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उत्तर-ते पशुवधने बदले बीजी कोइ हिंसारहित क्रिया करी ते पर्व आराधवामां आवे तो तेथी कई बळवान् शास्त्रनी आज्ञानो भंग कर्यो गणाय नहिं पण सारुं छे. एवी हिंसारहित क्रियाओ बराबर गणाय तेवी नीचे प्रमाणे छे, कालीपुराणे-कूष्मांड मिक्षुदंडच, मांसं सारस मेवच, एते बलिसमाः प्रोक्ता स्तृप्तौ छागसमा सदा ॥ साकरकोळु, शेरडीनी कातळी, मांस, सारसपक्षी ए बधाय बलिदान समान कह्यां छे. एओ तृप्तिने विषे निरंतर बकरानी तुल्य छे. रुद्रयामले छागाभावेतु कूष्मांडं श्रीफलं वा मनोहरं वस्त्रसंवेतिं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना. अर्थ-रुद्रयामलमां कयु छे के बकराना अभावे, साकरकोहोळु अथवा सुंदर श्रीफळ तेने लूगडं वींटाळीने छरीवडे छेदवू.
प्रश्न-७ पशुवध करवाने बदले तेनां नाक कानने छेको मारीने ते प्राणिने छूटुं मेली देवामां आवे तो क्रिया पूर्ण थई गणाय के केम?
उत्तर-एम करवू ते ठीक नथी. निषेध छे. एटले नाक कानने छेको करवो ते ठीक नथी. तंत्रांतरे. ओष्टस्य चिबुकस्यापि नेंद्रियाणां तथैवच, रक्तं मांस बलिदाने न दातव्यं कदाचन ॥ अर्थहोठy, नाकन ने इंद्रियोनुं मांस अथवा रुधिर बलिदानमां कोइ वखत आप_ नहीं. छूटुं मेली देवू उत्तम छे अने ते आगळ त्रीजा प्रश्नना खुलासाथी वाकेफ थकुं. त्यारे आवा यज्ञो कोण करे छे? तो विशेष आसुरी संपत्तिवाळा करे छे. एम कृष्ण भगवान् कहे छे. भगवद्गीता अध्याय १६ श्लोक ५ मो. दैवी संपद् विमोक्षाय निबंधायासुरी मता ॥ अर्थ-दैवी संपत् मोक्ष कारणे ने आसुरी बंधन कारणे छे. तथा श्लोक ६ मां कहेल छे के द्वौभूतसौँ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एवच ॥ अर्थ-आ लोकमां देवनी अने असुरनी एवी बे प्रकारनी भूतसृष्टि छे. अध्याय १७ श्लोक ४ यजते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजते तामसाजनाः॥अर्थ-सात्विक जन देवने यजे छे. राजस ते यक्ष राक्षसने अने तामसजन ते भूतगणने यजे छे. अध्याय १६ श्लोक १७ आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजंते नाम यज्ञैस्ते दंभेना विधिपूर्वकम् ॥अहंकार बलंदर्प कामं क्रोधंच संश्रिताः॥ मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषंतोऽभ्यसूयकाः ॥ अर्थ:-कोइ सत्पुरुषे पूज्य करेला नहीं पण पोतेज पोतानी मेळे पूज्य बनी बेठेला, अनम्र, धनथी थयेला मान अने मदवाळा, अहंकार, बल, गर्व, काम अने क्रोधनो आश्रय करीने रहेला अर्थात् अहंकार आदि दुर्गुणोमां बुडेला, सन्मार्गमां चालनारा पुरुषपर दोषनो आरोप करनारा तथा हुं जे बीजाना देहमां चैतन्यांशवडे रह्यो छु तेनो द्वेष करनारा ते उपर कहेला आसुरो जीवो दंभथी मात्र नामनान यज्ञोवडे यजन करे छे. १७-१८ अध्याय १७ श्लोक १० यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् । उच्छिष्ट मपिचामेध्यं, भोजनं तामसप्रियम् ॥ अर्थः-प्रहर पछी निरस, दुर्गंधिवाळ, वासी, जमतां वधेलं, अपवित्र, भोजन (यज्ञमां निषिद्ध के अभक्ष्य ) ते तामस जनने प्रिय छे. अध्याय १६ श्लोक १९-२० तानहं द्विषतः क्रूरा न्संसारेषु नराधमान् ॥ क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥१९॥ आसुरीं योनि मापना मूढा जन्मनिजन्मनि॥माममाप्यैव कौंतेय ततो यांत्यधमांगतिम् ॥२०॥
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