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वा अप्रमाण हे ? यदि प्रमाण हे तो उसमें प्रबळ हेतु क्या ? इत्यादि परंतु इन झगडोंका यहां प्रसंग नहीं है किंतु पत्र लिखत आर्य ग्रंथपर ध्यान रखनेसे वेदको प्रमाण मान करही उत्तर लिखने योग्य हे. वेद ग्रंथको प्रमाण मानने वाले वेदके षष्टांगसे वेद मंत्रका जो अर्थ सिद्ध हो जावे ओर ईश्वरी नियमसे विरुद्ध न हो सो अर्थ मान्य मानते हैं अन्यथा (अमान्य ) वेदके भाष्य (वेदका अर्थ विगेरे ) रावण, उवट, महीधर, सायनाचार्य, मोक्षमूलर, ओर दयानंद सरस्वती ने किये हैं इन सबके भाष्यमें पत्र लिखित हिंसाका तो कहींभी विधान नहीं है (यह पत्रका उत्तर है; बस) परंतु कोइ भाष्य ( महीधर सायनाचार्य ) विषे यज्ञमें पशुवध करके मांस हवन करनेका अर्थ करडालेहें; परंतु दयानंदादिने एसा अर्थ किया हे के वेदमें पशु वध विद्र नहीं किंतु निषेधहे, एसा सिद्धकर देखायाहे. इत्यादि मुख्य प्रबल प्रमाण वेदके अर्थोमें झगडे हैं; वहां यह शंका उत्पन्न होती हे के इनमेंसे किसका अर्थ मान्य होगा? तब वेदके पटांगपर द्रष्टि डालनी पडती हे (वेदानुयायीके मंतव्य अनुसार षटांगकी चर्चा अवश्य करनी पडी.
शब्दके अर्थ करनेमें आकांक्षादि ४ हेतुवों से व्याकरण मुख्य हे; वास्ते वेद ग्रंथके व्याकरणको यहां तपास करनेकी जरुरतहै अतेव नीचे लिखे अनुसार तपासका विस्तार लिखते हैं:-वेद ग्रंथ तो महाभारतके समय तथा व्यास, कृष्ण, पतंजली, राम, गौतम, कपिल, ऋषभदेव और मनु वगेरे पूर्वकालके क्योंके उनके ग्रंथोंमें वेदोंकी साक्षी स्पष्ट लिखीहै ओर वेद ग्रंथोंमें उक्त पुरुष या उनके ग्रंथोंकी साक्षी वा चरचा किंतु किसी मनुष्यका भी इतिहास नहीं है. अब यह विचार उचित हवा के जीस व्याकरणसे ( उवट, महीधर सायनाचार्य वगेरेने ) वेदके अर्थ किये हैं वा करते हैं सो "पाणिनीऋषि" कृत "अष्टाध्यायी" ग्रंथ हे सो तो "रामचंद्रनीके पीछे बनी है" यह बात उस अष्टाध्यायीके सूत्रोंसेही सिद्ध होतीहे; क्योंके उसमें 'गर्ग, 'वामदेव, इत्यादिकी संतानके वास्ते प्रत्यय लिखेहैं; ओर वामदेवता दशरथके समय हुवाह इसलिये राजा रामचंद्रके पिता राजा दशरथ ओर श्रीरामचंद्रके पीछे पाणिनीकृत व्याकरण अष्टाध्याइ ग्रंथ बनाहै ओर पतंजलि ऋषिने उसकेपर महाभाष्य रच्याहे सोभी रामचंद्रजीके हुयेहैं ( इत्यादिक देखो आर्य संवत ग्रंथ) इत्यादि पुरावोंसे अष्टाध्याइ ( जोके वेद ग्रंथका व्याकरण कहाताहै ) रामचंद्रके पीछे बना स्पष्ट है. तथाहि अष्टाध्याइके सूत्रोंसे यहभी सिद्ध होताहे के उसके पूर्व दूसरे व्याकरण प्रचलित थे कयोंके दूसरे व्याकरणोंकी अष्टाध्यायीमें साक्षी है.
( मतांतर भी हे ) इतने लिखनेसे क्या आया के वेद काल समयका आकरण जब हो तब वेदका यथार्थ अर्थ होना संभव हे. ( अष्टाध्याइ) वेद कालसें हजारो किंतु उससे भी अधिक वर्षों पीछे बनीहे अतेव फेरफार होना संभव हे. वात्ते इसी व्याकरणपर आधार नहीं हो सकता अथवा उस समयके वेदार्थहों उसपर विशेष ध्यान देना योग्यहे, परंतु दिलगीरी हे के उक्त दोनों वातें अभीतक
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