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श्रीमहाभारत शान्तिपर्व, मोक्ष धर्म, अ० २६२ श्लो. २८, २९, ३०, ३१, ३३, ३५ नो भावार्थ आ प्रमाणे छे:- तुलाधार अने जाजलानो संवाद चाले छे. तुलाधार जाजली प्रत्ये कहे छे. हे जाजली ! तप करवायी, यज्ञ करवाथी, दान आपवाथी अने ज्ञानोपदेशनां सद्वाक्यो कहेवाथी जे फल प्राप्त थाय छे ते फल प्राणीने अभयदान करवाथी थाय छे. ॥ २८ ॥ जे पुरुष आ लोकमां प्राणीओने अभय दक्षिणा आहे छे ते सर्व यज्ञो. करना जाणवो. ने ते पण अभयपदने पामे छे. ॥ २९ ॥ सर्व प्राणीओनी अहिंसाथी श्रेष्ट बीजो कोइ धर्म नथी. जेनाथी क्यारे पण कोइ प्राणी उद्वेग पामतो नथी. हे महामुनि ! ते सर्व प्राणीथी अभय पामे छे ॥३०॥ घरमा रहेला सर्पथी जेम लोको उद्वेग पामे छे, तेम आ लोकमां अने परलोकमां ते धर्मने पामतो नथी ॥ ३१ ॥ हें जाजली ! सर्व दानमां प्राणीओने जे अभयदान करते उत्तम कहेवाय छे. आ हुं तमने खरेखरूं कहुं हुं. माटे ते उपर तमो विश्वास राखजो ॥ ३२ ॥ हे जाजली ! अहिंसात्मक अने अभयदानरूप जे सुधर्म छे, ते निष्फल नथी. कारण के वेदमां स्वर्गनी प्राप्तीने माटे तथा ब्रह्मनी प्राप्तीने माटे यज्ञादिक अने शमादिकनुं अध्ययन करेलुं छे, पण तेनो तात्पर्य एवोछे के स्वर्गादिक अनेक फलनो आपनार यज्ञादिक स्थूल धर्म छे अने ब्रह्म प्राप्तीना नित्यरूपने आपनार शमादिक जे अहिंसात्मक धर्म छे ते सूक्ष्म छे; माटे उत्तम छे. ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ते अहिंसात्मक धर्म सूक्ष्म होवाथी जाणवो अशक्य छे, कारण के तेने मर्दन करनारा अने सकामिक मतने पृष्ठ करनारा क्रेटलांएक वचनो हिंसाने बोध करनारा आवे छे. सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभते सप्तदशप्रजापतिः । अर्थ :- प्रजापति दैवत्य एवा सत्तर पशुओने जे आलभन करे एटले हिंसा करे ते प्रजापति भावने पामे. आवी रीते केटलांक श्रुतिबोधित विधिना वचनो हिंसाने एक श्रेयनुं साधनरूप उपदेश करी अहिंसा शास्त्रनुं उपमर्दन करे छे. (निषेध करे छे ). आ ठेकाणे शंका करेछे, जो आवा वचनो श्रुतिबोधित होय तो अहिंसा शास्त्र अप्रमाण गणाय. पण ते विधि एकान्त नथी. केम के केवल एक बीजाना आचारो तरफ ज्यारे जोइए छीए त्यारे श्रुतिबोधित अहिंसा धर्म जाणी शकाय छे. जेम के ( उक्षाणं वावेहतं वाक्षदंतं, महोक्षं वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेत् ।। अर्थ-पहेली श्रुतिमां कां छे के बलिवर्ध अथवा गायने हिंसा करे ने पछी नी स्मृतीमां कह्युं छे के कोइ वेदपाठी, अग्निहोत्री घरे आवेल होय त्यारे तेने माटे मोटो बलद अथवा मोटो बकरो मारवो ) आ श्रुति अने स्मृति हिंसानो बोध करे छे. तेवी रीते "मधुपर्क" मां पण गायना आलंभन करवानो एक आचार बतावे छे. पण तेवी रीते बीजी श्रुति पण हिंसारूप आचारथी विरुद्ध अहिंसारूप आचार बतावे छे. जेम के (मागा मनागां यदिति वधि ॥ अर्थ - निरपराधी अदितिरूप गायनो वध करवो नहीं. आवी रीते हिंसाथी विरुद्ध बीजी श्रुति पोतानो सिद्धांत के वेढ़नी विधिथी करे छे खरा पण ते यज्ञो श्रद्धादिकपणाथी रहित होवाथी अयज्ञरूप कहेवाय छे तेथी तेना दांभीक अन्तर्यज्ञ अने बहियज्ञने योग्य गणाता नथी, अने जेओने पुर्ण श्रद्धा छे तेओने तो एक गायथी ज ब्रह्मय्तनी सिद्धि थाय छे. तेने माटे आ प्रमाणे श्रुति छे. सर्वस्मैवा एतद् यज्ञाय
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