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जाननेवाले धर्मात्मा ती यज्ञादि सर्वोत्तम कार्योंमें विष्णुके आराधनकोही कर्तव्य समझते हैं. नयी तमो वर्द्धनी सर्व सच्छांस्त्र प्रतिषिद्धा हिंसाको किसी ऋषिने किसी यज्ञमें मृगहिंसा की थी, उस हिंसाको करनेसे उस ऋषिका महातप नष्ट होगया, इसलिये हिंसा यज्ञमें करने योग्य नहीं. इ० वचनोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है. यज्ञादिमेंभी पशुका मारना. वेदादि सच्छास्त्रों के अनुकूल नहीं और देवी देवताके उद्देशसे पशुवध शिष्ट सम्मत वेदादि शास्त्रोंमें कहींभी कर्तव्यतासे विहित नहीं है. प्रत्युत निषेध तो निकलता है जैसा कि मद्य, मांस, सुरा और आसव ये यक्ष राक्षस और पिशाचोंका खाना है. इस वचनको कहते हुये मनुजिने स्पष्ट बतलाया है कि मद्यमांसादि देवताओंका खाना नहीं फिर देवताके उद्देशसे किया हुया पशुवध सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है. ऐसा जानना चाहिये. हविका भोजन करनेवाले देवता मद्यमांसादि नहीं खाते.
और जो खाते हैं वे देवता नहीं क्यों कि मद्यमांसादि खानेवाले राक्षस और हवी खानेवाले देवता होते हैं.
(२) मार्कण्डेय पुराणादिमें देवताके उद्देशसे जो पशुवध प्रतिपादित किया है सो ठीक नहीं. क्योंकि मार्कण्डेय पुराणादि ग्रन्थ शिष्टार्य सम्मत नहीं है शिष्टार्य्य लोग वेद और वेदानुकूल ग्रन्थोंहीका प्रमाण करतें हैं वेद विरुद्धोंका नहीं. इससे सिद्ध हुआ हिंसा सब शिष्टार्योको त्याग करने योग्य है.
(३) मनुस्मृत्यादि सर्व सम्मत शास्त्रोंमें जीवहिंसा निषेध बहुत प्रकारसे किया है.' मानवधर्म शास्त्रका सिद्धान्त है कि हिंसा सब पापोंका मूल और अहिंसा सब धर्मोमें प्रधान धर्म है जो अहिंसक प्राणीकों अपने सुखकी इच्छासे मारता है. वह जुवताहुआ तथा मरकरभी कभी कहीं सुख नहीं पाता इसलिये अहिंसक महिष-बकरादि प्राणीयोंको मारनेवालेमी कभी सुखको प्राप्त न होवेंगे यह स्पष्ट शास्त्रोंमे लिखाहै.
(१) दशरानां उत्सवमें राजाओंको पशु मारनेका विधान कहींभी सच्छात्रोमें नहीं लिखा.
(५) शास्त्रनिषेध अनिष्ट कार्यके त्यागसे कोई विन नहीं होता, पशुवध न होनेसे सर्वदा मंगल होगा ऐसा अनुमान कया जाता है.
(६) जब पशुवध पापभाक् है तब उसके प्रतिनिधि कर्मसें कार्य निकालनाभी... मनिष्टही है.
(७) महिप-बकरा भादिको कान नासिकादि का छेदन न करना चाहिये. कौ के कर्ण नासिकादि मंगका काटना शास्त्रविहित नहीं; और कर्णादि. छेदन दुःखजनक होनेसे बडा पाप नहीं तो छोटा पाप अवश्य है. इस लिये मेरि सम्मतिमें महाराज धर्म
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