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अर्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्य ए त्रणने द्विज अथवा द्विजातिय वर्ण कहेछे एटले जेने बे जन्म के एवा कहेछे, चोथी शूद्र जातिने एकजात केहे छे एटले तेने एकवार जन्म छे, पांचमोवर्ण नथी.
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चेति वर्णाश्चत्वारः ॥ १ ॥ तेषामाद्याद्विजातयस्रयः ॥
विष्णस्मृति अ. २ जो.
अर्थ — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र एम चार वर्ण छे तेमांना पेला त्रण द्विज छे. हवे द्विजना त्रण जन्म छे ते नीचे लखुं कुं.
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौजिबंधने ॥
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् ॥ १ ॥ मनुस्मृति अ. २ जो.
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अर्थ - पोतानी माता थकी थएलो जे जन्म ते पहेलो जन्म. उपनयन [ जनोई ] संस्कारथी थएलो ते बीजो जन्म. अने यज्ञ दीक्षा लीधा पछी थएलो जे जन्म, ते त्रीजो जन्म. एवं श्रुतिनुं प्रमाण छे.—त्यारे हवे उपनयन संस्कार थया बाद द्विजने माटे श्रीवेदमगवाने आ प्रमाणें कहुं छे. ॥ अहरहः संध्यामुपासीत ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एत्रण वर्णोंए नित्य संध्यादिक कर्म करवुं जोईए. - ए मंत्रथी मज आज्ञा करी छे, माटे वेदोक्त नित्य कर्म करवामां त्रणे वर्णे प्रमाद करवो नहीं जोईए.
अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः ॥
वेदप्रतिपादित संध्यावंदनादिक नित्यकर्म नहि करवाथी द्विज पापरूप दोषने पामे छे, श्रुतिमां नित्यकर्म नहीं करनारने पापना भागी कह्या छे. ए सर्वदा स्मरणमां राखतुं जोईए के जे संध्यादिक कर्मे नथी करतो तेने शूद्र समान जाणवो.- - भगवान मनु कहे छे.
न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् ॥ सशूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ॥ १०३ ॥
मनुस्मृति अ. २०
अर्थ — जे द्विज प्रातःकालनी संध्याने उभो रहीने करतो नथी, अहीं संध्या ए
शब्दथी गायत्री जाणवी कारण के, -
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