक जे ब्राह्मण छे ते पण विद्यारहित थई गया. आम थवानुं कारण एटलुज छे के पूर्व ब्राह्मण लोकोनों निर्वाह राजा के पोताना यजमान चलावता हता त्यारे ब्राह्मणो एक स्थले बेसी तमाम धर्मशास्त्र भणीने जिज्ञासुओने घटतो बोध आपता.. तेज प्रमाणे क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र पोतपोताना धर्ममा प्रवर्तता हता. अने ते दिवस केवा सुखी हता ते पुरातनी इतिहासो वांचवाथी मालम पडशे तेमां मुख्य करी आहारना पदार्थोमां फरक थयो ते नीचे प्रमाणे श्लोकथी कहेवामां आवे छे-गीतानो अध्याय १७ मो. कच्चाम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥९॥ शब्दार्थ-( अति ) कडवा, खारा, खाटा, उना तीखा लूखा अने दाह करनार तथा दुःख शोक अने रोगने करनारा एवा जे आहारो ते राजस कहेवायछे. आ उपरना आहारोनुं बहुज सूक्ष्म (घणाज थोडा ) पणे ग्रहण करवू जोइए. तेना बदलामां अतिशय हद उपरांत खावा लाग्या, त्यारे वीर्य अति उष्णता पामी गयुं जेथी भोग वासना वधी जेथी शरीरमांनी नाडी जड थई पडी अने स्वच्छ अन्तःकरण हतुं ते बंध थई गयु. अने जे ज्ञानइन्द्रिय हती ते कर्मेंद्रियने ताबे थई तेथी शरीरमां कुदरते चैतन्यनो घटाडो थयो अने उंघ आलसमां वधारो थयो जेथी स्वधर्म कर्ममां अभाव आवी पहोंच्यो ने प्रमादथी कर्मनो लोप करी नांख्यो. जेवू धर्मरुपी तुंबडं भवसागर तरवानुं हाथमांथी गयुं के तरत तमोगुणरुपी मोजाओए ते प्राणिने घेरी लीधो ने अहींथी तहीं अथडावा मांडयो. जेथी पोतानुं शरीर पोताना हाथमा रघु नहिं. एटले सात्त्विकवृति, संतोष पणुं, अद्रोह, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, क्षमा, दया, विगैरे जे आ शरीरने सुख उपजावनार साधनो तेनो नाश थयो. एटले संतोष वृत्तिथी रहित मन विषय वासनामां अनेक प्रकारे अनेक स्त्रीओ आदिमां चोटवा लाग्यु. जुठापणु, अनहद द्रव्य मेलववानी ईच्छा, दयाथी रहितपणुं, सुस्ती, मिथ्या भाषण करवामां तथा स्वार्थ साधवामां मंड्या रहेवा पणुं, अने अंतःकरणमांथी ईश्वरनो अभाव आववा लाग्यो, एटले मतलब ए के वखते ईश्वरने बीजा लोकना देखतां संभारे; ते लोकने देखाडवा माटे. त्यारे उपरना कहेवा प्रमाणे भाहारमाथी पायरी उतरती जोवामां आवे छे केमके धर्मसंबंधी ज्ञान तेनें कोई रहेतुं नथी. ... एटले स्त्री, द्रव्य भने खास पोतानी मतलब साधवामांज तत्पर थयो. · एटले ज्यारे दुःख प्राप्त थाय त्यारे तामसी देवोनुं इष्ट करवा मांडे अने मानताओ करे, के “ मने अमुक वस्तु प्राप्त थायं तो अमुक देव [ भूत, प्रेत, पिशाच, मातृकादि विगेरे ] ने अमुक जातीनो जीव बलीदानमां आपीश," आवी रीते मोहथी अन्ध थयेलो मनुष्य स्वकर्मनो त्याग करी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वैदविरुद्ध ] दुष्ट कर्मोमा प्रवृत्त थई जीवनी हिंसा करवा तैयार थाय छे. परंतु तेर्ने ईश्वर तरफनो त्रास पण लागतो नथी अने ईश्वर संबंधी ज्ञान पण रहेतुं नथी. त्यारे तामसीवृतिवाला मनुष्य, नीच देवोनुं आराधन करी पोते अहिंसकना हिंसक बने छे अने अखाज खावा मांडे छे. अने तेओ कई गतिने पामे छे तेने माटे श्रीभगवान् नीचेना श्लोकोथी कहे है. गीता अध्याय १७ मौ. श्लोक ४. भजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ ६॥ भावार्थ-जे जनो देवोने पूजे छे ते सात्विक जाणवा. जेओ यक्ष ने राक्षसोने पूजे छ तेओ राजस जाणवा अने प्रेत-भूतना समूहने एटले के पिशाच तथा मातृकादि तथा भूतोना गण, जेवा के कालभैरव तथा महिषासुर विगेरेने पूजे छे ते पुरुषोने तामस जाणवा त्यारे तामस पुरुषो जेवा जे मनुष्य होय ते आहार केवा करे छे ? गीता अध्याय १७ श्लोक १० यातयामं गतरसं पृतिपर्युषितंचयत् । उच्छिष्टमपिचामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥ शब्दार्थ-अर्ध पाकेलं रसविनाने दुर्गंधीवालुं [ एक रात जवाथीं ] टाढं एलु मने वळी यज्ञने अयोग्य एवं जे भोजन ते तामसने प्रिय छे. हवे एटुं एटले भोजन करी लीधा पछी ते भोजन पात्रामां शेष रहलु यज्ञने अयोग्य एवं डुंगली, लशन, गांजर, मांस, मत्सादि अपवित्र वस्तुओ " पर्युषितंच" एमांना चकारथी अत्यंत दुष्टपणाथी प्रसिद्ध बीजा आहारोनुं पण ग्रहण करवं. अपिच एमांना चकारथी वैदकशास्त्रमा कहेला अपथ्य आहारोनुं पण ग्रहण करवं. आ तामस आहार कहेवाय छे. तेनो सात्विक पुरुषोए अत्यन्त दूरथी परित्याग करवो योग्य छे. अने नीचेना श्लोकथी तामसनां कर्म कहे छे. गीता अध्याय १८ श्रा. २५ अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषं । मोहादारभते कर्म यत्तत् तामसमुच्यते ॥ २५ ॥ अर्थ-अनुबंधने क्षयने हिंसाने तथा पौरुषने ने विचारीने मोहथी जे कर्म आरंभाय है ते तामस कहेवाय छै ॥ १५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवें धर्मशास्त्री रहित थई जाय के तेनुं कहे छे, गीता अध्याय १६ श्लोक ७० 9 प्रवृत्तिंच निवृत्तिंच जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ ७ ॥ भावार्थ - आसुरजनो शास्त्रे कह्या मुजब धर्म तथा अधर्मने जाणता नथी तेथी तेमां शौच आचार के सत्य एमांनुं कांईपण रहेतुं नथी. हवे जेओ वेद विरुद्ध प्रवृत्ति एटले हिंसादिक कर्मों करे छे तेओ कई गतिने पामे छे ते कहेछे. गीता अध्याय १६ श्लोक ९० एतांदृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ॥ प्रभवत्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ ९ ॥ भावार्थ - ए दृष्टिनो आश्रय करीने ते नष्टात्मा, अल्प बुद्धिवाला, उग्र कर्मवाला तथा प्राणीभोना शत्रुओ, जगत्ना नाशने माटे व्याघ्र सर्पादिरूपे उत्पन्न थायछे. टीका – तो उपर कह्या प्रमाणे वेदवाक्योथी उलटा वर्ती शास्त्रनो परित्याग करी हिंसादिक कर्मों करे छे, तो तेनो जन्म व्याघ्र सर्पादि जेवो धारण थाय छे। अने अल्प मृत्युने पामे छे. हवे एज बीजा श्लोकथी नीचे मुजब कहे छे. मीता अध्याय १६ श्लोक १६. अनेक चित्तविभ्रांता मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्तिनरकेऽशुचौ ॥ भावार्थ — अनेक प्रकारना चित्तना दुष्ट संकल्पथी विविध प्रकारना भ्रमने पामेला मोहरूपी जालमां अलि विंदाला अने विषय भोगमां अत्यन्त आसक्त तेओ अपवित्र नरकमां पडे छे. हवे दुष्ट कर्तव्योनां फलनुं एक श्लोकथी विवेचन करी आ विषय सम्पूर्ण करवामां ॥ श्लोक १९ ॥ आवे छे. तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेवयोनिषु ॥ १९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ሪ अर्थ — द्वेष करनारा, क्रूर, नरोमां अधम, निरंतर अशुभ कर्म करनारा तेओने हुं नरके जवाना मार्गमां फेंकुंकुं. त्यार पछी अत्यंत क्रूरयोनिमां नाखुं लुं. हवें उपर जे श्लोक लखवामां आव्या तेनुं प्रमाण एवं छे जे वगर विचारे [ एटले शास्त्रना ज्ञान वगर ] पूर्वे जे जे लोको जेवा हिंसादिक कर्मो करी गया ते जोइ कोई पण पुरुषोर शास्त्रविरुद्ध वर्तवुं ते महापाप छे वळी जो देवनिमित्ते हिंसादि कर्मे करवामां आवे छे तो देव कांई हिंसक नथी कारण के ईश्वर केवो छे ते जाणवुं जोईए तो श्रीपातंजलमुनि पोताना पातंजळ योगदर्शन समाधिपादना २४ मां सूत्रमां नीचे प्रमाणे कहे छे क्लेशकर्मविपाकाशयेर परामृष्टपुरुषविशेष ईश्वरः ॥ भावार्थ -- केश कर्म विपाक अने वासनाना संस्कारथी त्रण कालमां रहित जे पुरुष विशेष ते ईश्वर. योगी पण काळे ईश्वर थाय छे; कारण के ते पण ईश्वर जेवांज चिन्ह धारण करी वर्ते छे. वळी ईश्वर जगतमां कोनाथी अधिक छे तेनो खुलाशो नीचेना श्लोकी थाय छे. पातंजलियोगदर्शन समाधिपाद || श्लोक ॥ १६ ॥ सएव पूर्वेषामपिगुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ भावार्थ - ते ईश्वर ब्रह्मादि जे पूर्व पुरुष तेना पण गुरु छे कारण के तेनी अवस्था कालथी परिमित नथी; त्यारे झीणो विचार करी जोईए तो आ सृष्टि ब्रह्माथी उत्पन्न थएली मणाय छे. अने तेनी अंदर सर्व देवो प्राणी आदिओ वसे छे. तो ते बधा ईश्वर थकीज उत्पन्न थवा जोईए. त्यारे तेनो नाश पण काले ईश्वरथी थायछे. त्यारे देवो स्वतंत्र नथी अने परतंत्र छे. ज्यारे परतंत्र छे; तो उपरी [ ईश्वर ] नी फरजो उपाडवानी जरुर छे. अने तेम न करे तो गुनेगार तरीके गणाय हवे देवदशा कोने प्राप्त थाय छे ! ते केम आवी ? ते वर्णन नीचेना श्लोकथी कहेवामां आवे छे. गीता अ. छठो. श्लोक ४१ मो. प्राप्य पुण्य कृतांल्लोकानुषित्वा शाश्वताः समाः ॥ शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥ भावार्थ - योगथी चलायमान थएलो योगी, पुण्यवान् लोकोने प्राप्त थवानो जे लोक ते लोकने पामीने त्यां घणा कालपर्यंत वसी पछी पवित्र पैसादारना घरमा जन्म पामे छे. टीका – सर्व कर्मने ईश्वरने अर्पण करी योगाभ्यासमां जोडायेला पुरुषनुं योगनी सिद्धिये पहोंच्या पहेलांज शरीर छूटी जाय तो अभ्यासनी शिथिलता के तीव्रतानुसार तेने. - ते काळे भोगनी के वैराग्यनी वासना स्फुरे छे. जे योगभ्रष्टने मृत्युकाले भोगनी वासनां? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुरे छ, ते अश्वमेधादिक यज्ञ करनाराओने प्राप्त थनारा ब्रह्मलोकमां जाय छे. अर्थात् अभ्यासनी तारतम्यता प्रमाणे स्वर्गलोक, महलाक, जनलोकने पामी त्यां घणा समय सुधी निवास करी, शुद्ध मा-बापथी उत्पन्न थएला पवित्र आचरणवाला धनवान् गृहस्थने त्यां के राजाने त्यां जन्म पामे छे. त्यारे योगथी शुं थायछे तेनुं वर्णन थायछे. पातंजली योग समाधि ॥ श्लोक २८ ॥ योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥ २८॥ ___ भावार्थ-योगनां अंगनुं अनुष्ठान करवाथी अशुद्धिनो क्षय थये विवेक ख्याति सुधी ज्ञाननो प्रकाश थाय छे. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा ध्यानसमाधयोऽष्टांगानि ॥ भावार्थ-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, अने समाधि ए योगनां आठ अंगो छे. हवे एम कोने कहे छे अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः टीका-अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अनें अपरिग्रह ए यम छे. ३० पातंजलियोगसमाधि ३१ जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ टीका-जाति, देश, काल अने समयथी ते एमनो भंग न थतां जो सर्व अवस्थामां ते सुस्थिर रहे तो ते महाव्रत कहेवाय छे ॥ ३१ ॥ __त्यारे सर्व कोईए श्रीसद्गुरु पासेथी योग जाणवानी आवश्यकता अवश्य राखवी. हवे आ उपरथी पण प्रत्यक्ष जणाय छे के देवो पण एक प्राणीतुल्य हता अने महातपथी योग करी देवनी पदवी पाम्या तो देवोने पण अहिंसक थर्बु जोईए; कारण के तेमने पण तप साधवानी जरूर पडी. त्यारे तपy अंग ते अहिंसक थq ते छे. ते उपर यमना प्रकरणमां कहेवायुं छे; त्यारे देवो पोतानुं महत्वपणुं छोडी दई हिंसामा चित्त राखी मूढयोनि प्राप्त थवा आशा राखे नहिं.. तेम देवोनुं ज्ञान कांई मनुष्यना जेवु नथी; पण तेने त्रण काळनुं ज्ञान छे. ते भागळना जन्मने देखे छे. माटे दुष्टकर्मनी इच्छा देवता करता नथी; पण तेतुं खरं कर्तव्य छे तेज करे छे. एटले जगत्ना हितने माटे अंतरिक्ष रही उत्तम प्रकारना जे जीव मनुष्यो तेनी रक्षा करे छे. तेनुं कारण एटलुंज के मनुष्यो पोते धर्मशास्त्रमा कहेलां कर्म करी मोक्षपदने पामशे; त्यारे तेनी गणना ईश्वरतुल्य थशे. ते ऊपरथी तेमनुं भलं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाभां अमारे पण कई श्रेय छे एम विचारी तेने अन्तरिक्षथी थता विघ्नो दूर करे छे. तेना बदलामा मनुष्ये [ द्विजे] वेदशास्त्रना मंत्रसहित दरेक देवनुं पूजन करवं. अने धूपदीप अने नैवेद्य अर्पण करवां ते दरेक द्विजनुं कर्तव्य छे. परन्तु अन्य देवोर्नु उपासन न करवं. साथी के तेम करवाथी मोक्ष नथी मळतो पण वारंवार अवतार धारण करवा पडे छे. वास्ते विद्वान् पुरुषे हिंसानो अवश्य त्याग करवो, अने वगर समजे जे हिंसाथी देवनिमित्त कर्मों करे छे ते देव अने कर्म करनारा बंने पाप भागी थई नुकशानीने पामे छे. जेम के रामकथामां एक प्रत्यक्ष प्रमाण छे. जेम राम लक्ष्मणने अहिरावण तथा महिरावण पाताळमां हरी गया अने वगर समजे देवीने हिंसक बलीदान देवानुं शरु कयु हतुं तो ते महिरावणना अकृत्यर्नु पाप देवीने पण सहन करवू पड्यु. केम के हनुमानजी देवीने पातालमा दाबी तेनी जग्यापर बेठा ने महिरावण जेवा महापराक्रमी पुरुषनो पण नाश थई गयो. पण अगाउथीज विचार करी हिंसादि कर्म न कयें होत तो विभीषण जेवी उत्तम गतिने पामी जात. माटेज पापरूपी तलीया वगरना नावमां जे कोई बेसे तो पछी भले देव होय के दानव अथवा रंक के राजा होय तो पण अकाळ मृत्युने तरतज पामे छे. माटे पुण्यरूपी नावमां बेसी स्वकर्मरूपी हलेसाथी हंकारवा मांडो तो भवसागररूपी समुद्र सहज तराय छे. द्विजनुं खरं कर्म नीचे प्रमाणे जणाववामां आवे छे. मीता अ. १७ मो. तदित्यनभिसंधाय, फलं यज्ञतपःक्रियाः। दानक्रियाश्च विविधा, क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः ॥२५॥ भावार्थ-मोक्षने इच्छनाराओए तत् ए शब्द- उच्चारण करीने फळनी इच्छा न राखी यज्ञ अने तपरूप क्रियाओ तथा जूदा जूदा प्रकारनी दान क्रियाओ कराय छे. हवे तप केवी रीते कर. गीता अ. १७ श्लोक १९. देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १६ ॥ अर्थ-देव, द्विज, गुरु, अने प्राशनुं पूजन, शरीरनी प्रवित्रता, सरलता भाचर्य बने अहिंसा [ ९ सर्व ] शरीरसंबंधी तप कहेवाय छे. हवे वृत्ति केवी राखवी, ते विषे श्रीभगवान् कहै छै. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीता अः १२ मो. यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानो हिजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगै र्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १६ ॥ शब्दार्थ-जेनाथी कोई पण प्राणी उद्वेग पामतुं नथी. तथा जे कोई प्राणीथी उद्वेग पामतो नथी अने हर्ष अदेखाई भय अने उद्वेमथी मुक्त ते मारो प्रिय. अने कर्म केवा आचरवा ते विषे. गीता अ. १६ अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायस्तप आर्जवम् ॥१॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शांतिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोल्यत्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥२॥ तेजःक्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्यभारत ॥३॥ भावार्थ-उपरना त्रण श्लोकथी एवो अर्थ थायछे के अभय, अन्तःकरणनी शुद्धि, ज्ञान, अने योगमां स्थिति, दान, अने इन्द्रियनो निग्रह, तथा यज्ञ, अने स्वाध्याय, तप, सरलता ॥ १ ॥ अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपैशुन, भूतोमां दया, ललुता न थवी, मार्दव, अकार्यमां लोक लजा, अचलपणुं ॥२॥ तेज, क्षमा, धीरज, पवित्रता, अद्रोह, अत्यन्त लघुपणानी भावना, सत्य गुणवाली लक्ष्मी [दैवीं] ए तमाम पामीने अंते मोक्ष पामे छे ॥३॥ हवे क्षत्रियोने उपरना धार्मिक कर्मो उपरान्त लौकिक स्वकर्म नीचे प्रमाणे छे. गीता अ. १८ मो श्लोक ४३ शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ ४३॥ अर्थ-शौर्य, तेज, धीरज, चतुराई, ने युद्धमा न नासवं, दान तथा ईश्वर उपर व [ ९ सात ] स्वभावथी थएलां क्षत्रियनां कर्मो छे. का--शौर्य-अत्यन्त बलवान पुरुषोने पण प्रहार करवामां प्रवृत्ति. पराक्रम-तेज शत्रुओथी अपराभवपणुं-प्रागल्भ्य. धृति-महान विपत्तिमां देह होय तो पण इन्द्रियोने अव्याकुल राखवी. चतुराई-अचानक आवी पडेलां कार्योमां पण मोहथी रहित जे प्रवृत्ति ते. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपलायन-महान्शस्त्रोनो प्रहार थया छतां पण पाछां न हठवू ते. दान-संकोचथी रहित थई सुवर्णादिक धन ब्राह्मणादिने आपq ते. ईश्वरभावना-प्रजानु पालन करवा माटे पोताना मृत्यादिक आगळ पोतानी प्रमुशक्ति प्रगट करवी ते. अथवा शास्त्रनिषिद्ध मार्गमा प्रवृत्त यनारां प्राणीऔनुं नियमन करवानी शक्ति. ए स्वभावथी रजोगुण प्रधान तथा सत्वगुणधी गौण एवा स्वभाव तथा कर्म क्षत्रिना छे. उपरनां स्वकर्म धारण करी हिंसादि कर्मथी रहित थq. एवो अमारो संपूर्ण मत छे. हालमा केटलाक विषयो बहार पाडवानी जरूर छे. पण बीजे प्रसंगे पाडीश. आवी शंकाओ उत्पन्न करी स्वकर्म जाणी लेवा विद्वान् प्रत्ये अवश्य प्रश्नो करवां. अमो बहारगाम गया हता जेथी बहुज थोडी मुदत रही त्यारे बहारगामथी आवईं थयुं अने लखतां दशरानो दिवस नजीक आव्यो. तेथी आ लखाणने जेम बने तेम उपयोगमा लई एक पण जीवने कशी वातनुं नुकशान न पहोंचवू जोईए. आमां शंका थाय तो जलदी नीचेना शिरनामाथी लखी जणाव. बीजुं आ लखाण वांची तुरत पाळु मोकलावq अने तेणे हृदयने केटलीक असर करी छे, ते संतोषकारक लखशो. बीजुं आ लखाणथी ग्रंथ उत्पन्न करवा छे, अने आवी नकल बीलकुल नथी माटे तुरत पार्छ पहोंचतुं थर्बु जोइए. आनो ग्रंथ तमोने वधारो करी मोकळावशुं. आ साथे ग्रंथ बे मोकल्या छे. ते संभाळी लेशो. उपनयन मीमांसा तथा मानव कर्तव्य पहोंचेथी पत्र लखवो. अशुद्धने शुद्ध करीने वांचq. उतावळथी लखेल छे. ठे. गीरनारा कानजी जीवणशर्मा बारभयाना मोल्लामा नागदेवीपासे पंजाबी मोरलीधर ओधवजीना माळामां. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० २० आर्यसमाजवाला मि. सेवकलाल करसनदासनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन महेता. चीफ मेडीकल ओफीसर. संस्थान धर्मपुर. भियतम महाशय, नमस्ते ॥ आपनी तरफथी आपना राजासाहेब नामदार महाराणा श्री मोहनदेवजी महाराजनी इच्छा सम्पूर्ण करवामाटे बलेव अने दशराने दिवसे जे पशुवध थाय छे; तेनो निर्णय करवा माटे जे छपायेला प्रश्नो बहार पड्या हता; तेनी एक नकल अमने रा. रा. माकुमाई घेलाभाई तरफथी तेनो प्रत्युत्तर मेळववा माटे मली हती, तेनो नीचे लखेलो जवाब आपना तरफ रवाना करवामां आवेळे अने अमने उमेद छे के तेनो घटतो उपयोग थशे. सुज्ञने वधारे शुं लखवू. हुँ छु आपनो कृपाकांक्षी. सेवकलाल करशनदास, देवदेवीने भोग आपवा निमित्ते थता पशुवध संबन्धी विचार. आर्योमा गुर्ण कर्म परत्वे चार आश्रम अने चार वर्ण बंधायेला छे. अने तेथी पण नीच स्थितिने पामेला मनुष्योने ' दस्यु' कहेता हता तेओना पण घणा भेदो थया छे. जेनुं सविस्तर वर्णन करवानी अहिं कांई अपेक्षा नथी. केमके सांप्रत सृष्टिनो आरंभ थयो त्यारे प्रथम सघळी ब्राह्मी सृष्टी हती; एq आपणा पूर्व ऋषिओनुं मानवं छे. अने ते सत्व प्रधानी ब्राह्मण वर्णमांथी जेओ राजस गुणने प्राप्त थया ते क्षत्रिय कहेवाया; तेमांथी जेओ भीरु नीकल्या ते वैश्य थया अने तेथी जे जडमति थया तेने सेवा योग्य समजी शूद्रमा गण्या अने उत्तरोत्तर छेक म्लेच्छ सुधी परिगणना करेली छे. ते क्रमथी पुनः चढता अने क्रमथी पुनः उतरता अने ते थवाना कालनो निर्णय युगादि गोठवणथी बांधेलो जणाय छे. तेथी जुदा जूदा युगोमां कोईवार सत्व प्रधान, कोई. वार राजस प्रधान अने कोईवार तामस प्रधान प्रकृतिनो मोटो भाग मनुष्योनो थतो हतो. तेओ जेम संसर्ग अने आहार विहारना दोषथी उत्तरोत्तर उत्तरता जता हता तेमज संसर्ग गुणोना योगथी क्रमशः चढता पण जता हता. तेथी जुदा जुदा कालमां पोत पोतानी प्रक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिमोनां अनुकूळ जुदां जुदां पुस्तको लखायेलां होवाथी ते सघलां पुस्तको सामटा लई साम्प्रत कालनी स्थितिने बंधबेस्ता करवानी गोटवण करवी; ए नहिं बनी शकवा जेवू प्रतीत थाय छे. केमके जूदा जूदा कालमा नूदी जूदी बाबतो उपर प्रकृति भेद थयेथी भने ते समयनी प्रकृति भेदनी लामणीधी बख़ाएलां पुस्तको त्रण काळनी जूदीजूदी लागणीओने अबाध केम थई शके 2 खलं कहेता एवा जूदा जूदा कालमां पुस्तको लखाई जूदा जूदा हजारो धर्ममतो आपणा देशमां उभराई गयाछे. केटलाक तो नष्ट थई गया के जेओना नामो सिद्धान्तोथीज आपणे जाणी शकीए छीए तेम केटलाक नवीन पण उत्पन्न थयाछे अने केटलाक आगला मतोनो धीरे धीरे नाश थतो जायछे. तेवी स्थितिमां शुं धर्म ? अने अधर्म: एनो निर्णय करवो, ए पठित धर्मजिज्ञासु द्विजोने पण श्रमसाध्य थई पड्युं छे. तो पछी अपठित मोटा वर्ग माटे शुं कहेवू ? अने प्राचीन ग्रंथोना पठितोमां पण मोटो भाग एकदेशी विद्वान होयछे अने ते वली देशना प्रमाणमा धणो जुजमागज. अने ‘तेमां वली संबन्धे विचार करी निर्णय करनारा थोडाज. तेमाएलो मोटो भाग तो यजमान कहे तेम करे अने तेने राजी राखनारो अने आस्तिक बुद्धि रहित अने धनलोभी वा मिथ्यामानी तेओनो मोटो भाग गणायछे. अने केटलाक लोको तो ते मांहेला तेओनी मन शक्ति खीलेली न होवाथी पोते आडे रस्ते उतरी यजमानोमां पण पोते अधर्मने धर्म समजी जेम वर्ते छे तेमज धर्म प्रचार करवानी पेरवी करेछे. तो पछी यजमानो के जेओनो संस्कृत विद्याथी अज्ञात भाग तेओए धर्म निर्णय केम करवो ? ए एक मोटो सवाल उभो थायछे. केमके हाल सघला पंडितो तो कोई नहींतर कोई पण मध्य कालना नवीन मतावलंबी होयछे. तेथी जो बहुमते कोई धर्म विषय मानवामां आवे तो जे मतना घणा पंडितो होय ते मत स्वीकार थई जवानो भय रहेछे. तेथी हाल जेओ घणा खरा धर्म जिज्ञासु छे; तेओने तो जो यथार्थ निर्णय करवो होय तो पोताने खुब अध्ययन करी जेजे विषय जाणी लेवानी इच्छा थाय ते पठन करी निश्चय करीलेवा जेवो समय आवी पहोंच्योछे. ते छतां पण जो आपणे आपणने ईश्वर बक्षेली विचार शक्ति खीलावी जोईतो उपयोग करीए तो तेथी पण केटलेक अंशे आपणे आपणो अभीष्ट विषय जाणवाने शक्तिवान थई शकीए छीए. परन्तु तेम करवामां पांच प्रकारे परीक्षा करवानी अपेक्षा उमी थायछे. तेमा प्रथम ईश्वर तेना गुण, कर्म, स्वभाव अने तेनी प्रेरित वेदविद्या जाणवी जोईए. केमके ईश्वर संबंधी ज्ञान थयाथी ते, तेने यथार्थ समजी तेनी उपसना करवा योग थई शकेले. तेथी द्विजोने जनोई आपती वखते-जे गायत्री मंत्रनो उपदेश करवामां आवेळे अने जे मंत्रनो सविस्तर अर्थ गोपथ ब्राह्मण नामना पुस्तकमां छे ते जो कोई सारा विद्वान् द्वाराए अवणकरे भने पछी उपनिषदादिमां माहितगार थाय तो शुं उपासनीयछे ? तेनो ख्याल तुर्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावी शके छे. एटलंज नहीं परन्तु उत्तरोत्तर कर्म, उपासना भने ज्ञान ए त्रण कांडोनुं रहस्य समजायाथी कयां कयां कर्मो मोक्षे पोचाडनार छ तेनो पण बोध थवाथी मनुष्य बम्मनी साफल्यता थायछे. वेदो तो घहुंनी कर्णाक जेवाछे. ते जेम सारा मनुष्यना हाथमां भावे तो तेनो जेम सारो पाक थायछे अने मूर्खना हाथथी बगडेछे तेम विद्वानो ते मंत्रमा समायली प्रेरणाओ समजी तेनो सारो अर्थ उत्पन्न करेछे भने भनो [ मूर्ख ] तेनो अर्थ पोतानी मतलब पार पाडवा माटे फावे तेम करेछे. तेथी वेदो एक एवी चीज ठरेले के सारानेसारं फल आपेछे अने माठाने मार्ल फल आपेछे. सालं कयुं चे मार्छ कयुं फल छे! तेनो निर्णय पूर्वना मुनिओए करी मुकेलो छे. तेथी वेदार्थ करती वखते तेनां अंगो ने उपभंगोथी अविपरीत अर्थो जे निष्पन्न थता होय ते ग्रहण करवा अने विपरीत अर्थनो त्याग करवो. एवे प्रकारे वेदार्थ जेजे आवे तेनो विचार करवाथी यथार्थ वेदार्थ शुं छे ते समजवाने पुरता साधनो छे. तेम साथे सृष्टी क्रम पण जाणवो जोईए. केमके वेदार्थ करवामां साक्षीनी अपेक्षा उभी थायछे अने वेदोने आपणे ईश्वर प्रेरित स्वतः प्रमाण मानीए छीए. तो ईश्वरी सृष्टि विरुद्ध एमां कोई पण प्रकारनो बाध न होवो जोईए, तेथी सृष्टिक्रमना जेजे नियमो जणायेला छ तेथी विपरीत जो कोई वेदार्थ करवानो प्रयत्न करतो होय तो ते अमान्य थवो जोईए. केमके ईश्वरे सृष्टिक्रम विरुद्ध वेदोमा उपदेश कीधोछे, ए संभक्तुं नथी. तथा न्याय शास्त्र भणी वस्तु सिद्ध करवाने जे प्रमाणोनी योजनाओ तेमा समावेली छे, ते जांण्याथी कोई हेत्वाभास करी उलटानुं सुलटुं करी वेदार्थ समजाववानी प्रेरवी करे तो ते समजाई शकाय अने पोताना आत्माने सूक्ष्ममा सूक्ष्मविषय समजवाने योग करवा माटे प्रतिरोज संध्यावंदनादिक प्राणायाम कर्याथी आत्मा उन्नत पण थायछे अने शुद्धपण थायछे. त्यारे ते पोताना आत्माथी पण योग्यायोग्य समजवाने समर्थ थई शकेछे. तेथी उपला क्रमेथी जो विचार करवामां आवे तो धर्मना नामथी हाल जे गडबडाध्याय उभो थयो छे ते धीरे धीरे ओछो थतां आगल जतां मनुष्यमात्र पोतपोताना जन्मनु सार्थक करी शके तेवो संभव छे. बाकी पक्षपातिक वादविवादयी कंई फल उत्पन्न थई शकतुं नथी आq अमारं मत छे. ___ ते छतां जो राजा महाराजाओ पोताना अने पोतानी रैयतना कल्याण माटे जूदा जूदा धर्म विषयो उपर “जेम हाल आपणा महाराणा साहेबे उपाड्यो छे तेम " जाहेर विचार मागवानी योजनाकरे अने सुज्ञ निरपेक्ष विद्वानोना अभिप्रायो भेला करी तेपर पोताना तरफथी उपसंहार लखावी जाहेरमा मूके अने जे निश्चय थयो होय ते आग्रह पूर्वक ग्रहण 'करी अमलमां लावे तो तेमाथी आगल जतां सारां सारां फलो थवाना संभवोछे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अने एज धोरणथी आपणा महाराणा साहेब तरफथी बलेव दशरा वगैरे पर्वोपर पाडा, बकरा विगेरे प्राणीमोनुं बलीदान एटले तेओने मारी देव देवीओने खुशी करवा माटे जे भोग आपवामां आवेछे; ते संबंधी रूढी अने धर्मशास्त्रनुं प्रमाण मेलववा माटे जे सात प्रश्नो वर्तमान पत्रोमा छपायेलाछे. ते प्रश्नोनी एक नकल अमने मली छे. तेनो यथामती उत्तर आपवो योग्य समजी तेना जवाबो अमो नीचे प्रमाणे लखी आप तरफ रवाना कर्या छे अने उमेद छेके आप अमारा प्रत्युत्तरो महाराणानी हजुरमां रजु करशो. १ एवा प्रकारनी पशु हिंसा करवानी कोई शास्त्रमां आज्ञा नथी केमके शास्त्रशब्दपर विचार करतां आपणा पूर्व ऋषिमुनिओ वेदोनेज स्वतः प्रमाण मानता हता तथा साक्ष्यर्थ, वेदोना विज्ञानार्थ, अने आर्य इतिहासार्थ वेदना छ अंगो, चार उपवेद, षड्दर्शनो आदि आर्य ग्रंथोने गौण प्रमाणमां मानता हता. जे वेदानुकूल होय अर्थात् वेदोना प्रमाणथीज तेनुं प्रमाण थतुं हतुं तेथी शास्त्रसंज्ञा वेदोनेज लागु पडछे अने बीजा आर्य ग्रंथोनी उपशास्त्रमां गणना थायछे. तेथी तेवा ग्रंथोने सूत्र, दर्शन, स्मृति, आदि नामो आपेलां जोवामां आवेछे अने तेथी तेओनुं एवं मानवुं हतुं के " वेद प्रणिहित धर्म अने तेथी विपरीतते अधर्म, एम मानता हता. मनुस्मृतिमां कह्युं छे के प्रत्यक्ष, अनुमान, अने शास्त्रविधि प्रकरना आगम त्रणेथी जे विदित धाय त्यारे धर्म शुद्ध कहेवाय, आर्य धर्मोपदेश वेदशास्त्रथी अविरोधि अने जेनो तर्कथी पण निर्णय थाय तेने धर्म जाणवो तेथी एवा प्रकारनी पशु हिंसा ए पर्वपर करवी ते चारे वेदोना गृह्यसूत्रोमां के श्रौत्र सूत्रोमां नथी ने ब्राह्मण ग्रंथोमां ' तेनो अर्थ वाद, संज्ञा, गुण, के चिन्ह जणातां नथी.' तेम तर्कथी जोता एवा प्रकारे गरीब पशुओने मारी कोईं पण अभीष्ट थवानो संभव नथी. तेथी ए बलेव अने दशराने दिवशे जे पाडा अने बकरा मारवामां आवेछे. ते अधर्म छे अने तेवां कर्म करतां करवतां तेमां भाग लेना ओने अवश्य पाप थशेज अने ए क्रिया वेदबाह्य होवाथी ते करवाथी मनुष्य दोषी थाय छे. २ एवीएवी क्रियाओ संबन्धी ज्यारे ज्यारे इतिहासक दृष्टिए विचार करवामां आवेछे, त्यारे प्यारे विचार करतां वेद शास्त्रमांतो ते जणाती नथी. तेथी ते क्रिया वैदिकनी नथी. परन्तु आसेरीयन, ईजीपशीयन, खाल्डीयन, आबीसीनीयन, मेजीयन, मांगोलीयन, जुलु वगैरे देशोना इतिहासोमां जोईए छीए. ते तेमज एवी एवी क्रियाओ के जे शाक्त वाम मार्गीओना ग्रंथोमां तथा तंत्रमां जोवामां आवेछे, तेनी रूढी केटलाक देशोमां हजु सुधीमां जोवामां आवेछे अने तेनी हजु सुधी चीन, जापान, ब्रह्मदेश वगैरेमां अहिंसक बुद्ध धर्म मानता छतां एटली प्रवृति छे के जेनी विरुद्ध कोई एक शब्द पण बोली शकतुं नथी; तेमज ए ( सेमेटीक ) तांत्रिक मार्ग आपणा देशमां वाम मार्गना नामथी गुप्त चालेछे. क्रियाओ पण प्रसिद्ध थायछे. तेथी एवा शास्त्रो आर्य लोकोमां मान्य नथी ने गणाई शकवानां पण नथीं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat केटलीक आवी आव कोईपण काले गणायां www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ वेद, वेदांग, उपांगोमां हिंसा करनाराओ तो कोई दिवस आ भवाब्धिमाथी छूटी मोक्ष पामी शकता नथी एबुं स्पष्ट लखेलं छे. तेथी आवे प्रकारे हिंसा करवी वा कराववी ते मनुष्य जन्मनो लाभ गमावी दीधा प्रमाणे ठरेछ अने तेना करता करावता उत्तरोत्तर नीचगतिने प्राप्त थायछे. ४ ए क्रियाज ज्यार वेद शास्त्रमा गणाती नथी तो पछी राजा महाराजाने ए कर्तव्य कयांधीज होय ? अन एवी क्रियानी पूर्वे प्रवृतिज नहती त्यारे तेनो निषेध बलवान शास्त्रमा कयांथी लखायेलो होय ? एमां वंध्या प्रसूति न्याय प्रमाणे समजवू जोइए. जो प्रसूत थई होय तो बंध्या कहेवाय नहीं, केमके तेने वंध्या कहेबानो संभव नथी. तेथी हिंसा करवामां जे सामान्य दोष वेदशास्त्रमा छ ते हिंसावालाने लागु पडछ. राजा महाराजाओने राजधर्म प्रमाणे न्यायथी जे रैयतने तेओना दोषा छाडाववा माटे शिक्षा करवी पडेछे. जेनी हद प्राणवध सुधी पहोंचे छे, तेवी हिंसाओ अने जंगली दुःष्ट पशुआथी पोतानी प्रजाने बचाववा माटे तेनो जे वध करवो पडेछे, तेवी हिंसाआनी छूट मूकवाथी वेदोमां प्रेरेली तथी वैदिकी हिंसा हिंसा थती नथी ते वाक्योनो लाभ लई कंटलेक ठेकाणे वेद मंत्री पण वापरी वाम मार्गीओए धर्म शास्त्रथी अज्ञात मनुष्योने आडे मार्गे उतारी दीधा जणाय छे. अने तेथी बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तूंटछे. माटे भावा प्रकारनी क्रिया करवी तथी बलवान् शास्त्रनी आज्ञा भंगेछे. ५ तेवा प्रकारनी हिंसानो जो महाराजा पोतानो धर्म समजी परित्याग करे अने पोतानी प्रज.ने बोध करावी ते छोडावे तो राजा अने प्रजाने कोई प्रकारनी आपत्ति न आवतां धर्मवान् राजा कहेवाय अने प्रजानो जय थवानो संभवछे, एवी हिंसानो त्याग करवाथी अने कराववाथी बलवान् शास्त्रनी आज्ञा पालन करेली ठरेछे. ६ गृह्यसूत्रोमां बलेवने दिवसे करवाना उपाकर्मादि केटलाक कर्मों वर्णवेलां छे. ते करवाथी धर्मलाभ थायछे अने दशरानो दिवस क्षत्रिओने उत्सवनो होवाथी विशेष होमादि करी, बाह्मणनो यथाशक्ति सत्कार करी, अधारी आदि उत्साह जनक कार्यों करवामां वेद आज्ञानो कोई प्रकार भंग थतो नथी मात्र आवा प्रसंग होमादि करी वाम मार्गीओनो विधि कर्याथी दोष प्राप्त थायछे. ७ पशु वध कर्या ने बदले तेना नाक कानने छेको मारवो ते वामी क्रियाने साचवी राखवानुं दोषनुं काम छे. जोके पथरा करता ईंट नरम होय छे तेवूछं. तो पण ज्यारे बलवान् स्वतः प्रमाण वेदशास्त्रमा एनो विधिज नथी तो पछी ए कर्मपण अयोग्य ठरेछे. तेथी तेवा अयोग्य कर्मनुं फल तमां थता वधता ओछा पापना प्रमाणमां भोगवq पडशे. ___ हवे उपसंहारमा मारे आपने एटलीज विनंती करवी छे के अमारा उपला लखेलानो सारांश एटलोज नीकले छे के, वेदोमां एवां कर्मों करवानी विधि नथी अने वेदशास्त्र करतां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ हिंदुओमां कोई बलवान् शास्त्र नथी तेथी ए कर्मो करवानी जरुर नथी; एटलुंज नहि पण ते कर्याधी शास्त्र आज्ञा भंग कर्या बराबर गणायछे. हालमां कोई पंडित वा विद्वान् आपने ए बाबत वेदमां विधिछे एवं बतावे तो आपे कृपा करी तेना प्रमाणमां बतावेला वेद मंत्रो जे होय अने ते एज विधिने लागु पडेछे, एवी साक्षी बताऩवा वेदोना अंगो उपांगोमांथी प्रमाण आपी ते मंत्रोनो अर्थ करी बतावे तो कृपा करी ते वर्तमान पत्रोमां आ प्रश्नो प्रमाणेज छपावी जाहेरमां विचार थवा माटे मूकवा के जेथी एमां सत्य असत्य शुं छे? ते जणाई आवे अने ते वचनो जो भूलो खवराववा माट कोईए खेंचताण करी अर्थान्तर करवाना हेतुथी वापरेलां होय तो तेनो पण रदीयो आपी शकाय. प्रियमित्रवर! हुं क्षत्रिय जातिनो धर्मजिज्ञासु मनुष्य छं अने ए बाबत जे मारा विचारमां सिद्ध थयेलुं ते में आ पत्रद्वाराए आपनी समक्ष रजु कीधुं छे. तो पण हुं मानुष्यी धर्म एवो मानुं हुं के सत्य ग्रहण करवाने अने असत्यनो त्याग करवाने सर्व समजु मनुष्ये तैयार रहेवुं जोईए. तेथी धर्म अधर्मना विचारमां हार जीतनी वात दूर मूकी सत्य ग्रहण करवानी निष्टा ज्यां सुधी प्रथम थती नथी त्यां सुधी सत्यासत्यनो निर्णय धई शकतो नथी तेथी प्रत्येक मनुष्ये खुल्ला दिलथी ए बाबत लेवी जोईए अने ते लईनेज वाद विवाद कर्याथी फायदो थाय. परन्तु ए पहेलांना ने हालना पंडितोमा सर्वमान्य न होवाथी हुं आवा प्रकारना वादमांज उतरतो नथी; परन्तु एथी कांई फल निष्पन्न धशे एम मने जणायुं तेथी आ पत्र द्वारा ए आपने परिश्रम आप्यो छे. ए क्षमा करशो अने कई प्रमाण वेद मंत्रोनां ए क्रियानी पुष्टिमां आप तरफ आवेलां होय तो कृपा करी मने मोकलवानी 99 कृपा करशो " सुज्ञेषु किंबहुना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat कृषाकांक्षी हुं हुं आपनो सेवकलाल करसनदास. www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ३. श्री रेवा थियोसोफीकल सोसायटीनो अभिप्राय. मे. रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन मेहेता एम. डी. चीफ मेडीकल ओफीसर साहेब स्टेट, धर्मपुर. सुन महाशय. अमो अमारी सोसायटी तरफथी आपना अखंड प्रौढप्रताप करुणासागर महाराजा श्री मोहन देवजी एमने उमंगभेर उपाडी लीधेला महाकार्य माटे धन्यवाद आपतां जणावीए छीए के आपना महाराजा श्री क्षत्रिय कुलना मुगटमणि छे. क्षत्रिय एटले क्षत् (घा) करणारा थकी त्राता ( रक्षण करता ) पण नहि के क्षत् (घा) करनारा. क्षत्रियोनुं भूषण सत्व छे. सत्व ए सर्व गुणगणमां मस्तकमणि जयश्रीने आपनार अने सर्व पदार्थनी सिद्धि करवामां लोकोत्तर कामधेनु समान छे. महापुरुष पोतानी कार्यसिद्धि मात्र उपकरणो ( साहित्यो ) थी नहि, पण पोताना सत्वर्थाज करी शके छे. कहेवत छे के -- ज्यां साहस सत्व ) त्यां सिद्धि. हवे जेमने सत्वगुण प्राधान्य के एवा क्षत्रियोने ( राजाओने ) सर्वमान्य आर्य वेदोमां विष्णुनी ( सर्व व्यापक निर्मल परब्रह्म परमात्मानी ) उपासना करवानुं कहेलुं छे; ते देवनी उपासना यावत् मोक्ष सुखने आपे छे. पण कालक्रमथी शत्रुने मारी नांखवानी अथवा एवी बीजी कामनाओने आधीन थई केटलाक क्षत्रियो ( राजाओ ) रजो अथवा तमोगुणी देव देवीनी उपासना करवा लाग्या देवीना उपासको शाक्तिकना नामथी ओळखाय छे. अने तेमां जे वाममार्गीओ छे तेमने मांसं मयं च मीन चमुद्रा मैथुनमेव च । एते पंचमकारास्तु मोक्षदा हि युगे युगे ॥ अर्थ ः— मांस, मद्य, मीन ( मांछलां ) मुद्रा अने मैथुन ए पांच मोक्ष आपनार मानेलां छे. शुं एमना मतनी बलिहारी ! ! ! आ वाममार्गीओए जीभनी लालसाथी देवीने मांसादिनो बलि आपवानो मार्ग प्रवर्ताव्यो छे; अने ते देवीपुराण, भविष्योत्तरपुराण विगेरे रजोगुणी पुराणोमां दुर्गादेवीना नवरात्र उत्सव विधिमा जोवामां आवे छे. आ उपरथी हेमाद्रिए उतारो कर्यो भने ते धर्मसिन्धु तथा निर्णयसिन्धु ए वे ग्रंथना कर्ता ओर सर्व पर्व तिथियो क्यारे क्यारे करवी अने तेमां शुं शुं करवुं ए बाबतना निर्णयनो संग्रह करतां पोताना समयमां प्रवर्तमान नवरात्रोत्सव विधि पण ते ग्रन्थना आधारे बताव्यो छे. जुओ धर्मसिन्धु -सक मेन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रियादिना सिंहव्याघ्रनरमहिपछागसूकरमृगपतिमत्स्यनकुलगोधादिपाणिस्वगात्ररुधिरादिमयोबलियः ( कामनावाला क्षत्रिओए सिंहादिना गात्र अन रुधिरादिमय बलिदान आपq ! झुं आ वाक्य प्रमाणभूत ग्रन्थकारनो पोतानो मत छे ? ना तेनो खुदमत तो एक संग्रहकर्ता तरीके मांसादि बलिनो विधि दाखल कर्या छतां तेनी तरफमां जणातो नथी. वांचो विचार पूर्वक धर्मसिन्धु एटले मालम पडशे. क्षत्रियवैश्ययोर्मासादियुतजपहोमसहितराजसपूजायामप्यधिकारः स च केवलं काम्य एव न तु नित्यः । निष्कामक्षत्रियादेः सात्विकपूजाकरणे मोक्षादिफलातिशयः॥ क्षत्रिय अने वैश्य एमने मांसादिक युक्त जपहोमसहित राजस पूजाने विषे पण अधिकार छे. परन्तु ते मात्र कामना परत्वे छे. नित्य नथी. निष्काम क्षत्रियादिने सात्विक पूजा करवा मोक्षादि ( मोक्ष, स्वर्ग) ऋद्धि विगेरे, सुखनो अतिशय (वृद्धि) थाय छे वारं पण आ बधी मांसादि बलि संबन्धी चर्चा मात्र नवरात्र संबन्धेज थई एमां तो राजा ओने पशुवध करवानी आवश्यकता जणाती नथी; परन्तु प्रश्नावलिना विषयविषे तो बलेव के दशरा हती तो ते विशे शो खुलासो छ ? ते पण जणावाय छे. हुताशनी ( होली )नी प्रवृत्ति पद्मपुराणमां लख्याप्रमाणे वसिष्ट ऋषिना आदेशथी धुंडा नामनी राक्षसीने चीडावी मारवा वास्ते प्रथम थई, अथवा दन्तकथा प्रमाणे प्रल्हादने खोलामा लई अग्निमां बेसी बाली नाखवा, जतां तेनी फोई बली मुई त्यारथी चाली आवी छे. बलेव (श्रावणी ) ए दिवसे क्षत्रियादिओए जनोई बदली । येन बद्धो बलीराजा दानवेंद्रो महाबलः ॥ तेनत्वामपि वन्धामि रक्ष माचल माचल ॥ ए मंत्र वडे रक्षाबन्धन करवानुं छे. दशरा · विजयादशमी)ए दिवसे किष्किंधाथी निकली रामे रावण साथे युद्ध करी जय मेळव्यो हतो, अने पांडवोए वैराट नगरीमां शमी ऊपरथी शस्त्र प.छां लई जय मेळव्यो हतो. ते बे रामायण अने महाभारतना मोटा ऐतिहासिक महत्वना दिवसोना स्मरणार्थे ॥ अमंगलानां शमनी शमनी दुष्कृतस्य च॥ दःखप्रणाशिनी धन्यां प्रपद्येऽहं शमी शुभां ॥ए मंत्र वडे क्षत्रिओए (राजाओए) शमी- पूजन करवानुं छे. ए पर्वोना दिवसामां अपमंगलहारी दुष्कृत अने पापने वधारनारी धिक्कारवा योग्य पशुहिंसा करवानुं आर्योने मान्य कोई पण शास्त्रमा नथी. त्यारे एवो पायावगरनो कुळाचार क्षत्रियोमा ( राजाओमां ) शा हेतुथी पेसी गयो हशे? ए दुष्ट रूढी हजु शास्त्राधार न छता केम पग घाली रही शकी हशे ? विघ्ननी शांति माटे नहीं करता होय ? ना तेम करता होय तो भ्रम छे. हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशांत्य कृतापि हि ॥ कुलाचारधियाप्येषा रुता कुलविनाशिनी ॥ १ ॥ देवोहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा ॥ प्रन्ति जंतून्गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिं ॥ २ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा, विघ्ननी शांति माटे करीए तोपण विघ्नकारीज थाय. तेमज कुळाचार बुद्धिथी करीए तो पण कुलनो विनाश कर्या वगर रहेज नहीं. जे निर्दय पुरुषो देवताना बली अथवा यज्ञना मिषे प्राणीआने मारे छे. ते घोरान्त दुर्गतिने पामे छे. आर्योने सर्वमान्य वेदोमां “मा हिंस्यात् सर्व भूतानि" (सर्वजीवोन नमारो) एवी श्रुति छे. उपनिषदोना सारभूत श्रीमद्भगवद्गीतामा अर्जुन प्रते श्रीकृष्णे कयुं छे. पृथिव्यामप्यहं पार्थ वायावनौजलेप्यहं। वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोप्यहं ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञात्य न हिंसति कदाचन । तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मां न प्रणश्यति । हे अर्जुन ! ९ पृथ्वीमां, वायुमां, अग्निमां, जलमां, वनस्पतिमा भने यावत् सर्व भूतोमां व्याप्त छ. जे मने सर्व व्याप्त जाणिने कदापि हिंसा करता नथी तेनो हुँ नाश करतो नदी भने ते मारो नाश करतो नथी. ज्यासकृत प्रसिद्ध महाभारतमा श्रीकृष्ण कहे छ के सत्येनोत्पद्यते धर्मोदया दानेन वर्धते । क्षमया स्थाप्यते धर्मः क्रोधलोभाद्विनश्यति ॥ अर्थ:--सत्य थकी धर्मनी उत्पत्ति थाय छे, दया दानी वृद्धि थाय हे. क्षमावडे धर्म स्थिर थाय छे. क्रोध-लोभथी विनाश पामे छे. विष्णुपुराणनी साक्षी छे के अहिंसा सर्वजीवेषु, तत्वज्ञैः परिभाषिता। इदं हि मूलं धर्मस्य, शेषस्तस्यैव विस्तरः ॥ प्राणिनां रक्षणं युक्तं, मृत्युभीता हि जन्तवः। आत्मौपम्येन जानीहि इष्टं सर्वस्य जीवितं ॥ अर्थ:-तत्वज्ञानी पुरुषोए सर्व जीवोने विषे अहिंसा करवी एज धर्मर्नु मूछ कछु के. बाकी सत्यादिने तेनो ( दयाभतधर्मनो) विस्तार मानेलो छे. प्राणीमोनुं रक्षण करई मुक्त. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. कारण जीवो मरण थकी भय पामेला होय छे. सर्व प्राणीओने पोताना जेवा जाणवा, सर्वने जीवित वाहलु होय छे.. ____ यमकिंकर संवादने विषे यमनुं वचन आप्रमाणे छे. न चलति निजवर्णधर्मतो यः, सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे । न हरति न च हन्ति किंचिदुच्चैःस्थिरमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् ॥ विमलमतिरमत्सरः प्रशान्तः, शुचिचरितोऽखिलसत्वमित्रभूतः। प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः॥ अर्थ-जे पोताना आत्माना धर्मथी चलायमान थतो नथी जे पोताना मित्रोपर अने शत्रुओपर समभाव राखे छे,. अने जे कोइनुं कई हरतो नथी अथवा कोइने हणतो नथी तेने स्थिरमनवालो अत्यन्त विष्णुभक्त जाणवो. जेनी बुद्धि निर्मल छे, जेमां मत्सरनो अभाव छे, जेनो स्वभाव शान्त अने चरित्र पवित्र छे, जे सर्व भूतोपर मित्रभाव राखे छे, जेनुं वचन प्रियकर अने हितकारी छे अने जेनामां मान तथा मायानो लेश नथी, तेनां; हृदयमांज विष्णु निरंतर वसे छे. हवे विशेष प्रमाणोथी जणाववा के-- प्राणिनः सुखमीहन्ते विना धर्म कुतः सुखम् । दयां विना कुतो धर्मः तस्मात् तत्र रतो भव ॥ कृपानदीमहातीरे सर्वे धर्मास्तुणांकुराः। तस्यां शोषमुपेतायां कियन्नंदन्ति ते चिरम् ॥ प्राणीमात्र सुखनी इच्छा राखे छे. परन्तु धर्म विना सुख क्याथी. अने दयाविना धर्म क्याथी! माटे ते दयामांज लीन था. कृपारूपी महानदीने कांठे सर्वे धर्मो तृणांकर रूप छे. जो ते महानदी सूकाई जाय तो ते तृणांकुर केटलीवार टके ? मतलब के दया मई तो धर्म गयो. हे सन्मित्र.-अमे उपर. दिग्दर्शन करेला वास्तविक आधार साथे निवेदन करेली हकीकतनुं यथार्थ अवलोकन करी, आर्यशास्त्रोने मान आपी स्वतंत्र विचारने अमलमा लावी अपना महाराजाए आत्मानुं कल्याण करवा अने विद्वानोनो प्रयास सफल करवाजातस्य कूपोयमिति ब्रुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति, कुपुरुषो आ अमारा बापनो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवो छे एम कही खारं पाणी पीए छे, तेमनी पेठे कुलाचारमा जे आवलो छ, अने जेने शास्त्राधार बिलकुल नथी तेने न वलगतां कोई पण जातनी शंका राख्या वगर पशुवधनो त्याग करवो उचित छे. एम करवाथी अन्य आर्य राजाओ तेमना शुभ पगलानुं अनुकरण करशे अने तेमनी निर्मल कीर्ति दिगन्तमा विस्तरी अमर थतां, जेमनामां स्वभावतः आपणा जेटली बल्के तेथी परमात्मा जेटली अनन्त शक्ति विद्यमान छतां राखोडी देवताथी ठकाई जाय छे तेम पूर्वभवना कर्मभारादिथी हाल गुप्त थई गई छे ते अवाचक शरण वगरनां मूगां महिषादि प्राणीओना अन्तरनी शीतल आशिषथी, तेमनुं उत्तरोत्तर कल्याण थशे, सर्व प्रकारनी सुखमां वृद्धि थशे अने परमात्मा शान्ति आपशे. एवी अमारी उमेद छे. परम कृपालु परमेश्वर आपना महाराजाने तेवी सद्बुद्धि आपो. शिवं भवतु. सेक्रेटरी, रेवा थी ओसोफिकल सोसायटी वडोदरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ४. वडोदरावाळा शास्त्री राजाराम काशीनाथनो अभिप्राय. नवरात्राद्युत्सवसंबन्धेन देवीपूजायां बाह्मणेतरेषां महिषमेषाजादयो येबलयःपुराणादिवचनैनिर्णयसिन्धुप्रभृतिधर्मग्रन्थेषु विहिताःते मुख्यकल्पेन प्रत्यक्षतया अवश्यं कर्तव्या किंवा सौत्रामण्यादौपयोग्रहवदनु कल्पेन विधातव्या इति प्रश्न उत्तरम् यद्यपि. निर्णयसिध्वाद्यनुसारेण प्रायेण भारतवर्षे सर्वत्रमहाराजादिगृहेषु श्रीविंध्यवासिनीप्रभृतिमहास्थानेषुव मुख्यकल्प एव प्रचारितः परंपरागतो दृश्यते "प्रभुः प्रथमकल्पस्य योनुकल्पेन वर्तते निष्फलं तस्य तत्कर्मेति स्मृतेः, न तथा बलिदानेन पुष्पधूपविलेपनैः॥ यथासंतुष्यतेमेषैर्महिषैविध्यवासिनीति” हेमाद्रिनिर्णयामृतसिन्ध्वादिभू. तभविष्यवचनाञ्चशाक्त ख्यकल्पत्रानुष्टेयइतिप्राप्तम् ॥अशक्तौ ब्राह्मणेनच कूष्माण्डादिभिबलिदानकार्यमितिनिर्णयसिंधूक्तेश्च तथापितत्सकामानुष्टानपरम् ॥ घातयन्तिपशून्भक्यातेभवन्तिमहाबलाइतिफलविशेषश्रवणात् निष्कामरहिंसादियमनियमादिपूर्वकोपासनाज्ञानपरैः कूष्मांडादिभिरनुकल्पो विधातव्यः ॥ न चशक्तिसत्वे मुख्यकल्पाननुष्ठाने पूर्वोक्तवचनाभ्यां निष्फलतरानुष्ठानस्यभगवत्या असंतोषो का भवेदिति वाच्यम् ॥ महिषादीनां किंचिन्नासाकर्णादि छित्वा भगवत्यै समर्पणेनापि उक्तदोषस्य सुपरिहरत्वात् । अश्वमेधादौ पर्यनिकृतारण्यपशूत्सर्गवत् ॥ अतएवमधुपर्के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवधोनकर्तव्यः। किंतु पूजायै निवेदनमात्रंकर्तव्यमिति विज्ञान योगिना मिताक्षरायामभिहितम् । दृश्यते काश्यां संकटादेव्यादिषु तथैवाचारः॥ उत्तरे अभिमाय. बलेव दशरा भने होली ए पर्व दिवसोमा पशुवध करवानी जे अंध परंपरा चाले के. तेने माटे आर्योंने मान्य कोइ शास्त्रमा आधार नथी. ता.-२९-९-९४. राजाराम काशिनाथ शास्त्री मु. वडोदरा राज्य. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ५ शास्त्री बद्रीनाथ त्र्यंबकनाथनो अभिप्राय. मेहेरबान साहेब, प्राणजीवन मेहता. चीफ मेडीकल ओफिसर साहेब एम. डी. धर्मपूर स्टेट. वडोदराथी ली. शास्त्री. बद्रीनाथ त्र्यबकनाथना आशिर्वाद वांचशो. विशेष आपना महाराजा तरफथी जे सात प्रश्नना उत्तर माग्या छे, तेने माटे यथा बुद्धि नीचे लखुं छु. विजयादशमीने दिवसे महिषादि पशुवध करवाने शास्त्रोक्त विधि काइपण नथी. कुलाचार होय तोपण शास्त्रविरुद्ध कुलाचार होवाथी कहीपण पशुवध करवो नहीं. केवल ऐहिक सुखभोगार्थे शास्त्रमां कोई दिवसे पशुवध करवाने को होय तोपण ते परिणामे अत्यन्त दुःखदायक छ, एम शास्त्रमा बहु ठेकाणे कयुं छे. भामवतमा. च. स्कं. अ. २५ श्लो. ७ नारद उवाच । भो भो प्रजापते राजन् , पशून् पश्य त्वयाध्वरे ।। संज्ञापितान जीवसंघान् , निघणेन सहस्रशः ॥१॥ एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव ॥ संपरेतमयाकूटैस्छिन्दंत्युत्थितमन्यवः ॥२॥ अस्यार्थः एते मारिताः पशवः संपरेतं मृतं त्वां संप्रतीक्षन्ते ततश्चायः कूट: लोहकर्ममयः शृंगेश्छिन्दन्ति छेत्स्यति तत्रैवाने अत्रेममर्थमितिहासेन बोधयिष्य इत्याशयक अत्र ते कथयिष्येऽमुमितिहासं पुरातन मित्युपक्रम्य अ० ११ श्लोक ११ ईजेच क्रतुभिघोरैर्दीक्षितः पशुमारः ॥ देवान् पितृन्भूतपतीन, नानाकामो यथान्नवान् ॥ युक्केष्वेवं प्रमत्तस्य कुटुंबासक्तचेतसः । आससाद सवै काले इति अत्र टीका युक्तेष्वात्महितेषु कर्मस्वनवहितस्येति उत्का अ० १९ श्लोक ४९ आस्तीर्य दर्भेः प्रागः कात्स्न्यनक्षि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ तिमंगुलं ॥ स्तब्धोबृहद्वधात्मानी कर्मनावैषियत् परम् ॥ अत्र टीका त्वं महामूखोऽसीत्याह ॥ आस्तीर्येतिबृहद्वधात् बहुपशुवधात् मानी यज्वाहमित्यहंकारी अतस्तब्धो अविनीतः सन् कर्मनावैषीत्युपसंहृतम् ॥ पञ्चम स्कन्धे अथकदाचित् वृषलपतिः चंद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभता अपत्यकाम इत्युपक्रम्याथ वृषलराजपतिः पुरुष. पशोरमृगासवेन देवीभद्रकाली यक्ष्यमाणस्तदत्रिमंत्रितमसिमतिकरालं निशितमुपाददे इति मध्ये उक्त्वा सहसोचचाल सैवदेवी भद्रकाली तेनैवासिना छिन्नमस्तकानामसृगासवं निपीय मदविव्हलोच्चस्तरांखपाषदैः सह जगौ ननत विजहार च शिरः कन्दुकलीलया एवमेव खलु अत्रिचारक्रमः कात्स्येनात्मनि फलतीत्युपसंहारेण भद्रकाल्याऽयुपदेशेनापि अन्यहिंसाप्रवृत्तिमात्रमपि स्वस्यप्राणनाशाद्यपकाराय भवतीति स्पष्टमुक्तम् । एकादशस्कंधे लोके व्यवायामिषमद्यसेवेत्यादिना न हिंस्थात् सर्वाणि भूतानीति श्रुत्यर्थाभिप्रायसहरुतं हिंसायाः अत्यन्तनरकदायक खेनाकर्तव्यत्वमेव प्रतिपादितम् तत्रैव, नहितत्रचोदनेत्यनेन वाक्येन धर्मत्वलक्षणानाकान्तत्वबोधेन श्येनेनात्रिचरन् यज्ञंसेवेत अनर्थकारित्व मेवेत्युक्त प्रायं भवति ॥ भगवद्गीतामां अ० १८ श्लोक २५ ॥ श्लोक ॥ अनुबन्ध क्षयं हिंसामनपेक्षं च पौरुषम् । मोहादारभ्यते कर्म तत्तामसमुदाहृतम् इति । टीका-हिंसां परपीडामनवेक्ष्य यत् कर्म आरभ्यते तचामसं दुःखदायकमितियावत् ॥ अत्र कचित् पूर्वोक्तस्थलेषुत्वया ध्वरेत्यादिविशेषणादीनि अविवक्षितानि इति गृहं संमार्टीतिवत् इत्यवधेयम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ हिंसारहितयोग्यापेक्षित फलदातृणां वेदस्मृतिपुराणा युक्तकर्मणां बहूनां सत्वेन तत्करणेन सर्वफलसिद्धौ हिंसायुक्त कर्मकथनं केवलमसुरजनमोहनायैवेतित्रोघ्यमितिदिक् ॥ बडोदा याचिन शुक्लपक्ष पंचमी बुधवार संवत १९५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat भीखाचार्य बालाचार्य शास्त्री. बद्रिनाथ त्र्यम्बकनाथ शास्त्री, वडोदरा. i www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.६. सुरतवाला वैद्य धीरजराम दलपतरामनो अभिप्राय. महेरबानसाहेब पाणजीवन जगजीवन एम. डी. __मु. धरमपुर स्टेट, महेरबानसाहेब आपना सरफथी सुरतमा प्रगट थतां देशीमित्र नामना पत्रमा वि. जयादशमीने दिवसे केटलाएक राज्योमा पाडा विगैरे प्राणीओनां बलीदान करवामां आवे छे. तेनो विधि शास्त्रमा छ के केम ? ते उपर आपना तरफथी सात प्रश्नो करवामां आवेला छे तेनो जवाब हुं मारी मति प्रमाणे आपवानी रजा लऊळु. १ जेने आर्यलोको धर्मपुस्तक तरीके माने के अने जे सर्व मान्य छे एवा पुस्तकोमा तो कोई पण जातनी हिंसानो विधि जोवामां आवतो नथी. पण वाममार्गीओना तंत्र ग्रंथोमां एवोज विधि केटलेक ठेकाणे जोवामां आवे छ. पण तेने आर्यलोको सर्वमान्य के बहुमान्य गणता नथी जेथी तेवां पुस्तकोनो प्रमाण तरीके उपयोग थई शके नहीं. २ आर्यलोकोना परम-धर्म तरीके वेद मनातो आवेजो छे. अने ते वेदधर्म अहिंसामार्ग फेलावनारो छे अने तेने सघळी आर्य प्रजा सर्वमान्य तरीके गणे छे. तेमज ते माला प्रमाणो उपर पुरतो विश्वास राखी ते प्रमाणे वर्तन करे छे. अने केटलाक धर्म प्रचारको वेदना नामथीज धर्मनो प्रचार करे छे अने तेओ सघळा कहेता आव्या छे के “ अहिंसा परमो धर्मः" आ वाक्य उपर लखवा बेसीए तो घणुं लंबाण थाय माटे टुंकमां एटलुंज के आर्यना कोई पण शास्त्रमा हिंसा ए शब्द पण जोवामां आवतो नथी. __ ३ मनुष्यमात्रनुं कर्तव्य छे के प्राणीमात्र उपर दया राखवी ने तेथीज ईश्वर राजी थाय छे तो हिंसासिवाय बीजा एवा घणा धर्मों छे के ईश्वर राजी थायछे. ने सघली प्रजा तथा राजा हमेशां सुखचेनमा दिवसो गाले छे. १ दशराना तहेवार प्रसंगे जो पाडा विगैरेनी हिंसा नहीं करवामां आवे तो तेथी राज्यने तेमज राजाने कोईपण प्रकारचें कर्मबन्धन थतुं नथी पण उलटुं पुण्य थाय छे भने तेनी कीर्ति आ पवित्र आर्यावर्त्तनी भूमि उपर दिशोदिश प्रसरी रहे छे. ५ ज्यारे आवी हिंसानो विधि कोई पण ठेकाणे जोवामां आवतो नथी त्यारे सहज शंका उत्पन्न थाय छे के ए धारो केवी रीते थयो भने ते पडवानुं कारण शुं ? अने ते धाराने राजा लोकोज केम वधारे माने छ ? अने बीजा कोई मानता नथी ? तेनो जवाब आप निचली कलम वांचवाथी ध्यानमां लावी शकशो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ आगला वखतमा राजा महाराजाओ दशराने दिवसे स्वारीओ काढी, अन्य देशोपर चडाई करीने देशने पोताना कबजामां लई विजय करता एथीज ए तहेवारने विजयादशमी एवं नाम आपवामां आव्युं छे. पोताना राज्यमांथी निकलती वखते केटलाक शूर सरदारो, राजा, महाराजाओ, पोतानी तलवारनुं पूजन करी परीक्षा करता के हे समसेर ! हुं तने मारा शत्रुओनुं रुधिर पाईश, त्यारेज पाछो गाममां पग मूकीश. एवी प्रतीज्ञा लई विजय करी पाछा फरता. . ते वधारों काळपरत्वे घसाई जतां आजकाळ मात्र गाममांथी स्वारी काढी माम बहार शमडीना झाडर्नु पूजन करी बीजा गामनी सीममांथी पाछा फरे छे. आवा कारणोने लीधेज 'कोई माणसे राजाओनी पूर्वनी प्रतिज्ञा ध्यानमा लई पाडा के बकरा मारवानो रिवाज दाखल करेलो जणाय छे. बाकी ए क्रियामां धर्मसंबंधी जरापण रहस्य जोवामां आवतुं नथी. माटे हवे हमेशां राजा, महाराजामओए न्याय अने युक्तिओनो विचार करी आवा अघटीत रिवाजो अटकाववा जोईए. ७. छेवटे मारे एटलुंज जणावq जोईए के जो कोई माणस एम कहे के ए विधि सशास्त्र छे. तो ते शास्त्रमा बकरां पाडा मारवान केम लख्यं. अने वाघ जेवां भयंकर प्राणीने माटे केम न लख्युं ? तेनो पुरावो शुं कोई आपी शकशे ? कोई पण कही शकशे नहीं माटे मारी छल्ली एटलीज प्रार्थना के के ईश्वर सघला प्राणीमात्रनो कर्ता के अने तेना ... न ई विरुद्ध जई कांई पण कार्य करशे तेना उपर ईश्वरनो पूरे पूरो कोष बद्रो. 4 ली० वैद्य धीरजराम दलपतराम. गुजरफलीया सुरत-बंदर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ७. सुरतवाळा वैद्य तळकचंद ताराचंदनो अभिप्राय. श्रीयुत महाशय. आपना तरफथी महाराजा धर्मपुराधीशनी आज्ञानुसार सुरतथी प्रगट थतां देशीमित्र पत्रमा दशराना उत्सवमांज पशु वधने माटे चर्चा पत्र छपायेलछे तेना जवाबमा जणाववानुं के आ नीचे तेना नंबरवार खुलासावार लख्युं छे. ते आपने योग्य लागे तो हजुरमा रजु करशो. ___ आपणा देशमा वेद ए समस्त शिखा धारीओनो मुख्य धर्म छे अने हालमां जे जे धर्मो पन्थो तथा रिवाजो आपणा देशमां चालेछे तेने माननारा तथा तेने चलावनार आगेवानोने कबुल करवू पडे छे, के अमो जे करीए छीए तथा करावीए छीए ते सघलुं वेदने अनुसरीनेज छे. त्यारे एटलं तो सिध्द थयु के सर्वमां मान्य शास्त्रतो वेदज छे. १ ए प्रमाणेनुं वर्तन करी पशु हिंसा करवानुं तंत्रग्रन्थोमां एटले शाक्त लोकोए प्रमाण मानेलां तंत्र ग्रन्थोमां लखवामां आवेल छे. २ ए (शाक्तो) ना अन्धो घणां छूप अने गुप्त छे. तेथी ते सर्वे मान्य गणायज नहिं अने गणतापण नथी. ३ वेदमा अहिंसा धर्मनुज प्रतिपादन करेलुं छे, अने वेद अहिंसानेज' मानेछे. तेम वेदनुं प्रमाण सर्व शास्त्रोमां बलवान् गणाय छे. माटे वाममार्गनां शास्त्रो प्रणामभूत मानी शकातां नथी. ४ राजा महाराजाओने ए वात एक रूढीरूप थई पडी छे. बाकी ए काम काई अवश्य कर्तव्यनु नथी. तेम ए कार्य नहीं करे तो तेथी कोई शास्त्रनी आज्ञानो भंग थतो नथी भने एवं कांईपण प्रमाण आर्यशास्त्रमा छेज नहीं. ५ ते हिंसानी ' प्रवृत्ति' न करवामां आवे तो तेथी राज्यने प्रजाने के तेना कोईपण भागने कोईपण जातनो आपत्ति योग आवतो नथी. तेम आपत्ति आववा माटे काई पण सत्यशास्त्रमा लखवामां आव्यु नथी. मात्र रूढीने माननारा आजे थोडा दिवस ते कार्यने अकार्य गणशे. पण सत्यनो जय थशे. जेम हालमां घणां राज्योमांधी: ते हिंसा दूर करवामां आवी छे. तेथी ते राज्यने के तेनी प्रजाने कोई पण जातनुं नुकसान पहोंच्यु नथी. ६ पशुवधने बदले पर्वनो उत्सव जणाववा अने प्राणी, कल्याण करवा इष्टि करवी जोईए. जेमां बिलकुल हिंसानी जरूर पडती नंथी अने ते क्रिया सर्वमान्य वेदशास्त्रने अनुसरी थई शके छ भने ते सत्य छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ७ पशुवधने बदले तेनां नाक कान छेदवां अथवा आकार करवाथी ते क्रिया पूर्ण थाय ए मानवुं असंभवित छे. कारण के हिंसानो प्रसार पण एवी रीतेज दाखल थयेल छे, जैम थोडुं पाखंड- पूर्वापर जतां मोटुं रूप पकडे छे, ते प्रमाणे आ रहेली रीत पण पाछलना कोकमां हिंसानी प्रवृत्ति करनारुं नीवडेज. आ प्रश्नोनो टुंक खुलाशो उतावलने लीधे टुंकामां लख्यो छे. पण जो कोई शास्त्री के पंडित वेदने नामे आवुं हिंसा कर्म साबीत करवा इच्छा राखतो हशे अने महाराजाश्रीनी सत्यशास्त्रनो शोध करवानी तथा सत्यनुं ग्रहण करवानी इच्छा होय तो अमारी अथवा मुम्बईनी आर्यसमाजनी साथै सत्यताथी शास्त्रार्थ अथवा लेखीशास्त्रार्थ अथवा जो कोई पेपर वा ए ध्यानमां लई पोताना पत्रमां रजा आपे तो अमारा पंडितो तेम करवाने शक्तिमान थशे. माटे उपर उपरमा खोटा डंभाणथी नहीं मुंझातां सत्यनुं ग्रहण अने असत्यनो त्याग करवा तथा प्रयत्नो करवा चुकशो नहीं. अने तेम करी आपना महाराजाश्रीने अघोर पापथी दूर राखवा प्रयत्न करशो. जेथी आपनुं तथा आपना महाराजाश्रीनुं ईश्वर सदा कल्याण करशे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat तथास्तु. लि. आपनो कृपाकांक्षी, शा. तिलकचंद ताराचंद वैद्य, आर्यसमाजना तंत्री सूरत. www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीबडीवाळा भट्ट महाशंकर गोविंदजीनो अभिप्राय. रा. रा. श्री सदाहितकारी-प्राणजीवन जगजीवन मेहता चीफ मेडीकल ओफीसर साहेबनी हजुरमा मु. धर्मपुर स्टेट.. लीबडीथी ली. भट्ट-महाशंकर गोविंदजीना आशीर्वाद. बाद मापना तरफथी धर्म उत्तेजननुं पत्र आव्युं ते वांची अत्यन्त आनंद थयो छे. अने तेमा सात प्रश्नना मागेल खुलाशा. हुं मारी यथामति प्रमाणे शास्त्रना वाक्यना प्रमाणोथी नीचे मुजब लखुं छं. प्रश्नः १ वेदप्रणिहितो धर्मः अधर्म स्तविपर्ययः ॥ अर्थः-वेदमां कहेलं ते धर्म कहेवाय छे. अने वेद वाक्यथी उलटुं ते अधर्म कहेवाय छे. तो वेदमां कोई ठेकाणे देवने के देवीने पाडा के बकरा विगेरे पशुवध करी चडाववानुं आवतुं नथी. तो वेद शास्त्रनो आधार पशुवधमां बिलकुल नथी. २ मकाराः पंचदुलभाः॥ अर्थः-मदिरा-मांस-मधुणन ए आदि पांच मकार दुर्लभ छे. इत्यादि वाक्यो तंत्र. शास्त्रमा छे. ते आर्यलोकोमा सर्वमान्य नथी. ३ ते तंत्रशास्त्र करता बलवान् सर्व आर्य लोकोमा प्रमाण अग्निहोत्र-गवालंभं. संन्यासं पलपैत्रकं । देवराच्च सुतोत्पत्तिः कलौ पंच विवर्जयेत् ॥ अर्थ:--१ अग्निहोत्र. २ देवपूजा विगैरे ओच्छवमां, पर्वमां गायो विगेरेनी हिंसा. ३ संन्यास. ४ पित्रिना कार्योमा मांसना पिंड. दीयेर पासेधी पुत्रोनी उत्पत्ति आ पाचवानां कलयुगमां न करवां एम छे.-तेमां यावत् वर्णविभागःस्यात् यावत् वेदाः प्रवर्तते ॥ अर्थ:-ज्या ब्राह्मणादि चार वर्ण छे, ज्यां सुधी वेदना धर्म छे, त्यां सुधी कलियुगमा अग्निहोत्र अने संन्यास ए बे वानां थाय तेम नीकले छे. पण त्रण वांना नीकलता नथी. देवने अर्थ गौआदिनी हिंसा-पितृने अर्थे मांसना पिंड-दीयरथकी पुत्रनी उत्पत्ति आ त्रण वांनांनी कलीयुगमा चोख्खी मनाई छे एम सिद्ध थाय छे. ४-उपलां वाक्योपरथी धर्मवान् निष्कामी पोतानुं तथा प्रजाओगें भलु इच्छनार सात्विक धर्मवान् राजाओने देवीने माटे पशुवधनुं अवश्य कर्तव्य नथी. तेम आगळ सात्विक जनक राजा विगेरेए कोई ठेकाणे पशुवध कर्यो एम नीकळतुं नथी. अने पोतानुं तथा प्रजानु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालं थयुं छे तो शास्त्रना आधारथी तथा आवा राजाओना दृष्टान्तथी पशुवध न करवो सिद्धान्त छ. ५ अहिंसा परमो धर्मः॥ अर्थः-जेमां पशुवध विगैरे हिंसा न थाय ते सर्वोत्तम धर्म छे. आ वाक्योपरथी पशुबध नहीं करवाथी राजाओने तथा प्रजाओने आपत्ति आवे नहीं. तेम अकार्य कर्यु एम गगाय नहि एम ऊपर लखेल वाक्य- शास्त्र प्रमाण छे. ६ छागाभावेतु कूष्माडं ॥ अर्थः-देवी तथा देवने माटे पशुवधमां बकरां तथा पाडानी हिंसाने बदले साकर कोलं वधेरी तेनुं बलीदान आपq. आवी रीते साकर कोला- बलीदान आपq ते बलवान् शाननी आज्ञा तोडी गणाय नहीं. ७ वकरां तथा पाडाओनी हिंसानी जरूर रहेती नथी. कारण के साकरकोठं वधे बाथी काम चाले छे. तथा पशुनां कान विगेरे कापवा कांइपण जरूर रहेती नथी. क्षत्री शब्दनो अर्थ एवो छे के प्राणीओने भयथी बचावq. ऊपर मुजब सात प्रश्नना खुलासा छे. आ प्रसंगमां मारे आटलं विशेष निवेदन करवानुं के आनो जवाब लखवाने घणी लांबी मुदत जोइये के जेथी घणा शास्त्रनो आधार जोइ शकाय. आतो गई काले मने पत्र मळ्यो छे तो आज तावनी बिमारी छतां जवाब लख्यो छे. आमांतो स्वार्थ बतान्यो छे. पण आवा काममांतो बिन स्वार्थे श्रम करवा खंतीर्छ म.टे आटलं विवेचन वधारे निवेदन करेल छे. एज दा. भट्ट. महाशंकर गोविंदजी शास्त्री. लींबडी. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. ९. लोंबडीवाला शास्त्री करुणाशंकर गौरीशंकरनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवन जगजीवननी पवित्र सेवामा मु. धरमपुर स्टेट. लींबडी थी ली. आपना सदा शुभेच्छक करुणाशंकर गौरीशंकरना आशीर्वाद वांचशो. बाद लखवानुं के आपना महाराणा तरफथी वर्तमान पत्रमा अहिंसा बाबत सात प्रश्नो वांचवामां आव्या छे. तेना जबाब मारी यथामति नीचे लटुं छु. सवाल १ लानो जवाब-आयु लखवू कदापि होय तो कोई मतप्रबंधवाळा ग्रंथमा हशे. सवाल २ जानो जबाब-समस्त आर्य धर्ममां धर्मशास्त्रज मान्य गणाय. सवाल ३ जानो जबाब-धर्मशास्त्रमा कलियुगापवादादिक विचारतां निषेध कर्यो छे एम नीकली आवशे. सवालं ४ थानो जवाब-त्रीजा सवालनो जबाब नक्की ठरे तो पांचमा सबालना अनुसंधाने आनो जबाब बाकीमा रहेतो नथी. पांचमा सवालनो जवाब-चोथाने त्रीजामां अनुसंधान रहे छे. छठा सवालनो जवाब-कलि अपवादे धर्मशास्त्रना घणा ग्रंथोमा प्रतिनिधि लखावेला छे. सातमां सवालनो जवाब-शुद्ध प्रतिनिधि तेमज कोई पशुना नाक, कंठ, छेदवां के काई रुधिर लेवु एनो पण प्रतिनिधिमां आवेश थाय छे पण ते शुद्ध प्रतिनिधि अमने मान्य छे. प्रमाण वाक्योनो सारभूत यथार्थ गुजरातिमा लख्यो छे तेनां आधार वाक्यो छे. करुणाशंकर गौरीशंकर रावल सही लींबडी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १०. लींबडीवाळा दवे नीलकंठ मकनजीनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवनदास जगजीवन चिफमेडिकल ऑफिसर भ मु. धरमपुर. लोंबडीथी ली. दवे नीलकंठ मकनजीना प्रणाम. बाद लखवानुं के आपना महाराणा तरफथी हिंसा बाबत काठीयावाड टाईम्समां सात प्रश्नोना उतर बाबत खबर आपेली छे तो ते टाईम्स आज मने मळेलुं छे. अने तेमानां सात प्रश्नो वांची अत्यंत आनंद पाम्यो लुं. के - जेथी करी धर्मपुर आज दिवसथी पोतानुं खरं नाम धारण करशे, माटे ते सवालोना उत्तरो -संक्षेपमा मारी यथाबुद्धिधी लखुंकुं. अथ कलियुगे वर्ज्यपदार्थानाह ॥ समुद्रयात्रास्वीकारः कमंडलुविधारणं द्विजानामसवर्णासु कन्यासूपयमस्तथा देवराच्च सुतोत्पत्ति मधुपर्के पशोर्वधः मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा दत्ताक्षतायाः कन्यायाः पुनर्दानं वरस्यच दीर्घकालं ब्रह्मचर्यं नरमेधाश्वमेधको महाप्रस्थानगमनं गोमेषश्च तथा मखः इमान्धर्मान्कलियुगे वर्ज्यानाहुर्मनीषिणः ॥ इत्युक्तं धर्मसिंधौ शारदनवरात्रादौ होमप्रसंगेन क्षत्रियादीनां निष्कामनाप्रसंगेन व्याघ्रमहिषमेषमत्सादिवध श्व तइलिनांगि क्रुतः इत्यप्युक्तं धर्माद्रौ ॥ १ ॥ लींबडी, द. दवे नीलकंठ मकनजी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.११. खंषातवाळा शास्त्री छगनलाल केशवलालनो अभिप्राय. ता. २८-९-९४ भादरवा वदी १४. प्रश्न १ नो उत्तर. एवा प्रकारनी पशुहिंसा करवान चंडीपाठ तथा देवीपुराण विगेरेमा कयुं छे ते विपे स्थल चंडीपाठनो अध्याय बारमां श्लोक १९ मां तथा कवच १८ ने अध्याय १५ विगेरेमा जओ. प्रश्न २ नो उत्तर. जे शास्त्रमा पशुवध विगैरे अयोग्य करवानुं कयुं होय ते शास्त्र आर्यलोकमां सर्वमान्य गणाय नहीं, तेम बहुमान्य पण गणाय नहीं. कारण के तेवा दुष्ट लोकोए ते मान्य गणेला छे. एटलुज नहीं पण एवां शास्त्र जाणे तेवाज पुरुषोए तेवा रागथी बनावेल के. एम नीचेना वचनो स्पष्ट करे छे. माटे तेने सर्वमान्य अथवा बहुमान्य केम गणाय. सर्वमान्य बहुमान्य न गणाय ते विषे भाधार नीचे. धर्मसिन्धु परिच्छेदक पत्र ११९ पृष्ठ १ पंक्ति २ मा मद्यभक्षादिपतिपादकवामाद्यानमस्यतुनमान्यता ए वचन मद्य भक्षादिक केनार शास्त्रने तथा वाममार्गना शास्त्रने प्रमाणता कबुल करतुं नथी तो चंडिपाठना १८ मां कवचमां श्लोक २८ मामां रुधिरा ए वचन मार्कंडेयपुराण- नथी कारण के रहस्य मार्केडेयपुराणमां छे नहीं, मार्कंडेयपुराणमां तो फक्त १३ अध्याय छे. माटे ते रहस्य तांत्रिक छे ते बलिष्ट गणाय नहीं भ. १२ श्लो. १९ मां पशुपुष्पार्ध ए वचन पण पशुवध करवायूँ कहेतुं नथी. ए तो एम बतावे के के एवा उपचारथी एक परस दिवस सुधी पूजन करे ने देवी प्रसन थाय ते प्रसन्नता चंडिपाठ एकवार सांभले तेथी थाय ते आगल खुल्लु लख्युं छे के सकृदुचरितेश्रुते भने ते लोकनो संबंध पण त्या सुधीज छे. माटे ते वचननो तात्पर्य स्तुति श्रवण करवामां छे. वरी भाग्रहथी तेवा वचनोने न स्वीकार करवा सारु प्रमाणो मोक्षधर्म भारते अ. २६५ ५. १३१. अव्यवस्थितमर्यादेविडेनास्तिकैनरैः ॥ संशयात्माभिरव्यके हिंसासमनुवर्णिता ॥ सर्वकर्मस्वहिंसां हि धर्मात्मामनुरब्रवीत् ॥ कामकाराद्विहिंसति बहिर्वेद्यां पशून् नराः ॥ टीका ॥ बहिर्वेपा प. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मिव सवकमसु ज्योतिष्टोमादिष्वपि नराः कामकारादेव पशून् हिंसंति न तु शास्त्रात् ॥ अ० २६५ श्लोक ८ ५० १३१ यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोदिश्य मानवाः॥ वृथा मांसानि खादन्ति नैष धर्मः प्रशस्यते ॥ सुरांमत्स्यान्मधुमांसमासवं कृशरौद्धनं धूतः प्रवर्तितं ह्येतत नैतद्वदेषु कल्पितं || मानान्मोहाच लोभाच्च लोल्य. मेतत्प्रकल्पितम् भागवते ॥ हिंसाविहारात्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया ॥ यजन्ते देवता यज्ञैः पिदन्भूतपतीन् खलाः स्कं० ११ अ. ५ श्लोक ८ यजत्यसृष्टान्न विधानदक्षिणं वृत्यै परं नति पशूनतद्विदः ॥ श्लोक० १४ ॥ पशून्द्रुह्यंति विस्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् स्कन्ध ॥ ५॥ ये विह वै दांभिका यज्ञेषु पशून्विशंसंति तान् ॥ अगर हिंसा मान्य होततो विशेष वचन बतावत चंडीपाठना अध्याय १३ ना श्लोक ९ मामा चन्द्रवृत्ति टीकामां लख्यु छ के तपश्चरण कालमां परनी हिंसाथी दोष मानी सुरथ राजा ए पोताना गात्रथी रुधिर काढी बलि प्रोक्षण करी अर्पण कयु तेथी एम जणाय छे के तेणे ज्यारे परनी हिंसाथी तप, फल नहीं थाय एम जाणी परहिंसा न करी तो नवरात्रीव्रत तें शुं तपश्या नहीं अने ते तपश्चर्या पर हिंसाथी न करवी अने कलीयुगमां एवां कर्मथी दुर रहेवू एम धर्मसिंधुमां तथा निर्णयसिन्धुमां कलिवर्ण्य प्रकरणमा चोखो निषेध बतावे छे. अने युगना भेदे धर्मनो भेद स्वीकारवो ते मोक्ष धर्ममां कां छे. युगभेदेन धर्म भेद इति वली नीचेनां वचनो जुवो के अवश्यतानो आग्रहजाय. देवी भागवत टीकायां कालिकापुराणवाक्यं सिंहव्याघ्रादिकं दत्वा चात्महत्या मवाप्नुयात् ॥ मद्यं दत्वा बाह्मणस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते ॥१॥ अवश्यं विहितो यत्र बलिस्तत्र द्विजः पुनः॥ पिष्ठेनापि घृतेनापि निर्मितस्तु समर्पयेत् ॥ २॥ धर्मसिंधौ परिच्छेदबीजो पत्र ३१.पृष्ठ.२ पंक्ति २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र विप्रेण जपहोमान्न बलिनैवेद्यः सात्विकी पूजा कार्या नैवे यैश्व निरामिषैः मद्यं दत्वा ब्राह्मणश्च ब्राह्मण्यादेव हीयते मद्यमपेयमदेयमित्यादि निषेधान्मांसमद्यादियुतराजसपूजायामनधिकारः ए वचनो जोतां सात्विक पूजामां निषेध बताव्यो छे ते जरूर होय तो न बतावे. केहेशो हे ब्राह्मणने ते निषेध हो परंतु क्षत्रीने तेवो निषेध नथी, तेथी ते करे तेम केहेशो तो उपर लखेलुं वचन अवश्य नहि ठरे केम के एमां द्विज पद पड्युं छे, तेथी क्षत्रिने वैश्य लेवाय छे त्यारे क्षत्रिने पण अवश्य न ठर्यु ने अवश्य मानवो होय तो पिष्टादिकथी करे तेम जणावे छे वळी धर्मसिंधुनी उपरनी लखेली पंक्तिओनी नीचे जणान्युं छे के सर्वे प्राचीन तथा नवीन निबंधकारो निबंधमां पशु हिंसानी मनाई लखे छे वळी हाल नवीन भासुराय वीगेरे पण चंडीपाठनी टीका वगैरेमां प्राचीन ग्रंथने मळता थई पशुवध निषेध करे छे अने सभामां पण ते मत श्रेष्ठ गणायो छे तेम छतां पशुवधरूपी अन्यथा कर्मना करनार दुर्दैव्यथी पतित थया छे के शुं ते विगेरे बतान्यु छे ते ओ. माटे अवश्य नथी. प्रश्न ५ मानो उत्तर. प्रजा के राजाने अंगे कोई पण प्रकारनो योग आगे नहीं अने अकार्य कर्तुं एम गणाय नहीं. कारण के तेना प्रतिनिधिथी ते करवाथी सामी आपत्ति नाश थाय छे. तो व्यापत्ति आवशे नहीं. आधार धर्मसिन्धु परि. २ प्रत ३३ पृष्ट १ पं० कूष्माडो बलिरूपेण मम भाग्यादवस्थितः प्रणमामि ततः सर्वरूपिणीं चंडिकांप्रति ॥ दानेन दातुरापद्विनाशनं - ए वचनमां छैलुं आपद्विनाशनं एम लख्युं छे. तेथी एम खुल्लुं जणाय छे के पशु बली आपवा करतां कूष्मांड ( कोलुं ) बली आपे तेनी आपत्ति दूर थाय अने देवी प्रसन्न थाय एवं करवाथी अकार्य कर्तुं एम केम कहेवाय किं तु शास्त्रानी आज्ञा पाली एम कहेवाय. प्रश्न ६ नो उत्तर. पशु वधने बदले बीजी कोई हिंसा रहित क्रिया करी ते आराधवामां आवे छे तेथी शास्त्र आज्ञा भंग थई एम कहेवाय नहीं. शास्त्रकारे पशुवध न करवो ने ते जग्याए तेने बदले बीजुं बलीदान आपवानुं बतान्युं छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधार-निर्णयसिन्धु परि २ पत्र ५० पृ० १ पंक्ति ५ तदुक्तं कालिका पुराणे कुष्माडमिक्षुदंडं च मांसं सारसमेव च एते बलिसमाः प्रोक्तास्तृप्तौ छागसमाः सदा रुद्रयामलेऽपि । छागाभावे तु कूष्माडं श्रीफलं वा मनोहरं वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेत् छुरिकादिना अवश्यंविहितो यत्र बलिस्तत्र दिजः पुनः मोक्षधर्म अ० २७२ टीकाशयः गुझे च-अथश्वोभूतेष्टकाः पशुना स्थालिपाके श्लोक १३-२० न वेति पशुस्थाने विधानमवगंतत्वं तस्मान्न हिंसायज्ञः श्रेयान् ॥धर्म० कूष्मांडो वलि०॥ ए वचनो जोतां पशु वधनी जग्याए कुष्मांड वष श्रीफल वध विगेरे करवाथी तेने तुस्यज थयुं एम कहेवामां कांई वांधो नथी केमके छागसमाः एम खुल्लु लन्युं छे. उपर पण अवश्य बलिनी जग्याए अवश्यं विहितोयत्र ए श्लोकमां पिष्ट-घृत-इक्षुदंड वीगेरे बताव्यां छे ते तेनी तुल्य जाणवां अने कष्माडो बलिरूपेण एमां बलिरुपे मारा भाग्यथी मने कुमार मल्यो भने ते कुष्माड सवैरुपछे. एम खुल्लु बताव्युं छे. प्रश्न ७ नो उत्तर. पशुवध करवाने बदले ते पशुने ते देवनी भागल लांबी प्रदक्षणा करावी पूजा करी रमतो कोईबी जग्याएं मुकी देवो पण मारवो नहीं. भने ते करवाथी ते क्रिया परिपूर्ण थई तु गणवामां कांई पण वांधोज नथीं ते विषे आधार. मोक्षधर्म अ० २७२ श्लो० १३ । सत्येन स परिष्वज्य संदिष्टो गम्यतामिति ॥ टीकायां सत्यसंज्ञ अयाचत मानौ प्रक्षिपति प्रार्थितवान् ततो हिंसाया दोषपर्यग्निकुतानारण्यानुन्सृजन्ति इति शास्त्रद्रष्टया सत्येन स मृगान्परिवज्य एतेन आलंभादि पर्यग्निकरणान्तं लक्ष्यते-भागवते स्कन्ध ११ अ० ५ श्लो० १३-तथापशोरालभनं न हिंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए वचनमा कयुं छे के सत्यनामे यज्ञ करनाराने, पशुए पोते कह्यु के तुं मने अग्निमो होम तो पण ते करवू अयोग्य मानी हिंसा करवी ते दोष छ, एम शास्त्रदृष्टिए तपासी पशुने अग्नि उपर फेरवी स्पर्श करी मुकी दीधू पण मार्यु नहीं. तेथी ते यज्ञनुं फल पाम्यो. माटे पशु मारवान ज्या कह्यु होय त्यां पण तेने स्पर्श करी छोडी देवु तेज योग्य छे. किंवा ते पशुनी जग्या बदल उपर बतावेलां कूष्मांड विगेरे बलिदान आपवां. वली नाक, कान छेदवां ते पण योग्य नथी कारणके ते, करवं कांई कडं नथी अने दयया सर्वभूतेषु तथा परेष्टत्रास जननी ए विगैरे भागवतादिकनां वचनो जोतां दया छोडी ते पशुने त्रास आपवो ए योग्य नथी. छूटां मुकी देवां ते उत्तम छे. वधारे शास्त्रार्थ मोक्षधर्ममांथी जाजली-तुलाधारविचख्यु विगेरे प्रसंगमां जुओ तथा मीमांसामां-शेनयागर्नु फल नरक का छे ते जुओ. ___ उपर लखेला प्रश्नोना उत्तरी घणा सविस्तर लखी जणावत परन्तु वखत नथी जेथी बे पहोरमां केटलुक लखी शकाय माटे संक्षेपमा प्रमाण साथे लख्यां छे. ते योग्य जणाय तो. लखेलु इनाम आपवा मेहरबानी करशो वली एवा सवालो नीकले तो अमारा तरफ मुदत पहेलां जलदी मोकलवा जेथी उत्साह पुरो थाय. मुदत पूरी थई गयेली तो पण सद्गृहस्थोथी इनाम मलवाना लोभथी एकदम श्रमथी एक दिवसमां शास्त्रार्थ खडोकरी माकेल्यो छे. माटे मुदतनो वांधोलेवो योग्य नथी ते नहीं लो एवी आशा छे. लि० शास्त्री-छगनलाल केशवलाल-खंबात. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं..१२. जुनागढवाळा शास्त्री गोराभाई रामजी पाठकनो अभिप्राय. मंगलाचरणम् शिखिरिणीवृत्तम परप्राणत्राणप्रणिहितधियां धर्मजननी दयैवैका लोके सकलजननी जीवितसुधा असामान्यं पुण्यं मुनिभिरुदितं ज्ञानजवनै रहिंसा संसारे खपरकुशलश्लाध्यसरणिः ॥१॥ श्री धरमपुरना राज्यमा बलेव तथा दशरा विगेरेमां देवी-देवने माटे थती हिंसा करवामां आवे छे. ते शास्त्रमां कोई खुलासो हशे तो धर्मपुरना राजा नामदार महाराणा साहे. बनी एवी इच्छा छे के बलेव दशराने दिवसे थति हिंसा बंध करवी ते विचारना आधारथीधर्मपुरना चीफ मेडीकल ऑफीसर- रा. रा. प्राणजीवन जगजीवनदासे सरक्युलर काढी केटलाक विद्वानोथी खुलासो लेवा सात सवालो काढेला छे. इत्यादि लखाणनी साथे ते सवालो काठीयावाड टाईम्समां ता. १६ सप्टेंबरमां बहार पडतां ता. १८ मीए मारी दृष्टिगोचर थया तेज डा० साहेब त्रिभोवनदास तरफथी पण तेज तारीखे तेवा मतलबर्नु बीजुं छापुं अमारा तरफ आवेलुं हतुं. तेना अमारा तरफथी ते सवालोना प्रत्युत्तर प्रमाणवचनो साथ क्रमवार लखवामां आवे छे. प्रश्न १ लो. उत्तर–बलेव दिवसे राजाए पशुहिंसा कोई देवार्थ करवा कोई शास्त्रमा लखेल नथी. एटले मूलशाखा न्यायथी ते बलि विगेरे करवा कोई पण शास्त्रविधि नथी एटले ते संबंधी शास्त्रमा वचनो नथी. हवे दशराने दिवसे पण ते दशराना तहेवार निमित्त काई पण हिंसा करवा लखेलुं नथी. पण राजाए पोताना हाथी, घोडा तथा खड्ग विगैरे हथियारोनी मंत्रथी पूजा करवी. अने विजय मुहूर्ते घणाज उत्साहथी गाम बहार अपराजितादि अष्ट देवी, पूजन करी शमीना वृक्षतुं पूजन करवं. वलि कोई जगोए पिष्टनी शत्रुनी प्रतिमा करी तेने मारी बलिदेवा लखेलं छ. एवी रीते जय माटे दिशा पूजन साथे विजय करवा विषे लखेल छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे दशराने दिवसे पशुहिंसा करवानी केटलाक राज्यमा जे रीत चाले छे ते महान् नवमीना देवीना बलिदान लेवा माटेंनी छे. दशराने दिवसे थोडो भाग नवमीनो होषा संभवथी दशरानो दिवस ते पशुवध करवा समाचार थयो हो एम जणाय छे. ते हिंसा करवा देवीपुराणमा तथा रहस्यमां कहेलुं छे. ते पण आसुरी-काम्य-तामस कर्ताने माटे तामस काम्यकर्म लखेलं छे. रुधिराक्तन बलिना मांसेन सुरया नृप। एवा तांत्र शास्त्रोमा वामवार्गना आगममां ते विधि कहेलो छे. तेम निर्णयसिन्धुर्मा देवीपुराण- प्रमाण आप्युं छे. तो ते खुलासा निचेला प्रश्नोना उत्तरथी थई जशे एटले वधारे विवेचन करवानी जरूर नथी. प्रश्न २ उत्तर-शास्त्र प्रमाणमा सर्वमान्यमा मुख्य श्रुति एटले वेद अने ते पछी स्मृति एटले मन्वादि धर्मशास्त्र-ते पछी सूत्रो ते पछी पुराण ने वाराहि वगेरे तंत्रना ग्रन्थो तेमा उत्तरोत्तर प्रशस्त गणाय छे. ज्यां श्रुति प्रमाण होय त्यां स्मृति वचनो सामान्य गणाय छे. अने जे जगो श्रुति-स्मृतिकारना वचनोनो परस्पर विरोध आवे त्यां श्रुति बलवान् गणाय छे. स्मृतिः श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव बलियसी श्रुति वचनो जे. कर्म कस्वा वारता होय. तो स्मृतिपुराण, वचनो निर्बल गणाय छे. श्रुति. प्रबल भने सामान्य मान्य गणाय छे. न हिंस्यात्सर्वभूतानि मा हिंषि परमे व्योमन् । मागामनागामदिति वधिष्ट अर्थ-सर्व प्राणीनी हिंसा न करवी. पशुनो वध करवो नहीं-अनपराधे पशुने मास्यु नहीं. एम श्रुति वचनना प्राबल्यथी देविपुराण वाममार्गना आगमर्नु सामान्य पण गणाय नहि तो बहुमान्यतो शेनुज गणाय एटलं नहि पण धर्मसिन्धुमां कालवर्ज प्रकर• णमां एवा मद्य मांसादि आगम वाममार्गना शास्त्रो मान्यः करवा नहीं एम चोखुं लखेलं छे. मद्यभक्ष्यादिवामाचागमस्य तु न मान्यता मीमांसा द्वितीय सर्वशिष्टैश्च तदनादरात् ॥ अर्थ-बलिदानमा पशुहिंसादि तथा मद्य आप, ते वाममार्गमा शास्त्रमा छ ने ते शास्त्रमा मान्य नथी. मीमांसामा तथा इष्टऋषि, आचार्योए तेनो अनादर करेलो. तो सात्विक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा करनारा-क्षत्रिय-विगैरे तेवां पशु हिंसाना वगर वेदना प्रमाणनां वचनने मानता नथी तेम गणता पण नथी. कदि श्रुति उदित हिंसा कोई सोमादिकमां कहेछे, पण श्रुतिमां नथी कहेता. बीजा शास्त्रोक्त हिंसामा दोषछे. तेथी ते शास्त्र सामान्य पण न गणाय तो बहु मान्यतो शेर्नुज गणाय. प्रश्न ३ उत्तर--जे उपर बतावेला देवीपुराणादि रहस्य जेमांके पशु हिंसादि बलिदाननो विधि बतावेलो छे. ते शास्त्री वामी मार्गनां होवाथी तेथी श्रुति, स्मृति तथा इतिहास पुराणनां वचन बलवान् गणाय ते वळवान् शास्रमा घणी जगोए हिंसानो निषेध करेलो छे. प्रथमं श्रुतिवाक्यानि. न हिंस्यात् सर्व भूतानि मागामनागामदिति वधिष्ठ, नमांसं भक्षयेत् ॥ इममूर्णायुं वरुणस्य नाभित्वचं पशूनां द्विपदां चतु. पदंगात्वष्टुः प्रजानां प्रथमं जनित्रमग्नेमाहिषि परमे व्योमन् ॥ शतपथश्रुतिः । पशूनां नाशितव्यं ह्यपक्रामंतमेधा एते पशवः अर्थ-सर्व एटले देवतार्थे अथवा अग्निमां होमवाने माटे कदी पशुहिंसा करवी नहीं. ने ते पशु अनपराध छे. माटे अनपराधि प्राणीने मारवां ए केवल मूर्खाइ छ.यजुर्वेदना १३ मां अध्यायमां अजमेष ( बकरु ) ते वरुणनी नाभी छे. माणस तथा जानवरने तेना उनना धाबला विगेरे थवाथी एक जातनी तेनी बीजी चामडी छे. ते त्वष्ठा विश्वकर्माए ए पशुने प्रथम कल्पेलुं छे. माटे तेवा पशुने मारीश मां. पशु- मांस खावू नहीं. केमके तेमाथी हाळ सार नीकली गयेलो छे. अने अंगिकार करवानो यज्ञसार निकली गयो छे. स्मृतिवाक्यानि मनुभगवान् कहे छे. यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वेह मारणं ॥ वृथा पशुनः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ अर्थ-सोमादिक यज्ञमां-वेदमां कहेलछे. ते सिवाय एटले यज्ञसिवाय बलिदान विगेरेमा जे पशु मारेछे ते पशुहत्या करनारो जेटलां रुखाडां पशुना होयछे तेटला जन्म सुधि । ते मारणानी क्रिया करनारो थायछे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ मेधातिथिव्याख्या-तावती जन्मनामावृत्तिारणं प्राप्नोति तथा पशुनः श्रुतिस्मृत्योरचोदितं पशुवधं यः करोति तच्च प्रकरणान्महानवम्यादिषु लौकिकैर्यत् क्रियतेपशुघ्न इति कप्रत्यये छांदसरूपम् अर्थ-मेघातिथी एवीरीते उपल्या अर्थनी व्याख्या कहेछे. स्मृति श्रुतिमां कहेल नहीं एवो पशुवध करे छे एटले ते नवमी दशराने दिवसे बलिना प्रसंगे वेदमां नहीं कहेली हिंसा करनार अंधपरंपराथी वाममार्गथी चालती आवेली लौकिक हिंसा करनारा पशुघ्न कहेवाय छे. ते माटे मनु कहेछे के वेदमा नहीं कहेली हिंसा आफ्दू कालमा पण करवी नहि. गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवाद्विजः नावेदविहितां हिंसामापद्यपि समाचरेत् ॥ अर्थ-गृहस्थाश्रममां बह्मचर्य आश्रममां-तथा वानप्रस्थाश्रममां न कहेली हिंसा आपद् कालमां पण करवी नहीं. यो बंधनवधक्केशान् प्राणिनां न चिकीर्षति स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ जे प्राणिने बंधन तथा वध विगैरे क्लेश नथी करता ते सर्व हित ईच्छनार अत्यन्त सुख पामे छे. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते कचित् न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् प्राणीनी हिंसा करीने ज मांसने पामेछे ने हरेक प्राणी वध छे ते नरकप्राप्त करनारो छे. माटे मांसज त्याग करवू. अनुमन्ता विशसिता निहंता क्रयविक्रयी संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः हिंसा करनारने टेको आपे ते तेनां अंग नोखां करनार, हणनार, वेचनार तथा वेचातुं लेनार, पकावनार, हरण करनार, खानार ए दोषभागीछे. निवृत्तिस्तु महाफला वेदमां कहेली अथवा बीजी सघली हिंसामा दोष रहेलो छे, तो तेथी निवृत्ति पामवी एज मोटुं पुण्यनुं फल छे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ इतिहासवाक्यानि महाभारते अव्यवस्थित मर्यादेर्विमूढैर्नास्तिकैर्नरैः ॥ संशयात्मभिरव्यकैर्हिसा समनुवर्णिता ॥ १ ॥ सर्वकर्मस्वहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् ॥ कामकाराद्विहिंसंतिबहिर्वेद्यां पशुन्नराः ॥ २ ॥ तस्मात्प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता ॥ अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ॥ ३॥ अर्थ - वेदनी मर्यादा न जाणता एवा नास्तिक मूढ पुरुष जेने आत्मा अनात्मानुं ज्ञान नथी, तेणे हिंसादि शास्त्र प्रवर्त्तमान कर्यु छे. पण धर्मात्मा मनुए सर्व कर्ममां अहिंसाज करवीं एम कहेलुं छे. ते नहिं मानी कामनापरत्व मनुष्य हिंसा करे छे. माटे धर्म पण सूक्ष्म छे. न्यायान्याय विचारी धर्म कार्य करवुं. सघला धर्ममां प्रांणिनी हिंसा न करवी ए वधारे मोटो धर्म कहेवाय छे. छेला श्लोकनी टीकाकार आ रीते व्याख्या करेछे. सर्वकर्मसु ज्योतिष्टोमादिषु अपि नराः कामकारादेव पशुं हिंसति न तु शास्त्रात् यतः धर्मात्मा मनुः सर्ववेदार्थतत्ववित् अहिंसामेवाब्रवीत् शशंस सर्वथाप्यज्ञानानां कामकारकृता हिंसाकरणे प्रवृत्तिः इति सिद्धम् अर्थ — जे कोई कर्म एटले सोमादियागमां पण तथा बलिदानमां पण पुरुषो पोताना कामना परत्व पशुने मारेछे. कोई शास्त्राधारथी मारता नथी. केमके मनु चोखुं कछे के नितिस्तु महाफला एवी रीते अहिंसाज वखाणे छे माटे सर्वथा मनुष्यो अज्ञानथीज हिंसा कर्ममा प्रवृत्ति करे छे ए सिद्धान्त छे. अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि न धर्मः सत्यवादिनाम् ॥ व्यास - अहिंसाज सकल धर्म छे - हिंसा अधर्म छे. तेमां धर्मज नथी तेथी सत्य कहुँ छं के हिंसायुक्त, धर्म, कर्म, सत्यवादि ( सारा माणस ) नुं नथी. दानधर्मे इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गेरबुधो जनः ॥ हन्यात् जंतून मांसगृध्री स वै नरकभाक् भवेत् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ पशुने मपञ्च मारवा बाल विगेरे नैवेद्यादि द्वारा अज्ञानि जन मांससारं पशुने मारी नांखे छे. ते नरक भागी थायछे. पुराणवचनानि श्रीमद्भागवते हिंसा विहाराह्यालुब्धाः पशुभिः स्त्रसुखेच्छया यजंते देवतायज्ञैः पितृभूतपतीन् खलाः अर्थ-हिंसा करवामां जेने प्रीति छे अने मांस खावामां घणा लोलुब्ध छे तेओ यज्ञ नैवेदादिके करीने यज्ञमां होमे छे अने देवता अने पितृ भूतनुं बानुं काढी पशुनी हिंसा करेछे. __ वृत्यै परं नंति पशूनतद्विदः पशु मारवामां मोटो दोष छे एम विचार न करनारा पोतानी वृत्ति चलाववा पशुने मारेछे. नारदपंचरात्रे श्रुतिर्वदति विश्वस्य जननी व हितं रुषा । कस्यापि द्रोहजनकं न वक्ति प्रभुतत्परा ॥ हिंसाविधिस्तु हिंसाया निवृत्त्यार्थोस्ति सर्वदा ॥ आत्मवत् सर्वभूतानि तेन पश्येच्च नान्यथा ॥ अर्थ-श्रुतिछे ते जगनी माता छ ने ते सौनुं हीत करनारी छे. ने कोईने पण द्रोह करती नथी जे हिंसाना विधिनी श्रुति आपणने हिंसा नही करवानो अर्थ बतावे छे. जेमके जेवो पोतानो आत्मा वहालो छे, तेवी सघला प्राणी उपर दृष्टी करवी आ विगेरे निषेधोनां घणां वचनो छे. पण ग्रंथर्नु महत्व थवाथी लख्यां नथी. प्रश्न ४ थो. उत्तर-राजाए देवीने महानवमीने दिवसे हिंसा करी बलिदान दे, ए वेदोक्त अवश्य कर्म नथी. कर्म त्रण प्रकारनां छे. नित्य-नैमित्तिक अने काम्य ते न करे तो शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय ने तेमा दोष पण छे माटे जरुर नित्य करवा. तेम नैमित्तिक कर्म पण अवश्य करवां पण स्मृति श्रुति विहित करवां, पण वाममार्ग शास्त्रनां प्रमाणवाला तथा पुराणमां कहेलां हिंसावाला काम्यकर्म महानवमीने दिवसे बलिदान निमित्त पशुवध विगैरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ न करे तो ते बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी एम गणाय नहीं केमके ते शास्त्रथी न हिंस्यात सर्व भूतानि ॥ ए श्रुतिथी पण प्राणीने न मारवु एम सिद्ध थाय छे. वाले उपर कही गयेला मनुवाक्यथी तथा मेधातिथिनी व्याख्याप्रमाणे महानवमी बलिदानने शास्त्रमा लौकिक क्रिया गणी छे. तेथी शास्त्र भंगनो दोष आवतो नथी. मा क्रिया कहेवी छे के चालती आवेली विरुद्ध कुलाचार क्रिया छ ने ते शास्त्राचार नथी एम व्यासे भारतमहात्म्यमा कहेल छे. अंधपरंपराथी चालती आवेली रीत अद्यापि चालती आवे छे. तो हिंसा न करवी ते उत्तम छे. __महाभारतमां कडं छे के महाकुलेषु ये जाता वृद्धा पूर्वतराश्च ये तेषामप्यसुरोभावो हृदयानापसर्पति ॥ १ ॥ तस्मात्तेनानुभावेन सानुषंगेण पार्थिवाः आसुराण्येवकर्माणि न्यसेवन् भीमविक्रमाः॥२॥ प्रत्यजिष्टश्च तेष्वेव तान्येव स्थापयंत्यपि भजते तानि चाद्यापि ये बालिशतरा नराः ॥३॥ तस्मादहं ब्रवीमि त्वां राजन्संचिंत्य शास्त्रतः संसिद्धादिगमं कुर्यात् कर्म हिंसात्मकं त्यजेत् ॥४॥ धर्मशीलो नरो विद्वा नीहको नीहकोपि वा आत्मभूतं सदा लोके चरेद्भूतान्यहिंसया ॥५॥ अर्थः-मोटा कुलविशे उत्पन्न थयेला महाराजाओ, वृद्धो, पूर्वजो ते सघला आसुरि भावना थयेला छे कुलवाला होवाथी तेमना हृदयमांथी आसुरिभाव खसतो नथी. ते माटे तेना चालता आवेला जेम तेना सखाओ पण विचार कर्या शिवाय ते पण आसुरि कर्म करे छे, एटलुज नहि पण तेने मजबुत करे छे. ते परंपरा स्थापना माटे पोते आसुरि कर्म करे छे. ने अज्ञानथी आज पण तेनो कोई तपास कर्या विना अन्धपरंपरा करे जाय छे. माटे व्यास देव नामना राजाने कहे छे. के हे राजन्! हुं शास्त्रथी विचार करी कहुं छं के पोताना मनमां न्याय अन्याय विचारी सिधान्त करी हिंसात्मक कर्मों त्याज्य करवां. धर्मशील विद्वाने आत्मानी पेठे सौनी उपर दृष्टी करी प्राणीनी हिंसा न थाय तेम करवु. ___ वळी आ महानवमी बलिदान छे ते तामस वा राजस कर्म छ एटलुज नहीं पण ते काम्य कर्म छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतायां त्रिविधं कर्मास्ति नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विकमुच्यते यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् अनुबंधं क्षयं हिंसामनपेक्ष्यं च पौरुषम् मोहादारभ्यते कर्म तत्तामसमुदाहृतम् अर्थ-जे नित्य संध्यावंदनादि जेमां कामनानो संग नथी. जेने कांई पण जातनी इच्छा नथी तेनुं नाम सात्विक कर्म कहेवाय. जेमा कामना रही छे, तथा अहंकार अभिमान साथे जेमां घणि महेनत रहि छे ते राजस कर्म कहेवाय. जे कर्मनो नाश थयो छे, जे कर्ममां पशुहिंसा थाय छे, अने जे पोतानुं बलतपाश्या वगर अभिमान धरीने मानथी आसुरि संपत्ना मोह माटे इदं मद्यमयालब्धं इत्यादिवालु ते तामस कर्म कहेवाय. ते कर्म महानवमीमा तथा दशराने दिवस पशुवध ए तामस कर्म छे अने काम्यकर्म छ तो ते न करवाथी शास्त्राज्ञा भंग थती नथी. केमके धर्मसिन्धुमां लख्युं छे के जे महानवमी ए पशुवध बलिदाननो राजाने अधिकार छे ते केवळ काम्यज छे. धर्मसिन्धुः । पत्र ३१॥ केवलं काम्य एव नतु नित्यः निष्कामक्षत्रियादेः सात्विकपूजाकरणे मोक्षादिफलातिशय इति __ अर्थ-वामागमना प्रमाणे क्षत्रिवैश्यने मांससहित देवीने बलिदान पूजानो अधिकार छे. पण ते केवल काम्य छ, नित्य नथी. तो निष्काम क्षत्रिये सात्विक पूजा एटले पशुहिंसाविना पण पूजा करवाथी उलटुं मोक्षादि मोटुं फल मले छे. माटे हिंसा नित्यकर्म नहीं होवाथी ते न करे तो शास्त्रनी आज्ञा तोड्यानो दोष प्राप्त थतो नथी पण साविक पूजाथी हिंसारहित कर्म करवाथी मोक्ष मळे छे. मनु कहे छे: इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च अहिंसत्वं च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अर्थ-इन्द्रियनो जय करी राग द्वेष क्षये करीने कोई प्राणीनी हिंसा न करे तो मोक्ष पामे छे. माटे श्रुति प्रतिपादित होवाथी ते हिंसावाला पुराणागमना पचनो प्रबल नथी माटे ते न करे तो शास्त्राज्ञानो भंग थतो नथी. प्रश्न ५ मो. उत्तर-आ उपल्या वचनोधी हिंसात्मक कर्म तामसिक ने काम्य ए वेदोदित छ. ए तो प्रत्यक्ष जणावेलं छे. तो ते महा नवमी- बलिदान पशु मारी न करे तो अमुक प्रत्यवाय लागे-एम कोई स्मृति वा पुराणनुं वचन नथी. एटलुज नहीं पण होलिका पूजन विगेरेमा राष्ट्र दहन विगेरे काल भेदे प्रगट वामोए निषेध करेलो छे. तेथी मामां काई बलिदान न करे तो अमुक दोष कोई शास्त्रमा नथी. केमके आ काम्य कर्म छे. कारण के वाराही तंत्रमा नवरात्रना विषयमा मांसादि होम, बलि, मारणक, उच्चाटन कामना भेदे होम करवो तेम वाराही तंत्रमा कयुं छे. धर्मार्थकामसंवृद्धौ मोक्षार्थी पायसं हुवेत् मारणे मोहने चैव तथोच्चाटनकर्मणि ॥ हुवेत् प्रदीपने वन्हो तिलधानादितंदुलान् अर्थ-धर्म अर्थ कामना वालाए तिल-यव-ने चोखा विगेरेनो होम करवो, मोक्षने माटे धपाक, मारण मोहन उच्चाटनमां मांस होम बलि करवां तो महानवमी बलि पशुवध अवेदोदित तथा काम्य छे. तेम कोई जगोए न करतां अमुक राजा प्रजा उपर भार एम लखेलं नथी. प्रश्न ६ ठो. उत्तर-पशु हिंसाने बदले यज्ञमा तथा बलिदाना बीजी क्रिया शास्त्रमा लखेली छ ते पशुजगोए पिष्टनी प्रतिमा वा कूष्मांड ने श्रीफळ लई ते पशुने ठेकाणे कल्पी तरवारथी कापि बलि देवा कहेलं छे. श्रीनिर्णयसिन्धौ दुर्गे देवि समागच्छ सान्निध्यमिह कल्पय बलि पूजां गृहाणत्वमष्टभिः सह शक्तिभिः सहेत्यावाह्यपूर्वोक्तमंत्रेण षोडषोपचारः संपूज्य माषभक्तबलिं कूष्मांडादिबलिं दवात. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेज तेज प्रथोमां कालिकापुराणमां तेज जगो मांस प्रमाणे कूष्मांड अने शेरडीथी मांस प्रमाणे आहे. कूष्माडमिक्षुदंडं च मांसं सारसमेव च एते बलिसमाः प्रोक्तास्तृप्तौ छागसमाः सदा अर्थ – कोलुं - शेरडी - सारसनुं मांस ए तमाम बलिनी बरोबर छे ने तेथी देवी तृत -- थायछे एटलुंज नहीं पण ते पशु मारवाना विधिप्रमाणे पशुवत् कोलाने तथा श्रीफलने वस्त्री विंटी छरीथी कापी बलिदान देवा पशु स्थाने योजना करी . छागाभावे तु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिभिः ॥ • श्लोकनो भाव उपर आवी गयो छे. तथापि अहीं लखुंछु. अर्थ- बकराने ठेकाणे कोलां तथा श्रीफल ए वस्तुओने वस्त्रधी वींटी छरीथी कापी नेतेने बलिदानने ठेकाणे आपवां, आ उपरथी तंत्रनो विधि पण सात्विक कर्ताए पशुविना कोला विगेरेथी कहेलो छे. एटले रुद्रयामल - कालिका पुराण कहेतुं होय तो तेवी क्रिया करवाथी पशु नहीं मारी ते जगोए कोला विगेरेथी विधि करे तो आज्ञा भंग शास्त्रानो गणाय नहीं. तेमज महाभारतमां यज्ञादिमां बलिदानमां पशुवध नहिं करतां बीजो विधि करवा एम कहेल छे. महाभारते लोको यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिण ससर्वेभ्यो विजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणां ॥ १ ॥ न भूतानामहिंसाया ज्यायान्धर्मोऽस्ति कश्च न ॥ यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंच न ॥ २ ॥ सोभयं सर्वभूतेभ्यः संप्राप्नोति महामुने ॥ यस्मादुद्विजते लोको रूपाद्विश्मगतादिक ॥ ३ ॥ न स धर्ममवाप्नोति इहलोके परत्र च अकारणो हि नैवास्ति धर्मः सूक्ष्मोहि जाजळे ॥ ४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतरक्षार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतं सूक्ष्मत्वान्नतु विज्ञातुं शक्यते बहु विघ्नतः उपलभ्यांतराचाराचारीनवबुध्यत इति ॥ गद्यं अर्थ-लोकने विशे अभय-दक्षिणा देनार अभय पामे छे. अने अहिंसा यजन करनार पण अभय पामे छे. प्राणीनी हिंसा समान विधि धर्मने माटे नथी. जेथी कोई पण प्राणी उद्वेग पामे नहीं ते अभय थाय छे. जेथी प्राणी त्रास पामे छे ते आ लोकमां ने परलोकमां सारी गति पामतो नथी. हे मुने! सघला संप्रदाय मतनुं नाम धर्म पाडेलुं छे. पण ते धर्म सूक्ष्म छे. ते खरेखरो कोई जाणी शकतुं नथी. केमके तेमां घणां विघ्नो भावे छे तेथी कोई जाणी शकतुं नथी. ॥ अत्र नीलकंठ व्याख्या ॥ उपलभ्येति उक्षाणं वा वेह तं वीक्षदन्ते महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियाय निवेदयेत् इति स्मृतिश्रुतिविहितो गवालंभ एकाचारः मागामनागामदितिं वधिष्ठ इत्यत्र लिंगाय गतो गवोत्सर्जविधि तद्धिरुधोऽन्य आचारस्तत्र अनागामिति विशेषणात् कृत्वा हिंसा विधेरहिंसाविधिळयान् इति गम्यते । प्रजापत्यादिपशुष्वपि तुल्यस्वादित्यास्तां तावदिति भावार्थ-मधुपर्कमां श्रुतिस्मृतिमां कहेलो एक आचार छे. बीजी तरफथी तेनी विरुद्ध ऋग्वेदमा अनपराधि बलद तथा गायो मारवी नहीं. एवो विधि बताव्यो, बीजं गायोने छोडी देवी ए आचार छे. ते बावतमा विचार न करतां अनपराधि पशु यज्ञमां तथा बलिमां सरखां छे. माटे हिंसा न करतां यज्ञ करवो ने अहिंस्र बलि आपवां ए विधि श्रेय छे. एम नीलकंठनो अभिप्राय छे. तेमज श्रुतिओमां तथा वेदमां सोमयागादि प्रयोगमा पण जे पशुहोम कहेला छे. ते जगो पाकसंस्थामां श्रौतस्मातकर्ममां पण ते पशुस्थाने पुरोडाश तथा चरु-आमिष विगेरे कहेला छे. तो आ लौकिक तांत्रक्रियामा प्रतिनिधि कूष्मांडादि करवामां कोई शास्त्र बाध करतुं नथी, पण विशेष अभ्युदय छे.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारते तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा तपोमहत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिस्या न यज्ञिया अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः॥ इत्यादि अत्राख्यायिकातात्पर्य पशुकार्येश्यामाकादिविकारांश्चरुपुरो. डाशादीनकुर्यात् इति गम्यते तथा च गृहे अथश्वोभूतेष्टकाः पशुना स्थालिपाकेनवेति । पशुस्थाने स्थालिपाको विधीयते एवमन्यत्रपुरो. डाशामिक्षानां पशुस्थाने विधानमवगंतव्यं-तस्मादहिसानयज्ञिया॥ भावार्थ-पशुनी जगोमां ते कार्यमा सामो-दूधपाक विगेरे अन्न विकार सपुरोडाशादिक करवा कहेलुं छे. माटे पशुस्थाने दूधनो पदार्थ वा माषान्नादि करवा लखे छे. माटे हिंसायज्ञ करवा तेथी अहिंसायज्ञ करवा ते वधारे सारूं. एटलुंज नहि, [ वलि भारतादिकमां कहेलुं छे के, ] धूतारा वामी लोकोए, मांस, मदिरा पूजाने बांने पोताने खावा माटे कहेलुं छे. महाभारते यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोदिश्य मानवाः वृथा मांसं न भक्षति नैष धर्मः प्रशस्यते ॥१॥ सुरा मत्स्या मधुमासमासवं कृशरौदनम् धूतः प्रवर्तितं ह्येतत् न वै वेदेषु कल्पितं ॥२॥ मानान्मोहाच लोभाच्च लौल्यमेव प्रकीर्तितम् विष्णुमेवाभिजानंति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः ॥३॥ पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतं अर्थ-यज्ञीय वृक्ष गोयूपादि करी पशुने बांधी यज्ञद्वारा मांस थवाथी वृथा नथी खाता ए कोई धर्म नथी. , तेमज सुरा, मत्स्य, मधु, मांस, आसव, लीमडी विगैरे पदार्थों वेदा नथी ए सवलं धूताराओए पोताना मोह, लोभथी प्रवर्तमान करेलुं छे. जे विष्णुने जाणे छे ते सघला ब्राह्मण पुष्पादिकथीज देवचं पूजन करे छे. मा हिंसाचाल पशुहिंसानो त्रेतायुगथी वधारे बलवान् थयो छे. एम महाभारतमा तथा इतिहासमां छे. ते नीचे - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यर्थ निर्मिता वेदा यज्ञाश्चोषधिभिः सह एभिः सम्यक्प्रयु. कैश्च प्रीयन्ते देवताक्षितौ । इदं कृतयुगं नामकाल श्रेष्टःप्रविर्ततः। अहिंसा यज्ञपशवो युगेऽस्मिन्नतदन्यथा तत् त्रैतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति ।। प्रोक्षिता यज्ञपशवो वधं प्राप्स्यति वै मखे । तत्तस्तिष्ये चहें प्राप्ते युगे कलिपुरस्कृते ॥ एकपादस्थितोधों यत्र तत्र भविष्यति पत्र यज्ञाश्च वेदाश्च तपः सत्वं दमस्तथा अहिंसाधर्मसंयुक्ताः चरेयुः सुरोत्तमाः । रुचोदेशः सेवितव्यो मावोधर्मः पदास्यशेत् ॥ मावार्थ-वेद साथै औषधि थई छ मोटे औषधिथी बलि विगेरेथी देवी प्रसन्न थाय छ. भगवान् कहे छ- हाल सत्वयुगमा पशुवध नथी. त्रेतायुगमा तेनुं प्रबल थाशे. ज्यारे कलि आवशे त्यारे बंध थशे तो तमारे जे जगो हिंसा विधि थाय ते जगोए रहेवा जq. वली कलीयुगमा धर्मसिंधुमां हिंसाविधि मधुपर्कादिकमां मने करी छे. मधुपर्केपशोवैधः श्राद्धमांसपदानंच वयं ॥ इत्यादि श्रुतिस्मृतिमां हिंसाविधि पण निषेध करेलो छे. तो तांत्रोनो विधि पशुवध वर्ण्य होय तेमां शुं आश्चर्य. वलि केटलीक जगो वास्तु नैवेदमां बलिदानमांपण अडदनो लोट लई तेनो पशु करी बलि आपवा कहेल छे. शांतिसारे. जयंताय ध्वजं पीतं पैष्टं कर्म च संत्यजेत् एम वास्तु बलिमां पण पिष्टनां पशु कहेल छे. तेमजं चातुर्मास्यादिकमा पण हाल पिष्टनाज थाय छे. तेमज श्रुतिमा जे जगो वसानुलंभन कहेलं छे. ते जगोएं कात्यायने पोताना सूत्रोमां (पयस्यावा ) एम पशुस्थाने पयस्या करवा लखेलं छे. __ स्मृत्यंतरे. पशुस्थाने पुरोडाशं निर्वपेत् पशुदैवतं आमिषामथवा कुर्यात् पूर्णाहुतिमथापि वा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ पशुस्थाने पुरोडाश ते देवतानो करवो वा दूधनी आमिष दर्हि नांखी करवी वा पूर्णाहुति करवी ते मनुए पण पशुस्थाने पिष्टपशु कहेल छे. यज्ञे पिष्टपशुं कुर्यात् संगे घृतपशुं तथा यज्ञमां बलिमां पिष्टनो वा घृतनो पशु करवो वृथा पशु करी बंध विधि करवो मां कोई शास्त्रो बाघ नथी. प्रश्न ७ मो. पशुवध करवाने बदले तेना नाक काननो छेकोकरी ते प्राणीने छुटुं मेली देवामां आवे तो क्रिया करी थई गणाय के केम ? उत्तर ७ मो. पशुवध करवाने बदले तेना अंगने छेदन करी प्राणीने छूटो मूकवानो लेख कांई लखेलो नथी. परन्तु ॥ रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप । एवा वचनथी ते पशु मांना एक देशना रुधिर सहित अन्नथी बलिदेवाय तेमां प्रत्यवाय नथी केमके बलिना विकल्पमां पोताना अंगनुं रुधिर मात्र लखेलुं छे. अने वधना रुधिरथी पण तृप्ती थाय छे. माटे पोतानो निष्क्रय पशु साथे करी तेना अंगनुं रुधिर अने ओदन घरी तेने छूटुं मुकवा हरकत नथी. सोमादि यज्ञमां त्वष्ट्रा नामना पशुने यज्ञस्तंबे बांधी पर्याग्निकृत पशुने प्रद क्षिणा करावी नहीं मारी छूटी देवा लेख छे तेमज अश्वमेधादिकमां आरण्य पशुनुं आलंभन करी छोडी देवा लेख छे तेमज आम चालतो रीवाज मधुपर्कमां गृह्यप्रमाणे चाले छे. यजमान कहे छे - गौः गौः गौः एम कही बलिने प्रहण करे छे. ते माता रुद्राणां इत्यादि मंत्र भणौने कहे छे के - उत्सृजत नृण्यायतु - एम कही ते पशुनुं उत्सर्जन करवा कहेलुं छे. तो पशुनो उद्देश देवीतरफ करे तेना अंगभंगथी रुधिर - ओदनथी बलि देवामां कोई हरकत नथी. तथापि कूष्मांडादिनी पूजा करी धर्मसिन्धुमां कहेलो विधि वधारे प्रशस्त छे. ते रुद्रयामल प्रमाणे कूष्मांड तथा नालीयेरने वस्त्र बिंटि तेनी पूजा करी धर्मसिन्धुमां कला विधिप्रमाणे बलि आपवो. कूष्मांडो बलिरूपेण ममभाग्यादित्यादि इत्यादि विधिथी कूष्मांडथी बलि पशु स्थाने देवुं. आ विधि यज्ञमां घणी जगाये छे. म मा पशुबलि वेदोदित नथी एटले प्रत्यवाय न करे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ उपसंहार तात्पर्यार्थ दशराने दिवसे महानवमी निमित्त देवता बलि वेदोदित नथी . - न हिंस्यात् सर्वभूतानि एवी श्रुतिथी हिंसा करवा सौ प्राणीने मनाई करी छे. कदापि देवीपुराणमां तथा चंडिपाठ बिगेरेमां वलिदानमां पशु लखेलो छे. परन्तु ॥ नावेदविहितां हिंसामापद्यपि समाचरेत् । एम मनुए कहेलुं छे. हिंसा आपद् कालमां पण न करवी एम कहेलुं छ । सर्वथान्नं यदा न स्यात् तदैवामिष माश्रये ॥ आवी रीते कहेलुं छे. ॥ कलौ मनुपराशरौ । एवा लेखथी कलियुगमां मनु तथा पराशर बेए मान्य गणाय छे. वळी अनपराधि प्राणीनी हिंसा न करवी एम वेद कहे छे. ॥ अस्वर्ग्य लोकविद्विष्टं धर्ममप्याचरेत् न तु ॥ मनुए पशुवध अस्वर्ग्य कहेलो छे. लोकविद्विष्टं पण छे. माटे पशुनी जग्याए कूष्मांडादि बलि आप ए श्रेष्ठ छे. तथास्तु. आपनुं लखाण अमारी पासे घणुं मोडुं आववाथी घणो शोध थई शक्यो नथी तेथे संपूर्ण खुलाशा नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ता० २०- -९-९४. पाठक. गोराभाई रामजी, जुनागढ कन्याशाळापासे. www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न. १३. शास्त्री हरिदत करुणाशंकरनो अभिप्राय. आस्तिकवर्ग विभूषण रा. रा. प्राणजीवन, चीफ मेडिकल ऑफिसर धर्मपुर स्टेट, आपनुं छापेलं पत्र ता. १४-९-९४ ने रोज रवाना करेल्लुं मने ता. १७-९-९४ ने रोज सायंकाले मळ्युं छे. आपनी अहिंसा धर्ममां सारी रुचि जांणी चित्त प्रसन्न थयुं छे. भापना लखेला प्रश्नोनुं उत्तर सविस्तर आपवा अधिक कालनी अपेक्षा छे. तथापि आपे सत्वर उत्तर आपवा जणावेलुं छे. माटे टुंकी मुदतना प्रमाणमां टुंकामां पण खुलासावार मापना प्रश्नोनो अनुक्रमे उत्तर आपुं छं. ते उपर लक्ष आपशो. १ - आ प्रकारनी र्हिसानुं प्रतिपादन देवीभागवत, कालिकापुराण, रुद्रयामल तथा डामरतंत्र आदि तंत्रग्रन्थो तथा दुर्गाभक्तितरंगीणी आदि शास्त्रग्रंथोमां छे. २ - आ जातिना ग्रन्थो दुर्गाना उपासनाओ मां मान्य गणाय छे. सर्व आर्य प्रजामां मान्य गणाता नथी. कारण के आ एक पोतपोतानो कुलाचार छे. माटे जेओना कुलमां उपास्य स्वदेव दुर्गा छे, ते कुलना पुरुषोने उपरना ग्रंथो प्रमाणभूत छे. देवीना भक्तो पण बे प्रकारना छे. एक वाममार्गी तथा बीजा दक्षिणमार्गी; तेमां वाममार्गी लोको महानवमीनी समाप्तीमां साक्षात् पशु महिषादिनो देवीनी सन्मुख वध करे छे. तेमज मद्यपान पण करे छे. परंतु जे दक्षिणमार्गी छे, तेओ कूष्मांड [ कोलुं ] वा श्रीफल आदिनो पशुने स्थले उपयोग करे छे. माटे शक्ति भक्तीमां पण केवल वाममागाओनेज हिंसाप्रतिपादक क्रियाप्रधानप्रन्थो मान्य छे. सकल आर्यंजनोने ए ग्रन्थ सर्वथा मान्य नथी. ३ – धर्मसिन्धु, निर्णयसिन्धु आदि सर्वमान्य ग्रंथोमां उपरनी क्रियाना संबंधमां माप्रमाणे लक्ष्युं छे. विप्रेण यवहोमान्न बलिनैवेद्यैः सात्विकीपूजा कार्या नैवेद्यैश्च निरामिषैः ॥ मद्यं दत्वाब्राह्मणस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते ॥ मद्यमपेयमदेयमित्यादिनिषेधानां मांसमधयुत पूजायां ब्राह्मणस्य नाधिकारः स च Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलं काम्य एव न नित्यः ॥ निष्कामक्षत्रियादेः सात्विकपूजाकरणे मोक्षादिफलातिशयः॥ (ध० सिं० द्वि०प० पत्र ६६). अर्थः-जव होम, अन्न बलि तथा नैवेद्य वडे सात्विक पूजा करवी, मांसरहित नैवेद्य समर्पवं. मद्य अर्पण करवाथी ब्राह्मण ब्राह्मत्वथी भ्रष्ट थायछे, मद्य पीवू नहीं तेम आपg पण नहीं इत्यादि निषेध वाक्यो छे. माटे मांस, मद्य सहित पूजानो ब्राह्मणने अधिकार नथी. क्षत्रियने मांस मद्ययुक्त जप होमादि सहित राजसपूजामां पण अधिकार छे. आ स्थले अपि शब्दनुं ग्रहण करेलुं छे. ते उपरथी तेनो सात्विकपूजामां पण अधिकार छै. आ काम्यकर्म छे. नित्यकर्म नथी माटे काम्यकर्म न आचरवाथी कोई प्रकारनी हानिनो संभव नथी. मुमुक्षु पुरुषने तो काम्य निषेधनुं वर्णन योग्य छे. निष्काम क्षत्रिय आदिने सर्वोत्तम फळनी • प्राप्त थाय छे. निर्णयसिन्धुना द्वितीय परिच्छेदमा लस्युं छे के,अशक्तौ ब्राह्मणेन च कूष्मांडादिभिर्बलिदानं कार्य । उक्तं च कालिकापुराणे कूष्मांडमिक्षुदंडं च मांसं सारसमेव च एते बलिसमाः प्रोक्ता स्तृप्तो छागसमास्तथा छागाभावे तु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं , वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना अर्थ:-क्षत्रिय तथा वैश्ये तथा ब्राह्मणे कूष्मांड विगैरेथी बलिदान आपवं. कालिकापुराणमां कह्यु छ के-कूष्मांड, शेरडी सांठो, सारसनुं मांस ए बलितुल्य समजवां, तेथी देवीने बकरा बरोबर तप्ति थाय छे. रुद्रयामलमां पण कडं छे के, ___ छागने अभावे कोलुं अथवा संदर श्रीफलने वस्त्र बरे वाटीने छरी गिरेपी तेने कापवां उपरना वाक्यमा एम लक्ष्यं के के मशक्त क्षत्रियादिये कूष्मांडादिनो बाकि भापवो तो दयावान् राजर्षिनी आवा करकर्ममा भप्रवृत्तिने मशक्तिरूपे गणवामां को बाध क्या, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसिन्धुमा बलिदान प्रकरणमा लख्युं छे के,-- सकामेन क्षत्रियादिना सिंहव्याघ्रनरमहिषच्छागसुकरमृगपक्षिमत्स्यनकुलगोधादिप्राणिस्वगात्ररुधिरादिमयो बलिदेयः अर्थ:-क्षत्रि जो कामना विशेष युक्त होय तो तेणे सिंह, व्याघ्र, नर, महिष, छाग, सुकर, मृगपाक्ष, मत्स्य, नोलियु, घो विगेरे प्राणीनो तथा पोताना रुधिर विगेरेनो पण कामनानुसार बलि आपवो. आथी तुच्छ कामनारहित क्षत्रियने आ हिंसा प्रधानकर्म आदरवा योग्य नथी एज स्पष्ट समजाय छे. वली मद्यमांसादि वडे आराधन वामाचार गणाय छे, भने वाममार्गने अनुकूल शास्त्रो कलियुगमा प्रमाणभूत नथी. एम धर्मसिंधुकार कलिवर्जप्रकरणमां कहे छे. मद्यभक्षादि वामाद्यागमस्य तु न मान्यता मद्य मांसादि भक्षण- प्रतिपादनकरनारा वाममार्गना शास्त्रो कलिमां प्रमाणभूत नथी. मा हिंस्यात्सर्वभूतानि कोई पण प्राणिनी हिंसा करवी नहीं. अहिंसा परमो धर्मः को धर्मोभूतदया इत्यादि श्रुतिस्मृति तथा आप्तपुरुषना वाक्यो अहिंसा प्रतिपादक अनेक छे. परंतु वखते तेमां जगाना संकोचने लीधे आ स्थले सर्व लख्यां नथी. ४--सर्व राजाओने ते अवश्य कर्तव्य नथी. तेम न करवामां आवे तो कोई प्रबलशास्त्रनी आशानो भंग थतो नथी. वली सात्विकी क्रिया करवाथी ए एकदेशीशास्त्रनुं मान पण रहे छे. ५--जो देवी पोताना प्रधान उपास्य देव होय तो तेनी योग्य समये भाराधना न थवाथी हानिनो संभव खरो परन्तु सात्विकी पूजावडे श्रीजगदंबानुं श्रद्धा भक्तिपूर्वक सडे प्रकारे भाराधन थई शके छे. माटे हिंसा प्रधानक्रिया न करवामां कशो पण बाध नथी. ६--भा प्रश्ननुं समाधान उपरना प्रश्नोना उत्तरथी थई गयेलं भापने जणाशे माटे ते विशे अधिक लखवा प्रयोजन जणातुं नथी. ७--एवी रीते छेकौं देवा करता ए तामसक्रिया नज करवी ए भतिउत्तम मार्ग छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार. भापना महाराजाश्रीने आ प्रकारनी वृत्ति थई छे, तेथी तेमने धन्यवाद घटे छे. भाप लखोछो तेवी वृत्ति एमनी होय तो खरेखर राजर्षिपदने योग्य छे. ज्यारे आ प्रकारे तेनी वृत्तिनुं वलण अहिंसा तरफ छे. तो तेओ शिकारने बदले पण बिचारां निरपराधि मृगादि पशुभोनो पण वध नहींज करता होय, जे सर्व प्रकारनी हिंसाथी निवृत्त छे. तेणे बलिनिमित्त पण हिंसा करवी उचित नथी. सघला भरतखंडना राजाओनी श्रीधर्मपुरना राजाना सरखी वृत्ति थाओ. एम अमे श्रीपरमात्मपासे याचना करिए छीए. योधर्मपुरभूपालः सद्धर्मनिरतः शुचिः हिंसाप्रधानं स कथं धर्माभासं समाचरेत् लि० हरिदत्त करुणाशंकर. जुनागढ सं० पाठशालाना शास्त्रीना आशीर्वाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १४. वैद्य रघुनाथ इंद्रजीनो अभिप्राय. हिंसा न करवाथी सारं छे, एवां वाक्य श्रीमद्भगवद्गीता तथा श्रीभागवतमा छे. जेने -मोटा मोटा भाचार्यो प्रमाण माने छे. अने जेनी उपर टीकाकारे गीताजीमा अहिंसासत्यमस्तेयमित्यादि वाक्यो लखलां छे, ने श्रीमद्भागवतमां पण एकादश स्कंधमां विभूति अध्यायमां लखे छे जे वृताना मविहिंसनं ने जे उपर आज कायदा चाले छे, ते स्मृतिमा पण अहिंसा 'परमोधर्मः लखे छे माटे हिंसा न करवाथी श्रेय छे. ने हिंसा करवानुं देवीपुराण अथवा कालिकापुराण एमां लख्यु हशे, ते काई सदाचार के आर्यधर्ममां मानवा लायक छे नहीं. तेना उपासक तेने माने छे. ने जे पाडा, बकरानो वध करे छे, ते रूढिथी करता हशे. कारणके कोई सारा ग्रन्थमां एवं लख्यु नथी. जे हिंसा न करवाथी नुकसान थाय पण हिंसा जेने वालि छ तेवा केटलांक मनुष्य वहेम नांखे छे. जे दरसाल करता होय ते न करवाथी नुकसान थाव ए बहेमथी मनुष्य डरता हशे. पण कोई सारा प्रन्थमां हिंसा न करवाथी नुकसान थाय एवं मारा जाणवामां आव्यु नथी. लिं. जुनागना. वैद्य, रघुनाथ इंद्रजी प्रश्नोरानागर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नं. १५. धोराजीवाला पारेख वनेचंद पोपटनो अभिप्राय. रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन, चीफ मेडीकल ऑफिसर. मु. धर्मपुर. धोराजीथी लि. पारेख, वनेचंद पोपटना जुहार वांचशो. बाद आज रोज आपना महाराणा तरफथी सात प्रश्न पूछवामां आव्या छे. तो तेनो जवाब हुं यथामति आपुं छु ते स्वीकारशो. अहिंसानिषेधप्रकरणम् प्राणिमात्रहिंसानिषेधनामिषाशननिषेधः ॥ तत्र महाभारते देवान् प्रति महर्षिवचनम् ॥ बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः॥ अजसंज्ञानि बीजानि छागं नो हन्तुमर्हथ ॥ अर्थः-कोई जीव प्राणीमात्रनी हिंसा न करवी तथा मांस भक्षण न करवू. तेना प्रतिपादन करनारा श्लोकनो अर्थ-महाभारतने विशे देवताओप्रत्ये महर्षितुं वचन क, हे देवो! यज्ञमां धान्यना बीजे करीने होम करवो ए वेदनी श्रुति कहे छे. ने अजे करीने होम करवो एम पण वेदनी श्रुति छे. तो अज एटले न उगे एवां धान्यनां बीज समजवां पण अज एटले बकरो न समजवो. माटे बकरांने मारवा तमो योग्य नथी. श्रीमद्भागवते चतुर्थस्कंधे, प्राचीनमर्हिषिप्रति नारदवाक्यं. वायुमत्स्यपुराणयोर्देवेंद्रं प्रति महर्षिवाक्यम् तथा च । यज्ञो बीजैः सुरश्रेष्ठ येषु हिंसा न विद्यते ॥ त्रिवर्षपरमं काल मुपैतै रप्ररोहिभिः॥ अर्थ:-वायुपुराण तथा मत्स्यपुराणमां देवेंद्रप्रत्ये मुनिये कयुं छे. हे देवेंद्र ! त्रण वर्ष सुधी पडतर रहेल ने वावत उगे एवां धान्यनां बीजथी यज्ञ करवो [ कारण के आवां धान्यने विशे हिंसा नथी भने उगे एमा धान्यथी यज्ञ करवानी शास्त्रमा मनाई छे. तो देवने केम राजी कराय ! नज कराय. ] माटे हिंसारहित काम करवां एज वेदनुं मत छे. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भो भो प्रजापते राजन् पशून्पश्य त्वयाध्वरे संज्ञापितान् जीवसंघान् निघृणेन संहस्रशः अर्थः—हे प्रजापति राजन् ! दयारहित एवो तुं तेणे यज्ञमां मायाँ जे हजारो पशु तथा ते यज्ञमा मार्या जे बीजी जातना केटलाक जीवसमूह तेने मारा बताववाथी नजरे जो. एते त्वां संप्रतीक्ष्यन्ते स्मरंतो वैशसं तव संपरेतमयःकूटैश्छिदंत्युत्थितमन्यवः अर्थः-यज्ञमां मार्यो जे पशुओं तथा बीजा जीवना समूहो ते सघलां तारा वैरने संभारता तारी वाट. जोईने उभा छे. आ देहनो त्याग करीने परलोकमां गयो जे तुं तेने देखीने जेओने घणो क्रोध थयो छे. एवां सर्व पशुओ तथा बीजा जीवना समूहो लोढाने कुवाडे करीने तने छेदशे ( कापशे ). नारदपंचरात्रवचनम्. श्रुतिर्वदात विश्वस्य जननीव हितं सदा कस्यापि द्रोहजनकं न वक्ति प्रभुतत्परा अर्थः-समर्थ परम दयालु मूर्ति ईश्वरने प्रतिपादन करनारी जे श्रुति ते मातानी पेठे निरंतर जगतना हीतनेज कहे छे. पण कोई जीवनो द्रोह थाय, तेवु वचन नथी बोलती. माटे वेदमा हिंसा करवानें कोई जगाए कह्यु नथी. __न तच्छास्त्रं तु यच्छास्त्रं वक्ति हिंसा मनर्थदाम यतो भवात संसारः सर्वानर्थपरंपरः अर्थ:-अनर्थने आपनारी हिंसाचं जे शास्त्र प्रतिपादन करतुं होय. तो ते शास्त्र मान्य गणातुं नधी. समग्र दुःखनी परंपरावालो जे संसार तेमा वारंवारज मृत्युरूपी प्रवाह जीवनी हिंसाथी. थाय छे. जे शास्त्र हिंसानू प्रतिपादन करतुं होय तेने तो शास्त्रज मानवू नथी. भारते भीष्मवचनम्, सर्वकर्मखऽहिंसां वै धर्मात्मा मनुरब्रवीत् कामकाराद्विहिंसति बहिर्वेद्यां पशूनराः अर्थ:-धर्मात्मा मनु ते सर्व कर्ममां कोई प्राणिनी हिंसा करवी नहीं,एम कहेता भाव्या छे. मांसना खानारा मांस खावानी इच्छाथी यज्ञशालानी बहार पशुलोने मारे छे, ते केवल रसास्वाद माटैज छे.. पण शास्त्र प्रतिपाय नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मात प्रमाणतः कार्यों धमः सूक्ष्मो विजानता । आहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता अर्थ:-माटे विशेषे करीने सर्व शास्त्रना सिद्धान्तने जाणनारो जे पुरुष तेणे सर्व शास्त्रना प्रमाणथी भहिंसारूप जे सूक्ष्मधर्म तेज करवो केम जे सर्व भूतनी जे भहिंसा ते सर्व धर्मथी श्रेष्ट मानी छे. वृदपराशरेणोक्तम् यस्तु प्राणिवधं कृत्वा देवान् मांसेन तर्पयेत सोऽविद्वांश्चंदनं दग्ध्वा कुर्यादंगारलेपनम् अर्थ:-जे पुरुष प्राणीनी हिंसा करीने देवताभोने मांस वडे तृप्त करे छे. ते मर्ख पुरुष -सारं सुगंधिवाळु चंदन बालीने तेनी राखनुं पोताने शरीरे लेपन करे छ. माटे कोई काममा प्राणीनी हिंसा करवी नहीं. महाभारते युधिष्ठिरं प्रति भीष्मवचनम् प्रोक्षिताभ्युक्षितं मांसं तथा ब्राह्मणकाम्यया निर्दोष सर्वथा मांसं विद्यते नैवभूतले अर्थ-हवे मांस भक्षणना निषिद्ध वाक्यो कहेवामां आवे छे. महाभारतमा युधिष्ठिरप्रत्ये भिष्मपिताए कां छे, कोई कपुरुषे देवताने निवेदन कयें तथा पित्रियोने निवेदन क. एवं जे मांस तेना भक्षण विशे मोटो दोष छे, ब्राह्मणनी भाज्ञाए करीने मांस भक्षण करj तेने विशे पण दोष . माटे कोई प्रकारे मांस निर्दोषवालं नथी. तेथी तेनुं भक्षण क्यारेच न करवं. सप्तर्षयो वालखिल्यास्तथैव च मरीचयः॥ अमांसभक्षणान् राजन् प्रशसांत मनीषिणः ॥ ११ ॥ अर-माहिसा धर्मयुक्त छे. रुडीबुदिवाला एवा जे बसिष्टादि सात अपिलो तथा सूर्यना किरण ने सूर्यना मंडलने विशे रहेनारा जे सात हजार पाल्पखील्य नामे अषिलो मांस भक्षण नथी करता. तेना वखाण करे के. ने मांस भक्षण करे छे. तेनी सौ माणस निंदा करे छे. माटे मांस भक्षण न कर. पूर्व तु मनसा त्यक्त्वा तथा बाचा च कर्मणा न भक्षयति यो मांसं विषिष सो विमुच्यते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ अर्थ :- हे राजन् ! जे पुरुष प्रथम तो मने करीने पछी वाणीथी पछी देहे करी पछी कर्मे करीने जे मांसने नथी खातो ते अनेक प्रकारना संसारना दुःखथी मूकाय छे. ने सुख पामे छे. तेथी मांस भक्षण न करवुं. न हि मांस तृणात् काष्ठादुत्पलाद्वापि जायते जंतुघाताद्भवेन्मांसं तस्माद्दोषापि भक्षणे अर्थः- हे राजन्! मांस खडथी उत्पन्न नयी धतुं तथा काष्ठथी उत्पन्न थतुं नथी तथा पाषाणथी थतुं नथी. मांस तो जंतुभोना घातथी थाय छे. माटे मांस भक्षण विषे मोटो दोष छे. ऋषिभिः संशय पृष्ठो वसुश्चेदिपतिः पुरा अभक्ष्यमपि मांसं सप्राह भक्ष्यमिति प्रभो ॥ १४ ॥ आकाशात् पतितः सद्यो भूमौ स नृपातस्तदा एतदेव पुनश्वोक्ता विशेषे धरणीतलम् ॥ १५ ॥ भावार्थ : – हे समर्थ युधिष्ठिर राजा - पूर्वे विश्वतनामे इंद्र थयो तेणे पशुओनी हिंसायुक्त यज्ञ करवा प्रारंभ कर्यो हतो. ते यशस्थानमां महात्मा सनकादिको आवी चड्या. ते महात्माभोए इंन्द्रादि देवगणाने कहयुं के हिंसायुक्त यज्ञ करवानी वेदमां मनाई छे. अने तमो -देवता थईने हिंसामय यज्ञ करीन मांस भक्षण करोछो. ते तमोने घटतुं नथी एवी रीते ऋषिनो ने देवगणोनो विवाद चाम्यो ते वखतमां चेदी नगरीनो राजा चरववसु महा धर्मवान् त्वां आवी पहोच्या. त्यां भाषिमहात्मा भए कहयुं के हे राजन् - अमारो ने आ देवताभोनो संवाद तेमां तमो मध्यस्थ थाभो भने यथार्थ कहो. त्यारे वसुराजाएं इंद्रने पक्षपाते करीने कह के वेदमां हिंसामय यज्ञकरीने मांस भक्षण करवानुं कहयुं छे. एवं असत्य वचन बोलतां तत्काल आकाश थकी पृथ्वीमां पडयो व्यारेवली वसुराजाने माहात्माए कहयुं के साचुं तुं बोल. मारे ते राजा प्रथमनी पेठे बोल्यो. एटले तुरत पृथ्वी फाटी एटले ते वसुराजा पाताळमां पच्यो ने महदू दुःखने पाम्यो. एवी रीते पशुने मारीने मांस खावुं आटलं बोल्यो तेथी पातालमां पडयो. माटे जे पशुनो बध करे ने मांस खाय तेने पाप लागेछे माठें पशभो मारना नहीं ने मांस खावुं नहीं. ए श्रुतिमां तथा स्मृतिमां सिद्धांतछे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat पारेल, बनेचंद पोपट सोति चंद, मु० धोराजा. www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न. १६. धोराजीवाला पारेख, पोपट मोतिचंदनो अभिप्रायः धोराजी तारीख १८ सप्तेम्बर १८९४. सदा महेरबान राजमान्य राजश्री प्राणजीवनदास वि० जगजीवनदास महेता. धर्मपुरना चीफ मेडीकल ऑफीसर साहेब मु० धर्मपुर धोराजीथी ली. शा. पोपट मोतीचंद तथा वकील जगन्नाथ वाशणजीना यथायोग्य घणा मान्यनी साथे कबुल करशो. लखवाने घणी खुशी उपजे छे के ता. १८ सप्टेम्बर १८९४ ना मुंबई समाचारमा आपनी आगेवानी निचेनो एक आर्टिकल अमारा वाचवामां आव्यो तेमां दशरा बलेव विगेरे तहेवारने दिवसे धर्मपुरमां देवीने के देवने भोग आपवा माटे पाडा बकरा ने बीजा प्राणीओनो वध करवामां आवे छे. ते शास्त्रविहीत छे के निषेध छे. ते बाबत सात सवालों काढी तेनो विद्वानो पासेथी खुलासो मेळववानी इन्तेजारी राखेली होय एम जणाय छे. अमो आशा राखीए छीए के, आवा साहसीक काममां आपने पूरता खूलासा मली जशे. वखत घणो थोडो होवाथी अमे अमारी उमेदमां संकोचाईने पण जगाववानी रजा लईए छीए. आपना तरफी थएला सवालोमांथी ३ त्रीजा सवालनो खुलासो आपवानी अमो अमारी अल्पबुद्धि प्रमाणे घणी अगत्यता जोईए छीए. देवी देवने नामे हिंसा करवानी रूढी जुनी बुद्धिना भोछी समजणवालाए चलावी होय एवा वामीमार्गीओए अर्थनो अनर्थ करी आ रस्तो चलाव्यो छे. आपना सवालमांनो त्रीजो सवाल नाचेप्रमाणे छे. ते शास्त्र करतां पण जे शास्त्रनुं प्रमाण वधारे बलवान् गणातुं होय एवां कोई शास्त्रमा ते हिंसानो निषेध कर्यो छे के केम ? आतो जगत् प्रसिद्ध छे के, भागवत ए प्रमाण करवा योग्य शास्त्र छे. तेथी बीजा कपोलकल्पित पुस्तकोना मुकाबलामां प्रमाण करवा योग्य गणाय नहीं. वळी वेदनुं प्रमाण सर्वोपरी गणाय छे. विष्णुवावा ब्रह्मचारी नामना महान् विद्वान् अनुभवी मुक्त पुरुषे वेदोक्त धर्मप्रकाश नामनो एक ग्रन्थ लोकहितार्थे वाहार पाड्यो छे. जेना १८६ मे पाने नवमी कलममां दर्शान्युं छे केःपुरुषं वै देवाः पशु मालभंत तस्मादालब्धान्मेष उदक्रामत् ॥ सोऽश्वं प्राविशत् तस्मादश्वोभवदथैनमुरक्रांत स किं पुरुषोन्नवत् रुग्वेदनी आश्वलायन शाखाना बीनी पंचिका महिला पाठमा खंउमा लप्यु छ केउपरना लोकनो भावार्थ-घोडा, उंट, गाय, बोकडो, सरभ, भर्ग हमादि सर्व पामो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमेध्य छे. कारण तेमांथी मेध नीकली गयो छे ए विचार कर्यो तेथीज रहेलो जे पशुदेह ते अमेध्य छे. “ तस्मादेतेषां नाश्नीयात् न यजेत् " वास्ते सर्व पशुओ जे तेओने खावा नहीं तथा जेओने खावा नहीं तेओनो होम पण करवो नहीं एवं न अश्नीयात न यजेत एटले खावा नहीं तथा तेनो होम पण करवो नहीं एटले अमेध्य पशुओ जे सर्वचरप्राणीओ तेओने खावां नहीं, अने तेनो होम पण करवो नहीं, एम सूचव्यं छे. एज पुस्तकना पाने १९१ मे प्राचीन बर्हिराजा क्षत्रिय छतां यज्ञना निमित्तथी पशु मारी खावानुं तेने हींसाकर्म थयु ए नारदना वाक्यथी सिद्ध छे तथा यजुर्वेदमां हिरण्यकशाखाना ब्राह्मणग्रन्थ माहेला त्रीजा अष्टकना छठा अध्यायमां त्रीजा अनुवाक् मध्येप्राचिनं बर्हिःप्रदिशा पृथिव्याः वस्तोरस्यावृजाते अग्रे अन्हां ॥ ए विवादरूपी कथा छे, तो न्यायथी सिद्ध थाय छे के पशु मारी खावामां क्षत्रियोने पण पाप छे. पछी हालमां जे क्षत्रियो छे, ने कुलधर्मोना ढोंगथी अथवा जीभनी लाल. चथी मांस खाय छे. ते प्राचीन बर्हिराजानी रीतने मळता क्षत्रियो हशे. ता तेओने मांस खावानी लज्याथी पाप-भीती नारदे प्राचीन बर्हिने बतावी छे. तेनुं स्मरण कर्यु छतां पाप लागशेज लागशे. अने ते मांस खावू जरूर छोडीदेशे. वली एजप्रमाणे के:-श्रीमद्भागवतना चतुर्थ स्कंधमां २६ मा अध्यायमा सातमा आठमा श्लोकमां नारदजाए प्राचीन बर्हिने हिंसा करवानी ना पाडी छे. ने हिंसानो भय देख्याडो छे. ते विशे निचेना बे श्लोको नारद उवाच भो भो प्रजापते राजन पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे ॥ संज्ञापितान् जीवसंघान् निघणेन सहस्रशः ॥७॥ एते त्वां संप्रतीक्षते स्मरन्तो वैशसं तव ॥ - संपरेतमयःकूटैश्छिन्दत्युत्थितमन्यवः ॥ ८॥ पशुवध करनानो रिवाज कपोलकल्पित घणे ठेकाणे चालतो हतो पण अत्यारे आ-. पना तरफथी आजना सुधरेला जमानाने मा. आपवा माटे जे समयसूच नो प्रसंग लीधो छे. ते प्रमाणे मोरबी तळपदमां तथा मोरगी ताबाना गाम सापरमां दशराने दिवसे मारवानां. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताने निमित्त घेटानो बली भोग भापता, अने सापरमां देवीने पाडा तथा घेटानो बनि भोग देता, अने तेनी हिंसा करता ए अमारा वकील मोतीचंद रतनसी पारेखे मोरबीना महाराजा सर वाघजी बाहादुरनी हजुर भावी आवा जंगली रीवाजने काढी नाखवा, भने तेनी बधी जवाबदारी पोताने शिर राखी ते बोकडा तथा पाडाने मातानां मंदिर पासे बांधवामां आवेतो अमे तेने छोडी जावा तैयार छीए. एम विनंति करतां महाराजाए ते प्रमाणे करवा कबुल कयु. अने वचन आप्यु के तेम करवामां आवशे तो कोई दिवस ए हिंसाना पगला पछीथी भरवामां भावशे नहीं. ते प्रमाणे फरमानथतां माताना मंदिर पासेथी एवा जानवरो अमरा तरफथी छोडी लई जावामां आव्यां छे. भने सं. १९३४ नी सालमा मा इन्तेबाब बन्यो त्यारथी ए हिंसानो चाल बंध पडी गयो छे. अने भा प्रसंगमा केटलाएक लागता वळगता जुनी बुद्धिना भज्ञान भने वहेमी माणसोए घणी तरेहथी महाराजा साहेब भ्रम नांखवा मांडयो. पण तेभो नामदारे आपेलं वचन नहीं फेरववानो निश्चय करी त्यारथी 'एवं अघोर अने कमकमाट उपजावनारूं कृत्य बंध क छे. त्यारथी तेओ नामदार साहेबनी राजनाति आबादी भने चढती कला दिन परदिन वधारो थतो भावे . ए सर्वे भापणे जाणीए छीए. आवोज एक बीजो दाखलो वढवाण शहरमा भोगावाने कांटे माताना मंदिरपासे पाडाने वध करवामां आवतो ते पण त्यांना महाराजा साहेबे वर्ष पांच थयां ए चाल बंध कर्यो छे. तेभो नामदार साहेबनी कीर्ति चढती स्थीति धरावे छे. तेने मळतापणं करवा भापना : नामदार महाराजा साहेब सघला वहेमोने दूर करवानी इन्तेजारी धरवता होय एम जणाय के. तेथी अमारो तेमना प्रत्ये तेभो नामदार साहेबनी चढती कलामा उमेरो थवा माशिर्वाद छे. भने भाशा छे के तेभो नामदार साहेब ए चाल हरहमेशने माटे रिवाज़ पाडशे. मा अमारो पत्र त्यां आ संबंधी निमायेली कमीटीमा महेरबानी करी पंचाववा तस्दी लेसो तेथी अमो आपना आभारी थई. ___ नामदार महाराजा साहेबनी भने कमीटींनी मरजी एम थती होय के माता पासे एवा जानवरो भोग दाखल बांधवामां आवे अने तेने छोड़ी लई जाय अने ताजिनो कोप थाय तो तेनुं जोखम पण अमे लेवा तैयार कीये. के ते माटे खास भमाए घरन माणस ते पागबेटा विगेरे छोडी जाय तेम करवा मरजी होय तो अमने तार मारफत खबर मलवी जोइए के ते दिवस ममारा तरफनी हाजरी थाय. ने ते जनावरो छोटी लेवामां भावे पण ममने खाली फेरो न थाय. एवी खात्री प्रथमथी मलवी जोईए तो भा कागळवो जवान तुरत लखशो. रा. पोपट मोतीदना जुहार मु० धोराजी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १७. वेरावलवाला मि. मदनजी जुठानो अभिप्राय. महेरबान रा. रा. प्राणजीवन जगजीवन चीफ मेडीकल ऑफिसर. मु. धर्मपुर. वेरावलथी लि० मदनजी जुठाना प्रणाम. बाद अत्र आपना तरफथी सात प्रश्नो अहिंसा बाबत बहार पाडवामां आव्या छे. तो तेनो खुलासो ए छे जे, आपणा शास्त्रोमा छ तेनी विगत नीचे मुजब. विपाक नामे सूत्रमा बीजा भागमां दुःखविपाक नामना दश अधिन छे. तेमां पांचमां अधिनमां जीतशत्रुराजानी पासे माहेश्वरदत्त नामनो ब्राह्मण हतो तेणे राजानी शांति माटे पंचेंद्रीवध बनावी प्राणीनो वध कर्यों तो अंते नरकमां गयो. जीवोपंगसूत्रमा वसुराजा सिंहासन उंचुं देवताओ धारण करता हता तो ते राजार्नु सिंहासन एक पर्वत नारदजीना संवादमां अज शब्दनो अर्थ बोकडो कह्यो ने ते असत्य बोल्यो तेथी देवोए ते सिंहासन पडतुं मक्यु के तरत नरकमां गयो. वली प्रमाण जुओ. श्लोक. ध्रुवंप्राणिवधो यज्ञे नास्ति यज्ञस्त्वहिंसकः तताजहसात्मक कार्यः सदा यज्ञो युधिष्ठिर ॥ अर्थ:-यज्ञने विशे प्राणानो वध करवो, ते अहिंसा यज्ञ न कहेवाय. माटे हे युधिष्ठिर अहिंसा यज्ञ करवो तेज श्रेष्ट छे. __ श्लोक महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलम् भीताभयप्रदानस्य क्षयएव न विद्यते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथा-मोटामां मोटुं दानोनुं फल काले करीने नाश थई जाय छे. पण अभयदानना फलनो नाश क्यारे नथी थतो. श्लोक. पशूनां ये तु हिंसन्ति ये गृध्रा इव मानवाः ते मृता नरकं यान्ति नृशंसाः पापपोषकाः अर्थः-गृध्रना जेवा जे मनुष्यो पशुनी हिंसा करे छे. ते नठारा ने पापी पुरुषो मरीने नर्कने विशे जाय. छ. श्रीरस्तु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. १८. प्रयागवाळा शास्त्री भीमसेनशानो अभिप्राय. कोविधः पशुहिंसाविधिः कस्मिन् शास्त्रे उक्तः सिंहादयो निर्बलप्राणिघातकाः प्रजापीडकाः पश्वादया प्रजारक्षायै क्षत्रिय राजपुरुषैर्हन्तव्या इति वेदादि सर्वशिष्टानुमतशास्त्रेषु विहितम् । यश्च मधुपर्केच यज्ञेच पितृदेवतकर्मणि ॥ अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः इत्यादिना शिष्टानुमतमन्वादि प्रणीतधर्मशास्त्रेषु पशुवधो विहित इव लक्ष्यते स च नायं पशुवध विधिरपि तु विध्याभास एव । न हीदृशानि वांसि मन्वादि महर्षिप्रणीतान्यपि तु पश्चात्कैश्चित्स्वार्थिभिःप्रक्षिप्तानीत्यनुमीयते॥ तथाचोक्तं ॥ महाभारते मोक्षधर्मपर्वणि अव्यवस्थितमर्यादेविमूढेनास्तिकैनरैः संशयात्मभिरव्यक्तः हिंसा समनुवर्णिता ॥१॥ सर्वकर्मखहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो जायसी मता ॥२॥ सुरामत्स्याः पशोमांसमासवं कृसरोदनं धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतन्नेतद्वेदेषु कल्पितं ॥३॥ मानान्मोहाच लोभाञ्च लोल्यमेतत्प्रकीर्तितम् । विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः॥४॥ तस्यतेनानुभावेन मृगहिंसात्मनः सदा तपोमहत्समुच्छिन्नं तस्मात् हिंस्या न यज्ञियाः ॥ ५॥ , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ एतेन स्पष्टमेव निस्तरति - यज्ञेष्वपि पशुवधो वेदादिसच्छाखानुकूलो नास्तीति देवीदेवतोद्देशेन च शिष्टसम्मतवेदादि शास्त्रेषु पशुवधः काथ कर्तव्यत्वेन विहितो नैव दृश्यते प्रत्युत निषेधस्तु निस्सरति । तद्यथा यक्षरक्षः पिशाचान्नं मयं मांसं सरासवम् । इति ब्रुवता मनुना मद्यमांसादिकं देवान्नं नास्तीति स्पष्टमेव विज्ञाप्यते । पुनर्देवतोद्देशेन क्रियमाणः पशुवधः शास्त्रविरुद्ध एवेति निश्चितम् नहि हविर्भुजो देवा मद्यमांसादिक खादन्ति नते देवाः किन्तु मद्यमांसभुजो राक्षसादयो हविर्भुजो देवाः । ( २ ) - येषु मार्कण्डेय पुराणादिषु देवतोद्देशेन पशुवधः प्रतिपाद्यते न से प्रन्थाः शिष्टायसम्मताः । शिष्टार्य्याश्च वेदानेव सर्वथा प्रमाणीकुर्वन्ति न तु वेदविरुद्धान् । अतः सर्वशिष्टार्यत्याज्या हिंसास्तीति मन्तव्यम् ॥ (३) मनुस्मृत्यादिषु सर्वसम्मतशास्त्रेषु जीवहिंसानिषेधो बहुप्रकारेण दृश्यते । हिंसा सर्वपातकानां मलमहिंसा च सर्वधर्माणां प्रधानो धर्म इति मानवधर्मशास्त्रसिद्धान्तः । सजीवश्च मृतश्चैव नक्कचित्सुखमेधते ॥ अतो महिषवर्करादिहिंसकानां प्राणिनां इन्तारोऽपि न कदाचित्सुखमाप्स्यन्तीति स्पष्टमायाति ॥ (४) विजयादशम्याद्युत्सवेषु राज्ञां पशुविधानं क्वापि सच्छाश्रेषु नास्ति । ( ५ ) अरिष्टत्यागाद्विघ्नं किमपि न भवति । मंगलं तु सर्वदा भविष्यति इत्यनुमीयते । (६) यदा च पापजनकः पशुवधः पुनस्तत्प्रतिनिधि कार्येऽप्य निष्ट मेवास्ति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) महिषवर्करादीनां कर्णनासायंगच्छेदोऽपि नैव कर्तव्य:न च स कापि विधीयते दुःखजनकत्वात्तदपि कर्म कथमप्यधर्मजनकमेवास्ति। अतो मदनुमतौ महाराज धर्मपुराधीशेन विजयादशम्यायुत्सवेषु महिषादीनां वधोऽवश्यं त्याज्यो महिषादिभ्योऽप्यभयदानं दातव्यम् ॥ धर्मपुरे महिषादिहिंसनेन येषां मनुष्याणां मांसा. दिना कथमपि किमपि भक्ष्यमुपलब्धं भवति तत्प्रतिदाने पक्का नादिकं भोज्यं विभागेन ततोऽप्यधिकं महाराजेन प्रदातव्यं । एवं कृते महाराजो महापुण्यात्मा भविष्यति । एवं सत्यमेव धर्म रं नामान्वर्थं भविष्यति । यदि कश्चिच्छास्त्रार्थ कर्तुमिच्छेचदाहं तत्परोस्मि । किंबहुना-राज्ञोऽमात्यवर्गस्य चेष्टचिन्तको भीमसेनशर्मा-- उत्तर १. भावार्थ:-निर्बल प्राणीयोंके मारनेवाले प्रजाके पीडक सिंहादि महान् अनुपकारी पशु प्रजाकी रक्षाके लिये क्षत्रिय और राजपुरुषको मारने योग्य है. यह वेदादि और सब शिष्टोंसें भनुमत शास्त्रोका सिद्धान्त है. और जो “ मधुपर्क यज्ञ" और पितृदैवत कर्ममेंही पशुः मारने चाहिये ऐसा मनुजीने कहा है. इत्यादि वचनोंसे. शिष्टानुमत मन्वादिप्रणित धर्मशास्त्रोमें पशुवध विहितसे लक्षित होता है. सो यज्ञ पशुवध विधि नहीं है. किन्तु विध्याभास है. ऐसे वचन मन्वादि महर्षिप्रणित नहीं. किन्तु पीछेसे किन्ही स्वार्थियोंने धर्मशास्त्रादिमें मिला दिये हैं. ऐसा अनुमान होता है, मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले संशयात्मक मूर्ख नास्तिक पुरुषोंने छिपकर ऋषिप्रणीत धर्मशास्त्रादिमें हिंसाविधायक वचन मिला दिये हैं। साधारण विशेष सब कार्योंमें पश्वादिका न मारना है, धर्मात्मा मनुजीने कहा है, अहिंसाधर्म सब धर्मसें बडा है. मद्य, मत्स्य, पशुमांस, आसव और खीचडी, भात आदिमें मांस. मिलाकर खाना-पिना वा यज्ञमें चढाना धूर्तीने प्रवर्तित कीया है, वेदादि सच्छास्त्रोंमें इनके यज्ञमें चडाने वा खाने पीनेकी कहींभी आज्ञा नहीं. मान, मोह और लोभादिसे अधर्मात्माभोंने यज्ञादिमें पशु हिंस्य तथा मांस भक्ष्य है ऐसी कल्पना करलीइ है, वेदादिक माशोंकों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जाननेवाले धर्मात्मा ती यज्ञादि सर्वोत्तम कार्योंमें विष्णुके आराधनकोही कर्तव्य समझते हैं. नयी तमो वर्द्धनी सर्व सच्छांस्त्र प्रतिषिद्धा हिंसाको किसी ऋषिने किसी यज्ञमें मृगहिंसा की थी, उस हिंसाको करनेसे उस ऋषिका महातप नष्ट होगया, इसलिये हिंसा यज्ञमें करने योग्य नहीं. इ० वचनोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है. यज्ञादिमेंभी पशुका मारना. वेदादि सच्छास्त्रों के अनुकूल नहीं और देवी देवताके उद्देशसे पशुवध शिष्ट सम्मत वेदादि शास्त्रोंमें कहींभी कर्तव्यतासे विहित नहीं है. प्रत्युत निषेध तो निकलता है जैसा कि मद्य, मांस, सुरा और आसव ये यक्ष राक्षस और पिशाचोंका खाना है. इस वचनको कहते हुये मनुजिने स्पष्ट बतलाया है कि मद्यमांसादि देवताओंका खाना नहीं फिर देवताके उद्देशसे किया हुया पशुवध सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है. ऐसा जानना चाहिये. हविका भोजन करनेवाले देवता मद्यमांसादि नहीं खाते. और जो खाते हैं वे देवता नहीं क्यों कि मद्यमांसादि खानेवाले राक्षस और हवी खानेवाले देवता होते हैं. (२) मार्कण्डेय पुराणादिमें देवताके उद्देशसे जो पशुवध प्रतिपादित किया है सो ठीक नहीं. क्योंकि मार्कण्डेय पुराणादि ग्रन्थ शिष्टार्य सम्मत नहीं है शिष्टार्य्य लोग वेद और वेदानुकूल ग्रन्थोंहीका प्रमाण करतें हैं वेद विरुद्धोंका नहीं. इससे सिद्ध हुआ हिंसा सब शिष्टार्योको त्याग करने योग्य है. (३) मनुस्मृत्यादि सर्व सम्मत शास्त्रोंमें जीवहिंसा निषेध बहुत प्रकारसे किया है.' मानवधर्म शास्त्रका सिद्धान्त है कि हिंसा सब पापोंका मूल और अहिंसा सब धर्मोमें प्रधान धर्म है जो अहिंसक प्राणीकों अपने सुखकी इच्छासे मारता है. वह जुवताहुआ तथा मरकरभी कभी कहीं सुख नहीं पाता इसलिये अहिंसक महिष-बकरादि प्राणीयोंको मारनेवालेमी कभी सुखको प्राप्त न होवेंगे यह स्पष्ट शास्त्रोंमे लिखाहै. (१) दशरानां उत्सवमें राजाओंको पशु मारनेका विधान कहींभी सच्छात्रोमें नहीं लिखा. (५) शास्त्रनिषेध अनिष्ट कार्यके त्यागसे कोई विन नहीं होता, पशुवध न होनेसे सर्वदा मंगल होगा ऐसा अनुमान कया जाता है. (६) जब पशुवध पापभाक् है तब उसके प्रतिनिधि कर्मसें कार्य निकालनाभी... मनिष्टही है. (७) महिप-बकरा भादिको कान नासिकादि का छेदन न करना चाहिये. कौ के कर्ण नासिकादि मंगका काटना शास्त्रविहित नहीं; और कर्णादि. छेदन दुःखजनक होनेसे बडा पाप नहीं तो छोटा पाप अवश्य है. इस लिये मेरि सम्मतिमें महाराज धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराधीशको विजयदशमी आदि उत्सवोमें महिष, बकरूं आदि दीनपशु न मारने वा मरवाने चाहिये. महाराजाको चाहिये किं महिषादि गरीब पशुकों अभयदान देवे, और धर्मपुरमें महिषादिके मारनेसे जीव मनुष्योको मांसादिसे किसी प्रकार, दूध भक्ष्य उपलब्ध होता है तो महाराजको चाहिये कि उन मनुष्योको उसके बदलेमें उससे अधिक मोदकादि उत्तम भोज्य विजयादशमी आदि उत्सवोंमे देवें. अभयदान देनेसें महाराज इहलोकमें पुण्यात्मा कहाकर उस लोकमें अवश्यमेव सुखके भागी हो बेंठो-जब धर्मपुरमें पशुवध बन्ध होजायगा तब धर्मपुर नाम यथा नाम तथा गुणबाला होगा. यदि कोई पंडित इस विषयमें शास्त्रार्थ करना चाहेतो हम शास्त्रार्थ करनेको बद्धपरिकर है किं बहुना. राज्ञोऽमात्यवर्गस्यचेष्टचिन्तको-भीमसेनशर्मा, मु. प्रयाग. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० २०. गोंडलवाला शास्त्री केवलराम लीलाधरनो अभिप्राय. सौजन्य सुधासागर रा. रा. भाई श्री.-प्राणजीवन जगजीवन महेता, मु. धर्मपुर. महाराजा साहेब नामदार महाराणा श्री मोहनदेवजी महाराजनी हजुरमा शास्त्री-केवलराम लीलाधरना आशिर्वाद मान्य करशो. १ प्रश्ननो उत्तरतंत्रमा वाम दीक्षावालाने मद्य-मांसनुं बलिदान विहित छे. २ प्रश्ननो उत्तर न हिंस्यात्सर्वभूतानि-अहिंसा परमो धर्मः ॥ इत्यादि वाक्यो वेदमा तथा शास्त्रमा अनेक छे. ते वाक्य हिंसानो निषेध करे छे. ४ प्रश्ननो उत्तरतंत्र शास्त्रनी दीक्षावाला राजाने ते शास्त्रना विधिप्रमाणे वर्तवू. ५ प्रश्ननो उत्तर एवी हिंसा न करवाथी अकार्य कर्यु गणाय नहीं. तेम राजाने अथवा तेनी प्रजाने आपत्ति योग आवे एवं अहीं के बीजे उपलब्ध नथी. ६ प्रश्ननो उत्तर___ पशुवधने बदले सहस्रचंडी इत्यादि अनेक प्रकारे देवी- आराधन छे. ते सौ विद्वानो. ना जाणवामां छे. ७ प्रश्ननो उत्तरपशुनां नाक कान कापवाथी ते विधि पुरो थाय एम अमारा वांचवामां आव्यु नथी. धर्मशास्त्रनी-भागवतादिक पुराणनी स्मृतिमोमा घणां वाक्यो हिंसानी निंदा करनारां छे. तेम करवाथी प्रत्यवायथी तेमना प्रायश्चितो पण लखे छे. माटे अशास्त्र हिंसा न करवी ए उत्तम पक्ष छे. वास्तविक विचार करता जे जे क्रिया रागथी प्राप्त छे. ते निवृत्ति माटे कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ कोई स्थल ते क्रियानां विधिवाक्य उपलब्ध छे. पण ते क्रियामा प्रवृत्ति माटे नथी ९ तात्पर्य भागवतना एकादश स्कंधना ५ मा अध्यायमां. लोके व्यवायामिषमयसेवा नित्यास्तु जंतोर्न हि तत्र नोदना ___ एना अर्थथी तथा तेनी बेचार टीका छे. ते जोवाथी वधारे खुलासो मलशे जे हिंसा न करवी एज. आप पत्र मने भाद्रपदमासनी त्रीजने दिवस मल्यु. तेथी ते ते स्थलमां जोई वाक्योसहित सविस्तर उत्तर लखवानो वखत मळ्यो नथी. शुभं भवतु ॥ भादरवा वदि ५ बुधवार. शास्त्री केवलराम लीलाधर, गोंडल सं. पा. भ. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न०२१. गुसांई शंकरगरजी भैरवगरजीनो अभिप्राय. स्वस्ति श्री धरमपुर महाशुभस्थाने पूज्याराधे सर्वोपमालायक राजमान्य राजश्री महाराणा श्री मोहनदेवजी नारणदेवजीनी चिरंजीवी घणी हजो. एतान् श्री जलालपुरथी लि. गुसाई शंकरगरजी भैरवगरजीना जय स्वामीनारायण वांचशो. अत्र सौ आनंदमां छे. ने आपना राजनी चढती कला थाओ तेम ईश्वरपासे मागीए छीए. बीजुं श्री धरमपुरना महाजने श्रीजलालपुर गुरु उपर कागळ मोकल्यो ते वांची समाचार जाण्या, ते माटे दशरा उपर हवनमा पशुवध न करवो. तेम गुरुजीनी आज्ञा छे. हवेथी माफ राखवू जोईए तेम गुरुजी लखे छे. बीजुं गुरुना शिष्य भवानीगरजी धरमपुर थोड़ा दिवसमा आववाना छे. थोडं लख्युं ते विशेष करी मानजो. ___ बीजुं कपुरचंद भाईने जय नारायण कहेवा. अमारी उपर हेत राखो छो तेथी विशेष राखशो. संवत् १९५० ना आशो शुद १ वार रवी. दा. रतीगर भवानीशंकरना जय नारायण. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २२. बारडोलीवाळा जोशी मयाशंकर फकिर शर्मानो अभिप्राय. अखंड राज्यश्रीया विराजित राजासाहेब नामदार महाराजा श्री ६ महाराज मोहन देवजी महाराजनी पवित्र सेवामां निर्णय पत्र पहोंचे. जोतिर्विद् मयाशंकर फकिर शर्मा सम्पतम्. विराजराजपुत्रा रेर्यन्नामचतुरक्षरं पूर्वार्द्ध तव शत्रूणां पराद्ध तव वेश्मनि ॥ इत्यादि आशिषस्तु ॥ काम्यकर्म... १ - - शास्त्रमां कोई पण कामना वगर पशुहिंसा करवानुं नथी.. २ -- कामनायुक्त पूर्वाचार्य करता हता. पण आर्यलोकोमां ए बलवान् पक्ष गणातो नथी. - निषेध माटे ब्रह्मोत्तरखंडमां पशुवधनुं वचन बलवान् निचे दर्शाव्युं छे. - ए कार्य माटे पशुवधनी अवश्यकता नथी. योग्य नथी. ए घणे मते छे तेमज आज्ञा तोडी छे, धिकारे बलवान् नित्य छे. 7 अनित्य छे, माटे उपवीतवालाने ए एम गणातुं नथी यज्ञोपवितना अ ५ - - ए पशुहिंसा न करवाथी राज्यने तथा प्रजाने बीजां बलिदान करवानां कह्यां छे. ते न करीए तो पछी करवा केचित् मत छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अडचण नथी पण तेने बदले हिंसकपणुं राजसपूजा प्रमाणे. ६ - पशुवधने बदले बीजी क्रिया करवाने निचे शाखनां वचनो छे. ७- नाक, कानने छेको मारवाथी उलटुं विशेष बंधन थाय छे. एम प्रायश्चित मयूखादिमां निषेध प्रत्यक्ष लख्यो छे. www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीगणेशाय नमः उपर लखेली प्राकृत लिपिकाना प्रमाण निचेप्रमाणे छे. उत्कंच रुद्रयामले - कालिकापुराणे डामरतंत्रेऽपि ॥ कूष्माडमिक्षुदंडं च मांसं सारसमेव च एते बलिसमाः प्रोक्तास्तृप्तो छागसमाः सदा -रुद्रयामलेपि - छागाभावे तु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना ॥ श्रीफलं वा सुराधीश छेदं नैव तु कारयेत् अर्थः सुराधीशः चंद्रगुप्तः छेदेविकल्पः ब्रह्मोत्तरखंडे ८० रथमितलघुजीववषे अजवधतच्छतसमानवृषहननं ॥ शतवृषवधसम गोवध तच्छतिते द्विजवधे हि अघजननेति कीर्तनमालायामपि एवमस्ति ॥ ३ ॥ निर्णयसिन्धुधर्मसिन्धावपि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 क्षत्रियवैश्ययोर्मासादियुतजपहोम सहितराजसपूजायामप्यधिकारः स च केवलं काम्यएव न तु नित्यः निष्कामक्षत्रियादेः सात्विक पूजा करणे मोक्षादि फलातिशयः ॥ नित्यनैमित्ययोर्मध्ये नित्यं बलवान् ॥ इति न्यायेपि ॥ राजसपूजायामपि छेदेविकल्पः यशुवधः वधाभावे कूष्माडं दद्यात् इति ॥ इत्यलं ॥ लि. जोशी मयाशंकर फकिरशर्मा. बारडोली. : www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २३. एक गामडीआ पारसीनो अभिप्राय. . मेहस्वान धरमपुरना चीफ मेडिकल ऑफीसर साहेब. मु० धरमपुर. जत विनंतिके गई कालना मुंबई समाचारपत्रमा आपणा तरफथी बलेव दशराना तहेरवार पर पाडाना वध करवा बाबदना विचारो जाणी सामान्य प्रजासाथ हूं संतोष पाम्यो छु. मारी खुशाली जणावर्ता मा पत्र मार्फत महाराजा साहेबने तथा आपणे आखा राज्य तरफथी मुबारकबादी आपुं छु. साहेबजी हुं धरमपुरनो एक खेडुत रु. ४०० चारसोनो सरकारी मेहसुल भरनारो छ. तेथी आपणी प्रजानी तेमज ए रिवाजनी बाबतमा एक अभण माणस शं विचारे छे. ते आप मारो साधारण अनुभव ध्यानमा लेशो. आपणी प्रजा हालमां अनाचारने लीधे भूखे मरती स्थितिमा आवी पडी छे. तो तमारा गई कालना प्रश्नोथी तेभोने पण लाभ थाय एम होवाथी हुँ पोते बे शब्द कहेवाने ललचाऊं छु. ए सवालनी चारवणी हुं घणा वर्ष थयां करतो आव्योछु ने केटलाक वरसनी वातपर (गुजरात मित्र ) ए बाबत विशे में घणां वर्षों सुधी चर्चापत्रो छपावेलां छे. तेना उत्तरमा लघू छु के, पाडानो वध करवातुं कर्तव्य धर्मरिवाज नीतिने अनुसरतुं नथी. तेनुं कारण हालमां लखवानी जरूर मथी. तमो साहेबे हिन्दु विद्वानोनां विचार मागवाथी बद्ध खुल्लं जणासे. ने हूं तो एक जंगली गामडीयो पारसी छ. मारा चर्चापत्र उपरथी मारा महेरबान शेठ मंछाराम घेलामाई मारी सलाहथी ए. बाबतपर दरवर्ष मआर्टीकलो लखता भाव्या हता. ते टीकाओथी केटलाक राजाओए खोटो . रिवाज कहाडी नांख्यो छे, छतां आपणा राज्यमा हजुसुधी महापापी रिवाज चाल रहेवा पाम्यो तेना अंगनां कारण कई गमे एवां मजबुत हशे पण दीलगीरी थवा योग्य छे. हमणा महाराजा साहेब.ए घातकी रिवाज तदन काढी नांखवो जोईए. जुवो साहेब ! हालनी प्रजाने ए रिवाज साधारण जेवो लागे छे. पण आपणी भविष्यनी प्रजा हवे पछी ए रिवाजनी हसती समजीने भापणा विशे उंचा अभिप्रायनी नोंध तो नहींज लेशे. पण आपणे केटला बधा जंगली हता ते विशे पण तेवो विचार करशे. कारण के हालमा भापणे अने मुसलमान कोमने साथै काम लेबु छे. ने ए लोको पोतानी कुरबानी करवाना हक्क विशे कुहरान भने सरीफमाथी धर्मनां फरमानो टांकी पोताना हकमां दाखला बतावे छे. ने तेनी विरुद्धमा तेभोनां पुस्तकोमार्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपणा हिंदु पंडितो तेमना हक्क विरुद्ध विद्वत्ता भरेला दाखला बतावे छे. एवा वखतमां मारा मानीता तथा मानपामेला पारसी विगेरे सर्व कोमना माबाप जेवा राज्यमा ए रिवाज हसती भोगवे ए मुसलमान कोमने आंगळी देखाड्या जेवू छे. एटलुंज नहीं पण गौरक्षक मंडलीना आपणा मेंबरोने आ रिवाज कहाडी नांखवानी बहु होस छे. ए मंडळीमां मोटा मोटा महाराजाओ ने मोटा मोटा शेठीया सामेल छे. ए मंडळीने हालमां सारी रीते मान आपे छे. ते सारी पेठे जाणो छो, के शीगडावालां पशु- रक्षण कर्ता सुधारक शेठ लक्ष्मीदास खीमजी केटलुं बधुं दुःख खमे छे. ने सरकारनी इतराजीमां तेओ पण आव्या छे. तेनुं कारण के मात्र परमेश्वरने पोतानां कर्तव्यनो जवाब आपवा माटेज. तेओ लक्षपति शेठीया होवाथी तेमणे नाम कहाडवानी के पैसों कमाववानी भूख नथी. वली ए. पाडानी संख्या १३ नी दशरापर थवा जाय छे. ने बलेवना जूदा छे हवे विचारो साहेब के दरसाल आटली मोटी संख्या विना कारणे मारी नांखवामां आवे तेथी राज्यनी आबादी केटली बधी ओछी थाय? खेती माटे आपणे त्यां बलद-पाडा-नी बहु खोटी थई छे. पांच दश वर्षपर बलद पाडानी एटली बधी भछत नहोती, हालमां खेडुओने भाडं आपता बलद पाडा मलता नथी. ने हाल वगर हाथे करीने बराबर खेती थई शकती न होवाथी सेंकडो गरीबो भूख वेठे छे. ते आप जाणता हशो. वली आ मोटी संख्याना पाडानो बचाव करवामां आवे तो राज्य प्रजानी आबादी वधशे. कारण के ए पाडानी किम्मतना रुपैया धर्मपुर रईयतपर फालो नाखवामां आवे छे. तेभोना मुखीयो गरीब लोको पासे पाडानी कीमतथी वधु रुपैयानो फालो नांखी बाकीना रुपैयानो पोते उपयोग करे छे. ने एकाद नानुं पाडं लावे छे. मतलब के एमाथी गरीबोर्नु मरण थाय छे. ते दाखलो हुं जाते जाणुं छं. तेथी लख्यो छे.. : अमारा नामदार गरीबनी उपर दया लावनारा महाराणाश्रीनो आ पशुहिंसा बंध करवानो विचार बहुज मान भरेलो छे. आप साहेबनी आखी दनियामां आ रिवाज बंध करवाथी कीर्ति वधशे. ' धरमपुरना लवाणा विगेरे वेपारीओ.ए रिवाजथी बहु कंटाळेल छै; दरेक समजू माणस ए रिवाज़थी विरुद्ध छे. आपणो सातमो प्रश्न बहु वांधा भोलो छे... तैम करवाथी आपणी अर्धी कीर्ति अर्धे रस्ते अटकी पडशे, ने जे नियम राखवामां आवे छे, ते उंधो.वलशे. एटले के सातमां सवालमा वर्तवाथी राजाने के प्रजाने लाभ शु! प्रजाने माथे तो तेनो तेज भार रह्यो. जानवरोपर घातकीपणुं गुजरनारी मंडली जे गुन्हा माटे माजीनेट आगल उभो करीने शीक्षा करावे छे. तेज गुन्हाना करवा जे, आप विचार करो ए नीतिथी उलटुं थशे.. ने तमाम हिन्दु प्रजा राजी थशे नहीं, माटे हुं धणाज मान साथे विनति करुं धुं के सातमा प्रश्न प्रमाणे वर्तवानो विचार कदी पण करशो नहीं. अमारा पारसी. ओनां धर्मपुस्तक, तमारा वेद एकज छे. पारसीधर्म ने हिन्दुधर्म बहारथी जुदा रूपमा देखाव दे छे. पण बारीकाइथी जोशो तो एकज छे. अवस्ता ने वेद भाई-बेन जेवां छे. जे धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया पारसीओ करे छे, तेज धर्म वेद छे. ते माटे विद्वानोए चोकस नक्की कर्यु छ,, ते परथी हुँ खात्री साथ कहुं छु के वेदमा पशुहिंसा करवानें कोई फरमान नथी. ए रिवाज धर्मनीति माणसाई समजथी उलटो छे. असलना राजाओ लढाई करवा जता त्यारे देवने भोग आपवानो रिवाज पाडेलो . जणाय छे. अथवा बीजां घणां कारणो छे. पण ते लखवानी जरुर जोतो नथी. जे काम करवाथी राजा, प्रजा खुशी थाय ते कर्तव्य करनारने आ दुनियामां ने स्वर्गमां सुख मले छे एथी सरस बीजुं कर्तव्य ते शुं होय ? एटली दीलगिरी छे के, मारु खरं नाम आपवानी मारी हिंमत चालती नथी. लि. राज्यनो विश्वासु ने आपणो तथा राज्यनो ताबेदार वेय हाथ जोडी नमुं छु.. लि गरीब गामडीओ पारसी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २४. एवलावासी रजपूत शंकरसिंह छहुसिंहनो अभिप्राय, श्रीमत् सकलगुणालंकृत अखंडितराज्यलक्ष्मी विराजमान महाराजश्री १०८ महाराजा मोहन देवजी संस्थान धर्मपुर. आपके प्रश्नों के उत्तर और सारासार विचार सारांश कहा है सो कृपाकटाक्षसें निष्पक्षपातसे निरीक्षण करीए. प्रश्न १ का उत्तर पशुहिंसा करने का कोई बेदमें वा शास्त्रमें कह्या नही है, जो विद्यापद्धति, लीलापद्धति, श्रीपद्धति, यादी शास्त्रों की साकही है. लेकीन, पशुहिंसा सत्यशास्त्र और उक्त नही है. प्रश्न २ का उत्तर- जो शास्त्रमें हिंसा कही है, जो मतवादी वो शास्त्रके अनुयायी है उनीकुं मान्य है और किसी मान्य नही है. प्रश्न ३ का उत्तर- सर्व प्रकार के शास्त्र, और नीश्वास, बेद, इनसबसे श्रेष्ठशास्त्र, जो श्वासत्पद कृष्ण परमात्मा वाक्य, अर्थात् भगवद्गीता है उसमे हिंसाका निषेध करके स्वधर्म प्रतिपादन किया है. गीताध्याय ३ श्लोक ३५. श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्टितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ अर्थात् जो आपना स्वधर्म है. और उसमें गुणहीन कर्म है, तोभि कल्याणकारक होता है. और परधर्म गुणयुक्त है, तोभी करना नही. भयका कारण है. ये रातीसे हिंसा और अहिंसा प्रतिपादन कला है. और देखो जो भगवानने कशा है की, ईश्वर निमित्त हिंसा घडती है. उसके बास्ते वैश्वदेव करनेका कया है; तो हिंसा करने कैसे कहेंगे. ईश्वर निमित्त पंचसूना दोष की स्मृति कंडनी पेषणी चुल्ली उदकुंभी च मार्जनीः पंच सूना गृहस्थस्य ताभिः स्वर्गं न विंदति ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस रांतीसे स्वधर्म प्रतिपादन करके हिंसाका अत्यन्त निषेध श्रीकृष्णपरमात्मा कहेता है ॥३॥ प्रश्न ४ का उत्तरराजाका खरा कर्तव्य ये है के आपणे शत्रकुं जितणेंका उद्यम करना, और स्वधर्म युक्त कर्म करके सर्वकर्म करके ईश्वरार्पण करना, कर्म फलमें मासक्त न होना, साक्षीभूत रहेके और अद्वैत जानके, सर्वदा, सर्व प्रकार, सर्वकाल, सत्स्वरूपमें स्थीत रहना और प्रजाके व्यवहारका गुणदोष भापणे सीर नहीं मानलेना. सर्यवत् भलिप्त रहना और यथाप्राप्त जो स्वधर्माचार है सो ऐसा कर्तव्य जो करे उसने श्रेष्ठशास्त्र और सर्व शास्त्रोंकी आज्ञा पाली ऐसा सिद्धान्त है. प्रमाण गीता अ. ३ श्लोक १७. तस्मादसतः सततं कार्य कर्म समाचर असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरूषः प्रश्न ५ का उत्तर- ये हिंसा न करनेसे राजाकुं या प्रजाकुं कोई तरेहकी उपाधी उत्पन्न न होवेंगी. क्यों की ये हिंसा बेद उक्त नहीं है करीक तुमने प्रजाके नैमित्तिक व्यवहार के गुण दोष मापने माथे मार ले के भय रखना नहीं. और हिंसा न होनेसे शास्त्रबाह्य आचरण हुवा एसा त्रिकाल होनेका नहीं ये सिद्धान्त है. प्रश्न ६ का उत्तरदशराके निमित्तसें जो हिंसा करते है वो, महामूर्ख है. क्योंकी आश्विन शुद १० मीकुं दशरथका पितामह जो रघुराजा सो ब्राह्मणकी दक्षिणा दिने निमित्य अमरावती जीतनेको नीकला. तो इन्द्रने घबराके कुबेरकुं कहकर आयुध्यामे सुवर्णका वर्षाव कीया तब युद्ध न होके रघुराजा जय लेके आया. उस दिनसे विजयादशमी चली है. ये आपकु संक्षिपका संक्षिप्ते एसा दशरेका. महिमा सुनाया है. और दुसरा कारण विजयादशमीका नहीं है. एसा होकर इस रोज जो हिंसा करते है सो मूर्ख है. और जो फलाचारके निमित्तसे, और ननसके निमित्तसे, और सप्तस्मार्त यज्ञ निमित्यसे जो हिंसा न करे भातके कणका पशु बनावे; और इसका शेष प्रसाद खावे और सच्चे पशुका आलभ न करे अर्थात् हृदयका स्पर्शमात्र. करे तो ऐसी क्रिया करनेसे सब क्रिया बरोबर होती है और बेदकी आज्ञा पाली जाती है... . प्रमाण-ऋग्वेदमें भाश्वलायन शाखाके दुसरे पंचककें भाठमे खंडमे मेध्यअमेष्यकाविकार करके शाल्योदनका यज्ञके उसका पुरोडाश (शेष प्रसाद.).लेना ऐसा करो है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्रुतिः स वा एष पशुरेवालभ्यते यत्पुरोडाशस्तस्य यानि किंशारुणि तानि रोमाणि ये तुषा सा त्वग्ये फलीकरणाः तदः सृग्तत्पिष्टं किन्कसास्तनमांसं यत्किचित्कं सारं तदस्थी स वेषां वा एष पशुनां मेधेन यजते यः पुरोडाशेन यजते तस्मादाहुः पुरोडाशसंत्रं लोक्थमिति ॥ टीका — इसका विचार ऐसाकी पशु संज्ञासे मनुष्यादिक सब प्राणीमात्र है. लेकीन इनके शरीरभाग अमेध्य अर्थात् अपवित्र है. इसके वास्ते यज्ञ निमित्तसे उसपर बाद लिखके मुख्य पुरोडाश ग्रहण करनेकुं मेध्य होना सौ, सोंलमे सपडा करके, श्रुतिमें कहा है की भात कणके उपरके कुसल ओई रोम है. और तुष अर्थात् जो छीलपट- सोई धर्म है. इस तरह से जो मेध्य अर्थात् पवित्र पशु तो भातकण है. करके उस भातका पशु बनाके उसे यज्ञ करना, और यज्ञका शेष भाग खाना, इसतन्हे से बेदमें पशुहिंसा करनेका कह्या नहीं है. मांस खानेका का नहीं है. दुसरा प्रमाण — ऋग्वेदमें आश्वलायन शाखाके दुसरे पचकके आठमें खंडमें मेध्य और अमेध्य इसका विचार करके आरंभनका विचार कहा है. श्रुतिः–पुरुषं वै देवाः पशमालभंत तस्मादाधाम् मेघ उदक्रामत तस्मात् एतेषां नाश्नीयात् इसका विचार ऐसा की, जहां अभेध्यका और यज्ञोका विचार दीखाया है, उस ठिकाने सर्व जीवोंका आलंभन करनेका कया है तो, कोई ही तिवारकुं जो पशुहिंसा करते है. और यज्ञो निमित्त जो हिंसा सो न करके लिखी हुई माफक क्रिया करे तो सब क्रिया बरोबर होती है अन्यथा नही होती ये सिद्धान्त है. ॥ ६ ॥ प्रश्न ७ का उतर. पशुका आलभन करनेसे अर्थात् हृदयका स्पर्शमात्र करनेसे सबक्रीया बरोबर होती : अन्यथा नहीं होती ये सिद्धांत है. प्रश्नके उत्तर खलास हुवें है. सो पुरुष श्रेष्ट है. सारासार विचारका सारांश देखीये - आपके प्रश्न देखकर बहोत मानंद हुवा, क्यों की जो पुरुष वेद और शास्त्रोंकी मर्यादा त्यागनेका भय मानता है, जो दुसरेके दोष आपणे सौर मानके उससे भयदायक होता. प्रजाके व्यवहार या मंत्री आदि लोकोके व्यवहारका गुण-क्षेत्र रहना. सो अर्ध प्रबुद्धपणा है. तो मापने आपके कर्तव्यकर्मण गुणदोषका विचार अर्थात् सम्यके व्यवहार, या आपणे सीस्मान के भगदायक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ करके सत्यस्वरूप जो परम उदारपद, ऐसा जो ब्रह्मपद उसमें स्थित होना. ये प्रबुद्धपणा है ऐसा रहनेसें सर्व कर्मपर मेख मारी जाती है. अर्थात् उस पुरुषके सर्वकर्म सहेज ई. श्वरार्पण होते. ये विष्णु होकर विष्णुकी आराधना करे तब पूजा सफल होती है. और आपण आपका विचार करके ब्रह्मपद जाना नहीं और विष्णुकी पूजा करता है. और फल ईश्वगर्पण करता है. तो उसके कर्मपर मेख नहीं मारे जाती है. उसकुं पितृलोक प्राप्त होता ये वेदकी श्रुति कहती है. कर्मणा पितृलोकः-अर्थात् ईश्वरकुं ना जानके, जो कर्म ईश्वरार्पण करता है. उसकुं पितृलोक प्राप्त होता है. कित्येक काल पीछे फेर गिरते हैं. और जन्मसे जन्मांतर भटके रहते हैं. कभी राजा बनता है. कभी रंक बनता है कबी पशु बनता है. ऐसा घटीयंत्रकी नाई भ्रमता है. और जो आपणे आपका विचार करके, सत्यस्वरूप आत्माकं जानके उस आत्माके अनुसंधानसे कर्म करता है. तो उस पुरुषकु कर्म बंधायमान नहीं होते. उसकु परमपद जो अविनाशी पद है सो प्राप्त होता है. जन्ममरण ऋषियेत्रमें आता नहीं. ये सिद्धान्त है. तो ईश्वरकुं जानना कैसे होता है सो कहते है. की आपना आप विचार करनेसें. ईश्वर जाना जाता है. और न तप करी, न दान करी, न यज्ञ करी, न पुत्र धन करी, न होमादि क्रिया करी, न वर करी, न शाप करी आत्मा जाननेमें आता है. केवल आपना आप विचाररूपी पुरुषार्थ करके आत्मा जाननेमें आवता है. अर्थात् मै देहे हुंकी मनरूप हुंकी बुद्धिरूप हुं कीचित् अहंकार रूप हुं के और कोई हुँ ऐसा विचार करनेसें ये सब असत्य और जड दिखते है. और एक चैतन्यस्वरूप सत्य है ऐसा सिद्धान्त होता है. जब ऐसे सत्यस्वरूप आत्माकुं जानके जो पुरुष उसमे स्थित हुवा है तो उस पुरुषके स्वक्रिया कर्म, स्वधर्म, परधर्म, सत्य, असत्य, आस्ति, नास्ति, शुभ, अशुभ, सुख, दुःख, हर्ष, शोक, भला, बुरा, पाप, पुण्यादि सर्व कर्म मिथ्या असत्य हो जाते है. क्यों की दृश्य, अदृश्य रूपीजगत, है नहीं. तो जगतके कर्म कांह. सत्यस्वरूप मात्माके ठीकाने जग है नहीं. ए असत्य भांतिरूप है तो हे राजा, तुम भी आपने स्वरूपक जानके सब पदार्थ ते नीराग हो जो वस्तुहीन होवे तिसकी भास्था करनी क्या है यह प्रपंच जो दृष्ट आता है.. इसके भासने और न भासनेमें तुमकुं क्या खेद है. : तुम निर्विघ्न होकर भात्मतत्वमें स्थित रहो. ऐसा जानो की जगत है भी और नहीं भी, यह निश्चय करी तुम असंग रहो. यह चल अचल दृष्टि मानेमे तुमकु क्या खेद है. तुम तो ससस्वरूप चेतन तत्वही है. राजा, यह जगत न आदि है, न अनादि है. केवल चेतनका जो चित संचित्त मनरूप है तिसके करेण करीके भासता है. वास्तवमें कछु नहीं यह जगत किसी कतनि कीया नहीं न कीसी अकर्ताने कीया नहीं.. केवल. भाभासरूप है. मामासमें कों भकर्ता पदकुं प्राप्त भया है. ए कृत्रिमरूप है कीसीका कीया तो नहीं.. इस साय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमकु संबन्ध मत होवे. यह भावना हृदयमें धारो जो है कछु नहीं. काहे तेजो कोसी. कर्ता करी हुवा नहीं. आत्मा सर्व इन्द्रियांते अतीत है. जडकी नाई भकर्ता रूप है तिसकु कर्ता कैसे कहीये. यह कहेना नहीं बनता. ये जगत जाल कुर आई है. सो. आभासरूप है. जो अकस्मात उपजाती सवीषे आसक्त होना क्या है. यह असत् भ्रांतिरूप है. इसमे आस्था मढबालक करते हैं. बुद्धिमानतो नहीं करते. खरूप ते कछु जगत उपजा नहीं और नासभी कछु होता नहीं निरंतर दृष्टिमें आता है. भज्ञान करके बारंबार भावना होतीहै. तोभी जगत कछु होवा नहीं, न पाछे होवेगा, न आगल होवेगा. तुम बिचार करके देखो जो अवस्थास्थान कहां जाते है, और कहां जाते है और कहां गये है तो तुम सब इंद्रियोंसे अतीत जो आत्मतत्त्व अकर्ता रूप है, तीसीमें स्थित होना. वास्तव ते जगत कछु बन्या नहीं आभास सत्तामे बन्या भासता है. तुमने आभास सत्तामें नित्यदृष्ट होना. जगत जैसे हुवा है तैसेई है. विपर्यय नहीं होता. जो जो तुम जगतकु असत्य जान्या और आपकुं सत्य जान्या तोभी जगतके पदार्थकी वांछा.. नहीं संभक्ती. और असत्यकुं असत्य-जो, भावना करनीका है. और जो आपकुं और जगतकुं सत्य जानतेहो तोभी वांछना नहीं संभवती: क्यों की, जो असत्य अद्वैत आत्मा है तिसके समीप कच्छु द्वैतवस्तु नहीं है. तुमतो एक अद्वैतहो. वांछा कीसकी करते होतो तुम कीसी पदार्थकी इच्छा अनीच्छा नहीं बनती है. हेयोपादेयेतर रहित केवल स्वस्थ होकर आपने स्थित होना. अर्थात् आप करी आपनी आराधना करो. आप करी आपणी अर्चना करो भाप करी आपकुं देखो. आपसे बिचारसे आपमें स्थित रहो. कैसा है आत्मतत्व जो सबका कर्ता है और सर्वदा अकर्ता है. कदाचित् कछु किया नहीं, उदासीन कोई नाई स्थित है. जैसे दीपक सर्व पदार्थोकू प्रकाश कर्ता है, और कीसीकी इच्छाद्वारा अर्थ सिद्ध करने निमित्त नहीं प्रवर्तता. स्वाभाविकही प्रकाशरूप है तैसे आत्मतत्व सबका कर्ता है. तिसका कर्ता कोई नहीं. जैसे सूर्य सबकी क्रियाकू सिद्ध करता है, और आप किसी क्रियाके आश्रय नहीं, क्यों कि जो आपही प्रकाशरूप है चलता है, और कदाचित् चलायमान नहीं भया. और जो सूर्यका प्रतिबिंब चलता भासता है. सो प्रतिबिंबका चलना . सूर्यमें नहीं, तैसे तुमारा स्वरूप आत्मा सदा अकर्ता अचल है, तिसमें स्थित होना. जे ना कछु जगत भासता है, तिसमे बिचारना परन्तु भावना करके इसमें बंधायमान नहीं होना. अर्थात्-बोलीये, चालीये, खावे, पीवे, दान देईये लईए. युद्ध करना हो तो करीए.' शन्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह जो पांच विषय इंद्रियो कही सो सब अंगिकार करीए. लेकीन इनके जाननेवाला जो. अनुभव आकाश है, तिसमें स्थित होना. तेरा स्वरूप वोही. चिदाकार है, तिसमे स्थित. होना. तेरा हे. राजा, यद्यपि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण करके जगत् सत् भासता है तोमीही नहीं. स्वस्थ चित्त होकर आपकं, विचार, और आपने आपमे स्थित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ हां तब जगत कछु नहीं भासेगा. यह जगतके गुणदोष आपने शिर क्यौं मानता है. सूर्यवत् अलिप्त रहो. हे राजा, अंतरते भाव पदार्थकी आस्था लक्ष्मीकुं त्यागकर, और बाह्य लाकर ते बिचारना अन्तर के अकर्ता पदमें स्थित होना. ये राजादि सर्व मनुष्य वा स्त्रियादिकोंका मुख्य कर्तव्यकर्म है. इस कर्तव्यकर्मसे जो आत्मतत्वमें स्थित हुवा है उसने वेद वा भगवद्गीतादि सत्य शास्त्रोंकी आज्ञा उल्लंघन करी ऐसा नहीं बनता. तिस आत्मामें जो स्थित हुवा है अर्थात् सत्यस्वरूपकं जो पाया है और जो ऐसे स्वरूपकुं नहीं पाया, सो कछु नहीं पाया. हमकुं ज्ञानकी वार्ता करते ज्ञानवानकुं देखी करी लज्जा कछु नही आती है राजा, जो तीस ज्ञानकी वार्ता तेभी मुख्य हैं और यद्यपि महाबाहो होवे तोभी गर्दवत् है. और जो बडे ऐश्वर्य करी संपन्न होवे और आत्मपदते विमुख हैं तिनकुं विष्ठाके कीटसे भी नीच जाण ये सिद्धान्त है. हे राजा हमने ईतनी समज दी है.! सो कछु अर्थकी उपेक्षा करी नहीं दी है कवल तेरेपर कृपा करके दी है सो दत्तचित्तसे अर्थ ग्रहण करना और जो यथार्थ न जाननेमें आव तो सन्तजनकुं शरण जाकर समझ लेनाऔर शांत स्थित उदारसम संयुक्त रहेना. समाप्त. 'उपरके सात प्रश्नों के उत्तर सिद्धान्त ठैरे तो इसका इनाम जो आपके नगर में ब्रह्मनिष्ठ अद्वैतज्ञानीका मठ होवे. उसकुं हमारे तरफसे देना और हमकुं उत्तर भेजना और जो उत्तर सिद्धान्त न ठरे तो नीचे लखेला हुवा सारासार विचारके अर्थका ग्रहण करना हिंसा के वादमे हमारा जो सिद्धान्त है, सो प्रश्नोंके उत्तरे यथार्थ कया है येही सत्य है. अब विश्राम लेता हूं. 2 J हमारा ठेकाणा ब्रह्मांडरूपी खपर है सो अनंत है. लेकीन उसमे जो जंबूद्वीप हैं, उसमें कोई अंशमें मुंबई इलाखा होई, उस इलाखेके अंक अंशमे नाशिक जिल्हा है, उस जिल्हेके अंकअंशमें येवला तालुका है, उस येवलेमें एक तरफकी गल्लीमें रहेते है. नाम गुरु धनानंद इनके शिष्य रजपूत शंकरासँग छट्टुसिंग ऐसा देहका नाम है. शंकरसिंग छट्टुसिंग. १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न. २५. लींबडीवाला शास्त्री कानजी पुरुषोत्तम भट्टनो अभिप्राय. अथ सप्तप्रश्नोत्तराणि तथा 1. तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं पशुस्तां चक्रे वायव्यानारण्यान्माम्याश्वये इत्यादि वेदवाक्यानि ॥ सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पूरोवाच प्रजापतिः ॥ अनेन प्राविष्यध्वमेषवोस्त्विष्टकामधुक् ॥ देवान् भावयतानेन ते देवा भावयंतु वः ॥ परस्परं भावयंतः श्रेयः परमवाप्स्यथेति गीतोक्तेश्च ॥ तथा च मैमांसकानां सत्रं ॥ आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् आनर्थक्यमसदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते सूत्रं १ तत् भूतानां क्रियार्थे न समाम्नाऽयोऽर्थस्य तनमित्तत्वात् सूत्रं २ तत्र तत्र जैमिनिना वेदस्य क्रियापरत्वाभिधानादुपनिषदामपि तदेव युक्तमित्यादि ॥ कालिकापुराणे च ॥ उत्तराभिमुखो भूत्वा बलिं पूर्वमुखं तथेत्यादि ॥ भविष्यपुराणे च ॥ तस्यां ये ह्युपयुज्यंते प्राणिनो महिषादयः ॥ सर्वे ते स्वर्गतिं यान्ति नतां पापं न विद्यते इत्यादि ॥ दशमे उत्तरार्धे च ॥ एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजमित्याद्यंते ॥ तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान् सूकरान्महिषान् रुरून् इत्यादीनि बहुशः संतीति संक्षेपः ॥ १ ॥ २ जे शास्त्रमां कं होय ते शास्त्र आर्यलोकोम्रां सर्वमान्य गणाय छे के केम वा बहुमान्य गणाय छे के केम ? २. पशुहिंसादिकर्मफलस्य सांतत्वसातिशयत्वनिश्चयात् ॥ यदुकं तस्मादित्यादिवाक्यानां चार्यलोके सर्वमान्यं घटते विकल्पानं सहत्वात् प्रवृत्तिधर्मपरत्वाच्च तत्कर्मफलस्य सांतत्वसातिशयत्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयात् ॥ तथा हि ॥ ननु अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजीनः सुकृतं भवति अपाम सोमममृता अभूम यत्र चोक्तं न च शीतं स्यात् न प्रानिनाप्नएतय इत्यादीनि तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते अंतवदेवास्य तद्भ. वति ॥ न ह्यधुवैः प्राप्यते ध्रुवं नास्त्यकृतः कृते न प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा इत्यादीनि च परस्परविरुद्धप्रकारेण वाक्यानि सामान्यतो दृष्टा जातसंशयो विशेष्यो निर्णेतुं मुनीश्वरस्तन्निवृत्तये धर्मजिज्ञासायां प्रवृत्तस्तया सम्यक् निर्णीतकर्मखरूपतदनु. ष्ठानप्रकारतत्फलकश्चेत्ति संक्षेपः क्षीणे पुण्ये मृत्युलोके वसंति ॥ आब्रह्मलोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुनेतिस्मृतेश्च ॥ अहिंसकधर्मज्ञानस्य च निरतिशयानंतफलकत्वनिश्चयात् यद्येवं तर्हि किमेत्येके पशु. हिंसां कुर्वति इत्यत्र भागवतवाक्यं च एकादशे वदंति तेऽन्यो. न्यमुपाश्रिताः स्त्रियो गृहेषु मैथुन्यसुखेषु चाषिशः ॥यजंत्यसृष्टान्नविधानदक्षिणं वृतौ परं प्नति पशूनतद्विदः ॥न स्पृष्टा न संपादिता अन्नविधानदक्षिणा यथा तथा यजति तदा च इत्यै जीविकाथ परं पशून् नंति अतद्विदः हिंसादोषानभिज्ञाः इति श्रीधरटीकायां .. चोक्तं ॥ सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा इत्यादिवाक्यानामेवमाशयः या. मिमां पुष्पितां वाचमित्यादिना श्रेयो गीतोक्तं ज्ञेयःयच्चोक्तं मैमांस. कसूत्रे तस्यायमाशयः एतेन विधिना त्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थेन विधिना स्यु रिति द्वितीयपादोक्तसूत्रसिद्धांतेन तत्वमस्यादिचाक्यानां यजमानस्तुतिद्वारा क्रियापरत्वं न संगच्छेत् अष्टांगमयो योगो यथा ब्रह्म एकं स्वजातीयभेदशून्यं यजमानस्य हि सजातीया बहवो यजमानास्तिष्ठति अद्वितीयं विजातीयभेदशुन्यं यजमानस्य हि विजातीयाः शूद्रादयो बहवस्तिष्ठांत ब्रह्म व्यापकं यजमानो हि परिछिन्नः ब्रह्म विज्ञानं चिन्मानं यजमानो हि चिजहग्रंथहंकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्वेन ज्ञानाज्ञानमात्रः ब्रह्म हि आनंदमानं यजमानो हि दुःखास्मकपशुहननादिकर्मकरणादिहान्यत्रातिदुःखी ब्रह्म हि चक्षुः श्रोत्रादिशून्यं तस्य हि तत् शून्यत्वे अंधबधिरत्वादिदोषोपपत्त्या यज्ञानधिकारात् यजमानत्वमेव हीयते तस्मात् क्षुद्रफलकं हि न कर्म त्यक्त्वा भगवत्तोषणं और्वोक्तं चोच्यते ॥ वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् विष्णुराराध्यते पंथा नान्यत्तोषकारणम् परपनिपरद्रव्यपरहिंसासु यो मतिं न कुरुते पुमान् भूयः तुष्यते तेन केशवः ॥ न ताडयति नो हंति प्राणिनोन्यांश्चदेहिनः यो मनुष्यो मनुष्येंद्र तोष्यते तेन केशव श्चेतिसंक्षेपः यच्चोक्तंस्फुटतया पशु: हननं कालिपुराणे भविष्येच तदादिपुराणस्मृतिनां च राजसता. मसत्वनिरूपणानसर्वमान्यं न बहुमान्यं चति यच्चोक्तं दशमे उत्तरार्धे एकदा रथमारुखैतस्यायमभिप्रायः लोकेव्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्तु जंतोर्न हि तत्र नोदनेत्यादिना तेजीयसां न दोषोस्तीति संक्षेपः ॥ २॥ ३. शास्त्रयोनित्वादिति सिद्धांतसूत्रं शास्त्रलक्षणं छांदोगो तत्र नारदवाक्यं यथा इतिहासपुराणपंचममिति तत्रैव सनत्कुमारवाक्यं इतिहासपुराणपंचममिति ऋग्यजुःसामाथर्ववाक्यं भारतपंचरात्रक मूलरामायणं चैव शास्त्रमित्यभिधीयते यच्चानुकूलमेतस्य तच शास्त्रमतं परं अतोऽन्योग्रंथविस्तारो नैवशास्त्रं कुर्वत्येतत् इत्यादि पाझे वैष्णवं नारदीयं च तथा भागवतं शुभं गारुडं च तथा पाझे वाराहं शुभदर्शने षडेतानि पुराणानि सात्विकनिमित्ताने मे पाद्मोत्तरखंडे ब्रह्मांड बह्मवैवर्त मार्कंडेयं तथैव च भविष्यं च तथा ब्राह्मं राजसानि निबोध मे मात्स्यं कौम्य तथा लिंगं शैवं स्कादं तथैव च आमेयं च षडेतानि तामसानि निबोध मे ॥ तथैवस्मृतयः प्रोक्ता ऋषिभिस्त्रिगुणान्विताः सात्विका राजसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ चैव तामसा शुभदर्शने वाशिष्टं चैव हारीतं व्यासं पारशरं तथा भारद्वाजं काश्यपं च सात्विका मोक्षदाः शुभाः वामनं याज्ञवल्क्यं च आत्रेयं दाक्ष्यमेव च कात्यायनं वैभवश्च राजसाः स्वर्गदाः शुभाः गौतमं बार्हस्पत्यं च सांवत च यमस्मृतं सांख्यं चोशनसं देवी तामसा निरयप्रदाः सात्विका मोक्षदाः प्रोक्ता राजसाः स्वर्गदाः शुभाः तथैव तामसा देवी निरयस्याप्तिहेतवः तथाह मनुः या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः ताः सर्वो निःफलः प्रेत्य तमोनिष्टाहि ताः स्मृताः शांतिपर्वणि मोक्षधर्मे मरीचिरंगिरात्रिश्च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः वशिष्ट इति सप्तैते मनसा निर्मिता हि ते एते वेदविदो मुख्या लोकाचार्याः प्रकीर्त्तिताः प्रवृर्त्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये प्रकल्पितः सनकसनत्सुजातश्च सनकश्च सनंदनः सनत्कुमारः कपिलः सप्तमश्च सनातनः सप्तैते मानसाः प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणः सुताः स्वयमागतविज्ञाना निवृत्तिधर्ममास्थिताः एते योगविदो मुख्या लोकाचार्याः प्रकीर्त्तिताः तथैव विष्णुपुराणे - पीति संक्षेपः ॥ प्रजाश्चतेवमेव तदुक्तं गीतायां महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा मद्भावा मानसा जाता येषां लोके इमाः प्रजाः प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च द्विविधं कर्म वैदिकं आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेमृतं ॥ प्रवृत्तमेव निर्दिशति हि स्तं इव मयं काम्य मग्निहोत्राद्यशांतिददर्शश्च पौर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुसुताः रातदिष्टं प्रवृत्ताख्यं त प्रहुत मेव च ॥ पूर्त्तं सुरालय रामकुपाजीव्यादिलक्षणं द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च धर्मोरात्रिरपक्षयः अयनं दक्षिणं सोमो दर्शऔषधि वीरुधः अन्नं रेत इति त्वेश पितृयान् पुनर्भवः कत्येनानुपूर्वे भूत्वेह जायते ॥ यां वै साधनसंपत्तीति निवृत्तिकर्मपुनर्भवः ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ४ राजाओने अवश्य कर्तव्यज छे अने ते न करवामां आवे तो बलवान् शास्त्रनी आज्ञा तोडी गणाय एवं कोई स्पष्टप्रमाण छे के केम ? प्रथमस्कंधे ॥ त्यक्त्वा स्वधर्मचरणांबुज हरेर्भजं न पकोऽथपते: ततो यदि यत्र क या भद्रमभूदमुष्य किं को वाथ आप्तो भजतां स्वधर्मतः निगमकल्पतरोर्गलितं फलमित्युक्तयास्य च फलत्वेनातिश्रेष्ठतमत्वात् निवृत्तिधर्मपरत्वाच्च मोक्षस्य तु भक्तधैकसाध्यत्वमिति श्रुतेश्च ॥ महाभारतस्यापि तथात्वं भागवते भारतव्यपदेशेन ह्यान्नायार्थश्च दर्शित इति वचनात्तु शांतिपर्वोक्तं प्रदृश्यते भीष्म उ० श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवा वधार्यतां आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां न समाचरेत् अहिंसा सत्यमस्त्येयं त्यागो मैथुनवर्जनं पंचखेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः अहिंसालक्षणो धर्मः अधर्मः प्राणिनां वधः तस्माद्धर्मार्थिर्भिलोंके कर्तव्या प्राणिनां दया लोभमायाभिभृतानां नराणां प्राणिनां नतां येषां प्राणिवधे धर्मो विपरीता भवंति ते यदि प्राणिवधे धर्मः स्वर्गश्च खलु जायते संसारमंचकानां तु कुतः स्वर्गोभिधास्यते ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे नास्ति यज्ञस्तु हिंसकः ततोऽहिंसात्मकः कार्यः सदा यज्ञो युष्टिधिर इंद्रियाणि पशून् कृत्वा वेदीं कृत्वा तपोमयीं अहिंसा माहुतिं कृत्वा आत्मयज्ञं यजाम्यहं ध्यानाग्नौजीव कुंडस्थे दममारुतदीपिते असत्कर्मसमित्क्षेपे अग्निहोत्रं कुरूत्तमं यूपं कृत्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमं यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरकं केन गम्यते ॥ ४ ॥ ५ ते हिंसानि प्रवृत्ति जो न करवामां आवे तो तेथी राजाने प्रजाने के राजना अंगे कोई पण प्रकारनो आपत्तियोग आवे अथवा अकार्य कर्यु गणाय एवं कोई बलवान शास्त्रमां कछे के कम ? तथा चोक्तं ॥ वशिष्टपंचरात्र कुंडमालमववाणवंशकथाप्रसंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्तु संसारकूपे हि पतंतं प्राणधारिणं धारयत्यतिवेगेन तस्माद्धर्मों निगद्यते आत्मवत् सर्वभूतानि परद्रव्याणि लोष्टवत् मातृवत् परदारांश्च यः पश्यति स धर्मभाक् धर्मः कल्पद्रुमो लोके धर्मश्चिंतामणिर्नृणां धर्मः कामदुघाधेनुः धर्मचिंतितवस्तुदः धर्मपाथेयवान् पांथो न यतो भयसीदति संसारे भूः प्रमाणोयं सर्वत्रापि सुखी भवेत् ॥ ग्रहभूतपिशाचाश्च शाकिन्यः पन्नगादयः पराभवंति यं दृष्ट्वा धर्मसंसक्तमानसं सुपुत्रं चक्रवर्तित्वं बलं बलवतां तथा तेजः कांतिरक्षयायुष्यं धर्मात्सर्वं समाप्यते अनेकभूमिसंपन्नाः प्रसादाः सुमनोहराः धनधान्यादिकं चापि लभ्यते धर्मसेवनात् कामिन्यः सुंदराकाराः सत्पुत्राः सत्सहोदराः गजाश्वस्यंदना. श्चव धर्मान्नाक्ति लभंति हि सागरस्यांतरस्थं यत् यच्च देशातरे स्थितं तत्तद्धर्मप्रभावेण निजगेहे समाप्यते तेनधर्मप्रभावेण राज. राजस्य धीमते श्रीपतेस्तनयो राजन् पृथियत् इति श्रुत्वा इत्यादि अधर्मफलं चतुर्थस्कंधे प्राचीनबर्हिषं नृपं प्रति नारदवाक्यं भो भो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे संज्ञापितान् जीव संघानिघृणेन सहस्रशः एते त्वां संप्रतीक्षते स्मरंतो वैशसं तव संपरेतमयःकृटैञ्छिदंत्युत्थित मन्यवः इत्यादि ॥ शांतिपर्वणि च न ग्राह्याणि न देयानि षट्वस्तूनि च पंडितः अग्निं मधुं विषं शस्त्रं मयं मांसं तथैव च घातकश्चानुमंता च भक्षकः क्रयविक्रयी लिप्यते प्राणिघातेन पंचाप्यते युधिष्ठिर ॥ विष्णुपुराणे यो ददाति सहस्राणि गवामश्व शतानिच अभयं सर्वसत्वेभ्यस्तदानमिति चोच्यते कपिलानां सहस्राणि यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर दत्तमिष्टं तपस्तप्तं तीर्थसेवा तथा श्रुतं सर्वेप्यभयदानस्य कला नाहँति षोडशी हेमधेनुधरां दानं दातारः सुलभा भुवि दुर्लभाः पुरुषाः प्रदानस्य क्षय एव न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यते॥ महाभारते च ॥ यो दद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुंधरा एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ यादृशी वेदना तीचा स्वशरीरेयुधिष्ठिर तादृशी सर्वभूतानामात्मनः शुभ मिच्छतां ॥ आहंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ॥ अहिंसा परमं ज्ञानमहिंसापरमं पदं आहिंसा परमं दानं अहिंसा परमोदमः अहिंसा परमो यज्ञस्तथा हिंसा परं पदं ॥५॥ ते पशुवधने बदले बीजं कोई हिंसारहित क्रिया कराने पर्व आराधवामां आवे तो तेथी काई बलवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो गणाय के केम ? तेवी हिंसारहित कई कई क्रिया बराबर गणाय. ॥ ५ ॥ एकादशे वदंति तेन्योन्यमुपाश्रितस्त्रियो ग्रहेषु मैथुनसुखेषु चाशिवः ॥ यजत्यसृष्टान्नावधानदक्षिणं वृत्यै परं नंति पशूनतद्विदः॥ न सृष्टा न संपादिता अन्नविधानदक्षिणा यथा तथा यति तदा च वृत्यै जीविकाथ परं पशून् नंति अतद्विदः हिंसा. दोषानभिज्ञा इति श्रीधरटीकायामुक्तं ॥ तथा च श्रुतयः॥ एषह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्यउन्नीय लोकेभ्य नीयंते एव एवासाधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीयते इत्यादि ॥६॥७॥ तृतीयप्रश्ने सर्वशास्त्रेषूपनिषत् शिरोभागस्तद्वाक्यप्रमाणतमं यथा ॥ तत्र तत्र जैमिनिना वेदस्य क्रियापरत्वाभिधानादुपनिषदामपि तदेव युक्तं तत्रतत्र यत्रयत्र वेदस्य क्रियापरत्वं न दृश्येत तत्रतत्र उपनिषदामपि तत्वमस्यादिवाक्यानामपि तदेवक्रियापरत्वमेव ॥ एतेन विधिना त्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थे विधिना स्युरिति द्वितीयपादोक्तसूत्रसिद्धांतेन उपनिषदा तत्वमस्यादिवाक्यानानराक्काः नृणं वयं कर्मकराः कथं स्याम इत्याकांक्षाराहिसकेन प्रकारेण व्याख्यातमिति अपेक्षायां प्रकारमाह कृत्वथप्रति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ पादनेन कृत्वर्थो यज्ञांगरूपो यः कर्त्ता यजमानस्तस्य यत्प्रतिपादनं इश्वराभेदेन स्तुत्या वर्णनं तेन प्रकारेण यथादित्योयूपः प्रस्तरोयं यजमान इत्यादौ यूपः स्तुत्या पशुनियोजनादि क्रियायामन्वेति तथा उपनिषद्वाक्यैरीश्वरभेदेन स्तुत्या पशुनिक्रियायामन्वेति यजमानोपि कर्त्तृत्वेन क्रियामन्वेति इति भावः ॥ एतेन विधिना वेकवाक्यत्वादित्यादिपूर्वोक्त सूत्रस्यायमथः तत्र शब्दः पूर्वपक्षव्यावृत्यर्थः ॥ आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् आनर्थक्यं असदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यत इति भैमांसकानां सूत्रे यदुक्तं आनर्थक्यं अतदर्थानां तन्न विधिना स्वस्य प्रयोजनवदर्थपर्यवसायित्वं गमयितामह ॥ एकवाक्यत्वात् वाक्यानि स्त्युत्यर्थेन स्तुत्यंगत्वेन विधीनां स्यः विधिशेषाणि भवतीतिसंक्षेपः ॥ तत्वमस्यादिवाक्यानां यजमा नस्तुतिद्वारा क्रियापरत्वं न संगच्छेत् ॥ एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म 'विज्ञानमानंद ब्रह्म अचक्षुरश्रोत्रमित्येतद्विपरीतात्मप्रतिपादनात् ॥ अस्यायमथः ॥ एकमेवेत्यादिश्रुत्यैवं तद्विपरीतात्मप्रतिपादनात् ॥ तस्मात् त्वदभिमतात् यजमानः सकाशात् विपरीतस्य श्रुद्धात्मनप्रतिपादनाद्धेतोः अवैपरीत्यमेव स्फुटीकरोति ब्रह्म एकं सजातीय भेदशून्यं यजमानस्य हि सजातीया बहवो यजमानास्तिष्ठति अद्वितीयं विजातीय भेदशून्यं यजमानस्य हि विजातीयाः शूद्रादयो बहवस्तिष्ठति ब्रह्म व्यापकमित्यादिप्रथमपत्रे उक्तमितिसंक्षेपः ॥ १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ली. भट्ट कानजी पुरुषोत्तम मुकाम लींबडी द. पोतानां. www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २७. जीवहिंसा हिंदुशास्त्र आधारे करवा विषे मनाईना जबाब. १ एवां अथवा कोई कार्य करवामां जीवहिंसा सर्वे हिंदु तथा मुसलमानोना धर्मशास्त्रोमां पण बिलकुल मनाई करेली छे. २ हुं तथा सर्वे आर्य हिंदुशास्त्र माननारा आर्यजन विद्वानोना सर्वमान्य तथा बहु. मान्य शास्त्रमा जीवहिंसा पशुवध करवा सखत मनाई प्राचीन महाने पूर्वे करेली छे. ३ चालतां क्रियाणशास्त्र तथा चालतां हिंदुपुराणो एवां सर्वे शास्त्रोमा मुख्यत्वपणुं धरावनारा चारे वेदमंत्रमा तथा श्रुतिमां तथा जैन शास्त्रोमा सर्वोपरि सिद्धांत श्री भगवतीजि तथा पनवणाजि तथा आचारंगजि तथा उपांशंगदसाजि विगेरे जैनधर्म बत्रीश सिद्धांत कहेल छे. तेमां सर्वथा प्रकारे एकेंद्रिथी पंचेंद्रि जीवोनी हिंसा तथा वध करवानी मना करी छे ते तमाम सिद्धांतना सर्व अध्ययन तथा अध्यायमा प्राणातिपात एटले प्राणिना घात करवा सर्वथा निषेध छे. उपरनां सर्वे शास्त्रो बलवान् गणाय छे. तथा प्रमाणिक पण छे तेम आर्यजनो सर्वे माने छे. ४. नीतिधर्म पालनार तथा प्रतापी राजाओ पुरेपुरा न्यायवंत राजा तथापि अकृत्य कर्म प्राणियोने वध करे तो बलवान् शास्त्र, वेद, श्रुति, स्मृति, सूत्रनी. आज्ञा तोडी तेम गणाय तेनुं स्पष्ट कारण आ प्रमाणे नीचेना श्लोकथी जाणवू. .. सूत्र ३ भेलांछे आहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जन पंचखेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः॥१॥ यो दद्यात् कांचनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुंधरा एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं कदाचन ॥२॥ मनमल छांडे सोइ स्नान जीव रक्षे सोई दान॥ ज्ञानतत्व अभ्यंतरधरना निर्मल एहीज ध्याना ॥३॥ ___ अर्थ नीचेप्रमाणे छे. हिंसा करवी नहीं. सत्य तजवू नहीं असत्य आचरवू नहीं, परिग्रहनो त्याग करवो एटल उपर मायानो त्याग, परस्त्री तथा नीतिविरुद्ध भैथुननो त्याग करवो. १ कंचन कहेतां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनानो मेरुपर्वत जेवडो ढगलो करी दररोज अखंड दान आपे तोपण एक जीवने हणता मुकाववो ते अभयदान कहेवाय, तो ते उपरना सोनानुं दान अभयदाननी लेश पण गणत्रीमां आवतुं नथी. २ मननो मेल मूके तेनेज स्नान कर कहेवाय. प्राणिजीवोनी रक्षा करवी तेनेज दान कहेवू, ज्ञानरूपी तत्व अंतरआत्मामां धारण करवु, निर्मळ एटले चोख्यु एनेज धर्म तथा ध्यान कहेवाय छे ३॥ ५-तेवी हिंसानी जो प्रवृत्ति करवामां न आवे तो राजाने के प्रजाने अथवा तो राजाने अंगे कांईपण पराभव न थतां घणोज लाभ तथा राजनी वृद्धि तथा लक्ष्मीनी वृद्धि पुत्र पौत्रादि वृद्धि तथा ते राजा घणाज प्रतापी तथा नीतिवंत गणायाछे. तेम राजा अंगे आरोग्यता रहे आफत न आवे एवं बलवान् शास्त्रोमां कहेलुं छे तेविषे आधार कृष्ण यजुर्वेदना तैत्तिरियारण्यकना दशमा प्रपाठकना ६३ मां अनुवाकमां कहयुं छे के. सूत्र ४ धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्टं प्रजानुपसर्पति धर्मेण पापमनुर्विदंति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितं तस्माद्धर्म परमं वदन्ति ॥ १५॥ धर्म सर्व प्राणिने आश्रय छे. जगतमां धर्माधर्म जाणवा माटे लोको धर्मिष्ठनी पासे जायछे धर्मे करी पापने टालेछे ने धर्ममां सर्व रहयुं छे. माटे धर्मने श्रेष्ट कहेलछे पण ए धर्म शुं छे. ते सर्व मनुष्ये जाणवु अवश्य छे. माटे आपस्तंब धर्मसूत्रना प्रथमप्रश्नना सातमा पटलमा कहयुं छे के सूत्र ५ यं त्वार्याः क्रियमाणं प्रशसन्ति स धर्मों यं गहते सोऽधर्मः ॥१६॥ अर्थ जे आचरणने आर्यपुरुषो वखाणे ते धर्म अने जेने निंदे ते अधर्म कहेवाय छ. ने वली वैशेषिक दर्शनना पेहेला अध्यायना प्रथम आन्हिकमां कहेल छै के. सूत्र ६ यतोभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥ १७ ॥ अर्थ-जेनाथी उदय तथा कल्याण थाय तेज धर्म. ६-आपणा आर्य हिंदुशास्त्रने विषे जे पर्वो आवेलां छे ते सर्वे घणाज उत्तम दिवस छे माटे ते पर्व आराधवाने दिवसे त्रण शब्द कह्या छे ते आराधवां (दया, दान अने दमन ) ए त्रण शब्द मूळधर्म शास्त्रथी उत्पन्न थया छे. तेनो अर्थ एवो छ के, सर्व जीवो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर दया करवी, सुपात्र जनोने दान आप, तथा अभयदानने कोईपण प्राणीने सहाय थई रक्षा करवी तथा कराववी. ते तथा आ देहनी इंद्रियो कुकर्म करवा उन्मत थई देहने डोला. वती होय तो इंद्रियवडे मन दृढ रहेवा सारं तपश्चर्या करी देहदमन करवु तेथी देहनी शुद्धि थाय छे. तथा मुसलमान एटले यवन लोकोना मूळ प्रमाणिक शास्त्रोमां पण धर्म विषे मूळ शब्द त्रण छे. (खेर, महेर ने बंदगी) एवा त्रण शब्द छ तो तेनो पण भावार्थ एवो छे के खेर एटले अन्न विगेरे सुपात्रे दान देवू. महेर एटले सर्वे प्राणियो उपर दया राखी महेर करवी रक्षा करवी. बंदगी ते खुदानी भक्ति करवी एवो अर्थ छे पण प्राणियोनी हिंसा करवी ए अशक्य छे. ७. कोई पण निमित्त दिवसे प्राणिने वध करवा लावेला अबोध मनुज होय ते पासेथी लई कोई पण निर्भय स्थळे ते पशु कोई पण अंगने खंडन कर्या सिवाय मुकवू ने ते पूर्ण सुखवृत्तिमां रहे तेवा ठेकाणे मुकवाथी सर्वोत्तम क्रिया संपूर्ण थाय छे एम धर्मशास्त्रोमां मानेलं छे. सूत्र ७ विषय हिंसा न करवी ते माटे विशेष आधारो ॥ अथ ॥ पातंजलयोगदर्शनश्राद्धनपादश्रुतिसूत्रं ३० मुं॥ आहिंसा सत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ३० अहिंसा १ सत्य २ अस्तेय ३ ब्रह्मचर्य ४ अपरिग्रह ५ एते यमा:हिंसा एटले कोईपण प्राणिनो द्रोह करवो तथा वध करवो ताडतर्जना करवी ते द्रोह तेथी विमुक्त एटले निषेध ते अहिंसा तेना ५ प्रकार छे. तो तेमां पण प्रथम शब्दनो अर्थ प्राणिनो द्रोह तथा वध करवं ते महाज मोटुं प्रायश्चित्त कर्तुं छे. ते हिंसानां ८१ भेद कह्यांछे. (हिंसा) कृत, कारित, अनुमोदित ए त्रण भेद छे ते शब्दनो अर्थ, करवू करावq करतांने भलं जाणवू एवां त्रण भेद थयां. लोभ १ क्रोधे २ मोहे ३ थी करवू करावq करताने भलु जाणवू एम एक एकना त्रण त्रण भेद एटले थायछे. वळी तेमां पण ३ त्रण भेद कहेलछे ते मृदु, मध्य, अतिमांत. अर्थ मदु एटले थोडु मध्य ते साधारण अतिमात ते घणुंज दरएकना ३ भेद मळी २७ थायछे. तेना पण ३ त्रण भेद ते मृदु मृदु मृदु मध्य मृदु तीव्र अर्थ थोडामा थोडं थोडामां मध्यभाग थोडाथी घणुं एटले २७ ने त्रण त्रण करतां ८१ भेद थायछे. तेमांनो सूक्ष्म भेदरूप पण जो कोई प्राणिनी हिंसा तथा वध तथा कांईपण दुःखरूप कार्य पोताना साधनने अर्थे करीये तो महर्धिक प्रायश्चित बंधाय छे. माटे सर्वथा प्रकारे आर्य जनोनां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ मूळ प्रमाणिक शास्त्र जोवाथी प्रणातिपात एटले प्राणिनो वध करवो एरूपी हिंसानो सर्व कार्यो मां निषेध करेलछे. सूत्र ८ याज्ञवल्क्य स्मृतिना आचाराध्यायमां कह्युं छे के. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिद्रियनिग्रहः ॥ दानं दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ १२८ ॥ अर्थः — अहिंसा, सत्य, चोरी न करवी, पवित्रता, इंद्रियनिग्रह, परोपकार, दया, मननुं दमन तथा क्षमा ए नव सर्वे धर्मनां साधन छे: - १२८ वळी श्री महाभारतांतर्गत शांतिपर्वना १६२ मा अध्यायमां कहयुं छे के : - सूत्र ९ अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा अनुग्रहश्च दानंच सतां धर्मः सनातनः १२९ अर्थ:- मन, वाणि तथा कर्मे करी प्राणिमात्रनो द्रोह न करवो दया राखवी तथा उपकार करवो ए सत्पुरुषोनो सनातन धर्म छे. ॥ १२९ ॥ तेमज वळी पण श्रीमदभागवतना प्रथम स्कंधमां कहयुं छे के जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ १३० ॥ अर्थ:- जीव जीवनुं जीवन छे. ॥ १३० ॥ चाणाक्य नीतिमां कहयुं छे केः सूत्र १० आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ॥ एको विवेको ह्यधिको मनुष्ये विवेकहीनाः पशुभिः समानाः ॥ १३१ ॥ अर्थ – आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन ए चारे पशु तथा मनुष्योमां सामान्य छे.. पण एक विवेकज मनुष्यमां अधिक छे माटे कृत्य अकृत्य न जाणे ते अविवेक तेवा अविवेकी मनुष्यो होय ते पशुसमान जाणवां. १३१ तो तेथी विवेक विचारी प्राणियोना शरीरनो घात कर्या वगर अन्नादि वनस्पतिथी मनुष्ये पोताना जीवनो निर्वाह करवो योग्य छे विषे विष्णुशर्मा क छे के— ए सूत्र ११ योति यस्य यदा मांसमुभयो ः पश्यतान्तरम् ॥ एकस्य क्षणिका प्रीतिरन्यः प्राणैर्विमुच्यते ॥ १३२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थ-ज्यारे जे कोई जेनुं मांस खाय छे त्यारे ते बंनेनो अंतर जुवो, तो खानारने पेट भरवा जेटलो क्षणिक हर्ष थाय छे ने बीजाना प्राण जाय छे. ॥ १३२ ॥ सूत्र १२ मर्तव्यमिति यदुःखं पुरुषस्य प्रजायते शक्यस्तेनानुमानेन परोऽपि परिरक्षितुम् ॥ १३३ ॥ अर्थ-पुरुषने मरणसंबंधी जे दुःख थाय छे ते अनुमानथी अन्य प्राणी तारण करवा योग्य छे ॥ १३३ ॥ आ उपरना बे श्लोक विष्णुशर्मा ए कहेल छे-वळी पण श्रीमहाभारतांतर्गत अनुशासन पर्वना ११५ तथा ११६ मां कहेल छे के सूत्र १३ प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा आत्मौपम्येन मंतव्यं बुद्धिः कृतात्मभिः ॥ १३५ ॥ अर्थ-जेम पोतानां प्राण पोताने प्रिय छे तेम प्राणियोने पण हशे एम पोतानी उपमा वडे बुद्धिमान् ज्ञानिओए विचार, ॥ १३५ ॥ सूत्र १४ स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ॥ नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नरः ॥ १३६ ॥ अर्थ-जे पारका मांसे करी पोताना मांसने वधारवा इच्छे छे तेनाथी वधारे कोई अधम नथी ने जे अतिक्रर छे. ॥ १३६ ॥ सूत्र १५ न हि प्राणात्प्रियतरं लोके किंचन विद्यते . तस्माद्दयां नरः कुर्याद्यथात्मनि तथा परे ॥ १३७ ।। अर्थ--जगतमा प्राणथी अधिक प्रिय बीजं कई नथी माटे मनुष्ये पोतानी पेठे बीजानी उपर दया राखवी. ॥ १३७ ॥ - सूत्र १६ प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् ॥ १३८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--प्राणदानथी बीजं श्रेष्ठ दान थयु नथी तेम थशे पण नहीं. केमके लोकमां आत्माथी अधिक प्रिय बीजु काई नथी ए निश्चय छे. ॥ १३८ ॥ सूत्र १७ अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत ॥ मृत्युः काले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथुः ॥ १३९ ।। अर्थ-प्राणिमात्रने मरण अप्रिय छ कारण मरण समय तैमने तत्काल कंप थाय छे. उपरना १३५ थी ते १३९ सुधीना श्लोक महाभारतमां छे. हवेथी चाणाक्यनीति लघुचाणाकयना लघु अध्यायनो श्लोक ५ मो. त्र १८ धर्मस्य मूलं राजानस्तपोमूलं ऋषीश्वराः॥ ऋषीशा यत्र पूज्यंते तत्र धर्मः सनातनः ॥ ५॥ अर्थ-धर्म- मूळ बीज राजाओ छ, तप, मूळ ऋषिओ छे; जहां ऋषीश्वरनी साधुनी : नता होय ते स्थळ सनातन धर्मनुं स्थान समजवं. सूत्र १९ राज्ञे धर्मिणि धर्मिष्टाः पापे पापा समे समाः॥ लोकास्तदनुवर्त्तते यथा राजा तथा प्रजाः॥६॥ अर्थ-राजा धर्मी होय त्यां प्रजा पण धर्मिष्ट होय. राजा पापिष्ट होय छे ते प्रजा पण पापी थवानो संभव थाय छे तुल्योतुल्य होय छे. सेवक राजाना वर्तणुक प्रमाणेज चाले एवो सदैव नियम छे जेवो राजा तेवीज प्रजा थाय छे. ॥६॥ हवे श्री महाभारतना अनुशासन पर्वना ११६ मा अध्यायमां कह्यु छ के सूत्र २० अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः ॥ आहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः॥ १४४ ॥ अर्थ-अहिंसा ए उत्तमधर्म, उत्तमदान, उत्तमदम, तथा उत्तमतप छ. ॥ १४ ॥ बळी विष्णुशर्माए की छे के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सूत्र २१ मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ॥ आत्मवत् सवभूतेषु वीक्षं धर्मबुद्धयः ॥ १४६ ॥ अर्थ — धर्मबुद्धिवाला मनुष्य पारकी स्त्रीने मस्तासमान, पारका कांचनने माटीसमान अने सर्व प्राणिने पोताना समान जुए छे. ॥ १४६ ॥ वळी शुक्रनीतिना त्रीजा अध्यायमां कह्युं छे के— सूत्र २२ एणो गजः पतंगश्च भृंगो मीनस्तु पंचमः ॥ शब्दस्पर्शरूपगंधरसैरेते हताः खलु ॥ १४८ ॥ ' अर्थ — हरण, हस्ति, पतंग, भ्रमर तथा पांचमुं मत्स्य ए क्रमथी शब्द, स्पर्श, रूप, गंध अने रसें करी नाश पामे छे. एक इंद्रिनो विषय बेकाववाथी तो मनुष्य पांचे इंद्रि मोकली राखी विसर्प बेकावेतो तथा हिंसारूप अकार्य करे तो नाश पामी तेने नर्क प्राप्त केम न थाय. ते ज्ञानी पुरुषोए विचारखुं जरूर छे ॥ १४८ ॥ वळी विष्णु शर्माए कह्युं छे के— सूत्र २३ न गोप्रदानं न महीप्रदानं न वान्नदानं हि तथा प्रधानम् ॥ यथा वदंतीह बुधाः प्रधानं सर्वप्रदानैरभयप्रदानम् ॥ १५६ ॥ अर्थ—आ लोकमां पंडितो सर्व दानमां जे रीते अभयदानने मुख्य गणे छे ते रीते गोदान, भूमिदान तथा अन्नदानने मुख्य गणता नथी. ते कयुं दानके प्राणिनी रक्षा करवी करावी तथा प्राणिने भय थकी मुकाववो एज अभयदान कहेवाय छे. ॥ १५६ ॥ आ प्रमाणे मुद्रित करी हवे निचे भाषणरूप भाषण करी व्याख्या करवामां आवे छे. तथा ए कथा के नारद ऋषि तथा वसुराज तथा पर्वत ब्राह्मणनी आपवामां आवे छे ते कया. ग्रंथनी छे, एम हालमां घणो श्रम लेतां सिद्ध थयुं नथी पण अनुमानथी तथा एकथी बे ब्राह्मणोने पुछ्वाथी एम मानवामां आव्युं छे के ते कथा महाभारत धर्मशास्त्र अथवा रामकथानी छे पण ते तो अमारी जैन रामायणमां आवेली छे. पाने ३८ थी ते ४८ पाना सुधीमां तेनो संक्षेप मात्र जाणवारूप योग्य लई अत्रे दाखला कहेल छे. ते पण आपने ध्यानमां लीधा जेवुं मालम पडशे एम जणाय छे. तेथी नीचेप्रमाणे दाखल करेली छे तथा हवे आपेलां भाषांतर जवाबमां आवेला सूत्र श्लोक २४ ते एक १ सत्रने अंते जे आवेल आंक छे तेटलामो ते ग्रंथमां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतावेलां प्रकरण तथा अध्यायनो श्लोक छ एम जाणवू तेनी हकीकत विस्तारी कहुं छु. ते ध्यान आपी सौथी प्रथमना जे भेळा ३ श्लोक छे ते प्रस्ताविक छे, एम हालमां मानवामां आवेलुं छे, पण ते कोईक ग्रंथना होवाज जोइए एम अनुमान पण थाय छे. कारण के तेनो पण अर्थ आ आपेला शास्त्रोना भावार्थमां मळे छे, जेथी हवे ते ३ प्रस्ताविक छे एम मान्यु छे. तथा त्यारपछीना आंक ४-५-६ एम ७ श्लोक प्रमाणसहस्रीनां आचार प्रकरणना पाना ५ मांथी लीधेला छे. त्यार पछी आंक -७ मानो श्लोक १ पातंजल योगदर्शन साधन पाद श्रुति सूत्र ३० मुं छे ते ते ग्रंथमा जोवाथी खात्री थशे. तथा आंक ७ मां बीजानो तथा आंक ८-९-१०-११-१२-१३-१४-१५-१६-१७-१८-१९-२०-२१-२२२ एम १५ प्रमाणसहस्त्री नामना ग्रंथना आचार प्रकरणना पाना ३२ थी ४१ ध लीधेलां छे. ते ग्रंथ जोवाथी तथा आपेला जुदा ग्रंथोना प्रमाण छे तेने सूत्रोना मथाला उपर ते प्रमाणे ते ग्रंथो जोवाथी खात्री थशे. तथा आंक १८ थी १९ ना श्लोक बे लघु चाणाक्य राजनीतिना बीजा अध्यायना छे ते ग्रंथ जोवाथी खात्री थशे. सर्वे ऐक्य म सूत्र २४ थाय छे. तेमां सात सात आंकना बे सूत्र छे. तेम प्रथमनां ३ आंक तो सूत्र पातंजल योग दर्शन साधन पाद ग्रंथनु सूत्र ३० मुंछे, त्यार पछी बीजा ७ माना आंकनुं सूत्र छ, तेम प्रमाण सहस्रीनुं छे; हवे प्रमाण सहस्री ए एक छापेलो ग्रंथ छे जेमां बधा प्रकरणमा आवेला एक हजार प्रमाण छे. ते ग्रंथ रची छपावनार यजुवंशी ठाकरशी सुत प्रागजीन नामथी मुंबई निर्णयसागर छापखानामां छाप्यो छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० २८. रामानुजसिद्धांतमताचार्यनो अभिप्राय. __श्रीमते रामानुजाय नमः उपवीतनम् ऊर्ध्वपुंडूवतम् त्रिजगत्पूर्णफलं त्रिदंडहस्तं शरणागतसार्थवाहमीडे शिखया शेखरीणाम् पतिम् यतीनाम् यस्मिन् जगात जगदुपादानकारणभूतम् श्रियः पतिम् परं परमपुरुषा उपासते ॥ तदुपासनयैवापवर्गश्रेणीमहमाहमित्याब्रह्मस्तम् भो आं. तर्गता अधिरो हन्ति ब्रह्मादयः ॥ कारणायंतरा कार्याद्यनुपपत्तेरितिन्यायस्य प्रत्यक्षानुभवत्वेनैककायत्वावच्छिन्नं प्रत्यनेकपदार्थस्वावच्छिन्नत्वस्य प्राग्भावापत्तियोगित्वात् न केषामपि तत्र प्रवृत्तिः। प्रवृतेऽपि फलाभाव इति चेन्न प्रकृतविषयेकार्यकारणभा. वस्यासंगतत्वेऽपि प्रयोज्याप्रयोजनभावेनोपपत्तै ॥ सर्वप्रसमंजसं तथा च मोक्षप्रयोजकीभूतमपंक्तिप्रपत्यादीनामधिकारिणः एतत् प्रमाणं बोधयामि॥१॥ श्रीरंगलक्ष्मणमुनीश्वरकृतप्रबंधगूढार्थ बोधनकृतसमभूधदात्मा ॥ श्रीरंगराजगुरुवर्यकृपात्तबोधम् गोपालवर्यगुरुशेखरमाश्रयध्वम् ॥२॥ त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ॥ मात्स्यं कौम तथा लिंगं शैवं स्कांदं तथैव च ॥ आग्नेयं च षडेतानि तामसानि निबोध मे ॥ ब्रह्मांडं ब्रह्मवैवर्त मार्कंडेयं तथैव च ॥ भविष्यं वामनं ब्राह्मं राजसानि निबोध मे ॥ वैष्णवं नारदीयं च तथा भागवतं शुभम् ॥ गारुडं च तथा पानं वाराहे शुभदर्शने ॥ सात्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै॥ सात्विका मोक्षदाः प्रोक्ता राजसाः खर्गदाः शुभाः ॥ तथैव तामसा देवि निरयप्राप्तिहेतवः ॥ तथैव ऋषिभिः प्रोक्ताः स्वतप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ स्वगुणान्विताः ॥ सात्विका राजसाश्चैव तामसाः शुभदर्शने ॥ वासिष्ठं चैव हारीतं व्यतिं पाराशरं तथा ॥ भारद्वाजं काश्यपं च सात्विका मोक्षदाः शुभाः ॥ मानवं याज्ञवल्क्यं च आग्नेयं दाक्षमेव च ॥ कात्यायनं वैष्णवं च राजसाः स्वर्गदाः शुभाः ॥ गौतमं बार्हस्पत्यं च सांवर्त्तं च यमः स्मृतम् ॥ सांख्यं चोशनसं देवि तामसा निरयप्रदाः अर्थः- मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण, लिंगपुराण, शिवपुराण, स्कंदपुराण अने अग्निपुराण, आ छ पुराणो तमोगुणी छे. ब्रह्मांड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कडेय, भविष्य, ब्रह्म अने वामन पुराण ए रजोगुणी छे. अने विष्णु, नारद, भागवत, गरुड, पद्म अने वराह ए छ पुराणो सात्विक छे; वसिष्ट, हरित, व्यास, पराशर, भरद्वाज अने काश्यप ए छ स्मृतियो सत्वगुणी छे. मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, दक्ष, कात्यायन अने विष्णुस्मृति ए रजोगुणी छे. अने गौतम, बृहस्पति, संवर्त, यम, शंख अने उशनसस्मृति ए छ तमोगुणी छे. सत्वगुणी मोक्ष आपेछे. रजोगुणी स्वर्ग आपेछे. अने तमोगुणी नर्क आपेछे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र ए चार वर्णोना नाम छे. जे देवींना उपासको भक्तो छे तैमना बे प्रकार छे (बे प्रकारना मत छे ) ! एक वाममार्गी अने बीजो दक्षणायन मार्गी छे. ए पैकी वाम मार्गीओना प्रमाण कहुंछु. निर्णय सिंधुमां बलि ॥ तस्यां ये ह्युपयुज्यंते प्राणिनो महिषादयः ॥ सर्वे ते स्वर्गतिं यांति नतां पापं न विद्यते ॥ १ ॥ अर्थ: - निर्णयसिंधु नामना धर्मशास्त्रविषे बलिदान प्रकरणमां कहयुं छे. अर्थनवरात्रीना उपवास करनार जे वाममार्गी तेओए तेनो पुराणहुती दशराने दहाडे महिष पाडो अथवा अज बोकडो तेनुं पूजन करवुं. अने पूजन करीने देवीनुं आवाहन करवुं. आवाहन करतां पाडादिकनुं शरीर कांपे तो खड्ने करीने तेने मारवो न कांपे तो तेने ख अडकाडीने छोडी मूकवो.. यावन्नञ्च्चालयेद्यत्रं पशुस्तावन्न हन्यते ॥ न तथा बलिदानेन पुष्पधूपविलेपनैः ॥ यथा संतुष्यते मेषेर्महिषीविंध्यवासिनी ॥ एवं च विंध्यवासिन्या नवरात्रोपवासतः ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat : : www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ए मरनार पुरुषने दोष लागतो नथी ने पशु स्वर्गमा जायछे. जेम पशुवध करीने विंध्यवासिनी देवी प्रसन्न थायछे तेम धूपदीप विगेरे बीजां नेवेद्य करीने प्रसन्न थती नथी. ए वचन वाममार्गीओने लागु छे ए गौण वचन छे. मिताक्षरना टीकानेविषे मनुस्मृतिनुं वचन छे ते नीचे प्रमाणे:मिताक्षरा-यज्ञाथ ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ॥ भृत्यानां चैव वृत्यर्थमगस्त्यो ह्याचरेत्पुरोति मनुस्मरणात् ॥ ३ ॥ अर्थः-यज्ञना अर्थे त्रणे वर्णने पण पशुनो वध करवो. शामाटे के पोताना घरनाविष शूद्र चाकर होय तेने माटे आ त्रणे वर्णे परंतु मांस भक्षण न करवं. एनुं पण तात्पर्य ए छे के ते पाप छे. माटे पशुने खड्ग अडकाडीने छोडी देवं. मिताक्षरानेविषे बीजं वचन याज्ञवल्क्य महाराजे कहयु छे ते नीचे:वसेत्स नरके घोरे दिनानि पशुरोमाभिः॥ संमित्तापि दुराचारो यो हत्यविधिना पशून् ॥ ४ ॥ अर्थः-अविधि पूर्वक जे कोई पशुनी हिंसा करेछे ते मनुष्यने जेटलां रेवाडा पशुने विषे रहेलांछे तेटलां वर्ष हजार पर्यंत नर्क भोगवीने एटलां वर्ष हजार पर्यंत पशुनो अवतार थायछे. मिताक्षरानी टीकाने विषे मनुस्मृतिमां स्वयंभुमनु- वाक्य छे मनु ॥ हंतीत्यष्टविधो विघातको गृह्यते अनुमंता विशसिता निहंता क्रयविक्रयी संस्कर्ता चोपहर्ता च खादक श्चेति घातकाः ॥५॥ अर्थ-घातक शब्दनो अर्थ आठ प्रकारनो छे अनुमंता कहेतां जे अनुमान करीने मायु ते जेमके भूरू कोळु तेने कोई पण पशु कल्पिने मार, तथा कांई पण अडदनुं पुतळु अगर मनुष्य कल्पीने मारवं. ते अनुमंता, विशसिता एटले विश्वास करीने कोई देवीने त्यां मोकल्युं अथवा पोताने घरेज कंई पशु होय ते कोई खाटकी इत्यादिकने वेचीने आप, ते पण वेचनार पुरुष मारनार बरोबर छे. अनिहंता जे जाते मारे छे ते, क्रयविक्रय जे केवल पोते पशुलावीने खाटकीओने आपे छे ते पुरुष पण मारनार बरोवर छे. अने बीजो जे पशु छ एम देवीने अर्पण करवाने वास्ते मबीर गुलाल विगेरे करीने पूजन (पशु) नुं करे छे, ते पण पूजन करनार भने पूजन करावनार ए पण मारनार बरोबर छे. अने उपकर्ता कहेतां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ के जे पशुने लावीने मारनारना हाथमां आपे छे, भने खड्ग मंत्रीने मारनारना हाथमां आपे छे अने खड्गनो स्पर्श करीने जे छोडी दे छे ए पण मारनार बरोबर छे. अने ए पशुना मांसने जे खाय छे ए पण मारनार छे, एवा आठ प्रकारना हंता पुरुष जाणवा. हवे दाक्षायन मार्गना देविभक्त छे तेमनां प्रमाण. अथ बलिदानं ब्राह्मणेन माषादिमिश्रान्नेन कूष्मांडेन वा कार्यं ॥ यद्वा ॥ घृतमयं यवपिष्टादिमयं वा सिंहव्याघ्रन रमेषादिकं ॥ ६ ॥ धर्मसिंधुना बीजा परिच्छेदमां कौस्तुभ ग्रंथना वाक्यो छे. कृत्वा खड्गेन घातयेत् ॥ ब्राह्मणेन पशुमांसमद्यादि. बलिदानात् ब्राह्मण्यतो भ्रष्टता ॥ सकामेन क्षत्रियादिना सिंहव्याघ्रनरमहिषछाग सूकर मृगपक्षिमत्स्यनकुलगोधादिप्राणिखगात्ररुधिरादिमयो बलिर्देयः ॥ ७ ॥ अर्थ -- ब्राह्मणे देवीने बलिदान आपवुं होय तो तेने भूरूं कोळु अथवा अडद बाफीने अथवा अडदनुं पूतळु करीने अथवा घी खांड मेळवीने लोटनो अथवा दूधपाकनो महिष, अज बनावीने तेनुं बालदान आपकुं. परंतु जीवता पशुनो ब्राह्मणे वध न करवो, करे तो थायछे. क्षत्रीयोमां जे सकामीक क्षत्री छे अने वाममार्गमा रहेलाछे एने जीवता पशुनुं बलीदान आपवुं- ए वाक्य वैष्णव धर्ममां नथी. ते जे देवनो भक्त छे तेने लागुछे. परंतु मुख्यवाक्य तो क्षत्रीए कान नाक छेदीने पशुने छोडी देवो ए छे. हिंसा करबी ए नथी. ए वाक्यो देवीना उपासकना छे ने ते मुख्यवाक्य नथी. वेदना जे मुख्यवाक्य एटले तात्पर्य छे ते कहुंलुं. ए उपरना जे वाक्यो छे ते शामाटे कहेलां छ के मांसभक्षण करवाने जीवनी जे आसक्ति छे ते छोडाववाने वास्ते छे. तनो दृष्टांत जेम कोई पोताना दीकराने करमीनो व्याधि थयो होय तो बाप पोताना दीकरानो रोग माडवा सारु एम करेछे के हे पुत्र ए लीमडाना रसनो वाडको तुं पीइश तो हुं तने खांडेलो लड्डु आपीश. त्यारे दीकरो रसनो वाडको पी जायछे तो कहेछे के लाडु तो हाउ लेई गयो ने लाडु दीकराने आपतो नथी. एज प्रमाणे वेद कहेछे के पशुनुं बलिदान आपनारने पाप नथी ए वचन खांडना लाडु जेवुं छे. अने पशहिंसा न करवी ए लीमडाना रस जेवुं छे. एटले गुणकारी छे माटे पशुहिंसा न करवी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावस्क्य स्मृतिमां तेना राजनीतिना प्रकरण विषे जे प्रमाणे छे ते प्रमाणे कहुंछुअस्कन्नमव्यथं चैव प्रायश्चितै रदूषितं । अग्नेः सकाशाद्विप्राग्नौ हुतं भ्रष्टमिहोच्यते ॥८॥ अर्थ:-ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्य जे यज्ञ करेछे अने ए यज्ञ थकी जे फळ थायछे तेनां लक्षण कहुं छं. अग्निने विषे ए प्रकारनी आहुती आपी होय तो श्रेष्ठफळ थाय छे. केवो हुत पदार्थ जोईए आस्कंदनाम रुधिरनी धारारहित होय अने कोई जीवनी हिंसा थई न होय अने प्रायश्चित करीने अदुषित होय तो ए फळ प्राप्त थायछे. एटले ए श्लोकनो तात्पर्य ए छे के दुधपाक, तल, जव, घी एनी आहुती आपी होय तो फळ थायछे. पशुनी आहुती आपी होय तो फळ थतुं नथी. याज्ञवल्क्यस्मृतिनुं वाक्य छे ते नीचे प्रमाणे. सर्वान्कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा ॥ गृहेपि निवसन्विप्रो मुनिमांसविवर्जनात् ॥ ९ ॥ अर्थः-विप्रनाम ब्राह्मण, मुनिनाम क्षत्रि, वैश्य, शूद्र ए चार वर्णोमां जे कोई मांस पशुहिंसा करीने अथवा बलिदान आपीने ( मांस ) खातो नथी. अथवा बलिदान आपतो नथी एवा पुरुष जे कामना मनमा धारेछे ते बधी सिद्ध थायछे. तेने कोई विघ्न थतुं नथी अने हयमेधयज्ञ करवानुं फळ थायछे. एटले ए ठेकाणे वेदनो कहेंवानो तात्पर्य ए छे के पशुहिंसा रहित यज्ञ करवो. याज्ञवल्क्यनी टीकानेविषे स्वयंभु महाराजनुं वाक्यछे. मनु ॥ यद्ध्यायते यत्कुरुते रति बधाति यत्र च तदवाप्नोत्यविन्धेन यो हिनस्ति न किंचन ॥ १०॥ अर्थ जे कोईपण प्रकारनी हिंसा करतो नथी अथवा कोईपण प्रकारचं बलिदान आपतो नथी. तो ते पुरुषो मनमा जे ध्यान करे छे, अने कांई कर्म करे छे, अने जे कर्मने विषे रति प्रीति करे छे नाम यज्ञाज्ञिक करे छे तो ते पुरूषने यज्ञ विनरहित थाय छे. एटले ए ठेकाणे वेदनो कहेवानो तात्पर्य ए छे के यज्ञ करवो तो ते यज्ञने विषे पशुहिंसा न करवी. दुधपाक आपवो एटले कोईपण प्रकारनी बलिदानमां हिंसा न करवी ए तात्पर्य छे... बीजुंपण मनुमहाराजनुं वाक्य मिताक्षरा मध्येनुं छे ते नीचेप्रमाणेवर्षे वर्षेश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः॥ मांसानि च न खादेच्छास्तयोः पुण्यफलं सममिति मनुस्मरणात् ॥११॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-एटले जे कोई पुरुषोए एवो नियम को होय छ के ज्यां पर्यंत जीवत्रु त्यो सूधी दरवर्षे अश्वमेध यज्ञ करवो परंतु मांस न खावू एटले अश्वनुं बलिदान न आप दूधपाकनुं बलिदान आपवं. जे पुरुषो अश्वन बलिदान आपे छ तेना करतां जे नथी आपता तेने अधिक फळ थाय छे. एटले, ए ठेकाणे वेदनुं तात्पर्य शुं छे के जे अश्वमेध यज्ञ करवो ते अश्वने खड्गस्पर्श करीने छोडी देवो दूधपाक विगेरेनुं बळिदान आपg. श्रीमद् भागवत एकादश स्कंधने विषे कहेलुं छे केलोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्तु जंतोन हि तत्र चोदना ॥ व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहरासु निवृत्तिरिष्टा ॥ १२॥ अर्थ--एटले वेद शुं कहे छ लोकोने विरे विवाहने विशेष सुख छ आमिष जेमां भक्षण करे छे अने मद्यसेवा अने मदिरा पीवी एज प्रकारना जे जीवो छे ते थकी नित्यमुक्त कहेता जे भगवानना पार्षद अने जिवनमुक्त कहेता जे जडभरत, सुकदेवळ शनकादिक ते अने मुमुक्षु कहेतां जगत्मां रहीने जे इच्छा करे के मारो मोक्ष थाय ए मुमुक्षु जाणवो. अधमनां लक्षण इंद्रिसुख भोगवईं हिंसा करवी अने भूतप्रेतनी उपासना करवी. पामरना लक्षण जे मनुष्यदेह परमात्माए केवल भजन स्मरण करवा आपेल ते परमात्माने छोडीने भैरव ने चंडीनी उपासना करे छे. अने नाना प्रकारनां बलिदान आपे छे ए पाछला बेउ जीवो अधम अने पामर तेमने ए प्रकारे वेद कहे छे. शुं कहे छ ? लग्न कर्या वगर जे विषयसुख भोगवशे तेने दोष लागशे. यज्ञ कर्या वगर जे पशुने मारशे तेने पण दोष लागशे. अने सुत्रामणियज्ञ वगर जे मदिरा पशेि तेने दोष लागशे. ए शामाटे वेद कहे छे के अधम पामर जीवोनी विषयसुख थकी, मांसभक्षण थकी, मदिरापान थकी नित्यनी रुचि छोडववा सारू कयुं छे. श्रीमद् भागवतना एकादश स्कंधमां बीजं वाक्य छे तेधनं च धमैकफलं यतोज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशांति ग्रहेषु युंजंति फलो वरस्य मृत्युं न पश्यति दुरतवीर्यम्॥१३॥ अर्थ-धनरक्षा करवानुं सुफळ ए छे के धर्म करवो. विज्ञानसह वर्तमान ज्ञामर्नु फळ शुं छे के सर्व जीववध थकी निवृत्ति पामो. भगवत भक्ती करो ए करता नथी केवळ संसारने विषे शरीरने लगाडे छे. ते दुरंत वीर्यरूपी एवा संवत्सररूपी काळरूपी परमात्मा जे भक्षणकरी रह्या छे तेने जोता नथी. एवा भावार्थ- वेदनुं वाक्य शुकदेव महाराजा परीक्षिति प्रत्ये अने श्रीकृष्ण उद्धवजी प्रत्ये अने नवयोगेश्वर नीमीराजा प्रत्ये कहेलं. छे.. के ए जीव समान बीजो अधम नथी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमद् भागवत विषे श्लोक छे ते नीचे प्रमाणे· यत् घ्राणभक्षोविहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा एवं व्यवायःप्रजया न रत्याएवं विशुद्धं न विदुः स्वधर्म ॥१४॥ ___अर्थ-शुकदेवजी परीक्षिति राजा प्रत्ये कहे छे के हे राजन् वेदनो कहेवानो तात्पर्य एवो छ के ते सुत्रामणि यज्ञने विषे मदिराने सुंधी लेवी, पण पीवी नहीं. यज्ञने विषे पशुने खड्न अडकाडीने छोडी देवं मार नहीं. 'ऋतु समयना अंतने विषे भार्यानो (स्त्री) अंगिकार करको. बीजा दिवसे जाय तो ईश्वर स्मरण कर एटले संतान थया पछी ईश्वर भजन करवू. एवो उत्तम मनुष्यदेह पामीने शुद्ध धर्मवेद कहे छे तेने छोडीने विपरीत चाले छे ए वास्ते चरकमां जावु पडे छे. अने जे मनुष्य जीवनी हिंसा करे छे ते पशु अवतारने पामे छे. श्रीमद् भागवतनो श्लोक नीचे प्रमाणेद्विषतः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरं ॥ मृतके सानुबंधेऽस्निन्बद्धस्नेहाः पतंत्यधः ॥ १५ ॥ अथ-शुकदेव परीक्षिति राजा प्रत्ये कहे छे के सर्व जीवोने विषे साक्षात् परमात्मा वास करीन रह्या छे. जड पदार्थों जे देवी भैरवादिकने बळिदान आपे छे ने मांसाहार करीने पोते रहे छे ते ज्यारे मरे छे त्यारे तेना कुटुंब सहित नरकमां पडे छे. श्रीमद्भागवतमां कहयुं छे. . येत्वनेवं विदोऽसंतः स्तब्धाः सदभिमानिनः पशून्द्रुह्यंति विस्रब्धाः प्रेत्य खादंति ते च तान् अर्थः-ए प्रकारना जे पामर जीवो छे. अने वेदना अभिप्राय ने जाणता नथी. ते आ प्रमाणे भाषण करेछे. आपणे स्वर्गमां जई यज्ञकरीने त्यां अप्सरा जोडे विहार करीशं. तेओ आ प्रमाणे परस्पर वातो करेछे. अने पशुहिंसाना यज्ञो करेछे. ज्यारे ते यज्ञ करनारा मरेछे त्यारे तेने पशुरूप धारण करवू पडे छे. ते वखते ते पशु जमराज पुरीने विशे तेनुं वेर ले छे. श्रीमद् भागवतना चतुर्थस्कन्धमां पचीसमा अध्यायमा प्राचीनबर्हिराजा प्रत्ये नारद मुनीनुं वाक्य छे. भा भो प्रजापते राजन् पशून्पश्य त्वयाऽध्वरे ॥ संज्ञापितान् जीवसंघान् निघृणेन सहस्रशः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ नारद मुनि कछे के हे राजन् राज्य कर्ता जे जे देवने पशुनुं बलिदान आपे छे अने यज्ञ करतां जे जे पशुयज्ञ करेछे दयारहित जे हजारो जीवनी हिंसा करे छे. इत्यादि. हात स्मृति विशे हारीत ऋषि अमरीश राजा प्रत्ये कहे छे. तस्मात्तु वैष्णवो भूत्वा वैदिकं वृत्तिमाश्रितः कुवत भगवन्प्रात्यै कुर्यादादिकर्म यत् अर्थ :- हे अमरीश राजा तमो वैष्णदीक्षा धारण करीने वैदिकवृत्ति तेने करो अने पशुहिंसा रहित यज्ञ करो. भगवाननी प्रीतिने माटे एवं करशो तो तमारा कुटुम्ब सहवर्तमान तमो मोक्ष पामशो. वृद्ध पाराशरीने विशे पाराशर ऋषि प्रत्ये कहेछे. वृद्धान्साधून् द्विजान्मौलान्यानालं मानयेन्नृपः पीडां करोति चाभीष्टा राजा क्षिप्रं क्षयं व्रजेत् अर्थः- पाराशर कहेछे. जे राजा थईने वृद्धने महा पुरुषोने ने ब्राह्मणने मानता नथी. ने आमिष ( मांस ) ने नाटे पशुने पीडा करछे. एटले पशुने मारीने जे बलिदान आपेछे ए राजा तत्काल नाश पामे छे. एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरतो वैशसं तव संपरेतमयः कूटैश्विछंदत्युत्थितमन्यवः ॥ अर्थः–नारद कहेछे. हे राजन् दृष्टिए करीने तुं उपर आकाश मार्गमां जो. तारी वाट पशु जुए छे के क्यारे ए राजा मृत्युने पामे तो अमारुं वेर लोढाना शींगडा वडे करीने लईए. ए प्रकारे नारद मुनिए ब्रहस्पति राजा प्रती कहेलुं छे. हे राजा, कोई यज्ञ जीवहिंसा रहित करवो एथी बीजुं श्रेष्ठ शुं छे. के ते पोताना हृदयरूपी कुंड निर्माण करीने भक्ति ज्ञानरूपी अग्नि प्रगट करीने काम क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सररूपी ज्वलन अने इंद्रियरूपी जे घोडा अने वृत्तिरूपी जे अज ( बोकडा ) ए सर्वनी आहुति हृदयरूपी कुंडमां साक्षात् चतुर्भुजरूपी जे भगवान रह्याछे तेने ए इंद्रियरूपी पशु बलिदान आप एटले सर्व इंद्रिओ परमात्मान विशे लगाडो ए यज्ञ समान बीजो यज्ञ नथी. तेम इंद्रियरूपी पशुना बलिदान शिवाय बीजुं बलिदान नथी. अने बुद्धिरूपी बीजी कोई देवी नथी. ए देवीने प्रसन्न करीने 'घरमात्मा नेविशे लगाडवी ए समान बीजुं देवीनुं पूजन पण नथी. १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् भागवत चतुर्थ स्कन्धनेविशे कहयुं छे. यथा तरोर्मूलभिषेचनेन तृप्यति तत्स्कंधभुजोपशाखाः । प्राणोपहाराच्च यथेंद्रियाणां तथैव सर्वाहणमच्युतेज्या अर्थ:-हे ब्रहस्पति राजन् जेम झाडना मूलीनेविशे पाणी रेडे तो बधी शाखा तृप्त थायछे. जेम प्राण वायुने आहार आपे बद्धीईद्रिओ तृप्त थायछे. एज प्रमाणे भगवानपूजन (भक्ति) करे तो सर्व देवना पूजननुं फल मळेछे. बीजा देवने पूजवा- कांई प्रयोजन नथी. आ वचनथी जे ठेकाणे भैरवने बलिदान आपेले. ते ठकाणे राजाने शुं करवू के पोताना शेहेर बहार दशराने दिवसे जईने चारे दिशाओ छे ते दिशाओना जे सोल भगवानना पार्श्वद छ तेसहित भगवाननुं मंत्रवाहन करीने, अने भगवानना जे आयुध शंख-चक्र-गदापद्म-ए नामवडे करी आवाहन करवं. अने षोडशोपचारे करीने पूजन करवं. अने नाना प्रकारनो दूधपाक तथा घहुनो पदार्थ विगेरेनुं भगवानना पार्श्वदने नैवेद्य धरावी वैष्णव ब्राह्मण होय तेने भोजन करावबुं. ने भोजन करव्यापठी सुदर्शन महाराजाना मंत्रवडे करीने शेहेरनी चारे दिशाओमां हवन होम करवो. न पछी गाजते वाजते शमी (खीजडी ) नुं पूजन करवू, समडी पूजनने ठेकाणे ते देवनिमित्त पूजनकरवं. अने गाजते वाजते शेहेरमां आवq. अने दान दक्षिणा पण आपवी. आ रीते जे राजा दरवर्षे करेछे, तेना नगरने विशे कोई प्रजा दुःख भोगवती नथी. आ विधि सत्ययुगने अमरीष राजाए करलो छे. ते विधिना प्रतापे दुर्वासाऋषिए अग्नि प्रगट करीने अमरीषने बाळवामाटे मोकलीने वैश्रवी अग्निनाम सुदर्शन महाराज कोटी सूर्यनो प्रकाश करीने, सांभली अग्निने वारीने दुर्वासा मुनिने महान् दुःख दीधुं छे. ए वार्ता श्रीमद् भागवतना नवमस्कन्धने विशे प्रसिद्ध छे. शिवाय अनेक शास्त्र, स्मृति, पुराण, इतिहास अने वेदना मत छे के जीवहिंसा न करवी. ए वचन समान बीजु कोई वचन बलवान् नथी. उपर पद्मपुराणना श्लोक लख्यां छे. तंत्र सहवर्तमान वेदोक्त प्रयोग छे. हारीतस्मृति अने वेदनां पुरुषसूक्त, विष्णुसूक्त, लक्ष्मीसूक्त वगैरेनां प्रमाणो छे. महादेवे पार्वती प्रत्ये कयुं छे के हे पार्वती अढारपुराण अढारस्मृति एमना मध्ये छ सात्विक, छ राजासि, छ तामसी परन्तु जे सात्विक श्रुतिस्मृतिना वचनो छे ते बलवान् छे. विगेरेनो जे ते बाबतनो निर्णय करवो होय तो वडोदराना पूर्वभागनी भणी दशगाउ उपर चाणोलथी नर्मदा जतां सात गाउ वेगले डभोई करीने शहेर छे. तेमां वडोदरा तरफनी दिशामा बदरी नारायणनं मंदीर छे. तेने विषे विशिष्टाद्वैतमत स्थापन करनार श्री गोपालाचार्य गुरू चेतनाचार्य महाराज छे तेमने पूछेथी खुलासो मलशे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभमस्तु आ जे श्लोकनी व्याख्या गुजरातीमां लखी छे. तेनुं कारण ए छे के राजाने संस्कृत ज्ञान न होवाथी लख्यु छे. अने जो कोई विद्वानने संस्कृत व्याख्यानी इच्छा होय तो संस्कृतमां लखी मोकलीशु. जे कोईनी एवी इच्छा होय के जीवहिंसा नहीं करवी ए बाबत पुरावो शुं तो तेनो प्रतिउत्तर आपवाने वास्ते रामानुजसिद्धान्तमतना आचार्य छे ते सिद्धान्त करी आपवा समर्थ छे. अने कलीने विशे गवालंभ ( यज्ञ ) करवानु निषेध छे. अने दीयर थकी दिकरा उत्पन्न करवानुं तथा सन्यास निषेध छे. ए विगेरेना बीजा हारीतस्मृतिने विशे तेमज मिताक्षराने विशे मनुस्मतिने विशे निषेध छे. ए वचन आप्यां नथी. तेनुं कारण के ग्रन्थमां प्रसिद्ध छे. समाप्त यादृशं पुस्तकं द्रष्टं तादृशं लिखितं मया यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयतां ॥ आ कापीनी अस्सलनी कापी महाराजा मोहनदेवजी नारणदेवजी स्वस्थान धर्मपुरना तरफथी मंगावी उतारो करल छे. उतारो करनार भट बद्रीनाथ केशवराम गाम वारणना. भट्ट केशवरामात्मजबद्रिनाथ शर्मणः सम्मतिरत्र. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं. २९. अमदाबादवाळा शास्त्री रामचंद्र दीनानाथ भट्टनो अभिप्राय. मेहेरबान साहेब प्राणजीवनभाई जगजीवन महेता. मु. धर्मपुर. . अमदाबादथी शास्त्री रामचंद्र दीनानाथना आशीर्वाद वांचशो विशेष आपनी तरफथी आवेला सात प्रश्नोना उत्तरो नीचेप्रमाणे-- १–अहिंसापरमोधर्मः—न हिंस्यात् सर्वभूतानि-अहिंसा ए उत्कृष्ट धर्म छे कोई जीव प्राणिमात्रनी हिंसा न करवी. इत्यादिक अनेक स्मृतिनां प्रमाण छे. तथा स्कंदपुराण, वायुपुराण, अग्निपुराण, मार्कडेयपुराण इत्यादिक पुराणोमां पण हिंसानो निषेध करवामां घणा मोटा इतिहास वर्णन कर्या छे, तथा मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मति, गर्गस्मृति, वशिष्टस्मृतिमां पण हिंसानो निषेध कर्यो छे. नवरात्र वृत्तमां तथा तेने एटले दशराने दिवस तो सर्वथा हिंसा न करवी, एम शास्त्रनो सिद्धांत छे. ते दिवस तो पशु- पूजन करी देवताने समक्ष ते पशुने अभयदान आपq एम कर्तुं छे. तेने बदले दुष्ट अधर्मी असुर लोकोए पशुनी हिंसा करवानु प्रवर्ताव्युं छे ते केवल अंधपरंपरा छे. विचार विनाना लोको गाडीरीआ प्रवाह प्रमाणे वर्ते छे, पण एटलो विचार नथी करता के दशरानुं पर्व श्रीरामचन्द्रजीथी आरंभीने प्रवत्यु छ एम दशरा माहात्म्यमां कां छे. त्यां घी, साकर, दुधपाक, पक्वान्न विगेरेनुं नैवेद्य करी ब्रह्मा भोजन करावी घणां दान आप्यां छे अने घणां जीवोने अभयदान आप्युं छे. सारा वृत्तने धारण करनार एवा सनत समत विगेरे ऋषियो प्रत्ये धर्मराजाए आशंक करी पुंछयुं त्यारे तेमणे आ प्रकारे कयुं छे तेमांना केटलाक श्लोक. कुलाचारोपपन्नं नो नवरात्रव्रतं मुने ॥ तत्र क्वचित्क्वचिद्धिंसा सुरापानं च दृश्यते ॥ १॥ दत्र युक्तं तब्रूहि त्वं हि धर्मप्रवर्तकः॥ इत्युक्तस्तेन भगवानिदं प्रोवाच युक्तकृत् ॥ २ ॥ राजसा स्तामसा देवाः सुरामांसाशनं नृप ॥ कुर्वते सात्विका नैव देवा देव्यश्च कर्हिचित् ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ पार्वती सात्विकी देवी तथा लक्ष्मीश्च वेदसूः ॥ धर्मज्ञानतपोयोगवैराग्यादिगुणोर्जिता ॥४॥ अस्माकं सा तु पूज्यास्ति शंकरप्राणवल्लभा ॥ नवरात्रव्रतं तस्या भवतीत्यवगम्यतां ॥५॥ सात्विकानां तु देवानां देवीनां च नराधिप । व्रता दिविधातव्यं नेतरेषां तु कर्हिचित् ॥ ६॥ पार्वत्या न प्रिया हिंसा सह पत्या तयोरतिः ॥ तदपि च तां ये तु कुर्युस्ते ह्यसुरा नराः ॥७॥ अतः तस्या व्रते राजन् मद्यमांसार्चनान्वितः॥ कुलाचारः क्वचित्स्याचेत्तं त्वधर्ममवेहि च ॥ ८॥ जीवहिंसा भवेद्यत्र सुरापानं च यत्र वा ।। व्याभचारो भवेद्यत्र त्याज्यो धर्मः स दूरतः॥ ९॥ धर्माभासो ह्यधर्मों सौ तत्त्यागे नास्ति पातकम् ॥ त्यागोस्य परमो धर्मः सच्छास्त्रप्रमितोऽनघ ॥ १०॥ क्षुद्रा देवाश्च देव्यश्च येस्युर्मद्यामिषप्रियाः॥ तामसानां न कर्त्तव्यं व्रतं तेषां च पूजनम् ॥ ११॥ अधर्मस्य प्रिया हिंसा ह्यहिंसा धर्मवल्लभा ॥ अधार्मिकाणामायेष्टा धार्मिकाणां तथेतरा ॥ १२॥ तामसेभ्यो न भेतव्यं भक्तैः कृष्णस्य कर्हिचित्॥ यतः स कालमायादेरप्यस्त्येव नियामकः ॥ १३ ॥ २-उत्तरः-जे शास्त्रमा हिंसा करवानुं कह्यु होय ते शास्त्रनी पंक्तिमां गणातुं नथी. तो ते ग्रंथ आर्यलोकोमा सर्वमान्य अथवा बहुमान्य गणायज क्याथी. शाक्त लोकोए मद्य मांसनुं भक्षण करवा रचेला आधुनिक ग्रंथो जेवा के कुलार्णव, शाक्त, संगम, तंत्रसार, देवीपूजापद्धति विगेरे अनार्यलोकोमा बहुमान्यता पामेलाछे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अने ते ग्रंथोमां पोतानी मतिकल्पित वचनो पण घणां लख्यां छे ते आर्य लोकोने कदापि काळे मान्य थतांज नथी. वळी तेने ग्रंथोमां वेदनी श्रुत्तिना जेवू डोल करी लोकने भूलमा नांखवाने पंचमकारनुं प्रतिपादन कयुछे ते तो बुद्धिमान् दैवीजीवोने जणाया विना रहेतुंज नथी. एवा ग्रंथना करनार तथा मानवार द्विज कहेतां ब्राम्हण, क्षत्रिय ने वैश्य तेमनी पंक्तिमा गणाता नथी तेतो केवल अधमाधम नीच शूदज गणाय छे. ते उपर प्रमाणरूप स्मृतियोना वचनो घणां छे. तेमां हेमाद्रीनामा सूरिए पोताना सर्वमान्य ग्रंथमां लखेलां केटलांक वचन नीचे प्रमाणे छे. ब्रह्मपुराणे न जातिर्न कुलं राजन्न खाध्यायः श्रुतं न च ॥ कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ १॥ किं कुलं वृत्तहीनस्य करिष्यति दुरात्मनः ॥ कृमयः किं न जायते कुसुमेषु सुगंधिषु ॥२॥ नैकमेकांततो ग्राह्यं पठनं हि विशां पतेः॥ वृत्तमन्विष्यतां तात रक्षोभिः किं न पद्यते ॥३॥ बहुना किमधीतेन नटस्येव दुरात्मनः॥ तेनाधीतं श्रुतं वापि यः क्रियामनुतिष्ठति ॥ ४॥ कपालस्थं यथा तोयं श्वदृतौ च यथा पयः॥ दुष्यं स्यात्स्थानदोषेण वृत्तं हीनं तथा श्रुतम् ॥ ५॥ बहुनेत्यस्य टीका-नटस्येव वेषमात्रेण ब्राह्मणस्य दुरात्मनो हिंसादिपापमनसः बहुना प्रचुरेण अधीतेन शास्त्राध्ययनेनापि किं न किमपीत्यर्थः अतो यो ब्राह्मणः क्रियां अहिंसासत्यादिसद्धृत्तं अनुतिष्ठत्याचरति तेन ब्राह्मणेन श्रुतं शास्त्रं अधीतं वा पठितमेव ।। तस्माद्विद्धि महाराज वृत्तं ब्राह्मणलक्षणम॥ चतुर्वेदोपि दुर्वृत्तः शूद्रादल्पतरः स्मृतः ॥६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यं दमस्तपो दानहिंसेन्द्रियनिग्रहः ॥ दृश्यते यत्र राजेंद्र स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥७॥ यमः॥ आहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् ।। खदारनिरतो दाता स वै ब्राह्मण उच्यते ॥ ८॥ सत्यं दानं सदाशीलमानृशस्यं दया घृणा ॥ दृश्यते यत्र लोकेस्मिस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥९॥ ____ यमशातातपौ॥ तपो धर्मो दमो दानं श्रुतं शौचं सत्यं घृणा ॥ विद्या विनयमस्तेयमेतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ १०॥ वशिष्ठः॥ त्यागस्तपो दया दानं सत्यं शौचं दया घृणा ॥ विद्या विनयमस्तेयमेतद्ब्राह्मणलक्षणम् ॥ ११ ॥ ये क्षांतदाताश्रुत र्णकर्णा जितेंद्रियाः प्राणवधानिवृताः॥ प्रतिगृहे संकुचिताग्रहस्तास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥१२॥ भविष्यत्पुराणे ॥ क्षांति तिर्दया सत्यं दानं शीलं तपः श्रुतम् ।। एतदृष्टांतमुद्दिष्टं परमं पात्रलक्षणम् ॥ १३ ॥ याज्ञवल्क्यः ॥ न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्रता ॥ यत्र वृत्तमिमेचोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम् ॥ १४ ॥ आ प्रकारनां शास्त्र वचनोथी जे हिंसानु प्रतिपादन करे छे तेने ब्राह्मण जाणवाल नहीं. हिंसक ब्राह्मणोने खाटकी जाणवा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० वेदमां पशुहिंसा करवानुं कहयुं छे एवं बोलवाथी वसुराजा मोटी अध पांम्यो छ. तेनुं सविस्तर वृत्तान्त स्कंदपुराणमां रहेला वासुदेव महात्म्यना छठ्ठा अध्यायथी जुवो. ए उपरी वसुराजानुं वृत्तांत केवळ स्कंदपुराणमां छे एमज न जाणवुं. वायुपुराणमां छे, मत्स्यपुराणमां छे तथा भारतादि इतिहासना ग्रंथमां पण छे. अन्नैर्ब्रह्यादिभिर्यज्ञः पयोदधिघृतादिभिः ॥ रसैश्च क्रियतां तेन तृप्तिं यास्यति देवताः ॥ १ ॥ सात्विका देवता प्रोक्तास्तामसा असुरास्तथा ॥ राजसा मनजाः शास्त्रेऽप्यूर्ध्वाधो मध्यवासिनः ॥ २ ॥ मद्यमांसप्रिया दैत्यास्तामसत्वाद्भवंति च ॥ देवास्तु सात्विका ब्रह्मन्नाज्यादिरसप्रियाः ॥ ३ ॥ ३–प्रश्न—ते शास्त्र करतां ( हिंसक शास्त्र करतां ) पण जे शास्त्रनुं प्रमाण व बळवान् गणातुं होय एवां कोई शास्त्रमां ते हिंसानो निषेध कर्यो छे के केम. ३—–उत्तर—हिंसासूचक ग्रंथथी अतिशे वधारे प्रमाणरूप बलवान् गणाता शास्त्रमां अतिशे हिंसानो निषेध कर्यो छे. सर्वोपरि वेदनुं प्रमाण छे ते वेदनो अर्थ अतिशे गहन छे. केमके तेना अर्थमां मोटा पुरुषोने पण मोह उत्पन्न थयो छे माटे ते वेदनो अर्थ मोटा पुरुषोए स्मृतिओमां आण्यो छे. ते स्मृतियोनुं पण अनेकांतपणुं थवाथी वेद प्रवर्तक श्री वेदव्यासऋषिए अतिशे श्रेष्ठ शास्त्रों रहस्यरूप श्रीमद्भागवत नाम पुराण कह्यं तेनुं वाक्य. निगमकल्पतरोर्गलितफलं वेदरूप कल्पवृक्षथी आ श्रीमद्भागवत नामे फळ उत्पन्न थयुं छे. ते भागवतमां तो यज्ञमांपण हिंसा न करवी. एवं तात्पर्य जणाववा सारुं प्राचीन बर्हिषी विगेरे राजाओनुं सविस्तर वृत्तांत लख्युं छे. वळी हिंसा करवी एवं वेदनुं वाक्य नथी. पण निरंतर जे हिंसा करेछे तेना संकोचने अर्थे राजसी तामसी जीवोने कहुं छे के यज्ञमां हिंसा छे ते यज्ञ आ काळमां थवो घणोज कठण छे. केमके एक बळवान् पुरुष हाथमां धनुष्बाण लईने चार दिशाओमां बाण फेंके तथा उंचे पण फेंके एटलो उंचो लांबो फथोलो द्रव्यनो ढगलो करी वापरे त्यारे एक यज्ञ कर्यो कहेवाय, एटलुं द्रव्यतो आ काळमां कोई मोटा राजाने घेस्पण नथी. तो बीजाने घेर होयज क्याथी ! ते माटे भागवतनां वाक्यो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवतकादयस्कंधे मध्याय ५ श्लोक ११ : . लोके व्यवायामिषमयसवा नित्यास्तु जंतोन हि तत्र चोदना ॥ व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्ति रिष्टा ॥ परोक्षवादो वेदोयं बालानामनुशासनम् ॥ कमें मोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ भागवतचतुर्थस्कंधे अध्याय २५ श्लोक ७-८ नारदो प्राचीनबर्हिषभूपं प्रति ॥ भो भो प्रजापते राजन पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे ॥ संज्ञापिताजीवसंघान् निघृणेन सहस्रशः॥ एते त्वां संप्रतीक्षते स्मरतो वैशसं तव ।। संपरेतमय कूटैच्छिदंत्युत्थितमन्यवः॥ तथा च पुरंजननृपेण ॥ तं यज्ञपशवो तेन संज्ञता येऽदयालुना ॥ कुठारैश्चिछिदुः क्रुद्धाः स्मरंतोऽमीवमस्य तत् पापं पुरंजनस्य स्वहननरूपं वळी देव सात्विक छे दैत्य दानव राजस छे ने राक्षसादिक तामस छे. तेमां राक्षस प्रकृतिवाळा जीवोने मद्य मांस प्रिय छे. भागवतमां पृथुराजाए सर्वने प्रेरणा करी के पोत पोतान जे प्रिय वस्तु होय ते मा गायरूप थयेली पृथ्वीमाथी दोहन करील्यो त्यारे कृत्वा वत्सं सुरगणा इंद्रं सोममदूहहन् । हिण्मयेन पात्रेण वीर्यमोजो बलं पयः ॥१॥ दैत्ययो दानवा वत्सं प्रह्लादमसुर्षभम् ॥ • विधायादुदुहन् क्षीरमयःपात्रे सुरासवम् ॥ २॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६. यक्षरक्षांसि भूतानि पिशाचाः पिशिताशनाः ॥ भूतेशवत्सादुदुहुः कपाले क्षतजासवम् ॥ ३ ॥ देवताओए अमृत दोहन करी बीधु दैत्य लोकोए सुरानुं दोहन कर्य अने राक्षसोए रुधिरनुं दोहन कर्यु. माटे देवताने मद्य मांसनुं नैवेद्य करवुं ते योग्य नथी एम प्रतिपादन क छे. अने मांस छे ते वृक्षादिक थकी उत्पन्न यतुं नथी. जीवहिंसा करे व्यारेज उत्पन्न थायछे. माटे हिंसा न करवी एम भागवतशास्त्रानो सिद्धांत छे. वली भारतने विषे तथ! वाल्मिकिरामायणादिकने विषे हिंसानी वातो लखीने छेवट सिद्धांत एवो देखाढ्यो छे के ( अहिंसा परमो धर्मः ) न हिंसा करवी एज उत्कृष्टो धर्म छे. वली देवीरहस्य ग्रंथमां देवींनी पूजा मांसे करीने करवी एवं कोई जगाए देखाय छे रहस्यग्रंथ मार्कंडेय पुराणमां नथी. कोईनो कल्पेलो नथी परंतु तेमां पण छेवट एम लख्युं छे के ——सुरामांसाद्रिपूजेयंवर्ज्यामयोदिवा देवनी सुरा मांसे करीने पूजा करवानी जे में कही छे ते ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तमने वर्जीने जाणवी. . महाभारते औद्दालकिश्वेतकेतुर्निषिषेध च तच्छृणु ॥ मांसं तु सर्वथा नैव कस्यचित् जंतोपि वै ॥ १ ॥ भक्षणा मनुष्याणा मिति घंटापथः किल ॥ यज्ञशेषस्य मांसस्य भक्षणेपि द्विजन्मनः ॥ २ ॥ महान् दोषोस्ति निर्दोषं मांसं नास्त्थेव कर्हिचित् ॥ यजुषा संस्कृतं मांसं निवृत्तो मांसभक्षणात् ॥ ३ ॥ न भक्षयेदृथा मांसं षष्टमांसं च वर्जयेत् ॥ अस्यार्थष्टीकायाम् || मांसभक्षणान्निवृत्तो भवेत्पुरुषः यजुषा यजुर्वेदविदा अध्वर्युणा संस्कृतं यज्ञियमपि मांसं न भक्षयेत् तथा वृथा मांसं असंस्कृतं षष्टमांसं श्राद्धशेषं च वर्जयेत् हिंसाविना मांस थतुं नधी माटे मांसना निषेधनी जोडे हिँसानो निषेत्र पण आवी गयो. www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्रमाणे महाभारतमां पण एवो सिद्धांत के के मनुष्योए कोई जीव प्राणीमात्रनुं मांसभक्षण न करवं. कारण के जे जीवनी हिंसा करे छे ते जीव जन्मांतरे तेनुं वैर ले छे. ते उपर मनुस्मृतिनुं वचन नीचे प्रमाणे छे. मनुस्मृतौ अध्याय ५ श्लोक ५५ मांसभक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहान्यहम् ॥ एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदति मनीषिणः ॥ ५५ ॥ जेनुं हुं मांसभक्षण करूं छं ते प्राणि परलोकमा मारूं भक्षण करशे ए प्रकारे मांस शब्दनुं मासपणु छे. एटले मांस भक्षयिता तेनो अर्थ मां केतां मने स केतां ते भक्षयिता केतां मक्षण करशे एवो अर्थ एज वाक्यमा रह्यो छे एम मोटापुरुष कहे छे. महाभारते मोक्षधर्मे अध्याये २६५ अव्यवस्थितमर्यादैविमूढेर्नास्तिकैनरैः॥ संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिसा समनुवर्णिता ॥१॥ सर्वकर्मस्वहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् ॥ धूतैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद्वेदेषु कल्पितम ॥२॥ मानान्मोहाच लोभाञ्च लोल्यमेतत्प्रकल्पितं ॥ पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम् ॥३॥ यज्ञियाश्चैव ये वृक्षाः वेदेषु परिकल्पिताः ॥ श्रीमद्भागवतस्यापि सिद्धांतोस्त्ययमेव हि ॥ ४॥ आहुधूम्रधियो वेदं सकर्मकमतद्विदः ॥ अग्निमुग्धा धूमतांताः स्वं लोकं न विदंति ते ॥ ५॥ मानिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः॥ पशून् द्रुह्यंति विस्रब्धाः प्रेत्य खादंति ते च तान् ॥ ६ ॥ न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याधर्मतत्ववित् ॥ मुन्यन्नैः स्यात्परात्रीतियथा न पशुहितया ॥७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बळी- श्रीमतो पण एज सिद्धांत छे के पशुहिंसा न करवी. वेदना अभिप्रायने न जाप्पनार एका मौन पुरुषो वेदधर्मने प्रधान कहे छे ते पुरुषो अग्निसाध्य कर्मे करीने नाश पाम्यो छे विवेक जेमनो एवा थईने घूम्रमार्गे करीने गति करे छे. पण पोताना खरा तत्वने. जाणी शकता नथी. अने वली मानी, शठ अने लोभी एवा पुरुषोज वेदनुं रहस्य जाण्यां विना पशुनो द्रोह करे छे ते पशु पाछा जन्मांतरमां वेर ले छे माटे, देवताना पूजनमां मांस न आपवुं. देवतामात्र जेवी प्रीति सुंदर भन्नघडे थाय छे तेत्री प्रीति कोई काळे पशुहिंसावडे थतीज नथी. - सप्तर्षि तथा सूर्यना रथनी आगळ चालनार वालखिल्यादि मुनि तथा मरीचि आदि मुनि ए सर्वे अहिंसक पुरुषोनी प्रशंशा करे छे. पोताना मांसने एटले शरीर ते परमांस वडे एटले पशु आदिकना मांस वडे जे वधारवानी इच्छा करे छे. निश्चे अतिषे कष्ट पामे छे एम नारदस्मृतिनुं वाक्य छे. जे पुरुष मांस भक्षण नथी करतो तथा पशुनी हिंसा करतो नर्थी तथा करावतो नथी ते सर्व भूत प्राणीमात्र पूज्य छे. एम आद्यमुनि केतां स्वयंभू मनुनुं वाक्य छे, जे पुरुषे मद्यमांसना त्याग कर्यो । छे ते दाता छे. तेज पुरुषे यज्ञ कर्यो एटले देवपूजन कर्यु एम जाणवू, तथा ते पुरुषने तपस्वी जाणवो ए प्रकारनुं बृहस्पतिस्मृतिनुं वाक्य छे. भीष्मपिता युधिष्टिर राजा प्रत्ये कहे छे के जे पुरुष अश्वमेधयज्ञ करीने महान् महान् देवपूजन करे छे. अने जे मांस भक्षण नथी करतो ए ते पुरुषतुल्य है. एटले जे पुरुष अहिंसक छेतेने प्रतिमासे अश्वमेध यज्ञनुं पुण्य थाय छे. 'जे पुरुष प्रथम अज्ञानथी मांसभक्षण करीने पछी निवृत्ति पामे छे एटले त्याग करे छे, ते पुरुष जो फरीथी मांसभक्षण न करे तो मांसभक्षणथी सदा निवृत्ति पामेला पुरुषो जेवुं फळ थाय छे तेवुं तेने पण थाय छे. जे विद्वान् पुरुष सर्व भूतप्राणिमात्रने निरंतर अभयदान आपे छे तेज विद्वान् मानवा योग्य छे, तथा विश्वास करवा योग्य छे तथा तेनो क्यारे पण पराभव न करवो. जेवो पोतानो प्राण पोताने प्रिय छे तेवो बीजानो पण प्रिय छे एम जाणं. माटे सर्व देह गरिने मृत्युसमान बीजुं दुःख नथी. ब्रह्मस्वरूप निष्ट एवा त्यागिमुनिने पण पोताना वधकाळने विषे प्रसन्नता धनी नथी. एटले देहथी जुदो आत्मा छे एवा आत्मज्ञानिने पण वध कालने विषे जेवी प्रथम प्रसन्नता हती तेवी प्रसन्नता रहेती नथी. अनेक कारण मांटे धर्मशास्त्रमां ब्रह्मनिष्ट मुनिना वधने विषे ब्रह्महत्या करतां पण अतिशे अधिक पाप कह्युं छे. तथा विंदेह मुक्तना वधमां पण अतिशे अधिक दोष निश्चये थाय छेएम कह छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रश्ननो उचर-राजाभोने पशुहिंसान अवश्य कर्तव्य कदापि काळे छेज नहीं. अने ते पशुहिंसाज न करवामां आवे तो बलवान् शास्त्रनी आज्ञा पाळी गणाय पण तोडी न गणाय एवां प्रमाण हजारो छे. वेद एटले (मंत्रब्राह्मणयोर्वेदः) ऋग्वेदसंहिता, यजुर्वेदसंहिता, सामवेदसंहिता, अथर्ववेदसंहिता तथा शतपथब्राह्मण विगरे ब्राह्मण ए सर्व वेद कहेवाय छे, तेमां पण कोई जगाए राजाओने तथा अन्य मनुष्योने हिंसा करवानें कहयुं नथी उलटो हिंसानो निषेध अतिशे स्पष्ट पणे छे. तेमां ऋग्वेदना ऐतरेय ब्राह्मणमा बीजि पंचिकाना प्रथम अध्यायमां तथा बीजा अध्यायमा तथा यजुर्वेदना शतपथना ब्राह्मणना नवमां खंडमां याग केतां देव देवीना पूजनमां अहिंसानुंज प्रतिपादन करेलुं छे. वेदमां जे जगाए पशुशब्द आवे छे ते जगाए पिष्टपशु एटले डांगेरना चोखानो लोट तेनो करवानो कह्यो छे. तथा अजवडे यज्ञ करवो एटले पूजन करवू ते जगाए अज केतां त्रण वर्षनी जुनी डांगर जेने खेतरमा वाये तो उगे नहीं तेवी डांगरवडे होमादिक करवू एम अर्थ कह्यो छे. ते उपर प्रमाण-- महाभारतना दानधर्मने विषे श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः ॥ येनायजंत यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः ॥१॥ अजस्त्रैवार्षिको व्रीहिरिति धनंजयः ॥ वली श्रुति केतां वेद तेना अर्थने स्मृति अनुसरे छे एटले वेदनो अर्थ अतीशे गूढ छ माटे तेना अर्थने स्मृतियो प्रकाश करे छे. ( श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छादीत कालिदासः) ते स्मृतियोनो पण एज सिद्धांत छे के (नहिंस्यात्सर्वभूतानि ) कोई जीव प्राणीमात्रनी हिंसा न करवी. वळी वेदना साररूप उपनिषद् छे तेमां पण प्राणिमात्रपर दया राखवी पण तेने कष्ट थाय तेम आचरण न करवू. एवी रीते कयुं छे पण तेनी हिंसा करवा कोई उपनिषदमां कडं नथी. बळी छ शास्त्र छे तेमां पण हिंसा करवानुं कर्तुं नथी. ते छ शास्त्रनां माम द्वे न्याये द्वे च मीमांसे सांख्ययोगौ तथैव च Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ . बे प्रकारनां न्याय शास्त्र के ते एक प्राचीनन्याय ने बीजुं नवीनन्याय, तेमां गौतम ऋषि प्रणीत सोळ पदार्थ वाची ने काणद ऋषि प्रणीत सात पदार्थ वाची. तेनो पण एवो. सिद्धांत छे के पदार्थज्ञान थकी मोक्षी थाय छे. एटले जे वस्तु जेवी छे तेने तद्गत केतां तेमां रहेला यथार्थ धर्म जाणवारूप ज्ञानथी सर्व दुःखमात्रनो अंत थाय छे नो भावार्थ ऐवो छे के. आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति पोतानी पेठे सर्व भूत प्राणिमात्रने देखे तेज देखे छे एटले बीजा तो देखे छे तो पण ते अंध जाणवा. केम के जेम कोई पोताने छेदन भेदन करे त्यारे केवुं दुःख थाय छे तेवुं दुःख बीजाने पण छेदन भेदन करवाथी थाय. एम जाणे छे ते जाणकार पुरुषो कहेवाय छे. माटे एवी रीतना जाणपुरुषो निरपराधी पशुने केम दुःख दे नज दे. अने ज्यारे दुःख देवानो निषेधः न्यायशास्त्रने मते थयो तो ते शास्त्रने मते पशुनी हिंसा करवानो निषेध एनी मेळेज आवी गयो. अने वळी केटलाक वैदीकपुरुषो एम कहे छे के यज्ञमां एटले देवदेवीना पूजनमां जे पशुनी हिंसा करी बलिदान आपीए छीए ते पश स्वर्गे जाय छे अने महाखुखी थाय छे. एवं बोलनार केवळ दांभीक पुरुषो छे केम के, जो एवं बोलनार पुरुष पोताना मनमां एम नक्की जाणे छे जे देवदेवीना बलिदानमां वापरवाथी स्वर्गे जवाय छे तो पोताना अतिशे प्रिय एवां स्त्री पुत्र पुत्री तेमनां गलां कापीने तेमनो बळिदानभां भोग केम आपता नथी. बापडां गरीब निरपराधी पशुने बळात्कारे केम मारी नांखे छे. माटे ए न्यायशास्त्रनो मत नथी ए तो अन्याय शास्त्रनो मत छे. वळी वे प्रकारनुं मीमांसा शास्त्र हे तेमां पूर्वमीमांसा अने उत्तरमीमांसा तेमां पूर्वमीमांसा जैमिनी ऋषिकृत छे, उत्तरमीमांसा व्यासमुनीकृत छे. तेमां पूर्वमीमांसामां कर्मनुं प्रतिपादन छे, ने उत्तरमीमांसामां ज्ञाननुं प्रतिपादन छे. एबे शास्त्रनो पण एवो अभिप्राय छे के कोई प्रकारना प्राणिनी जाणी जोईने हिंसा न करवी. अने अजाणे हिंसा थाय तो तेनुं प्रायश्चित्त करी शुद्ध थं माटे ते शास्त्रना आरंभमां कहुं छे के, ( अथातो धर्मजिज्ञासा ) हवे धर्म जाणवानी इच्छा एटले अहींसा ए परम धर्म छे. इत्यादि धर्म पाळवाथीचित्तनी शुद्धि थायछे अने चित्तनी शुद्धि थया पछी ते पुरुष ज्ञाननो अधिकारी थायछे; ते ज्ञानानो अधिकारी थयापछी तेने ज्ञानोपदेश करवाने अर्थे उत्तम मीमांसा एटले न्यास सूत्र - प्रमुख वेदांत शास्त्रानो जे उपर कह्यांछे तेनो अधिकारी थायले त्यारे तेने. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अथातो ब्रह्म जिज्ञासा) ..... हवे ब्रह्मज्ञान जाणवानी इच्छा एटले आत्माने अनात्मा जे देहादिक तेनेज जुदा जाणवा. तेनुं कारण एबुंज छे के ते क्षणभंगुर एवा देहनी मांसभक्षणादि पापाचरण करी पुष्टी न करवी. तेनी पुष्टी करनार ने कोई काले आत्मज्ञान उत्पन्न थतुंज नथी. आ. प्रकारको मीमांसा शास्त्रनो सिद्धांत जोतां पण पशु हिंसानो निषेध आवी गयो केमके पापर्नु आचरण करवाथी चित्तनुं अतिशे मलीनपणुं थाय छे अने मेला चित्तवाळाने ज्ञाननो अधिकार नथी. अने ज्ञान विना मोक्ष थतो नथी. माटे पश हिंसामा तथा मांस भक्षणमां जरूर पाप रहेढुंज छे. न हि मांसं तृणात्काष्ठादुपलाद्वापि जायते ॥ हननादेवजंतूनां जायते नायमस्त्यतः॥१॥ केमके मांस जे ते तृण थकी तथा काष्ट थकी तथा पाषाण थकी पण उत्पन्न यतुं नथी. ए तो जंतुनी हिंसा थकीज उत्पन्न थाय छे ए कारण माटे पाप छे. अनुद्वेजयतोजीवान भयं कापि विद्यते ॥ भूतद्रोग्धुस्त्विहामुत्र भयं नैव निवर्त्तते ॥२॥ जे पुरुष जे कोई जीव प्राणीमात्रने उद्वेग करतो नथी एटले छेदन भेदनादिक कष्टने करतो नी ते पुरुषने कोई काळे पण भय उत्पन थतुं नथी. जे जे प्राणिनो द्रोह करे छे तेने आ लोकमां भयनी निवृत्ति थतीज नथी. एटले हिंसक पुरुषने आ लोकमां तथा परलोकमां जरूर दुःखनी प्राप्ति थशे. कदापि काले हिंसक पुरुष पूर्वना पुण्यथी सुखी जेवो देखातो हशे तो पण परिणामे तेन परलोकमां अतिशे कष्ट उत्पन्न थशे. यद्यत्र खादको नस्यान्न तदा घातको भवेत् ॥ न क्रेता नापि विक्रेता मांसस्यातो न भक्षयेत् ॥३॥ जो मांसनो भक्षण करनार न होय तो पशुनो हणनार पण न होय, अने मांसनो लेनार न होय तो मांसनो वेचनार पण न होय माटे मांस भक्षण न करवू. धनेन क्रयिको हंति खादकश्वोपभोगतः ॥ घातको वधवधाभ्यां मार्कडेयो ब्रवीदिति ॥ मांसने वेचातुं लेनार पुरुष धनवडे पशुने मारे छे एम जाणवू, अमे मांसभक्षक पुरुष तेनो उपभोग करवाथी पशुने मारे छे एम जाणवू, अने पशुघातक पुरुष पशुने मारवाथी तथा बांधवाथी पशुहिंसक छे, एम ए त्रण पुरुष सरखा पातकी छे. ए प्रकारे मार्कंडेय ऋषितुं वाक्य छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११८ आहर्ता चानुमंता च विशस्ता क्रयविक्रवीं॥ संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव हि ॥ मारवाने अर्थ पशुने प्राणी आपनार तथा मांसने आणी आपनार तथा तेनी अनुमोदना करनार तथा तेने हणनार तथा वेचनार तथा वेचातुं लेनार तथा तेनो उपभोग करनार ए सर्व पुरुषो निश्चे मांसभक्षकज छै. अनुमंत शब्दमां आटलो विशेषार्थ जाणवो के अनुमोदना करनार एटले कोई राजा प्रमुख मोटां माणस कोई विद्वान् पुरुषने पूछे के अमुक पर्वने विषे हुँ पशुहिंसा करुंछु ते ठीक छ ? पछी ते विद्वान् कोईनुं मुख्य दाक्षिण्य राखीने अथवा माध्य राखीने अथवा अंधपरंपरा देखीने अथवा पोतानी आजीविका प्रतिष्ठामा थशे एवं कांइक नुकसान धारीने अथवा अन्य कोई कारणथी अनुमोदना करे. अर्थात् हाजी हा साहेब आपवामां बापदादाथी चाली आवती पशुहिंसा योग्य छे एम प्रकारनी अनुमोदना करे तेने पशुधातक जाणवो. केतां खाटकी जाणवो पण विद्वान् न जाणवो तथा ब्राह्मण न जाणवो. वळी ते विद्वानमा पण जे विद्वान् पशुनां नाक कान कापवानुं कहता होय तो समर्थ राजाओए तेज विद्वाननां नाक कान कापवां जोईए. केम के एवी गप्पो छे ते केवळ शास्त्री विरुद्ध निर्मूळ छे. वली पांचमुं सांख्यशास्त्र कपिलदेवप्रणीत छे तेमां पण हिंसा करवानू का नथी. केमके सांख्यशास्त्रमा चोवीस तत्व- पृथक् करण कयुं छे अने देहना भावने देहने. विषे समजवा अने आत्माना भाव आत्माने विषे समजवा एटलेज दुःख ने मिथ्या इत्यादि देहना भाव ते कदापि काले आत्माने विषे न समजवा. अने सत् चैतन्य अने सुखरूप आत्माना भाव छे ते कदापि काळे देहने विषे समजवा नहि. इत्यादि विचारने जणावनार सांख्य शास्त्रने मते पण शरीर पुष्टिकारक मांसनो निषेध छ तो तेमां पशु हिंसानो लेश पण आवज क्यांथी उलटुं इंद्रियोनो निग्रह करी शरीर शोषण करवान ए मतमां छे. वळी छळु जे योगशास्त्र तेमां पण हिंसा करवानुं कर्तुं नथी तेमां तो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा अने समाधि, ए अष्टांग योगनी वार्ता के तेमा प्रथम यम कह्यो छे. अहिंसासत्यास्तेयापरिग्रहब्रह्मचर्या यमाः ॥ ए पातंजल योगशास्त्रना सूत्रमा पण प्रथम आहेसानुं ग्रहण कर्यु छ माटे जे अहिंसक पुरुषो छ तेनेज योग सिद्ध थाय छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविस्मृती ... ............... अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहों ॥ भावशुद्धिहरेभक्तिः संतोषः शौचमार्दवामित्यादि। वळी अत्रिऋषिए पोतानी स्मृतिमा योग सिद्ध करनार पुरुषनां लक्षण लख्यां छे तेमां पण प्रथम अहिंसा गणावी छे. माटे योगशास्त्रनो मत पण एवोज सिद्ध थयो छै के प्रथम 'अहिंसा धर्म पालवो. याज्ञवल्क्यमृतौ अ. १ श्लो. ८ इज्याचारदमोऽहिंसा दानस्वाध्यायकमणाम् अयं तु परमो धर्मों यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ ___ आ लोक परलोकसंबंधी सुख लेवामां चमत्कारी योगसाधन बतावनार योगशास्त्रनुं सर्वोपरि मुख्यपणुं छे एम याज्ञवल्क्य ऋषिनो सिद्धांत छे तेमां पण अहिंसा कही छे. इज्या केतां यज्ञ करवो एटले देवतार्नु पूजन करQ तथा सदाचार पाळवो तथा अहिंसा व्रत पाळq तथा सत्पात्रमा दान आपq तथा भणq ने भणावQ ए सर्व सत्कर्म छे. तेनीमध्ये आ उत्कृष्ट धर्म छ के जे योगशास्त्रमा कहेला योगे करीने एटले पूर्वोक्त अहिंसादिक साधने करी चित्तशुद्धि करीने योगनुं साधन करवाथी अनेक ऋद्धिसिद्धि प्रगट थया पछी शेवट आत्मदर्शन पण योगीज थाय छे. माटे योगारूढ थयो होय तो पण कामचार एटले मनमां आवे तेम हिंसादिकनु आचरण करे तो (योगारूढोपतत्यधः) ते पण योगभ्रष्ट थई अधोगतिने पामे छे. आ प्रकारे छ शास्त्रने मते हिंसानो निषेध कर्यो. ५ प्रश्ननो उत्तर–हिंसानी प्रवृत्ति जो न करवामां आवे तो कोई प्रकारनो आपत्ति काळ आववानो होय तो पण ते नाश पामे अने पुण्यकर्म कर्यु कहेवाय एम बळवान् शास्त्रनां प्रमाण छे. . श्रीमद्भागवते ॥ तस्मान्न कस्यचिद्रोहमाचरेत्स तथाविधः ॥ आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वं परतो भयम् ॥ जे पुरुष पोतानुं सारं इच्छे छे तेणे कोई काळे पण पारको एटले अन्य प्राणिनो द्रोह न करवो. जे अन्य प्राणिद्रोह करे छे तेने परथकी भय प्राप्त थाय छे, एटले ते प्राणि आ लो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२० कमां तथा पस्नेकता जरूर तेनुं वैर ले छे, माटे नारदजीए प्राचीनवर्हिष राजाने दिव्यदृष्टि मापी देखाड्युं छे के हे राजन् अज्ञान पणाथी प्रथम तें जे जे जीव यज्ञमां मारेला छे ते तारो करेलो द्रोह संभारी तेनुं वैर लेवा जो केवी तैयारी करे छे के, जे जे शस्त्रे करीने जे जे प्राणिने मार्यो छे ते ते शस्त्राने घसी उजळां धारवाळां करी तारी वार जुवे छे. जे ए राजा मरण पामी अत्र क्यारे आवे के एनुं छेदन भेदन करी एनुं मांस भक्षण करवा मंडी पडिए . आ प्रकारनुं थशे एवं पोतानुं दुःख संभारी थरथर कंप पामी महाभय पामी हिंसानो त्याग करी नारदजिनो शिष्य थई घणो सुखी थयो. ते कथा श्रीमद्भागवतना चतुर्थ स्कंधमां कही छे के, भोभो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे | संज्ञापितान् जीवसंघान् स्मरंतो वैशसं तव ॥ इत्यादि भारते मोक्षधर्मे महाभारतना मोक्षधर्मने विषे जाजली ऋषि अने तुलाधार नामे वणिक तेना संवादमां ( अध्याय ८० मां ) तथा धर्मोछं वृत्तिना संवादमां ( अध्याय ९० मां ) तथा द्युमत्सेन सत्यवादसंवादमां तथा विश्वगीत नामे इंद्र अश्वमेध करवा मांड्यो छे तेमां आवेला महा मोटा ऋषियो अने देवता तेमना संवादमां ( अध्याय १५४ मां ) यज्ञमां केतां देवताना पूजनमां सर्वथा हिंसानो निषेध कर्यो छे. अने ते अंधपरंपराथी चाली आवती हिंसानो त्याग थवाथी राजा प्रजा सर्वे सुखी थाय छे. अने एवा उज्ज्वळ देवताना पूजन विगेरे शुभ कृत्यमां हिंसानी प्रवृत्ति कोणे करावी छे तेना उपर पण त्यांज अध्यायमा ८९ मां लख्युं छे के, लुब्धैर्वृत्तिपरैराजन्नास्तिकैः संप्रवर्त्तितम् ॥ वेदवादानविज्ञाय सत्याभासमिवानृतम् ॥ १ ॥ तथा - अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढैर्नास्तिकैर्नरैः ॥ संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिसा समनुवर्णिता || अध्याय ९२ तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा ॥ तपोमहत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिंसा न यज्ञिया ।। अध्याय ९९ व्याख्यातश्चायं श्लोको भारतभावदीपे (तट्टीकायां ) चातु धरनीलकंठेन हिंसाशून्यस्य धर्मस्य त्रैष्ठयं वक्तुं हिंस्रयज्ञनिंदार्थो यमध्यायो आरभ्यते तस्य सत्यसंज्ञस्य उञ्छवृत्तित्राह्मणस्य तेन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अनुभावन पशुं हत्वा स्वर्ग प्राप्नोमीत्यभिप्रायेण हिंसासंकल्पना पीत्यर्थः । यज्ञिया यज्ञाय हितेति ॥ द्रव्यना लोभी, नास्तिक वेदार्थना अजाण एवा महादुष्ट पुरुषोए हिंसानुं प्रवर्तन कर्यु छे. ते छे तो खोटुं पण सत्याभास केतां सत्य जेवू थई कयुं छे. तथा जे पुरुष शास्त्र मर्यादाथी वेगळा छे अने वस्तुता ए छे तो पोते मूढ केतां मूर्खपण पोताने विषे पराणे विद्वत्ता, अभिमान ठसावे छे माटे विशेष मूर्ख एवा अने नास्तिक एवा अने शास्त्र सत्य हशे के नहीं एवा संशयवाळा अने अमो याज्ञिकछीए एवं मिथ्याभिमान धरावनार पुरुषोए देवताना पूजनमां हिंसानो प्रवेश कराव्यो छे. शिलोंछ वृत्तिवालो महा तपस्वी ब्राह्मण हतो, पण तेने एवो विचार थयो के हुं आ देवता पूजनमां पशुहिंसा करूंतो सुखी थाउ एवो विचार कर्यो तेथी तेनुं महातप हतुं ते पण नाश पाम्युं. माटे आ काळना राजा प्रमुख लोकोए तो अवश्य विचार करवो के पूर्वना काईक पुण्ययोग वडे आटला सुखी छीए ते पण आ प्रकारनी पशुहिंसा करीशुं तो पूर्व- तप पुण्य सर्व शीघ्रपणे नाश पामशे. तेथी महा मोटी आपत्तिमां अकस्मात् आवी पडशं एबुं धारीने ते हिंसारूप अकार्यनो एटले शास्त्रविरुद्ध कार्यनो तत्काल त्याग करवो योग्य छे एम बलवान् शास्त्रनी आज्ञा छे ते उपर प्रमाणे के याज्ञवल्यस्मृतौ अध्याय १ श्लोक ३३५ तवाहं वादिनं क्लीबं निर्हति परसंगतम् ॥ नहन्याद्विनिवृत्तं च युद्धप्रेक्षणकादिकम् ॥ पोतानो द्रोह करतो होय तेनो द्रोह करवो. एवं श्रुतिनुं वचन छे. तेथी अपराधीने मारतां पछी ते आदरथी एम बोले के मने मारशो नहीं हुं तमारो छु तो तेने न मारवो. केम के ते पोतानो थयो माटे तथा विनिवृत्तं केतां अपराधीने मारवा लीधो पण ते नाशभाग कहे छै तो तेन न मारवो ए प्रकारनो राजाओने धर्म छे. तो पारका पशुने पैसा खरची पोतानो करी तेनुं पूजन सत्कार करी बिचारो निरपराधी मरणना भयथी नाश भाग करे तो तेने बळात्कारे घसडी लावीने तेने मारवारूप महाक्रूर राक्षसी कर्म करीने तेमां धर्म मानवो ए केवळ शास्त्रविरुद्ध दुष्ट कर्म छे. पोताना राज्यमा जे जे प्राणी रहेता होय, तेने पोतानी प्रजाने जाणी तेवू रक्षण करवू पण पीडन न करवू. एटले निरपराध दुःख न दे, जेम करवाथी राजाने घणुंज नुकशान थाय छे. ते याज्ञवल्क्यस्मृतिमां कहुं छे अध्याय श्लोक ३४० प्रजापीडनसंतापात् समुद्भूतो हुताशनः ॥ राज्ञः कुलं श्रियं प्राणां श्चादुग्ध्वा न निवर्तते ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पानी निरपराधी रैयतने पीडवाथी राजाना कुलनो नाश थापछे एटले ए राजाना वंशनो उच्छेद थाय छे. तथा लक्ष्मीनो नाश थाय छे. छेवट राजाना प्राण जाय छे एटले ए राजाने कमोते मार्बु पडे छे; जेम अग्नि घासनी गंजीने बाळे छ तेम ते राजानां सर्वसुख बाली मस्म करे एवो शास्त्रनो बळवान सिद्धांत छ. वली नाततायिवधे दोषः-एटले संग्राममा मारवा आव्यो होय तेने मारवो एम क्षत्रियोना धर्ममा छ पण निरपराधी गरीब शवोनां गलां रहेसवां क्या शास्त्रमा कह्यां छे ? कोई शास्त्रमा नथी. आततायिनः उक्ताः कात्यायनेन ॥ उद्यतासि विषाग्निश्च शापोद्यतकरस्तथा । आथर्वणेन प्रहंताच पिशुनश्चापि राजनि ॥ भार्यातिक्रमकारी च रंध्रान्वेषणतत्परः॥ एवमाद्यान्विजानीयात्सर्वानेवाततायिनः॥..' जेने मारकामां राजान दोष लागतो नथी एवा आतताई पुरुषो, कात्यायन ऋषिए गणाव्या छ. तेमां पण कोई निरपराधी जीव गणाव्यो नथी. श्रीमद्भागवत जेवां पुराणोमां तो, अज्ञानी एवा अपराधी जीवाने पण न मारवां एवं छ यस्त्विह वै भूतानामीश्वरकल्पितवृत्तीनामावविक्तपरव्यथानां स्वयं पुरुषेण ब्रह्मादिभावेन विधिनिषेधपूर्वमुपकल्पितात्तिर्यस्य सः विविक्तपरव्यथो व्यथामाचरति स परशंपकूपे तदभिद्रोहेण निपतति तत्र हासौ तैस्तै तुभिः पशुपक्षिमृगसरीतृपैर्मशकयूकामत्कुणमक्षिकादिभिर्ये के चाभिदुग्धास्तै सर्वतोभिद्रुह्यमाणस्तमसि विहितनिद्रानिवृत्तिरलब्धावस्थानः परिक्रामति यथा कुशरीरे जीव इति ॥ न ब्रह्मदंडदुग्धस्य न भूतभयदस्य च । नारकाश्चानुगृहंति यां यां योनिमसौ गतः॥ भारते देवान् प्रति महर्षिवाक्यम् । मोक्षधर्मे अध्याय १६६ बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। अजसंज्ञानि बीजानि छागं नो हंतुमर्हथ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैव धर्मः सतां देवा यत्र वै वध्यते प्रमुः वायुपुराणे मत्स्यपुराणे च यज्ञो बीजः सुरश्रेष्ठ येषु हिंसा न विद्यते ॥ त्रिवष परमं कालमुषितरप्ररोहिभिः ।। वायुपुराण अने मत्स्यपुराणनो तो एवो सिद्धांत के के जेमां हिंसा नथी ते यज्ञ कहेतां देवता पूजन कहेवाय अने बीजं तो, पेट पूजन कहेवाय. माटे तेमा एम कह्यु के के त्रण वर्षनी नउगे एवी जुनी डांगर प्रमुख धान्य बीजवडे यज्ञ करवो के जेमां हिंसा न होय.. नारदपंचरात्रे चोक्तम्. श्रुतिवदात विश्वस्य जननीव हितं सदा। कस्यापि द्रोहजनकं न वक्ति प्रभुतत्परा ॥१॥ न तच्छास्त्रं तु यच्छास्त्रं वक्ति हिंसामनर्थदाम् यतो भवात संसारः सर्वानर्थपरंपरः ॥२॥ अंतरंगं विजानाति भगवत्याः श्रुतेः स्वयम्। चराचरात्मा भगवान् नापरः कोपि तत्ववित् ॥ ३॥ आत्मवत्सर्वभूतानि आत्मज्योत्येवमबुवम् । भगवान्कथमचैनां हिंसामुपदिशेकचित् ॥ ४॥ श्रुति कहेतां वेद, मातुश्रीनी पेठे निरंतर जगतनुं हित थाय एवुज वचन बोले छे, पण कोई जीव प्राणिमात्रनो द्रोह थाय एवं वचन कहती नथी. केमके ते श्रति प्रभु तत्पर छे एटले जेम कोईनो द्रोह थाय तेम प्रभु कहता नथी. तेम श्रुति पण कोईनो द्रोह थाय ते, वचन बोलती नथी, कोई जीवने दुःख दे, एवं वेद वचन होय तो नहीं हिंसा करवी एवं वेदवचन होयज क्याथी एटले जेमां हिंसा करवानं कडं होय ते वेद वचन न कहेवाय; पण एतो मांसभक्षक एवा राक्षसोनुं वचन कहेवाय ॥ १ ॥ बळी जे शास्त्रमा हिंसा करवानें कडं होय ते शास्त्रज न कहेवाय, अर्थात् एतो अशास्त्र कहेवाय केमके हिंसा अनर्थने आपनारी छे, एटले हिंसा करवाथी आ लोक परलोक संबधी अनेक प्रकारनां कष्ट आवे छ; अने जेनी हिंसा करी छे ते प्राणि तेनुं वेर लवा अनक जन्मसूधी शस्त्रवडे करनारनुं माथु कापे छे. माटे एने शस्त्र कहीए छीए, एम उत्तरार्धमा कह छे. यतः कहतां जे हिंसाथी सर्व अनर्थनी छे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरा जैने विषे एषो संसार याय है. एटले संसार संबंधी सुखमात्रनो नाश करनारी हिंसा छ, अर्थात् हिंसा करवाथी पुत्र नाश पामे, स्त्री नाश पामे, धन नाश पामे, राज्यनो नाश थाव, शरीरे कोढ नीकळ, पतनो रोग थाय, ज्यां जाय त्यां अपमान पामे इत्यादि जगत्मां जेटलां जेटलां दुःख कहेवाय छ ते सर्व दुःख हिंसाथी प्रप्त थाय छे ॥ २॥ भगवती कहेता भगवतनी वाणीरूप श्रुतिना अंतरंग अभिप्रायने स्थावरजंगमना मात्मा एवा भगवान् जाणे छ पण बीजो कोई ते तत्वने जाणी शकतो नथी. श्रुतिनो भिप्राय केवळ अहिंसाचं प्रतिपादन करनार छ एवा तत्वने बीजाथी यथार्थ जाणी शकातुं नथी. ३ श्रुतिनो अहिंसारूप अभिप्राय छ तेने भगवान् पोते जाणे छ तेमां कारण देखाडे छे के-हे भगवान् एम कहे छे के पोताना आत्मानी पेठे सर्वभूत प्राणीमात्रने मानवां. एटले जेम कोई पोताने छेदन भेदन करे सारे जेवु दुःख थाय छे तेवूज बीजां प्राणीने छेदन करवाथी थाय. माटे कोई प्राणिनो द्रोह न करवो, एम भगवान कहे छे, ते भगवान आ वेदमां कोई जगाए पण हिंसानो उपदेश करेज केम! अर्थात् हिंसा करवानुं वचन होय ते भगवद् वचन कहेवाय नहीं ॥ ४॥ मनुस्मृतिनो पण अहिंसारूप सिद्धांत छ, ते सिद्धांतने भारतन विषे भीष्म पिताए युधिष्टिर राजापासे कयो छे केसर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् ॥ मोक्षधर्मे अ. ९२ अहिंसा, सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता। न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्ति कश्चन ॥ धर्मात्मा एवा मनु सर्व कर्मन विषे हिंसा न करवी एम कहे छ. भूतप्राणिमात्रनी हिंसा न करवी ए धर्म सर्व धर्म करतां अतिशे श्रेष्ट छ अहिंसाथी कोई मोटो धर्म नथी. तथाच वृद्धपराशरवाह । शौचं पात्रश्रुद्धिश्च श्रद्धा च परमा याद अनंततृप्तिकाणि एतदेव न चामिषम् ॥ यस्तु प्राणिवधं कृत्वा पितृन्मांसेन तर्पयेत् सोऽविद्वांश्चंदनं दग्ध्वा कुर्यादंगारलेपनम् ॥ नारदश्चाह. ( भागवतसप्तमस्कंधे अ. ९५) न दद्यादामिषं श्राद्ध न चायाद्धर्मतत्ववित् । मन्यन्नैः स्यात्पराप्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम् ॥ न्यासोदंडस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ॥ भगवान् बादरायणो भाष्यकारः महाव्रतं व्याचख्यौ सर्वदा भूतानामनभिद्रोह: अहिंसा जातिदेशकालसमयैरनवच्छिन्ना अहिंसा महाव्रतमित्युच्यते ॥ प्रश्न छठ्ठानो उत्तर. पशु वधने बदल कोई हिंसारहित क्रिया करीने पर्व आराघवामां आवे तो बलवान् शास्त्रनी साचे साची आज्ञा मानी गणाय, ते विषेना प्रमाण कह्यामां प्रथम आव्यां छे के, पवित्र अन्नवडे जेनी परा कहेतां उत्कृष्टि प्रीति थाय छे एटले देवतानी प्रसन्नता थाय छे. तेवी पशुहिंसाथी थती नथी. अने अहिंसा समान उत्कृष्टो धर्म नथी. माटे शरीर, मन, वाणी एत्रिकरण यांगवडे भूतप्राणिमात्रनी हिंसानो त्याग करो. एम भागवत पुराणमां कहेलुं नारदजी वचन ( पां. नं. उपलाना श्लोक नदद्याई० मांजुओ ) याज्ञवल्वयस्मृतौ अ० १ श्लोक ४–५ पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ मन्वत्रिविष्णुहारीत याज्ञवल्क्योशनांगिरा: यमापस्तं संवर्त्ताः कात्यायनबृहस्पती ॥ पराशरव्यासशंखलिखितौं दक्षगौतमो ॥ शातातपो वशिष्टश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः याज्ञवल्क्य स्मृतिमां कह्युं छे के पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, ए चार ४ वेद अने तेनां अंगद मळी कुल १४ चौद विद्यानां अने धर्मनां रहेवानां स्थान छे. अने मनुआदिक स्मृतिओ ए धर्मशास्त्र छे, माटे प्रथम गणावेला पुराणमां सर्वोपरी श्रीमद्भागवतनुं प्रमाण आ प्रश्नउत्तरमा प्रथम दाखल कर्यु छ. अने पशुने बदले लोटनो पशु करी तेने मारे तो कायिक हिंसानो त्याग थयो पण मन वचनयी हिंसानी प्राप्ति थई पण ते पुराणना वचनमां तो ऋण प्रकारे हिंसानो त्याग करवो लख्यों छे. मनुस्मृतौ श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुति एटले वेद खान धर्मशास्त्र एटले स्मृति पूर्वे गणायेला ऋषिमोनां वाक्य तेने धर्म जाणवा. माटे याज्ञवल्क्य ऋषि पोतानो अभिप्राय कहे छे के, महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियाय निवेदयेत् तट्टीका-मिताक्षरालक्षणसंपन्नाय श्रोत्रियाय तत्प्रीत्यर्थ परिकल्पितोयं न तु दानायव्यापादनाय वा कर्मणा मनसा वाचा यन्नाधर्म समाचरेत् अस्वयं लोकविशिष्टं धर्ममप्याचरेन तु । तहीका मिताक्षरा. धर्म विहितमपि लोकविद्विष्टं लोकानभिशस्ति जननं यथा मधुपर्के गोवधादिकं नाचरेत् । यस्मादखर्यमग्निष्टोमीयवत्स्वर्ग साधनं न भवति ॥ ११५ ॥ देवतादिकने पशु आदिक- अर्पण करधू ते काई मारषाने अर्थे नथी. ते तो देवतादिकने अर्पण करेला प्राणिने अभयदान आपवाने अर्थे . आ वस्तु देवादिक मोटा पुरुषनी थई छे. माटे एनो कोई अपराध करें नहीं, ते जीव निर्भयपणे आनंदमां रहे तने जोईने पशु आदिकन अर्पण करनार उपर ते देवादिक प्रसन्न थाय छे, माटे प्रीत्यर्थे कहतां प्रीति अर्थे निवेदन करवो. वळी आ पशुहिंसा शास्त्रविहित छे. ए पोताने मिथ्या धर्माभास जाणतो होय, तो पण ते धर्म, लोक विद्विष्ट कहेतां सजन पुरुषोने प्रशंसा करवा योग्य न होय तो तेनुं आचरण न करवं, शरीर, मन, वाणीथी ते धर्मनो त्याग करवो, केमके तेमांथी परिणाम सारं फळ थतुं नथी. तथा च बढचब्राह्मणे तस्मादेष एतेषां पशूनां प्रयुक्ततमो यहजस्तेऽजमालभंत । सोनादाब्धादुदक्रामत्संज्ञा प्राविशतस्मादियं मेध्या भवत्तस्यामन्ववायन्सोनुगतो ब्रीहिरभवदिति वदनुं शतपथ जेम ब्राह्मण छे तथा ऐतरेय ब्राह्मण छे तेमां बहुवचनामे ब्राह्मण छ तेमां तो घणी वात छ पण तेमांनो एक लेश मात्र दिगप्रदर्शन आप्रकारे के के. सविता नारंमकालनी ने वात के ते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३७ निरंतर लेवाती मथी. एटले अन्ननी उत्पत्ति थया पहेंलानी जे यात छे ते अन्ननी उत्पत्ति थया पछी न लेवी एम आ वेदनी श्रुतिनो तात्पर्यार्थ छे. यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः अजेन यजेत् ॥ इत्यादि वाक्योने देखी मोह पामी भडकी मरता ब्राम्हणो, वेदना ब्राह्मणनो अर्थ तपासता नथीज केमक - अन्नमध, गोमेध, अश्वमेध, इत्यादि शब्दोमां जे मेव शब्द संभळाय छ. ते मेध एटले एक जातनी कोई अदृश पवित्रवस्तु ज यज्ञमां खप आवे छे ते मेध पशुनी मध्ये अजनामे पशुमां रहेतो हतो त्यारे यज्ञ करनारे अजनुं आलंभन कर्यु एटले यज्ञमां वापरवाने लेवा मांड्या, त्यारे ते मध तेमांथी उडीने अश्वमां पैठो त्यारे अश्वने आलंभन करवा लो. ने तमांथी उडी गायमा पेठो त्यारे गायने आलंभन करवा लीधी. त्यारे मेघ हतो ते अश्वमांथी उडीने अनक्रमे छेवट अन्ननी उत्पत्ति थया पछी अन्नमां प्रवेश करी व्रीहि कहतां डांगररूपे थयो. मांटे हालमां पशने ठेकाणे अन्ननुं ग्रहण करवुं अने अजेन कहेतां न उत्पन्न थाय एवा धान्यवडे यजन करवुं एटले देवतानुं पूजन कर. आ प्रकारे साक्षात् वेदमांज पश हिंसानो निषेध उघाडो देखा तो छे. पण तेने ना देखीने लोकोए हिंसानुं प्रर्वतन कर्यु हे ते उपर भारतादिकनुं प्रमाण प्रथम देखाडयुं छे. ; वली ( तेवी हिंसा रहित शुं शुं ) तेना उत्तरमां. भारते मोक्षधर्मे. पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम् । यज्ञियाश्चव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ यच्चापि किंचित्कार्त्तिव्यमन्नं चोक्ष्यैः सुसंस्कृतम् । महत्सत्वैः श्रुद्धभावैः सर्वदेवार्हमेव च ॥ दूधपाक एटले दूधथी उत्पन्न थयेलां पदार्थ वडे देवपूजन करवुं तथा यज्ञ करवा योग्य एटले देव पूजनमां खप आवे एवा वृक्ष वेदमां गणान्या छे. तेने वृक्षमांथी तथा शेरडी ईत्यादिमांथी उत्पन्न थयेलां पदार्थो वडे तथा होमादिकमां तेते वृक्षनी समिधा वडे एटले काष्टवडे देवकार्य करवुं वळी नवरात्रने अंते पूजनमांतो नवान्न कहेतां डांगर प्रमुख जे नवुं अन्न उत्पन्न थयुं होय, अने शुद्ध भावथी सारा पुरुष चोख्खाई पवित्राई पालीने रांध्यं होय ते सर्व देवतानां भोगमां खप आवेछे, एम मोक्ष धर्ममां कहां छे वळी श्रीमद् भागवतमां वी कथा छे के श्रीकृष्ण भगवाने पोताने वसुदेवने त्यां जन्म धारण करवी हतो त्यार पहेलां योतानी मायाने ( माताने ) एवी आज्ञा आपकि तुंपण (गच्छ देवी प्रथम ) मंदजीना ज ૧. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रत्ये ना अने सां जन्म धारण कर अने तने लोक पूजशे अने घणुं मान करशे अने तारां घणां नाम थशे ईत्यादि. दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ॥ माया नारायणीशानी शारदेत्यंबिकेति च अर्चिष्यति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरप्रदां ॥ इत्यादि भगवद्वाक्यना प्रतापथी आ लोकमां देवी- वहुमान थयुं अने विजया एवं पण ते देवीनाम छे, तेनुं नवरात्र व्रत छे तेने अंते विजया देवीन पूजन करवान कहयु छे. माटे विजया . दशमीनुं व्रत राजा लोकोन दिग्विजय करवामां घणुं मददगारी थायछे. तेथी ते पर्वभाराधान करवु पडेंछे. अने स्कंद पुराणना श्रीकृष्णजन्म खंडमां ए देवी पार्वतीनो अवतार छे. एम कहयुं छे माटे ए उज्वल देवीछे पण जेवीक शिकोतरी-झांपडी-उच्छिष्ट चंडालिपी इत्यादि मलिन देवीओ जेवी ए देवी नथी. माटे एनी पूजा आराधना विष पशुहिंसा रहित अनेक प्रकारनां शुद्ध बलिदान आपवां ते योग्य छ भने तेथीज ते देविनी प्रसन्नता थायछे. कारण के जे उत्तम देवताछे तेनां नैवेद्य पण उत्तम छे ते स्कंद पुराणना वासुदेव माहात्म्यने विषे गणाव्यां छे त त्यांथी जो जो. बली ए देवी- जेवु विनया नाम छे तेवू भद्रकाली नाम पण छे ते नाम प्रथम गणाव्यां छे. ते भद्रकालीने पण पशुहिंसा करी दशरा विगेरे पर्वने विषं वलिदान आपq ते प्रीतिकारक नथी उलटुं कोपकारक छे. ते उपर श्रीमद् भागवतमां पंचम स्कंधना जर भस्तना आख्यानमां जुओ ते इतिहासनो अतिसंक्षेप अन्यपुराण ग्रंथनो मतलई दिगप्रदर्शन करुंछु के ईक्षुमतीना तरनेविषे त्यांना रहनारा राजाए भद्रकालीने अति प्रसन्नता करवान कोई वैदिक विद्वान् पुरुषने पूछ्युं के मारे पुत्रादिकनुं सुख नथी माटे आपणा गामने समीपे मंदिरमा रहेलां श्री भद्रकाली देवीनी मारा उपर अतिशे प्रसन्नता थाय ते बलिदान आपवानु छ माटे देखाडो ? त्यारे तेणे विचार कर्यो के वेदमां (पुरुषं पशु मालभते ) पुरुष पशु- स्मरण प्रथम कथुछ माटे पशुन बलिदान आपवा करतां पुरुष पशुन बलिदान आपq त श्रेष्ट छे. एम विचारीने कहयुं के लक्षणवंत पुरुष पशुने लावी तेने स्नान, पान, खान पुष्कळ करावी वस्त्रालंकारथी सुशोभित करी सुगंधी मान पुष्पना घणाहार पेहेरावीने भद्रकाली देविने बलिदान आपोतो तमारं कार्य सिद्ध थाय. आ प्रकारनुं वचन सांभळी प्रसन्न थई ते राजाए लक्षणवंत पुरुष पशुने खोली लाववाने पोताना बुद्धिमान घणा माणसने दिशोदिश दोडाव्या ते वखत जड भरतजी पोताना वडीलनी आज्ञाथी खेतरना कयारडामां पाणीवाली लाववानं काम हाथमां पावडो झालीने काता हता; अतिशे हट पुष्ट रूपाला अने जड पुरुषनी पेठे जेमतेम बोली जेमतेम काम करता राज पुरुषोए दीठा; पछी तेमणे विचार कर्यो के आपणा राजाए जवां लक्षण कह्यां हता तेवां सर्वलक्षण संपन्न आ पुरुष छे एम धारी तेमने झाली लात्री राजाने अर्पण कर्या. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाए पण प्रथम जाणेला विधिए सहित ते पुरुषना सर्व संस्कार करी कुटुंबसहित बाजते गाजते तेने भद्रकालीना मंदीरमां लई गया. त्यां पण ब्राह्मण लोकोए होम हवननी संपूर्णता करी बलिदाननी वखते ते पुरुषने पुष्कल शणगारीने भद्रकाली देवीनी सन्मुख उभा राख्या. ते वखते जडभरतजी तो ब्रह्मनिष्ट छे माटे मरवानो भय न राखीने सारीपेठे राजीपणामां उभा रह्या छे. अने चारे पास राजा प्रमुख लोको उघाडी तरवारो करीने ते पुरुष पशुनो वध करवाने उभा रह्या छे. ब्राह्मण लोकोए मंत्राचारणमा गर्जनाओ करवा मांडी छे. अनेक प्रकारनां वाजींत्रनो ध्वनि चारे पास थई रह्यो छे ते बलिदान आपवानी वखते भद्रकाली देवीनो एवो कोप थयो के पाषाणनी प्रतिमा फाटीने तेमाथी पोते देवी साक्षात् प्रगट थईने पोताना सहस्त्रभुजाए करीने मारनार लोकोनी तरवारो तेमनां हाथमाथी झुंटावी लईने तेज तरवारो वडे ते सर्व लोकनां माथां एकदम कापी नाख्या. ते माथाने दडानी पेठे आकाशमां उछळीने पोतानी सखियो साथे रमत करी एवी कथा छे. माटे उत्तम पुरुष पशुना बलिदानथी एटलो बधो कोप थयो तो बिचारां गरीब अधम पशुने मारी बलिदान आपवाथी केटलो बधो कोप थशे तेनो विचार करवो जोईए. अनुशासनिक पर्वणि अध्याय ११५. नाभागेनोबरीषेण गयेन च महात्मना ॥ आयुनाथा नरण्येन दिलीपरघुकुरुभिः ॥ ६८॥ कार्तवीर्या निरुद्धाभ्यां बहृषेण ययातिना ॥ नृगण विश्वगश्वेन तथैव शशबिंदुना ।। ६९ ॥ युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशा नरेण च ॥ मुचुकुंदेन मांधात्रा हरिश्चंद्रेण वा विभो ॥ ७० ॥ श्येना चेत्रेण राजेंद्र सोमकेन रकेण च ॥ रैवते रंतिदेवेन वसुना संजयेन च ॥ ७१ ॥ एतैश्चान्यैश्च राजेंद्र कृपेण भरतेन च ॥ दुष्यंतेन करूपेण रामालर्कनरैस्तथा ॥ ७२ ॥ विरूपाश्वेन नामिना जनकेन च धीमता ॥ ऐलैन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव हि ॥ ७३ ॥. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० इक्ष्वाकुणा शांभुना च श्वतेन सगरेण च ॥ अजेन धुंधुना चैव तथैव च सुबाहुना ॥ ७४ ॥ हर्यश्वेन च राजेंद्र क्षुपेन भरते न च ॥ एतैश्चान्यैश्च राजेंद्र पुरा मांसं न भक्षितम् ॥ ७५ ॥ शारदं कौमुदं मासं ततस्ते स्वर्ग माप्नुयात् ॥ ब्रह्मलोके च तिष्ठति ज्वलमानाः श्रियान्विताः ॥ ७६ ॥ तदेतदुत्तमं धर्म महिंसा धर्मलक्षणम् ॥ ये चरंति महात्मानो नाकपृष्टे वसंतिते ॥ ७७ ॥ मधु मांसं ये नित्यं वर्जयंति हि धार्मिकाः ॥ जन्मप्रभृति मघं च ते सर्वे मुनयः स्मृताः ॥ ७८ ॥ अनुशासनिक पर्वणि अध्याय ११५ यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत्सुदारुणम् ॥ यश्चैवं वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम ॥ ६२ ॥ कोमुर्द तु विशेषेण शुक्लपक्षे नराधिप । वर्जयेन् मधु मांसानि धर्मोत्र विधीयते ॥ ६३ ॥ चतुरो वार्षिकान्मासान्यो मांसं परिवर्जयेत् ॥ चत्वारि भद्राण्याप्नोति कीर्त्तिमायुर्यशो बलम् ॥ ६४॥ अथवा मासमेकं वै सर्व मांसान्य भक्षयन् ॥ अतीत्य सर्व दुःखानि सुखंजीवेनिरामयः ॥ ६५ ॥ वर्जयंति मांसानि मासशः पक्षशोपि वा ॥ तेषां हिंसा निवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते ॥ ६६ ॥ इति सत्यम् ७ सातमां प्रभनो उत्तर आ प्रश्ननो उत्तर प्रथम प्रश्नोना उत्तरमां अतर्भत थई जाय छे; तो पण तेने अ नुसरी काईक खुं हुं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुवध करवाने बदले से पशुने नाक, कान, काप्याविना पूजन करी अबील, गुलाल विगेरे सौभाग्यवस्तुथी अंकित करी चिन्हवालां करी, अभेददान अपी छूटुं मुकी दीधामां आवे तो क्रिया संपूर्ण थई गणाय कोई शास्त्रमा पशुनां नाक कान कापवानां कह्यां नथी. माटे शास्त्रवचन रहित निर्मूल पोतानी गांठनुं गप्पुं मारी भोळालोकने भमाववा ए विद्वाननुं लक्षण नथी. मा प्रकरणने शोभावनार स्मरणमां आवेलां साहित्यनां बे काव्य विद्वान् लोकनी सेवामां निवेदन करुं छं. ते काव्यनुं संगति कारण आ प्रकारर्नु छ के कोई जगाए यज्ञ थतो हशे तेमां होमवाने पराणे झाली आणे तो बोकडो पोतानी जातना शब्दो करे छे.. तेने. जोई यज्ञ करनार राजाए त्यां ओचिंता आवेला कोई तत्वज्ञानी पुरुषने पूछयु के आ बोकडो शुं बोलतो हशे ? त्यारे ते तत्वज्ञानी पुरुषे राजाने प्रतिबोध करी पशुने छोडाववावास्ते बे काव्य कह्यां छे. जेमके नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितोनाभ्यर्थितस्त्वं मया संतुष्ट स्त्रणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव ॥ स्वर्गे याप्ति यदि त्वया विनिहिता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथाबांधवैः॥१॥ ते वखत कोई बोकडमार वृद्ध विद्वान् बोल्यो के ए बोकडाना नाक, कान कापीने काढी मूको. तेना जवाबमां वळी बोकडो बोल्यो के हे साधो मम कर्ण नासिकमलं छेत्तुं वृथा भाषसे किं न खव्यभिचारिणी प्रियतमापुत्रोश्च पुत्रस्य च ॥ सवस्वग्रहणायतस्य विहितभ्रूणप्रणाशश्वसुमातुश्चापि कथं छिनत्सि न ततच्छेत्तुं त वै वोचितम् ॥३॥ हे साधु तारं कुवचन छ एटले तुं उपरथी तो साधु कहेतां साय माणस जको देखाऊं र्छ पण अंतरथी तो घणो मेलो असाधु छु. केमके मारा नाक, कान कापवात तो अलं कहेवां अतिशे वृथा छे, शाथीके अपराधी होय तेनां नाक, कान कापवां जोईए. अने हुं तो निरपराधी हुँ माटे तारा घरवालानां नाक, कान कापवां योग्य छ. तेनां केम कापतो नथी एम देखाडे छ के-तारी प्राणप्रिया स्त्री तथा पुत्री ते तो व्यभिचारिणी छे. तथा तारो पुत्र सर्वनुं धन चोरवामां तत्पर छ. अथवा तारी यत्किंचित् मात्र धनादि. वस्तु तेने बानो उद्योग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ करे के केहेता ने मारी नाखीने तारी मालमता लेवाना उद्योगमां छे. अने तारी बालविधवा बेन छे ते गर्भपात करे छे अने नांनपणथो तारा बापविनानी थयेली तारी मा पण एज कर्म करे छे तो पण तेमनां नाक, कान कापवानुं केम कहेतो नथी. माटे हवे तो तारांज नाक, कान कापवां योग्य छे. अर्थात् तारुं स्वजन कुटुंब जे खरं दोषनुं मत छेतेने शिक्षा करावतो तथी. अने हुं जेवा अनाथ पामर निरपराधी जीवने तु तत्पर छे तेथी जो नाक कान छेदवां योग्य शिक्षा करवा राजा इछता होय तो तनेज करवी घटेछे. ३ मारवाने विषे आ प्रकारनां वचन सांभळी राजाए पशुहिंसानो त्याग करी हिंसक ब्राह्मणनुं मुख पण न जो एवो नियम लेई तत्वज्ञानीनो समागम करी काले करीने मोक्ष पाम्यो. एवी वात वृद्धपरंपराथी सांभळवामां आवी छे आ कालमां पण केटलाक विचारवा लायक पुरुषो कुकडां विगेरे पशओने कांईपण क्षल कर्या विना माताने अर्पण करी तेने कोई मारे नहि एवा बंदोबस्तथी रमता मुकेछे. हवे आ अहिंसा निबंधनों आरंभ वेदना प्रमाण आपी कर्यो हतो तेमनी समाप्ति पण वेदना प्रमाणथी करुंकुं. सर्व प्रमाणमां वेदप्रमाण मुख्य छे ( वेद प्रमाणम् ) एम प्रसिद्ध छे माटे अने ते वेदमां पण सामवेद मुख्य छे केमके भगव - द्गीतामां श्रीकृष्ण भगवाने कहयुं छे केः : वेदानां सामवेदोऽहं । वेद मध्ये सामवेद ए माई स्वरूप छे, ते सामवेदनुं उपनिषत् कहेतां साररूप ( केनोपनिषद् - तस्यैव अन्यन्नाम तलवरोपनिषद् ) छे. ते उपनिषद्ना चोथा खंडमां कहयुं छे के - योवा एता मेवं वेदापहत्य पाप्मान मनंते स्वर्गे लोके ज्येये प्रति तिष्ठति ॥ हिंसादि पापनो परिहार करवाथी स्वर्गादिक सुख भोगवायं छे. पण पाप करी सुखी थवातुं नथी. एवो वेदादिक सर्व शास्त्रनो अभिप्राय समजी अज्ञानपणांमांथी चाली आवती हिंसा करवा रूप अंधपरंपरानो परित्याग करवो. शास्त्रिणा रामचंद्रेण दीनानाथ समुद्भुवा || अहिंसायाः प्रबंधोयं रचितोsस्तु सतांमुदे ॥ १ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदुक्तं श्रृणु राजेंद्र सार्थके तेऽपि नामनि एक मात्रापरित्यामा. न्मोहनो माहनो भव ॥२॥ खशरांक मृगांकाब्दे नभस्या माहि वैक्रमे पूर्णकृतः प्रबोधोयं पशुहिंसा पराङ्मुखः ॥ १॥ शास्त्रि रामचंद्र दीनानाथ. अमदावाद हालमां मुंबई. ॥ समाप्त. आ पुस्तकमांना अभिप्रायोना लेखोनी कापी लखनारे घणीज अशुद्ध लखी हती. परंतु तेने अमोए घणीज मेहनते यथामति शुद्ध करी प्रसिद्ध करी छे. तो पण एमां मतिमांद्यथी अथवा प्रमादथी जे दोष रह्यो होग तेनी कृषापर सूज्ञो क्षमा करी,सुधारी वांचशे. अने करेला महत् प्रयासनुं साफल्य करशे एवी नम्र विनंति छे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attttttttitikthaktttttttttttttttttttttttttis पशुवध निषेध. भाग ३ जो. T W ITTTTTTTT ** * ****** **** Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार. पशुवध बंध करावया संबंधमा करवामां आवेलो प्रयास. गये वर्षे दशराना तहेवारो उपर हिंदुस्थानमा जे पशुवध थायछे ते बंध कराववाना हेतुथी आपणा देशना तमाम देशी राजा महाराजाओ तथा जागीरदारोने आ पशुवध बंध कराववा अर्थ लगभग ३०० विनंतीपत्रो गुजराती, मराठी, हिंदी अने अंग्रेजी भाषामां छपावीने मोकलवामां आव्यां हतां जेनी नकळ नीचे प्रमाणे छे. श्री जैन श्वतांम्बर कोन्फरन्स ओफीस . चंपागल्ली मुंबई, ता. गोब्राह्मणप्रतिपाल, निराश्रिताधार, आर्यभूषण, प्रजापालक, न्याय-दया-क्षमा__ आदिगुणालंकृत, धर्मधुरंधर, महाराजाधिराज महाराजजी साहेब. श्री श्री १०८ नी खीदमतमा अरज मालुम थायजे जेम अमे सांभन्युं छे तेम दशराना पवित्र अने धार्मिक दिवसोमा हजुरना राज्यमां पाडा बकरांओनो वध करवामां आवेछे. देवीने भोग आपीने संतुष्ट करवाना इरादाथी आ वध करवामां आवेछे, जेथी करीने महामारी [प्लेग ] शीतळा, कोलेरा, आदि दुष्ट बिमारीओनी आफतो वस्तीमां आवे नहीं; परंतु दर वरस आवो वध थतां छतां प्लेग, कोलेरा, शीतळा, ताव, दुर्भिक्ष (दुकाळ ) आदि आफतो हिंदुस्थानमां आव्येज जाय छे. राजाथी रंक सुधी सर्वेने पोताना पूर्व जन्मना कर्मानुसार सुख दुःख भोगवईं पडे छे, अने आ आफतो केवळ मनुष्योना पापोनी शिक्षारूप छे. आ पापोथी बचवाने वास्ते माणस निरपराधि (निर्दोष ) अवाचक ( मुंगा) जानवरोनी हत्या करे आ केवो न्याय ? | आवा न्यायथी सर्व शक्तिमान परमेश्वर राजी थशे ? कदी नहीं. नामदार अंग्रेज सरकारना राज्यमां पण वखतो वखत मरकी (प्लेग) विगैरे बीमारीओ आवेछ भने कुदरतथी नाबुद थायछे, तेवा रोगोनी शांतता माटे काई पाडी आदीनो पशुवध थतो नथी; परंतु तंनदुरस्तीना नियमोने अनुसरवामा इलाज लेवामा आबेछे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] पशुवध शास्त्र रीति नथी, आवो निर्णय मोटा मोटा विद्वान शास्त्रीओनी सभाओोमां घणीएक वार थई चुक्यो छे, अने आवा असल शास्त्रना अनुसार केटलाक धर्मिष्ट राज्य कर्ताभए आ पशुवध पोतानी वस्तीमां सर्वथा बंध करावी, ते जानवरोनी नेक दुवा प्राप्त करीछे. हजुर रहमदिल, बुद्धिमान अने न्यायी होवाथी अमारी अरज छे जे दशराना दिवसे आपना राज्यमां पाडा, बकरां विगेरेनो वध बंध करवानो हुकम जारी करवानी मेहेरबानी फ़रमावशो अने सनातन आर्यधर्मनी रक्षा करशो. -एज अरज. हजुरनो दानानुदास, ( सही ) वीरचंद दीपचंद सी. आई. ई. जे. पी. रेसीडंट जनरल सेक्रेटरी. आ विनंती पत्रोनी साये पशुवध निषेधनो प्रथमभाग पण घणीज ताकीदश्री जे जे - ठेकाणे भाषा समजी शकाय तेम हतुं त्यां मोकळवामां आव्यो हतो. आ तजवीज दशराना •नवारो घणाज नजदीक आव्या त्यारे करवानुं बनी शक्युं हतुं कारण के अभिप्रायोनुं पुस्तक मेळववामां ढीळ थई हती. तो पण घणीज मेहनते प्रथमभाग छपावीने मोकळवामां आव्यो हतो. दशराना तहेवारो पहेलां १५-२० दिवस पहेलां जो आ अरजी अने पुस्तक मोकळवानुं बनी शक्युं होत तो हाल जे परीणाम आव्युं छे तेथीपण विषेश परीणाम आव शकते अने आवते वर्षे जो योग्य वखते तजवीज करवामां आवशे तो जरुर विषेश लाभ थवा संभव छे. पोनाने त्यां पशुवध बंध थयेलो एवा केलांएक ठेकाणेथी आवेलो उत्तर. आ विनंती पत्रोना उत्तरमां नीचे जणाव्या प्रमाणे ठेकानेथी पोताने त्यां पशुवध थतो नथी एवा उत्तरो आज्यां हतां तो आ राज्यकर्ताओनो मुंगा अवाचक प्राणीओ तरफनी तेमनी लागणीने माटे अमे अंतःकरणथी उपकार मानीए छोए अने बीजा रजवाडाओने पण तेमने पगले चालवा विनंती करीए छीए. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मोरबीना ठाकोर साहेब, विजावरना महाराजा साहेब, गोंडलना ठाकोर साहेब, सायलाना ठाकोर साहेब, बोविलीना महाराजा, ध्रांगधाना महाराजा साहेब, कोठडा सांगाणीना ठाकोरसाहेब, लींबडीना ठाकोरसाहेब, पाटडीना ठाकोरसाहेब, खंबातना नबाबसाहेब, मादीनाना महाराजा साहेब, बरावना राजासाहेब, राजूलाना महाराजा साहेब विगेरे विगेरे. www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] आ वर्षना प्रयासवें थोडं पण शुभ फळ अमे उपर कही गया ते प्रमाणे आ वर्ष मोडुं थई गयाथी आपणा दयालु राज्यकर्ताओने आ संबंधमां योग्य विचार करवाने वखत मल्यो हतो नहि. अने तेथी करीने फकत नीचे जणावेळ स्थळो शिवाय बीजे ठेकाणे आ विनंती पत्रोनी असर थयेली जाणवामां आवी नथी. स्वस्थान जांबुवा, जामनगर, डुंगरपुर, वांसदा, रामपुरा, पाडीआ, गांफ,घसायता विगैरे. पशुवध निषेध अने वर्तमान पत्रो. अमारा तरफथी मोकलवामां आवेलां विनंती पत्रोना संबंधमा नीचे प्रमाणे लेखो हिंदना जुदा जुदा भागना जाहेर वर्तमान पत्रो जेवाके, मुंबईसमाचार, अखबारे सोदागर, अखबारे इसलाम, जामेजमशेद, सयाजीविजय, मोहिनी, गुजरातमित्र तथा गुजरातदर्पण, गुजराथीपंच, जैन, जैनविजय, धी इंडियन एडवर टाइझर, हिंदु पॉट्रियेट, पंजाब टाइम्स, एडव्होकेट, रंगून गॅझेट, जबलपुर पत्र विगेरेए पोतानुं मत प्रगट करी आ दुष्ट रिवाज तरफ प्रजानुं ध्यान खेच्यु हतुं जे माटे अमे अत्र तेमना उपकार मानीए छीए. जैन श्वेतांबर कॉन्फरन्स. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुवधनिषेध. भाग ३ जो. नं.१ स्व. श्री भारी-२ सारीस, ता. २९-८-१८०९. શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કેન્ફરન્સ તરફથી. मि. वीरथ हीपय. આપણુ તરફથી તા. ૨૦-૯-૦૬ ને સૂચીપત્ર ખડાનેક નામદાર મહારાજા સાહેબ હજુરમાં પહોંચે છે. તેના જવાબમાં ફરમાનથી લખવાનું કે આ સ્વાસ્થાનમાં દશરાને દિવસે કેઈપણ જાતને પશુવધ કરવામાં આવતું નથી, જેથી તે ખબર જાણી આપે भुशीयार छे. ता. सह२. પ્રાણજીવન રાજપાલભાઈ २ शिरस्ते॥२, २५. मा२०. नं.२ विजाचर ता. २४-९-०६. महाशय, आपका पत्र ता. २० सितंबरका श्री मानसवाई महाराजा साहिब बहादुरकी सेवामें पहुंचा. आज्ञानुसार लिखता हूं कि इस रियासतमें कोई पशुवध दशहरा ( विजयादशमी) को नहीं होता किंतु पशुके बदले कुमडाका फल देवको समर्प किया जाता है वैश्नवी पद्रित पूजनकी है. आपका शुभचिलक, दुर्गाप्रसाद. प्राईवेट सिकचर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨] નં. ૩ ડેલ. તા. ૨૫–૮–૧૯૦૬ સકલસમ્યગુણગણલંકત રા. રા. શેઠ વીરચંદ દીપચંદ. સી. આઈ. ઈ. ઈત્યાદિ, મુંબઈ વિશેષ વિનંતી કે આપને ચાલતા માસની તા. ૧૮મી નો પત્ર અમારા નામદાર મહારાજા ઠાકોર સાહેબને મળતાં તેના ઉત્તરમાં અહીંના રાજ્યમાં દશરા કે એવા કે માંગલિક દિવસોએ પાડા કે બકરાંનો વધ થતા જ નથી. એવા ખબર પિતાના સલામ સાથે આપને આપવા તેઓ સાહેબનું ફરમાન થએલું છે તે વિદિત થાય, તા. સદર. લિ. સેવક. મણલાલ ગોવીંદરામના યથાયોગ્ય. નિં૪ સાયલા. તા. ૨૦–૮–૧૮૧૬. શેઠ વરચંદ દીપચંદ. સી. આઈ. ઈ. જે. પી. મુંબઈ આપનો તા. ૧૮-૯-૧૬ નો પત્ર અમારા નામદાર ઠાકોરસાહેબ ઉપર આવ્યો. જેમા ટુંકા વિસ્તારથી દશેરાનાં પવિત્ર દિવસે પશુવધ અટકાવવા વિગેરે માટે જે શિક્ષણતા બતાવેલ છે તેના સંબંધમાં પ્રત્યુત્તર લખવા ફરમાન થતાં આપને લખવા હાંસલે કે, આ સંસ્થાનમાં દશરા યા કોઈપણ દિવસે પશુવધ યાને જીવહિંસા મૂલથીજ કરવામાં આવતાં નથી. આવું સ્તુતિપાત્ર પગલું જે આપે ભરેલું છે. તેને માટે આપને ધન્યવાદ ઘટતાં એ આપની ઉજવળ સુકીર્તિનાં ચિન્હ છે. આ પ્રસંગે અમારે જણાવવાની જરૂર પડે છે કે, હાલમાં હિંદુસ્થાનમાં કેટલાક ભાગમાં ગોવધ થતે કહેવામાં આવે છે તે તરફ આપે મજબુત ઉપાયે ગ્રહણ કર્યા હશે તે પણ એ વિષે ખાસ જરૂર જોઈતા ઉપાયે લેવા ભલામણ કરીએ છીએ તા. સદર. KALLIANJI. આ. કારભારી-સાયલા, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () a.es BOBBILI, 25-9-1906. SIR, I am desired by the Maharajah of Bobbili to acknowledge your letter of the 21st instant and to inform you that there is no custom of sacrifices of animal to the goddess in these parts except in rural villages as you supposed. Yours faithfully, W. K. SARMA. HAZUR WRITER. Huzur Office, नं.६ DHRANGADHRA 21-9-6 The Resident general secretary Jain Swetamber conference office, Champagali, Bombay. SIR, I have the honour under instructions from His Highness the Maharaja Rajsaheb to acknowledge the receipt of your letter of the 18th instant and to state that the killing of an animal on the Dasara holiday was a religious rite performed in the Jhala family of the Rajputs whose head His Highness the Rajsaheb is, but that since his accession to the gadi, which went took place in December 1900, His Highness has prohibited this ceremony out of regard to the common principles of humanity so nobly cherished by the Jain community, The right has ceased altogether in this state and I may remind you, that His Highness' action was myde the subject of a congratulatory address presented to His Highness when he visited Bombay in 1902 at à public Meeting of which you were the president. I have the honour to be Sir, Your most obedient servant Parshurain B, Purmarker Private Secretary to. H.H. the Rajsaheb Dhrangadra. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] नं.७ सूनी राजधानि. ___ ता. २० अकतूवर १९०६. यथायोग्य श्रीकारपूर्वक जैनश्वेताम्बर कॉन्फरन्स रेसिडंट जनरल सेक्रेट्री साहिब. आपका प्रेषित पत्र २३-९-१९०६ का प्राप्त होकर असीमाल्हाद हुवा. सो धन्यवादादनन्तर जवाबन् तेहरी रहे के इस हमारे राज्यमें असी पचास व पचपन सालसे दशहरा आदि नवरात्रेकी देवी पूजामें पाडा वगैराके बलिदानकी रस्म मेरे पिताजी साहिबके समयसे बिलकुल मोकूफ की गई है. जिसकी पुष्टिमें हमनेभी यथाशक्य सहायताकी और आई. दाके लिये भी इस कुरीतिके रोकनेमें तत्पर हुं. याने जहांतक मुमकिन् हे वकरां वगैरह वेजवान् पशुओंके वध रोकनेका उपाय भी किया जाता है और उन्की रक्षाका ख्याल रखा जाता है. और हमारी हरगीज येः मनशा नहि है के किसी भी किस्मके वेजवान् पशुकी हिंसा हो यतः यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ॥ सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजगुप्सते ॥ अन्यच्च ॥ सर्वभूतेषु चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि ॥ समपश्यन् ब्रम्ह परमं याति नान्येन हेतुना ॥ अतएव । अहिंसा पूर्वको धर्मः यस्मात्सद्भिरुदाहृतः ॥ इति ॥ परन्तु हमारे इन पहाडी राज्योमें क्षत्रियजाति और विशेषतः शूद्रजातिकी आधिक्यता अनेकी वजेसे विजयादशमी आदि देवी पूजाके अतिरिक्त विवाहाऽऽदिक उत्सवोमेंभी वक्तन् फरवक्तंन् बकरे आदि भक्ष्य जीवोंका वध कर्ते है. इस्को उक्त जातीय शस्त्रविद्याके संबंधों स्वजातीय धर्मख्याल. कर्ते है. इस्के रोकनेपर ये उजर कर्ते हैं के यदि इस रस्मको बंद किया जायगा तो शस्त्रसंचालन विद्याके त्यागसे हम और आइंदा हमारी सन्तती ऐसी वुजदिल हो जायगी के भालू वगेरह जंगली दरिंदे जानवरानसे अपनी मवेशी और खेतीवाडी जिसपर हमारी जिंदगीका दार व मदार है रक्षा कर्नेमें असमर्थ हो जायगी. सो यदि जीवहिंसा वंद कर्नेके लिये उक्त प्रजासे वलात् शस्त्र लेनेकी चेष्टा की जावे तो इस्से प्रत्यक्षतः तीन हानि जे होती हैं ( १) स्वजातिद्वेष, (२) प्रजाद्वेष (३) प्रजादुःख अगर इस्को एक प्रकारका प्रजानाशभी कहा जाय तो इस्मे व्याजोक्ति और अत्युक्ति दोष नहीं है. क्योंके शस्त्रोंके ही वलसे पहाडी प्रजागण दरिंदा व गुजन्दा जंगली जानवरानसे अपनी जान और विशेषतः खेतोंके अनाजकी रक्षा कर्ते हैं. परन्तु दृढ आशा की जासक्ती है के ज्यों ज्यौं विद्याका प्रचार वृद्धिको प्राप्त होता जायगा और साथ साथही अहिंसा परमोधर्मः । और योऽतियस्य यदा मां समुभयोः पश्यतान्तरम् ॥ एकस्य क्षणिका प्रीतिरन्यः प्राणैर्विमुच्यते ॥ १ ॥ ऐसे ऐसे भयोत्पादक हिंसानिवृत्तिके सदुपदेशभी होते रहेंगे तो स्वतः प्रजावर्गके मनमें दयाका अंकुर उत्पन्न होकर धीरे धीरे विद्युत्सरूप धारण करके इसकुं प्रथाके हिंसारूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૧] वृक्षको छिन्नभिन्न करके निर्मूल कर देगा. परन्तु इसमें उद्यमकी आवश्यकता है, सो महाशय करही रहेहैं अपरंच हम आपके लेखको स्वीकृत करके कोटिषः धन्यवादा दनंतर जिन हमारे पंजाबप्रातकी राजधानीओमें अग्नी रूढी कामना सिद्धि के लिये पाढोंका वकस्रत बलिदान या वेरहभीसे वध होता है उनके नाम सूचनार्थ जेलमें दर्ज करते हैं. नाम राजधानी (१) કુત, (૨) માડી, (૨) ના કયારામુવી, (૪) નાહન સાઁ, (૧) રદ भजुगा-आदि और इस प्रान्तकी छोटी छोटी चन्द राजधानी जे है सो आप इन नरेंशोकी सेवामें इस पशु क्लेश निवारक पत्र भेजनेका यत्न करें. और किसी संस्कृतज्ञ उपदेशक पण्डित साहिबकोभी इन नरेशोंकी सेवामें भेजनेका उद्यम करे. परन्तु उपदेशक साहिब इन राजधानीओमें जानेसे पेश्तर मुझसे साक्षात्कार करतेवे क्योंके उन्को इस अमरमें कुलन शेव व फराजम ए इस तर्फकी राह व रस्मके समझादिये जावे ताके हमभी वेदानुकूल उन्की सहायता कर सके वहुनाऽलम्बिशेष्विति ॥ संवत् १९६३ कार्तिक प्र० ४ ॥ ॥ महाराणादि पदवाच्य भज्जो देशाधिप दुर्गासिंह वर्मणः हस्ताक्षराणि ।। નં. ૮ કોટડાસાંગાણું. મેહેરબાન વીરચંદ દીપચંદ સી. આઈ. ઈ. જે. પી. રેસીડન્ટ જનરલ સેક્રેટરી સાહેબ શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સઓફીસ–મુંબઈ. વિ. કે આપના તરફથી અહીંના ખુદાવિંદ ઠાકરસાહેબ ઉપરના દેશી રાજયમાં દશરાના પવિત્ર અને ધામી દિવસોમાં પાડા બકરાને વધ થતો હોય તે તે બંધ કરા વાને હુકમ કાઢવા તથા સનાતન આર્યધર્મની રક્ષા કરવાને ગયા માસના તા. ૧૮ મી ને છાપેલો વિનતીપત્ર મળ્યો છે, તેના જવાબમાં આપને લખી જણાવવાનું કે આપ જાણીને ખુશી થશે કે અહીંના રાજ્યમાં ઘણું વર્ષો થયાં તેવા દિવસોમાં પાડા બકરાંનો વધ બીલકુલ થતું નથી એટલું જ નહિ પણ તેવા મુંગા પ્રાણીઓ તરફ ખુદાવિંદ ઠાકોર સાહેબની ઘણી દયાની વૃત્તિ રહેલી છે. તેમજ ધર્મ તરફ તેઓ સાહેબની લાગણી પણ વિશેષ હોવાથી સનાતન આર્યધર્મની રક્ષા કરવા તેમજ ઉત્તેજન આપવાને માટે હમેશાં તેમના તરફથી કોશીશ જારી રહેલી છે. આપના તરફથી “પશુધના સંબંધમાં હિંદુશાસ્ત્ર શું કહે છે” તે પુસ્તકને ભાગ ૧લે મળ્યો છે ને ભાગ ૨ જે તૈયાર થયે તે પણ મોકલાવવાની કૃપા કરશે. કારણ કે તેમાંથી પણ ઘણું જાણવાનું બની શકે તેવું છે. તા. ૩-૧૦-૬. : " કારભારી-કેટડા સાંગાણી Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૧] નં. ૧ વારાહી, તા. ૨૮-૯-૧૮૬ મિ. વીરચંદ દીપચંદ, સી, આઈ, ઇ, જે, પી, શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સના રેસીડન્ટ જનરલ સેક્રેટરી સાહેબ. આપને તા. ર૮-૯-૧૬ ને પત્ર મલ્ય-વાંચી બીના જાણી. અવાચક પ્રાણીઓના રક્ષણાર્થે આપની પરોપકાર વૃત્તિ તથા જીગર પૂર્વની લાગણી જોઈ અમને પારાવાર ખુશાલી ઉપજે છે અને તે બાબત અમે આપને ધન્યવાદ તથા મુબારકી આપીએ છીએ. અને તેના સંબંધમાં આપને જણાવવાનું કે અમારા રાજ્યની અંદર દશરાની કીયાઓની અંદર તે પવધ બિલકુલ કરવામાં આવતું નથી, એમ જણાવવાનું અને ખુશી ઉપજે છે, એટલું જ નહિ પરંતુ તે રિવાજ આ રાજ્યની અંદર પ્રથમથી જ નથી. તેવાં પ્રાણીઓની તરફ અમે બહુજ દયાની દૃષ્ટિથી જેવા ખુશી છીએ. આપની તન્દુરસ્તી ચાહું છું. આ તરફનું કામકાજ બીજું લખાવશે હાલ એજ. નામદાર હજુર સાહેબનાં ફરમાનથી. લિ. સેવક. Baxi. Head clerk Warahi state. ન. ૧૦ કટોસણા. તા. ૧૬-૧૦-૬. મંગળ. માં જન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સ ઓફીસ. ચંપીગલી-મુંબઈ. આપને ગયા માસની તા. ૨૧ મીને પત્ર મ. તેમાં પશવધ શાસ્ત્ર રીતિ નથી એ વિષે વિવેચન કરી આપે જે મહાન કાર્ય બજાવવા ઉત્સાહ અને ખંતથી મને જે ભલામણ કરી છે તે ખાતે હું આપને અતકરણથી આભાર માનું છું. અત્રે દશરાના તહેવારમાં માતા આગળ પૂર્વના જડ ઘાલી બેઠેલા અજ્ઞાન વિચાસેથી જે પશુવય થતા હતા તેમેં ગયા ત્રણ વર્ષોથી હમેશને માટે બધ કર્યો છે. અને Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -જ્યાં જ્યાં આ તહેવારમાં માતા આગળ પશુવધ થતા માલુમ પડે છે, ત્યાં ત્યાં આગ્રહ ‘પૂર્વક બંધ કરાવવામાં તજવીજ થાય છે. તે પણ આપે સમયાનુસાર જે ચેતવણી આપી આપની ફરજ અદા કરી છે જેને માટે હું ધન્યવાદ આપું છું. અમારા તાલુકામાં આ દશરાના તેહેવારમાં માતા આગળ થતે પશુવય હમેશને માટે બંધ કરેલ છે તેને દાખલે બીજા રાજ્ય કે જ્યાં આવા તહેવારમાં પશુવધ થતું હોય તેઓ લેશે એમ હું આશા રાખું છું. અને એટલા માટે આ દાખલ શ્રી જૈન પેપરમાં પ્રસિદ્ધ કરાવવા આપને હું ભલામણ કરૂં છું. હું-છું આપને ઉન્નતી ચાહક. Takhat sinhji K. ઠાકર શ્રી. તાલુકા કટોસણા. ને. ૧૧ લીંબડી. તા. ૨૭-૯-૧૯૦૬-ગુરૂવાર. મેહેરબાન શેઠ સાહેબ. વીરચંદભાઈ. મુંબઈ. દશેરાના દિવસ ઉપર પશુહિંસા બંધ કરવાના સંબંધમાં આપને તા. ૨૦ મીને પત્ર નામદાર ખુ. હજુર સાહેબ શ્રીને નીઘા રેશન થયેલ છે. તે સંબંધમાં લખવાનું કે આપને લખવું એગ્ય છે. પરંતુ આ રાજ્યમાં તેવા પ્રસંગે કઈ પણ પશુવધ મળથીજ કરવામાં આવતું નથી. તેથી તે બંધ કરવાપણુંજ નથી એ આપના ધ્યાનમાં આવશે. તા-સદર, લી. સે. પ્રભાલ જીવણભાઈના સલામ. સેક્રેટરી ઠાકોર સાહેબ-લીબડી. : -લીબડી. नं. १२ પાટડી. સ્વસ્તિથી મુંબઈ બંદર મહા શુભસ્થાને સર્વે શુભ પમાયેગ્ય શેઠજી વીરચંદ દીપચંદ સી, આઈ ઈ. જે. પી. ની ચીરંજીવી. એતાન શ્રી પાટડીથી લખાવીત રખર Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૮] શ્રી સુરજમલજીના રામરામ વાંચજે. વિશેષ આપને પત્ર તા, ૧૮-૯-૧૬ ને દશરાના પવિત્ર અને ધામક દિવસમાં પાડાં, બકરાંઓના વધ કરવામાં આવે છે તે બંધ કરવા વિગેરે સંબંધીને આવ્યો તે વિષે જણાવવાનું કે આપે આવાં મુંગા પ્રાણુ ઉપર હત્યા નહીં ગુજારવા બાબત જે પરીશ્રમ લીધો છે તે જાણી ઘણા ખુશી થયા છીએ. અમારા સ્ટેટમાં આવા મુગા પ્રાણી ઉપર ઘાતકીપણું ગુજરવામાં આવતું નથી તે સહેજ જાણવા સારૂ લખ્યું છે. અત્રે સર્વ કુશલ છે, આપની ખુશાલી ચાહીએ છીએ. આ તરફનું કામકાજ બીન જુદાઈ લખશે. સા. ૧૯૬ર ના આશે શુદી ૬ તા. ૨૪ માહે સપ્ટેબર સને. ૧૯૦૬. નં. ૧૩ ખંભાત. શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કેન્ફરન્સના જનરલ સેક્રેટરી સાહેબ તરફ સ્વસ્થાન ખંભાતના દિવાન તરફથી લખી મોકલવાનું એ જે આપને છાપેલે કાગળ તા. ૧૮ મી સપ્ટે મ્બરને દશેરાના દિવસે બકરાં પાડાને વધ અટકાવવા સંબધીને નામદાર નવાબ સાહેબ બહાદુરને મલ્ય છે. તેના જવાબમાં આપને જણાવવાને મને ઉમંગ થયે છે કે દશેરાના દિવસે બકરાં પાડા વધ કરવાને અત્રે રિવાજ નથી. તે સાથે આપ જાણીને રાજી થશે કે આ મુસલમાની રાજ્ય છતાં આ રાજ્યમાં ગૌ વધને પ્રતીબંધ લાંબી મુદતથી કરવામાં આવ્યો છે. અને તેજ પ્રમાણે હજુ સુધી પ્રતિબધ કાયમ છે. તા. ૨૦-૯-૧૯૦૬, દીવાન, નં. ૧૪ Madena 28th September, 1906 From B. Raja Rajaswara Sathupati Minor Raja of Ramnad. To The Secretary Shri Jayna Swetamber Conference DEAR SIR, Your letter asking to stop animal sacrifice during Dasara festivals at Ramnad to shree goddess Raj Rajaswari to hand. This custom bas been Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] abandoned since 12 years under personal orders from H.H. the Jagad Guru Maha Swamiji of Sringari Mysore. Many thanks for your kind and noble undertaking as my father to whom you the leter died. I have taken the liberty of replying to you. नं. १५ बराव, करछन, इलाहावाद • Yours truly, B. RAJA RAJSWARA. MINOR RAJA RAMNAD. १६-१०-१९०६० श्रीयुत वीरचन्द दीपचन्द रेसीडेन्ट जनरल सेक्रेटरी श्री जैन श्वेताम्बर कान्फरन्स - समीपेषु महाशय ! आपका पत्र सेवामें श्रीमान कुंवर राघव प्रसाद नारायण सिंहजी देव बरावाधिपति के उपस्थित किया गया. श्रीमानने कया ये लोगोकें जीव रक्षा के उद्योग करनेकी उपत्याधिक प्रशंसा की और यह राज्य श्री रामानुजीय वैश्नवकी है. यहां किसी पशुपक्षीका वध किसी औसरमें नहीं होता. जीवोंपर दया करना इस मतका सिद्धान्त है - कमधिकम् नं. १६ राजूला. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat भवदीय भैरव सिंह वर्मा. प्रिय महाशय, आपका खत पाया हाल जानयस हमारे रियास्तमे किसी पशुका काम नहीं कराया जाता. आपको यकीन रखना चाहिये कि यहां धर्म से विरुद्ध कभी न होगा आपको यकीन रखना चाहिये क्योंकि कोई सखस एसा काम करता है उसको सजाय जेहलकी जाती है जबाब पोंचे: RAO RAMPRASAD JAJIRDAR of kamtee. Rojowla. www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C. [ !॰ ] નં.૧. મુંબઈ સમાચાર. મુંબઈ તા. ૨૧-૯-૧૯૦૬. દારાના પવિત્ર હિંદુ તહેવાર ઉપર વહેમથી હિંદુ રાજ્યામાં ભાગ થઇ પડતાં પ્રાણી તરફ દયાભાવ રાખવાની કરવામાં આવેલી વાજબી અરજ. દશરા એટલે કે આણ્વન શુદ દશમના દિવસ હિંદુ ભાઇએ વચ્ચે ઘણા શુકન ભર્યાં. અને પવિત્ર ગણવામાં આવે છે. હિંદુભાઇને કેાઈ પણ સાહસ ખેડવાનું હેાય ત્યારે તે તેની શરૂઆત કરવા માટે દશરાના દિવસ પસંદ કરે છે, કારણકે શ્રી સીતાજીને હરી જનારા રાવણ ઉપર શ્રી રામચંદ્રજી જે દિવસે ચઢાઇ લઈ ગયા હતા તે વિજયા દશમી અથવા દશરાના દિવસ હતા. તે ઉપરાંત મહાભારતમાં પણ આ દિવસ માટે ઘણું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. મહાભારતના વિરાટપર્વમાં જણાવવામા આવ્યું છે કે, પાંચ પાંડવામાંના એક અર્જુને જે હથીયારાને એક વર્ષસુધી નહીં અડકવાની બાધા લઈને સમડીનાં ઝાડ ઉપર સંતાડી રાખ્યાં હતાં તે આખું વર્ષ ખલાસ થયા પછી ઝાડ ઉપરથી વિજયા દશમીને દિવસે ઉતાર્યાં હતાં. અને તે પછી તેણે જે પરાક્રમ કરવા આરંભ્યું તેમાં તેને તેહ મળી હતી. એ કારણેાને લીધે વિજયા દશમીને દિવસ ઘણા શુભ ગણવામાં આવે છે, અને તેથી તે દિવસે કેટલીક ધાર્મીક ક્રિયાએ દાખલા તરીકે સમડી પૂજન વગેરે કરવાના રિવાજ દાખલ થયેા છે. સમડીનું પૂજન કરવાનું મુખ્ય કારણ એટલુ જ છે કે તે ઝાડને પવિત્ર માનવામાં આવે છે, અને અર્જુને તે ઝાડ ઉપરથી હથીયાર ઉતારતાં પહેલાં તેની પૂજા કરી હતી. તેથી દરેક હિંદુરાજા તે દશમીને દિવસે સમડીના ઝાડનું પૂજન કરવાની ફરજ માને છે ઇતિહાસિક પુસ્તક વગેરેમાંથી તેટલું મળી આવે છે, પણ તેની સાથે પાડા યા અકરાંના ભાગ આપવાના રિવાજ કયારથી દાખલ થયા તે કાંઈ મળી શકતું નથી, અનુમાન માત્ર એટલુંજ કહાડી શકાય છે કે જે કાળમાં બ્રાહ્મણા વેદ્યાભ્યાસમાં નખળા પડતા ગયા ત્યારે નવા તત્વા ઉમેરીને પાતાનું સર્વોપરીપણુ ટકાવી રાખવાની તજવીજ કરવા લાગ્યા, તે વખતમાં આ રિવાજ દાખલ થયા હશે. મહાકાળીના ભક્તા તે દેવીના ભાગ ચઢાવવામાંજ પાતાનું કર્ત્તવ્ય માને છે. અને ખંગાળામાં દુર્ગા પૂજાના એટલે કે વિજયા દશમીના દિવસે હજારો મકરાં મહાકાળીના નામે રેહેસવામાં આવે છે તે આપણે જાણીએ છીયે. પણ હિંદુરાજા, મહારાજાએ માત્ર બ્રાહ્મણાનાં ગુરૂપણાં હેઠળ કામ કરતા આવ્યા છે, તેઓએ દશરાના પવિત્ર દિવસે પશુવધ કરવાના રિવાજ શા કારણે અને કયારથી પસંદ કર્યાં તે નકી કહી શકાતું નથી. એટલું તે ચાસ છે કે જે રાજકર્તા તે રિવાજનું નિરૂપયેગીપણું જોઇ શકયા છે તે તે બંધ કરવામાં પછાત પડ્યા નથી; તે પણ હજુ ઘણા રાજકર્તાએ આગલા વખતથી ચાલતે આવેલા રિવાજ બંધ પડવાની જરૂર જોઈ અથવા હિમત બતાવી શકતા Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ o o ] નથી. રાજાએ એ પવિત્ર દિવસે દેવેને નામે પશુવધ કરે એટલે પ્રજાના કેાઈ માણસા પણ તેમ કરે તે અટકાવવાનું ખની શકે નહી. કેળી, ભીલ વગેરે જાતના લેાકેા પણ તે દિવસે ખાસ કરીને પાડાઓના વધ કરે છે, અને તેથી જોકે પ્રજાના ઘણાક લેાકેાની લાગ. ણીએ દુખાય છે તે પણ તે ચલાવી લેવામાં આવે છે. તે રાજકર્તાઓ પાસે તેમની પ્રજા તરફથી ખાનગી રીતે અરજ કરવામાં આવતી રહી છે, પણ તે ઉપર ઘટતું ધ્યાન આપવામાં આવ્યું નથી; જેનું કારણ ચાલતા આવેલા રિવાજને અધ પાડવાની અનીચ્છાનુંજ આપણે જોઇયે છીએ. પ્રજાવના ચાસ લેાકેા પેાતાનાં ધામીક જનકને અગે એકાંતમાં ગમે તે રીતે કામ લે તે સામે ખીજા ધર્મના લેાકેા વાંધા ઉઠાવી શકે નહીં; પણ એક ધર્મનિષ્ઠ રાજકર્તા તેવા વાંધા ભરેલા રિવાજને સ્વકૃત્યવડે ઉત્તેજન આપે તે સામે તેની પ્રજા વાંધા ઉઠાવે તે વાજમી ગણવા અને તે ઉપર ધ્યાન અપાવું જોઇએ. · પશુવધ કરવાના તે રિવાજ સામે જાહેરરીતે વાંધે ઉઠાવવાની શરૂઆત આશરે ચાર વની વાત ઉપર મુંબઈના કેટલાક હિન્દુ અને જૈન ગ્રહસ્થા તરફથી કરવામાં આવી હતી, પણ તે વખતે કેટલીક કઢંગી રીતે કામ લેવામાં આવ્યું હતું. છેક છેલ્લે દિવસે મુંબઈની ગેઇટી નાટક શાળામાં એક સભા ભરવામાં આવી હતી અને તેમાં ઠરાવ પસાર કરવામાદ કેટલાક રાજકર્તાઓ ઉપર તારના સ ંદેશા મેકલવામાં આવ્યા હતા કે તે પશુવધ કરશે તેા પ્રજાની લાગણી દુખાશે. એક ખાનગી શખ્સ પણ એ જાતના ફરમાનને માન આપવાની દરકાર નહિં કરે, તેા પછી એક રાજકર્તા તેનાં ક્માનના અમલ કેમ કરે તે સમજતાં કદાચજ મુશ્કેલ પડશે. તે પછીનાં વરસે પણ છેક આખેરીમાંજ તેની હિલચાલ કરવામાં આવી હતી, અને એક વખત મુંબઇમાં ચાકસ રાજકર્તાઓની હાજરીના લાભ લઈને એક ડેપ્યુટેશને તેમની મુલાકત લીધી હતી જે વેળાએ વિવેક ભર્યાં જવામ વાળી ધ્યાન આપવાનું વચન આપવામાં આવ્યું હતું. જીવ દયાને ઝુડા ઉપાડનારા જૈનાએ તેની સાથે સાથે દર વર્ષે પાતાની કન્ફરન્સામાં દશરાને દિવસે કરવામાં આવતા પશુવધ માટે દીલગીરી જાહેર કર્યાં કરી છે અને તે અટકાવવામાટે આગ્રહુ કા છે તે રીતે ચારેક વર્ષે માત્ર ઠરાવે કરવામાં પસાર થયા પછી આ વરસે જે વળણુ જૈન કારન્સના કારાખારીઓએ ધારણુ કરી છે તે આગલાં માં પગળાંથી જુદા પ્રકારની અને પસદ કરવા જોગ છે. જૈન કારન્સના મુખઈ ખાતેના રેસીડન્ટ જનરલ સેક્રેટરીએ જુદા જુદા રાજકર્તાએ ઉપર એક વિવેક ભી પત્ર લખી અરજ ગુજારી છે કે સનાતન આ ધર્મના રક્ષણાર્થે અને અવાચક નિરપરાધી જાનવરાની હત્યા થતી અટકાવવા માટે તેઓ પોતાના રાજ્યમાં પાડા બકરાં વગેરેના વધ બંધ કરવાના હુકમ કાઢશે અથવા જારી કરશે. તે અરજ વિવેક સાથે અને ઘટતી દલીલે જોડે કરવામાં આવી છે. અને તે ઉપર ઘટતું ધ્યાંન આપવાની જરૂર રાજકર્તાએ સ્વીકારશે તે જૈન જેવી કામને ખુશીજ કરવાનું કામ બજાવશે. ઘણા હિંદુ રાજકર્તાઓએ પાતે વધ કરવાનું બંધ કર્યું છે. અને ખીજાએ કરતા હોય તેમને પણ અટકાવવાના હુકમ કહાડયેા છે. તેના મોટા ભાગ ખુશી થયા છે. વળી, પાતાના રાજ્યની હદમાં તેવા હુકમ કહાન Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨] ડવાની સંપૂર્ણ સત્તા તેઓ ધરાવે છે, જે કે કદાચ કોઈ સ્થાનીક સંજોગે જુદા હોવાને લીધે તે હુકમ નહિ કહાડવામાં તેઓ વાજબી રીતે કામ લેતા ગણી શકાય તે સત્તાને ઉપયોગ કર ન કર તેને આધાર રાજ્યકર્તાઓ અને તેમના સુકાનીઓ ઉપર રહે છે, પણ આપણે તે તેમને સૂચના માત્ર કરવાના અધિકારી છીયે, અને તે ઉપર તેઓ ઘટતું ધ્યિાન આપે એટલી જ આપણે ઉમેદ ધરાવીશું. નં. ૨. અખબારે સેદાગર, મુંબઈ, તા. ૨૧-૯-૧૯૦૬. - દશરાના દિવસે પાડાને થતે વધતે અટકાવવાને હિંદુ રાજાઓને જૈન અપીલ. દશેરાના હિંદુ તહેવાર ઉપર કરવામાં આવતે પશુવધ અટકાવવાને હિંદુ રાજકતાઓને શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સના રેસીડેન્ટ જનરલ સેક્રેટરી મિ. વીરચંદ દીપચંદ સી. આઈ. ઈ. તરફથી કરવામાં આવેલી અરજી અમો અમારા ગઈ કાલના અંકમાં પ્રગટ કરી ગયા છીએ. દરસાલ હિંદુ ભાઈઓના એ સગણવતા તહેવારને ટાંકણે મુંગા જાનવરની કરપીણુ કત્તલ કરવાના સેકડે કમકમાટ ઉપજાવનારા બનાવે દેશી રાજ્યમાં બને છે, અને દરસાલ તે કરપીણુકત્તલ અટકાવવાને અનેક અરજીઓ દયા ધર્મને માનનારી જીવદયાળુ જનકમ તરફથી કરવામાં આવે છે, પરંતુ હજુ તેનું જોઈએ તેવું મનમાનતું પરિણામ આવેલું નહી જેઈ, કેળવાયેલો હિંદુવર્ગ ખરેખર દિલગીર થશે. કલવણું અને સુધારા વધારાના આ જમાનામાં વહેમ, અજ્ઞાનતા અને બીન કેળવણના જ ગલી જમાનાની માફક ધર્મને બહાને મુંગા પ્રાણીઓને વધ કરવાના દહાડા હવ વહી ગયા છે, કારણકે કેળવાયલી બુદ્ધિ, સાદી સમજ અને ધુજરી છુટાવનારું કામ કરવાને આજને જમાને સાફ ના પાડે છે. આજનો જમાને કેલવણ રૂપી સુર જના બળવડે અધકાર રૂપી અંધારાને નાશ કરનાર છે, તેમ છતાં સુધરેલા જમાનાને નહા છાજતા બન બને એ ખરે એક વિચિત્ર બીના છે. અમને જણાવવાને સતેષ ઉપજે છે કે અગાઉ દેશી રાજ્યમાં પાડા, બકરાઓ વિગેરે મુગા જાનવરને જે ધમધોકાર વધ કરવામાં આવતું હતું તે હવે મોટા પ્રમાણમાં બંધ પડયો છે. અને સાદી સમજ અને કેળવાયેલી બુદ્ધિ જ્યાં ત્યાં ફરી વલી છે, તે પણ કેટલાંક હિંદુ રાજ્યોમાં એ ઘાતકી રિવાજ હસતી ભોગવે છે, જે અટકાવલને એ રાજ્યના કેળવાયેલા નરપતિએને દરેક પગલાં ભરવાં જોઈએ છે. દેવ દેવીઓને સંતોષ પમાડવાના નિયમથી આમુગાં જાનવરનાં જાનની ખુવારી કરવામાં આવે છે. અને એમ માનવામાં આવે છે કે Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તેથી મરી, કેલોરા, શીતળા અને દુકાળ, વિગેરે ભયંકર આક્ત નાબુદ થશે, પણ આ એક વિચીત્ર વહેમનું કારણ છે અને કેબી કેળવાયેલો રાજક્ત તે વહેમને લેશ ભારબી વજન આપશે નહીં. જે ઠેકાણે વહેવારૂ ઉપાય લેવા જોઈએ તે છોડી દઈને વહેમને શરણ થઈ, ગમે તેવા હસી કહાડવા જોગ ઈલાજે હાથ ધરવામાં આવે, એજ હિંદુએમાં તેમજ બીજી કોમમાં લાંબે વખત થયાં જડઘાલી બેઠેલાં સંસ્કારને પુરવાર કરી આપવાને પૂરતા છે. કેટલીક વાર આવા પ્રકારને પશુવધ અમે ઉપર જણાવ્યું તેમ ધર્મને બહાને કરી તેને શાસ્ત્રસંમત જણાવવામાં આવે છે, પણ તેને લગતે નિર્ણય મોટા મોટા હિંદુ વિદ્વાન શાસ્ત્રીઓની સભામાં અનેકવાર થઈ ચુક્યું છે. અને ત નિર્ણયને અનુસરી રહેમદીલના કેટલાક હિંદુ રાજ્યકર્તાઓએ પોતાના રાજ્યમાં દશેરાને દિવસે લાંબે વખત થયાં ચાલતા આવેલા પશુધને બંધ કર્યો છે. ગોંડળના નામદાર ઠાકોર સાહેબ, જામનગરના નામદાર જામ સાહેબ, ધ્રાંગધ્રાના નામદાર રાજ સાહેબ, વગેરે દેશી રાજયકર્તાઓએ તેવું ડહાપણું ભરેલું પગલું ભર્યું છે. અને તેવું પગલું ભરી તેઓએ અગાં જાનવની નેક દુવા સંપાદન કરી છે. અમારે આ તકે જણાવવું જોઈએ કે, કેટલાંક દેશી રાજ્યમાં પશુવધ બંધ પડે છે, તેને મુખ્ય સબબ જિન ભાઈઓની એકસરખી ચાલુ લડતને આભારી છે. હજુની જન ભાઈઓ આ લડત પૂરજોશ અને ઉલટથી ચાલુ રાખશે, તે તેનું દરેક રીતે ફતેહમંદ પરિણામ આવશે અને ઘણાં ખરાં દેશી રાજ્યોમાં પશુવધ થાય છે, તે પણ બંધ પડશે. જેના કેન્ફરન્સના જનરલ સેક્રેટરી શેઠ વીરચંદ દશરાને તેહવાર આવી પૂગતાં અગાઉ હિંદુ રાજયકર્તાઓને અરજી કરી જે ચેતવણી આપી છે, તે અમો વખતસરની લેખીએ છીએ. છેક છેલ્લી ઘડીએ યાને બીજા શબ્દમાં બેલીએ તે છેક બારમે કલાકે જાગી તારી મારફતે દશેરાને દિવસે જ અરજી કરવાનું પગલું ભરવા કરતાં આગમજથી આ પ્રમાણે કરવામાં આવેલી અરજી અલબત્તે પસંદ કરવા જોગ છે; કારણ કે તેથી તે ઉપર પુખ્ત, વિચાર ચલાવવાનું અને સાદી સમજ વાપરી તે ઉપર અમલ કરવાને પુરતે વખત રાજકર્તાઓને મળે છે. અમે ઈચ્છીશું કે પાડા બકરાંને વધ બંધ કરવાનો હુકમ બહાર પાડી દેશી રાજકર્તાઓ પિતાના રહેમ દીલને અરછા ધડો લેવા જોગ દાખલ આપવાને હવે પછાત પડશે નહીં. નં૦ ૩. અખબારે ઈસલામ. મુંબઈ, તા. ૨૧-૯-૧૯૦૬. દશેરાના દહાડે ચાલતી નિર્દય કત્તલ. હિંદુ ભાઈઓના દશરાના મોટા તહેવારના દિને દેવીને સંતોષ રાખવાને બહાને બકરાં, પાડા વગેરેની નિર્દય કત્તલ દેશના જુદા જુદા ભાગોમાં મોટા પ્રમાણમાં ચલાવવામાં Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ o o આવે છે. કાઠિઆવાડના કેટલાક હિંદુ રાજાએ તરફથી પણ એવા ભાગો દશરાનાં દિવસે અપાતા હૈાવાથી અત્રેની શ્રી જૈન કોન્ફરન્સે તેના અટકાવ કરવા એ રાજાઓને અપીલ ગુજારી છે. જે અમે અમારા ગઈ કાલનાં અંકમાં પ્રગઢ કરી ગયા છીએ. એ લાગે આપવાના બચાવમાં એવી દલીલ રજુ કરવામાં આવે છે કે, તે દેવીને સંતોષ કરવાના હેતુથી આપવામાં આવે છે કે, જેથી દેશમાં ઉડતા રાગો અને ખીજી કુદરતી આફ્તા ફેલાવ પામે નહીં. કેટલાક વર્ષો થયાં આવા ભાગો અપાયા છતાં દેશના જુદાજુદા ભાગેામાં મરકી, કાલેરા, દુકાલ, ધરતીક'પ, રેલે, આગા વગેરેની આ પાયાજ કરે છે. જેથી હિંદુ ભાઇઓની ખાત્રી થવી જોઈએ કે એવા ભાગેાની કોઈપણ તરેહની અસર થતી નથી. હિંદુઓના માટે ભાગ અન્ન, લ, શાકના ખારાક ખાનારા હાય છે, તેઓ માંસના ખારાકથી અલગ રહે છે; અને તેથી કુદરતી માંસ ખાનારા ખીજી જાત કરતાં મુગા પ્રાણીએના સબંધમાં તેમની લાગણી વધારે દયાળુ હોય છે. એમ છતાં ખુદ હિં‘ટ્રુએજ એક મોટા તહેવારના દિને એક ખાટા ધાર્મીક એઠા હેઠલ નિર્દોષ જાનવરોની કત્તલ વર્ષો સુધી ચાલુરાખે એ જેટલુ અજાયબી ભરેલું છે તેટલુંજ હિંદુઓની જાનવરા તરફની દયા લાગણીને હીણસ્પતી લગાડનારૂં છે. કમનશીબે આ રીવાજને હિંદુ રાજા તરફથી માટું ઉત્તેજન મળે છે. તેએ પેાત પેાતાના રાજ્યની હૈદની અંદર, રાજ્યની તિજોરીના ખર્ચે મોટા પ્રમાણમાં જાનવીને વધ કરાવે છે, અને તેવા ભાગ આપવાની ક્રીયેાને મોટું રૂપ આપી તેમાં અંગતલાલ લેછે. રાજાએ તરફથી જ્યારે આ નિર્દય રિવાજને એવું ઉત્તેજન આપવામાં આવે ત્યારે પ્રજા તેમને પગલે પગલે ચાલે તે તેમાં નવાઈ નથી. વર્ષો સુધી આ રિવાજ પુરોરમાં ચાલ્યા બાદ કેલવણીના ફેલાવા સાથે આ કમકમાટ ઉપજાવનારી રસમ તરફ ધાર્મીક હિંદુ ભાઈઓનું ધ્યાન ખેચાયુ છે. અને તેએ અને ખસુસ કરી જૈન ભાઈના સમધમાં આજ કેટલુંક થયુ. ચર્ચા ચલાવતા રહ્યા છે જેનું શુભ પરિણામ કેટલાક દાખલાઓમાં ખુલ્લું જણાઈ આવે છે. અને એવીજ રીતે જાનવાની એ વધ સામેની ચક્ચાર ખંત અને કારોશથી ચાલુ રાખ્યાથી વખતના વઢેવા સાથ એ ભાગાના સબધમાં પ્રજામત તેએ પેાતા તરફ ખે*ચવા શકતીમાન થશે અને રફતે રસ્તે મુંગા પ્રાણીઓ ઉપર ગુજરતું આ નિર્દય ઘાતકીપણું મેાટા ભાગે હિંદમાંથી નાબૂદ થયા વગર રહેશે નહીં. ન ૪. જાગેજમશેદ. મુંબઈ તા. ૨૨-૯-૧૯૦૬. દરાના તેહેવાર ઉપર મુંગા બનવાના ભાગ. મેરખીના ઠાકાર સાહેબનું સ્તુત્ય પગલું ગઇ તા. ૧૮ મીએ શીઘ્ર કવિ શંકરલાલ મહેશ્વરના પ્રમુખપણા હેઠળ મારી ખારે www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ {4} સરસ્વતી સમાજના મેળાવડા ભેગા મળ્યા હતા. જે વેળાએ દશરાના તેહેવારો ઉપર નિર્દોષ જાનવરોના બીન જરૂરના ભાગ અપાતા અટકાવના હુકમ ઠાકાર સાહેબે બહાર પાડવાથી તેમના ઉપકાર માનવા તથા ખીજા દેશી રાજાઓને જાનવરાના રિવાજ અંધ પાડવા અરજ કરવાના ઠરાવ પસાર કરવામાં આવ્યેા હતા. ન૦ ૫. નિર્દોષી પાણિઓનો વકીલ. સાંજ વર્તમાન તથા અખબારે સાદાગર પ્રત્યે માલેલા તેના પત્ર. મુંબઈ, તા. ૨૨-૯-૧૯૦૬. જાવયાના હીમાયતીઓને સૂચના દ સાંજ વર્તમાન ” ના અધિપતિ જોગઃ— સાહેબ, r હિં’દુ ભાઇઓને દશરાના તહેવાર આવી પહેાંચ્યા છે. હુમણાં બે ચાર વર્ષ થયાં જોવામાં આવે છે તે મુજબ ', જીવદયા મતવાળા લેાકેા તરફથી શેઠ વીરચંદે દશરાપર દેશી રાજાવાપર તેમનાં રાજ્યમાં થતા પાડાના વધ અટકાવવા સારૂં એક પત્ર લખી માકલ્ચા છે. જ્યારે · જીવદયા ’ વાળા લેાકેાથી દૂરદેશમાં વર્ષમાં એક દિવસ અજ્ઞાનપણાથી અથવા ધમધપણાથી થતા નિરપરાધી પ્રાણીઓને વધુ ખમી શકતા નથી અને તેને સારૂં દોડાદોડ કરે છે, તે ખુદ મુખઈમાં તેમના ગાયા મરોડાં આગળ વાંદરામાં જાણી જોઇને ધર્મ અથવા અજ્ઞાનનાં કંઈપણ મહાના વગર રોજ ભરવા સેંકડો નિર્દોષ પ્રાણીના વધ ફકત માણસાનાં હાજરાં ભરવા સારૂં થાય છે ને થતા આવે છે, તેથી કેમ લાગણી દુખાતી નથી. તથા તે વધુ અટાવવા અથવા આછેા કરાવવા કેમ પગલાં ભરતા નથી તે કાંઈ સમજી શકાતું નથી. વિદ્વાન માણસાનું તથા એ બાબતના અનુભવી ડાકટરીનું મત છે કે માશુસને માંસાહારની જરૂર નથી. અને સામુ એવા ખેારાખ ખાવાથી નુકસાન થાય છે, તેવા લાકામાંથી– જીવદયા મતવાળામાંથી-હિંદના ખેતીના ઉદ્યોગમાં વપરાતા, તથા દુધાળાં જાનવરાના નાશ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 6 ] આછે થતા જોવાને રાજી હાય તે લેાકેામાંથી, અથવા ખીજા પરાપકારી અથવા દેશ દ્વિતચિ'તક વગેરે લેાકેામાંથી એવા કાઇ વીરપુરૂષ નીકળશે કે આ · નિર્દોષ પ્રાણીઓ તરફથી ખાથભીડી આ દેશમાં નહીં તે શહેરમાં તેમના થતા વધ અટકાવે અથવા આછા કરે. શેઠ વીરચ'દ તથા તેમના મિત્રો આ પત્ર ઉપર ધ્યાનપૂર્વક વિચાર કરો એવી વિ નિર્દોષ પ્રાણીઓના વકીલ. આશા છે. નં.૬. સયાજી વિજય. વાદરા, તા. ૨૭-૯-૧૯૦૬. દુશરાને દિને થતા પશુવધ. કેટલાક સનાતન મતવાળાઓનું એવું માનવું છે કે યજ્ઞની અંદર વધ બલિદાન આપવું જોઇએ, નહિતા દેવીના કાપ થાય અને તેથી અનેક રાગે અને આપત્તિના ઉદ્ભવ થાય. સાધારણ સમજથી કહી શકાય તેમ છે કે દેવ અથવા દેવી પરમાત્માના એક અન્ય ઉતરતાં સ્વરૂપ રૂપે છે. અને સર્વ કોઈ પ્રાણી તેને બાળક રૂપેજ છે. પોતાના બાળકને મારી પોતાને લાગ આપવાને કાઈ માતા સ ંબધે તે તે નવા યુગની નવાઈજ કહેવાય; તથાપિ આપણા ભેાળા હિન્દુઓનું તેવું માનવું છે, તે કાઇ આછા ખેદની વાત નથી. માંસભક્ષીને હિંદુશાસ્ર અપવિત્ર ને શૂદ્રવત્ ગણે છે. એ જાણીતી વાત છે તથાપિ તેને માટે એવે અચાવ થાય છે કે ખાસ અમુક દિવસેને માટે દેવીને તે પ્રિય છે. વર્ષના મુકરર કરેલા દિવસેજ વર્ષોવર્ષ તેની પસંદ્ગુગી એકજ ચીજ ઉપર ટકી રહે એ માનતાનું તા માત્ર કમઅક્કલના માટેજ કહી શકાશે, અમુક ચીજ ઉપર અમુકને વધુ પ્રીતિ હાય તે સંભવિત છે પણ તે અમુક દિવસેજ વખતે વખત થાય તે તે આશ્ચર્ય ઉત્પન્ન કીધા વિના રહે તેમ નથી. વળી વધુ આશ્ચર્યની વાત તા એજ છે કે માતાને પોતાના બાળકના વધની ઈચ્છા હેાય છે ! અમુક દિવસે જેના આહાર કરવામાં વાંધે નથી. તે અન્ય દિવસે માટે અપવિત્ર પશુ કેમ ગણી શકાય ? આ સર્વ પરથી માલુમ પડે છે કે માત્ર હિંદુઓએ બ્રાહ્મણ્ણાએ પેાતાની અધમ સ્વાદિષ્ટ વૃત્તિનેજ આધિન થઈ આ કાર્ય શરૂ કીધુ છે. માતાનેસ માતાઓને પાતાના અમુક પ્રકારના બાળક ઉપર રોશ હાય છે ! તેમ પણ આમાંથી પ્રશ્ન ઉભે થયા વિના રહેતા નથી અને તેથી કહી શકાય કે કદાચ કાઈ દિવસ વારા ફરતી ખીજા ખાળક (મનુષ્ય પ્રાણી) ઉપર પણ રાષ આવવાજ જોઇએ!! પણ અમારા બ્રાહ્મણેા પેાતાના હાથે પોતાનું ગળુ* કાપે તેવા નથી. “ પારકે ઘેર પનાતા ” Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૪૭] જેવું અમારા હિંદુભાઈઓનું વર્તન છે અને તેવી તુચ્છ બુદ્ધિથી હરહમેશ દરેક વર્ષે આવી રીતે હજારે નિર્દોષ પ્રાણીઓને વધ થાય છે. “શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કેન્ફરન્સ ના રેસિડેન્ટ જનરલ સેક્રેટરી અને ગુજરાતના જાણીતા સખાવતી અને સુધારક શેઠ મિ. વીરચંદ દીપચંદે આ બાબતમાં દેશી રાજાઓને અરજી મોકલેલી છે. આ અરજીની એક નકલ અમોને મળી છે તે ઉપરથી સમજાય છે કે તેઓની આ અરજીનું લખાણું ટૂંકું પણ ખરા અંતઃ કરણની લાગણીનું છે. જેના મતને “અહિંસા પરમો ધર્મ ” આ એક મુખ્ય સિદ્ધાંત છે, અને તે સિદ્ધાંત સાથે આ બાબતને પુરતે સંબંધ સમાવેશ છે તે જણાવવું જ બીન જરૂરી છે. સનાતની વિણવ મહારાજે પણ પ્રતિપાલક અને સર્વ પ્રાણપર દયા રાખનાર તરીકે ઓળખાય છે. તેઓ પોતાના હાથમાંજ બાજી હોવા છતાં બ્રાહ્મણોને અટકાવે નહિ એ કાંઈ ઓછા ખેદની વાત નથી. હિંદુ ભાઈઓ અંતઃકરણથી વિચારશે તે સહજ સમજાશે કે માત્ર આ એક મૂર્ખતા દર્શાવનાર કાર્ય જ છે. આવા બનાવે અન્ય તરફથી બને છે ત્યારે હિંદુ ભાઈઓ હદયદકતાના અસાધારણ બુમોટા કરે છે. તે પિતાના તરફથી થતા આ કાર્યને સત્વર બંધ કરી દેવું જોઈએ. કાઠિયાવાડ, લીંબડી, મોરબી અને વીરપુર ઈ ટેટએ આ બાબતમાં તદન અટકાયત કીધી છે, અને ઉત્તર હિંદમાં પણ કેટલાંક રાજ્ય તે માટે હિલચાલ કરી રહ્યા છે: પણ તેઓની પ્રજા પર કે તેઓની જાત પર દેવીકેપ કઈ પણ પ્રકારને થતું નથી, ત્યારે એથી ઉલટું અત્રે અસાધારણ ત્રાસ અનેક રીતે ઉદ્ભવે છે. આ સર્વ પરથી એ સહેલાઈથી સિદ્ધ થાય છે કે દેવીને કોપ થાય ઈત્યાદિ માત્ર ભ્રમ છે. અને પિતાની અજ્ઞાનતાજ પ્રદશત થાય છે તે તેવા કાર્યને સત્વર અટકાવી સત્તાવાળાઓ અને ધર્માધિકારીઓ નિર્દોષ પ્રાણીઓના આશિર્વાદ લેવા સાથે પોતાને ઉજવલ કીર્તિધ્વજ ચોતરફ ફરકાવશે. નં૦ ૭. સયાજી વિજય વડોદરા, તા. ૨૯-૮-૧૯૦૬. પશુવધ વિષે નાપસંદગી. ક્ષત્રિય મરાઠા સભાની બેઠક તા. ૨૪મીએ શ્રી. દિ. બ. આનંદરાવ ગાયકવાડના બંગલે મળી. તે વેળા જૈનસંઘના પણ ઘણુક ગ્રહ હાજર હતા. મે. દાદા સાહેબ માનેએ કહ્યું કે આજની સભાને હેતુ દશરામાં જે બકરાં વગેરેને પશુવધ થાય છે, તે બધ કરવા સંબંધી વિચાર કરવાના છે. અને તેવી જ દીલજીને રા. બા. ખાસેરાવળને આવેલો પત્ર વચાયા પછી શ્રી. આનંદરાવે કહ્યું કે આજ ઘણુ મેમ્બર હાજર નથી માટે ફરી ખાસ સભા ભરી આ વિષે ઠરાવ કરે અને આજે જેઓ હાજર છે તેમણે આ વધ ન કરવા મત દશાવ જે વાત એક સરદાર શિવાય સર્વેએ માન્ય કરી હતી. આ ઠરાવ જાણી હિંદુ પ્રજા ઘણુ ખુશી થઈ છે. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ૧૮ ] નં૦ ૮. બકરાને બેલી. તા. ૨૬-૯-૧૯૦૬. દશરાની દેવીઓ પાડા બકરાને ભાગ લેવા હાજર થયાં છે. શું હિંદુધર્મની મૂર્ખાઈ! શું દેશી રાજાઓની ઘેલછાઈ! દશરા જે પવિત્ર દિવસ હિંદુ તહેવાર તરીકે મન છે. તે દિવસે પ્રજા આનંદ કલોલમાં કંસાર, ચુરમાં અને વેડમી જમે છે. દેવીને નૈવેદ્ય ઘરે છે. શમીનાં પૂજન કરે છે. સ્ટેટેમાં રાજ્યસ્વારીયે નીકળી ઘોડાઓને ગામ બહાર પુરવાટ દોડાવે છે. ગાન, તાનની ધામધુમ થઈ રહે છે. આવા ઉત્તમ પર્વના દિવસે રાજાથી રાંક સુધી સર્વ કઈ જીવાત્મા આનંદ પામે છે. જીવ ઉલ્લાસમાં રાખે છે. ત્યારે તે દિવસ બિચારાં અવાચક નિરપરાધી મુગાં પ્રાણી પાડા બકરાનાં ગળાં બે ગુન્હ અમારા રજપુત બહાદુરની સમશેરથી દેવીના નિમિત્તે દેવીના દેવલ આગળ રેસાય છે. તેઓ બેઓંના બરાડા પાડે છે, છતાં આ કૃપણુકામ રાજાએ હર્ષાનંદમાં કરે છે. આથી તમામ પ્રજા નારાજ, આખું મહાજન નારાજ, આખું સમગ્ર ગામ નારાજ છતાં શુદ્ધ ક્ષત્રિના હૃદય કેમ અવાચક પશુપ્રત્યે નિષ્કુર અને જડવત થતાં હશે ! પાડા અને બકરાંના વધથી દેવી પ્રસન્ન થાય છે, એમ તમામ રાજ્યકર્તાના હદયમાં ક્યા દુષ્ટ ધર્મગુરૂએ ઠસાવી દીધું હશે ! તે કાંઈ સમજાતું નથી. દેવીઓ બકરો પાડાના લેગ કદી લહેજ નહીં. એ નિશ્ચય સમજવું જે તેને બકરાં પાડા લેવા હોય તે પિતે જાતે લેત પણ તમારી સમશેરથી લેવરાવત નહીં. દેવીએ દયાલુ હોય છે, મા બોલાય છે. તેઓ જે ભેગની તરશી હોત તે બકરાં પાડા જેવા ગરીબ પ્રાણીઓ ન લેત પણ સિંહ, ચિતા,વાઘ જેવાં પ્રાણુઓના ભાગ લેત. આ તે બધું રાજાઓના વહેમનું જ પિગળ જોવાય છે. દેવીએ પાડા બકરાંથી કદી પ્રસન્ન થવાની નથી. એ વધથી કાંઈ રાજી કરાજી થતી નથી. નાહક આવા પવિત્ર દિવસે પશુઓના વધ એ કુદરતના કાયદા વિરૂદ્ધ હિંદુ ધર્મશાસ્ત્ર પ્રમાણે મહાન પાપ ગણાય છે એમ શાસ્ત્રો કહે છે. હાલમાં સુધરેલો જમાને છે. અમારા રાજા બહાદુરે કોલેજમાં વિદ્યાદેવી પ્રાપ્ત કરી કેળવાયા છે. પુરાણુધર્મનું, પિપકલાનું કેવું પિગળ છે તે કેલેજમાં ભણતી વખત સારી રીતે જાણી શકયા છે. અને તેથી પાડા બકરાંના વધના વહેમથી ઘણુ રાજાએ હવે મુક્ત થયેલા અમે જોઈયે છીયે, પરંતુ હજી કેટલાક રાજાઓ કેળવાયેલા છતાં આ ખોટા વહેમમાં ધુસાઈ પાડાં બકરાં દશેરાને દિવસ મારે છે એ ખરેખર અગ્ય કામ મહાજનની લાગણી દુખાયા જેવું છે. જે દેવી બકરાં પાડાના વધથી પ્રસન્ન થઈ રાજાઓને કુશળ કરતી હોય તે પછી અમારા ઘણુ રાજાઓ કાળને સરણ થાય છે તે કદી ન થાત. તેઓનાં શરીર દેવી અમર કરત. માણસ પ્રસન્ન થતાં પણું શરીર રક્ષણ કરે છે. તે પછી દેવી કેમ રાજાને મરવા Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ૨૧] દે? એજ તપાસે. આ તે દેવી ભકતાએ ખેટ વહેમ ઠસાવ્યું છે. વગર ગુ પશુ મારવું એ રાજાને શીર નાહક પાપ ગણાય. માટે સૂફ અને શાણા રાજાએ આપ આ ખોટે -વહેમ ઈશ્વર અથ છોડી ? દેવીઓ તમારી પાસે પાડા બકરાં માગતી નથી. દેવીની ઈચ્છા અને શક્તિ હશે તે પોતાને હાથેજ તેના પ્રાણ લેશે? નાહક માંસભક્ષક દેવી ભકતોયે માંસ ખાવાના સ્વાદથીજ અમારા પવિત્ર રાજાને પાપિષ્ટ બનાવી પિતાનું એઝરું ભરવું છે. શિવાય બીજું કાંઈ જેવાનું નથી. એમ અમારી તે ખાસ માન્યતા છે. માટે અમારા ક્ષત્રિયકુળદીપક રાજાઓએ દીર્ઘ ખ્યાલ કરી દશરાના દિવસને પવિત્ર તહેવાર આવા પ્રાયશ્ચિત્તના રૂપમાં ઉજવવા જરૂર નથી. મોરબી નરેશ સર વાઘજી બહાદુર, ગોંડલ ઠાકર શ્રી સર ભગવતસિંહજી બહાદુર અને ધ્રાંગધ્રા નૃપ અજીતસિંહજી જેવા સુધારક નૃપેએ ગાદી પર બેઠા પછી આ વધ બંધ કર્યો છે, તે તેઓ શું સુખી નથી? તપાસો સુખી છે, માટે આ પેટે વહેમ નૃપતીએ છેડવો જોઈયે. બકરાને બેલી. હિની. કનેજ, તા. ૨૧-૯-૧૬. श्री जैन श्वेतांबर कांफ्रेंसके रेसीडेंट जनरल सेक्रेटरी द्वारा एक आवेदन पत्र हमें प्राप्त हुवा है, जिस्के द्वारा भारतीय नृपति गणाकी सेवामें विजयादशमी महोत्सव पर पशुवध न किएजानेकी प्रार्थना कीइगई है। आशा है कि हिन्दू नृपति गणा कन्फ्रेंसकी प्रार्थना पर ध्यान दे कर हिंसाकी पृथाको दूर करनेकी चेष्ट करें गे। નં૦ ૧. ગુજરાત મિત્ર તથા ગુજરાત દર્પણ. સુરત, તા. ૨૩ મી સપ્ટેમ્બર સને ૧૮. દેશી રાજ્યમાં દશરા નિમિત્ત થતા પશુવઘ. હિંદુ ભાઈઓના વિજ્યા દશમીના યાને દશરાના પવિત્ર ધામક તહેવાર પ્રસશે દેશી રાજાઓ તરફથી થતા પશુવધ વિરૂદ્ધ ઘણું ચર્ચા ચાલે છે. અને વર્તમાનપત્રોમાં એ સંબંધી લખાણો થઈ જૈનમંડળો તરફથી પણ દેશી રાજાઓને પશુધને અટકાવ કરવાને આગ્રહ થાય છે, તેની અસર કેટલાક દેશી રાજાઓને અત્યાર આગમય થયેલી જોઈ સંતેષ ઉપજે છે. આ વર્ષ પણ એ તહેવાર નજદીક આવવાથી શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સના રેસીડંટ જનરલ સેક્રેટરી મિ. વીરચંદ દીપચંદ સી. આ. ઈ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ૨૦ ] તરફથી જે રાજ્યમાં એ રીવાજ હસ્તી ધરાવે છે ત્યાંના રાજકર્તા જેગ પશુવધ કરવામાં અયોગ્ય હિંસા સમજી એ રિવાજ બંધ પાડવાની વિનંતી કરનારે એક પત્ર મોકલવામાં આવ્યું છે જે ઉપર દરેક રાજ્યકર્તાએ પૂરત ગેહર કરવાની જરૂર છે. . કેટલાંક દેશી રાજે એવાં છે કે પશુવધ કરવામાં અગ્ય હિંસા સમજી અમુક દિવસોએ જીવહિંસા નહીં કરવાના હુકમ બહાર પાડ્યા છે તે જ રાજ્યોમાં વિજયા દશમીના તહેવાર પ્રસંગે પશુવધ થાય છે, જેથી “કાળજી કહેનેકા મગર કુછ કરને કે નહીં” તેવું થાય છે, તે મોટે એવાં રાજ્યોએ પ્રજાના મોટા ભાગના અને તેમાં ખાસ કરી જૈન કેમના વિચારને અને લાગણીને માન આપી જુને ચાલતે આવેલા એ કૃર રિવાજસંબંધે બીજી રાજાઓની માફક તર્ક કરવાની જરૂર છે. પશુવધ બે કારણેથી થતે કહેવાય છે. જેમાનું એક એ છે કે એ દિવસે અને શમીવૃક્ષ ઉપર સંતાડેલા હથીયારે ઉતારીને દુર્યોધનના લશકરને હરાવ્યું હતું અને હરણ કરેલી ગાયને પાછી વાળી હતી, તથા રામચંદ્ર રાવણ ઉપર એ દિને ચઢાઈ કરી વિજય મેળવ્યો હતે. તથા બીજું કારણ દેવીને ભેગ આપીને સંતુષ્ટ કરવાનું છે. હાલમાં દેશી રાજાઓને દમન સામે ચઢાઈ લઈ જઈ ઉપર જીત મેળવવાને વખત નથી તેથી એ દિવસે હથીઆરનું પૂજન કરી સુલેહના વખતમાં નિર્દોષ બકરાં અને પાડાઓને વધ કરવામાં હથીઆરને ઉપગ કરે એ જબુન કામ છે. ને દેવીને ભેગ આપીને સંતુષ્ટ કરવાને ઈરાદે પણ હાલના સુધરેલા જમાનામાં નહીં માનતા જોગ ગણશે તેમજ તે શાસ્ત્રીય રીતીએ પણ નથી, એ નિર્ણય ઘણી વખત મોટા મોટા વિદ્વાન શાસ્ત્રીઓની સભાઓમાં થઈ ચુક્યો છે. અને તેને અનુસરી કેટલાક રાજ્ય કર્તાઓએ એ પશુવધ સર્વથા બંધ કરાવી અવાચક જાનવરની દુવા લીધી છે, તે મુજબ જે રાજ્યમાં એ રિવાજ હજી ચાલુ હોય તે રાજ્યમાં પશુધને અટકાવ કરી નિર્દોષ પ્રાણીઓને ભાગ લેતા દેશી રાજાએ અટકે એવું ઈચ્છવામાં આવે છે. નં. ૧૧. દશેરાને દિવસે દેશી રાજ્યમાં થતો પશુવધ અને જૈન કોન્ફરન્સ. ઉત્તર હિંદમાં મોટા દેશી રાજ્યોમાં તેમજ ગુજરાત કાઠિયાવાડનાં કેટલાંક નાનાં રાજ્યમાં દશેરાના પવિત્ર તહેવારને દિવસે જ્યારે રાજકર્તાઓની સ્વારી ચઢે છે ત્યારે કે દેવીના હવન વખતે બકરાં અને પાડાને નિર્દયતાથી વધ કરવામાં આવે છે. દેવીને પ્રસન્ન કરવાનું તેમજ મહામારી, લેગ આદિ ઉડતા અને ચેપી રોગોને અટકાવવાનું બહાનું આ વધના કારણ રૂપે આગળ ધરવામાં આવે છે. હવે આ વધની રૂઢી સશાસ્ત્ર છે એમ જે કહેવામાં આવતું હોય તે તેમાં પણ મોટો મતભેદ છે. તંત્રશાસ્ત્રના વામ અને દક્ષિણ એવા બે સંપ્રદાય છે. તેમાં વામમાર્ગની અમુક ક્રિયામાં મઘ માંસની વપરાઅને નિષેધ કરેલે નથી પરંતુ વામમાર્ગ કઈ પણ રીતે મુક્તિને અપાવી શકતું નથી: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A] તેથી જે મેાક્ષ મેળવવાની ઇચ્છાથી ધર્મકાર્ય કે યજ્ઞયાગાદિ કરે છે તેએ વામ માર્ગની ક્રિયાઓને બદલે દક્ષિણ માર્ગની ક્રિયા આચરે છે. સસારની ક્ષુદ્ર મનઃકામનાની સિદ્ધી માટે જેએ વામ માની ક્રિયાઓ કરે છે તેની માન્યતા પણ ખરી છે કે કેમ ? હાલના તર્કવાદના જમાનામાં એક જખરા તકરારી વિષય છે કે નિરપરાધી અવાચક પશુનેા નિષ્કારણ ક્રૂરપણાથી વધ કરવા તે નિર્દયની પરિસીમા છે તે અપરાધના ગભીપણા આગળ ખાનગી હાજતની કે મનેા વાસનાની પરિતૃપ્તિનું બહાનું કેવળ હસવા સરખુ અને ધિક્કારવા ચાગ્યજ ગણાય છે. માટે હાલના કેળવણીના અને સુધારાના રાજ વધતા જતા ફેલાવાના સમયમાં દેશરાને દિવસે થતા પશુધના રિવાજ એકદમ બંધ પડવું જોઇએ છીએ. હાલ ઘણા દેશી રાજાઓએ કેળવણી સપાદન કરેલી છે. તા પણ તેઓ આ ક્રૂર અને વહેમ ભરેલે રિવાજ હજી ચલાવ્યે જાય છે, તે અમને તે ખચીત બહુ અજાયખ જેવું લાગે છે. એણુના દશરાના દિવસ હવે નજીક આવ્યે છે તે તકના લાભ લઈને જૈન કેાન્સના જનરલ સેક્રેટરી શઠ વીરચંદ દીપચંદે આ સંમ ધની એક અરજી તૈયાર કરી છે. જેની એક નકલ તેમણે અમને મેકલી છે. જે જે દેશી રાજ્યામાં ટુજી દશરાને દિવસે પશુવધ થાય છે ત્યાંના નૃપતિએ તરફ તે અરજીની નકલે તેમણે મેકલીને અરજ કરી છે કે પશુવધના રિવાજ નિયતા અને વહેમ ભરેલા છે. એટલુ’જ નહુિ પણ સનાતન આર્યધર્મની વિરૂદ્ધ જનારા છે માટે તે બંધ કરાવવાની મહેરમાની થવી જોઇએ છીએ. જૈન કેન્સના સેક્રેટરીની ઉપરની અરજના વાજબીપણા વિષે બે મત છેજ નહિ તેથી તેમાં સમસ્ત આર્યપ્રજાની અનુમતિ છે. માટે અમે આશા રાખીએ છીએ કે, સમજી અને સુશિક્ષિત દેશી રાજાએ તેનાપર ઘટતું ધ્યાન આપીને તેમના રાજ્યમાં ચાલતે પશુવધને રિવાજ હંમેશને માટે બંધ પાડશે. ભણેલા ગણેલા રાજાએ પણ જો વહેમી રિવાજો અને રૂઢીઓના બંધનમાંથી મુક્ત થવાની જાહેર હિંમત નહિ બતાવે તે પછી પ્રજાને દીલાસા મળવાનું કશું સ્થાન રહેશ નાહ. વઢવાણના મહુ મ રાજા દાજીરાજજી જેએ એક ખહુ સુધરેલા અને આગળ પડતા વિચારના તથા સ્વતંત્ર રીતિ કૃતિના નૃપતિ હતા. તેમણે આ પશુવધના રિવાજ તેમની કારકીર્દિમાં અમૃ પાડચેા હતેા. તેથી જૈન પ્રજાજ નહિ પરંતુ સમસ્ત હિંદુપ્રજા તેમની ઘણી અહેશાનમઢ થઇ હતી, પરંતુ દાજીરાજના મરણુ પછી તેમના અનુગામીના રાજ્યમાં હાલ પૂર્વના રિવાજ ચાલુ કરવામાં આવ્યે છે. તે હાલના રાજર્તાની એક જાતની નિર્બળતા અને વહેમીપણાના પૂરાવા છે. સુધરેલા દેશી રાજાઓમાં આવી નિર્મળતા અને વહેમાંધતા આછી થએલી જોવાને અમે ઇન્તેજાર છીએ અને તેટલા માટે અમે ઇચ્છીએ છીએ કે હવે પછી જે જે રાજ્યામાંથી આ જંગલી રિવાજ નાબુદ થાય તેમાં તેનું પુનરાવર્ત્તન ન થાય તેની કાળજી ખાસ કરીને રાજ્યકર્તાઓ અને તેમનાં પ્રકૃતિ મળે રાખશે . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [R] નં. ૧૨. ગુજરાથી પંચ. અમદાવાદ, તા. ૨૩-૯-૧૯૦૭. દૃશરાને પશુવધ–શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કાન્ફરન્સની અપીલ. દારાના માંગલિક અને પવિત્ર દિવસે કેટલાંક દેશી રાજ્યેામાં પાડા અને બકરાંનેા વધ કરવાના ઘણા દુષ્ટ રિવાજ ચાલતા આવ્યા છે. આ ઘાતકી રિવાજના અટકાવ કરવા દેશી રાજ્યેાને ઘણીવાર વિનંતી કરવામાં આવી છે ત્યારે એકાદ એ જગાએજ તેના ઉપર ધ્યાન આપવામાં આવ્યું છે. શિવાયનાં સ્થળેાએ તે રિવાજ ચાલુજ છે. અમને જોઈને સાષ થાય છે કે અવાચક પ્રાણીઓની થતી આ હિંસા અટકાવવા આ વર્ષે શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કાન્સે કાંઇક પગલું ભર્યું છે. અમારા ઉપર માકલી આપવામાં આવેલા ગળા ઉપરથી જણાય છે કે જે રાજ્યામાં આવા વધ થાય છે ત્યાંના રાજકર્તાઓને ફ્રાન્ફરન્સના રેસીડ°ટ જનરલ સેક્રેટરી મ. વીરચંદ દીપચ'દની સહી સાથે છાપેલા વિજ્ઞસિપ મેકલવામાં આવ્યા છે, તેમાં નીચે પ્રમાણે જણાવ્યું છે.—દેવીને ભોગ આપીને સંતુષ્ટ કરવાના ઈરાદાથી આ વધ કરવામાં આવે છે, જેથી કરીને પ્લેગ, શીતળા, કાલેરા, આદિ દુષ્ટ બિમારીએની આસ્તે વસ્તીમાં આવે નહીં; પરંતુ દરવખ આવા વધ થતાં છતાં પ્લેગ, કાલેરા, શીતળા, તાવ, દુકાળ આદિ આફ્તા હિન્દુસ્થાનમાં આવેજ જાય છે, રાજાથી રંક સુધી સર્વને પોતાના પૂર્વજન્મના કર્માનુસાર સુખદુ:ખ ભાગવનું પડે છે અને આ આફ્તા કેવળ મનુષ્યાના પાપાની શિક્ષારૂપ છે. આ પાપોથી ખચવાને વાસ્તે માણુસ નિર્દોષ અવાચક જાનવરોની હત્યા કરે આ કેવા ન્યાય ? શું આવા ન્યાયથી સર્વ શક્તિમાન પરમેશ્વર રાજી થશે ? કદી નહીં. ના. ઈંગ્રેજ સરકારના રાજ્યમાં પણ વખતો વખત પ્લેગ વિગેરે બીમારીએ આવે છે અને કુદરથી નાબુદ થાય છે. તેવા રાગોની શાંતતા માટે કાંઇ પાડા આઠ્ઠીના પશુવધ થતા નથી, પરંતુ તન્દુરસ્તીના નિયમાને અનુસરવાના ઇલાજ લેવામાં આવે છે. પશુવધ શાસ્ત્રરીતે નથી, આવા નિર્ણય મેાટા મેટા વિદ્વાન શાસ્ત્રીઓની સભાઓમાં ઘણીવાર ચઇ ચુકયા છે. અને આવા અસલ શાસ્ત્રના અનુસાર કેટલાક ધાર્મિક રાજ્ય ર્તાઓએ આવા પશુવધ પેાતાની વસ્તીમાં સર્વથા બંધ કરાવી, તે જાનવાની નેક દુવા પ્રાપ્ત કરી છે હજુર રહેમ દિલ, બુદ્ધિમાન અને ન્યાયી હૈાવાથી અમારી અરજ છે જે દશરાના દિવસે આપના રાજ્યમાં પાડાં બકરાં વિગેરેના વધ બંધ કરવાનેા હુકમ જારી કરવાની મહેરબાની ક્રમાવશે અને સનાતન આર્ય ધર્મની રક્ષા કરશે. શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કાન્ફરન્સે ગુજરેલી આ અરજી વખતસરની છે. પાડાં અને બકરાનાં વધને લીધે કોઈપણ પ્રકારનું સુખ થતું નથી, પરંતુ નિર્દોષ પ્રાણીઓના સંહારકારણ વિના કરવામાં આવે છે અને તે કૃત્ય કમકમાટ ઉપજાવે તેવું છે. અમારા દેશી રાજ્ય ર્માંના ઘણા ભાગ કેળવણીને સંસ્કારી થએલે Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] છે અને ખરા પૂજ્ય તથા પાદશા છે તે બરાબર સમજવા લાગ્યા છે. તો હવે આશા રખાય છે કે પોતાના રાજ્યમાં આ ઘરકૃત્ય હવેથી થતું ન રહે એવા ઉપાયે તેઓ તુરત જશે. અવાચક પશુઓના વ્હારે આ પ્રમાણે ઉતરવા સારૂ શ્રી જૈન શ્વેતાંબર કેન્ફરન્સને અમે શાબાશી આપીએ છીએ. અને ઈચ્છીએ છીએ કે દેશી રાજ્ય કર્તાઓને તેણે કરેલી આ પાલ નિરર્થક જાય નહીં. ન. ૧૩ જૈન. અમદાવાદ, તા. ૨૩-૭–૧૯૦૬, શિરાના વિજયવંત દિવસ પશુ હિંસાથી કલંકિત ન કરવાના જૈન શ્વેતાંબર કોન્ફરન્સના રેસીડન્ટ જનરલ સેક્રેટરીને વિજ્ઞપ્તિ પત્ર. હિદ કથાઓ તથા ઈતિહાસ ઉપરથી સ્પષ્ટપણે પ્રતીત થાય છે કે દશરાના વિજયવત દિવસ હિંદુ તહેવારમાં એક અલૌકિક તહેવાર છે. અને તે મહાન્ દિવસ આપણા પ્રાચિન આર્યોનું જાહેજલાલી તથા ઉન્નતીની ઉત્કૃષ્ટતાની ઝાંખી કરાવવાને નિર્મળ આયના રૂપ છે. પાંડવોએ તથા રામે એ વિજયવંત દિવસે જય મેળવીનગરમાં પ્રવેશ કર્યાને એ દિવસ એક જાહેર કેરા રૂપ હોઈને તેને રાજ્યભક્ત પ્રજા વિજયા દશમી કહી તહેવાર પાળતી આવી છે, એવા માંગલીક પરમ કલ્યાણકારી અને આનંદ વર્ધક દિવસને કેવી રીતે ઉજવ જાઇએ તેને લગતી પુરાણમાં અનેક વાર્તાઓ દર્શાવેલી છે. આ દિવસ આર્ય પ્રજાની રાજકીય ઉન્નતીના ઉદયને મહાન દિવસ છે. અને જે આર્ય પ્રજેને રાજકીય સવાલમાં પછાત પડેલી ચિતરવાનો પ્રયાસ કરે છે તેઓને દસરાના દિવસની મૂળ નેમ એક સચોટ જવાબ છે. આર્યાવર્તની જાહેઝલાલીનું દશરાનો દિવસ એક કેદ્રરૂપ છે. અને તેથીજ એ રાજ્યકીય વિજ્યવંત દિવસ ભારત વર્ષમાં સામાન્ય રીતે આલ્હાદ વર્ધક પર્વ તરીકે થવાય છે. હજારો વર્ષ અને અનેક રાજ્યકાંતિઓ થયાં છતાંપિ આ મહાન રાજકીય દિવસને મહિમા ગૌણ પણ રૂપે પ્રત્યેક ભારત વાસીના મનમાં બીજાં કરરૂપે રહેલે છે એજ બતાવી આપે છે કે આ મહાન દિવસનું મહામ્ય કેટલું અને કેવું નિસર્ગિક છે, ક્ષત્રિયકુળ ભૂષણ રઘુનંદન રામે પ્રજાને ત્રાસ આપી ધર્મકાર્યમાં વિધ્ર નાંખનાર ક્ષસ, રાજે, રાવણાદિ દેયનો સંહાર કરી સામ્રાજ્યની સ્થાપના કરી પ્રજામાં “રામરાજય” ની અનુપમ છાપ પાડી વિજ્યનો પાડો વગડાવી જે દિવસે વિજ્ય શ્રીરંગ દર્શા હતે તેજ દિવસ આ દશરાને અથવા વિજયા દશમીને છે; મૂળ તાત્પર્ય એ છે કે એ મહાન શુભ દિવસ વિજયને આનંદ પ્રદર્શિત કરવાનો છે. પ્રજામાં આંગણે આંગણે ઘરઘર વિજય પતાકારૂપ તેરણો બાંધી, વાવટા લટકાવી પૂર હર્ષમાં વર્ષને આ એક દિવસ રાજા પ્રત્યેને ભક્તિભાવ દર્શાવવાને નિયત થયેલ છે. આ પરંપરા પ્રાચીન Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨૪] સમયથી મદત રીતે ચાલી આવે છે, અને એજ પ્રમાણે કાં રજપુત રાજા મહારાજા કે મુસલમાન માદશાહોનાં રાજય અમલમાં પણ થઈ રહ્યું હતું. તહેવારના મૂળ હેતુ નષ્ટ થતી “ સાપ ગયાને લીસોટા રહ્યા” એ કહેવતને અનુસરીને પ્રજા પીડિત દુશ્મના ઉપર વિજય મેળવવાની તા શક્તિ નષ્ટપ્રાય થવાથી, મનુષ્ય જાતને દરરોજના વ્યવહારના કામમાં ઘણા ઉપયોગી પશુએ ઉપર સમશેરની પટ્ટાબાજી અજમાવાને શરમ ભરેલેા રિવાજ દેખાદેખી સજા-મહારાજાએ અને બાદશહાએએ સ્વીકાર્યાં. કાળબળે પ્રજા પણ વહેમેની જાળમાં સપડાઇ જવાથી આ ચાંડાલ નૃત્યમાં સામેલ થઇ, જેથી રાજા પ્રજાના એકત્ર જેસથી મૂળ અભિપ્રાય હાલમાં ઉડી ગયા અને આધુનિક ક્ષત્રિય કુળના કહેવાતા રાજા મહારાજાએ તથા મુસલમાન નવાબ અમીરા પ તકાવારની અજમાયસ કરવા લાગ્યા અને તેનેજ શુરાતની શીખવાની શાળા ગણવા લાગ્યા. કેળવણીના અભાવે કરી પ્રજામાં ધર્મ તત્વના જ્ઞાનના અજ્ઞાનરૂપ અંધકાર છવાતા ચાલ્યા. જેથી સ્વાભાવિક આપત્તિએ પડતાં તેના પ્રતિકાર કરવાને મદલે માતા અને ભૂત પિશાચાને આવી વિપત્તિઓના આપનાર અધિષ્ટાતા દેવગણા તેને ખુશ કરવા પાતાનું અલિદાન આપવાને બદલે મુંગા પ્રાણીઓ તરફ દૃષ્ટી ફેકી નિરાધાર અવાચક પશુઓને હણવા લાગ્યા. કેટલાક નરાધમે પવિત્ર વેદમાં પશુયજ્ઞને વિધિ વિહિત ગણ્યાની દીવાના સઈ સ્વાર્થની ખાતર વાતે કરતાં શરમાતા નથી. વેદમાં એવા કાઇપણ યજ્ઞની આજ્ઞા આપવામાં આવી નથી, તેના પુરાવામાં ધરમપુરના માજી ડૉકટર રા. રા. પ્રાણજીવનદાસ મહેતાએ ઘેાડા વખત પહેલાં હિંદુ શાસ્ત્રીઓના મેળવેલ અભિપ્રાય રજી કરી શકાશે, એ સઘળા શાસ્ત્રીએ માતા કે કેાઈ દેવને પશુભાગ આપવાની તથા હિંદુધર્મમાં તેની આજ્ઞા હાવાની સાફ ના પાડે છે. એટલુંજ નહીં પણ શ્રી ગોરધન મઠના હાલના શંકરાચાર્ય શ્રોમદ પરિવ્રાજકાચાર્ય સ્વામી જગન્નાથતીર્થ કે જેવા સંસ્કૃત જ્ઞાનમાં ઘણા પ્રવીણ ગણાય છે અને જેમણે ગયા કુંભના મેળા વખતે હિન્દુસ્થાનના મળેલા વિદ્વાનેાની સભામાં ઉત્તમ પ્રકારનું ધાર્મિક ભાષણ આપ્યું હતું તેએ શ્રી પશુયજ્ઞની કે પશુવધની હિન્દુશાસ્ત્રમાં કાંઇ પણ આજ્ઞા આપ્યાનું પોકારીને ના પાડે છે. સનાતન હિંદુધર્મના કેટલાક દુરાગ્રહીએ થોડા વર્ષ પહેલાં આ પાપિષ્ટ કર્મની હીમાયત કરતા હતા. પરંતુ પાશ્ચાત્ત મ્લેચ્છ સંકૃત વિદ્વાનાએ તેઓની પાપિણ વૃત્તિને પ્રાણીજન્ય પ્રેમના પુનિત જળથી ધોઇ નાંખી, છે, અને તેથી હવે આ પશુવધના કર રિવાજની કોઈ હિંદુ બચ્ચા હિમાયત કરવાને મેદાન પડે તેમ નથી, તેા પણ આ ક્રુર ઘ:તકી, નિર્દય; નિર્લજય અને અમાનુષિક રીવાજ હજુ પણ કેટલાંક દેશી રાજ્યામાં વિજ્યા દશમીના માંગલિક દિવસે પ્રચલિત રહેલા ટ્રષ્ટિ ગોચર થાય છે રાજય કુમારોને તેમના રાજ્યકર્તા તરીકેના ધર્મ આપે, અને સાંપ્રત સમયને અનુકૂળ આવે એવી તેઓની સ્થિતિ સાચવનારી કેળવણી નામદાર સરકાર તરફથી આપવી શરૂ થઇ છે, અને જણાવતાં પરમ હર્ષ થાય છે કે ધણાખરા રાજ્યકત્તાએ આ કેળવણીને કીર્તિવંત કરી નિરપરાધી પશુઓ અને સ્વય' શકતીની તુલના ઉંરાવી છે, અને આ વહેમી, ધર્મ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4 ] ભ્રષ્ટ, ધર્મપતિત તથા અમાનુષિક રૂઢીનું નિકંદન કરવાને જાગૃત કર્યા છે, છતાં હજી ઘણા રાજયકર્તાએ આ દુષ્ટ રિવાજને છેડી દેવાને વહેમ અને ધર્મના ' આંદોલનમાં ત્રિશકુની ગતિમાં રહેલા છે. રાજયકતી કામ જોકે માંસાહુારી છે, પણ તેઓ આવા વહેમી વિચારાથી પશુહિંસા કરનારી નથી. રાજયનીતિનું શિક્ષણુ સ્પષ્ટ શબ્દોમાં કહે છે કે રાજાએ સમળના જુલમથી નિર્બળનું હમેશાં રક્ષણ કરવું જોઈએ. આ રાજયધર્મ પણ કેટલાક રાજાઓ પાળતા જણાતા નથી. આમાં અમે તેના વિશેષ ઢાષ હાડવાને પગભર થતા નથી, કારણકે પ્રજાપણ કેળવણીના અભાવે વહેમેાને તજી શકી નથી, દીવાના, કારભારીએ તથા સ્વાર્થ સાધુમ`ત્રીમંડળ પણ હાજી હા કરનાર આસ પાસ વીંટળાએલ હાવાથી રાજયકર્તા આ પુરાણા રિવાજને છેાડવા જેટલી નૈતિક હીમત અતાવી શકતા નથી. ૮ યથા રાજા તથા પ્રજા ’” એ કહેવત ઠીક છે પણ જમાનાની ભુખી એવી પણ છે કે “ યથા પ્રજા તથા રાજા ” એમ પણ થએલું આપણે આધુનિક કાળમાં આપણી ચક્ષુએ નિહાલીએ છીએ. સુભાગ્યે શનૈઃશનૈઃ પ્રજા તથા રાજામાંથી અજ્ઞાનરૂપ અધકાર કેળવણીરૂપ સૂર્યના પ્રકાશથી અદ્રશ્ય થતા જાય છે અને તેથીજ આશા રખાય છે કે નજીકના ભવિષ્યમાં કુદરતે માણસોને પશુઓના જે હવાલે સોંપ્યા છે તેને મની શકતી રાહત આપવાને મનુષ્યની પક્ષપાતિ બુદ્ધિ ટળી જઈ નિઃસ્વાર્થ અને પરોપકાર બુદ્ધિ અવશ્ય ઉદ્ભવશે વિજયાદશમીના તહેવાર ઉપર પાડાએ બકરાંએ અને ઇતર પ્રાણીઓને ફક્ત વહેમી વિચારોથી તથા ધર્મના જુઠા બહાના તળે વધ કરવામાં આવે છે. તેવા વધના પાપથીજ આ પવિત્ર ભારત ભૂમિની કંગાળ સ્થિતિ થઈ પડી હાય તે સંભવિત છે. એ નિશ્ચય છે, માટે દેશના ઉદયની તથા આખાદીની જે કાઇ હિં દીવાન અંતરમાં અભિલાષા રાખતા હાય તેઓએ આ થતા પશુવધના નિર્દય કામને અટકા વવાના અવશ્ય પ્રયત્ન આદરવાની પ્રતિજ્ઞા લઇ શરૂઆત કરવી જોઇએ. કલકત્તાની કાલીમાતાને દશરાને દિવસે અપાતે બકરાના ભાગ સુધરેલા મ’ગાળીએને માથે ન ધાવાય તેવુંજ કાળું કલંક છે, અને અમાને આશ્ચર્ય થાય છે કે આવા સુધરેલા જમાનામાં આગળ વધેલા મગાળીએ આવી રકત તાતુર કાળી માતાને સંતુષ્ટ કરવા અવાચક પ્રાણીઓની નિર્દય કતલ ચલાવી ખંગાળી પ્રજાને પાપકર્મમાં ડુમાવી માતાને વિશેષ કૃષ્ણર’ગી ચિતારવાની રાક્ષસી રૂહીને હજુ પણ કેમ અનુમાદતા હશે તેની સમજ પડતી નથી. બાળલગ્નની તથા વિધવા પુનર્લગ્નની દયાની ખાતર હિમાયત કરનારા વિદ્વાન બંગાળીઓને પામર પશુઓની દયા આવતી નથી એ કેવું શાચ નિય છે, તે અમારા વાંચકે ફિટકારથી વિચારશે. ગુજરાતના રાજયકર્તાઓ તથા પ્રજા કાંઈક જાગી છે અને પ્રાણી રક્ષકના હિમાયતીએ તે પ્રાણીને અભયદાન આપવાની તકલીફ્ લેતા રહે છે તેથી ઘણા રાજા મહારાજાએ પ્રાણીઓની દયા ખાવા લાગ્યા છે. જેન શ્વેતાંબર ( મૂર્તિપૂજક ) કેન્ફરન્સ સ્થપાયા પછી નકામી જીવહિંસા થતી અટકાવવાના શુભ પ્રયત્ન થવા લાગ્યા છે તે જોઈ દરેક દયાળુ મનુષ્યનું અંતઃકરણ.. બિના Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાસાગરમાં હળતું હશેજ. દશરાનો વિજયવત દિવસ સમીપમાં આવ્યું છે તેની યાદી આપ જૈન શ્વેતાંબર કેન્ફરન્સના રેસીડન્ટ જનરલ સેક્રેટરી શેઠ વીરચંદ દીપચંદ સી. આઈ તરફથી દેશી રાજ્યકર્તાઓને દશરાના તહેવાર ઉપર પશુવધ ન કરવાને. વિજ્ઞાન્તિ પત્ર પાઠવવામાં આવ્યો છે, જે જિનકેમની મુંગા પશુઓ તરફની કેટલી કાળજી છે તે દર્શાવે છે. તેથી એ પત્ર અમે સદાબરે નીચે આપીએ છીએ જે આ પુસ્તકના ભાગ ત્રીજાના શરૂવાતમાં આવી ગઈ છે. તે વાંચી વિદિત થશે. અને પરમાત્માને પ્રાર્થના કરીએ છીએ કે અમારી જૈન સમાજના એ વયેવૃદ્ધ મંત્રીને પ્રયાસ સફળ થાય અને પવિત્ર આર્યાવર્તની અહિંસા ધર્મના ઉદ્યોગની વૃદ્ધિ થાય તથા દેશી રાજાઓના મનમાં પરમાત્મા સદબુદ્ધિ પ્રેરી માનવકુળને ભૂષણરૂપ જે દયા તે તેના મનમાં ઉદ્ભવિત કરે. આમીન. નં. ૧૪ જેન વિજય. મુંબઈ, તા. ૧૮-૧૯૦૬. દશેરાને દિવસ અને જૈનેની તે તરફ દયાની લાગણું. જમાનાનું કે ધર્મનું વાતાવરણ ગમે તે દિશા તરફ વળેલું હોય તે પણ એ તે ઘણું ખુશી થવા જેવું છે કે કોઈ પણ ધર્મના અનુયાયીઓ દયાધર્મને સૌથી ઉંચું અને ઉત્તમ સ્થાન આપતા જાય છે. આપણે દેશ આર્ય કહેવાય છે અને હજુ પણ તેમાં જેએ આર્યાવર્તનું જે અભિમાન દર્શાવે છે તે અમારા ધારવા અને માનવા પ્રમાણે આવી દયાધર્મની ઉત્તમ લાગણને લઈને જ છે. જે દેશમાં પ્રાણી માત્ર તરફ દયાની લાગણું જોવામાં પણ આવતી નથી તેને આપણે અને બીજા બધાએ એમ એક આવાજે કહીએ છીએ કે યુરોપ અને અમેરિકા જેવા અનાર્ય દેશમાં પણ વેજીટરી અને મોટા પ્રમાણમાં વધતા જાય છે, અને જેમ જેમ તે વિશેષ વિશેષ સમજતા થશે તેમ તેમ તેઓ પ્રાણપર પિતાની લાગણી એક સરખી દર્શાવ્યા વગર રહેશે નહીં. બધા ધર્મમાં એ ફરમાન છે. એટલું જ નહિ પણ જેઓ જડવદિ કહેવાય છે. અને ધર્મ કે ઇશ્વર કાંઈ પણ માનતા નથી તેઓ એમ જરૂર કહેશે કે પ્રાણીમાત્ર પર દયા એ એક ઉત્તમ નીતિ છે, જડવાદિઓ નીતિને માન આપનારી છે અને તેમાં પ્રાણીમાત્ર તરફ દયા એ એક ઉત્તમ નીતિ તેઓ માને છે. આ પ્રમાણે દયા એ દરેક સમજુ અને વિચાર કરનારા માણસના હાડમાને એક ઉત્તમ ગુણ અને સિદ્ધાંત છે. આમ છે છતાં ધર્મના નામે ઓછી હિંસા થાય છે એમ નથી. કેટલાએક માંસવૃધી. કેની શુદ્ર લાલસાને લીધે કેટલાએક ભોળા લોકેને એ લેકેએ ધર્મને નામે હિંસા અસ્થાને પ્રેયાં છે. અને એવી રીતે કેટલીક વખતેમાતાઓ કે હલકા દેવ દેવીઓ આગળ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બિચારાં મુગા અને નિરપરાધી પ્રાણીઓને વિનાકારણે હલાલ કરી નાખવામાં આવે છે ચુસલમાની રાજ્યમાં જયારે લોકોને પિતાની માલમતાની રક્ષણની ભારે ફિકર લાગી હતી ત્યારે ધર્મના નામે અને જુલમમાંથી કે રેગમાંથી બચવાને માટે ખેટી આશાએ આપી સ્વાથી ધર્મગુરૂઓ તરફથી આવી રીતે માંસ ચડાવવાની પ્રવૃત્તિ ચાલુ થઈ હોય તે તે સંભવિત છે. દશેરાના દિવસે પણ એજ રીત મુજબ કેણુજાણે કેવા હેતુથી બિચારાં નિરપરાધી પંચેદિ અને ઉપયોગી પાડા જેવા પ્રાણીઓનો વધ કરવામાં આવે છે. એક નિરપરાધી માણસને કેઈ વિનાકારણ શકતી ચલાવી મારી નાખવાને કઈ રીતે હકદાર નથી. અને તેવું અપકૃત્ય જે કઈ કરે છે તે તે ફાંસીની સજાને ગુન્હેગાર ગણાય છે ત્યારે સરખે આત્મા ધરાવનાર બિચારા અબેલ પચંદી તીર્થંચ પ્રાણીની ફરીયાદ કેઈન સાંભળો તેની વકીલાત કેઈ ન કરે અને કેવળ નિર્દોષ જીવને પિતાના બળને ગેર ઉપયોગ કરી મારી નાખવામાં આવે એ શું માણસ જાતને માટે ઓછું ખેદકારક છે! પાડાને વધ કરવામાં અંધ શ્રદ્ધાળુ ગમે તે ધર્મનું નાનું કાઢવામાં આવતું હોય તે પણ તેથી તે નિર્દોષ પ્રાણીની લાગણી અતીશે દુઃખાય છે એમ જેઓ સમજી શકે છે તેઓ એમ કદી પણ નહીં કહે કે એ ધર્મનું ફરમાન કેઈ કાળે હોઈ શકે! કઈપણ જીવન લેશમાત્ર લાગણી દુઃખાય તેને જે ધર્મ કહેવાતું હોય તે અત્યારે કુદરતી રીતે અને શાસ્ત્રના આધારે જેને ધર્મના ફરમાને કહેવાય છે તે બધા જુઠાં હોવા જોઈએ અને જે તેમ નથી તે પછી કેઈપણ રીતે પારકાના આત્માને ભાવ તે એક મોટા પાપને અને અધર્મનું કૃત્ય છે એમ વગર વિલએ કબુલ કરવું પડશે. એમ કહેવાય છે કે દશેરાને દિવસે પાંડવ અને કૈરવની લડાઈ થઈ હતી. અને તે વખતે હજારે જીવેની હિંસા થઈ હતી પાંડની જીત થઈ હતી અને કાર હાર્યા હતા. માતાજી અને શ્રીકૃષ્ણ મહારાજ એ દિવસે પાંડે બહુ પ્રસન્ન થયા હતા. માટે તે દિવસે પાડાને ભેગ આપી માતાને પ્રસન્ન કરવા જોઈએ. વળી તેઓને પ્રસન્ન કરવા માટે નેરતાના નવ દિવસ સુધી તેના ગુણ ગાવા–અને દશમે દિવસે પ્રસન્ન કરવા. અમે સમજી શકતા નથી કેદુનીયામાં માણસને વિચાર હશે કે નહિ. એક ઢેર પણ સામાન્ય નજરથી સિધે માર્ગે ચાલ્યું જાય છે, અને કોઈને પણ ઈજા કરતું નથી તે પછી માણસ જેવી વાત પિતાની જાતને પડતી મૂકી પાડો અને બકરાં જેવા અબેલ નિર્દોષ પ્રાણીઓની કમ કમાટી ઉપજાવે તેવી હિંસા કરી માતાને પ્રસન્ન કરવાને ડાળ ઘાલે એથી મુક્તિા અને ઘેલાઈ બીજી કઈ હોઈ શકે ! જે માતા પ્રાણીને જીવ લઈને પ્રસન્ન થાય છે. એ માતા તરફથી બીજી આશાઓ બાંધનારા મૂર્ખાઓ હજી આપણા દેશમાં વાસ કરે છે એ આપણા દેશને માટે એ ખેદ કારકનથી ! જે આવા વિચાર વગરના અને સુખ આ દેશમાં ઓછા હોય અને તેની જગ્યાએ કાર્યકાર્ય કે ગ્યાયેગ્યના કાંઈક વિચાર કરી પોતાનું વર્તન કરનારા પુરૂ હોય અથવા પ્રાણીમાત્રના હક તેમને ચરખા સુર Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ Re નથી મળવા જોઈએ એટલું પણ એ સમજતા હૈાય તે આ દેશ આવી છેકે અધમસ્થીતિએ પહોંચ્યા ન હાત! અમે એમ નથી કહેતા કે તમે દેવીને માના નહિ, તમે તેના ખુશીથી ગુણગાન કરી, તેના પગમાં પડા, અને તેની આશિષ માગે, પણ તે એટ લેથી તમારી માતાએ પ્રગન થતી નહિ હેય તે તે માતા પ્રાણીને ભેગ લેતાં કાઈદવસ તમારા પેાતાનાજ ભાગ લઇ જશે એમ તમને કેમ ડર લાગતા નથી ? અમને વિશેષ અજાયબીતા એ ઉપરથી લાગે છે કે આપણા માનવંતા ગોંડળ, જામનગર વિગેરેના મહાગ્રજાએએ એ દુષ્ટ રિવાજ અંદ કરવાથી કયા ઉપર એ ભેાગની તૃષ્ણાવાળી માતાએ કાપ કીધા ? એવા દાખલા કોઇ અંધ શ્રદ્ધાળુ હાલ ખતાવશે, અને જ્યારે તેવું નથી ત્યારે બિચારા પાડા જેવા પંચેક્િ નિર્દોષી જીવને ખચાવવાનુ પુન્યકરી સ્વંગના માર્ગ લેવાની તમને કેમ બુદ્ધિ સુઝતી નથી ? પરમાત્મા અને એ તમારી માતા તમને સત્બુદ્ધિ સુજાડે અને પાડાને મારી તમે ઘાર નર્કમાં જતાં ખચી જતાં અટકે એવી અમારી તમારા તરફ કરૂણા જનક આશીષ છે. આપણા જૈન ધર્મના શાસ્ત્રમાં દશરાનું પર્વ હાય એમ અમારા જાણવામાં નથી. અને આપણા જૈન ભાઈએ કે જેએ બધા જીવા તરફ એક સરખી દયાની લાગણી ધરાવે છે. તેઓ માતાને ભેગ આપવાના ખાટા રિવાજમાં કદીપણ સામેળ થાય કે તેને લેશ માત્ર અનુમેદન આપે એમ માનવું એ એક તદ્દન ભુલ ભરેલું છે. તે પણ આપણા ભાઈ આને પણ સંસર્ગને લઇને લડાઇઓ કરવામાં અને હિંસાને ઉત્તેજન મળે તેવી રીતે તે દિવસ પસાર કરવાને કાંઇક ચડસ લાગ્યા હેાય છે. એમ દક્ષિણ તરફના ભાગમાં અમેએ અનુભવ્યું છે. તે દિવસે ગાડીની, ઘેાડાની, અને મળદ્રુની દોડધામ કરી મુકે છે. બિચારાં મુંગા પ્રાણીઓને પોતાની રમત ખાતર માર મારવામાં આવે છે. એ અજ્ઞાનતાને લીધે અમે ઘણાજ ખેદ પ્રદર્શિત કરીએ છીએ. અને આવા પર્વમાં ભાગ નહિ લે તે એટલુંજ નહિ પણ આપણાથી જયાં સુધી એ બિચારા જીવાની સૌરી દયાન વાળી શકાય ત્યાં સુધી આપણે એ દિવસ આપણામાટે મેટા શાકના કારણરૂપ ગણવા જોઇએ. જે દેશી મહારાજાઓએ આવી રીતે થતા નિર્દોષ પાડાને વધ દૂર કરવાને સ્તુતિપાત્ર ઠરાવ કરી પેાતાની ફરજ ખાવવા ઉપરાંત આપણાપર ઉપકારની લાગણી દર્શાવી છે, તેઓને અમે અંતઃકરણ પૂર્વક ધન્યવાદ આપીએ છીએ અને આપણી માયાળુ બ્રીટીશ સરકારને અને ખીજા દેશી રાજાએને નમ્રતા ભરેલી અરજ ગુજારીએ છીએ કે તેએ પણ એ પ્રમાણે ઠરાવ કરી બિચારાં પ્રાણીઓના જીવ ડુાંસલ કરી અમારાપર મોટા ઉપકાર કરશે, પરમાત્મા ધર્મને નામે આવી હિંસા કરનારા અંધ શ્રદ્ધાળુ જીવને સત્બુદ્ધિ આપો. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨૬]," ન. ૧૫ ધી ઈન્ડીયન એડવર ટાઇઝર. અમદાવાદ, તા. ૨૨-૯-૧૯૦૬. દેશી રાજયાને દશરાના પવિત્ર તહેવાર હિંદુ લેાકેામાં દશરાના દિવસને એક મેટા તહેવાર ગણવામાં આવે છે. તે પવિત્ર દિવસને સૌ આનંદસહુ ગાળવાને તલ્પી રહેલ હાય છે. પરંતુ તે દિવસે પ્રાણીયેાનાં જીવ ઘણાંજ ગભરાયલા હોય છે. કુદરતે એક નાનામાં નાના જીવથી તે મેટામાં મેટા સર્વ જીવાને સરખી બક્ષીસે આપેલી છે. છતાં દશરાના જેવા પવિત્ર દિવસે ધર્મને અહાને બકરાં, પાડા જેવાનાં વધ થતા હોવાથી પ્રાણીયા ઉદાસીન રહે છે, ધર્મને બહાને મોટાં પ્રાણીઓનાં રૂધિર વિનાકારણે દેવા આગળ લહેવરાવવામાં આવે છે. તે ત્રાસ જનક વાત સાંભળી કયા વિચારવંત જનનું હ્રદય નહિ પીગળે, અÀાસ ? અશેાસ ? શું ધર્મ જે દુર્ગતિમાં પડતા અટકનાર છે ધર્મનાં કાર્યજ અધોગતિમાં લઇ જવાનાં દરવાજા ખુલ્લા મુકે ? કેટલાંક દેશી રાજયામાં આશે। શુદી ૮ તથા આશે શુટ્ઠી ૧૦ નાં રાજ પ્લેગ, કેલેરા, શીતલા, વિગેરે દુષ્ટ ખીમારીયા આવે નહીં તેથી દેવીને સંતુષ્ટ કરવા આવા નિરપરાધી અવાચક મુંગા પ્રાણીયાના વધ કરવા એ શું ન્યાય ? શું આથી પરમેશ્વર રાજી થશે. જરા નહિં. આજે આપણે ઘેાડા વખતથી દશરા જેવા પવિત્ર તહેવારાએ મુ‘ગા પ્રાણીઓનાં વધ થતાં સાંભળીએ છીએ, પરંતુ તેથી જરા પણ આક્ દૂર થઈ સાંભળી છે ? હમેશાં વધતીને વધતી આફત આવતી જોઇએ છીએ ત્યારે એનું શું કારણુ કહું ? કહીશ કે અવાચક પ્રાણીયાના વધજ છે. રાજાથી રક સુધી સર્વને પેાતાનાં પૂર્વ જન્મના કર્માનુસાર સુખદુઃખ લાગવવું પડે છે ને જે આફત આવે છે તે મનુષ્યેાનાં પાની શીક્ષાજ છે. પ્રાણીયાને મારવામાં પુણ્ય હૈાય તે “ અહિંસા પરમે ધર્મઃ ” એ સૂત્ર કેવી રીતે આર્યધર્મમાં ઉત્કૃષ્ટ પદ પામ્યું. કેટલાંક ભેાળા અંધ શ્રદ્ધાળુ મનુષ્યા કહે છે કે માતાનું કરી છે, તેા નહિ કરીએ તે માતાને કુકુ પડશે, અરે જે માતા તમે મહા દયાળુ, ભકત વત્સલ, આખી સૃષ્ટિની જનેતાં રૂપ માને છે. તે પાતાનાં એક બાળકનાં રૂધિર પાનથી સંતુષ્ટ થશે ? તમે તે માતાને તમારા ધર્મને આખા આર્યાં વર્તને આવા દુષ્ટ કર્મથી કલંક લગાડા છે. કેટલાંક રાજ્યેામાં “ જન કેાન્ફરન્સની ” વખતા વખત અરજીથી આવા દુષ્ટ રીવાજો અધ થયેલા છે. ત્યાં શું તેથી દેવ, દેવીઓએ અસ ંતુષ્ટ થઈ આતામાં ગરક કરેલ છે ? આવા નિરપરાધી મુંગા ઉપચાગી પ્રાણીયાને વિના કારણે મારી નાંખવાનાં રિવાજથી રાજા, મહારાજાને ગાબ્રાહ્મણ પ્રતિપાલ-નિરાશ્રીતાધાર–પ્રજાપાલક-યાય-યા-ક્ષમા વિગેરે વિગેરે “ ઈલ્કાબા આ તનુમારફતે માતાએ માકલ્યા હશે ? આગળ શું આવા રિવાજ હતા ? પુરાણા તપાસતાં આવા દાખલા કોઈ મળી આવતા નથી. પશુવધ એ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨૦] શાસ્ત્ર રીતિ નથી. હો રાજા મહારાજાઓને વિનંતી કરી શું કે હિંદુઓનાં તહેવારોના. દિવસે પશુવધ કરનારી સલાહ આપનાર શાસ્ત્રી પાસે આર્યમાતા તરફથી મળેલા ઈલકાબને અથે કરાવ! હિંદુ રાજાઓ એકદમ આવા રિવાજને દેશવટો આપી સુગા અવાચક પ્રાણીનાં જીવ ઉગારી સનાતન આર્યધર્મની રક્ષા કરશેજ ? એવું ધારી અમને આ પ્રસંગે અ. લખવાની જરૂર જણાય છે. આમીન. નં. ૧૬ ધી કેરેનેશન એડવર ટાઈઝર. તા ૨૮-૧૦-૧૯૦૬. દશેરાને દિવસે દેશી રાજ્યમાં થતો પશુવધ. દર વર્ષે દશેરાના માંગલિક તહેવારો નજદીક આવતાં કેટલાક દેશી રાજ્યમાં ધર્મને બહાને દશરાના માંગલિક દિવસ ઉપર બકરાં, પાડા તથા બીજા મુંગા અને નિર્દોષ. જાનવરોના થતા વધને અટકાવ વિષે દેશી રાજાઓની જાહેરમાં અરજી કરવામાં આવે છે જે ઉપરથી કેટલાક દેશી રાજાઓએ પિતાના રાજ્યમાંથી એ ઘાતકી રસમ દૂર કરી મુંગા અને નિર્દોષ જાનવરના થતા વધને અટકાવ્યું છે. પરંતુ હજુ કેટલાંક રાજ્યોમાં તેવો રિવાજ નાબુદ થયે નથી તેવાં રાજ્યને દશરાના માંગલીક તહેવારે આ વરસ પણ પાસે આવતા હોવાથી કેળવાયેલા દેશી રાજાઓએ અસલી વહેમથી ચાલતે આવતે. રિવાજ દૂર કરવા જાહેર વર્તમાન પત્રોની અરજ ઉપર ધ્યાન આપી તેઓ પિતાના રાજ્યમાં ધર્મને બહાને મુંગા અને નિર્દોષ પ્રાણીઓના થતા વધને અટકાવી તે રિવાજ નાબુદ કરશે એમ ઈચ્છીએ છીએ. નં. ૧૭ ADVOCATE OF INDIA. Bombay. Date 28-9-1906. The "Hindoo Patriot” has the following on the subject of the sacrifice of animals. A very timely appeal has been issued by the Bombay Jain Swetamber Conference to Hindoo ruling chiefs on the Subject of animal sacrifices. The appeal is to forbid the killing of any animals during the "Pujahs." We trust the appeal in the name of religion and humanity will have its due effect. In Bengal at least, the practice of sacrificing animals on religious Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ occasions is slowly dying out. Still in important temples a fearful number of animals is sacrified all thraugh the year. The priestly classes ought to condemn the barbarous and inhuman practice, which has crept into Hindu religious ceremonies along with many other evils scarcely less gross and offensive to the senses as well as to religious feelings. The very idea of winning the favour of the Most High by killing before Him and in His name His own creatures, is so preposterous that it is a wonder that the poactice has not altogether ceased in these days of advanced education and diffused shastraie knowledge. There ought to be an agitation set on foot by the educated public to bring the intensely conservative pandit and priestly classes to their senses and effect the abolition of the cruel, loathsome and sinful practice. 1.9C THE RAGOON GAZETTE. Date. 27.9. 906. Animal sacrifices in India. The jain conference has addressed an appeal to Hindoo chiefs to abstain from the offering af animal sacrifice. The appeal says: As heard by us, offerings in the shape of male buffaloes and goats are offered to please and satisfy the goddess on the sacred and religious Dashera holidays in your Highness' 'territory may not suffer from plague, cholera, smallpox and other kindred terrible curses on man. But we beg to submit that notwithstanding the annual recurring offeriags to the e terrible visitants are only the punishmeort of the wicked actions of humanity. Can it be called just and fair to offer dumb, inno-cent, pitiable animals to escape these? Can the Almighty be pleased in this way? The British dominious also are visited by the same terrific curses which disappear in due course of nature, but no such sacrifices are ever offered for the pacification of these curses in British terrirories. Only sanitary measures are adopted for the pacification of these visitants. Ánimal offerings are not scientific or according to scriptures, which decision has very often been arrived at and testified to by able and lerned pandits and some humam rulers following true scriptures have secured the blessings of these dumb creatures by totally prohibiting such sacrifices if their territories. We request your highness who is kind hearted,.. intellectual and a yoyer of justice, to forbid the killing of any animals on the Dashera holidays and thereby protect the "Dharma". Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (**): t. 46 THE HINDOO PATRIOT. Culcutta, Dated. 24-9-1906. A very timely appeal has been issued by the Bombay Jain Swetam. "ber Conference to Hindoo ruling Chiefs on the subject of animal sacrifices. The appeal is to forbid the killing of any animals during the pujahs, We trust tlie appeal in the name of religion and humanity will have its due effect. In Bengal at least, the practice of sacrificing animals on religious occasions is slowly dying out. Still in important temples a fearful number of animals is sacrificed all through the year. The priestly classes ought to condemn the barbarous and inhuman practice which has crept into Hindoo religious ceremonies along with many other evils scarcely less gross and offensive to the senses as well as to religious feeling. The very idea of winning the favour of the Most High by Killing before Him and in His Name His own creatures, is so preposterous that it is a wonder that the practice has not altogether ceased in these days of advanced education and diffused shastraic knowledge. There ought to be an agitation set on foot by the educated public to bring the intensely conservative pandit and priestly classes to their senses and effect the abolition of the cruel, loathsome and sinful practice. d. 20 PUNJAB TIMES. Rawalpindi, Dated-21-9–1906. A REFINED DUSSERAH. Dusserah and Holi are equally important Hindoo holidays when the festivities are always in their full swing. People had come to degrade the very morality of these events, and the curse had extended to such a degree that a reform was more than necessary. On the occasion of a Dasserah or a Holi, you would see the majorities of the public maddened with enthusiasm and carrying on their enjoyments to the extent af shameful immoderation in all conceiveable directionsMoney on such occasions is spent lavishly and the major portion of it goes towards the so called enjoyments in the form of dances and drink. The after effects of all this are in serveral cases the abominable contagion contracted at an opportune moment but which results into a sad predicament. In fact the things had gone so bad and the pinch of immoralily had grown so high that many a respectable family had to undergo untoward circumtances as a sequel to the demoralised way of pleasure making. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३३} We are however glad to notice in this connection that a daparture for the good has been made at Rawalpindi and would like the other big towns to follow the example. It appears that Lala Uttamchand who is by the way, a young man of much public spirit and actions, unheeded by the opposition offered to him, has given a particularly reformed form to the festivities of Dusserah which will be followed year after year and would no doubt impart a very healthy form to the occasion. In brief a coming feature for this year and the years to follow has been given the form of a tournament of sport for all comers which evidently means a most useful occupation of the time for young folks and a regular treat for onlooker. Just compare the significance of this event with the immoderate and immortal bearing of the Dasserah festivities, in common and you would at once realise the change for the good. We would publish the result of the events hereafter which consist of cricket and football competitions, Tug-of-war, Kabbadi, 100 yards race, quarter-mile race, long and high jumps, putting the weight, sack and three legged races and the Blindman's buff. The competing teams for the cricket play in lhe following order. 24th September, S. N. Government High School, versus, D. A. V. High School (a). 25th September, Winners of (a) versus, U. S. Mission High School. નં. ૨૧ JUBBULPORE POST. Dt. 21-9-1906. The Jain "Swetamber Conference" has sent us a Copy of a appeal addressed to Hindoo Chiefs, begging them to stop animal Sacrifices in their territories on the Sacred day of Dasra. The object of these Sacrificies is to keep away plague, Cholera and small-pox and the Conference point to the fact that these Visitations occur notwithstanding the Slaughter that takes place for the propitiation of the goddess and suggests, with good reason that, the Sanitary Measures adopted in British territory may be followed with better results. The appeal is a reasonable one and we hope it will have the desired effect. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat समाप्त. www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com