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(७) महिषवर्करादीनां कर्णनासायंगच्छेदोऽपि नैव कर्तव्य:न च स कापि विधीयते दुःखजनकत्वात्तदपि कर्म कथमप्यधर्मजनकमेवास्ति।
अतो मदनुमतौ महाराज धर्मपुराधीशेन विजयादशम्यायुत्सवेषु महिषादीनां वधोऽवश्यं त्याज्यो महिषादिभ्योऽप्यभयदानं दातव्यम् ॥ धर्मपुरे महिषादिहिंसनेन येषां मनुष्याणां मांसा. दिना कथमपि किमपि भक्ष्यमुपलब्धं भवति तत्प्रतिदाने पक्का नादिकं भोज्यं विभागेन ततोऽप्यधिकं महाराजेन प्रदातव्यं । एवं कृते महाराजो महापुण्यात्मा भविष्यति । एवं सत्यमेव धर्म रं नामान्वर्थं भविष्यति । यदि कश्चिच्छास्त्रार्थ कर्तुमिच्छेचदाहं तत्परोस्मि । किंबहुना-राज्ञोऽमात्यवर्गस्य चेष्टचिन्तको भीमसेनशर्मा--
उत्तर १. भावार्थ:-निर्बल प्राणीयोंके मारनेवाले प्रजाके पीडक सिंहादि महान् अनुपकारी पशु प्रजाकी रक्षाके लिये क्षत्रिय और राजपुरुषको मारने योग्य है. यह वेदादि और सब शिष्टोंसें भनुमत शास्त्रोका सिद्धान्त है. और जो “ मधुपर्क यज्ञ" और पितृदैवत कर्ममेंही पशुः मारने चाहिये ऐसा मनुजीने कहा है. इत्यादि वचनोंसे. शिष्टानुमत मन्वादिप्रणित धर्मशास्त्रोमें पशुवध विहितसे लक्षित होता है. सो यज्ञ पशुवध विधि नहीं है. किन्तु विध्याभास है. ऐसे वचन मन्वादि महर्षिप्रणित नहीं. किन्तु पीछेसे किन्ही स्वार्थियोंने धर्मशास्त्रादिमें मिला दिये हैं. ऐसा अनुमान होता है, मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले संशयात्मक मूर्ख नास्तिक पुरुषोंने छिपकर ऋषिप्रणीत धर्मशास्त्रादिमें हिंसाविधायक वचन मिला दिये हैं। साधारण विशेष सब कार्योंमें पश्वादिका न मारना है, धर्मात्मा मनुजीने कहा है, अहिंसाधर्म सब धर्मसें बडा है. मद्य, मत्स्य, पशुमांस, आसव और खीचडी, भात आदिमें मांस. मिलाकर खाना-पिना वा यज्ञमें चढाना धूर्तीने प्रवर्तित कीया है, वेदादि सच्छास्त्रोंमें इनके यज्ञमें चडाने वा खाने पीनेकी कहींभी आज्ञा नहीं. मान, मोह और लोभादिसे अधर्मात्माभोंने यज्ञादिमें पशु हिंस्य तथा मांस भक्ष्य है ऐसी कल्पना करलीइ है, वेदादिक माशोंकों
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