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रही युद्धमा परमात्मा कृष्णना वचनथी प्रवर्त्यो हतो; पण तेने घणोक परिताप थयो. ने प्राणीना घातथी राज्य प्राप्त थयुं ते करवाने हुं योग्य नथी एम विचारवा लाग्यो त्यारे ते राजाने यज्ञ करवाथी तारा पापनो नाश थशे ते संबन्धमां तेणे उपलो श्लोक कह्यो छे. पण तेओए तो अपराधिनेज मार्या हता. तो पण तेने राज्य जीवनपर्यंत सुखदाई थयुं न होतुं, तो जो कोइ निरपराधी प्राणीनो अधर्मने धर्मरूपमानी निर्द पणेथी घात करे छे, तो तेओ केवळ कसाईनुं कर्म-करे छे - अने अन्ते घोर नरकनी गतिने पामे छे. वली सप्तमस्कंधमां नारदजीए युधिष्टिर प्रत्ये कहेल छे के:
नदद्यादामिषं श्राद्धे नाश्नयाद्धर्मतत्ववित् ॥
मुन्यन्नैः स्यात् परा प्रीतिर्न तथा पशुहिंसया ॥ १ ॥ नैतादृशो परो धर्मो नृणां सद्धर्म मिछताम् ॥ न्यासो दंडश्च भूतेषु मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ २ ॥
अर्थः-श्राद्धमां मांस न वापरवुं. जेवी शुद्ध अन्नथी पितृओने तृप्ति थाय छे तेवी मांसथी नथी. धर्म इच्छता एवा जे मनुष्यो तेमणे भूत प्राणि मात्रने विषे मन, वचन, कायाथी दंड करवो नहिं . हिंसानो निरोध अने अहिंसानुं प्रतिपादन करवा एक मोटो ग्रंथ करवा धारीए तो ते थई शके माटे आ प्रमाण शास्त्र, वेद, भागवत तथा गीता ते सर्वमान्य गणाय छे. बाकी जे शास्त्रमां हिंसा कहेल छे, ते शास्त्र शास्त्रपंक्तिमां गणवा लायक नथी. माटे चारे वर्ण अने चारे आश्रमवाळाए सर्व प्रकारे हिंसाथी दूर रही अहिंसा धर्ममां वर्ततुं जोइए. तेमां पण राजाने विशेषे करी करवानुं छे. कारण के जे कोई हिंसा करे तेने शिक्षा करवानी तेमां शक्तिनी जरूर छे.
४ प्रश्ननो उत्तर.
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एओने यज्ञोपवीतनो संस्कार छे एटले तेमने शास्त्रमां द्विज एवी संज्ञा आपी छे. द्विजवर्ण कोइ काले हिंसा करे नहीं, करतो होय तेने अटकावे, तेमां ब्राह्मण अने वैश्य कोइ काळे हिंसा करे नहीं, अने क्षत्री पोते करे नहिं, ने करनारने अटकावे ने शिक्षा लायकने पण शिक्षा करे छे.
अने शूद्रने विषे एम छे के केटलाक शूद्र हिंसक वृतिवाळा छे, तेओ शक्ति तथा तांत्रिकोना शास्त्रमां कह्या प्रमाणे तेवा विधि प्रवर्त करे छे, ते चांडाळनी पेठे त्याग करवा योग्य छे. जेओ सदैव वैष्णवना भक्त छे तेमणे सात्विक देवनी पूजा करवी तथा सात्विक यज्ञादिक करवा. वळी तेमनुं अपराधीने दंड देवा रूप राजकर्म ते मोक्षनो हेतु छे. पण तामसभावथी पोताना पाळेला निरपराधी पशुने हणवाथी कोइ रीतनेो धर्मनो हेतु होय तो वेदशास्त्र प्रमाणे अहिंसा धर्म होवोज न जोइए माटे हिंसा ते पापकर्मज समजवानुं छे.
श्रीभागवतमां नारदजी वर्ष वर्ष प्रत्ये इंद्रने अर्थे यज्ञ करता तेमां पण विधिनी गोवर्धनना मोटा उत्सव रूपे अन्नकोटना नामथी प्रवृत्ति थइ छे.
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अन्नादिक यजन छे. तेज नारदजी वैष्णव हता; छतां
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