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अर्थ — द्वेष करनारा, क्रूर, नरोमां अधम, निरंतर अशुभ कर्म करनारा तेओने हुं नरके जवाना मार्गमां फेंकुंकुं. त्यार पछी अत्यंत क्रूरयोनिमां नाखुं लुं.
हवें उपर जे श्लोक लखवामां आव्या तेनुं प्रमाण एवं छे जे वगर विचारे [ एटले शास्त्रना ज्ञान वगर ] पूर्वे जे जे लोको जेवा हिंसादिक कर्मो करी गया ते जोइ कोई पण पुरुषोर शास्त्रविरुद्ध वर्तवुं ते महापाप छे वळी जो देवनिमित्ते हिंसादि कर्मे करवामां आवे छे तो देव कांई हिंसक नथी कारण के ईश्वर केवो छे ते जाणवुं जोईए तो श्रीपातंजलमुनि पोताना पातंजळ योगदर्शन समाधिपादना २४ मां सूत्रमां नीचे प्रमाणे कहे छे
क्लेशकर्मविपाकाशयेर परामृष्टपुरुषविशेष ईश्वरः ॥
भावार्थ -- केश कर्म विपाक अने वासनाना संस्कारथी त्रण कालमां रहित जे पुरुष विशेष ते ईश्वर. योगी पण काळे ईश्वर थाय छे; कारण के ते पण ईश्वर जेवांज चिन्ह धारण करी वर्ते छे. वळी ईश्वर जगतमां कोनाथी अधिक छे तेनो खुलाशो नीचेना श्लोकी थाय छे. पातंजलियोगदर्शन समाधिपाद || श्लोक ॥ १६ ॥
सएव पूर्वेषामपिगुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥
भावार्थ - ते ईश्वर ब्रह्मादि जे पूर्व पुरुष तेना पण गुरु छे कारण के तेनी अवस्था कालथी परिमित नथी; त्यारे झीणो विचार करी जोईए तो आ सृष्टि ब्रह्माथी उत्पन्न थएली मणाय छे. अने तेनी अंदर सर्व देवो प्राणी आदिओ वसे छे. तो ते बधा ईश्वर थकीज उत्पन्न थवा जोईए. त्यारे तेनो नाश पण काले ईश्वरथी थायछे. त्यारे देवो स्वतंत्र नथी अने परतंत्र छे. ज्यारे परतंत्र छे; तो उपरी [ ईश्वर ] नी फरजो उपाडवानी जरुर छे. अने तेम न करे तो गुनेगार तरीके गणाय हवे देवदशा कोने प्राप्त थाय छे ! ते केम आवी ? ते वर्णन नीचेना श्लोकथी कहेवामां आवे छे.
गीता अ. छठो. श्लोक ४१ मो.
प्राप्य पुण्य कृतांल्लोकानुषित्वा शाश्वताः समाः ॥ शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥
भावार्थ - योगथी चलायमान थएलो योगी, पुण्यवान् लोकोने प्राप्त थवानो जे लोक ते लोकने पामीने त्यां घणा कालपर्यंत वसी पछी पवित्र पैसादारना घरमा जन्म पामे छे.
टीका – सर्व कर्मने ईश्वरने अर्पण करी योगाभ्यासमां जोडायेला पुरुषनुं योगनी सिद्धिये पहोंच्या पहेलांज शरीर छूटी जाय तो अभ्यासनी शिथिलता के तीव्रतानुसार तेने. - ते काळे भोगनी के वैराग्यनी वासना स्फुरे छे. जे योगभ्रष्टने मृत्युकाले भोगनी वासनां?
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