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१०८ ओर गीताका अध्याय ९६ देखो. ) की मूर्तिका जे वर चोर लेगये तब उन्होने अमने पूजारी को भी नहीं जगाया ओर अब न जगाते हैं; ओरको दूर नहीं कर सकते, भोगको नहीं खाते, उनके सेवकनको हिंदू तीनके कहे शत्रु जो मुसलमान उन मूर्तियोंको तोड डालते हैं ओर तोड डालीहे तबभी वे मूर्ति देव आप अपनेको वा अपने पुजारीको नहीं बचाते वा बचायो नहीं, उतेव “जो जैनी पौराणी वगेरे लोक मूर्तिको देव मानते या पूनते है या एसी त्रट सढी रखते हे वे भूलपर हैं या अज्ञानमें पासे हे या स्वार्थी हे" ऐसा स्पष्ट देख पडता हे. पुराण ग्रंथो सिवाय "मूर्ति पूजा या पथ्थरको चेतन मानना या जडको चेतन मानना या उसका चेतन बनजाना" किसी भी प्राचीन आर्य शास्त्रोमें नहीं लिखाहै और मान्या हे षट् शास्त्र या चारुं बेदोमें इसका विधान नहींहे किंतु "वेदोमें जो कोइ ईश्वरो या ईश्वरकी मूर्ति या ईश्वर पूजा या मूर्ति देव हे ऐसा कोइ सिद्ध कर देतो उसको रु. पांच हजारका इनाम देवें" ऐसी जाहेर खबर कलकत्तेके प्रसिद्ध प्रतिष्ठित बाबूने छ वर्षमे पेपरोमें प्रसिद्ध कर रखी हे परंतु अभीतक कोइभी सिद्ध करने को तैयार नहीं हुवा इत्यादि अनेक युक्ति प्रमाण ए अनुभवसे "मूर्तिपूजा या स्वघडत मूर्तिदेव वा पुज्य हे ऐसा मानना, मनाना या पथ्थर प्रतिष्ठा वगेरेसे चेतन हो जाता है ऐसा जानना" समीचीन नहीं हे हमेरे से पूर्वज मानते आये हैं वे क्या अज्ञथे ? (स.) झूठकी रूढी पडगइहे ओर बहोत कालसे सो क्या मान्य हे यवन लोगोंका पीछे चला जीसमें हिंदुओंसे तिगुने मनुष्य हे सो क्यो नहीं मानते वे क्या सब अज्ञहे. मूर्तिकी रसम तो २५०० वर्ष पूर्व नहींथी यह इतिहास ओर प्राचीन ग्रंथ देखनेसे प्रसिद्ध हे अतेव हमेशे से नहीं अतेव प्राचिनोंपर मत देना योग्य नहीं)
इतने लिखनेसें क्या सिद्ध हुवा ? जीसके सामने (देवके सामने) हिंसा करते हे वोह देवी या देवताही नहीं हे तब यही स्वीकार करना पडता हे के "जीसके सामने या जीस स्थलमें हिंसा करते हैं वोह मूर्ति या देव नहीं हे तब उसके सन्मुख हिंसा करना उचित . हे या नहीं? शास्त्रोक्त हे वा नहीं एसी हिंसा बंध करनेवालेने शास्त्र मर्यादा उल्लंघन करी या नहीं ? इत्यादि" पत्र लिखित प्रश्नही नहीं बनते तब उत्तरही क्या लिखें इसी सत्रबसे पत्र लिखित प्रश्नके उत्तरमें समय गंवाना व्यर्थ समजकर उदासीन हुं ( यहि मूर्ति पूजा, देव ओर हिंसाके संबंधमें विशेष देखना होतो भ्रम नाशक ग्रंथ धर्मपुरमें मिलता हे ) ओर पुरुषार्थ प्रकाश (यहरांथ हियासत शाठपुरा इलाके अजमेर देश मेवाडकी आर्य समाजमे मिल शकता हे.) ग्रंथमे सविस्तर शास्त्रोंके प्रमाण पूर्वक लिखा हे वहां देखलो. अतेव राजा या हरकोइ पत्र लिखित हिंसाजो करते वा कराते हैं वा निरपराधी उपयोगी जीवोंको दुःख देते वा मारते हे; वे अनीतिपर हे; तथा जो सामर्थ्यवान् हो ओर एसी अनीतिका बंध नहीं करे तो वोह अनीतिका सहायक हे एसा में मानता हूं. निरपराधी जीवको उस जड मूत्तिके सामने क्या सफल हे ? इस प्रश्नका यथार्थ ओर पूर्ण उत्तर वे हिंसक नहीं दे सकते. किंतु स्वार्थ सिवाय कोइ उत्तरही नहीं दे. यही आर्योमेंसे कोइ एसे कहे के देवके सामने वा यज्ञमे
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