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परंपरा जैने विषे एषो संसार याय है. एटले संसार संबंधी सुखमात्रनो नाश करनारी हिंसा छ, अर्थात् हिंसा करवाथी पुत्र नाश पामे, स्त्री नाश पामे, धन नाश पामे, राज्यनो नाश थाव, शरीरे कोढ नीकळ, पतनो रोग थाय, ज्यां जाय त्यां अपमान पामे इत्यादि जगत्मां जेटलां जेटलां दुःख कहेवाय छ ते सर्व दुःख हिंसाथी प्रप्त थाय छे ॥ २॥
भगवती कहेता भगवतनी वाणीरूप श्रुतिना अंतरंग अभिप्रायने स्थावरजंगमना मात्मा एवा भगवान् जाणे छ पण बीजो कोई ते तत्वने जाणी शकतो नथी. श्रुतिनो भिप्राय केवळ अहिंसाचं प्रतिपादन करनार छ एवा तत्वने बीजाथी यथार्थ जाणी शकातुं नथी. ३
श्रुतिनो अहिंसारूप अभिप्राय छ तेने भगवान् पोते जाणे छ तेमां कारण देखाडे छे के-हे भगवान् एम कहे छे के पोताना आत्मानी पेठे सर्वभूत प्राणीमात्रने मानवां. एटले जेम कोई पोताने छेदन भेदन करे सारे जेवु दुःख थाय छे तेवूज बीजां प्राणीने छेदन करवाथी थाय. माटे कोई प्राणिनो द्रोह न करवो, एम भगवान कहे छे, ते भगवान आ वेदमां कोई जगाए पण हिंसानो उपदेश करेज केम! अर्थात् हिंसा करवानुं वचन होय ते भगवद् वचन कहेवाय नहीं ॥ ४॥ मनुस्मृतिनो पण अहिंसारूप सिद्धांत छ, ते सिद्धांतने भारतन विषे भीष्म पिताए युधिष्टिर राजापासे कयो छे केसर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् ॥ मोक्षधर्मे अ. ९२
अहिंसा, सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता। न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्ति कश्चन ॥
धर्मात्मा एवा मनु सर्व कर्मन विषे हिंसा न करवी एम कहे छ. भूतप्राणिमात्रनी हिंसा न करवी ए धर्म सर्व धर्म करतां अतिशे श्रेष्ट छ अहिंसाथी कोई मोटो धर्म नथी.
तथाच वृद्धपराशरवाह । शौचं पात्रश्रुद्धिश्च श्रद्धा च परमा याद अनंततृप्तिकाणि एतदेव न चामिषम् ॥ यस्तु प्राणिवधं कृत्वा पितृन्मांसेन तर्पयेत् सोऽविद्वांश्चंदनं दग्ध्वा कुर्यादंगारलेपनम् ॥
नारदश्चाह. ( भागवतसप्तमस्कंधे अ. ९५) न दद्यादामिषं श्राद्ध न चायाद्धर्मतत्ववित् । मन्यन्नैः स्यात्पराप्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥
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