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इस रांतीसे स्वधर्म प्रतिपादन करके हिंसाका अत्यन्त निषेध श्रीकृष्णपरमात्मा कहेता है ॥३॥
प्रश्न ४ का उत्तरराजाका खरा कर्तव्य ये है के आपणे शत्रकुं जितणेंका उद्यम करना, और स्वधर्म युक्त कर्म करके सर्वकर्म करके ईश्वरार्पण करना, कर्म फलमें मासक्त न होना, साक्षीभूत रहेके और अद्वैत जानके, सर्वदा, सर्व प्रकार, सर्वकाल, सत्स्वरूपमें स्थीत रहना और प्रजाके व्यवहारका गुणदोष भापणे सीर नहीं मानलेना. सर्यवत् भलिप्त रहना और यथाप्राप्त जो स्वधर्माचार है सो ऐसा कर्तव्य जो करे उसने श्रेष्ठशास्त्र और सर्व शास्त्रोंकी आज्ञा पाली ऐसा सिद्धान्त है. प्रमाण गीता अ. ३ श्लोक १७.
तस्मादसतः सततं कार्य कर्म समाचर असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरूषः
प्रश्न ५ का उत्तर- ये हिंसा न करनेसे राजाकुं या प्रजाकुं कोई तरेहकी उपाधी उत्पन्न न होवेंगी. क्यों की ये हिंसा बेद उक्त नहीं है करीक तुमने प्रजाके नैमित्तिक व्यवहार के गुण दोष मापने माथे मार ले के भय रखना नहीं. और हिंसा न होनेसे शास्त्रबाह्य आचरण हुवा एसा त्रिकाल होनेका नहीं ये सिद्धान्त है.
प्रश्न ६ का उत्तरदशराके निमित्तसें जो हिंसा करते है वो, महामूर्ख है. क्योंकी आश्विन शुद १० मीकुं दशरथका पितामह जो रघुराजा सो ब्राह्मणकी दक्षिणा दिने निमित्य अमरावती जीतनेको नीकला. तो इन्द्रने घबराके कुबेरकुं कहकर आयुध्यामे सुवर्णका वर्षाव कीया तब युद्ध न होके रघुराजा जय लेके आया. उस दिनसे विजयादशमी चली है. ये आपकु संक्षिपका संक्षिप्ते एसा दशरेका. महिमा सुनाया है. और दुसरा कारण विजयादशमीका नहीं है. एसा होकर इस रोज जो हिंसा करते है सो मूर्ख है. और जो फलाचारके निमित्तसे, और ननसके निमित्तसे, और सप्तस्मार्त यज्ञ निमित्यसे जो हिंसा न करे भातके कणका पशु बनावे;
और इसका शेष प्रसाद खावे और सच्चे पशुका आलभ न करे अर्थात् हृदयका स्पर्शमात्र. करे तो ऐसी क्रिया करनेसे सब क्रिया बरोबर होती है और बेदकी आज्ञा पाली जाती है...
. प्रमाण-ऋग्वेदमें भाश्वलायन शाखाके दुसरे पंचककें भाठमे खंडमे मेध्यअमेष्यकाविकार करके शाल्योदनका यज्ञके उसका पुरोडाश (शेष प्रसाद.).लेना ऐसा करो है।
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